Monday, December 28, 2015

ग्लोबल वॉर्मिंग कहीं कारोबारी साजिश तो नहीं?

पैरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में लंबी बहस के बाद आख़िरकार सारे देश एक समझौते तक पहुंचे लेकिन इस समझौते से मैं बहुत मुतमईन नहीं हूं। कई सवाल अपनी जगह पर बने हुए हैं। जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के मामले में भाषा भी बहस और मतभेदों की वजह रही। पिछले हफ्ते मैंने इशारा भी किया था, कि ‘किया जाएगा’ और ‘किया जाना चाहिए’ जैसे लफ़्जों का इस्तेमाल समझौते की दिशा और दशा को बदल देगा। यह भी सच है कि समझौता करीब-करीब नाकामी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया गया था।

दोनों ही शब्द विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के नज़रिए के फर्क के मायनों की परिभाषा तय देने के लिए काफी हैं।

पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी समझौते का स्वागत किया। लेकिन अब सारी बहस समझौते के मायने और 'किया जाएगा' और 'किया जाना चाहिए' के विरोधाभास के ईर्द-गिर्द सिमटी गई है और उसी के आधार पर आगे के बरसों में होती रहेगी।

शुरू में समझौते की धारा 4 के तहत 'अमीर देश ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक लक्ष्य निर्धारित करेंगे', ऐसा लिखा गया था। लेकिन अमेरिकी दवाब के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया। यह बदलाव काफी अहम है क्योंकि 'किया जाएगा'के साथ क़ानूनी दायित्व जुड़े हैं लेकिन 'किया जाना चाहिए' के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।

उत्सर्जन में कटौती का मुद्दा अब अमीर देशों की प्रतिबध्ता की जगह अमीर देशों की इच्छा पर निर्भर करेगा। आप चाहे इस समझौते के लिए कितना भी जश्न मना लें और यह मान कर चलें कि विकासशील देशों को साफ-सुथरी ऊर्जा के माध्यम अपनाने के लिए अमीर देश तो बिलियनों डॉलर देंगे ही।

इसी तरह विकासशील और विकसित देशों के अलग-अलग जवाबदेही तय करने की भारत की मांग नहीं मानी गई। तो सीधा मान लेना चाहिए कि इससे भारत जैसे देश की महत्वकांक्षा को नुक़सान पहुंचेगा, जो कोयला आधारित ऊर्जा की बदौलत अपनी अर्थव्यवस्था का तापमान बढाए रखने और उसे रफ़तार देने की कोशिशों में लगे हैं। आखिरकार किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसकी ऊर्जा ज़रूरतों के ही मुताबिक तो घटती-बढ़ती है।

यह दुनिया के जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र तो ठीक है लेकिन भारत के विकास के नज़रिए के माकूल नहीं है। क्लाइमेट फंडिंग को लेकर परिभाषा साफ नहीं हो पाई है। विकसित देशों अब विकासशील देशों को पैसे तो देंगे, लेकिन विकसित देश पैसा देने के लिए बाध्य नहीं होंगे।

दूसरी तरफ, आप और पर्यावरण की चिंता में लगातार घुलते रहने वाले लोग मुझ पर लानते भेंजे लेकिन मेरा साफ मानना है कि विकसित देशों ने अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन तो कर लिया लेकिन अब विकासशील देशों की बारी में वे लोग भांजी मार रहे हैं।

अव्वल तो मुझे ग्लोबल वॉर्मिंग का कॉन्सेप्ट ही विरोधाभासी लगता है। प्रदूषण का मसला अपनी जगह है। यह सही है कि वातावरण में धुआं और ज़हरीली गैसे उत्सर्जित करके हम आबो-हवा को बिगाड़ रहे हैं, लेकिन कुछ वैज्ञानिक (?) और गैर-सरकारी संगठन दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि इससे पृथ्वी के घूर्णन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और दिन पहले के मुकाबले लंबे हो रहे हैं। मैंने जितना पढ़ा है उससे साफ कह सकता हूं कि यह धारणा भ्रामक है।

