Friday, February 29, 2008

फिल्मों में भी फिसड्डी




यह हफ्ता फिल्मी दुनिया के लिए पुरस्कारों का हफ्ता था। पिछले दिनों दुनिया भर में मशहूर ऑस्कर पुरस्कार और भारत में भी फिल्म फेयर पुरस्कार दिए गए। 80वें ऑस्कर पुरस्कारों में चार खिताब तो कोएन बंधुओं के निर्देशन में बनी फिल्म नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन की झोली में गए। अमेरिकी अभिनेता डेनियल डे लुईस को देअर विल बी ब्लड के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का और फ्रेंच फिल्म लां वियां रोज़ के लिए अभिनेत्री मेरियन कोटियार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया। बहरहाल पूरा समारोह कामयाबी के साथ पूरा हुआ । लेकिन इस बार भी ऑस्कर में भारत की ओर से नॉमिनेटेड फिल्म की दुर्गति हुई।

एक ओर हमारी आधिकारिक फिल्म आखिरी नौ प्रतियोगियों में जगह बनाने में नाकाम रही है, लेकिन हमारी इंडस्ट्री के निर्देशक शेखर कपूर की अंग्रेजी फिल्म द गोल्डन एज बेस्ट कॉस्ट्यूम डिज़ाइन का पुरस्कार जीत लिया। ऑस्कर को लेकर भारतीय मीडिया में जोरदार उत्साह बना रहा और ऑस्कर पुरस्कार सुर्खियों में बने रहे। लेकिन ऐसी कोई बड़ी चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया को छोड़ ही दिया जाए, राष्ट्रीय मीडिया में भी फिल्म फेय़र पुरस्कारों को लेकर नहीं हुई।

आखिर भारत दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म बनाने वाला देश होने के बावजूद ऑस्कर की तुलना में हमारे फिल्म पुरस्कार कमतर साबित क्यों होते हैं। आखिर क्या वजह है कि ऑस्कर जैसी प्रतिष्ठा हमारे यहां दिए जाने वाले किसी पुरस्कार की नहीं है।

एक वजह तो यही है कि ज्यादातर पुरस्कार निजी फिल्मी पत्रिकाओं और निजी टीवी चैनलों की ओर से दिए जाते हैं। ऐसे में पुरस्कार बांटने में निजी फायदे की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। साथ ही पार्दर्शिता की कमी की वजह से पुरस्कारों पर सवालिया निशान उठते रहे हैं।

खुद फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग भी पुरस्कारों की तटस्थता पर शक करते रहे हैं, और यही वजह है कि आमिर खान जैसे कई बड़े अभिनेता तो पुरस्कार समारोहों में शामिल भी नहीं होते। पूरी फिल्म इंडस्ट्री में सारा खेल पैसे पर टिका होता है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या पुरस्कार भी मैनेज किए जाते हैं।

ऑस्कर पुरस्कारों पर लोगों को इस लिए यकीन है क्योंकि बेहतरीन फिल्मों को लोगों की राय से चुना जाता है। जबकि भारतीय फिल्म पुरस्कारों में चार या पांच लोगों की जूरी यह तय कर देती है कि नॉमिनेटेड फिल्मों में से सबसे बेहतर कौन है। ज़ाहिर है, जब तक पुरस्कारों में लोकतंत्र नहीं आएगा, लोगों का विश्वास भी उस पर नहीं जमेगा। तबतक, पुरस्कारों पर आरोप लगता रहेगा कि ये अपने करीबियों को खुश करने के लिए दिए जाते हैं, तब तक ये पुरस्कार महज फिल्मी सितारों के नाचगाने से मनोरंजन और तीन घंटे के टेलिविज़न शो का सबब बना रहेगा।

झारखंड- गधों का पंजीरी खाना




भारत के प्रधानमंत्री साझा सरकार को लेकर अपनी पीडा़ पहले ही व्यक्त कर चुके हैं। साझा सरकार का गंभीर संकट उनकी बड़ी पीड़ा है। साझा सरकार की भूमिका, उनका काम, निर्दलीयों की निरंकुशता के अनुभव, झारखंड और उसके निवासियों से बेरतर किसे है? यह हालात जनता ही बदल सकती है। किसी दल को निर्णायक बहुमत देकर निरंकुशता पर अंकुश झारखंड की जनता का स्वर होना चाहिए।

जो झारखंड को बदलना चाहते हैं या जिन्होंने अलग झारखंड के लिए लंबा संघर्ष किया है, भोगा है। वे आज उदास और अलग-थलग हैं। वे देख रहे हैं कि गधे पंजीरी खा रहे हैं। वे बड़ा काम कर सकते हैं। ग्लोबलाईजेशन या तेज़ी से बदलती दुनिया को महज एक स्वर में नकारते रहने से हल नहीं निकलेगा। ऐसा करने वाले अप्रासंगिक हो जाएंगे।

आज ज़रूरत है मौजूदा माहौल के संदर्भ में एक सुस्पष्ट विचारधारा तय करना। इस विचारधारा के अनुकूल राजनीति गढ़ना। इस राजनीति या वैकल्पिक विचार के अनुसार इस कंज्यूमर ऑरिएंटेड पश्चिमी ग्रोथ मॉडल के विकल्प में स्वदेशी ग्रोथ मॉडल गढ़ना।
यह नहीं हुआ तो महज आलोचना, संघर्ष और नकारात्मक बातों से हम इस पश्चिमी ग्रोथ मॉडल, जीवन संस्कृति और मूल्यों को रोक नहीं सकते। दुनिया में यह टैक्नॉलजी लेड कंज्यूमर ग्रोथ मॉडल का दौर है। इस बाढ़ को रोकना कठिन है। दुनिया जिस तेज़ी से आज बदल रही है, पहले कभी नहीं बदली, यह तथ्य समझना ज़रूरी है।

