Thursday, December 25, 2014

पीकेः धर्म का मर्म तो अब लुल्ल एलियन ही समझाएगा


किसी फिल्म को देखने के दो नज़रिए होते हैं। अव्वल तो यह कि समाज में मौजूदा घटनाओं के बरअक्स कोई फिल्म अपनी जगह कहां रखती है। दोयम, अपनी क़िस्सागोई की शैली और क्राफ्ट में फिल्म ने क्या ज़मीन फोड़ी। इसके अलावा तीसरा नज़रिया यह है कि उस फिल्म ने कितना कारोबार कर लिया और इस लिहाज से उसका साल की हिट फिल्मों की फेहरिस्त में वह कहां है।

बॉलिवुड की तमाम फिल्में तीसरे किस्म की फिल्म होने में फ़ख्र महसूस करती हैं।

पीके के लिहाज से सोचें तो पहला और तीसरा नज़रिया सही होगा। रामपाल और आसाराम प्रकरण के बरअक्स इस कहानी ने सामयिकता के मसले पर अपनी वक़त दिखाई है।

कुछ और कहने से पहले यह कह दूं कि पीके में मुझे विषय का दोहराव नज़र आय़ा। ईमानदारी से कहा जाए तो धर्म के कारोबार के इस विषय को उठाने में उमेश शुक्ला बाज़ी मार गए। ओह माय गॉड, इस विषय पर बनी पहली उल्लेखनीय फिल्म है, जिसका कारोबार भी उम्दा रहा था।
पीके कथानक के स्तर पर ओएमजी का दोहराव है।

मैं पीके की तारीफ करना चाहता हूं, क्योंकि कि मैं इस विषय पर ज्यादा फिल्में देखना चाहता हूं। राजकुमार हीरानी संभवतया आमिर को केन्द्र में रखकर बेहतर शैली में उसी कहानी को कहने के अति-आत्मविश्वास के शिकार हो गए हैं। असल में पीके, ओएमजी की कहानी को सलीके से कहती है।

उमेश शुक्ला की ओएमजी एक बरबाद हुए कारोबारी के तर्कों के कमाल पर बुनी तो गई थी, लेकिन धर्म का मामला कुछ ऐसा नाजुक है कि तर्क के ऊपर आस्था ने कब्जा जमाया, और कृष्ण बने अक्षय कुमार को आखिर में अपने अस्तित्व को बताने के लिए चमत्कार करना ही पड़ा।

पीके में भी किसी दूसरे ग्रह से आए आमिर को मानना पड़ा कि भगवान तो है जरूर, हां ये बात और है कि उस तक हम अपनी बात गलत लोगों के ज़रिए लुल्ल तरीके से पहुंचा रहे हैं।

भारत ही नहीं दुनिया भर में धर्म का मसला इतना नाजुक है कि एक आम आदमी सीधे-सीधे सवाल पूछने की ताकत ही नहीं रखता। इसी के लिए भोजपुरी बोलने वाले हमारे हीरो को असल में एक एलियन होना पड़ता है।

सोचिए जरा, धर्म पर सवाल करने के लिए एलियन ही होना पड़ेगा। लेकिन जो सवाल पीके में आमिर पूछते हैं, वाजिब हैं या नहीं। मंदिर में चप्पल चोरी होने से लेकर, गाल पर भगवान का स्टिकर चिपकाने तक, चुटीले और छोटे संवादों के ज़रिए असली बात कही गई है।

फिल्म बड़ी समस्या का सरलीकरण है। यही इसकी खूबी भी है, और कमजोरी भी।

संगीत पक्ष सामान्य ही लगा मुझे। परफेक्शनिस्ट आमिर खान कई दफा मुझे उसी अंदाज में संवाद बोलते दिखे, जिस अंदाज में वो थ्री इडियट्स में बोलते थे।

अनुष्का कन्विशिंग लगीं। ओएमजी से एक तुलना और, टीवी चैनल और इंटरव्यू का ड्रामा दोनों में था। देखना होगा कि आइडिया के मसले पर उमेश शुक्ला (निर्देशकः ओएमजी) और हीरानी के बीच कोई समझौता हुआ था या नहीं।

हीरानी ने फिल्म के विषय का सरलीकरण किया, मैं इस फिल्म की कहानी का थोड़ा और सरलीकरण करते हुए कहना चाहता हूं।

मेरे खयाल से यह फिल्म किसी एलियन की नहीं है। इसका आमिर किसी और गोले से नहीं आया...वह इसी गोले के किसी ऐसे हिस्से से आया है, जहां गरीबी है, जहां से आने पर कोई चालाक आदमी उसका ताबीज जैसा रिमोट खींच ले जाता है। ठगा हुआ वह आदमी, सभ्य दुनिया की नजर में नंगा है क्योंकि ईमानदार है, क्योंकि वह झूठ बोलना नहीं जानता।

दिल्ली जैसे महानगर में घर वापस लौटने के उस रिमोट की तलाश में वह आता है, तो उसे धर्म की चाशनी मिलती है। उसका वह रिमोट किसी तपस्वी के कब्जे में है।

मीडिया की मदद मिलती है, लेकिन वह भी तपस्वी जैसों के त्रिशूल का दाग़ अपने चूतड़ पर लिए घूम रहा है।

लब्बोलुआब यह कि, पीके कुल मिलाकर कई बार देखी जाने लायक फिल्म है। लेकिन सिर्फ विषय के लिहाज से। क्राफ्ट, अभिनय या निर्देशन बाकी किसी चीज़ के हिसाब से इस फिल्म से राजकुमार हीरानी की छाप नदारद है।

वैसे भी, धर्म के बारे में फिल्म बनाने के लिए आपको सारा दोष किसी तपस्वी टाइप खलनायक पर डालना होगा। सीधे-सीधे धर्म की खाल तो किसी और गोले से आया एलियन भी नहीं कर सकता। आखिर निर्देशक कुशल कारोबारी है कोई लुल्ल बकलोल नहीं।