तीसरी बात यह कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर कोई पहली दफा नहीं हो रहा। धरती के तापमान में हमेशा घट-बढ़त होती रहती है। पृथ्वी के जलवायविक परिवर्तनों का इतिहास बताता है कि पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर अब तक चार बार हिमकाल आ चुके हैं, यानी सारी धरती बर्फ से ढंक गई थी, इनको गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म हिमकाल कहते हैं। इसी तरह अपनी विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में आप सबने पढ़ा होगा कि साइबेरिया में हाथी के पूर्वज मैमथ का जीवाश्म मिला है जिसकी सूंढ़ में घास भी मिला है। इसी तरह आपको कुछ और मिसालें दूं, जैसे कि साइबेरिया औ कश्मीर के करगिल में बिटुमिनस कोयले के भंडार होना। कोयला वहीं बनता है जहां कभी घने जंगल हों।

साइबेरिया और कारगिल में घने जंगल तो तभी रहे होंगे, जब उस इलाके में जलवायु गर्म और नम रही होगी। ऐसी जलवायु वहीं मिलती है जिसके आसपास से तापीय विषुवत रेखा गुजरती है। मेरे कहने का गर्ज है कि तापीय विषुवत रेखा अपनी जगह बदलती है। पृथ्वी में हिमयुग और गर्म युगों का आना-जाना लगा रहता है। तो धरती के तापमान में बदलने को सिर्फ प्रदूषण से मत जोड़िए। हो सकता है कि विकसित देशों की यह कारोबारी नीति हो कि वह अपनी कथित क्लीन टेक्नॉलजी को बेचने के लिए इतने वितंडे कर रहा हो। बस कह रहा हूं, बाकी जो है सो तो हइए है।

Tuesday, December 15, 2015

आओ फिर से पुकारो मुझको

आओ फिर से पुकारो मुझको
बंद किवाड़ों पर हल्के से दस्तक तो दो
किवाड़ें मन की कहां बंद होती हैं।
किवाड़ो पर लगे सांकल को खटखटाना इक बार
सांकल देह के होते, मन पे नहीं होते
या किसी अनजान राह पर जाकर इकबार
नाम लेकर फुसफुसाकर ही आवाज़ देना


आओ फिर से पुकारो मुझको

मार प्यार की थापें

बंद किवाड़
लगा है सांकल
मार प्यार की थापें

आसमान को बंद कहां
कर पाओगे तुम पट के भीतर
गगन मुक्त है
पवन मुक्त है
मुक्त हमेशा मोर व तीतर
आओ अंतरमन में झांके
मार प्यार की थापें

बरगद अब भी बुला रहा है
घाट प्रतीक्षा में है
गंगा जल को बांध बनाकर
बांध न पाया कोई
चाहे कितने बंद किवाड़
मन नारंगी की फांकें
मार प्यार की थापें




Monday, December 14, 2015

ग्लोबल वॉर्मिंग पर ठंडा रुख़

ग्लोबल वॉर्मिंग यानी वैश्विक तापवृद्धि की वजह से दुनिया भर के निचले इलाके डूब जाएंगे और सुन्दरबन से लेकर मालदीव जैसे इलाकों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा, यह बातें हम सबने पर्यावरणविदों की ज़बानी सुनी है। बांगलादेश के तटीय इलाके हों, या फिर साल 2005 में चक्रवातीय अपरदन और खारे जल की बढ़त से पापुआ न्यूगिनी के कार्टरेट द्वीप के एक हजार निवासियों को विस्थापित करके कहीं और बसाना, मिसालें कई हैं। साल 2006 में हुगली नदी डेल्टा का लोहाछारा टापू पूरी तरह डूब गया था और करीब 10 हज़ार लोगों को विस्थापित करना पड़ा था।

पैरिस में हो रहे कोप-21 में भी जलवायविक वजहों से जबरिया पलायन के इन पहलुओं और उसके समाधान की दिशा में चर्चाएं हुई हैं। उन चर्चाओं से क्या निकला है, क्या हासिल होने वाला है इस पर आखिरी समझौते के बाद ही कोई टिप्पणी होगी। लेकिन फिलहाल, इस स्तंभ के लिखे जाने तक, उम्मीद तो बनाए ही रखना चाहिए।

