Tuesday, January 26, 2016

यह तेरा इंडिया, यह मेरा इंडिया

पूरा देश गणतंत्र दिवस मना रहा है। हम भारत के लोग उत्सवप्रिय हैं। ईद-दशहरे-होली-क्रिसमस से लेकर वैलेंटाईन डे तक सब मनाते हैं। जोश-ओ-खरोश से मनाते हैं। 

मैं इस मौके पर बदमज़गी नहीं करना चाहता, यह सवाल पूछ कर कि अपना यह गणतंत्र कितना गण के हिस्से में है और कितना तंत्र के हिस्से में। 

लेकिन देश देखा है मैंने। जम्मू-कश्मीर सूबे में अक्साई चिन् से अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के हैवलॉक टापू तक। देश देखा है मैंने। सच में अद्भुत है। 

हिन्द सा कोई नहीं। विदेश देखा मैंने। मॉस्को से टोक्यो तक। हिन्द सा कोई नहीं। 

हमने जो देखा, वो अपनी निगाहों से देखा। धूमिल-गोरख-इंशा-बाबा-पाश-त्रिलोचन-सांस्कृत्यायन सी आंखे कहां से लाऊं? मेरी आंखें एक छोकरे की आंखे हैं, जो पथरचपटी का है। जिसके पास पांव है और है एक अदद साइकिल। आंख है, और दिल है, जो देश को आंखों में दिल में संजो लेता है।

जब छोटे थे अलसभोर में जागकर स्कूल जाते। महेन्द्र कपूर की आवाज़ में सुनते मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरा-मोती। जलेबियां खाते। देश के लालों की तस्वीरें देखकर, देशभक्ति का जज्बा दिल में भरते, शाम को टाउन हॉल में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम में अपने हिस्से के  नाटक की तैयारी करते...। दिन बीत जाता। 

महेन्द्र कपूर की आवाज़ मेरे दिल में जगह बनाए रही थी। देश की माटी सोना उगलती है, हीरा मोती उगलती है। कहां उगलती है? इसी की खोज में लगा रहा हूं। 

देश में बहुत घूमा। बंगाल से लेकर कर्नाटक तक, पंजाब-हरियाणा-गुजरात से लेकर यूपी-मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड तक। 

गणतंत्र है। गुणतंत्र नहीं है। जन के लिए तंत्र ने रास्ता तंग कर दिया है। लेकिन, महान हिमालय में ग्लेशियरों को देख लीजिए या लक्षदीव और अंडमान में समंदर के नीले-मोरपंखी  पानी को, बिहार-बंगाल में धनखेतो की हरीतिमा को देख लीजिए या यूपी-पंजाब-हरियाणा में गेहूं की सुनहरी बालियों को, छत्तीसगढ़ में साल के वन की हरियाली से आह्लादित होइए कि  झारखंड के पलाश जंगलो के खिलने पर उसे जंगल की आग समझिए, बिना भारत को देखे भारत को समझा नहीं जा सकता। 

भारत को समझेंगे तो इसकी समस्याएं भी समझ  में आ जाएंगी। 

भारत को समझना है तो गंगा को समझिए, गंगा को बचाइए। गंगा के किनारे हमने एक लंबा सफर किया था, गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक, इस सफर ने हमें भारत को समझने में बहुत मदद की थी। 

गुजरात में राजकोट के पास थाण में एक मंदिर है। पांडवकालीन। कभी वहां जाइए। मकरसंक्रांति के दिनों वहां जनजातीय मेला लगता है। लड़कियों को छूट होती है अपना लड़का चुनने की। तरनेतर का मेला कहलाता है। 

राजस्थान जाएं तो करणी माता का मंदिर देखिए, लेह का दौरा करें तो मैग्नेट हिल के साथ जांस्कर-सिंधु का संगम देखिए, बंगाल जाएं तो अलीपुर दुआर के पास मदारीहाट अभयारण्य जाएं पता लगेगा आपको कि गैंडे सिर्फ काजीरंगा में ही नहीं, बंगाल में भी पाए जाते हैं। 

गोवा आप जाते रहते होंगे, छुट्टियां मनाने। गोवा यानी नशा, बीच और लड़कियां। है ना। लेकिन रूकिए। गोवा जाएं तो वहां पणजी से ठीक तीन किलोमीटर दूर मांडवी नदी के पास एक बर्ड सेंचुरी है। वहां जाकर आपको जो मजा आएगा वह कोलुंगगुट बीच के मजे से अलहदा होगा। 

