Tuesday, August 25, 2015

जबरजस्त, जिन्दाबाद...नवाज़!!

मुझे यह कहने में क़त्तई गुरेज़ नहीं कि मांझी पूरी तरह नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की फ़िल्म है। केतन मेहता निर्देशक हैं जरूर, लेकिन यह फिल्म पूरी तरह नवाज़ की है।

इस फिल्म के ही बहाने दशरथ मांझी अचानक चर्चा में आ गए हैं। गहलौर चर्चा में आ गया है। नवाज़ तो खैर फिल्म कहानी के बाद से अपनी हर फिल्म की वजह से चर्चा में रहते ही हैं, चाहे किक हो, लंचबॉक्स हो या फिर बजरंगी भाईजान...लेकिन अब तो लोग उनकी पुरानी फिल्में देखकर उनकी भी चर्चा करने लगे हैं। मिसाल के तौर पर, सरफरोश में वह 45 सेकेन्ड की भूमिका में थे, पीपली लाइव में थे...शॉर्ट फिल्म बाईपास में थे।

नवाज़ अपनी हर अगली फिल्म के साथ निखरते जाते हैं, और इस बिनाह पर कहें तो हैरत की बात नहीं कि मांझी उनकी अब तक की सबसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म है।

फिल्म शुरू होते ही आप ख़ून से लथपथ नवाज़ को देखते हैं जो सीधे पहाड़ को ललकारता है। फिर आप पत्थरों पर हथौड़े पड़ते देखते हैं। फिर ज़मींदार के उत्पीड़न, पत्रकारिता को देखते हैं। कहानी के साथ आप बहते जाते हैं। मेहता को यह सब करना ही था, क्योंकि 22 साल के दौर में बिहार में जो कुछ हुआ, उसे दर्ज किए बगैर यह फिल्म पूरी ही नहीं हो सकती थी। इस लिहाज़ से यह बहुत जरूरी फिल्म है।

एक बार फिर मैं यह कह रहा हूं कि बेहद शानदार यह फिल्म, सिर्फ नवाज़ की है। थोड़ी बहुत राधिका आप्टे की है। तिग्मांशु धूलिया और पंकज त्रिपाठी में गैंग्स ऑफ वासेपुर की छाप है और दोनों ही अभी तक उसके हैंगओवर से बाहर नहीं निकल पाए हैं।

जाति प्रथा पर चोट करती हुई यह फिल्म मारक लगती है। लेकिन मुसहरों का कोई बड़ा रेफरेंस नहीं देती है। अब बिहार-पूर्वी यूपी के अलावा बाकी देश और विदेश के लोगों को मुसहरों का व्यापक संदर्भ नहीं मिल पाता। सिर्फ इतना रजिस्टर हो पाता है कि मुसहर एक अछूत जाति है।
तो यह फिल्म इसके कलाकारों और दशरथ मांझी की है। लेकिन यह फिल्म केतन मेहता की नहीं है। फिल्म शुरू होते वक्त अधूरा लगता है और बिना किसी संदर्भ के शुरू हो जाता है। (यह निजी अहसास है) कैमरा पहाड़ को उसकी विशालता में क़ैद तो करता है लेकिन निर्देशक बारीकी में पिछड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, सन् 1975 में भारतीय रेल का कोई डब्बा नीला नहीं था। पूरे देश में रेल के डब्बे सिर्फ लाल रंग के होते थे।

तब, यानी 1975 में जब मांझी इंदिरा गांधी से मिलने दिल्ली जा रहे होते हैं, तो रेल के भीतर तीसरे (या दूसरे?) दर्जे की साफ-सफाई भी अचंभित करती है। वह जाहिर है, वज़ीरगंज में चढ़ रहे थे लेकिन...चलिए इतनी साफ-सुथरी रेल से बिहारवासियों को ईर्ष्या हो सकती है।