झारखंड की खनिज संपदा का मामला लें। खनिज झारखंड की एकमात्र संपदा है। एक वर्ग मानता है कि इसका दोहन ही न हो। पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों दोहन के लिए लाइसेंस बांट रही है। इन दोनों स्थितियों से अलग हर साल दो-ढाई हज़ार
करोड़ का कोयला कालाबाज़ार में जा रहा है। खुलेआम झारखंड से चीन को लौह अयस्क की तस्करी की जा रही है। यह सब सरकारा और शासन की देखरेक में हो रहा है।

खनिजों की कालाबाजारी से अरबों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। झारखंड को कोई लाभ? क्यो नहीं कानून बनाकर झारखंड की संपदा का इस्तेमाल झारखंड की खातिर हो? यहां खनिज आधारित उद्योग लगें, रोज़गार सृजन हो। ताकि किसी मुंबईकर को बाहरी लोगों को भगाने की खातिर हिंसा का सहारा न लेना पड़े। लोग मुंबई जैसी जगह जाएं ही न।
बिना समझे विरोध करवने से कुछ नहीं होगा। जैसा अबरख के मामले में हुआ। भंडार खत्म हो गया. अबरख के कारोबारी और नेता अमीर हो गए। पर राज्य को क्या मिला? इसलिए एक प्रैक्टिकल खनन नीति और उद्योग नीति का बनना ज़रूरी है।

ऐसे अनेक प्रयास झारखंड में मौजूदा निराशा को तोड़ सकते हैं। निजी और सामाजिक स्तर पर छोटे प्रयास भी सकारात्मक पृष्ठभूमि बना सकते हैं।

Wednesday, February 27, 2008

झारखंड गढ़ने की शर्तें


झारखंड में राजनीति का एक नया ग्रामर है विकसित हुआ है। झारखंड बने सात साल से ज़्यादा गुज़र गए, इन गुजरे सात सालों में झारखंड के लोगों को क्या मिला? वहां की विधायिका और राजनीति की क्या सौगात है वहां के लोगों को? जवाब है, पूरी व्यवस्था को अविश्वसनीय बना देना। झारखंड के शासक वर्ग ने दिका दिया कि वे पूरे स्टेट को भी बेच सकते हैं। हालांकि राजनीति के जिस ग्रामर की बात मैं कर रहा हूं, वह देश भर में यत्र-तत्र दिखाई देता था, लेकिन झारखंड में यह ग्रामर स्थापित हो गया है।

भ्रष्टाचार के प्रैक्टिसनर। आचार-व्यवहार में जो प्रामाणिक तौर पर सबसे भ्रष्ट हैं वे ही भ्रष्टाचार की बुराई कर रहे हैं। यानी चोर और साधु की भूमिका एक हो गई है। नायक, खलनायक लग नहीं रहे। पर यह झारखंड का ग्रामर है। कहावत है- सेन्ह पर बिरहा। यानी सेंध की जगह से ऊंचे आवाज में गीत गाया जाए। भयमुक्त और सात वर्षों के झारखंड की देन है ये।

क्या झारखंड विकास की नई पगडंडी पकड़ सकता है? हां, लेकिन तब जब हम मानलें कि मौजूदा राजनीतिक पार्टियों में से कोई झारखंड का पुनर्निर्माण नहीं कर सकता। लोकपहल, छात्रशक्ति का उदय, झारखंड के सार्वजनिक जीवन की संपूर्ण सफाई के लिएनागरिक समाज का बनना-विकसित होना और कुराज के खिलाफ आक्रोस - यही रास्ते बचे हैं झारखंड गढ़ने के।

एक स्थापित और प्रामाणिक तथ्य है कि ईमानदार नौकरशाही बड़ा काम कर सकती है। में ऐसे लोग भी होंगे। उनके पक्ष में माहौल बनाना बड़ी चुनौती है। नया गढ़ने के लिए इँस्टिट्यूशंस की बुनियाद ज़रूरी है। किसी भी समाज का चाल. चरित्र और चेहरा इँस्टिट्यूशंस ही बदल सकते हैं। इँस्टिट्यूशंस शिक्षा में, प्रशासन में राजनीति में यानी उन सभी क्षेत्रों में जहां मानव संसाधन को गढ़ा और बनाया जाता है।

जाति, धर्म और समुदाय और क्षेत्र से परे उदार राजनीति को प्रश्रय देना ज़रूरी है। आज हर दल में, शासन में मीडिया में अच्छे लोग हैं, पर वे पीछे हैं। ऐसे लोग की एकजुटता और सक्रियता क़ानून का राज स्थापित करने में मददगार होगी। यही हीरावल दस्ता समाज और राजनीति को अनुकतरणीय और नैतिक बनाने की बुनियाद रख सकता है।

Tuesday, February 26, 2008

तमिल सिनेमा- बदलाव की बयार-3


तमिल सिनेमा के इस बदलाव की ठीक शुरुआत कब हुई यह कहना तो मुश्किल है। लेकिन मोटे तौर पर यह नई लहर ऑटोग्राफ और कादल से मानी जाती है। दोनों ही फिल्में खूबसूरती के साथ बनाई गई मनोरंजक और सुपरहिट फिल्में रही हैं। ज़ाहिर है, तमिल फिल्मोंद्योग बड़े सितारों के बिना भी छोटी फिल्मों को ज़ोरदार कमाई करता देखकर भौचक्का रह गया।

शक्तिवेल की कादल और चेरन की ऑटोग्राफ ने युवा निर्देशकों को एक ऐसे दर्शरक वर्ग के बारे में संकेत दे दिया- जो चरित्रप्रधान, अच्छी पटकथा वाले कम बजट की फिल्मों को सर आंखों पर बैठाने के लिए तैयार है।

शकितवेल जैसे निर्देशकों ने कल्लूरी में पात्रों के अभिनय को डॉक्युमेंट्री जैसी नेचरलनेस दी। खासकर, फिल्म में कायल बनी हेमलता को देखकर आपको लगेगा ही नहीं कि वह अभिनय कर रही हैं। शक्तिवेल ने तमन्ना से भी ऐसी शानदार और संवेदनशील अभिनय कराया है। वाकई कल्लूरी एक साथ ही तनाव और हास्य के पुट लेकर गुंथी गई है।