भारत के जंगलों में हरेपन की किस्में देखिए। गौर कीजिए। अगर हरेपन के सबसे शेडी हिस्से को देखना है तो अरूणाचल के अनछुए सौन्दर्य को देखने जाइए। नामदफा के जंगलो में। काला हरापन है। 

झारखंड में पत्थरों के बीच नदियों की अठखेलियों पर नजर डालिए। घूमने के लिए विदेश ही क्यों...देश में बहुत कुछ है। समस्याएं कहां नहीं होतीं, अच्छा हो कि हम समस्याओं का हल खोजें लेकिन उससे पहले अपने अद्भुत भारत पर गौरव करना सीखें। 

देशभक्ति किसी पार्टी विशेष की संपत्ति नहीं और न ही इसका कोई खआस रंग है। देशभक्ति का मतलब सरहद पर जाकर गोली चलाना ही नहीं है। अपने कर्तव्यों का पालन करें तो यह भी देशभक्ति ही है। 

बाकी जो है सो तो हइए है। 

Sunday, January 24, 2016

वन वनवासी विस्थापितः भाग दो

शेर न चीते, गांवों को लगे पलीते

कूनो-पालपुर में सहरिया जनजाति की व्यथा का एक कोण और है। भारत से विलुप्त हो चुके चीतों का। कूनो-पालपुर में चीतों को फिर से बसाने के लिए प्रोजेक्ट चीता शुरू किया गया, हालांकि इस बात को लेकर काफी संशय है कि चीतों का आना जंगल की बाकी जीवों की नस्लों पर क्या असर डालेगा। लेकिन इंसानों पर असर पड़ चुका है।

इस कोण की शुरूआत होती है दो राज्यों के बीच के एक मसले से। आज से डेढ़ दशक पहले कूनो अभयारण्‍य में गीर के शेरों को बसाने के सवाल पर केंद्र और गुजरात सरकार आपस में भिड़ गए थे। मध्‍य प्रदेश सरकार ने अभयारण्‍य में बसे 28 गांवों के 1650 परिवारों को अगले आठ साल में जंगल से खदेड़ दिया। सूबे की सरकार को उम्मीद थी कि उनकी जमीन पर शेर रहेंगे, इंसान नहीं। लेकिन 12 सितंबर 2008 को गुजरात ने साफ कर दिया कि वह अपने शेर किसी और को नहीं देगा। मध्‍य प्रदेश ने गुजरात का सख्‍त रुख देखकर कूनो में अफ्रीकी चीतों को बसाने की योजना बनाई।

बहरहाल, इस कश्‍मकश में 28 गांवों के वे सहरिया परिवार उलझकर रह गए हैं, जिन्‍हें शेर लाने के नाम पर 12 साल पहले जंगल से निकालकर बाहर फेंक दिया गया था। शेर तो नहीं आए,अलबत्‍ता विस्‍थापन के शिकार गावों में लोगों का जीना मुहाल हो गया है।

असल में, चीते भारत से सन् 1952 में ही विलुप्त हो गए थे। उसके बाद के सवा छह दशक के बाद देश न जाने कितना आगे बढ़ गया है। जीडीपी में 66,400 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। आबादी 35 करोड़ से बढ़कर सवा अरब हो चुकी है। वन क्षेत्र कागज पर उतना ही है लेकिन असल में इसका 40 फीसद पहचान में नहीं आता कि जंगल ही है या कुछ और। इंसानों और वन्य जीवों के बीच संघर्ष के विजुअलल्स टीवी स्क्रीन पर खबर बन चुकी हैं। फिर भी, चीतों को नए सिरे से देश में बसाने की योजना को हम घोर आशावादिता ही कह सकते हैं।

आजादी के छह दशक बाद भी पर्यावरण और वन पर हमारे बजट का 0.40 फीसद हिस्सा ही खर्च होता है इसमें वन्य जीवन भी शामिल है। इसका मतलब है कि 15 अहम नस्लों और करीब 650 संरक्षित क्षेत्रों के के लिए 800 करोड़ रूपया ही उपलब्ध है। क्या आपको पता है कि असम से बाहर एक मात्र जगह गैंडे सिर्फ पश्चिम बंगाल में पाए जाते हैं और वहां के गैंडो को बचाने के लिए महज 44 लाख रूपये आवंटित किए जाते हैं। चलिए सुस्त गैंडों को बचाने की बजाय हम तेज-चुस्त चीतों पर दांव लगाना चाहते हैं, और उसके लिए 300 करोड़ रूपये खर्च करने को तैयार हैं।

