Wednesday, May 30, 2012

लहू का लहू, पानी का पानी

आज गुस्ताख अज्ञानी बन गया, उसने फेसबुक पर पूछ डाला कि क्या डीएनए जांच के लिए खून का नमूना लेना ही जरूरी है। जिस खून लेने पर तिवारी बबा अड़े हुए हैं कि नहीं देगें, और अदालत कहती है कि लेवे करेंगे...उसी पर कई बौद्धिकों की बड़ी खुलकर बातचीत हुई है।

सवाल नैतिकता का नहीं है, सवाल थोड़ा सामाजिक भी है और राजनीतिक भी। बाल की खाल उतारी गई है, धैर्य से पढ़ें। और फेसबुक पर अलक्षित सवालों के बीच मीडिया की निगाहों से बच गए इस सवाल पर गौर फरमाएं- गुस्ताख।

अज्ञानी का यक्ष प्रश्नः क्या डीएनए जांच के लिए ब्लड सैंपल ही जरूरी है?


Arbind Jha iseke liye kisi doctor se rai lena padega ho

Sushant Jha i dont think so...perhaps DNA is present in every cell...be its skin or sperm...!

Manjit Thakur Arbind Jha: सुना है डीएनए तो हर कोशिका में होता है तो बालों में भी होता होगा। उसके तो समूचे नस में रक्त की जगह वी* ही भरा है। रक्त कहां से मिलेगा

Manjit Thakur Sushant Jha: तुम सत्य उचार रहे हो

Sushant Jha +2 तक अपन ने भी डॉक्टर बनने के चक्कर में विज्ञान की पढ़ाई की थी...धुंधला सा याद है...।

Arbind Jha ee ekdam thik bole, budhaw ke pass ab khoon kaha


Manjit Thakur तो अदालते में काहे नहीं बाल नोंच लिए झपट्टा मार के...एक मुट्ठी धवल उज्जवल केश तो आ ही जाते


Praveen Kumar Jha नहीं भाई साहब ! अंतरात्मा की आवाज से भी पता कर सकते है

Arbind Jha Praveen bhaiya antraaatma bacha kaha hai budhe ke pass

Deepika Lal bacche ki pahchan ke DNA blood se hi pata chal sakta hai.... actually Blood me hi mata pita dono ke dna hote hai.... sharir ke kisi hisse me DNA mata pita dono ka ek sath nahi milta....... i think

Manjit Thakur Praveen Kumar Jha: अंतरात्मा...आपके पास होगी। तिवरिया के पास तो कत्तई नहीं होगी। नहीं तो अब तक मान चुका होता। आंध्र के राज्यपाल थे, तब कुछ सीडी जारी हुआ था...उऩकी अंतरात्मा वहीं बर्न हो गई होगी, सीडी के साथ ही

Arbind Jha hahahhahaaaaaaaa

Sushant Jha वैसे तिवारी बाबा डीएनए टेस्ट को बाबरी मस्जिद बनाना चाहते थे...। वैसे मामले का अगला चरण तब मजेदार होगा जब बाबा को अपनी कोठी, मर्सीडिज और स्विस बैंक अकांउट बेटे से शेयर करना होगा...। वैसे रोहित शेखर को प्राथमिक जीत मिल चुकी है। हिंदुस्तान की जनता उसे तिवारी का बेटा मान चुकी है।

Manjit Thakur Deepika Lal: देख छोटी, मामले के तकनीकी पहलू समझ। तिवरिया के खून में जो डीएनए होगा उसमें रोहित शेखर की मां का डीएनए कहां से आएगा। यह तो रोहित शेखर के खून में होना चाहिए। दोयम, तिवारी का डीएऩए का ढांचा खून में भी वही होगा, जो उसके बाल में होगा। हर इंसान के साथ ऐसा ही होता है। तीसरे, रोहित शेखर के जिस्म का हर डीएनए स्ट्रैंड उसके मां और जैविक पिता दोनों के न्यूक्लिक एसिड से बना होगा। मेरा खयाल है कि इस तकनीकी पेचो-खम में कोई जानकार आदमी ही प्रकाश डाल सकता है। शायद कोई डॉक्टर...