जमीन्दार वाले कुछ दृश्य ढीले हैं और उसमें और कसावट लाई जा सकती थी।

लेकिन, केतन मेहता की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने नवाज़ुद्दीन के मोहब्बत के अंदाज़ को एकदम अलहदा अंदाज़ में पेश किया है। राधिका आप्टे और नवाज़ का प्रेम परदे पर अल्हड़ भी है, मज़ेदार भी और कई दफ़ा उन्मुक्त भी। लेकिन अब तक रूखड़े किरदार निभा रहे नवाज़ ने साबित कर दिया कि उनका रोमांस—मैं दशरथ मांझी वाले किरदार की नहीं, नवाज़ के इस किरदार को निभाने की बात कर रहा—शाहरूख वाले रोमांस से बेहतर है।

वैसे, मेरे छिद्रान्वेषण और गुस्ताख़ी को छोड़ दें तो केतन तो केतन ही हैं। ज्यादातर दर्शक और संभवतया समीक्षक भी नवाज़ में चिपककर गए होंगे। लेकिन गरीबी हटाओ का नारा दे रही इंदिरा गांधी के टूटते मंच को जिसतरह मांझी जैसे चार लोगों ने कंधे का सहारा दिया है, यह मेटाफर ही उस वक्त के सियासी कहानी के कहने के लिए काफी है। केतन मेहता की इसके लिए मैं जी खोल कर तारीफ करना चाहता हूं।

संवाद तो शानदार हैं ही। जब तक तोड़ेगा नहीं...या फिर क्या पता भगवान आपके भरोसे बैठा हो..पहले ही हिट हैं। और दिलकश भी।

दशरथ मांझी की कहानी पहले ही बहुत प्रेरणादायी है, नवाज़ की अदाकारी और केतन मेहता के कमोबेश आला दर्जे के निर्देशन ने इसे नए आयाम दिए हैं।

Monday, August 24, 2015

बिहार की लॉटरी

लोकसभा चुनाव देश में एक लहर का चुनाव था। उस चुनाव की गर्द साफ होने से पहले कुछ राज्यों में भी चुनाव हुए और कमोबेश बीजेपी ने ही जीत दर्ज की। लेकिन बिहार का मामला झारखंड या हरियाणा या महाराष्ट्र से अलहदा है।

अलहदा इसलिए है क्योंकि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र सियासी प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं। नीतीश कुमार ने हालांकि अपनी सेकुलर छवि के लिए जमी-जमाई विकास पुरुष की छवि का त्याग कर दिया। अब यह इमेज प्रधानमंत्री के साथ जाकर जुड़ गई है।

मीडिया इस चुनाव को युद्ध से कम कवरेज नहीं दे रहा और असल में नीतीश के लिए यह सियासी जीवन-मरण का प्रश्न है। लालू इस लड़ाई में तीसरा कोण बन गए हैं।

बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा है। बिहार में चार रैलियों में मोदी ने विकास का ही नारा दिया है। उन्होंने बिहार के लिए आर्थिक पैकेज के लिए एक सस्पेंस बनाकर रखा था और मुजफ्फरपुर या गया की रैलियों की बजाय पारे को चढ़ने देने का इंतजार किया।

लेकिन लंबे इंतजार के बाद बिहार को आखिरकार विशेष आर्थिक पैकेज मिल ही गया। कुप्रबंध, कुप्रशासन और नजरअंदाजी की वजह से बिहार में सड़को, पुलों और बाकी बुनियादी ढांचे पर नीतीश काल से पहले शायद ही कोई काम हुआ था। बिहार में एनडीए वाली नीतीश की सरकार बनी तबतक केन्द्र में कांग्रेस सरकार आ चुकी थी और बिहार को वह समर्थन नहीं मिला था, जिसकी उसे जरूरत थी।

अब प्रधानमंत्री ने आरा की रैली में 1.25 लाख करोड़ के बिहार पैकेज का ऐलान किया है। साथ ही यह भी साफ किया कि इस पैकेज में 40 हज़ार करोड़ के बिजली संयत्र के मिले पैकेज शामिल नहीं है।