कुछ जीवविज्ञानियों और भूतपूर्व नौकरशाहों को चीते लाने का यह विचार अभूतपूर्व लगा था। उस दौरान जयराम रमेश वन और पर्यावरण मंत्री थे और उनको यह बहुत भाया था। इसलिए परियोजना पास हो गई। प्रोजेक्ट टाइगर के तहत चीता कार्यक्रम के लिए 50 करोड़ रूपये मंजूर कर दिए गए।

लेकिन सवाल है कि आखिर इस परियोजना की जरूरत ही क्या थी। चीते के रहने के लिए घास भूमि होनी चाहिए और उन्हें छोटे शिकार की जरूरत होती है। लेकिन जिन्हें कूनो पालपुर में घासभूमि कहा जा रहा है असल में वह वह खाली ज़मीन है जो गुजरात के शेरों के लिए जगह बनाने के वास्ते 24 गांवों को खाली करवा कर बनाया गया है।

बहरहाल, अगर कूनों में चीते आएंगे तो यहां शेर बसाने की सरकार की योजना का क्या होगा?शेर और चीते एक साथ नहीं रह सकते। इसी तरह, कूनो में आए चीते तो उनका क्या होगा क्योंकि बगल में रणथंबौर है जहां पहले से बाघों का बसेरा है।

विस्‍थापन के बाद कूनो अभयारण्‍य के दायरे में आने वाले 24 गांवों के विस्‍थापित सहरिया अब केवल राशन के 35 किलो गेहूं-चावल पर निर्भर हैं। उनकी खेती चौपट है, क्‍योंकि जंगल की उपजाऊ जमीन के बदले उन्‍हें जो जमीन दी गई, वो बंजर है।

मकान बनाने के लिए 36 हजार रुपए के अलावा प्रत्‍येक विस्‍थापित परिवार के लिए एक लाख रुपए का वित्‍तीय पैकेज भी शामिल किया गया था। लेकिन इसमें कृषि भूमि, सामुदायिक सुविधाओं, चारागाह, जलाऊ लकड़ी के लिए जगह का विकास और घरेलू सामान के परिवहन का खर्च भी जोड़ दिया गया। आज ये सुविधाएं जमीन पर कहीं नजर नहीं आतीं।

वन विभाग ने विस्‍थापितों को जो जमीनें दिखाईं, वे मौजूदा कब्‍जे वाली जमीनों से अलग थीं। दुर्रेड़ी, खजूरीखुर्द, बर्रेड़, पहड़ी और चकपारोंद में बांटी गई ज्यादातर जमीन असिंचित और बंजर हैं। उन्‍हें इससे सालभर में बमुश्‍किल एक ही फसल मिल पाती है।

विस्‍थापितों के खेतों में खोदे गए 85 फीसदी कुएं अब सूख चुके हैं। कुछ कुएं कपिल धारा के तहत भी खोदे गए, जो सालभर भी नहीं चल सके। कागज़ों पर दर्ज़ है कि विस्‍थापित कुओं से खेतों की सिंचाई कर रहे हैं, उनके खेत भरपूर फसल से लहलहा रहे हैं। जबकि गांव में पीने के लिए पानी भी दूर से लाना पड़ता है।

सहरिया लोग जनजातियों में भी सबसे ज्यादा कुपोषित हैं, साथ ही इस समुदाय में साक्षरता भी सबसे कम है। भारत में सभी जनजातीय समुदायों में साक्षरता का प्रतिशत 41.2 प्रतिशत है,जबकि सहरिया में यह महज 28.7 फीसद है।

शेर या चीते या बाघों के लिए योजनाएं हैं, उन्हें बचाना भी जरूरी है। लेकिन नौकरशाही (इन्हीं के जिम्मे तो सब कुछ है) थोड़ा संवेदनशील होकर सोचे तो सहरिया जैसे वंचित समुदायों की जीवन नष्ट होने से बचाया जा सकता है। अपनी जमीन और भाषा से वंचित इस समुदाय के खत्म होते जाने का जिम्मा किसके सर पर है? शेर, चीतों और बाघों से यह सवाल नहीं पूछा जा सकता। और सत्ता के पास जवाब नहीं है।

Tuesday, January 19, 2016

लखनऊ हम पे फिदा!