अमीर की पारुथीवीरन गंवई तमिलनाडु के दो वंशों के बीच के खूनी झगड़े की स्तब्धकारी और क्रूर कहानी है। यह पहली तमिल फिल्म है, जो छोटे तमिस क़स्बे को पूरी सच्चाई के साथ चित्रित करती है। फिल्म में तमिल गांव अपनी पूरी शै के साथ मौजूद है। असली रंगों असली बोलियों और रीति-रिवाजो के साथ। दिलचस्प है कि इस फिल्म क सबसे मजबूत चरित्र एरक औरत है। इस किरदार में प्रियमणि नज़र आती है। यह किरदार अपने दिलो-दिमाग पर भरोसा करता है।मैं वह दृश्य भूल नहीं पाता, जिसमें पिता से मार खाई नायिका जबरदस्त भूखी है और खाने की कोशिश करती है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज पर इतनी सीधी और प्रभावशाली टिप्पणी तो मैंने किसी किताब में भी नहीं पढी है।

लेकिन, चार फिल्मों को पूरी तरह देखने के बाद मुझे लगाकि तमिल फिल्म निर्देशक मानते हैं कि यथार्थवादी चीज़ों का समापन ज़रूरी रूप से त्रासद मानते हैं। डार्कनेस की तरफ झुकी फिल्में अपना आयाम सीमित कर रही हैं. पाराथीवीरन हो या कट्टराधु तमिल या फिर कल्लूरी, हर फिल्म में यह प्रथा दिखती है। नवेले निर्धसक यकीन नहीं कर पा रहे है कि कुर्सियों पर नायक-नायिका के संघर्ष और उनके दुख देखने के बाद पहलू बदल रहा मेरे जैसा दर्शक इन चरित्रों की जीत देखना चाहता है। भले ही यह सांकेतिक ही क्यों न हो।

वैसे अभी तक तमिल व्यावसायिक सिनेमा में बड़े स्तर पर क्रांति नहीं आई है, लेकिन असर दिखने लगा है और बदलाव को महसूस किया जा सकता है।

मंजीत ठाकुर

Monday, February 25, 2008

सिनेमाः तमिल सिनेमा में बदलाव की बयार

कादल के बाद कल्लूरी इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म साबित हुई है। कादल की कामयाबी के बाद बालाजी शक्तिवेल बड़ी स्टारकास्ट के साथ महत्वाकांक्षी फिल्म की परियोजना पर काम कर सकते थे, लेकिन बनिस्पत इसके उन्होंने छोटे पैमाने पर फिल्में बनाना जारी रखा है, बल्कि इस बार उनका जुड़ाव और भी गहरा है। लेकिन क्या है ये..

फिल्म कल्लूरी में आपको कुछ अप्रत्याशित लग सकता है। यह फिल्म कॉलेज के नौ लड़कों के तीन साल की जिंदगी पर आधारित है। फिल्म में चरित्रों, प्लॉट और संवाद को अचूक तरीके से पिरोया गया है। ये चरित्र छोटे शहरों के होने पर भी हीनभावना से ग्रस्त नहीं है और अपने खांटी गंवईपन को संवेदनाओं के साथ उघाड़ते हैं।

फिल्म के सारे चरित्र बिलाशक दक्षिण भारतीय दिखते हैं। जाहिर है, उन्हें दिखना भी चाहिए। भोजपुरी फिल्मों की तरह नहीं, जिसमें रेगिस्तानी इलाके के लोग भोजपुरी बोलते नजर आते हैं। फ्रेम में दिख रहा हर चेहरा असली दिखता है। पात्रों के चेहरे पर जबरन मेकअप पोतकर सिनेमाई दिखाने की कोई कोशिश नहीं है। शक्तिवेल ने व्यावसायिक और कला सिनेमा के बीच एक जबरदस्त संतुलन साधा है।

कल्लूरी पिछली कई तमिल फिल्मों मेंसे महज एक उदाहरण भर है, जो समकालीन तमिल सिनेमा में आ रहे शांत लेकिन रेखांकित किए जाने लायक बदलाव की कहानी बयां कर रहा है। यह धारा एक नए बौद्धिक यथार्थवादी और मजबूत पटकथा वाली किस्सागोई वाली फिल्मों की है। राम की कट्टराधु तमिल और अमीर की परुचिवीरन फिल्मों की इस नई धारा की अगुआई कर रही हैं।

क्या सवाल महज इन फिल्मों की कला, उम्दा निर्देशन या उत्कृष्ट कहानी ही है..। जी नहीं, इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई भी की है। कल्लूरी जैसी फिल्में अपने कम बजट और यथार्थवाद के बावजूद बड़े सितारे वाले फिल्मों की बनिस्पत ज़्यादा मनोरंजक साबित हो रही हैं। दरअसल, तमिल सिनेमा की इस नई धारा ने व्यावसायिक सिनेमा की ऊर्जा और मनोरंजन को कला सिनेमा की जटिलता और संवेदना में खूबसूरती से पिरों दिया है। इस धारा की झलक तो मणिरत्नम् की नायकन और आयिता इझूथु में ही मिल गई थी, लेकिन ऩई पीढी के फिल्मकारों तक यह संदेश पहुंचने में एक दशक से ज़्यादा का वक्त लग गया।

तमिल फिल्मों की इस नई धारा में थंकर बच्चन की की पल्लिकूडम, और ओनबाई रूबई नोट्टू, वेगीमारन् की पोल्लाधवन, निशिकांत कामत की ईवानो ओरूवान, पद्मा मगन की अम्मूवागिया नान, गण राजशेखरन की पेरियार, वसंत बालन की वील, सेल्वाराघवन की पुदुपेट्टाई और चेरन थावामई थावामिरुंथु जैसी फिल्में शामिल हैं।