Deepika Lal bilkul sahi kaha apne......doctor ko dundhe.....

Arbind Jha Nikesh bhaiya ise pr aap roshni daaliye ho

Arbind Jha Manjit bhaiya nikesh bhaiya ko tag kar chuke hai

Samar Anarya दुनिया इतनी आगे निकल गयी है और आप अब भी डाक्टर ही खोज रहे हैं! कमाल है ठाकुर साहब.. अरे गूगल चाची से पूछ लेते वही बता देतीं.. आपो न...

Arbind Jha samar ji kuch to aap bhi kijiye n ho

Praveen Kumar Jha Manjit aap kahe to Recovery software use karke sab wapas la du

Arbind Jha praveen bhaiya phir to corrupt he batayega data base

Sushant Jha वैसे तिवारी को मान गए...पट्ठे ने बुढ़ौती में भी खूब तिकड़म लगाई। जवान रहता तो पक्का रोहित शेखर को आतंकी करार करवा चुका होता।

Arbind Jha ab tak bhi to sala kitna aatank machaya hai

Manjit Thakur डॉक्साब, Anurag Arya इस मसले पर रौशनी डालिए

Deepika Lal par yaha ab bhi sawaal barkrar hai.......

Samar Anarya ये लीजिए मिल न गया! मार फेसबुक को हलकान किये पड़े थे...

Samar Anarya Comparing the DNA sequence of an individual to that of another individual can show whether one of them was derived from the other. Specific sequences are usually looked at to see whether they were copied verbatim from one of the individual's genome to the other. If that was the case, then the genetic material of one individual could have been derived from that of the other (i.e., one is the parent of the other). Besides the nuclear DNA in the nucleus, the mitochondria in the cells also have their own genetic material termed the mitochondrial genome. Mitochondrial DNA comes only from the mother, without any shuffling.

Arbind Jha Tiwariya ke naam ke saath roshni ka bhi naam

Sushant Jha अनार्या जी को साधुवाद।

Pingal Court आप तो ऐसे परेशान हैं जैसे आपसे भी सैंपल माँगा गया हो....???

Deepika Lal aap sabhi ek sadharan sa uttar de... kripya google se copy karke yaha paste na kare.... science language aam insaan nahi samajh sakta

Arbind Jha Jajmaan aap bhi line mae hai kya?

Sushant Jha पिंगल- मंजीत का सैंपल सीएम बनने के बाद....!

Anurag Arya Manjit Thakur...,बाल या शरीर के किसी सिक्रिशन से भी आप पता लगा सकते है .

Deepika Lal are neta ji ka blood sample manga gaya hai...... neta desh ke liye khoon dete hai na ki blood sample ke liye.. mamla gambhir hai

Manjit Thakur Samar Anarya: आपका जितना धन्यवाद किया जाए उतना थोड़ा है पंडिज्जी। वैसे अब यह बात साबित हो गई कि तिवारी के बालों से भी पता चल सकता है तो खून की जरूरत क्या है

Deepika Lal wahi to.... dr sahab tiwari ke khoon ki kya jarurat?????

Sushant Jha यह सवाल मीडिया को उठाना चाहिए था। चूक गया। भारी चूक। चौरसिया कहां हैं..?

Samar Anarya और ई न देखिये.. कि अगर मेल चाइल्ड है, जो को रोहित शेखर हैं, तो Y क्रोमोजोम का तुलना कर लीजिए हो गया. अगर कापी हो गया.. माने एकदम्मे मैच कर गया टो दोनों में से एक बाप है एक बेटा.. अब रोहित शेखर तिवारी जी के बाप तो हो नहीं न सकते हैं, तो अगर इस केस में सैम्पल मैच किया तो तिवारी जी शेखर साहब के बाप हुए.. बस इति सिद्धम...