इस विस्थापन की वजह से सामाजिक समस्याओं का अलग आयाम भी है। अगर सीरिया की शरणार्थी समस्या की बात करें तो याद रखना चाहिए कि वहां तीन साल से अकाल की समस्या भी थी। दार्फुर हो या सूडान, इस सबके मूल में पर्यावरण प्रबंधन की कमी और जलवायु परिवर्तन की समस्या ही है। और इस बरबादी का सबसे बड़ा शिकार वह कतार का आखिरी आदमी है, जिसने जलवायु परिवर्तन की इस परिघटना में सबसे कम योगदान दिया है।

जलवायु शरणार्थी या जबरिया विस्थापितों को जाहिर है, कोई अधिकार नहीं मिलते और स्थानीय लोगों के शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना भी उन्हें ही करना होता है। पलायन की इस समस्या से निबटने के लिए दुनिया भर में बमुश्किल ही कोई प्रयास होता है। दहशत, नस्लवाद और नफरत ने ऐसे पलायनों को प्रभावितों के लिए और बदतर बना दिया है।

अब बड़ा सवाल है कि इन विस्थापितों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किस तरह की मदद की जाए और उन्हें किस तरह के अधिकार मिलने चाहिए।

सन् 1990 में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव इंसानी पलायन का होगा। तब से लेकर आजतक दुनिया के तमाम देश, जलवायु परिवर्तन से हुए पलायन, विस्थापन और उसके परिणामों पर ही सौदेबाज़ी में मशगूल रहे हैं। कानकुन में हुए कोप-16 में आकर ही एक ठोस सहमति बन पाई जब एक ऐसा अनुकूलन फ्रेमवर्क तैयार किया जा सका ताकि राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर किसी किस्म के पलायन, विस्थापन वगैरह समस्याओं के संदर्भ में समन्वय और सहयोग किया जा सके। लेकिन, जलवायविक विस्थापन से जुड़ी बातें समझौते के बाद कहीं खो गईं।

असल में, पलायन और विस्थापन तभी होता है जब समस्या की सरहद पर खड़े देशों में परिस्थितियों के मुताबिक अनुकूलन नहीं होता है। इसलिए परिस्थितियों के हिसाब से अनुकूलन न हो पाने को भी नुकसान का अंश माना जाना चाहिए। इस तर्क को ‘वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि’ में शामिल किया गया, ताकि देशों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान, जिसमें विस्थापन और पलायन की वजह से होने वाले नुकसान भी शामिल हैं, का आकलन किया जा सके।

अब, इस दफा, यानी कोप-21 में 4 दिसंबर को जारी किए गए पैरिस समझौते में, नुकसान या ध्वंस से जुड़े अनुच्छेद में वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि का विस्थापन के संदर्भ में जिक्र है और इसके मुताबिक, जलवायु परिवर्तन विस्थापन समन्वय सुविधा की स्थापना ‘वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि’ के तहत होनी चाहिए, ताकि जलवायु परिवर्तन से हुए विस्थापन, पलायन और योजनाबद्ध पुनर्वास की निगरानी की जा सके।

लेकिन, अगर आप इस पूरे अनुच्छेद का मूल रूप में यानी अंग्रेजी में पढ़ें तो पाएंगे कि यह पूरा अनुच्छेद कोष्ठकों में है, इसलिए नुकसान को लेकर किसी भी पार्टी का क्या रूख होगा यह उनके अपने नज़रिए पर निर्भर करेगा। और यह भी डर है कि कहीं यह अनुच्छेद मूल समझौते में शामिल ही न हो।

अगले हफ्ते तक, यह तय हो जाएगा कि पैरिस में इस शीर्ष बैठक से किस देश को क्या हासिल हुआ। यह भी तय हो जाएगा कि आखिर कतार के आखिरी आदमी को क्या मिलेगा, जिसे समुद्री जलस्तर या सूखे की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ता है। मैं आपको एक किस्सा उड़ीसा के सतभाया का भी सुनाऊंगा, जो संभवतया, भारत मे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हुए पहले अनाथ हैं।

Sunday, December 6, 2015

हम फिदा-ए लखनऊ

उन्नाव के बाद चलती हुई गोमती फिर कहीं किसी अंजान सी जगह पर रूकी थी। रुकना गोमती एक्सप्रेस के लिए, और उसके मुसाफिरों के लिए कोई खबर नहीं थी। वह रूकती आ रही थी और रूकती ही आ रही थी।