वैसे बिहार को जो मिला है उनमें से कुछ की घोषणा बजट में पहले ही की जा चुकी है और कुछ ऐसी हैं जो सौ टका नई हैं। इस सवा लाख करोड़ में से 54,713 करोड़ रूपये राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने में खर्च होंगे। ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा है प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और उसके लिए 13,820 करोड़ रूपये हैं। यानी पूरे पैकेज का तकरीबन आधा हिस्सा सड़क संपर्क बहाल करने पर है।

वैसे इस पैकेज की खास बात है कि इसमें रूपये की कानी कौड़ी भी राज्य सरकार अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। आमतौर पर राज्यों को सीधे पैसा दिया जाए तो वहां की सरकार उसे लोकलुभावन कार्यों पर खर्च करना पसंद करती हैं, न कि दीर्घकालिक ढांचे खड़े करने में। कुछ ऐसा ही मसला ऐन चुनाव के वक्त तेलंगाना राज्य के गठन का फैसला भी था।

अब सवाल है कि प्रधानमंत्री ने अगर बिहार के लिए पैकेज दिया है तो क्या सियासी रूप से सटीक यह कदम नैतिक रूप से सही नहीं है? जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है। तो कांग्रेसनीत पहले यूपीए की सरकार ने किसानों के लिए चुनावों से ऐन पहले करीब 70 हजार करोड़ रूपये की किसान ऋण माफी योजना चलाई थी। असली किसानों को कितना फायदा मिला था यह तो किसान ही जानें, लेकिन यूपीए ने सत्ता में वापसी की थी।

वैसे नीतीश कुमार के लिए बुरी खबर है कि असद्दुदीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर अपने उमीदवार खड़े कर सकती है। बस अब औपचारिक घोषणा करना बाक़ी है। 16 अगस्त को किशनगंज में ओवैसी का भाषण इस तरफ एक ठोस क़दम था।

अभी तो स्थिति यह है कि बिहार में हर बड़े शहर में सभी मुख्य चौर चौराहों की होर्डिंगों पर नीतीश कुमार टंगे हुए हैं। बीजेपी स्टेशनों पर अपने होर्डिंग लगाकर काम चला रही है।

सवाल यह है कि क्या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ का प्रशांत किशोर का गढ़ा हुआ नारा चल पाएगा या लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का सक्रिय साझीदार बना बिहार इस दफा फिर से उसे दोहराएगा।

फिलहाल बिहार की जनता सवा लाख करोड़ में लगने वाले शून्य गिन रही है।

Sunday, August 23, 2015

बिहारी अस्मिता का डीएनए

बिहार के चुनाव में इस बार किसिम-किसिम की बातें सुनी जा रही हैं। वैसे हमेशा से सुनी जाती हैं। लेकिन जिस राज्य में राजनीति लोगों को घलुए में मिलती है, उसमें मुद्दों को ज़मीन से हवा की तरफ कैसे मोड़ दिया जाता है, इस बार का चुनाव उसकी मिसाल है। बरसो पहले बीजेपी-जदयू गठजोड़ ने लालू के जंगल राज के खिलाफ नीतीश के विकास पुरुष की छवि गढ़ी थी। तब बिहार के लोग लालू-राबड़ी राज से दिक हो चुके थे और नीतीश कुमार में उनको अपना तारणहार नज़र आया था।

इस बार युद्ध में आमना-सामना मोदी और नीतीश का है। लालू सपोर्टिंग रोल में हैं। इस बार लालू को सपोर्टिंग रोल में कुछ अच्छा रिजल्ट नहीं मिला तो उनके लिए अगले कुछ साल के लिए परिदृश्य से गायब हो जाने का ख़तरा है।

