Wednesday, August 23, 2023

चांद पर पाखाना

जिनको शीर्षक गंदा लग रहा हो, आगे न पढ़ें. पर क्या करें, अपना टीवी न्यूज़ मीडिया अच्छे-भले संजीदा मसले का भी कचरा कर देता है. भूकंप से लेकर चंद्रयान-मंगलयान सब पर एक ही राग. छोटका से लेकर बड़का तब सारे चैनलों पर एक जैसा मसाला चल रहा है.

पर क्यों न चले. देश का उत्सव है, देश की तरक्की का उत्सव है. और तमाशा जैसा लग रहा है तो होना भी चाहिए.
पर इस तमाशे में कई लोगों के पोस्ट बदमजगी पैदा कर रहे हैं. और ऐसे-वैसे लोग नहीं हैं, जहीन और बुद्धिजीवी किस्म के लोग हैं. पर आप कहीं जाइएगा मत. चांद पर पाखाना वाली बात करेंगे हम.

वैसे कुछ लोग चांद पर झंडा, झंडे पर चांद वाला फिकरा कस कर भारत की कामयाबी को एक अलग कोण से देख रहे हैं, पर यह देश की इस विशाल कामयाबी को छोटा करना होगा. टाइम लाइन पर स्क्रॉल करते समय किसी ने कहा कि पाकिस्तान ने इसरो को बधाई दी है और हम लोग पाकिस्तान नीचा दिखा रहे हैं.

अब यह बात सौ फीसद सच है कि हिंदुस्तान का मुकाबला किसी असफल और कंगाल राष्ट्र से नहीं किया जाना चाहिए, जिसको खुद नहीं पता कि भारत को क्षति पहुंचाने के बददिमाग इरादे के अलावा उसका दुनिया में आखिर अस्तित्व है भी तो क्यों है? तो ऐसे पाकिस्तान के बधाई संदेश को भी संदेह से ही देखना होगा और देखा जाना चाहिए.

पर कहा न, तमाशे के बीच अपनी पींपनी अलग फूंकने का भी अलग ही मजा है. पर अपनी असली बात तो चांद पर पाखाने की है.

असल में किसी ने कहा है, “ए लॉट ऑफ पीपल बिकम अनएट्रैक्टिव वन्स यू फाइंड आउट व्हॉट दे थिंक.” सोच का पता चलते ही बहुत सारे लोग अनाकर्षक लगने लगते हैं.

मुझे सोशल मीडिया पर पोस्ट्स पढ़ने और अलग किस्म की शख्सियत बनाने के मारे बहुत सारे लोग अनाकर्षक और भद्दे लगने लगे हैं. जाहिर है, वह निजी रूप से टन टना टन होंगे पर सोशल मीडिया पर उनकी प्रोफाइल किसी न किसी पेशेवर दवाब में होगी. खैर. बात चांद पर पाखाने की.

पर चंद्रयान 3 जब लॉन्च हुआ था तब बिहार में रहने वाले एक पूर्व आइपीएस अधिकारी ने दुखी होकर लिखा था कि चांद पर राकेट भेजकर देश को क्या मिलेगा? और चांद को शायरों के लिए छोड़ देना चाहिए. मुझे तब उनकी बात से खीज से ज्यादा दुख हुआ कि अपनी ऐसी सोच के साथ उन्होंने लंबे समय तक प्रशासन चलाया होगा.

और ऐसे लोग आज सफल लैंडिंग के लिए देशभर में की जा रही पूजा प्रार्थना, दुआ-नमाज को गलत बता रहे हैं. उनको अब वैज्ञानिक सोच की चिंता हो रही है. सिर्फ चिंता ही नहीं हो रही है, बल्कि वे लोग भयंकर रूप से दुबले हुए जा रहे हैं और डॉक्टरों ने कहा इतनी चिंता से उनकी चतुराई घटती जा रही है.

यार इतनी अंट-शंट बातों में दिमाग फिर गया है कि चांद पर गू (आई मीन पाखाना) की बात रह जा रही है.
सोशल मीडिया पर लोग अंट-शंट लिखते ही हैं. बहरहाल, एक जहीन शख्स ने लिखा कि नमाज-पूजा वगैरह की जरूरत ही क्या थी. बल्कि देश को वैज्ञानिकता का जश्न मनाना चाहिए. इस मरदे ने, उस पूर्व आईपीएस की उस पोस्ट पर दिल बनाया था, जिस में उन पूर्व अधिकारी ने चंद्रयान लॉन्च को निरर्थक बताया था.

खैर, जब चंद्रयान-2 लॉन्च होने वाला था तो मेरे एक मित्र ने (नाम लेना समुचित नहीं) इसरो के चेयरमैन की तिरुपति मंदिर जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. साथ में उनकी टिप्पणी का मूल भाव था कि एक वैज्ञानिक मंदिर कैसे जा सकता है!

असल में, कथित उदारवादियों को किसी वैज्ञानिक के मंदिर (या मस्जिद, दरगाह आदि) जाने पर बहुत हैरत होती है. वहां उनके लिए चॉइस का विकल्प सीमित हो जाता है. स्थिति यह है कि वाम विचारक इस बात पर हमेशा हैरत जताते हैं कि एक वैज्ञानिक या डॉक्टर या इंजीनियर, एक ही विषय के बारे में वैज्ञानिक नजरिए के साथ ‘धार्मिक’ भी कैसे हो सकता है!

असल में, हमें यह सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक होने का मतलब उद्देश्यपरक होना है. यह उद्देश्यपरकता लोगों को खालिस वस्तुनिष्ठ बनाती है यानी दुनिया को एक मानव के रूप में या मनुष्यता के तौर पर नहीं देखने का गुण विकसित करना ही नहीं, बल्कि खुद को एक अवैयक्तिक पर्यवेक्षक के रूप में तैयार करना भी.

वैसे, ज्यादातर मामलों में यह हैरत सिर्फ मंदिर जाने पर जताई जाती है.

पर मुझे नहीं लगता कि विज्ञान के मामले में धर्म के अस्तित्व से डरना चाहिए. धर्म की अपनी स्थिति और अवस्थिति है, विज्ञान की अपनी. वैज्ञानिक सोच को अपनाना है तो आपको जीवन में उसे हर क्षेत्र में अपनाना होगा. विज्ञान इस मामले में निर्दयी होने की हद तक ईमानदार है.

