Tuesday, April 30, 2013

इतिहास का भूगोल, भूगोल का इतिहासः सुशील झा

 
सुशील झा, पत्रकार

सुशील झा, पेशे से तो पत्रकार हैं, लेकिन उनके अंदर एक रचयिता भी है। सामाजिक विषयों खासकर, समाज के वंचित तबके को लेकर उनकी कविताएं जोरदार तरीक़े से अपनी बात कहती है, गद्य भी कविता की शैली में लिखते हैं, यूं तो वर्चुअल स्पेस में लगातार लिखते हैं, लेकिन लेखन की उनकी शैली दिल को बाग-बाग कर देती है। इतिहास और भूगोल के मेटाफर के इस्तेमाल करते हुए,फेसबुक पर स्टेटस के तौर पर लिखा गया उनका ये अद्भुत लेखन पेशे-नज़र है---- 



1. हर लड़की का इतिहास होता है और हर लड़के का भूगोल...वैसे, हर लड़की को लडके के इतिहास में और हर लड़के को लड़की के भूगोल में रुचि होती है...इन भूगोल-इतिहास की चट्टानों पर प्रेम की दूब उग जाती है...इधर उधर छितर बितर।

2. इतिहास और भूगोल की लड़ाई जहां खत्म होती है वहां दर्शन पैदा होता है....बाल-दर्शन।

3.मैं इतिहास में पीछे था...वो भूगोल में आगे थी...दूब ने दोनों को पीछे छोड़ दिया...और हम फ्रायड की बांहों में झूल गए.

4. धड़कते-धड़कते दिल दीवार हुआ जाता है...लिखते लिखते लिखना लाचार हुआ जाता है...। हम तो पड़े थे उसके भूगोल में, और वो अब इतिहास हुआ जाता है।

5. भूगोल में बैठ कर इतिहास लिखना कैसा होता होगा...और इतिहास में बैठ कर भूगोल के बारे में सोचना

6. एक दिन इतिहास ने भूगोल को गोल कर दिया...भूगोल के गोल होते ही दोनों गार्डन के इडेन में पहुंच गए......
भूगोल के गोल होने से दूब सूख गई और फिर गोल गणित का जन्म हुआ जिससे फिर आगे चलकर लॉजिक, फिजिक्स और मेटाफिजिक्स की शुरुआत हुई।

7. बड़े शहर में हर बात छोटी होती है और छोटे शहर में हर बात बड़ी......वैसे बड़े शहर में हर बात भूगोल पर अटकती है....छोटे शहर में हर बात इतिहास पर।

8. भूगोल बदलता है तो इतिहास बनता है और नया भूगोल पुराना इतिहास ज़रूर पूछता है लेकिन इतिहास को सिर्फ भूगोल में रुचि होती है. इतिहास भूगोल का इतिहास कभी नहीं पूछता। 

9. इतिहास की नियति है भूगोल के पीछे भागना..उसे पकड़ना और फिर उसे इतिहास में बदल देना

10. एक दिन इतिहास ने भूगोल के सामने अपने इतिहास के पन्ने पलटने शुरु किए. भूगोल ने ये देखकर अंगड़ाई ली और अपना जुगराफिया बदला. जुगराफिया बदलते ही इतिहास का मुंह खुला का खुला रह गया और फिर दोनों मिलकर दूब उगाने लगे..

11. ...और फिर एक दिन भूगोल ने कहा इतिहास से कि मुझे तुम्हारा इतिहास पढ़ना है. इतिहास के पास इसका कोई जवाब नहीं था. उसे अपने पुराने भूगोल की याद सताने लगी और वह सामने के भूगोल को ताकते हुए सोचने लगा काश कि दूब उगने लगे फिर से...

12 .नया भूगोल मिलते ही इतिहास अपना पुराना इतिहास भूलना चाहता है लेकिन भूगोल को हमेशा इतिहास के पुराने इतिहास में रुचि होती है

13. इतिहास हमेशा भूगोल भूगोल खेलना चाहता है और भूगोल हमेशा इतिहास इतिहास . इस खेल में नुकसान हमेशा दूब का होता है.