इन फिल्मों के साथ ही तमिल सिनेमा के एक नए दर्शक वर्ग, युवा दर्शकों का उदय हुआ है। जो नई चीज़ देखना पसंद कर रहा है। पिछली दिवाली पर धड़ाके के साथ रिलीज़ हुई आझागिया तमिल मागन, वोल और माचाकाईन दर्शकों के इस वर्ग को मनोरंजक नहीं लगता। दरअसल, दर्शकों के इस वर्ग को नई धारा के खोजपूर्ण सिनेमा का चस्का लग गया है।

तमिल फिल्मों की इस नई धारा की एक और खासियत है- शैली। हर निर्देशक का अंदाजे बयां ज़ुदा है। इनमें गाने सीमित है, आम तौर पर ये गाने भी पृष्ठभूमि में होते हैं। छोटी अवधि की इन फिल्मों में कॉमिडी के लिए भी अलग से समांतर कथा नहीं चल रही होती, बल्कि हास्य को कथानक के भीतर से ही सहज स्थितियों से पैदा किया जा रहा है।

ज़्यादातर फिल्मों के विषय बारीकी से परखे हुए होते हैं- गंवई कहानियों का बारीक ऑब्जरबेशन। तमिल सिनेमा की इस नई बयार के ज्यादातर चरित्रों की जड़े परिवार, संस्कृतियों और परंपरा में गहरे धंसी हैं। लेकिन प्रेम या निजी महत्वाकांॿाओं के लिए ये चरित्र हर तरह की बाधाओं पर पार पाते हैं।

वैसे, तमिल सिनेमा जिस दौर से गुजर रहा है, वह प्रक्रिया हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की फिल्मो में कमोबेश पूरी हो चुकी है। हिंदी में ऐसे प्रयोग हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी., मिक्स्ड डबल्स, भेजा फ्राई, पेज-3, रंग दे बसंती, दस कहानियां, खोया-खोया चांद, इकबाल जैसी फिल्मों से किए जा चुके हैं। हालांकि, हिंदी में इन फिल्मों की कहानी शहरी जिंदगी पर आधारित है। मामला चाहे सेक्स का हो, वयस्कता का हो, रिश्तों, काम के बोझ या अपराध की। मिडिल सिनेमा में गांव अबतक अछूते हैं।

तमिल में यह मामला सिर्फ गांव की कहानियों पर आधारित है। जाहिर है दोनो सिनेमा को क्रास ओवर की ज़रूरत है।

जारी
मंजीत ‌ठाकुर

Friday, February 22, 2008

छह के फेर में क्रिकेट




इस हफ्ते क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए आईपीएल की बोली लगी, भारत जैसे क्रिकेट के जुनूनी देश में 20-20 क्रिकेट की ऐसी ज़ोरदार शुरुआत कोई अप्रत्याशित भी नहीं थी, लेकिन मसला ये है कि क्या क्रिकेट का मैदान ग्लैमर की चकाचौंध से कितना प्रभावित हो गया है..क्या भलेमानसों का खेल क्रिकेट अब महज एक खेल रह गया है या इसके पीछे भी पहले से सक्रिय बाज़ार की ताकतें और अधिक मजबूती से हावी हो गई हैं। जैंटलमैन गेम का अधिग्रहण शोमैन ने कर लिया है।

क्रिकेट और सिनेमा दोनों से ग्लैमर जुड़ा है। सिक्स पैक एब्स के लिए मशहूर शाह रूख से सिक्सर किंग युवराज या फिर छह करो़ड़ में नीलाम हुए माही, कम लोकप्रिय नहीं हैं। पहले भी कभी-कभार सिने-सितारे मैदान में दिख जाते थे और क्रिकेटिया सितारे भी फिल्मो में नमूदार हो जाते थे। गावस्कर, कपिल पाजी और संदीप पाटिल ने भी कम-ज्यादा फिल्मों में अपनी झलक दिखलाई। लेकिन सिनेमावालों को भी समझ में आ गया कि 35 एम एम की फिल्मों से कम रोमांच 22 गज की क्रिकेट की पिच में नहीं है।

शायद यही वजह रही कि फिल्म ओम शांति ओंम की रिलीज से पहले शाह रूख खुद दीपिका को लेकर क्रिकेट मैच के दौरान स्टेडियम में मौजूद थे।

क्रिकेट और सिनेमा का गठबंधन और गाढा हुआ जब फिल्म की पब्लिसिटी के लिए दीपिका पादुकोण के अफेयर पहले कप्तान बने महंद्र सिंह धोनी फिर कप्तानी से चूक गए युवराज के साथ जोड़ा गया।

क्रिकेट विश्व कप के दौरान भी कई फिल्मों में इस भुनाने की बेतरह कोशिशें की गई। हैट ट्रिक हो या स्टंप्ड... क्रिकेट को परदे पर उकेरना वाली फिल्ोंमों की फेहरिस्त लंबी होती गई। फिर सिनेमा के बिज़नेस से जुड़े लोगों ने यह भी महसूस किया कि क्रिकेट प्रेमियों की नज़र में बने रहने के लिए क्रिकेट का भी सरपरस्त बना रहना ज़रूरी होगा। शायद इसी वजह से शाहरूख ने कोलकाता और प्रीति जिंटा और नेस वाडिया ने मोहाली की टीम को अपनी सरपरस्ती दी।

दरअसल, 20-20 ने क्रिकेट भूगोल बदल दिया है। आईपीएल के साथ ही क्रिकेट में चल रही कई जंगों में एक और आयाम जुड़ गया है। खिलाड़ियों की बोली और उनका कीमत का मूल्यांकन खेल से नहीं, बल्कि कुछ और तय कर रहा है, और ये नया आयाम है खबरों में बने रहने की खिलाड़ियों की कूव्वत,उनसे जुड़े विवाद, रंगनी मिजाज़ी, ऊर्जा और उनकी आक्रामक देहभाषा। शायद यही वजह है कि कथित नस्लवादी टिप्पणियों पर पैदा हुए विवाद की वजह से चर्चित हुए सायमंड्स माही के बाद सबसे ज़्यादा रकम पाने वाले खिला़ड़ी हो जाते हैं, और उनके साथ ही हरबजन भी करीब साढ़े तीन करोड़ की रकम के हकदार हो जाते हैं।