पर, विज्ञान की आड़ में धर्म पर फर्जी एतराज जताने वाले लोग न तो वैज्ञानिक सोच वाले हैं और न ही, उनको विज्ञान में कोई आस्था है.

देखिए, दूसरों की बात में मैं पाखाने जैसी जरूरी बात कैसे भूल जा रहा हूं. वह भी धरती वाली नहीं, चांद पर पाखाने की.

आपको याद होगा कि चांद पर अपोलो 11 को गए 50 साल हो गए हैं. नील आर्मस्ट्रांग के कदमों के निशान तो अब भी चांद पर हैं जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया होगा. काहे कि चांद पर न तो हवा है न अंधड़-बरसात.

लेकिन इस पदचिन्ह से भी बड़ी (और बदबूदार) निशानियां इंसान चांद पर छोड़ आया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इंसानों ने छह अपोलो मिशनों से पाखानों से भरे 96 बैग चांद की राह (ऑर्बिट) में फेंके हैं और इनमें से कुछ चांद पर भी पड़े हैं. तो अंतरिक्ष में, इंसान की गैरमौजूदगी में भी उसकी निशानियां (पता नहीं अब किस रंग की होंगी, और बदबू तो खैर हवा ने होने से फैलती भी नहीं होगी, पर गू तो गू है भई.) उसके आने की गवाही चीख-चीखकर दे रही हैं.

अच्छा चलते-चलते चांद पर इब्न-ए-सफ़ी का लिखा सुंदर-सा शेर याद आ रहा है

चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती

...और ये बात, विक्रम लैंडर को पता चल गई होगी.

Sunday, June 18, 2023

मेरा पहला उपन्यास गर्भनाल

एक अच्छी खबर शेयर करनी है. बहुत लंबे समय से प्रतीक्षा थी, वह क्षण आ गया है. मेरा पहला प्रिंट उपन्यास गर्भनाल बस आ रहा है. यह उपन्यास अभिजीत और मृगांका की प्रेम कहानी तो है ही, यह उस प्रेम को अलग स्तर पर ले जाती है. यहां जड़ों की तलाश में निकले नायक अभिजीत को मिलता है मृगांका का साथ. 

कैसे, इसका उत्तर आपको उपन्यास में ही मिलेगा. ऐसे दौर में, जब लंबी रेखीय कहानी को भी उपन्यास कहा जाता है. गर्भनाल को मैंने औपन्यासिक शैली में लिखने की कोशिश की है, जिसकी कथा अरेखीय और बहुस्तरीय है. 

इस किताब को आपके प्रेम और स्नेह की आवश्यकता है.


यह उपन्यास ईसमाद प्रकाशन ने प्रकाशित किया है और यह अमेजन, फ्लिपकार्ट, दिनकर पुस्तकालय, पोथीघर और ईसमाद के वेबसाइट के जरिए खरीदा जा सकेगा. 20 जून से यह ऑनलाइन उपलब्ध होगा. लिंक कल शेयर करुंगा.

उपन्यास की कीमत 399 रुपए मात्र है. 

#Garbhnaal #गर्भनाल 



Wednesday, June 7, 2023

लोकसभा चुनाव 2024- पश्चिम बंगाल में बिछ गई जातीय बिसात, कुर्मी और संताल आदिवासी आमने-सामने

पश्चिम बंगाल (West Bengal) में लगता है लोकसभा चुनाव (Loksabha Election 2024) की तैयारियां ग्यारह महीने पहले से शुरू हो गई हैं. और इस बार पहल सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) ने की है. असल में, पश्चिम बंगाल (West Bengal) के कुर्मी समुदाय (Kurmi) ने आरोप लगाया है कि राज्य में संताल जनजातीय समुदाय को उनके खिलाफ भड़काया जा रहा है और यह साजिश प्रशासन की है.

गौरतलब है कि कुर्मी समुदाय (Kurmi) के लोग पश्चिम बंगाल (West Bengal) में अनुसूचित जनजाति के दर्जे के लिए इन दिनों प्रदर्शन कर रहे हैं. कुर्मी नेता अजीत महतो ने कहा एक न्यूज एजेंसी को बताया, “आदिवासी समुदाय के लोगों को हमारे खिलाफ भड़काने की साफ साजिश है. इस साजिश के पीछे प्रशासन है. इस साजिश के पीछे मुख्य दिमाग कोलकाता से चल रहा है.”

हालांकि, उन्होंने कोई नाम देने से इनकार कर दिया.


कुर्मी जाति (Kurmi) के लोगों और राज्य सरकार के बीच कुछ समय से तनाव बढ़ रहा है. पहले एसटी दर्जे की मांग को लेकर लगातार विरोध कार्यक्रम आयोजित किए गए और फिर हाल ही में तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी के काफिले पर हमला हो गया. इससे तनाव चरम पर पहुंच गया है.

आरोप लगाए जा रहे हैं कि कथित तौर पर इस हमले के पीछे कुर्मी समुदाय (Kurmi) के लोगों का हाथ था. उस हमले में बनर्जी के काफिले में चल रहे पश्चिम बंगाल के मंत्री बीरबाहा हांसदा के वाहन को क्षतिग्रस्त कर दिया गया था. इधर, संताल समुदाय से आने वाली मंत्री हांसदा ने उस समय हमलावरों के खिलाफ तीखा हमला किया और अंत तक अंजाम भुगतने की धमकी भी दी.

मामले में अब तक पुलिस ने तीन शीर्ष कुर्मी (Kurmi) नेताओं समेत कुल 11 लोगों को गिरफ्तार किया है. महतो ने कहा कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के समर्थन में आंदोलन जारी रखने के अलावा गिरफ्तार किए गए कुर्मी नेताओं की रिहाई की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन आने वाले दिनों में और उग्र होगा.

महतो ने कहा, प्रदर्शन के तहत सांसद व विधायक जैसे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के आवास तक बाइक रैली निकाली जाएगी. हम राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के आगामी चुनावों के लिए जल्द ही अपनी रणनीति को अंतिम रूप देंगे. हम अपनी मांग को पूरा करने के लिए अंत तक लड़ेंगे.