Manjit Thakur Pingal Court: बाबू सुशांत के मुंह में घी शक्कर। पीएम बनने की जिस उम्मीद पर जी रहे हैं, उसमें तिवारी जी ने एक तजुर्बा तो दे ही दिया। कुछ ऐसा करो ताकि आगे डीएनए सैंपल न मांगा जा सके। इतना तो एड आता है टीवी पर

Manjit Thakur पंडिज्जी- तिवारी को कम न समझिए ऊ कहेगा कि रोहितवे उसका बाप है।

Dunia Live Extracting DNA from blood is very easy in a laboratory nowadays. The sample of blood is treated with detergants to break open the cell membrane spilling the contents. Enzymes are now used to break down all the protein, RNA, sugars and fats in the solution. Ethanol (alcohol) is often used in the final stages of DNA extraction as under the right conditions as DNA will dissolve into it but other componants of the cell will not allowing the separation of DNA to be used for analysis.

The only DNA in blood would be the DNA contained in white blood cells as red blood cells have no nucleus and therefore no DNA.

Samar Anarya @दीपिका लाल जी.. खून की जरूरत इसलिए कि उसकी जांच भी कॉफी आसान है, भंडारण भी और उसे प्रिजर्व करके रखना भी. पर इन सबसे कहीं आगे, यह सबसे कम आपत्ति और अपमान जाना है. जैसे सोचिये कि खून तो आदमी डायबिटीज की जांच के लिए भी दता है मगर अगर बाल मांगना होता तो? डीएम् साहब क्या कैंची से तिवारी जी का बल काटते हुए कैसे लगते? और कोई सिक्रीशन तो. अरे छोडिय न.. इ सब बस तिवरिया के बस का बात है...

Manjit Thakur और जो कहीं नसों में से खून न निकला तो...कुछ और ही निकल आया तो? तिवारी पर तो शक है कि उसकी नसों में भी खून की जगह सपर्म ही न हो

Deepika Lal are ee t uhe gup ho gaya n..... hum to khana muh se khane ko kah rahe hai lekin ee naseri pipe se khane ko utaru hai....

Sushant Jha अनार्याजी....तिवारी जैसे आर्यपुत्र को आपने अंडरस्टीमेट किया है। मै आपत्ति दर्ज करता हूं...!

Manjit Thakur Sushant Jha: मेरी आपत्ति अनार्य की तुम्हारी हिज्जे को लेकर है। तुम अंग्रेजों की तरह अनार्या क्यों लिखते हो

Deepika Lal सवाल यथावत..... जब बाल से काम चल सकता है तो खून क्यों.........

Manjit Thakur तिवारी का बस चलता तो देश की 122 करोड़ में से 100 करोड़ आर्यपुत्र उसी के होते

Samar Anarya क्या अंडरएस्टीमेट किया है Sushant भाई?

Sushant Jha मंजीत- सोहबत का सवाल है। अनार्या सुनने में ग्लैमरस लगता है...जैसे मिश्र नहीं मिश्रा..।

Manjit Thakur अनार्य जी ने इसका बहुत सही उत्तर दिया है दीपिका शायद अपमान कम होता है। खून निकालने में। इसे प्रतीक के तौर पर लो..नेता लोग भले ही जनता का खून पी जाएं...लेकिन वक्त आता है तो उन्हें भी अपना खून देना पड़ता है भले ही सीरिंज से देना पड़े।

Deepika Lal तो फिर इतना दफा ब्लड सेंपल नहीं देते भाई..... एके बार में त बाप बाप करत बा.....

Sushant Jha अरे समर भाई-आपकी पिछली टिप्पणी की आखिरी पंक्ति तिवारी की अजस्र क्षमता पर सवाल उठाती है। उसी संदर्भ में कहा था...!

Deepika Lal 100 करोड़ में तो तिवारी की नैया डूबी......

Manjit Thakur मजे की बात, मेरे एक बड़े शानदार मित्र हैं डॉक्टर अनुराग आर्य, और एक बौद्धिक मित्र हैं समर अनार्य। सुशांत बाबू क्या मैं सेकुलर हूं...गुंजाइश बन रही हैं?P

Deepika Lal ई आप लोगन प्रतीकवा में ही मत मटियाइए.........