वहीं अब भी भलेमानुस दीखने वाले क्रिकेटर कुंबले दीपिका को रिझाने वाले धोनी से एक तिहाई रकम ही पा सके। हम इसे विजिविलिटी कह दें या व्यक्तिगत शौमैनशिप .. एक बात तो साफ है क्रिकेट के इस ताजा़ फटाफट संस्करण की नज़र खेल पर कम ग्लैमर पर ज्यादा है। ज़ाहिर है अब क्रिकेट में आइकॉन बैकफुट पर चले जा रहे हैं। आक्रामक युवाओं का दौर आ रहा है, ऐसे युवाओं का जिनके पास प्रतिद्वंद्वी को घूरकर देखने की देहभाषा है।

Thursday, February 21, 2008

अनूठी हैं अनुष्का




संगीत के स्वर ईश्वर होते हैं यह तो आपने सुना ही होगा, लेकिन इसके सुर अब भूख से भी लड़ने को तैयार हैं। जी हां, बुधवार की शाम राज़धानी के सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए मशहूर सितार वादक अनुष्का शंकर ने अपनी प्रस्तुति दी।

अनुष्का को लाईव मैंने कभी नहीं सुना था, लेकिन कल मुझे लगा कि मैंने बहुत कुछ मिस किया है। आम सितारा-संतानों के उलट इस सितार-संतान के अंदर टैलेंट की खान है। मुझे लगात है वह ओवर रेटेड हैं, लेकिन कल उनका सितारवादन मुझे मुग्ध कर गया।

कार्यक्रम की शुरुआत अनुष्का ने राग पुरिया कल्याण से की। सभागार में मौजूद दर्शकों के लिए अनुष्का को सुनना अपने आप में बेजोड़ तज़ुर्बा था, और मेरे लिए भी।

अनुष्का के संगीत में जहां एक ओर अपने पिता की दी गई संगीत की बारीकियां और खूबियां मौजूद हैं, वहीं उनमें एक युवा होने के नाते एक मौलिकता भी है। सितार के पारंपरितक धुनों के बीच मुझे तो कभी जैज़ और हिप-हॉप की झलक भी सुनने को मिली। भूख के खिलाफ लड़ाई में अपना योगदान देने का संगीतमय योगदान शायद उनकी एक और मौलिकता है।

Wednesday, February 20, 2008

साहित्य अकादमी पुरस्कार- मैथिली

इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार कल प्रदान कर दिया गया। मैथिली में यह सम्मान इस बार प्रदीप बिहारी को मिला है। प्रदीप बिहारी को यह पुरस्कार कृति सरोकार नाम के इनके कहानी कंग्रह के लिए दिया गया है। इस संग्रह मे पिछले दो दशकों में लिखी गई कहानियां हैं। यह काल हमारे देश में तेज़ बदलावों का साक्षी रहा है। इनकी कहानियों में यह साफ तौर पर दीखता है। इस कालखंड की सबसे बड़ी विशेषता है समाज के हर वर्ग में, खासकर पिछड़े वर्ग में प्रतिष्ठा के प्रति प्रबल जागरूकता। यह बात इनकी कहानियों में निखर कर सामने आई है। इन कहानियों के पात्र अपने परिवेश की बोली बोलते हैं, जिससे ये कहानियां अधिक संप्रेषणीय और पठनीय बन सकी हैं। इस कृति को मैथिली और भारतीय कथा साहित्य के लिए एक महत्वपूर्ण अवदान माना जा सकता है।

प्रदीप बिहारी का जन्म १९६३ में मल्लिक टोल, खजौली, मधुबनी बिहार में हुआ। इन्होने नाट्यशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि धारण की है। इन्हे मैथिली के साथ हिंदी,नेपाली और अंग्रेजी पर भी समान अधिकार है। साइंस टीचर के रूप में अपना करिअर शुरु करने के बाद बिहारी बैंकिंग सेवा में आए और स्टेट बैंक के लिए काम कर रह हैं।

इनका पहला उपन्यास गुमकी आ बिहाड़ि १९८३ में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद इनके चार कहानी संग्रह- खंड-खंड जिनगी, मकड़ी, सरोकार आदि प्रकाशित हुए। इनका एक अन्य उपन्यास विसूवियस भी प्रकाशित हो चुका है। बिराीह जी अभिनय में भी रूचि रखते हैं और तकरीबन ५० नाटकों में अभिनय के रंग बिखेरे हैं।

बिहारी जी को बधाई।

Tuesday, February 19, 2008

प्रेम गली- आखिरी किस्त

पिछले पोस्ट में मैंने प्रेम जताने के डायरेक्ट ऐक्शन तरीके की चर्चा की थी। डायरेक्ट का तो मतलब ही होता है- सीधे। मतलब सीधी कार्रवाई। इसमें मचान पर लटके शिकारी की तरह प्रतीक्षा नहीं करनी होता। सीधे प्रेमिका के पास जाइए, सारा प्रेम एक ही दफे में प्रकट कर दीजिए। हमारे हिंदुस्तान में यह बहुत प्रचलित है।

नेतापुत्रों और सत्ता के दलालों को अगर लड़की पसंद आ जाए, और वह आगोश में आने को सहज ही राजी न हो, तो यह तरीका बेहद मुफीद लगता है। अब हमारे- आपके लिए दिक़्कत ये है कि इसमें थाने के जूते और हवालात की लात का भय होता है। लड़की के निकट बंधुजन आपको दचक कर कूट भी सकते हैं। तो इस उपाय में थोड़ा एहतियात बरतने की ज़रूरत है।
वैसे हम भी मानते हैं कि समाज में प्रेम तब तक पनप नहीं सकता जब तक प्रेम की अभिव्यक्ति के सबसे डायरेक्ट एक्शन पर से रोक नहीं लगतची। वरना संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्या मायने है भला।