तो विकास पुरुष नीतीश कुमार की मजबूती विकास का नारा था और उनके लिए यह जाति से ऊपर जगह रखता था। लेकिन, कुरमी-कोइरी उनका भी वोटबैंक था, और फिर उनका महादलित प्रयोग भी था, जिसमें बीजेपी सेंध लगाने की जुगत में है और सामाजिक अभियांत्रिकी का बारीक समीकरण भी नीतीश ने ही भिड़ाया था।

वही नीतीश इस दफा, सब कुछ छोड़छाड़ कर डीएनए सैंपल एकत्र कर रहे हैं। वह केन्द्र को 50 लाख डीएनए सैम्पल की बजाय नाखून और बाल लिफाफे में भिजवा रहे हैं।

नीतीश कुमार ने इस बार की लड़ाई में समझिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा है, और वह है बिहारी अस्मिता का। डीएनए सैंपल भिजवाना उसी लड़ाई की घेराबंदी है। लेकिन इस अस्मिता अभियान की कई समस्याएं है। पहली तो यही कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे सूबे खुद को हिन्दुस्तान मानते हैं और ऐसे सूबों में अस्मिता का सवाल गौण हो जाता है।

दिल्ली में बिहार के लोगों को बिहारी कहा जाता है और तकरीबन गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन वहां अस्मिता का सवाल ही खड़ा नहीं होता। बिहार में सांस्कृतिक और भाषायी अस्मिता पर कभी बात नहीं होती। ऐसा मान लेना मुश्किल है कि बिहार में मिथिला के अलग राज्य (भाषायी आधार पर) के लिए कोई जबरदस्त आंदोलन कभी जड़ें जमा सकेगा।

आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु या कर्नाटक में भाषायी अस्मिता की तगड़ी पहचान है। लेकिन वहां अब चुनाव भाषा या अस्मिता के सवाल पर नहीं लड़े जाते। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है, जो शिव सेना की कार्बन कॉपी बनने के जुगाड़ में थी। अस्मिता के प्रश्न पर तेलुगुदेशम, या असम गण परिषद् सत्ता में आई थी। लेकिन शिवसेना के शक्ति अर्जन या बाकी के सत्ता में आने के दशक से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह गया है तो एक सीधा सवाल बनता है कि अस्मिता का प्रश्न अब इन राज्यों से बिहार की तरफ कैसे आ गया।

नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में एक तो सत्ता-विरोधी लहर है ही और हर सत्तारूढ़ पार्टी को इसे झेलना ही होता है। लेकिन वोटों के बिखराव को रोकने के लिए जिसतरह उन्होंने अपने ही धुर विरोधी के साथ कदमताल किया है। गठजोड़ बनाना सामान्य बात है लेकिन फिर ट्विटर पर उनका बयान कि उन्होंने ज़हर पिया है, शायद उनके पक्ष में नहीं रहा। नीतीश के उस बयान को नरेन्द्र मोदी ले उड़े, और गया की रैली में तो उन्होंने मज़ाकिया लहजे में पूछा भी कि आखिर इनमें भुजंग प्रसाद कौन है और चंदन कुमार कौन?

जाहिर है, मोदी विकास के अपने उन सपने के वायदों पर कायम हैं जो उन्होंने बिहार की जनता को लोकसभा चुनाव के दौरान दिए थे। वह कहते भी है कि चुनाव की वजह से हम घोषणा नहीं कर सकते। यानी उनके पत्ते अभी खुले नहीं हैं। लेकिन आंकड़ों में सटीक रहने वाले मोदी बीमारू राज्यों में बिहार की गिनती करते हुए यह भूल गए कि पिछले कुछ साल में बिहार की वृद्धि दर बेहद शानदार रही थी। राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर। लेकिन भावनात्मक मुद्दे उछालने का जो आरोप कभी बीजेपी पर लगता था, वह इस बार जेडी-यू पर लग रहा है।

मोदी ने कहा था लोकतंत्र नीतीश के डीएनए में नहीं है। नीतीश ने उसमें से सिर्फ डीएनए को उठाया। अब वह इस मसले को दलितो-महादलितों को कैसे समझाएंगे? शायद इस तरह कि, केन्द्र से आकर एक प्रधानमंत्री ने बिहारियों को गाली दी है।