इस पोस्ट का पहला हिस्सा आपने पढ़ा होगा हम फिदा-ए-लखनऊ बहुत दिनों बाद सूझी कि उस यात्रा को पूरा कर ही दिया जाए। 

लखनऊ पहुंचते-पहुंचते हम सब निढाल हो चुके थे। हम में से तकरीबन सबने आगे जीवन में कभी भी गोमती एक्सप्रेस से सफ़र न करने का फ़ैसला (छोटा लफ़्ज है यह, अस्ल में कसम खाई) कर लिया। गोमती न्यूज़ की हमारी दस साल की रिपोर्टर मिष्टी सो चुकी थी। कानपुर में वृषाली बहन के घर से आय़ा मेरे भोज का सामान उदरस्थ हो चुका था और पच भी गया था। 

अंततः लखनऊ आ ही गया। सुबह होने को थी। जमशेद भाई फोन कर-करके ऊब चुके थे। और उन्होंने भी निर्णय कर लिया था कि अब हम मिलेंगे तभी बात करेंगे। उन्होंने उलाहना भी दिया था, म्यां, अब क्या समारोह खत्म होने के बाद आओगे। 

थोड़ी जानकारी जमशेद भाई के बारे में दे दूं। पूरी जानकारी देना मेरे वश में नहीं। बेहद क्रिएटिव पत्रकार हैं। लिखते हैं तो लफ़्ज काग़ज़ पर अंकित नहीं होते, नदी की धारा की तरह बहते हैं। ज़बान में बेहद मीठे। हंसते हैं तो दिल खोलकर। दांतो का रंग सफेद है, पूरे मुंह में बत्तीसों दांत मौजूद हैं। 

आप कभी मिलें तो लगेगा आप चे ग्वेरा से मुलाकात कर रहे हैं। उनकी धज भी वैसी ही है, कभी-कभार दाढ़ी भी वैसी ही उग आती है। नीलेश मिसरा की आवाज़ में जब उनकी कहानियां सुनने का मौक़ा मिलता है तो रिश्तों का ऐसा पुरकशिश बयान होता है कि आप बस कहानियों के साथ बहते चले जाएंगे। 

बहरहाल, पौ फटने में अभी कुछ देर थी कि हम लोग नीलेश जी के फ्लैट पर पहुंच गए। समारोह के तैयारियों की गहमा-गहमी कुछ ऐसी खास थी कि उस सोसायटी का गेटकीपर मेन गेट खोलते-खोलते परेशां-सा हो गया था। 

सारी रात जगे थे लेकिन नींद कहां? ऑडिटोरियम में कुछ काम बचा था, सारे लोग वहीं थे तो फ्लैट में सुखनींद किसको होगी। हम भी ऑडिटोरियम चल दिए थे। 

लोग काम करते रहे। हम देखते रहे। असल में, हम मिज़ाज से थोड़े आलसी हैं। तो देखते रहे। काम होता रहा। ऑडिटोरियम में मच्छरों का साम्राज्य था। मच्छर ही मच्छर। तो मच्छर भगाने वाली क्रीम की मालिश ली सबने। 

अचानक बिजली चली गई थी। घुप्प अंधेरा। और फिर आई एक तेज़ सीटी की आवाज़। हमने यह भी सोचा कि सीटी मारने वाला हमारी ही बिरादरी का कोई उचक्का लेखक होगा। लेकिन माशाअल्लाह, हम नाम तो नहीं लेंगे, एक भद्रमहिला के गोल होंठों से निकली थी यह सीटी। मैंने इतनी तेज़ और सुरीली सीटी कभी सुनी नहीं थी। लड़को की सीटी में घोर अशालीनता होती है। इसमें मीठापन था। और सीटी बजने के साथ ही बाहर पौ फट गई थी।

सुबह हुई। और क्या सुबह हुई। हम सूरज निकलने के साथ ही फ्लैट पर वापस आ गए थे। थोड़ी नींद जरूरी थी। हमें लगा था कि चाय पीकर इत्मीनान से नींद लेंगे। लेकिन चाय आने में देर हो रही थी। क़ादरी भाईयों ने कमरे में  पड़े सारे सामान एकतरफ ठेलकर जगह बनाई, और कंबल में घुस गए थे। हमने भी वैसा ही किया था। काहे कि हम शुरू से महाजनो येन गतः सः पंथा के अनुयायी बनने की कोशिश करते रहे हैं। बाक़ी कामों में तो महाजनों की हमने कभी सुनी नहीं। सोने-वोने के मामले में हमने हमेशा ज्यादा को तरज़ीह दी है। 

लोगों को सोए हुए मुझ पर तरस आ गई या चाय कम थी। चाय आने के बाद भी, प्रदीपिका, वृषाली, अनुलता, पूजा, हर्ष जी...आज़म. अकबर या जमशेद भाई किसी ने भी मुझे जगाया नहीं। 