Thursday, November 27, 2014

नेपाल को फॉर ग्रांटेड न ले भारत

दक्षिण एशियाई देशों के संगठन-दक्षेस के शिखर सम्मेलन को कवर करने के लिए काठमांडू में हूं। काठमांडू हवाई अड्डे पर बुनियादी सुविधाओं की कमी है। वहां पर उकताए हुए किरानियों का जमावड़ा है, जो आपको सुविधाएं देने में आनाकानी करेंगे, कुछ वैसे ही जैसे भारतीय नौकरशाही को जनता को सुविधा मुहैया कराने में होता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कारवां जब त्रिभुवन हवाई अड्डे से सीधे उस जगह की ओर चला, जहां एक ट्रॉमा सेंटर का उन्हें उद्घाटन करना था, तो रास्ते के दोनों तरफ लोगों का हुजूम था। 

मुझे नहीं पता कि पाकिस्तान या सार्क के दूसरे सदस्य देशों के नेताओ के आने पर इतनी ही भीड़ थी या नहीं। लेकिन, हर मोड़ पर जब मोदी-मोदी के नारे लगने लगे, तो मुझे इल्म हुआ कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता भारत के बाहर भी है, और भारत से कम नहीं है।

तराई इलाके के एक नेता ने मुझे बाद में कहा भी, मोदी अगर नेपाल के मधेशी इलाके से चुनाव में खड़े हों तो यहां से भी जीत जाएंगे। 

फेसबुक पर मेरे कुछ मित्र यह आरोप लगाते हुए पोस्ट करते हैं कि मोदी ऐसी भीड़ प्रायोजित करवाते हैं। अब उनके पोस्ट पूर्वाग्रह और ईर्ष्याग्रस्त है, यह मानने की वाजिब वजह मुझे मिल गई।

ट्रॉमा सेंटर पर प्रधानमंत्री ने सब बातों के  साथ जिस बात का जिक्र किया वह था नेपाल के संविधान का तय समय सीमा पर बनकर तैयार हो जाना। उन्होंने भारतीय संविधान की नम्यता और अनम्यता का जिक्र करते हुए सर्वानुमति से संविधान तैयार करने पर जोर दिया। 

जाहिर है कि भारत ने नेपाल के साथ अपनी मैत्री को नए आयाम देने शुरू किए हैं। लेकिन ध्यान देने वाल बात यह है कि पहले प्रधानमंत्री को सड़क मार्ग से नेपाल आना था। यह कार्यक्रम बदल दिया गया। 

प्रधानमंत्री ने अपने किसी भाषण में इसका जिक्र भी किया। वजह हैः भारत की लापरवाही। सीमावर्ती इलाकों में सड़क बनाने की जिम्मेदारी भारत की है। (इस संदर्भ में समझौते भी है) लेकिन भारत ने इस काम का ठेका जिन कंपनियों को दिया था, (इनमें कोई एक कंपनी हैदराबाद की थी) उनने एडवांस तो लिया, लेकिन काम नहीं किया। 

प्रधानमंत्री को बिहार के शहर सीतामढ़ी से सड़क मार्ग से भिट्ठामोड़ (सरहदी शहर, आधा भारत में आधा नेपाल में) होते हुए जनकपुर जाना था। 

सुनने में आया कि बिहार सरकार ने प्रधानमंत्री की संभावित यात्रा के मद्देनज़र तकरीबन 30 करोड़ रूपये खर्च करके सड़क को ठीक करवा दिया। यद्यपि वह सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग है तथापि खर्च बिहार सरकार ने किया। 

लेकिन भिट्ठामोड़ से लेकर जनकपुर तक 19 किलोमीटर तक सड़कमार्ग बेहद खराब है। और यह सड़क भारतीय कंपनियों को बनानी थी। यह लापरवाही है, बहुत बड़ी चूक। 

मोदी के जनकपुर लुम्बिनी और मुक्तिधाम न जाने के कई कारण  बताए गए। लेकिन बड़ा कारण सड़क का खराब होना भी था। हालांकि प्रधानमंत्री ने यहां के लोगों को निराश नहीं होने के लिए कहा, और कहा कि वह मौका मिलते ही इधर आएंगे। लेकिन मधेश इलाके के उन लोगों को ज़रूर निराशा हुई होगी, जो चाहते थे कि मोदी एक दफा इधर आएं, तो अब तक तरक़्की की राह में नेपाल सरकार की नजरअंदाजी का शिकार रहे तराई इलाके के दिन बहुरेंगे। 


जिस तरह से मोदी सरकार नेपाल के साथ अपने संबंध सुधारना चाहती है,  उसे पुरानी सरकार की ऐसी गलतियों को ठीक करना होगा। 

सार्क देशो के पर्यवेक्षकों में चीन भी है, और भारत की ऐसी गलतियां पाकिस्तान के मुखर सहयोगी रहे चीन को नेपाल में बढ़त दिला देंगी।

मंजीत



Tuesday, November 11, 2014

जनकपुर रेल, जो अब भी छुक-चुक चलती है...


मैं जापान गया था और बुलेट ट्रेन देख रहा था, तो इसके बरअक्स मेरे जेह्न में दो-तीन ट्रेनें कौंध गई थीं। पहली, दिल्ली वाली मेट्रो, जो चलती तो धीमी हैं लेकिन शहरी सार्वजनिक परिवहन की बढ़िया मिसाल हैं। 

दूसरी, हमारी सामान्य रेलगाड़ियां, जो लेटलतीफी का पर्याय बनी हुई हैं। खासकर, जिन पर चढ़कर, सॉरी लदकर और ठुंसकर बिहारियों-यूपी वालों की भीड़ अपने घर को जाती है, कभी दिवाली पर कभी छठपूजा में। 

तीसरी ट्रेन है, मेरे गृहनगर मधुपुर से आसनसोल को चलने वाली डीएमयू ट्रेनें, जिनमें रोजाना चलने वाले मुसाफिर चढ़ते हैं, जिनकी खिड़कियों में साइकिलें और दूध के डब्बे लटके होते हैं।

लेकिन इन सबसे ज्यादा याद आई मुझे जयनगर से जनकपुर के बीच चलने वाली ट्रेन की।

जिनको नहीं पता, वैसे लोगों के लिए बता दें कि जयनगर बिहार में है, नेपाल की सरहद पर है और यहां तक भारतीय रेल से पहुंचने के बाद, जनकपुर-जो कि नेपाल में है-तक पहुंचने का एक मात्र ज़रिया यही ट्रेन है।

नेपाल जाने के लिए पासपोर्ट और वीज़ा की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि उससे कहीं अधिक मशक्कत करनी होती है।