लेकिन, नीतीश को पता होगा ही कि बिहारियों को गाली सुनने की आदत है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में मजूरी कर रहे बिहारियों का अपमान होता रहा है, और 2005 से जब से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने बिहार की अस्मिता का सवाल कभी नहीं उठाया था। शक तो जाहिर है होगा ही।

Thursday, August 13, 2015

विकास की रफ्तार से कुचले जाते लोग

इस बार के स्तंभ में कायदे से मुझे कांग्रेस सांसदो के लोकसभा से निलंबन पर या फिर एक आतंकवादी को दी गई फांसी पर टिप्पणी करनी चाहिए। लेकिन यह ऐसे मसले हैं जिनपर न जाने कितनी चर्चा हो गई है। इसलिए मैं इस दफा इस स्तंभ में ऐसा मसला उठा रहा हूं जो वाक़ई अभी तक नक्कारखाने में तूती सरीखी ही है।

मसला भी ऐसा है जिसमें कोई ग्लैमर नहीं। कोई राजनीतिक दल इसे चुनावी घोषणापत्र में भी जगह नहीं देगा, क्योंकि इससे वोट बटोरे जाने की उम्मीद भी नहीं है।

मध्य प्रदेश के घने जंगलों के बीच बसा पन्‍ना का एक गांव है उमरावन। पन्‍ना जिले के देवनगर ग्राम पंचायत के तहत इस गांव में अप्रैल 2014 के सर्वे के मुताबिक 102 पुरुष, 137 महिलाएं और 43 बच्‍चे (0-6 साल के हैं)।

गांव के लोग पास की पत्‍थर खदानों में सौ-दो सौ रुपये रोजाना की मजदूरी या फिर जंगल से सूखी लकड़ियां बटोरकर बाजार में बेचकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं।

यह गांव एनडीएमसी की पन्‍ना डायमंड माइंस के अंतर्गत आता है। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने एनडीएमसी को पहले पन्‍ना टाइगर रिजर्व में अपनी खदान बंद करने को कहा, लेकिन फिर उसे जारी रखने की अनुमति भी दे दी। लेकिन जिला प्रशासन अब उमरावन गांव के लोगों को वहां से हटाना चाहता है। यानी खदान चल सकती है, पर गांव के लोग नहीं रह सकते।

पन्‍ना टाइगर रिजर्व की अपनी मुआवजा व्‍यवस्‍था है। इसके तहत 10 लाख रुपए का एकमुश्‍त पैकेज दिया जाता है। जमीन के बदले जमीन की कोई मांग उन्‍हें मंजूर नहीं होती, क्‍योंकि इस प्रक्रिया में कई पेंच हैं। एक तो जमीन नहीं है, दूसरे पुनर्वास का पूरा कानून इसमें लागू होता है, जो कि राज्‍य सरकार की आदर्श पुनर्वास नीति भी है। पुनर्वास को लेकर राजनीति भी होती है, इसलिए प्रशासन और वन विभाग हमेशा यही चाहता रहा है कि किसी तरह मामला एकमुश्‍त पैकेज देकर निपट जाए।

उमरावन गांव के लोगों के लिए भी वन विभाग से 10 लाख रुपए प्रति व्‍यक्‍ति (परिवार में 18 साल से ज्‍यादा के विधवा और तलाकशुदा लोग भी हो सकते हैं) मुआवजा तय किया है। दो माह पहले गांव में सुबह साढ़े पांच बजे जन-सुनवाई हुई। गांव के लोगों के साथ दूसरे गांव के भी लोग थे। जमीन या मुआवजा राशि, इन दो सवालों पर राय मांगी गई। चूंकि मुआवजा राशि के पक्ष में हाथ उठाने वाले 4 लोग अधिक थे, लिहाजा कलेक्‍टर ने उनके ही पक्ष में फैसला लिया।