तीन घंटे बाद जगा तो लगा देर हो रही है। जल्दी तैयार होकर ऑडिटोरियम भागा। 

आगे की कहानी अगली पोस्ट में। 


Monday, January 18, 2016

वन, वनवासी और विस्थापित

एक सवाल हमेशा मुझे मथता रहा है कि जंगल यानी पर्यावरण जरूरी है या विकास। पर्यावरण को बचाने का एक आम मतलब उसमें रहने वाले जानवरों को बचाना भी है। लेकिन कई दफा वन विभाग की कोशिशें अकड़ और ज़िद का रूप ले लेती हैं। सरकारी नियम मर्द की ज़बान वाले क्लीशे कहावत सरीखे होते हैं। मर्द की ज़बान में बदलाव वक्त के साथ हो भी जाए, नियमों में ढील नहीं आती।

आज आपको किस्सा बताता हूं कुनो-पालपुर की सहरिया जनजाति का। श्योपुर-शिवराजपुर जिलों के बीच और राजस्थान के रणथंबौर अभयारण्य से सटे इस जंगल में सहरिया जनजाति रहती आई थी। लेकिन उसे अपने पुरखों की ज़मीन छोड़नी पड़ी, क्योंकि जंगलात का महकमा यहां शेर और चीतों (और हां बाघों को भी) बसाना चाहता है।

मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में फैली इस जनजाति को आदिम काल से जंगल के साथ जीने की आदत थी। श्योपुर के जंगल में इनकी खासी तादाद थी। श्योपुर का जंगल कूनो-पालपुर के नाम से मशहूर हैं। ये शिवपुरी और श्योपुर जिले के बीच है। करीब 344 वर्ग किलोमीटर में। 900 वर्ग किलोमीटर के बफ़र ज़ोन को मिला दें तो कुल इलाका बनता है करीब 1244 वर्ग किलोमीटर का।

असल में, जंगल का ज्यादातर हिस्सा घास का खुला मैदान है...जिसमें यहां-वहां छितराए पेड़ मौजूद हैं। यह रहवास शेरों और तेंदुओं के रहने के मुफीद है।

इस इलाके में पुराने जमाने में शेर रहा भी करते थे। श्‍योपुर में आज भी पत्‍थरों से बने वे पिंजरे सुरक्षित हैं, जिन्‍हें यहां के सिंधिया शासकों ने शेरों के शिकार के लिए बनवाया था।

इन्हीं जंगलों में रहने वाली आदिम जनजाति सहरिया के बारे में कहा जाता है कि जंगल में ये हरिया यानी शेर के साथ रहा करते थे। जंगल में कुछ गांव के खंडहर हैं।

जंगल के भीतर ये गांव सहरिया जनजाति के गांव हैं। ये लोग अपनी जिंदगी सदियों से जंगल के साथ और जंगल के बीच गुज़ार रहे थे।

दस्तावेजों के मुताबिक श्‍योपुर से एशियाटिक शेर 1873 में खत्म हो गए। यहां से खत्म होकर सिंह भले ही गुजरात के गीर तक सिमट गए, लेकिन सहरिया का जंगलों पर आश्रय खत्‍म नहीं हुआ।

वे परंपरागत रूप से वनोपज और खेती करके जंगलों में अपना गुजारा बखूबी कर रहे थे। लेकिन1996 में कूनो पालपुर अभयारण्‍य में एशियाटिक शेरों को फिर से बसाने की योजना बनी। तब यहां के सहरिया लोगों को जंगल से जाना पड़ा।

बहरहाल, अभयारण्य की खातिर एक-एक कर 24 गांवों के 1543 परिवारों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा। विस्थापितों में 80 फीसद लोग सहरिया जनजाति के थे। मुआवजे के रूप में हर परिवार को36000 रुपये नकद दिए गए। साथ में दो हेक्‍टेयर जमीन और मकान बनाने के लिए 502 वर्गमीटर ज़मीन दी गई।

हालांकि, 1894 में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम का जोर नुकसान की बजाय नकद मुआवज़े पर था,लेकिन केन्द्र सरकार ने विस्थापितों के हितों की रक्षा के लिए नई राष्ट्रीय नीति रिसेटेलमेंट एवं रिहैबिलिटेशन की घोषणा 2007 में की। इसके तहत जिन परियोजनाओं के तहत मैदानी इलाकों में400 और पहाड़ी इलाकों में 200 परिवार प्रभावित होते हों, वहां विस्थापन के सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाना जरूरी है। इसी अधिनियम में लिखा है कि भूमि का अधिग्रहण बाजार दर पर होगा...अपंग, अनाथ और 50 साल की उम्र से अधिक लोगों को आजीवन पेंशन दी जाएगी।