इसके साथ ही कई अन्य तरीके हैं, वीपीपी से अभिमंत्रित अंगूठी मगांने का, जिसमें दावा किया जाता है कि सात संदर पार बैठी प्रेमिका भी आपकी गोद में पके गूलर की तरह गिर जाएगी। या फिर वशीकरण मंत्र का जिसमें एक खास जड़ी को घिसकर तिलक लगाने से सुंदर से सुंदर लड़की भी आपके वश में आ जाएगी।

खत लिखने का तरीका भी सबसे ज़्यादा पॉपुलर है। कुछ लोग इसे लहू से लिखते हैं। कुछ उत्तर आधुनिक प्रेमी तो मुगे इत्यादि के खून का इस्तेमाल करते हैं। कुछ सिर्फ जताने के लिए लाल स्याही से लिखते हैं और साथ में ताकीद भी करते हैं- लिखता हूं अपने खून से स्याही न समझना। प्रेमियों को कम मत समझिए।

अगर आपने प्रेम पत्र दिया और उसमें दो चार कविता या शायरी की डाल दी, तो समझों धूल में पड़ी सड़ रही सरकारी फाइल पर अपने रिश्वत की पेपरवेट डाल दी है। कविता भी कैसी जिसे तू ये तो मैं वो की तर्ज पर लिखा जाता है। इन कविताओं में प्रेमी अमूमन माटी का गुड्डा और पेड़ के नीचे रहने वाला मजनू इत्यादि होता है और माशूक सोने की गुड़िया वगैरह।

तो खत का ज़्यादा मजमून जानने की बजाय दो -चार पन्नो का रसधारयुक्त पत्र लिख डालिए, मुंह पर रोतडू भूमिका चिपकाइए और हां, साथ में कैमरे वाला मोबाईल फोन ज़रूर धारण करें। वक्त-बेवक्त काम आएँगे। जय बाबा वैलेंटाईन।

Monday, February 18, 2008

प्रेम गली पार्ट-२



प्रेम वैलेंटाईन दिवस का मोहताज नहीं होता। हमारे यहां यह क्रिया-कलाप बहुत दिनों से संपन्न किया जाता रहा है। अब जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि आप पड़ोस की बिल्लो रानी पर अरसे से आसक्त हैं और यह बात उन्हें पता भी नहीं है। तो कुछ ऐसा कीजिए कि बिल्लो आप पर रीझ जाएं,-

ऐसा कीजिए कि गले में लाल या ऐसे ही किसी रंग का - जो आंखों में बरछी की तरह चुभ सके- रूमाल गले में बांध लें। फिर उपर से आंखो पर काले रंग का चश्मा। वल्लाह, क्या कहने..। लोग बाग कहते ही होंगे कि काले चश्मे में आप अक्षय कुमार की तरह बंबास्टिक दिखते हैं। तो इसी ड्रैस अप के साथ आप फैशन परेड मे सामिल होइए.. औरप्रेम गली के दो-चार चक्कर मार आइए।

दूसरा तरीका ये है कि लड़की को एकटक देखते रहिए। कभी-न-कभी वह भी आपकी ओर देखेगी। ज्योंहि आंखे मिले आप अपनी दाईं या बाईं ओर की आंख दबा दें। इसे आंख मारना कहते हैं। आपके आंख दबाते ही लड़की आपका पापी मंतव्य समझ जाएगी। हां, इस विधि में खतरा ये है कि लड़की तक अगर आपका मंतव्य पहुंच नहीं पाया, यानी कुछ कम्युनिकेशन गैप हो जाए, तो लड़की आपको काना या भैंगा समझ सकती है। और हां, काला चश्मा पहन कर भी ये क्रिया संपन्न नहीं की जा सकती।

एक अन्य तरीका यह है कि लड़की जब भी घर से निकले, यानी घर से कॉलेज तक या स्कूल तक, या फिर ट्यूशन को ही निकले तो आप भी उसके पीछे लग लो। फायदा यह कि या तो आप घर से कॉलेज के बीच कहीं पिट-पिटा जाएंगे, जो कि प्यार की कठिन राह में बड़ी मामूली बात है, या फिर दो-चार दिनों में लड़की यह जान जाएगी कि यह जो रोज़ मेरे पीछे कुत्ते की तरह आता है, मुझसे प्यार करता है। इस तरह या तो आप का गठबंधन यूपीए की तरह चल निकलेगा, और आप अभूतपूर्व प्रेमी का खिताब पा जाएगे, या फिर भूतपूर्व।

वैसे ये सब न चलें, तो कुछ दूसरे तरीके भी है,जिनकी चर्चा फिर कभी करूंगा। कुछ डायरेक्ट ऐक्शन तरीके हैं, कुछ अंगूठियों का कमाल ....

Sunday, February 10, 2008

प्रेम गली अति सांकरी

सुना तो नाम बहुत था मुहब्बत का.. लेकिन निकला वही। बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, काटा तो कतरा-ए-ख़ूं न निकला की तर्ज पर। आजकल लोग ब्लॉग पर भी प्रेम को लेकर बेहद भावुक हो रहे हैं। 

वैलेंटाईन दिवस पास आ रहा है। लड़कियां लड़कों की और लड़के लड़कियों की तलाश में ज़ोर-शोर से भिड़े हुए हैं। जोधा का अकबर से ब्याह हो रहा है, कुछ ऐसे ही कि संयोगिता का स्वयंवर हर्षवर्धन से करवा दें। के आसिफ ने कह दिया कि जोधा अकबर की ब्याहता थी, तो उसी जमी-जमाई दुकान में गोवारिकर ने भी अपनी दुकानदारी सजा ली। हमें क्या उज्र हो सकता है?