जनसुनवाई में कुछ ऐसे परिवार भी थे, जो चार पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं। वे गांव नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन बहुमत मुआवजा लेकर गांव छोड़ने के पक्ष में है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, गांव में तकरीबन सभी परिवारों के पास खेती की जमीन है। गांव के 71 परिवारों में से 14 के पास वनाधिकार कानून के पट्टे भी हैं।

पत्‍थर खदानों में काम करने वाले गांव के कई पुरुष सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित हैं। गांव के 14-15 साल के बच्‍चे सुबह पांच बजे से खदानों में काम करने पहुंच जाते हैं। 30 साल की उम्र तक पहुंचते उन्‍हें सिलिकोसिस बीमारी घेर लेती है। बाद में वे 15-20 साल और जी पाते हैं।

गांव में पांचवीं तक एक स्‍कूल और मिनी आंगनबाड़ी है। गांव की राशन दुकान छह किमी दूर बड़ौड़ में है, जो माह में केवल दो दिन ही खुलती है। अब कलेक्‍टर ने सभी विस्‍थापितों के बैंक खाते में मुआवजा राशि जमा कर दी है, लेकिन सभी लोगों के पास बैंक खाते भी नहीं हैं। गांव का बिजली कनेक्‍शन काट दिया है, ताकि वे गांव छोड़ने पर मजबूर हो जाएं।

गांव वालों को वन विभाग के मुआवजे पर यकीन नहीं है, क्‍योंकि अब तक उनके मवेशियों को टाइगर रिजर्व से जितना नुकसान हुआ, उसका एक पैसा भी नहीं मिला है। दूसरी तरफ वन विभाग आए दिन जंगल से सूखी लकड़ियां लाने वाली महिलाओं को पकड़कर उनसे 1500 से 5000 रुपए तक वसूलता है।

मेरे जेहन में दो तीन सवाल हैं। अव्वल, अगर खदान को सशर्त अनुमति दी जा सकती है तो क्या गांववालों का विस्थापन अपरिहार्य है? दोयम, जन-सुनवाई सुबह साढ़े पांच बजे क्यों हुई? तीसरी बात, ज़मीन पर वनाधिकार के पट्टों की सुनवाई कैसे होगी?

बाघ और जंगल जरूरी हैं, लेकिन जड़ से उखाड़े जा रहे लोगों के भविष्य का ध्यान रखा जाना जरूरी है। बात, इतनी सी है कि विकास की रफ़्तार में कहीं कोई तबका कुचल न दिया जाए।




Wednesday, August 5, 2015

कलाम होने का मतलब

कलाम होने का मतलब क्या है? इस एक हस्ती का परिचय किन शब्दों में कराया जा सकता है...शायद एक वैज्ञानिक..देश के प्रथम व्यक्ति, चिंतक, प्रेरणादायी व्यक्तित्व...। 84 साल की उम्र कम नहीं होती। लेकिन अगर वह उम्र एपीजे अब्दुल कलाम की हो, क़त्तई अधिक नहीं मानी जा सकती।

कलाम साहब से बहुत कुछ सीखना शेष था।

देश के दक्षिणतम शहर रामेश्वरम में एक मुअज्जिन पिता के साए में पले बढ़े, अब्दुल पकिर कलाम बचपन से ही आध्यात्मिक वातावरण में पले बढ़े थे। कई दफा एपीजे कलाम ने लिखा, कि एक ही रौशनी है और हम सब उस लैंपशेड की सुराखें हैं।

रोशनी की वह सबसे बड़ी और रौशन सुराख आज खत्म हो गई। असल में, कलाम असफ़लता के बाद सफलता की अदम्य कहानी हैं। सफलता वो भी ऐसी...विराट्.!!