कानपुर में वृषाली के मम्मी-पापा खाना लेकर आए थे। और खाने को मैंने पूरी तवज्जो दी थी। मेरा सारा ध्यान उसी खाने पर था। मक्खन-मलाई, जिसका हल्का-धीमा मीठापन जिंदगी जैसा था। मृत्यु का स्वाद, तेज मीठा होता है, जीवन का हल्का मीठा।

मैं एक बार पहले ही उस मक्खन का एक कटोरा साफ कर गया था और मेरी बहन वृषाली के सामने दो चिंताएं थी। भाई पूरा खाए, भरपेट खाए। और मक्खन बचा न रह जाए।

तो जनाब, गाड़ी उन्नाव के आगे किसी अनजानी-अनचीन्ही सी जगह पर न जाने कब से खड़ी थी। और ऐसा लग रहा था अब हमेशा के लिए यहीं खड़ी रहेगी।

हर्ष जी की बड़ी बिटिया मिष्टी--वह अपने नाम की तरह ही काफी मीठा बोलती है--अपने रिपोर्टर अवतार में आ गई थी। नाक पर चढ़े चश्मे को बड़ी अदा से संभालते हुए और खाने में व्यस्त मुझतक आते हुए गोमती न्यूज (उसने तुरत-फुरत अपना न्यूज़ चैनल बना लिया) की उस छुटकी दस साल की रिपोर्टर मिष्टी का पहला सवाल यही थाः आपको याद है आप गोमती एक्सप्रेस में कब चढ़े थे?

मैंने बस इतना ही जवाब दिया थाः पिछले जन्म में।

नई दिल्ली से जब गोमती एक्सप्रेस चली थी, तो सही वक्त पर चली थी। अच्छा हुआ, मिष्टी ने मुझसे यह नहीं पूछा कि आप को क्या लगता है आप कब तक लखनऊ पहुंचेंगे।

मैं गीता (किताब) की कसम खाकर कहता हूं (खाने दीजिए ना, यह न कहिएगा, आप तो खुद को नास्तिक कहते फिर गीता की कसम क्यों खा रहे, मेरा तर्क यह है कि पारंपरिक रूप से यह मान्य है, फिर भी आप कह रहे हैं तो मैं सत्यनिष्ठा की शपथ लेता हूं) कि गोमती एक्सप्रेस में दोबारा चढ़ने की कोशिश कभी नहीं करूंगा। हो सके, तो मैं यात्रा रद्द ही कर देने की कोशिश करूंगा।

यात्राएं लंबी हो जाएं तो बुरा नहीं होता। कई बार लंबी यात्राएं मजे़दार भी होती हैं। लंबा इंतजार कई दफ़ा अच्छा भी लगता है। लेकिन अगर रेल यात्रा हो, रेल कहीं भी कभी भी रूक रही हो, पीने का पानी न हो, सीट फटी-पुरानी हो, टूटी हो, आप जिधर झुकें सीट भी झुक जाए...बाथरूम गंदे हों... अर्थात् आप कहें कि स्थिति नारकीय हो, तब लंबा सफर और इंतजार मजेदार नहीं रह जाता।

मेरे साथ 200 बार में 199 बार हुआ है कि मेरी बगल की सीट किसी झक्की बूढ़े की हो। रेलवे वालों की खास कारस्तानी है यह। इस दफा भी मेरी बगलवाली सीट एक ऐसे बुजुर्गवार की थी, जिनने अपने दो मोबाईलों का मुझेस तेरह बार सिम बदलवाया, और अपने खाने को थैला सत्ताईस बार चढ़वाया-उतरवाया। मेरे साथ लखनऊ जाने वालों में हर्ष जी, उनके दो बच्चे, बहन वृषाली, प्रदीपिका समेत महिलाओं की संख्या अधिक थी इसलिए मैं अपने सारे गुस्से को जब्त किए बैठा रहा, और बूढ़े चचा के लिए कभी मोबाईल रिपेयरिंग और कुलीगीरी करता रहा। साथ के लोग, खासकर बच्चे मुझ जैसे शांत-सुशील (?) शख्स को बदतमीज होते देखेंगे तो बुरा असर होगा उन पर।