जो भी हो, जातीय द्वेष के आधार पर बंगाल में आगामी लोकसभा चुनाव (Loksabha Election 2024) काफी दिलचस्प होने वाला है क्योंकि तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) के पास पहले ही मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव है. यह पिछले विधानसभा चुनाव 2021 में स्पष्ट दिखा था.

जिस बंगाल (West Bengal) की राजनीति को वर्गीय चेतना की राजनीति का गढ़ माना जाता था वहां अब पहले धार्मिक और अब जातीय विभेद राजनीति की दिशा तय करेंगे.

Tuesday, May 30, 2023

यार ! धोनी भी इमोशनल होते हैं

हम बचपन से इस गलतबयानी पर यकीन करते आए हैं कि भावुकता कमजोरी की निशानी है. पराजय के बाद गुस्से से बल्ला पटकना और जीत के बाद हवा में मुट्ठियां लहराना, हल्के-फुल्के खिलाड़ियों के लक्षण हैं, लेकिन महेंद्र सिंह धोनी के नहीं.

लेकिन, आइपीएल के फाइनल में जीत का मौका ऐसा आया कि धोनी भी जज्बाती हो उठे. आखिरी दो गेंदों में दस रन चाहिए थे और जाडेजा ने वह असंभव कर दिखाया. इस जीत के बाद, धोनी ने जाडेजा को गले से लगाया और फिर गोद में उठा लिया. और कैमरा जूम होकर जब धोनी के चेहरे पर फिक्स हुआ तो पता चला कि धोनी की आंखें नम हैं. यह दुर्लभ क्षण था.


जीत के बाद भी सामान्य बने रहने में धोनी को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वह इकलौता भारतीय है अभिनव बिंद्रा. क्रिकेट में शांत बने रहने की जरूरत नहीं होती, उसके बावजूद धोनी ने अपने धैर्य से अपनी शख्सियत को और आभा ही बख्शी है. 

जाडेजा को गले से लगाने के बाद क्षणांश के लिए भावुक हुए धोनी एक बार फिर से अपने मूल अवस्था में लौट आए और ट्रॉफी लेने के लिए जाडेजा और रायुडू को आगे भेज दिया. सेनानायक ने एक बार फिर जीत के बाद खुद नेपथ्य में रहना चुना. उस्ताद रणनीतिकार ने जीत का श्रेय एक बार फिर हरावल दस्ते को दे दिया.



यह एक परिपक्व और स्थिर मस्तिष्क का संकेत है, जो इस बात को समझता है कि कामयाबी कोई एक बार में बहक जाने वाली चीज नहीं, इसे लगातार बनाए रखना पड़ता है. ऐसे लोग अतिउत्साहित नहीं होते. वे अपनी खुशी को अपने तक रखते हैं, इस तरह औसत लोगों से ज्यादा उपलब्धियां हासिल करते हैं. उन्होंने हमेशा आलोचकों का मुंह बंद किया है और सीनियर खिलाड़ियों से अपनी बात मनवाई है. उन्होंने छोटे शहरों की एक समूची पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम किया है. धोनी की कहानी शब्दों में बयां करना आसान नहीं. उनकी पारी अब भी जारी है. (उन्होंने कल कहा भी)

पहले एक किस्साः बात थोड़ी पुरानी है. एक दफा धोनी नए खिलाड़ियों को क्रिकेट प्रशिक्षक एम.पी. सिंह से बल्लेबाजी के गुर सीखता देख रहे थे. बता रहे थे कि कैसे बैकलिफ्ट, पैरों का इस्तेमाल और डिफेंस करना है. सत्र के बाद उन्होंने क्रिकेट प्रशिक्षक एम पी सिंह से कहा कि वे दोबारा उन्हें वह सब सिखाएं. सिंह अकचका गए. उन्होंने कहा, ''तुम इंडिया के खिलाड़ी हो, शतक मार चुके हो और ये सब अब सीखना चाहते हो? धोनी ने सहजता से कहा, ''सीखना जरूरी है, कभी भी हो.” जाहिर है, खेल धोनी के स्वभाव में है और क्रिकेट उनके लिए पैदाइशी बात है.

फिल्म धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी का वह दृश्य याद करिए, जब अपनी मोटरसाइकिलों की देख-रेख करते वक्त धोनी वह चीज हासिल कर लेते हैं, जो उनको कामयाब होने से रोक रही थी. धोनी रक्षात्मक खेल के लिए नहीं बने हैं. यही बात फिल्म में भी उनसे कही गई थी, और यही बात शायद धोनी ने इस बार समझ भी ली, पर इस दफा तरीका अलहदा रहा.

बढ़ती उम्र का तकाजा था कि उन्हें अपनी टाइमिंग पर काम करने की जरूरत थी. धोनी ने अपने बल्लों (वह अमूमन अपनी पारियों में दो वजन के अलग-अलग बल्लों का इस्तेमाल करते हैं) के वजन को कम कर लिया. इसी से उनकी टाइमिंग बेहतर हो गई. और शायद इस वजह से धोनी इस बार के आइपीएल में वही शॉटस लगा पाए हैं, जिसके मुरीद हम सभी रहे हैं.

आपको 2004 के अप्रैल में पाकिस्तान के खिलाफ विशाखपट्नम के मैच की याद है? नवागंतुक और कंधे तक लंबे बालों वाले विकेट कीपर बल्लेबाज महेंद्र सिंह धोनी ने पाकिस्तानियों को वॉशिंग पाउडर से धोया और 123 गेंदों में 148 रन कूट दिए थे. फिर तो आपको 2005 के अक्टूबर में जयपुर वनडे की भी याद होगी, जब श्रीलंका के खिलाफ धोनी ने 145 गेंदों में नाबाद 183 रन बनाए थे. पाकिस्तान के खिलाफ 2006 की फरवरी में लाहौर में नाबाद 72 रन की पारी हो, या फिर कराची में 56 गेंदों में नाबाद 77 रन.

यहां तक कि 2011 विश्व कप फाइनल में भी आखिरी छक्का उड़ाते धोनी का भावहीन चेहरा आपके चेहरे पर मुस्कुराहट ला देता होगा.