कलाम होने का मतलब होता है बच्चे-बच्चे की ज़बान पर जिस वैज्ञानिक का नाम हो। कलाम यानी मिसाइल मैन। कलाम यानी एयरोस्पेस तकनीक के बड़े जानकार। कलाम यानी बच्चों के प्यारे राष्ट्रपति। कलाम यानी सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति।

रामेश्वरम की पंचायत के प्राथमिक स्कूल में शुरू हुए उनके दीक्षा-संस्कार से लेकर शिलॉन्ग में आईआईएम में छात्रों के बीच आखिरी संबोधन तक...कलाम साहब ने जितना सीखा, उस ज्ञान को, उस विचार को आगे बढ़ाया।
कलाम...जिन्होंने नौजवान इंजीनियर के तौर पर, डॉ ब्रह्म प्रकाश और डॉ सतीश धवन,  के साथ काम किया। कलाम, जो हमेशा छात्रों से कहते कि नकारात्मक सोच किसी सफर में बीस बैग साथ लेकर चलने की तरह है। जो आपके सफर को दुश्वार बनाती है।

कलाम, जो एक दूसरे के विचारों और व्यक्तियों की क्षमता के प्रति सहिष्णुता की बात करते थे। कलाम होने का मतलब ही यही है, जो सबको शपथ दिलवाए कि हम अपनी प्रतिभा का उपयोग दुनिया को बेहतर बनाने में करें, कि हम अपना जीवन नैतिक और संतुलित रूप से जिएं।

कलाम का मतलब होता है लोगों को यह सिखाने वाला कि अकादमिक मेधाविता आईने से अलग नहीं होती। एक बार धूल हटा दो, आईना चमकने लगता है और परछाईं साफ होती है।
कलाम, वह, जो कहे कि हमारी चेतना ही हमारी नैतिकता की जन्मभूमि है। कलाम वह, जो कहे कि हमारी चेतना ही हमारी असली मित्र है।

कलाम का मतलब है, जो परमाणु परीक्षण के दौरान मेजर जनरल पृथ्वीराज के कूटनाम से काम करे और परीक्षण के विस्फोट से पहले जो यह बुदबुदाए कि  ‘ईश्वर की शक्ति विध्वंस नहीं करती, यह एक करती है।,’
कलाम का मतलब है वह ऋषि, जो सादगी से जिए, जो विज्ञान के सिद्धांतो पर न सिर्फ रक्षा में अपने देश को ताकतवर बनाए है बल्कि जो यह भी कहे कि नैनो-बायो-कॉग्नो तकनीकों का नवजात अभिसरण इस बात की गवाही है, कि प्रकृति सिर्फ सिरजती ही है।

कलाम वह हैं जो तरक्की के लिए एक ऐसे नज़रिए की जरूरत बताते हैं जो यह सुनिश्चित करे कि सामाजिक पिरामिड के निचले पायदान पर खड़े लोगों के लिए जीने की शर्तें भी सुधरेंगी और जो सामाजिक, राजनातिक और आर्थिक सरहदों से परे होंगी।

कलाम का मतलब होता है एक ऐसा वैज्ञानिक, जो अखबार बेचकर अपनी पढ़ाई के खर्च पूरे करे, और खुद अखबारों की सुर्खियों में आ जाए। जो मिट्टी के तेल के दियों के नीचे पढ़ाई करे, खुद रौशनी की लौ बन जाए।

कलाम का मतलब है एक ऐसा संत, जो देश को एक तयशुदा वक्त के अंदर विकासशील देश की सरहद से बाहर निकाल कर विकसित देश बनाने का विज़न पेश करे।

कलाम का मतलब है एक ऐसा अगुआ, जो छात्रों के दिमागों को जाज्वल्यमान बनाने के मिशन को लेकर चले। कलाम का मतलब है समाज का हर वह शख्स जो अपने लिए एक मिशन लेकर चलता है, और उस मिशन को पूरा करने में जुट जाता है। कलाम का मतलब है अप्प दीपो भवः यानी अपना दिया खुद बनो की प्रेरणा।

कलाम का मतलब है हम और आप। कलाम का अर्थ है खुद कलाम। कलाम मर नहीं सकते। कलाम मरा नहीं करते।