14. भूगोल इतिहास की रगड़ में सबकुछ खत्म हो चुका था. बरसों बीत गए थे. झुर्रियों पड़े हाथों में हाथ थे. इतिहास भूगोल के इतिहास में गुम था और भूगोल इतिहास के भूगोल के इश्क में उलझा हुआ-सा था.






Friday, April 26, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः कुशीनारा, जहां बुद्ध ने ली थी अंतिम सांस


बनारस के बाद हमारा अगला पड़ाव था, कुशीनगर। हमारी महापरिनिर्वाण एक्सप्रैस तो गोरखपुर में जाकर रूक गई। और इस दफा अलसभोर में ही पहुंच गई। बस से हम कुशीनगर पहुंचे। 
प्राचीनकाल में कुशीनगर का नाम कुशीनारा था।
 
ईसा से 483  साल पहले भगवान बुद्ध ने यहां पर अपनी देहत्याग की थी। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहा जाता है। 

कुशीनगर में सबसे प्रमुख स्तूप है वो है निर्वाण स्तूप। ईंट और रोड़ी से बने इस विशाल स्तूप को 1876 में कार्लाइल ने खोजा था। इस स्तूप की ऊंचाई पौने तीन मीटर है। 

खुदाई से यहां एक एक तांबे की नाव मिली। इस नाव में खुदे अभिलेखों से पता चलता है कि इसमें महात्मा बुद्ध की चिता की राख रखी गई थी।


महानिर्वाण या निर्वाण मंदिर कुशीनगर का प्रमुख आकर्षण है। इस मंदिर में महात्मा बुद्ध की 6.10 मीटर लंबी प्रतिमा स्थापित है। 1876 में खुदाई के दौरान यह प्रतिमा प्राप्त हुई थी। यह सुंदर प्रतिमा चुनार के बलुआ पत्थर को काटकर बनाई गई थी। प्रतिमा के नीचे खुदे अभिलेख के पता चलता है कि इस प्रतिमा का संबंध पांचवीं शताब्दी से है। कहा जाता है कि हरीबाला नामक बौद्ध भिक्षु ने गुप्त काल के दौरान यह प्रतिमा मथुरा से कुशीनगर लाया था।
महात्मा बुद्ध की लेटी प्रतिमा, कुशीनारा


दरअसल, इस प्रतिमा की खासियत है कि इसमें बुद्ध लेटे हुए हैं। पैर की तरफ से देखे तो वह मृत शरीर की भंगिमा वाली है, जिसे निर्वाण मुद्रा कहते हैं। छाती के पास से देखें, तो बुद्ध आशीर्वाद देने की मुद्रा में नजर आते हैं, और सिर की तरफ से देखे तो यह प्रतिमा मुस्कुराती हुई नजर आती है।

यहीं से थोड़ी दूर पर, माथाकौर मंदिर भी है। 

भूमि स्पर्श मुद्रा में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा यहां से प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा बोधिवृक्ष के नीचे मिली है। इसके तल में खुदे अभिलेख से पता चलता है कि इस मूर्ति का संबंध 10-11वीं शताब्दी से है। इस मंदिर के साथ ही खुदाई से एक मठ के अवशेष भी मिले हैं।

बुद्ध के काल में कुशीनगर, बाद में कसिया बन गया। यह मल्लों की राजधानी थी, जिसका वर्णन महाभारत के भीष्म पर्व में भी है।
निर्वाण स्तूप का अगला हिस्सा, कुशीनगर


बौद्ध साहित्य में कुशीनगर का विशद वर्णन मिलता है। इसमें कुशीनगर के साथ 'कुशीनारा, कुशीनगरी और कुशीग्राम  जैसे दूसरे नामों का भी उल्लेख है। बुद्ध-पूर्व युग में यह कुशावती के नाम से विख्यात थी। 

बुद्ध को भी कुशीनगर से कुछ ज्यादा ही लगाव था। कुछ बौद्ध साहित्यों में सात बोधिसत्वों के रूप में बुद्ध ने मल्लों की इस राजधानी पर शासन किया था। आखिरी बार जब बुद्ध यहां आए को मल्लों ने उनका खूब स्वागत किया और उनके स्वागत-सत्कार में शामिल न होने वाले पर 500 मुद्राओं का दंड निर्धारित किया गया था।