इस बार के आइपीएल में महेंद्र सिंह धोनी भले ही कम गेंदें खेलने के लिए आते थे—कभी-कभी तो महज दो गेंद—लेकिन वह अपने पुराने अवतार में दिखे. इस बार उन्होंने ऐसे छक्के उड़ाए जैसे उस्ताद कसाई चापड़ (बड़ा चाकू) चलाता है. इस बार के आइपीएल में धोनी के आते ही जियोसिनेमा पर लॉग इन करने वाले लोगों की संख्या लाखों की तादाद में बढ़ जाती थी. स्टेडियम में धोनी के आते ही हजारों की संख्या में मोबाइल की बत्तियां रोशन हो उठती थीं. लोग धोनी के विकेट पर आने के लिए जाडेजा के आउट होने की प्रार्थना करते थे. लेकिन, जाडेजा... उफ्. उनकी इस बार की गाथा भी अद्भुत रही.

सीजन की शुरुआत मे जाडेजा लय में नहीं थे. दो मैच पहले बुरी तरह पिटे जाडेजा को कप्तान धोनी ने कुछ कहा भी था और सोशल मीडिया पर लोग इसबात को लेकर उड़ गए. जाडेजा ने एक बार कहा भी थाः लोग उनके आउट होने की प्रार्थना करते हैं. पर जाडेजा ने बुरा नहीं माना क्योंकि सम्राट जब स्वयं युद्ध भूमि में उतर रहे हों तो सिपहसालारों के लिए को-लैटरल डैमेज अनहोनी बात नहीं.


बहरहाल, उम्र के चौथे दशक में चल रहे अधेड़ धोनी के हाथों में हरक्यूलीज वाली ताकत अभी भी बरकरार है. और इस बार धोनी ने उस ताकत का बखूबी इस्तेमाल किया.

हेलीकॉप्टर शॉट लगाने वाले धोनी ने खुद को इस बार रॉकेट की तरह स्थापित किया है. शुभमन गिल को स्टंप करने में चीता भी पीछे रह जाता. धोनी ज्यादा तेज साबित हुए.

अब भी कमेंटेटर उनकी तेज नजर को धोनी रिव्यू सिस्टम कहकर हैरतजदा हो रहे हैं, तो कभी धन धनाधन धोनी कहकर मुंह बाए दे रहे हैं. कभी उनको तंज से महेंद्र बाहुबली कहने वाले सहवाग जैसे कमेंटेटर भी खामोश हैं. खामोश तो धोनी भी हैं, पर इस बार उनके बल्ले से जैज़ के धुन निकले हैं.

धोनी का नायकत्व अभी भी चरम पर है, शायद पहले से कहीं ज्यादा. यह एक ऐसा तिलिस्म है जिस से निकलने का जी नहीं करता.

कल रात धोनी भावुक थे, जब धोनी रिटायर होंगे तो उनके सभी प्रशंसक और पूरा देश भावुक होगा.

Sunday, May 7, 2023

ब्रिटेन के राजा की ताजपोशी पर लहालोट मत होइए, हमें लूटकर अमीर बना है ब्रिटेन

बड़ी ठसक से ताज पहन लिया नए लेकिन बुढ़ा चुके सम्राट ने. लेकिन यह सब सोने-चांदी के खजाने, मुकुट और उसमें लगे हीरे-जवाहरात हिंदुस्तान और इस जैसे देशों की लूट का माल है. इस राज्यारोहण पर लहालोट होने की बजाए लानत भेजिए. यह सोना नहीं, हिंदुस्तान के गरीबों का, जुलाहों का, किसानों का खून है.

आंकड़े बताते हैं कि अंग्रेजों ने 1765 से 1938 तक भारत से करीब 45 ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति लूट ली. चार साल पहले अर्थशास्त्री उत्सव पटनायक ने एक अध्ययन में अंग्रेजी की लूटपाट का ब्योरा दिया था जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने प्रकाशित किया था.

इतने बड़े पैमाने पर पैसा देश से बाहर व्यापार के माध्यम से गया जिसे अंग्रेज मनमाने तरीके से चलाते थे. 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के साथ भारत का व्यापार अंग्रेजों की मुट्ठी में आ गया.

भारत से व्यापार करने के लिए किसी भी विदेशी को 'काउंसिल बिल' का इस्तेमाल करना होता था. यह 'पेपर करेंसी' सिर्फ ब्रिटिश क्राउन से मिलती थी. इसे हासिल करने के लिए लंदन में सोने और चांदी के बदले बिल लिए जाते थे.
भारत के व्यापारी जब इन्हें ब्रिटिश हुकूमत के पास कैश करवाने जाते थे तो उन्हें रुपयों में भुगतान मिलता था. ये वही पैसे थे जो टैक्स के रूप में व्यापारियों ने अंग्रेजों को दिए थे. एक बार फिर अंग्रेजों की जेब से कुछ नहीं जाता था और उनके पास सोना-चांदी भी आ जाता था. देखते-देखते 'सोने की चिड़िया' का घोंसला उजड़ गया.

इस अध्ययन के मुताबिक, भारत से लूटे गए पैसों का इस्तेमाल ब्रिटेन कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के विकास के लिए करता था. आसान शब्दों में कहें तो भारत के खजाने से न सिर्फ ब्रिटेन बल्कि कई अन्य देशों का भी विकास हुआ. 190 साल में ब्रिटेन ने भारत के खजाने से कुल 44.6 ट्रिलियन डॉलर चुराए. यही कारण है कि ब्रिटेन तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया और भारत संघर्षों में फंसा रह गया.

चोरी और लूट के माल से विकसित हुए देशों के साथ मेरी कोई सदिच्छा या सहानुभूति नहीं है.



Tuesday, April 25, 2023

वेब सीरीज जुबिली का मीन-मेख

इससे पहले कि आप मेरी तरफ से जुबिली की मीन-मेख पढें, पहली बात, जुबिली देखी जा सकती है. सीरीज अच्छी है. लेकिन...

यह लेकिन शब्द जो है, वह आगे कई मीन-मेखों, छिद्रान्वेषणों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. तो जिनको जुबिली बहुत पसंद आई हो, वे लोग आगे न पढ़ें. जिनको परपीड़ा से सुख मिलता है, पढ़ते रहें. जुबिली भले ही फिल्मों की कहानी से जुड़ी है, पर यह धीमी है, और यह आपको उदासियों से भर देगा.