महर्षि वैलेंटाईन का दिवस मनाना ज़ोर पकड़ रहा है। जिन्हें जोड़ा हासिल नहीं हो पाता. अपनी खीज निकालते हैं- अपसंस्कृति, अश्लीलता चिल्ला-चिल्लाकर। दरअसल, दोष इस पीढी का नहीं। जनाब दोष तो उस पीढी का भी नहीं।

उन्हें पता है कि उम्र के एक खास मौड़ तक आदमी इसी ग़लतफहमी में पड़ा रहता है कि उसका भी एक-न-एक दिन कहीं-न-कहीं किसी न किसी से यक-ब-यक प्यार हो जाएगा। लेकिन ज्यों-ज्यों आस-पड़ोस की लड़कियां धड़ाधड़ अन्य लोगों की बांहों इत्यादि में जाने लगती हैं तो उसे यह तत्व ग्यान होता है कि प्रेम होता नहीं वरन् बेहद कोशिशों के बाद किया जाता है। इसके लिए कई मित्रों को फील्डिंग करनी होती है। और हां , ये प्यार को खींचना जिसे अच्छी भाषा में निभाना कहते हैं, वह भी बेहद कठिन क्रिया होती है क्यों कि इसमें कलदार खर्च होते हैं।

बहरहाल, मित्रों के मर्म को न छूते हुए मैं लड़कियों को अपनी प्यार में गिरफ्तार करने, या उन्हें प्यार में डालने या लुच्चो की भाषा में पटाने के कुछ ऐसे तरीकों पर प्रकाश अर्थात् लाईट डालने की हिमाकत करूंगा, जिसे कई मनीषियों ने अपने अर्जुन टाईप बेहद निकट शिष्यों को बताया है।

पहला तरीका तो यही है, कि उस लड़की के- जिसे आप पिछले तीन महीनों से प्यार कर रहे हैं और उसे अभी तक इस बात का पता भी नहीं है- के घर के चक्कर लगाना शुरु कर दें।

प्यार के मामले में लड़कियों वाली गली को महबूब की गली, प्यार की गली, यार कीगली, तेरी गली जैसे बेहद मुकद्दस नामों से नवाजा जाता है। बशीर बद्र की एक पंक्ति याद आ रही है- हम दिल्ली भी हो आए हैं, लाहौर भी घूमे, यार मगर तेरी गली, तेरी गली है। भले ही उस गली में आड़ी-तिरछी नालियों का जाल बिछा हो, बदबूवाली बयार उस गली में बह रही हो, नालियों में सूअर लोट रहे हों, और एक बार काजल की कोठरी की तरह गली में घुसे तो पैर अति-पवित्र गोबर से सनकर ही वापिस, आएंगे। फिर भी यार की गली तो यार की गली ही है।

हो सकता है कि लड़की आप को दिख जाए, या फिर आप जैसे महान प्रेमी को लड़की के कपड़े सूखते दिख जाएं, तो भी आप संतोष ही करेंगे। लेकिन इसमें कठिनाई ये है कि इसमें कई चक्कर लगाने पड़ सकते हैं, और आप काया से बम खटाखट हैं। अगर आप सारी ऊर्जा यार की गली के चक्कर लगाने में ही खर्च कर देंगें तो फिर प्यार हो जाने के बाद होने वाली अंतरंग क्रिया के लिए ऊर्जा कहां से लाएंगे। जबकि शिलाजीत इत्यादि बेचने वाले महान विद्वानों का कहना है कि इस काम में घोड़े के बराबर ऊर्जा की दरकार होती है।

जारी

Saturday, February 9, 2008

मिथ्या- बौद्धिक अय्याशी का वितंडा


बड़े संत कह गए हैं कि दुनिया में हर चीज़ मिथ्या है। हम कहते हैं कुछ भी मिथ्या नहीं, हर चीज़ का मतलब है, हर चीज़ का अर्थ है। हमारी फिल्मों के बारे में भी बात की जाए तो वर्चुअल रियलिटी होने के बावजूद चीज़े सिर्फ मिथ्या नहीं हैं।

सच है कि मुंबईया फिल्मों के दर्शक दुनिया में सबसे ज्यादा है। लेकिन यह भी सच है कि यहां के ज्यादातर निर्देशक दर्शकों को चूतिया या ऐसा ही कुछ समझते हैं। उन्हें लगता है कि बौद्धिकता के नाम पर लोगों के सामने वह जो अल्लम-गल्लम परोस देंगे, शालीन बच्चे की तरह दर्शक हर चीज़ निगल लेगा। वो भी बगैर पानी के? हुंह..।

मिक्स्ड डबल्स और भेजा फ्राई फिल्मों की कामयाबी के बाद रजत कपूर ने मान लिया कि अलद क़िस्म की फिल्मों के नाम पर उनके पास दर्शकों का एक समूह मौजूद है। जनाब यह सोच तो मिथ्या ही है।

बौद्दिकता के नाम पर कचरा फिल्म देखना एक अलग अनुभव होता है। शुरु में लगा कि अंडरवर्ल्ड को रजत ने किसी और एंगल से पकडा होगा। नसीर और सौरभ की मौजूदगी से यह आशा और बढ़ गई थी। लेकन दोनों के लिए ही इस फिल्म में कोई स्कोप नहीं था। गच्चा तो कल्लू मामा ने भी दे दिया, अपनी तरफ से एक्टिंग में कोई जान डालने की जरूरत न तो नसीर न कल्लू मामा ने महसूस की। अगर थोड़ी भी मलाई जमाई है तो रणवीर शौरी और बृजेंद्र काला ने। इस फिल्म पर इससे ज्यादा बात करने की यह फिल्म योग्य नहीं।

बाकी जगत तो मिथ्या है ही। रजत अगर दर्शकों की उम्मीद करते हैं तो उनकी यह उम्मीद भी मिथ्या ही होगी।

Thursday, February 7, 2008

अल्यूमिनियम मैन का संकल्प



कभी लौह पुरुष के अवतारी माने जाने वाले पूर्व-प्रधानमंत्री, यात्रा पुरुष और भाजपा के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी रैलियां स्थगित कर दी है। लोगों को याद होगा कुछेक सप्ताह ही पहले भाजपा के यात्रा पुरुष ने भारत के लोगों के प्रति अपीन निष्ठा जताते हुए कहा था कि आतंकवाद और माओवाद के खिलाफ लड़ाई में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। बकौल आडवाणी, सुशासन, विकास और सुऱक्षा उनकी प्रतिबद्धताएं हैं। आतंकवाद से लड़ाई एक नया मुद्दा है।