पहली मशक्कत टिकट लेने के लिए होती है। ट्रेन में कुल सात डब्बे हैं तो मुसाफिरों की जबरदस्त भीड़ होती है। जनरल बोगी में, जब मैं पिछली दफा गया था, तो बीस नेपाली रूपये का टिकट है। इस क्लास का टिकट आप नहीं ले पाएंगे। बता दें, कि एक भारतीय रूपया नेपाली एक रूपये साठ पैसे के बराबर होता है।

दूसरा विकल्प है, पहली श्रेणी का टिकट लेना। इसकी कीमत, पचास नेपाली रूपये है। इसका टिकट तो, मैं शर्त बद सकता हूं, आप क़त्तई नहीं ले पाएंगे। इन दोनों में से कोई भी टिकट आप ले पाएं, तो चैंपियन समझिए।

यही है अलबेली रेल, जयनगर से जनकपुर। फोटो सौजन्यः मधेशी प्राइड


नैरोगेज की यह ट्रेन खिलौना ट्रेन से अधिक कुछ नहीं। यानी, रेल पटरी की कुल चौड़ाई 76 सेंटीमीटर है।

भारत और नेपाल के बीच इस रेल मार्ग की शुरूआत साल 1928 में हुई थी। वैसे तो इस रेललाईन की कुल लंबाई 51 किलोमीटर है, और रेल की पटरी जनकपुर नहीं, बल्कि उससे आगे बीजलपुरा तक जाती है। लेकिन कई दशकों से ट्रेन जनकपुर तक ही जाती है। जितना मुझे याद है, मैंने अपने बचपन से आजतक इस ट्रेन को जनकपुर से आगे नहीं जाते देखा।

मेरा ननिहाल जनकपुर के पास है, इसलिए इस ट्रेन से मेरा बचपन का नाता है।
मुझे याद है कि पहले इस रेल का संचालन ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन ऑफ नेपाल-जनकपुर रेलवे करती थी। लेकिन साल 2004 से इस कंपनी का सरकारीकरण कर दिया गया, और कंपनी का नाम नेपाल रेलवे कॉरपोरेशन लिमिटेड कर दिया गया।

इस रूट पर सिर्फ पैसेंजर ट्रेन चलती है। माल ढुलाई नहीं होती। वैसे, मेरा तजुर्बा तो यही है कि भारत के चिड़ियाघरों में चलने वाली खिलौना ट्रेनों से भी सुस्त यह गाड़ी चल भी कैसे पा रही है।

सात डिब्बे, हमेशा ठसाठस भरे। नेपाल के जनकपुर और आसपास के लोग खरीदारी करने जयनगर आते हैं। सिर्फ यही नहीं, नेपाल का मधेसी इलाका और मिथिला सांस्कृतिक रूप से बेहद नजदीक हैं और उनमें रोटी-बेटी का रिश्ता भी है।

ऐसे में आवागमन बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि, अच्छे भले लड़कों की कीमत (दहेज) सिर्फ इसलिए कम हो जाती हैं अगर लड़की भारत से हो और लड़का नेपाल से।

बहरहाल, यह रेल लाईन दो खंडो में बंटी हुई है। जयनगर से जनकपुर 28.8 किलोमीटर और जनकपुर से बीजलपुरा 22 किलोमीटर।

जनकपुर से बीजलपुरा के बीच यातायात बहुत दिनों से बंद है।

इतनी जानकारी मैंने इसलिए दी है ताकि आपको यह पता चले कि आखिर यह रेललाईन आखिर है क्या बला...बाकी मेरे बचपन के कुछ तजुर्बे हैं, जो अगली पोस्ट में शेयर करूंगा।

Thursday, October 9, 2014

अर्थात्...अपने शाहे-वक़्त का यू मर्तबा आला रहे

भारत की तहज़ीब में ही पैवस्त रहा है हमेशा अपने लिए नायकों की तलाश। हम सिनेमा हो खेल, अपने लिए नायको की तलाश करते रहते हैं। नायको की इसी तलाश में कई दफा हम उन नायकों की संतानों और रिश्तेदारों को भी कुछ वैसी ही प्रतिष्ठा देते हैं, जितना अपने नायकों को। कई दफा ये संताने उतनी ही प्रतिभावान् होती हैं, कई दफा नहीं भी होती।

हम नायको में खुद को देखना चाहते हैं और उनकी संतानों में अपनी संतानो का अक्स देखते हैं। उम्मीदें बढ़ जाती हैं। अमिताभ के बेटे से अमिताभ जैसा, गावस्कर के बेटे से गावस्कर जैसा होने की उम्मीदों का बोझ होता है। 

एक भाव होता है, जो हमें नायकों से जोड़ता है। लोग अपने बच्चों के नाम उसी जुड़ाव की वजह से कभी जवाहर, कभी इंदिरा, कभी राजीव, अमिताभ, सलमान और शाह रुख़ रखते हैं। यह एक सूत्र है, जिसकी वजह से असली या नक़ली नायक पैदा होते हैं। 

अन्ना का आंदोलन आय़ा, तो इसने नौजवानों को अपने साथ कनेक्ट कर लिया। कुछ दिनों या शायद महीनों के लिए केजरीवाल इसी लहर पर सवार होकर नायकत्व का सुख प्राप्त करते रहे। लोकसभा चुनाव में मोदी को नायकों जैसी प्रतिष्ठा के साथ सत्ता दी है। 

यह एक लगाव वाली खास भावना है, जो किसी अभिनेता, खिलाड़ी और जांबाज फौजी़ को हासिल होती है। 

लेकिन हमारी इसी भावना को भुनाते हैं राजनेता। हम एक व्यावहारिक लोकतंत्र में वंशवादी राजनीति की खामियों की व्याख्या कैसे कर सकते हैं इस पर विचार करने की जरूरत है? हिंदुस्तान में राजनीति पहले की तुलना में अब ज्यादा पारिवारिक उद्यम बन गया है।

सहभागी लोकतंत्र में वंशवादी राजनीति का होना अपने आप में कई तरह के विरोधाभासों को जन्म देता है फिर भी ये मौजूद क्यों है और क्यों प्रतिस्पर्धी राजनीति में भी खत्म नहीं हो रहा है ये एक बड़ा सवाल है। कई बड़ी पार्टियां संगठनात्मक तौर पर वंशवादी नहीं हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उनके भीतर राजनीतिक वंश से ताल्लुक रखने वाले सांसद मौजूद नहीं हैं। 