दूसरी बात, (पहली बात मैंने पहली लाईन में ही कह दी है) कि किसी भी सीरीज को सिर्फ इसलिए नहीं देखा जा सकता है, या देखा जाना चाहिए कि निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणी है. बेशक, मोटवाणी पाए के निर्देशक हैं. काम सलीके से करते हैं. लेकिन...

लेकिन, जुबिली में कई लूप होल्स निर्देशक महोदय ने छोड़े हैं. फिल्मों पर आधारित सीरीज को जरूरत से ज्यादा फिल्मी बनाना हो, और कई चीज को तो इतनी बार दोहराया गया है कि ऊबाऊ होने लगती है चीजें.



मसलन, मदन कुमार के स्क्रीन टेस्ट को इतनी बार दोहराया गया है कि फॉरवर्ड करके देखना पड़ा. पहले एपिसोड में एक ऊबाऊ मुजरा भी है. पूरी सीरीज में संवाद भारी भरकम हैं कई बार संगीत कर्णप्रिय नहीं, बोदा भी लगता है. लेकिन...

लेकिन, जब तक आप जुबिली देखते हैं आप इसके किरदारों के साथ रहते हैं. हर किरदार को देखकर मन में एक सवाल तो उठता है, अरे ये किस के जैसा गढ़ा गया है या असल जिंदगी में यह है कौन? देविका रानी? अशोक कुमार? हिमाशु राय? देव आनंद या राज कपूर? नरगिस या सुरैया?

इस सीरीज में आपको कुछ बेहतरीन अदाकारी देखने को मिलेगी. इसलिए इसको एक ही रात में बिंज वॉच करके बदमजा न करें. बढ़िया से चबा-चबाकर खाएं. लेकिन...

लेकिन, आपने मोटवाणी की लुटेरा देखी है तो आपको जुबिली वैसी ही लगेगी. वैसे ही धीमे-धीमे एक आदमी के कत्ल की कहानी खुलती है और मदन कुमार उर्फ अपारशक्ति खुराना की दुविधा नजर आती है. अपारशक्ति खुराना ने बढ़िया अभिनय किया है. बढ़िया इसलिए क्योंकि वह अब तक इस तरह के गंभीर किरदार में नजर नहीं आए थे. लेकिन..

अपार शक्ति खुराना पहले कुछ एपिसोड में तो गंभीर और एकरस किरदार में ठीक लगते हैं पर बाद में बोरिंग लगने लगते हैं. उनकी किरदार पर लेखक को थोड़ा और काम करना चाहिए था. बिनोद दास के किरदार को बनाकर लेखक और निर्देशक ने उसको अनाथ छोड़ दिया. प्रसेनजीत अपने किरदार के हर फ्रेम में शानदार लगे हैं. लेकिन...

काश कोई अदिति राव हैदरी को समझा पाता कि आदमी (इस केस में अभिनेत्री) के मुखमंडल पर दुई ठो भाव ही नहीं रहते. एक होंठ आपस में चिपके हुए और दूसरा चवन्नी भर होंठ खुले हुए. लकड़ी जैसा फेस (फेस सुंदर है, भाव के अर्थ में कह रहे हैं) बनाकर कैसे एक्टिंग की है इनने? कास्टिंग किसने की है मुकेश छाबड़ा ने? लेकिन...

अदिति राव हैदरी के बर्फ की सिल्ली जैसी अदाकारी के सामने वामिकी गब्बी ने क्या जोरदार अभिनय किया है. अब आप गेस करते रह जाएंगे कि यह नरगिस है या सुरैया! उसी तरह जय खन्ना के किरदार में सिद्धांत कभी देव आनंद तो कभी राज कपूर बनने की कोशिश करते हैं. पर चालढाल से वह देव साहब जैसे ही दिखते हैं. लेकिन..
लेकिन आज आप लिखकर रख लीजिए, यह बंदा आगे बड़ा नाम करेगा. इसमें संभावनाएं बहुत हैं. इसमें स्टार बनने की क्षमता है. ऐसा इसलिए क्योंकि बंदे ने अपने हर जज्बात दिखाए हैं. खुशी, उदासियां, आंसू, नाच, खिलखिलाहट. सिद्धांत अभी करियर के शुरुआती दौर में ही हैं. इस लिहाज से उनका काम उम्दा है. लेकिन...

जुबिली के बारे कई समीक्षकों ने भांग खाकर तगड़ी राइटिंग बताई है. भक्क. आपको लूप होल बताता हूं. जमशेद खान का मेकअप मैन, उसके कत्ल के बाद उससे जुड़े सामान इकट्ठे करता है. कहां और कैसे? लेखक उसको सीधे मुंबई ले आता है. कैसे? चलिए बंदा न्याय के लिए बंबई आता है, पर उसके बाद उसको फोन की रिकॉर्डिंग सुनते हुए दिखाया जाता है वह भी रूसी जासूसों के साथ. कैसे?

यह सही है कि लेखकों को कुछ भी लिखने की छूट होती है. लेकिन...

जुबिली का कालखंड 1947 से 1953 का है और उसमें सिनेमास्कोप की बात होती है. लगभग ठीक ही है क्योंकि भारत में सिनेमास्कोप की पहली फिल्म कागज के फूल थी जो 1959 में रिलीज हुई थी. लेकिन...

आप को ध्यान देना चाहिए कि दुनिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म द रोब थी, जो 1953 में रिलीज हुई थी. शायद अमेरिकी में इस तकनीक के आने से पहले ही भारत में यह तकनीक मोटवाणी जी ले आए हैं.

राम कपूर ने कमीने किस्म के फाइनेंसर के रोल में बहुत प्रभावित किया. वह एक तरह से फिल्मी दुनिया के आलोक नाथ होते जा रहे थे. यह वैराइटी बढ़िया लगी. उनके किरदार को लेखक ने गहराई नहीं दी.

सेट-फेट, सिनेमैटोग्राफी तो बढ़िया है लेकिन आपको एक राज की बात बताऊं. इस्मत चुगताई का एक उपन्यास है, अजीब आदमी. मोटे तौर पर देवानंद और गुरुदत्त के जीवन से किरदार उठाए हैं उसमें इस्मत आपा ने. बेहतरीन उपन्यास है. जुबिली में जय खन्ना का किरदार उपन्यास के धर्मदेव से मिलता है और फाइनेंसर वालिया का किरदार उपन्यास के निर्माता किरदार वर्मा से.