चचा ने मुझसे पूछा, नाम क्या लिखते हो? उनके मुंह से थूक की पिचकारी निकली और मेरी कलाई पर आकर गिर गई। गुस्सा तो बहुत आय़ा, लेकिन तय किया मन में, कि अगर कभी बूढ़ा हुआ तो ऐसी ही थूक की पिचकारी किसी और नौजवान पर छोड़ूंगा। उस वक्त तो मैं चचा से यही कहकर बाहर निकला कि अभी हाथ धोकर आता हूं और फिर बताता हूं कि नाम क्या लिखता हूं। 

वापस आकर, मैंने चचा से यही कहा, हम जो हैं वही नाम लिखते भी हैं। बहरहाल, गाड़ी अपनी दुलकी चाल चलती रही। बाहर का मौसम बेहद सुहाना हो रहा था।

बिजली की घनी कड़क के साथ बौछारें गिर रही थीं। बच्चे भूख से बेहाल हो रहे थे। लेकिन चेअरकार में सोना बड़े सिद्धपुरूषों का काम है। मिष्टी की छोटी बहन पाखी सोने की बहुतेरी कोशिश कर रही थी।

और तब आया था कानपुर। जहां बारिश थी, जहां से लखनऊ बस थोड़ी ही दूर है--की सांत्वना थी, जहां खाना था।

जारी

Friday, December 4, 2015

जिसे ढूंढा ज़माने में मुझी में थाः तमाशा

इससे पहले कि आप किसी नामी-गिरामी फिल्म समीक्षकों की समीक्षा को आधार बनाते हुए मेरी पसंद पर लानतें भेंजे, मेरी पहली बात; पिछले पांच साल में बनी किसी भी फिल्म से बेहतर ओपनिंग क्रेडिट है फिल्म ‘तमाशा’ का। और हां, मैं ग्राफिक्स की बात नहीं कर रहा। मेरे कहने का मतलब ओपनिंग सीक्वेंस से भी है।
‘तमाशा’ उन लोगों के लिए बनी हुई फिल्म नहीं है, जिनको चार ट्रॉली और तीन क्रेन शॉट पर एक पूरा गाना फिल्मा लिए जाने में कोई बुराई नज़र नहीं आती लेकिन कायदे की बना हुई फिल्म की कहानी को वह बिखरी हुई कहानी कहने से पहले सांस तक नहीं लेते।

‘तमाशा’ सलीके से बुनी हुई और बनी हुई बेहतर फिल्म है जिसमें कम से कम तीन अदाकारों ने जान फूंक दी है। रनबीर, दीपिका और पीय़ूष मिश्रा।

‘तमाशा’ देखेंगे तो कई दफ़ा लगेगा आपको कि यह ‘रॉकस्टार’ और ‘जब वी मेट’ के बीच की फिल्म है। या कहीं न कहीं इसमें ‘लव आजकल’ की सोच भी है।

लेकिन इस फिल्म के संपादन और इसको रचने के क्राफ्ट से मेरे मुंह से कई बार वाह निकला। किसी को इनकार नहीं होगा कि ‘तमाशा’ जरा अलग तरह के प्यार का किस्सा है। उस तरह का प्यार, जिसमें प्रेमी एक-दूसरे को चाहते भी हैं और दुनिया को और खुद को ये जताना चाहते हैं कि प्यार नहीं भी है।

तमाम दुनियावी बातों के बीच यह फिल्म हमसे कहती है कि हमें वही काम करना चाहिए, जिसके लिए हम पैदा हुए हैं। यह बात भी सौ टका सच है कि हम सब किसी खास काम के लिए बने हैं। यह फिल्म मीडियोक्रिटी के खिलाफ फतवा है।

इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी जबरदस्त है और मैं इरशाद कामिल के गीतों को बोल शानदार है। इरशाद कामिल और नीलेश मिसरा इस दौर के सबसे बेहतरीन गीतकार हैं। इरशाद कामिल के गीत नई कविता सरीखे हैं तो नीलेश में ग़ज़लग़ो वाली नज़ाकत और नफ़ासत है।