शायद पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर भी राजनैतिक वंशवाद को इतने व्यापक स्तर पर समर्थन हासिल है और ऊपर से ये कि इस मुल्क की जनता ने सिर्फ एक नहीं बल्कि दसियों "खानदानों" को अपने सिर माथे पर बिठाया है। 

उत्तर प्रदेश हो या हरियाणा, तमिलनाडु हो या जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र हो या बिहार...वंशवाद की बेल हर सूबे में परवान चढ़ी है, फल-फूल रही है। ऐसे में सवाल यही खड़ा होता है, अगर पार्टियां खानदानों के प्रभुत्व वाले राजवंशों में तब्दील हो जाएं तो राजनीति में हिस्सेदारी चाहने वाले आम आदमी के हिस्से में क्या जाएगा.. सियासत को खानदानी कारोबार समझने वाले सियासतदां तो बक़ौल अदम गोंडवी आम आदमी के बारे में बस इतना सोचते हैं,

आंख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे,
अपने शाहे-वक़्त का यूं मर्तबा आला रहे।

एवरी थिंग फेयर है इलेक्शन वॉर में।

चुनाव आते हैं, तो वादे बड़े हो जाते हैं, और उससे भी बड़े हो जाते हैं दावे। असली मकसद होता है वोटर को रिझाना। यह मैं कोई नई बात नहीं लिख रहा हूं। आम आदमी के बारे में सोचते वक्त नेताओं के जेह्न में सिर्फ भीड़ होती है। चेहरे वोटों की गिनती में बदल जाते हैं। लेकिन इनमें शायद ही कभी किसान की छवि आती हो। 

महाराष्ट्र हो या हरियाणा के किसान के हिस्से में समस्या ही होती है। खाद के दाम, बीज के दाम, और कर्ज पर लगने वाला ब्याज....सुविधा मुहैया कराना वादो में तो होता है लेकिन सरकार बनने के बाद सारी सोच मुंबई के मंत्रालय या चंडीगढ़ के सचिवालय तक सिमट जाती है।
 
महाराष्ट्र में चुनाव हैं, लेकिन विदर्भ का किसान वैसे ही परेशान है। नागपुर के पास मिहान में बनने वाला एसईजेड दस साल से लगातार बन रहा है। उसका बनना खत्म ही नहीं हो रहा।
 
यों तो खेती की देखभाल राज्य का विषय है, लेकिन चुनाव में मसला उठता है तो सफाई देनी जरूरी हो जाती है। हो सके तो ठीकरा दूसरे के सर पर फोड़ना भी जरूरी हो जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने हरियाणा में एक रैली में जैसे ही किसानों के कर्ज पर लगने वाले 4 फीसद ब्याज की बात कही, अगली रैली में भूपिन्दर सिंह हुड्डा ने एलान कर दिया, कि आगे से किसानो को कोई ब्याज नहीं देना होगा।

उधर, एक मसला भ्रष्टाचार का भी है। एक तरफ प्रधानमंत्री हरियाणा में सरकारी ज़मीन के घोटाले को लोगों के सामने उठाते हैं तो मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा कहते हैं, साबित हो गया तो पद छोड़ देंगे। पद छोड़ देना आसान है, पद पर रहकर अपने वायदे निभाना मुश्किल। नैतिकता को निभाना हमेशा मुश्किल होता है, नैतिक बने रहना आसान।

नैतिकता का सवाल ओमप्रकाश चौटाला के लिए भी है, लेकिन जेल से मेडिकल ग्राउंड पर बाहर आए चौटाला ने चुनाव प्रचार कर साबित किया कि उन के लिए मेडिकल ग्राउंड तो है लेकिन मोरल नाम का कोई ग्राउंड नहीं। 

वैसे वादो, इरादों और दावों के इस दौर में एक हिट हिन्दी फिल्म का महाहिट गाना याद आ रहा है, धोखा अच्छा नहीं है लेकिन प्यार में, एवरीथिंग फेयर है लव और इलेक्शन वॉर में।

Monday, September 29, 2014

ब्लॉगिंग के सात साल

सात साल हो गए। सात साल कुछ यूं निकल गए। बिना कहीं छपे, बिना किसी भुगतान के...सात साल लगातार लिखना, पेंडुलम की तरह बिना कहीं पहुंचे लगातार चलते रहने जैसा है। 

29 सितंबर का ही दिन था, जब मैंने अपना ब्लॉग गुस्ताख़ शुरू किया था।

गुस्ताख़ की शुरूआत गुस्से में हुई थी। बात उऩ दिनों की है जब मेरे पास कंप्यूटर नहीं हुआ करता था। मेरे दोस्त के पास था। साल 2007 के मार्च महीने की बात। दोस्त ने कहा, दोनों मिलकर ब्लॉग शुरू करते हैं। दोस्त के पास इंटरनेट की सुविधा भी थी। तो हमदोनों ने भगजोगनी नाम का ब्लॉग शुरू किया।

लिखना शुरू हो गया। लिखना चलता रहा।  तभी एक दिन दोस्त ने कहा कि चूंकि ब्लॉग उसके मेल आईडी से चलता है, इसलिए एडिटोरियल राईट उसी के पास रहेंगे। और वह मेरे लेख एडिट किया करेगा। 

यह मालिकाना किस्म का व्यवहार पसंद नहीं आया मुझे।

उसी दिन साइबर कैफे जाकर, अपना ब्लॉग बना डाला। नाम मेरे करीबी दोस्त ऋषि रंजन काला ने सुझाया, अनुमोदन किया सुशांत झा ने। (सुशांत भी उन दिनों अपने एक दोस्त के ब्लॉग पर लिखा करते थे, बाद में उन्होंने भी अपना ब्लॉग आम्रपाली बनाया, जो काफी पढ़ा जाता है)

तो सर, यों हमारे ब्लॉग लेखन की शुरूआत हुई, 29 सितंबर को। वह दिन है, और आज का, ब्लॉग लेखन ने लिखना ही सिखा दिया। 

आज कुछ लोग गुस्ताख पढ़ते हैं। कई अखबार अपने ब्लॉग वाले कॉलम में मेरा लिखा छापते हैं, दुख इतना ही होता है कि बताते नहीं, सूचना नहीं देता। भुगतान तो खैर हिन्दी अखबार क्यों करेंगे, आदत में ही शुमार नहीं। उनका सोचना है कि किसी का लिखा छाप देंते हैं तो उपकार है उस बंदे पर...।

मेरे केस में ऐसा नहीं है अखबार वाले मेरे मित्रों। मैं सिर्फ अपने लिए लिखता हूं, या फिर पैसे के लिए। लिखना मेरा शौक भी है, और रोज़ी भी। 

सात साल...। लंबा अरसा है ना। गुस्ताख ब्लॉग को जन्मदिन की हार्दिक बधाई, इसके पढ़नेवालों को भी और लेखक यानी ब्लॉगर को तो खैर बधाई है ही।







Thursday, September 25, 2014

मीडिया के मंगलकाल के बाद...