कसम से, पढ़कर देखिएगा उपन्यास.

हो सकता है कि आने वाले सीजन में वर्मा जी ओह सॉरी, वालिया साहब का किरदार किसी हीरोईन के धोखे का शिकार होकर दिवालिया हो जाए, उपन्यास में ऐसा इच हुआ था. साहित्य का ऐसा प्रेरणा के रूप में ऐसा इस्तेमाल भी करते हैं फिल्म वाले. लेकिन...

मदन कुमार को पूरी सीरीज में 967 बार बहनचोद कहा गया है. ऐसा क्यों? एकाध बार तो ठीक है, वेबसीरीज को सर्टिफिकेट ही गालियों से मिलता है इसलिए मान लेते हैं. पर हर किसी के मुंह से मदन कुमार को गाली दिलवाई है मोटवाणी ने.

यह बात कुछ जमी नहीं. इसलिए जुबिली देखिए जरूर लेकिन....

Tuesday, April 4, 2023

पुस्तक समीक्षाः अभिषेक श्रीवास्तव की किताब कच्छ कथा बताती है कच्छ संस्कृति के बेशकीमती ब्योरे और सांप्रदायिक सौहार्द के अनसुने किस्से

बहुत सारे लोग कच्छ घूमने नहीं जा सकते. लेकिन अगर शब्दों के सफर पर कच्छ को देखना हो, तो अभिषेक श्रीवास्तव की एथ्नोग्राफिक यात्रा आख्यान ‘कच्छ कथा’ इसके लिए बिल्कुल मुफीद किताब है. कच्छ की धरती ने पिछली दो सदियों में कम से कम दो भीषण और भयावह भूकंपों का सामना किया है. और यह किताब उन भूकंपों के कच्छ की तहजीब पर पड़े प्रभावों को परत दर परत उधेड़ती है.

एक तरह से कहें तो आपने अगर 'कच्छ कथा' पढ़ी तो लेखक आपको एक ऐसी धरती के सफर पर लिए चलते हैं, जहां आप कभी गए नहीं और अगर गए हों तो केवल आवरण देखकर आए गए हों.

अभिषेक घुमंतू स्वभाव के पत्रकार हैं और पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त के दौर में उन्होंने कई बार कच्छ की यात्रा की है और इस तजुर्बे के साथ वह कच्छ की सीवन उधेड़कर रख देते हैं. इस किताब में बारीक ब्योरे हैं, लोगों के बारे में विवरण है और ऐसी अनसुनी कहानियां हैं, जो मुख्यधारा में आता ही नहीं.

कच्छ का भूगोल सामने से कुछ नजर आता है लेकिन किताब जब ब्योरे देते हुए आग बढ़ती है तो आप उसमें खोकर एक नई दुनिया के सफर पर निकल पड़ते हैं. मानो अभिषेक आगे चल रहे हों और आप पीछे-पीछे.

पर अभिषेक ने सिर्फ कच्छ को देखा नहीं है. उनकी दृष्टि एकसाथ ही पैनोरेमिक और टेलीलेंसीय दोनो है. कच्छ कथा में कच्छ लॉन्ग शॉट में भी है और एक्स्ट्रीम क्लोज-अप में भी.


 

असल में, कई मंदिरों, दरगाहों, नमक के खेतों, मिथकों और मान्यताओं के जरिए लेखक ने इस किताब में न सिर्फ कच्छे के भूगोल को उकेरा है बल्कि उन्होंने उसका ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी किया है.

संभवतया उनकी यह वैचारिक टेक है कि विकास को लेकर एक आम बहस में वह कच्छी अस्मिता या तहजीब या विरासत की चिंता को बारंबार सामने लाते हैं.

कच्छ कथा धोलावीरा के पुरातात्विक उत्खनन की पड़ताल करते हैं तो साथ ही लखपत के बारे में दिलचस्प ब्योरे देते हैं. नाथपंथी गुरु धोरमनाथ के बारे में अनजाने किस्से बटोरते हैं और फिर नमक के मजदूरों तक की बात करते हैं.

हिंदी किताबों के बारे में बात करते समय हमेशा भाषा के बारे में टिप्पणी की जाती है. ऐसे में, कच्छ कथा की भाषा प्रवाहमय है. ऐसा लगता नहीं कि लेखक लिख रहा है, ऐसा लगता है कि वह आपसे आमने-सामने बात कर रहा है. यह किताब की बहुत बड़ी शक्ति है.

दूसरी बात, किताब बात की बात में भारतीय संस्कृति की असली ताकत यानी इसकी समावेश संस्कृति की सीख देती चलती है. मसलन, किताब की शुरुआत में ही कच्छ के अंजार में हिंदू राजा पता नहीं किस सनक में अपनी प्रजा में सबको मुस्लिम धर्मान्तरित करने पर तुला था. लेकिन उसके खिलाफ फतेह मुहम्मद और मेघजी सेठ उठ खड़े हुए. राजा को कैद कर लिया गया और फिर कच्छ में बारभाया यानी बारह भाइयों के राज की स्थापना हुई. यह अपने किस्म का अलग ही लोकतंत्र था. इन बारह लोगों में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग थे.

कच्छ कथा में लेखक वहां के इस्मायली पंथ का ब्योरा भी देते हैं, जिसमें सतपंथी और निजारी हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. अभिषेक लिखते हैं, “यह व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन की विवशताओं और श्रद्धा से उपजा परिवर्तन था. जहां इस्माइली बनने के बाद व्यावहारिक जीवन में कुछ खास नहीं अपनाना होता था. बस हिजाब और साड़ी का फर्क है, बाकी सतपंथियों की दरगाहें आज भी एक ही हैं. यह एक ऐसा धार्मिक समन्वयवाद है जहां आपको ओम भी मिलेगा, स्वास्तिक भी मिलेगा, हिंदू नाम और पहचान भी मिलेगी लेकिन प्रार्थनाओं में फारसी और अरबी की दुआएं भी मिलेंगी.”

कच्छ कथा में कई ऐसे पीरों का जिक्र है जिनकी कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है, और जिसके मवेशियों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फरियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है. पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीर हो जाते है.