बहरहाल, ऐसे जबरदस्त ५ कॉलमी बयान के बाद यात्रा रद्द कर देना और अपनी ज़बान से मुकर जाना गुस्ताख़ को हजम नहीं हो रहा है। लौहपुरुष तो अल्यूमिनियम के बने मालूम होते हैं।

गुस्ताख को याद आ रहा है कि ऐसी ही परिस्थितियों में राजीव गांधी ने अपनी सद्भावना यात्रा रद्द नहीं की थी। बेनज़ीर का नज़ीर तो सामने है ही। खासकर, भाजपा के ही एक और कद्दावर नेता ने भी खुद को संकल्प का धनी साबित किया था। मुरली मनोहर जोशी ने आतंकवाद के चरम वक्त में श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहरा कर अपनी वकत साबित की थी। उस वक्त जोशी भाजपी के अध्यक्ष हुआ करते थे और तमाम धमकियों के बावजूद आतंकवादियों के गढ़ में वे तिरंगा फहराने गए थे।

आरएसएस ने भी उन्हें श्रीनग न जाने की हिदायत दी थी। आंध्र प्रदेश में उनकी जन सभाओं पर बम से दो हमले हो चुके थे। पंजाब में भी आतंकवाद का दौर चल ही रहा था, लेकिन जोशी ने घुटने नहीं टेके थे.

लेकिन चीख-चीखकर आतंकवाद के खिलाफ बयानबाजी करने वाले आडवाणी के ये तेवर उन्हे कहां ले जाएंगे। क्या आतंकवादियों को ये नहीं लगेगा कि विपक्ष का सबसे मशहूर और मजबूत नेता और प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग उनकी धमकियों से डर गया? क्या इससे आतंकवादियों के हौसले बढ़ नही जाएंगे? लेकिन गुस्ताख क्यो सोचे... इनकी तो आदत रही है घुटने टेकने की, आतंकियों को उनके घर तक सकुशल छोड़ आने की।

राम भला करे।

Monday, February 4, 2008

मुंबई की चौपड़ में बिहार-यूपीवाले


लो जी लो, बिहारियों और यूपी वाले भैयों को लेकर एक नया विवाद सामने आ ही गया।
मराठियों के स्वयंभू नेता राज ठाकरे ने उचारा कि - जब उन्हें (अमिताभ को) चुनाव लड़ना था तो वह इलाहाबाद चले गए. उन्होंने मुंबई से चुनाव क्यों नहीं लड़ा? यहाँ तक कि ब्रांड अंबेसडर बनने के लिए भी उन्होंने उत्तर प्रदेश को ही चुना। इसके साथ ही राज ने बिहार-यूपी वालों के छठ पूजा पर निशाना साधते हुए उसे नौटंकी बताया था। राज ठाकरे ने अब बॉलीवुड स्टार अमिताभ बच्चन पर उनके 'उत्तर प्रदेश प्रेम' को लेकर तीख़ी टिप्पणी की है.।

संसद में अगले लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत की उम्मीद कर रही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में रह रहे ग़ैर-मराठियों के ख़िलाफ़ पिछले कुछ समय से अभियान चला रखा है.। राज को लगता है कि इससे उनके दल को कुछ सीटें अधिक हासिल हो जाएंगी।

राज ठाकरे को लगा कि अमिताभ को महाराष्ट्र का ब्रांड एंबेसेडर बनना चाहिए था, यूपी का नहीं। अब उधर से जया आंटी का उत्तर आया कि हम सिर्फ बाल ठाकरे को जानते हैं। किसी और ठाकरे को नहीं।
गुस्ताख भी मानता है कि ठाकरे होने के नाम पर जो भी मशहूरी (अच्छी या बुरी ) मिली है वो सिर्फ बाल को मिली है। सिंहासन न मिलने से तिलमिलाए राज के लिए ये शिगूफा छोड़ना तो लाजिमी था। वरना उन्हें जानता कौन। कम से कम बिहारियों के मन में राज का नाम छप तो गया ही है। कहावत है न, बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?

खासकर चारों तरफ से घिरे अमिताभ पर हमला करके वह अमिताभ विरोधी पार्टियों की गुडबुक में आना चाहते हैं।

राज ठाकरे नकारात्मक प्रचार की इसी रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। अब उनका कदम ऐसा प्रतीत होता है कि बिहारियों से समझौते का होगा। ताकि पहचान भी बन जाए, वोट भी मिल जाएं।

गैर मराठियों के लिए स्वर्ग के दरवाज़े खोल देने वाले राज ठाकरे ने भाषण में रेल मंत्री लालू प्रसाद की भी नकल की. बाला साहेब के सुयोग्य भतीजे ने आरोप लगाया कि लालू प्रसाद सिर्फ़ अपने समुदाय के लिए काम कर रहे हैं.। राज साहब नफरत फैलाकर राजनीति करने के लिए जिस ज़मीन की तलाश में आप लगे हैं ना, वह बहुत पोली है।

उधर, अमर सिंह भी मामले लपकने में तो माहिर हैं ही। अब उनके समर्थक यूपी में ट्रेन रोक रहे हैं। समाजवादी पार्टी मुद्दे को गरमाने की कोशिश में है। बसपा से मात खाए सपा के लिए इससे बढ़िया क्या मौका हो सकता है?

जिस तरह से राज के समर्थकों ने अमिताभ के घर पर बोतल फेंकी। टैक्सी वाले को पीटा, उसकी टैक्सी तोड़ दी। एक पोस्टर को आग लगा दिया। लेकिन सवाल यह है कि कुछ गुंडो के लेकर लफड़ा मचाने वाले इस लुच्चे को किसी ने रोका क्यों नहीं। गुस्ताख को तो डर है कि कहीं सारा मामला सपा- महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का मिलीभगत न हो।