बड़ी अच्छी ख़बर मिली, भारत का मंगलयान मंगल की कक्षा तक पहुंच गया। प्रधानमंत्री ने कहा, मंगल को मॉम मिल गई। देश के प्रधानमंत्री खुश थे, साइंसदान खुश थे। हमारे चैनल के एंकर ने कहा, बीमींग स्माइल। अर्थात् चौड़ी चकली मुस्कान। सही है।

भारत ने चांद के बाद अब मंगल को भी फतह कर लिया। दोनों ही पहले प्रयास में। देश में बधाई का माहौल है। जितना देश में नहीं है उससे अधिक चैनलों के स्क्रीनों पर है। 

प्रधानमंत्री कई दफा कह चुके हैं कि आने वाला वक्त एशिया का है। ज्ञान-विज्ञान और कारोबार में जिस तरह से तरक्की दर्ज की जा रही है, यह सच भी होगा। 

भारत ने मंगल हो या चांद बेहद कम कीमत पर यान प्रक्षेपित किए हैं। कुछ दशक पहले आर्यभट्ट और एप्पल जैसे उपग्रह कक्षा में स्थापित करने के वास्ते भारत को विदेशी मदद की दरकार हुआ करती थी, अब भारत दूसरे देशों के उपग्रह अपने यानों से कामयाबी से कक्षाओं तक पहुंचा रहा है।

यह भी याद है कि बारह-पंद्रह साल पहले तक भारत क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के लिए किस तरह विकसित देशों के आगे हाथ पसारे हुए था और उन विकसित देशों ने कैसी ना-नुकुर की थी यह तकनीक देने में। मंगल अभियान की कामयाबी उन संस्थानों को भारतीय करारा जवाब है।

भारत की तकनीक विदेशी अंतरिक्ष एजेंसियों की भी मुफीद है, क्योंकि यह सस्ती तो है ही विश्वसनीय भी है।

भारतीय साइंसदानों के कारनामे अब मीडिया की सुर्खियाों में जगह पाने लगे हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विज्ञान में शोध के प्रति छात्रो में रूचि काफी घट गई है। साथ ही, हम अपने जिन वैज्ञानिकों को बतौर नायक देख रहे हैं, वह या तो परमाणु वैज्ञानिक रहे हैं या फिर रॉकेट साइंस से जुड़े लोग। तो शोध क्या सिर्फ इन्ही दो क्षेत्रों में होते हैं?

प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि विज्ञान से जुड़े शोध ऐसे हों जो आम जन-जीवन का भला करें। जाहिर है, इसके लिए वैज्ञानिकों को ध्यान देना होगा कि वह ऐसी तकनीक विकसित करे कि साफ पानी के लिए तरसते घरों में पीने का पानी मुहैया हो, अभी तक महंगी सौर ऊर्जा का सस्ते दर पर उत्पादन किया जा सके, जरूरी दवाएं और टीके स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती हों। 

तभी मंगल अभियान की कामयाबी से आदमी भौंचक्का-सा नहीं दिखेगा कि अरे मंगल पर तो पहुंच गए इससे क्या होगा। चांद और मंगल ही क्यों, पूरा अंतरिक्ष पड़ा है फतह करने को, लेकिन असली चुनौती गांवो में बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का है...यह एक ऐसा हिमालयी चुनौती है, जिसे सरकारें फतह नहीं कर पाई हैं।

आखिर, उर्ध्वाधर विकास के साथ क्षैतिज् विकास जरूरी है।


Friday, September 19, 2014

बंगाल डायरीः दुर्गा पूजा, तापस पाल और बंगाल

कुछ दिनों बाद दुर्गा पूजा शुरू होगी। और कुछ दिन पहले तृणमूल नेता तापस पाल के बयान मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर रहे थे। बंगाल आम तौर पर बहुत पढ़ा-लिखा और जागरूक सूबा माना जाता है। परिवार में भी महिलाओं की स्थिति ठीक मानी जा सकती है। लेकिन परिवार में रूतबा, समाज में भी वही रूतबा नहीं दिला सकता।

चुनाव कवरेज के दौरान बंगाल में घूम रहा था तो बांकुरा जाने का मौका भी मिला था। वीरभूम जिला। सुबलपुर गांव। लव जिहाद जैसा एक मामला सामने आया। एक जनजातीय लड़की को समुदाय के बाहर के लड़के से प्यार हो गया। 

सालिशी सभा यानी जनजातीय पंचायत, जिसे सुविधा के लिए आप इलाके की खाप पंचायत मान सकते है, ने उस आदिवासी लड़की पर पचास हजार रूपये का जुर्माना ठोंक दिया। लड़की गरीब थी, जुर्माना नहीं दे सकी तो सालिशी सभा के मुखिया के आदेश पर, बारह लोगों ने उस लड़की के साथ बलात्कार किया। बलात्कार करने वालों में मुखिया महोदय भी थे।

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी न जाने कितने तर्क देती हैं, लेकिन विधि-व्यवस्था पर उनकी पकड़ बदतर है। जरा गिनिएगा, फरवरी 2012 में पार्क स्ट्रीट रेप कांड, वर्धमान में कटवा रेप कांड, दिसंबर 2012 में उत्तरी 24 परगना में बारासात में सामूहिक बलात्कार, जुलाई 2013 मुर्शिदाबाद के रानी नगर में शारीरिक रूप से अशक्त लड़की का रेप, आरोपी था तृणमूल का नेता-पुत्र, अक्तूबर 2013 में  उत्तरी 24 परगना में मध्यमग्राम में एक नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार, लड़की का परिवार डर कर मकान बदल लेता है, अपराधी वहां भी उसका पीछा करते हैं। जनवरी 2014 में दक्षिणी कोलकाता के फिटनेस सेंटर की कर्मचारी को ट्रक में अगवा कर लिया जाता है और 5 लोग उसके साथ रेप करते हैं। जून 2014 में कामदुनी में कॉलेज छात्रा का रेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है। मुखालफत पर उतरी महिलाओं को ममता बनर्जी माओवादी बता देती हैं।