अभिषेक ऐसे बहुत सारे पीरों की जिक्र करते हैं लेकिन कम से कम दो पीरों की किस्से ऐसे हैं जिनका उल्लेख वह विस्तार से करते हैं. इनमें से एक हैं हाजी पीर और दूसरे हैं रामदेव पीर. रामदेव पीर की कहानी में पीड़ित स्त्री मुस्लिम है जबकि हाजी पीर के किस्से में महिला हिंदू है, जिसके गाय चुरा लिए गए हैं. हाजी पीर ने हिंदू स्त्री के मवेशी बचाते हुए शहादत दी और रामदेव पीर ने मुस्लिम स्त्री की गायें बचाते हुए जान दी और इसलिए स्थानीय समुदाय में पीरों का दर्जा पाए और पूजित हुए.

एक अन्य उल्लेखनीय मिसाल, एक महादेव मंदिर की दो बहनों का पुजारिन होना है. खासबात यह कि इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा मुस्लिमों के हाथ में है. वह गांव तुर्कों का ध्रब है. लखपत का गुरुद्वारा हिंदू परिवार चलाता था, और वहां के दरगाहों और मंदिरों के संरक्षण का काम वहां के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं.

कुल मिलाकर कच्छ कथा अपने खास वैचारिक झुकाव के बावजूद एक अवश्य पढ़ी जाने वाली किताब है जो न सिर्फ कच्छ की समस्या से, बल्कि कच्छ की एकदम अलहदा विरासत से भी आपको रू ब रू कराती है. पन्ने दर पन्ने यह किताब आपको कच्छ के सफर पर लिए चलती है.

हालांकि, आधी किताब के बाद अभिषेक एकरस भी होते हैं. खासकर तब, जब वह राजनैतिक समीकरणों और बाध्यताओं का जिक्र करते हैं लेकिन ऐसी किताबें आज के दौर में बेहद जरूरी हैं जो देश के बाकी हिस्से के लोगों को अपनी समृद्ध विरासत के बारे में बता सके.


किताबः कच्छ कथा

लेखकः अभिषेक श्रीवास्तव

प्रकाशनः राजकमल प्रकाशन

मूल्यः 299 पेपरबैक

Monday, March 27, 2023

रिश्तों की सिलवट को दूर करें, एंट्रॉपी से सीख लें

आपने 'एन्ट्रॉपी' के बारे में सुना है?

किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि एंट्रॉपी समय के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की अस्थिरता प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.

एक मिसाल लीजिए. मान लीजिए कि आप लाइब्रेरी से एक किताब घर लाते हैं. आपको पिताजी ने एक और किताब आपको उपहार में दी है. आपकी गर्लफ्रेंड ने आपको एक मैगजीन दिया और आपके पास अपनी भी कुछ किताबें और म्युजिक सीडी का भंडार है और आपने यह सब अपनी मेज पर ढेर के रूप में रख दिया है. जहां पहले से कलमें, पेंसिलें, और बहुत सारा अल्लम-गल्लम पड़ा हो. सोचिए जरा कितनी अस्त-व्यस्तता हो जाएगी.

यही नहीं, यह भी मान लीजिए कि आपके कपड़े फर्श पर बिखरे हुए हैं. बिस्तर पर गीला तौलिया है और जुराबें बिस्तर के नीचे हैं, आपकी जींस पेंट कुरसी पर लटकी हुई है और व्यवस्था में एक किस्म की अराजकता है.

आप आखिरकार इस गड़बड़ से परेशान हो जाएंगे. आप चीजों को व्यवस्थित करना शुरू कर देते हैं. आप किताबों को आलमारी में करीने से रखते हैं और कपड़ों को धो-सुखाकर इस्तिरी करके आलमारी में उसकी जगह पर रखते हैं और अपना बिस्तर भी ठीक करते हैं. अब आपका कमरा व्यवस्थित और साफ-सुथरा दिखने लगता है. और यह स्थिति तब तक बनी रहती है जब तक आप दोबारा सामान न बिखेर दें. यानी, आपको कमरे को व्यवस्थित रखने के लिए लगातार ऊर्जा का निवेश करते रहना होगा.

जैसा पहले भी कहा है मैंने, किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि 'एंट्रॉपी' 'समय' के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की 'अस्थिरता' प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.

यह 'एंट्रॉपी का सिद्धांत' रिश्तों पर भी लागू होता है. मानवीय रिश्ते भी उस अव्यवस्था से अस्थिर हो सकते हैं. हम अंदर ही अंदर चीजों को इकट्ठा होने देते हैं. आंतरिक अव्यवस्था बढ़ने का कारण यह है कि हम अत्यधिक भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को इकट्ठा करते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कमरे में पड़ी किताबें और कपड़े.

हम नाराजगी और चिड़चिड़ाहट को पालते रहते हैं और यदि इसके समाधान के लिए कुछ न किया जाए, तो किसी दिन फट पड़ते हैं. रिश्तों को स्थायित्व देने के लिए हमें कुछ निवेश करने की जरूरत होती है. रिश्तों की सिलवटों को दूर करना होता है ताकि हम हमेशा के लिए उन बातों को अपने मन में पालते और जमा करते न रहें.
बूझे?

Thursday, March 23, 2023

आने वाले दशक भयावह जलसंकट के होंगे

दुनिया पानी में है लेकिन पीने लायक पानी में नहीं. पूरी धरती पर मौजूद कुल पानी का महज 4 फीसद हिस्सा ही पीने लायक है. और कहने वाले कहते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी की वजह से लड़ा जाएगा.

दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं.

इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.

नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है.

मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.

टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.

पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है. जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा.

ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं. पर हमें खास खयाल रखना होगा कि नदियां बची रहें. हमने लापरवाही की वजह से, और कई बार जान-बूझकर कई नदियों को खत्म कर दिया है. बहुत सारी नदियां बारहमासी नदियों से मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं. ज्यादातर नदियों की पाट में अतिक्रमण करके घर, खेत, फैक्ट्री, रिजॉर्ट बना लिए गए हैं.