गौरतलब है कि बुद्ध के निर्वाण के संदर्भ में कई किस्से चलते हैं। लेकिन वहां के स्थानीय गाइड ने हमें बताया कि बुद्ध को एक लुहार के हाथों शूकर (इसके दो अर्थ हैं, सू्अर का मांस और शकरकंद) खाने से अतिसार हो गया। 

तब उन्हें लग गया कि विदाई की वेला आन पड़ी है। फिर, बुद्ध ने महापिरनिर्वाण हासिल किया। तब उनके शरीर को सात दिनों तक दर्शनो के लिए रखा गया और फिर मुकुटबंधन चैत्य के स्थान पर उनका दाह संस्कार किया गया। 

दाह-संस्कार के पश्चात् अस्थि-विभाजन के संदर्भ में विवाद उत्पन्न हो गया। इस अवसर पर उपस्थित लोगों में वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, अल्लकप के बुली, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, मगधराज अजातशत्रु तथा वेठ-द्वीप (विष्णुद्वीप) के ब्राह्मण मुख्य थे। कुशीनगर के मल्लों ने विभाजन का विरोध किया। 

प्रतिद्वंद्वी राज्यों की सेनाओं ने उनके नगर को घेर लिया। युद्ध प्राय: निश्चित था, किन्तु द्रोण ब्राह्मण के आ जाने से अस्थि अवशेषों का आठ भागों में विभाजन संभव हुआ। विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि अस्थि अवशेषों को अपनी राजधानियों में ले गए और वहाँ नवर्निमित स्तूपों में उन्हें स्थापित किया गया।

आवारेपन का रोज़नामचा जारी है, कुछ कुशीनगर का किस्सा कुछ लुंबिनी का, जहां बुद्ध का जन्म हुआ था।

Saturday, April 20, 2013

सुनो! मृगांकाः 30: झल्ला की लब्दा फिरे...


आसमान बादलों से घिरा था, लेकिन धरती प्यासी थी। धरती की प्यास और अभिजीत की प्यास का पैमाना तकरीबन एक सा था।

हवा तेज़ चल रही थी...। काले मेघ, इन्ही हवाओं से टकरा कर दूर चले जाने वाले थे।

अचानक न जाने क्या सूझा अभिजीत को...अंदर जाकर, अपनी ह्विस्की की बोतल उठा लाया। शाम होने में अभी देर थी। दिन अभी ढला नहीं था। अभिजीत को हैरत हो रही थी, अपनी इस दशा पर। गांव में अपने मन का बहुत कुछ किया था उसने।

पहला पैग अंदर गया। अभिजीत का अपने मन पर से नियंत्रण हट गया। ऐसी ही नम हवा चल रही थी, जेएनयू के अहाते में गंगा ढाबा के आसपास कहीं किसी पत्थर पर बैठकर चाय सुड़कते  हुए अभिजीत ने मृगांका को फोन किया था।

याद वहीं।

दूसरा पैग बना, खतम हुआ। याद आया कि एक बार मृगांका ने पूछा था, मेरी कौन सी तस्वीर तुमको अच्छी लगती है....खटाके से अभिजीत ने उसको बांहो में भरते हुए कहा था, जिसमें तुम्हारे ब्रा के स्ट्रेप्स दिखते हैं।

झल्ला...मृगांका चीखी थी। छीः शर्म नहीं आती तुम्हें।
 अभिजीत ने बिना शरमाए कहा था, तुमसे क्या शरमाना।  मृगांका नक़ली ग़ुस्से से दांत पीसती रही और अभिजीत का गाल चुंबनों से भर दिया था...अभिजीत के गालों पर लिपस्टिक के दाग़...और अभिजीत ने बहुत देर तक चेहरा नहीं धोया था।

यादों का विस्तार होता रहा, पांच पैग के बाद, हिचकी आने लगी। गला सूखने लगा। लगा कि ब्लाडर फट जाएगा। वह घर के पीछे खेत की तरफ गया। गांव में उसे उस सुनसान खेत में पेशाब करने में मजा आता था। आसमान में बादल अभी भी थे ही, लेकिन बारिश की संभावना खतम हो गई थी।