यह उन बलात्कारों की सूची है जो मीडिया की नजर में आए, और मीडिया के जरिए लोगों की निगाह-ज़बान पर चढे। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े पश्चिम बंगाल में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की तरफ इशारा करते हैं।
साल 2006--1731
साल 2007--2106
साल 2008--2263
साल 2009--2336
साल 2010--2311
साल 2011--2263

महिलाओं के प्रति अपराधों में पश्चिम बंगाल देश में पहले स्थान पर है। बलात्कार के मामलों में तीसरे पायदान पर है। महिलाओं के प्रति अपराधों के लिए बदनाम शहरो में कोलकाता तीसरे नंबर पर है।

पूरे पश्चिम बंगाल में देश का आबादी का साढे सात फीसद हिस्सा रहता है, लेकिन महिलाओं के प्रति अपराध में यह 12.2 फीसद हिस्सा बंटाता है।

यह सवाल जब कुछ बुद्धिजीवी महिलाओं, मिसाल के तौर पर शांति निकेतन की एक प्राध्यापिका, और कोलकाता में एक महिला पत्रकार से किए गए तो दोनों ने यही उत्तर दिया कि आखिर अपराध किस सूबे में नहीं होते। 

तापस पाल हों या शांति निकेतन की शिक्षिका...उनके लिए दुर्गा पूजा के दौरान भी राजनीतिक प्रतिबद्धता अव्वल नंबर पर है।

Thursday, September 11, 2014

हम भारत को कैसा जापान बनाना चाहते है?

जापान यात्रा का जमा-खर्चः

जापान एक देश के तौर पर बहुत विकसित है। भारत ने पूर्व की ओर देखो की नीति कह लीजिए या फिर चीन का मुकाबला करने के लिए जापान से दोस्ती गांठने की कूटनीति कह लीजिए, जापान के साथ अपने रिश्ते की गरमाहट बढ़ाई है।

हमारे देश की अर्थव्यवस्था की आज की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी जापान की आज से चार दशक पहले थी। युद्ध से टूटा हुआ देश, तब कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का ही था। रूपया उसका भी उसी तरह कमजोर था, जैसा आजकल हमारा रह रहा है।

दक्षिणपंथी देशभक्तों को शायद रूपया कमजोर होना खल रहा होगा, लेकिन सच तो यह है कि कमजोर रूपया निर्यात को मजबूत करेगा। 

प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से जो झंडा फहराया, तब उन्होंने कहा था- मेक इन इंडिया। यानी भारत में आकर निर्माण कीजिए। जापान में वहां के व्यवसायियों-उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए भी पीएम ने वही कहा था कि भारत में चल कर उत्पादन कीजिए। भारत में उत्पादन की सारी सुविधाएं दी जाएंगी, एकल खिड़की व्यवस्था होगी, और भारत में उत्पादन की लागत कम आएगी। साथ ही, व्यापार की नजर से मध्य-पूर्व और पश्चिमी देशों से भारत नजदीक भी पड़ेगा। परिवहन खर्च कम होगा।

मोदी ने अपनी यात्रा में अगले पांच भारत के लिए निवेश के तौर पर 2.10 लाख करोड़ रूपये जुटा लिए। यह मेरी जापान यात्रा के उस पत्रकारिय अनुभव का निचोड़ भर है, जिसकी रिपोर्टिंग मैं सार्वजनिक प्रसारक के रिपोर्टर होने के नाते करता रहा।

उगते सूरज का देश या मशीनी मानवों की बस्तीः

अब एक वाकया ऐसा, जो कुछ आंखें खोलने वाला, कुछ विचारने पर मजबूर करने वाला रहा। हमें क्योटो से टोकियो के लिए उड़ना था। हमें ओसाका हवाई अड्डे से ही टोकियो के लिए उड़ान भरना था। क्योटो से ओसाका एयरपोर्ट तक  की दूरी कार से तय करनी थी। 

जापानी ड्राइवरों की सुविधा के लिए हर कार में जीपीएस सिस्टम लगा रखा है। इससे वहां की यातायात व्यवस्था में कहीं उनको दिक्कत नहीं होती। 

ड्राइवर बस गंतव्य तक का नाम फीड कर देते हैं, और जीपीएस सिस्टम का स्क्रीन उनको गाइड करता चलता है कि उनको कहां और किसतरह चलना-मुड़ना है।

इस जीपीएस तंत्र ने हमें लगभग धोखा दे ही दिया था। ओसाका एयरपोर्ट के पास फ्लाईओवरों का जाल-सा है। अगल-बगल, ऊपर-नीच तिमंजिला फ्लाईओवर...ड्राइवर की जीपीएस मशीन धोखा दे गई। एक ही रास्ते पर पांचवी बार जाने के बाद हमारे पीटीआई के फोटोग्रफर अतुल यादव ने उनको अच्छी हिन्दी में समझाया और रास्ता भी बताया। 

तब जाकर हम ओसाका एयरपोर्ट तक पहुंच पाए थे। 

यही नहीं, जिस एलीमेंट्री स्कूल में हम गए, वहां बच्चों के पढ़ाने के लिए मशीनों पर निर्भरता बहुत ज्यादा है। कंप्यूटर के जरिए पढ़ाना, अच्छी बात हो सकती है लेकिन इससे दिमाग का विकास कितना हो पाता होगा, मुझे शक है। 

हर बच्चे के हाथ में टैबलेट। कोई सवाल पूछने पर वह सीधे अपनी मशीन का रूख करता था। किसी बड़े से कुछ पूछो तो विनम्रता से अपने फोन या टैब की तरफ देखता था। 