असल में, नदियों को लेकर हमारे विचारों में बहुत पोलापन है. या तो हम सीधे मां और देवी कह कर नदियों की आरती करेंगे, चूनर और प्रसाद चढ़ाएंगे, लेकिन अपने घरों का गू भी उसी में बहाएंगे.

आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई है.

मैं आज, 2023 में आपको अगले पांच सालों में भयावह रूप अख्तियार कर रहे जल संकट की चेतावनी दे रहा हूं. हमारी आबादी पेड़ों और नदियों की दुश्मन हो गई है, अभी भी नहीं चेते तो बाद में मैय्यो-दय्यो करने से कुछ हासिल नहीं होगा.

Monday, March 20, 2023

माइक लेकर चिल्ला दिए तो बन गए अर्णव गोस्वामी?

अभी एक यूट्यूब के गिरफ्तार होने पर बहुत लोग अपने-अपने ध्रुवों पर खड़े हो गए. कुछ लोगो मनीष कश्यप के खांटी विरोधी दिखे, कुछ सपोर्ट में हैं.

पर, पत्रकारिता को लेकर एक गहन विमर्श अब समय की आवश्यकता हो गई है. कौन है पत्रकार? क्या है पत्रकारिता? माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए अर्णब गोस्वामी?

सोशल मीडिया पत्रकारिता का सबसे सबल माध्यम है. लेकिन, अभिव्यक्ति की इस आजादी का हम दुरुपयोग तो नहीं कर रहे?

पत्रकार बनने से पहले, व्यक्ति लोकप्रिय होना चाहता है. वह खुद मीम बनाना नहीं, बल्कि मीम का विषय बनना चाहता है. वह चिल्लाना चाहता है जैसे टीवी पर उनके आदर्श चीख रहे हैं.

एक वीडियो में तो कोरोना काल में एक पत्रकार मुखिया प्रत्याशी को थप्पड़ मारता दिखा था मुझे. मुझे पता है वह स्टेज्ड था. वह स्क्रिप्टेड था लेकिन डिस्क्लेमर तो उसने बाद में लगाया. वह वायरल हुआ, लोग हंसे, पर पत्रकारिता की भद पिट गई. पत्रकारिता वाकई में इतनी छोटी चीज नहीं कि माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए ....!

मेरे एक फेसबुक मित्र ने, नाम याद नहीं आ रहा, लिखा कि ऐसे यूट्यूबरों से माइक छीन ली जाए. नहीं. कत्तई नहीं. इससे अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश आयद होगी और उन लोगों की माइक भी छीन ली जाएगी जो वाकई बेहद उम्दा काम कर रहे हैं. जो लोग जमीनी काम कर रहे हैं, जो सिद्धांतो के तहत काम कर रहे हैं.

आपको याद होगा कि कुछ यूट्यूबर पत्रकार स्कूल में कक्षाओं में घुसकर शिक्षकों से अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग पूछने लगते हैं. ऐसे वीडियो काफी पॉपुलर होते हैं. पर, क्या यह वाकई मापदंडों के तहत पत्रकारिता भी है? क्या उन वीडियोज के बाद पुलिस ने स्कूल में जबरिया घुसने और वीडियोग्राफी करने पर कोई एक्शन लिया? इन पत्रकारों से किसी ने पत्रकारिता के स्तर वाले सवाल पूछे?

लेकिन इसके बरअक्स एक विचार मेरे मन में यह भी है कि अगर फेक न्यूज के मामले में छोटे स्तर के यूट्यूबर धरे जा रहे हैं तो उन अखबारों पर क्या कार्रवाई हुई जिन्होंने यह फेक खबर प्रकाशित की थी. अब तक अखबार में छपी खबरों को हम लगभर विश्वसनीय मान रहे थे. दूसरी बात, क्रेडिबिलिटी की बात हो तो एक नामी एंकर ने दो हजार के नोट में चिप वाली खबर बना दी. वह आज भी प्रतिष्ठित एंकर हैं, कॉमिडी वॉमिडी शो में नमूदार हो रही हैं. उनकी क्रेडिबिलिटी को कोई खतरा नहीं हुआ. क्यों?

जब मैं आइआइएमसी में पढ़ता था तो स्वनामधन्य प्रभाष जोशी हमारी कक्षा लेने आए थे. आजकल के छौने पत्रकारों को प्रभाष जी का नाम भी नहीं पता. (जी हां, मैं मजाक नहीं कर रहा, मैंने अपने छात्रों से पूछा तो प्रभाष जोशी ही नहीं, उन्हें कुलदीप नैय्यर, पी. साईंनाथ वगैरह किसी का कुछ पता नहीं था)

बहरहाल, आदरणीय प्रभाष जोशी ने 2004 के लोकसभा चुनावों में एक्जिट पोल के गलत हो जाने के संदर्भ में एक किस्सा सुनाया था कि मध्य प्रदेश में मालवा इलाके में जानपांड़े हुआ करते थे.

जानपांड़े यानी ज्ञानपांडे.

उन दिनों जब कुआं खोदना ही पानी हासिल करने का एकमात्र विकल्प था, जमीन की छाती खोदने पर पत्थर निकल आए तो खर्चा और मेहनत दोनों बेकार हो जाते. इसलिए लोग ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को खोजकर लाते थे जो जमीन के कंपन को समझ कर बतला देते थे कि अमुक जगह पर खोदो तो पानी निकलेगा.

अधिकतर मामलों में जानपांड़े सही होते थे.

पत्रकारों को ऐसे ही जानपांड़े होना चाहिए. चीखकर, गाली-गलौज की भाषा के जरिए क्षणिक लोकप्रियता मिल जाएगी. पर, इससे उन लोगों का बुरा होगा, जो जमीनी स्तर पर अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं.

चीखना इस देश की पत्रकारिता का राष्ट्रीय ध्येय बन गया है.

बेशक, मीडिया वाले सेंसरशिप से बिदकते हैं, पर ऐसा ही जारी रहा तो कुछ न कुछ बंदिश तो आयद हो ही जाएगी और फिर आप कहेंगे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमला है. सरकार को चाहिए कि ऐसे यूट्यूबर्स के लिए एक कार्यशाल आयोजित करे. डू ऐंड डोंट्स समझाए.

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर को समझिए. पत्रकारिता में लोकप्रियता से पहले श्रेष्ठता को आने दीजिए.