कुछ सोचकर वह डगमगाते कदमों से अपनी बाइक की तरफ बढ़ा। कांपते हाथों से बाइक में चाबी डाली...नहीं डली। बेतरह लड़खड़ाते हुए, अभिजीत ने अपनी साइकिल को देखा...। गांव की सड़क पर, डगमगाती साइकिल खजौली की तरफ बढ चली।

कभी मृगांका ने कहा था उससे, मुझे साइकिल की सवारी नहीं कराओगे...। अभिजीत समझ गया था कि मृगांका मज़े ले रही है। मृगांका ने बहुत संजीदगी से कहा था कि उसे साइकिल की सवारी करनी है...लेकिन गांव में लड़कियां साइकिल चलाती हैं, नीतीश कुमार ने हर लड़की को साइकिल दिया है सरकार की तरफ से...लेकिन गांव की बहू चलाएगी?

अभिजीत इसी सोच में चल रहा था। कमला नदी की एक उपधारा उसके गांव से होकर गुजरती है...गरमियो में वह भी सूख जाती है। थोड़ा सा पानी बचा रहता है जिसमें भैंसे लोटमलोट किया करती है। अभिजीत उसी पुल पर से पार कर रहा था।

पूरे गांव की औरतें अभिजीत को इस तरह डगमग साइकिल चलाते हुए देखकर हंस-हंस कर दोहरी हुई जा रही थीं। कुछ ने तो हंसी छिपाने के लिए पल्लू मुंह में ठूंस लिया था...। वो अभिजीत की हालत पर नहीं, उसके साइकिल चलाने के अंदाज़ पर हंस रही थी। वरना अभिजीत तो उनके लिए एक ऐसा प्रतिष्ठित शख्स बन चुका था, जिसने गांव की जाती हुई रौनक को करीब-करीब लौटा दिया था।

गांव का हर विद्यार्थी उसका छात्र बन चुका था। स्कल से लेकर खेती तक, और नई तकनीकों से लेकर पोखरे में जलकुंभी की सफाई तक, पिछले दो महीने में अभिजीत ने मिशन की तरह काम किया था। सही रास्ते पर लेकर आने वाला अभिजीत आज खुद डगमग था।

खजौली पहुंच कर अभिजीत ने सीधे एसटीडी बूथ से प्रशांत का नंबर डायल किया। वह सोचकर कुछ आया था, सोचा उसने वही था...सीधे मृगांका से बात करेगा। लेकिन बूथ में घुसकर हिम्मत नहीं हुई।

हलो
हलो
प्रशांत...
अबे...अभिजीत। कैसा है बे।
ठीक हूं, तू बता
अच्छा है
और...सब
सब क्या, मां दिल्ली आकर मृगांका के घर पर टिक गई हैं। कहती हैं बेटा और बहू को साथ देखकर वापस जाएंगी, मृगांका भी बहुत परेशान है...
ओह...
...और तूने जरूर पी रखी होगी
नहीं
तुम्हारा आवाज से लग रहा है साले...सुन..एक बात  हो गई है
क्या
तुम्हारे पब्लिशर ने तुम्हारी नई किताब पर कुछ उल्टा लिख दिया है, फ्लैप पर।
क्या
लिखा है कि अभिजीत की आखिरी किताब है...
तो
लिखा है इसके बाद नहीं लिखेगा
हा, सही है
अबे नहीं यार। लौट आ।लौट आ ना यार...प्रशांत रो पड़ा। ...और सुन मैं मां को और मृगांका को गांव भेज रहा हूं..अब कोई बात नहीं सुनूंगा। बस

अबे सुन तो..

प्रशांत ने सुनने से पहले फोन रख दिया। अभिजीत का आधा नशा उतर गया...लेकिन मृगांका एक ऐसा नशा थी जो ताउम्र उस पर तारी थी। मानिजुआना से भी गजब का नशा...वह थोड़ा डरा हुआ था, तोड़ा खुश। वह चाहता भी तो ता मृगांका को जीभर देख पाए।