अगर इतना विकास ही असली विकास है, तो शायद यह इंसानों को मशीन में बदलना ही होगा। घर-घर बिजली पहु्ंचाना, सेहत की सुविधाएं पहुंचाना, अच्छी सड़कें तक तो ठीक है, इंसानों की डिजाईन अगर मशीन तय करने लगे, तो मानव प्रजाति के लिए घातक होगा। 

जापान को भी इसके परिणाम जल्द दिखेंगे।



 
 

Tuesday, May 13, 2014

बंगाल डायरीः बंगाल में भाजपा का आविर्भाव



2014 का चुनाव ऐसा रहा जिसने राजनीतिक सरहदों को चुनौती देना शुरू कर दिया है। इसकी मिसाल है बीजेपी की बंगाल में पैर जमाने की कोशिशें। और वह एक हद तक इसमें कामयाब दिखती है।

बहुत पहले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने कहा था कि जिस दिन बंगाल में बीजेपी को सीटें मिलनी शुरू हो जाएंगी, केन्द्र में उसकी सरकार बननी तय है। इस दफा ऐसा दिख रहा है। बंगाल में बीजेपी का जनाधार नुमायां हो रहा है। वोट शेयर बढ़ेगा यह तय है। सीटों में कितनी तब्दील होंगी, यह कहना जल्दबाज़ी होगी।

ज्यादा दिन नहीं बीते, चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी और नरेन्द्र मोदी के बीच वाक्-युद्ध देखने को मिला। जबकि ठीक एक साल पहले, नरेन्द्र मोदी जब कोलकाता आए थे, तो उनने ममता के काम की तारीफ की थी और कहा था कि ममता को 34 साल के वाम मोर्चे के दौरान विकास के काम में पैदा हुए गड्ढे भरने का काम करना होगा। एक साल में हुगली में ऐसा कैसा पानी बह निकला?

यही सवाल मैंने जब माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य वृन्दा करात से किया तो उनका सहज उत्तर था, दोनों एक ही हैं, यह ज़बानी जंग महज नूराकुश्ती है।
लेकिन इस जवाब का एक और स्तर है। दरअसल, इस चुनाव में बीजेपी का वोटशेयर खासा बढ़ता दिख रहा है और इस बात की उम्मीद किसी को नहीं थी। ममता को तो कत्तई नहीं।

बीजेपी की तरफ बंगाल के उन वोटरों का झुकाव दिखा, जो तृणमूल कांग्रेस के विरोधी हैं लेकिन सीपीएम से निराश हैं।

अब इसको मोदी लहर कहिए या फिर कुछ और, बंगाल की कम से कम आठ सीटों पर बीजेपी कड़ी चुनौती पेश कर रही है। इन सीटों में, दार्जीलिंग, अलीपुर दुआर, हावड़ा और श्रीरामपुर शामिल हैं। साथ ही, आसनसोल और कृष्णानगर को भी जोड़ लीजिए। हाईप्रोफाइल कैम्पेन वाली वीरभूम सातवीं सीट मानी जा सकती है। बीजेपी इन सीटों पर जीत की उम्मीद लगाई बैठी है। कई साथी पत्रकार इनमें से चार पर बीजेपी की जीत पक्की मान रहे हैं।

लेकिन, मशहूर बांगला अभिनेत्री सुचित्रा सेन की बेटी, और खुद भी हीरोईन रह चुकी, राजनीति की नई नवेली खिलाड़ी मुनमुन सेन किसी लहर से इनकार करती हैं। मोदी लहर? वह किधर है...वह मुझी से पूछती हैं। कहती हैं, बंगाल में सिर्फ एक ही लहर है, ममता की।

मुझे भी इस बात से कहां इनकार है।

जिन आठ सीटों की बात मैंने की, उनमें  एक बात कॉमन है कि यहां की आबादी मिलीजुली है। 2009 में बीजेपी के खाते में सिर्फ एक सीट गई थी। दार्जीलिंग। तब उसे गोरखा पार्टियों का समर्थन मिला था। वह समर्थन इस बार भी मौजूद है।
दूसरी सीटों पर भी उसका एक छोटा सही लेकिन जनाधार तो मौजूद है ही। इस बार उस जनाधार में गैर-बंगाली, वाम-विरोधी और तृणमूल से मोहभंग हुए लोगों का तबका भी आ जुड़ा है।

खासकर, सेलिब्रिटी उम्मीदवारो ने बीजेपी का दावा थोड़ा और मजबूत कर दिया है। श्रीरामपुर में बीजेपी की सभाओँ में वहां के मौजूदा तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बनर्जी की सभाओं से अधिक भीड़ जुटती है। हालांकि, यह वोटों की संख्या का सुबूत नहीं होता।

आसनसोल में बाबुल सुप्रीयो पर हथियार रखने का इलजाम सहानुभूति की तरह काम कर गया। इस सवाल पर सुप्रीयो कहते हैं, ममता ने मुझे फंसाने की कोशिश की है, इसी से मेरी उम्मीदवारी की गंभीरता का पता चलता है। जबकि मैंने आजतक कोई आर्म यूज़ नहीं किया, सिवाए अपने लेफ्ट और राइट आर्म के। बाबुल मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथ दिखाते हैं।

हावड़ा में बीजेपी ने वेटरन एक्टर जॉर्ज बेकर को और वीरभूम में मशूहर जात्रा एक्टक जॉय बनर्जी पर दांव लगाया था।

इन सीटों पर बीजेपी कितनी जीतती है, यह सवाल पेचीदा है। लेकिन 2009 के मुकाबले उसके वोटों में सबस्टेंशियल बढोत्तरी होगी, यह तय है।

लेकिन, पश्चिम बंगाल में बीजेपी का यह उदय, बंगाली जनमानस में पैठे हुए उस सेल्फ-परेशप्शन पर सवाल खड़े करता है, जो कहीं न कहीं श्रेष्ठता भाव लिए था। जो कहीं न कहीं, बौद्धिकता और विमर्श आधारित राजनीति करने का दम भरता था। क्योंकि बंगाल की राजनीति में भी चमक-दमक और ग्लैमर का बढ़ता असर दिख रहा है, हालांकि यह एक अलग किस्म के बहस का विषय है।

फिलहाल, बीजेपी को एक नए राज्य में अपने बढ़ते वोटबैंक से खुश होना चाहिए।

जारी...