आंकड़े बताते हैं कि सन् 1950 के बाद से भारत में वन्य जीवों से जुड़ी परियोजनाओं में करीब 6लाख लोग विस्थापित हुए हैं। यह बाकी सभी योजनाओं-परियोजनाओं की वजह से हुए विस्थापन का2.8 फीसद है। इनमें से करीब 21 फीसद यानी 1 लाख 25 हजार लोगों का पुनर्वास किया गया। यानी4 लाख 75 हजार लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया, यह विस्थापित लोगों का करीब 79 प्रतिशत हैं। कुल विस्थापितों में साढ़े 4 लाख लोग जनजाति समुदाय के हैं। यानी करीब 75 फीसद। सिर्फ एक लाख जनजातियों का ही पुनर्वास हो सका, यानी 78 फीसद विस्थापित जनजातियों का पुनर्वास आजतक नहीं हो पाया है।

लेकिन, कूनो पालपुर में यह विस्थापन इस अधिनियम के लागू होने के काफी पहले हो चुका था।

वन्य जीवों को बचाने के लिए सरकार ने काफी कोशिशें की हैं..ऐसा करना जरूरी भी है। विलुप्त होती नस्लों का पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।

सहरिया जनजाति के लोगों को भी विस्थापन के बदले नकद मुआवज़ा मिला। लेकिन इस मुआवजे के बदले सहरिया को अपने सारे पशुधन, जंगलों से इकट्ठा की जाने वाली गोंद, तेंदूपत्‍तों, सफेद मूसली,कंद, कई तरह की फलियों, सतावर और जंगली भाजी जैसे वनोपजों से महरूम होना पड़ा। सहरिया लोगों के मवेशी आज भी जंगल के भीतर देखे जा सकते हैं। फिलहाल सहरिया के पास न तो जंगल हैं और न ही उनमें मिलने वाली जड़ी-बूटियां।

विस्थापन बुनियादी रूप से त्रासदी ही है, लेकिन जब ये अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान का संकट बन जाए, तब विस्थापन का मतलब होता है जिंदगी उजड़ जाना।

सिर्फ शेरों की नई बसाहट की योजना ने ही सहरिया के 24 गांव विस्थापित नहीं किए, इनमें चीतों और बाघों की भूमिका भी है। अगले हफ्ते मैं शेरो, चीतों, बाघों बनाम सहरिया की इस लड़ाई का सीक्वेल पेश करूंगा।

Sunday, January 10, 2016

शौचालय की निगहबानी भी ज़रूरी

हम सब तहेदिल से प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के साथ हैं। इस अभियान के तहत घर-घर शौचालय बनवाकर खुले में शौच से मुक्ति के उपाय किए जा रहे हैं। स्वच्छता अभियान का मकसद ही है, मल की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाव। मानव मल का संपर्क मानव से न हो, यह बेहद जरूरी है। इसलिए साल 2019 तक प्रधानमंत्री चाहते हैं कि देश को खुले में शौच से मुक्ति मिले। यह स्वच्छता अभियान के सबसे अहम उद्देश्यों में से एक है। लेकिन इसके साथ ही शौचालयों के प्रकार पर भी गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है।

भारत में, अभी भी इस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है कि मानव संपर्क में मल के आने से कई प्रकार की बीमारियां होती हैं। मालूम हो कि देश में 60 करोड़ लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। लेकिन समस्या सिर्फ शौचालय बनाने तक सीमित नहीं है। शौचालय किस तरह के बनें और उनमें सीवरेज कैसा हो इस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

हाल में किया गया एक अध्ययन बताता है कि शौचालयों में बढञिया सीवरेज सिस्टम लगाना बेहद जरूरी है और इसमें पानी की सप्लाई पाईप से हो। हालांकि यह खर्चीला होता है लेकिन हमारी सेहत के लिए बहुत जरूरी है। खर्च कम करने के लिए भारत में शौचालयों के रूप में अमूमन लीच पिट्स या सैप्टिक टैंक (मल को वहीं नीचे टैंक बनाकर नालियों के ज़रिए बहाना, या उसे मिट्टी में रिसने के लिए छोड़ देना) ही लोकप्रिय है।

लेकिन इसकी वजह से मानव मल सीधे मिट्टी की उप-सतह में चला जाता है, और इससे उसके दूषित तत्व नजदीकी भूमिगत जल में पहुंच जाते हैं। इससे भूमिगत जल में रोगाणु या नाइट्रेट पदार्थों की मात्रा काफी बढ़ सकती है। हालांकि भूमिगत जल के दूषित होने और ऑन-साइट (सैप्टिक या जमीन में टंकी वाले) शौचालयों के बीच संबंध पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं।