‘तमाशा’ हमारे भीतर के वजूद को आवाज़ लगाने वाली फिल्म है। जो आपके भीतर होता है उसी को आप बाहर ढूंढ़ते हैं। यह फिल्म ‘हीर तो बड़ी सैड है’ कहते हुए भी एक बड़ी कंपनी में उसके विकास को दिखाती है, कि जिन पलों में हमारी हीर को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए, वह सैड है। काहे कि, वह अपना दिल तो कोर्सिका में ही भूल आई है।

‘तमाशा’ हमसे कहती है कि आप करिअर और समाज की बंदिशों की वजह से महज एक रोबोट या पालतू शख्स में तब्दील न हो जाएं। फिल्म की शुरूआत में ही रोबोट और उसकी छाती पर लाल रंग का बना हुआ दिल होता है। मैं इस फिल्म के शानदार संपादन के लिए निर्देशक और संपादक का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, क्योंकि हाल ही में एक फिल्म आई थी ‘कागज़ के फूल्स’ जिसके एक ही दृश्य में, एक ही किरदार ने दूसरे किरदार को दो बार दो अलग नामों से पुकारा था। भरोसा न हो, तो इसके उस सीन को देखिए जिसमें विनय पाठक प्रकाशक के यहां अपनी किताब पर प्रतिक्रिया लेने जाते हैं। पहले संवाद में जो शख्स बनर्जी होता है दूसरे संवाद में वह श्रीवास्तव हो जाता है।

बहरहाल, ‘तमाशा’ इन ज्यादातर सिनेमाई खामियों से दूर है।

‘तमाशा’ एक विचार के तौर पर दुनिया की हर कहानी को हर जगह पाई जाने वाली कहानी के तौर पर पेश करता है। आप अगर गौर से देखें तो पाएंगे कि वेद के किरदार के मनोविज्ञान को निर्देशक ने बहुत गहराई से पकड़ा है। अंदर का ज्वालामुखी, फटने को बेताब ज्वालामुखी। बहुत कुछ ‘रॉकस्टार’ के नायक-सा है वेद।

आखिरी दृश्यों में आप देखेंगे कि नायक अपने अवचेतन में बसे सभी बाधाओं को पार करता है, और हर दृश्य में उसके साथ एक जोकर होता है। जिन जिन जगहों की, गणित की, स्कूल की, इंजीनियरिंग के बोझिल कॉलेज की गांठ उसके मन में थी, वह खुल जाती है। वह जो होना चाहता है, हो जाता है।

नायिका के कहने पर, और याद दिलाने पर कि तुम्हारे अंदर की प्रतिभा दुनिया के मीडियोक्रिटी पर जोर देने की वजह से कुंद हो गई है, नायक खुद की तलाश में निकलता है। वह उसी क़िस्सागो के पास जाता है जो बचपन से उसे कहानियां सुनाता आया है। उसके कहानी कहने का तरीक़ा इम्तियाज़ी है। क़िस्सागो अलहदा क़िस्सों को दुनिया के हर हिस्से की कहानी के तौर पर पेश करता है जिसके लिए रोमियो-जूलियट और हीर-रांझा और सोहिनी-महिवाल में ज्यादा फर्क़ नहीं है। वेद यह पूछता है कि आखिर उसकी खुद की कहानी का अंत क्या है। किस्सागो उसके बाद जो कहता है, वह सूफी परंपरा का आधार है। वह कहता है अनलहक-अनलहक। गुस्से में किस्सागो वेद से कहता है तू अपनी कहानी का अंत मुझसे क्यों पूछता है, खुद क्यों नहीं तय करता?

सच ही तो है हम अपनी कहानियों का क्लाइमेक्स किसी और को तय करने क्यों देते हैं। हम सबकी अपनी जिंदगियों की कहानी में ट्विस्ट कोई और क्यों लाता है...हमारी जिंदगी के फ़ैसले कोई और क्यों लेता है।

तमाशा हमारे खुद के वजूद के तलाश को उकसाने वाली ऐसी कविता है जिसे इम्तियाज़ ने परदे पर रचा है।

मुझे इस बात की कत्तई परवाह नहीं है कि भारत के दर्शक इस फिल्म को कितनी कलेक्शन करवाते हैं, लेकिन जिनको सिनेमाई कला की समझ है, या जो इसके शिल्प को समझना चाहते हैं, उनके लिए यह जरूरी फिल्म है।