Sunday, May 11, 2014

बंगाल डायरीः हकों की सेंधमारी का किस्सा




मालदा से उत्तर जाएंगे तो सिलीगुड़ी जाने के रास्ते में रायगंज है। रायगंज पहले प्रियरंजन दासमुंशी का संसदीय क्षेत्र था। वो बीमार पड़े तो 2009 में उनकी पत्नी दीपा दासमुंशी चुनाव मैदान में उतरीं। सभी दलों में यह परंपरा चल पड़ी है। जनता में भी इसको लेकर ज्यादा परेशानी नहीं थी।

इस्लाममुर, रायगंज क्षेत्र का क़स्बानुमा शहर है। हाईवे को दोनों तरफ बसा हुआ बाजार। छोटा-सा।

2009 में सोनिया गांधी ने दीपा दासमुंशी के पक्ष में रैली की थी। बड़ी भारी भीड़ उमड़ी थी। मालदा में राहुल गांधी ने रैली की थी। वहां भी भारी भीड़ उमड़ी थी। लेकिन इस बीच पांच साल बीत गए।

पांच साल में न जाने कितना पानी बह गया गंगा में। तब, इस्लामपुर में एक अधेड़ सी शख्सियत से मुलाकात हुई थी। रेलवे में कुली का काम करते थे। नाम याद नहीं। डायरी में नाम लिखना भूल गया था। कह रहे थे, इंदिरा माता ने खुद उऩको आशीर्वाद दिया था। सोनिया माता के प्रति भी भरोसा कायम था।

कह रहे थे, शुरू में उनके गोरे रंग पर भरोसा नहीं था, अब जम गया है। राहुल को लेकर एक ऐसी चिंता थी उनके चेहरे पर, जैसे किसी नाबालिग बच्चे को लेकर घर के बुजुर्ग में होती है। उस आदमी की आवाज़ में एक शक था—राहुल संभाल पाएगा देश को, बाप जैसी बात नहीं उसमें। बांगला मिश्रित हिंदी। यह साल 2009 की बात है।

2014 में लोग परेशान दिख रहे हैं। रैलियों में भीड़ है। सोनिया की रैली में भी राहुल की रैली में भी। प्रतिबद्ध वोट बैंक है, लेकिन वह उत्साह नहीं। तृणमूल कांग्रेस के आक्रामक तेवर, कुछ देव जैसे बांगला सुपरस्टारों की चमक, और सबसे ज्यादा ममता के पोरिबोर्तन की धमक...। ममता एक आँधी की तरह हैं।

उनको पोरिबोर्तन का काम अभी भी अधूरा है। वाममोर्चा किसी तरह के चमक-दमक भरी रैली या रोड शो से प्रचार नहीं कर रहा। अंडरप्ले कर रहा है।

मैं बांगला समझ सकता हूं। बोल भी सकता हूं। लेकिन एक ट्रिक लगाई मैंने। कहता हूं लोगों से, दिल्ली से आया हूं, और बांगला नहीं जानता। यह बात बांगला में बोलने की कोशिश करता दिखता हूं।

सामने वाले को लगता है बांगला बोलने की कोशिश करने वाले शख्स की मदद करना उनका कर्तव्य है। मुझे मदद मिलती है।

2009 में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा था। मालदा इलाके में खान परिवार का बहुत असर है। 2014 में यह असर पूरी तरह छीजा नहीं है। ममता इस इलाके में तृणमूल की सेंध लगाने की कोशिश में रहीं। पांच दिनों तक लगातार मालदा में कैम्प किया।

ज़मींदार परिवार के अबू हसन खान चौधरी यानी डालू दा का अपना जनाधार है। लेकिन पांच बरस के अंतराल में कमजोर हुए हैं। ममता ने कांग्रेस को हराने के लिए मिथुन और देव जैसे स्टारों से रोड शो करवाए हैं। जंगीपुर, मालदा दक्षिण और मुर्शिदाबाद में कांग्रेस को मुश्किल हो सकती है। हालांकि बहरामपुर से लड़ रहे (मुर्शिदाबाद की ही पड़ोसी सीट) अधीर रंजन चौधरी को हराना बहुत मुश्किल है।

अधीर चौधरी की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है, जैसी गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ की है। एकमात्र ऐसे प्रत्याशी हैं कांग्रेस के, जिनपर हत्या का मुकद्दमा चल रहा है।
इलाके में बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन पार्टियों को लगर की बातें करना अच्छा लगता है। चुनाव वैचारिक धार पर लड़े जाते हैं। उत्तरी बंगाल में पीने की पानी की समस्या है, उद्योग ठप हैं। रोज़गार है ही नहीं। विकास की ज़रूरत ने तल्ख़ सच्चाईयों से परदा उठाया है, ममता को पोरिबोर्तन विकास की राह पर नहीं चल पाया है, कुछ काम होने शुरू हो गए हैं। लेकिन उम्मीद कायम है।

मुर्शिदाबाद में पीतल के बरतनों का काम होता है। लेकिन चमक खो गई है। कामगारों की लगातार अनदेखी होती रही है।

2009 में इस इलाके के कांसमणिपाड़ा गया था। निरंजन कासमणि मिले थे। पीतल के बरतन बनाते हैं। पूरे मुहल्ले का घर...हर घर से ठक-ठक की आवाज़ आ रही।
हर घर से धुआं निकल रहा। घर के अंदर जाएं, तो छोटे कमरों में लोग काम में जुटे...। निरंजन ने बड़े दुख से बताया, पीतल के बरतन बनाने का उद्योग बस आजकल का मेहमान है। स्टील के बरतनों ने जगह ले ली है। कामगारों के पास पूंजी की कमी है। काम करने के लिए ज़मीन तक नहीं मिलती। सरकार वायदे पर वायदे कर के चले जाते हैं, वोट के बाद कोई पूछने तक नहीं आता।

बड़ी बेचारगी से कहते हैं आप प्रणब दा (उस समय वह वित्त मंत्री थे, और जंगीपुर से चुनावी मैदान में थे) से मिलें तो हमारी व्यथा जरूर सुनाएं।

मुर्शिदाबाद एक और चीज़ के लिए बहुत मशहूर रहा है...रेशम। लेकिन यहां क्या रेशम के कारीगर, क्या बीड़ी मज़दूर क्या पीतल के कारीगर, सबकी व्यथा एक सी है...पानी तक पीने लायक नहीं...आर्सेनिक का ज़हर है उसमें।

जारी....