लेकिन ताज़ा अध्ययनों से साबित हुआ है कि इन शौचालयों के आसपास के हैंडपंपों में 18 फीसद फैकल कोलीफॉर्म (जीवाणु) होते हैं और इनमें से 91 फीसद टॉयलेट के 10 मीटर के दायरे में होते हैं।

इस लिहाज़ से देखा जाए तो हमारे गांव में पीने के पानी के दूषित होने की बहुत बड़ी समस्या को हम नज़रअंदाज कर रहे हैं। साथ ही, हमारे कई ग्रामीण समुदाय हैं जो पीने के पानी के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं। यही नहीं, शौचालयों की बनावट में कहीं लीकेज हो, या नालों में कहीं टूट-फूट हो तो उसका असर भी जल को दूषित कर सकता है। तो इसका उपाय क्या है।

हमें अपने समाज को शौचालयों से होने वाले जल-प्रदूषण के बारे में अधिक जागरूक करना होगा। साथ ही, घरेलू पानी को पीने से पहले ठीक से स्वच्छ बनाना होगा।

समाज में जल को दूषण-मुक्त बनाने के उपाय अपनाने होंगे, और जाहिर तौर पर यह उपाय सस्ते होने चाहिए। मिसाल के तौर पर, पानी को उबालना, या सौर ऊर्जा के जरिए पानी को रोगाणुमुक्त करना अच्छा उपाय हो सकता है क्योंकि भारतीय नौकरशाही और आमफहम परिस्थितियो में केन्द्रीकृत जलशोधन यानी गांव में टंकी लगाकर साफ पानी मुहैया कराना सफेद हाथी साबित हो सकता है। इनमें अमूमन कोई वीरू ही वसंती के लिए चढ़ सकता है, इनमें साफ तो क्या, पानी ही नहीं पाया जाता।

मजाक एक तरफ, लेकिन पानी को, खासतौर पर पीने वाले पानी को हर हालत में जीवाणुओं के संक्रमण से दूर रखा जाना चाहिए, खासकर शौचालय के ज़रिए होने वाले संक्रमण से। इसके लिए कोशिश की जानी जाहिए कि शौचालय की टंकी, उसकी नालियां एकदम दुरुस्त और चाक-चौबंद हों। फिलहाल, इस मामले में जागरूकता की खासी कमी है।

ड्रिलिंग इंडस्ट्री को अगर इस बारे में थोड़ा संवेदनशील बनाया जाए, तो यह भी एक उपाय हो सकता है।

लब्बोलुआब यह कि सिर्फ खुले में शौच बंद करना ही एकमात्र उपाय नहीं है। बंद टॉयलेट में शौच के बाद भी वह मल माटी के भीतर मौजूद पानी को संक्रमित न कर दे, इस पर नज़र बनाए रखना भी ज़रूरी है।

Monday, January 4, 2016

सतभाया का शेष


जलवायु परिवर्तन पर बहुत चर्चाएं हुआ करती हैं, लेकिन इसका हम पर और आप पर क्या असर होगा इसको समझना बेहद अहम है। आज मैं आपको एक ऐसे गांव का किस्सा सुनाना चाहता हूं जिसके बारे में पाठकों को जानना बेहद जरूरी है।

सतभाया एक पंचायत है, ओडिशा के केन्द्रपाड़ा जिले में। इस पंचायत में राजस्व रिकॉर्ड्स के मुताबिक डेढ़ दशक पहले तक सात गांव हुआ करते थे। सतभाया, गोविन्दपुरू, कानपुरू, शेकपुरू जैसे गांव थे जहां हर भारतीय गांव की तरह घरौंदो जैसे घर थे, नारियल के पेड़ थे, लोग थे। भीतरकनिका नैशनल पार्क और गहिरमाथा घड़ियाल रिज़र्व के भीतर बसा यह पंचायत समंदर के किनारे था। जी हां, था...क्योंकि अब इस पंचायत में महज डेढ़ गांव बचे हैं।

साढ़े पांच गांव समंदर की पेट में समा चुके हैं। जानकार इसकी वजह समुद्र के जलस्तर में आई बढ़ोत्तरी को बताते हैं। साल 1921 के राजस्व रिकॉर्ड बताते हैं कि सतभाय़ा पंचायत में करीब 1021 वर्ग किलोमीटर रकबा था, अब यह सौ वर्ग किलोमीटर से भी कम बचा है।

आप सतभाय़ा गांव जाएंगे तो समंदर में डूबे ट्यूब वैल की पाईप, स्कूल की डूबी हुई छत भी दिख सकती है। मैंने गांव के बुजुर्गों से बात की तो पता चला पंद्रह-सोलह साल पहले तक समंदर गांव से डेढ़ मील दूर था। लेकिन समंदर अब हर साल अस्सी मीटर आगे बढ़ जाता है।

सतभाया गांव और आगे बढ़ रहे विकराल समुद्र के बीच एक रेत की दीवार-सी है, जो गांव वालों की रक्षा कर रही है। बगल में कानपुरू है, जो आधा डूब चुका है। समंदर का पानी खेतों में घुसकर माटी को खारा बना चुका है। खेती चौपट हो गई है। घर-दुआर डूब चुके हैं। इन गांवों में रह रहे लोगों के बच्चों का ब्याह भी नहीं हो रहा।

हालांकि राज्य सरकार ने कई बार गांव में बचे लोगों को हटाने की कोशिश की है, लेकिन गांव के लोग मानने को तैयार नहीं है। इसकी दो वजहें हैं, विस्थापित पांच गांव के लोग केन्द्रपाड़ा हाइवे के किनारे रहने को मजबूर है, घर-बार तो छिना ही, रोजी-रोटी की दिक्कत भी है और स्थानीय लोगों के साथ सामाजिक संघर्ष भी है।

दूसरी वजह है कि सतभाया में एक प्राचीनकालीन पंचवाराही मंदिर है। गांव के लोगों की उनके साथ इस मंदिर को भी दूसरी जगह स्थापित कर दिया जाए। फिलहाल, योजना फाइलों में घूम रही है।

समंदर की बढ़त रोकने की कोई योजना भी सरकार के पास नहीं है। ओडिशा के पर्यावरणविदों का कहना है कि दुनिया के किसी हिस्से में हो रहे प्रदूषण से धरती का तापमान बढ़ रहा है और इसका फल भुगतना पड़ रहा है बेचारे गांववालों को, जिनकी इस ग्लोबल वॉर्मिंग में कोई हिस्सेदारी नहीं है। पर्यावरणविद् भागीरथ बेहरा कहते हैं कि यह भी तय नहीं किया जा सका है कि आखिर गहिरमाथा रिजर्व और भीतरकनिका नैशनल पार्क पर इसका क्या असर पड़ने वाला है।

बड़ा सवाल है कि आखिर ओडिशा में ही ऐसा क्यों हुआ। इसका भी जवाब हैः असल में विकास की अंधी दौड़ में समंदर के किनारे के मैंग्रोव के जंगल कटते चल गए। मैंग्रोव समुद्री किनारों के लिए प्राकृतिक तटबंध का काम करते हैं और वनस्पति का छाजन होने से अपरदन और कटाव जैसी घटनाएं कम होती हैं।

असल में एक कयास यह भी है कि समुद्री बढ़त का यह मामला किसी प्लेट टेक्टॉनिक गतिविधि यानी भूमि की स्थिति में हलचल होने से भी हुई हो सकती है। यह सब वैज्ञानिक बातें हैं और इसको पलटा नहीं जा सकता है। मेरी चिंता उन लोगों की है जो सड़को के किनारे रह रहे हैं। या उन गांववालों की, जो अपने बच्चों को वह प्रार्थना रटवाते हैं जिसमें कानपुरू और सतभाया के बच्चे ईश्वर से इस आपदा को टालने की गुहार करते नजर आते हैं। सतभाया के लोग गांव को अभी भी छाती से चिपटाए हैं, शायद इसलिए कि एक बार निकले तो पुरखों की यह भूमि उनको दोबारा नजर भी नहीं आएगी।

बच्चों की प्रार्थना में करूणा है। यह इलाका 1997 में महाचक्रवात भी झेल चुका है। इन बच्चों की तालीम और भविष्य की तो छोड़िए, इन्हें दो जून को रोटी की चिता ज्यादा बड़ी लग रही है।

रिपोर्टिंग करते समय रोना अच्छी बात नहीं। मैं अपनी पनियाई आंखों से अपनी पत्रकारिता में यह नुक्स झेल सकता हूं। उम्मीद है कि सतभाया के लोगों की आवाज़ ऊपर तक पहुंचेगी, उस ईश्वर तक, जिन से वो प्रार्थना कर रहे हैं। मुझे उस ऊपर तक आवाज़ पहुंचाने से ज्यादा दिलचस्पी है, जो कुरसी पर बैठक ईश्वर बने बैठे हैं और लाखों लोगों का भविष्य तय करते हैं।