Sushant Jha हां..तुम कांग्रेसी टाईप के सेक्यूलर होते जा रहे हो...जहां मेरी भी निगाहें हैं।

Manjit Thakur ये समस्त मैथिलों को सेकुलर होने का चस्का लग गया है। उधर संदीप झा ने अपनी एक फोटो चस्पां की है,जिसमें वो एक दाढ़ी वाले सज्जन के साथ हैं

Manjit Thakur अपने अनार्य जी भी भारी सेकुलर हैं। प्रचंड बोद्धिक..मैं उनसे बहुत प्रभावित हूं। उनकी बात अंदर तक असर करती है

Samar Anarya @दीपिका लाल- जवाब भी यथावत है भाई. खून लेना देना सहज है. समाज में स्वीकार्य है. जरा सोचिये कि बाल लेना होता तो कैसे लेते? और समाज में बाल उखाड लेने से संदर्भित तमाम श्लील/अश्लील मुहावरों का क्या होता? और अगर बाल लेना ही होता तो वह लिया कैसे जाता? बाल नोचकर य काटकर? काटकर लिया जाता (क्योंकि नोच्वाना तो जरा मुशकि ठहरा वह भी तब जब मामला कोर्ट कचहरी का है) तो काटता कौन डाक्टर या डीएम या कोर्ट का रजिस्ट्रार? (हेयर ड्रेसर संभव नहीं हैं क्योंकि तब मामले में जाति का एक और एंगल भी जुड़ जाता, वैसे भारतीय कोर्ट और डीएम दोनों के भारी जातिवादी होने पर मुझे तो कोई शक नहीं है, फिर भी). अब बाल में इतनी दिक्कत है तो और कोई सिक्रीशन लेना तो और भी मुश्किल ठहरा.. इसीलिये...

Sushant Jha हम राजा जनक के टाईम से सेक्यूलर है...!

Deepika Lal दाड़ी वाले सिद्ध पुरष होते है भाई.... ऐसा मत कहिए.......

Sushant Jha अनार्य की बात तार्किक है।

Manjit Thakur वो दाढ़ी वाले सिद्ध पुरुषों की बिरादरी के नहीं थे। वैसे भी हमारे संदीप झा भी सुसिद्ध हैं।

Deepika Lal ये बाल तो नाक के समान हो गई........ कट गई तो जान गई.....

Manjit Thakur वैसे बाल में मिलावट का खतरा भी है। मुझे एक घटना याद आ रही है।

Sushant Jha बाल ने भारतीय राजनीति में कई बार भूचाल लाया है....

Manjit Thakur पता चला तिवारी जी ने अपने बालों में डीएम साहब का ही बाल नोंचकर मिला दिया...बस। -)

Deepika Lal अनार्य जी.... बाल नाक तो नहीं है.........

Manjit Thakur नेहरु जी सब भूचाल शांत कर देते थे

Sushant Jha उस समय कश्मीर के सीएम बख्शी गुलाम मोहम्मद थे...कहते हैं नेहरु ने फोन किया तो उसने तुरंत बाल बरामद कर दिए। विपक्षियों का कहना था कि ये किसी और के और कहीं और के बाल हैं। तो सीएम सबको बाल से खेलना आता ही है। वैसे भी तिवारी तो बड़ा सीएम रह चुका है।

Manjit Thakur इतना खोलकर नहीं लिखो। वैसे तिवारी की खासियत कि वो दो राज्यों का सीएम बन चुका है। उसकी महिमा अपरंपार है

Deepika Lal बहुत बढ़िया रही सुशांत जी बाल की कहानी......... प्रश्न यथावत...... बाल की बजाए ब्लड सेंपल क्यों......

Manjit Thakur अदालत ही इस बात का बढ़िया जवाब दे सकती है

Sushant Jha मुझको लगता है कि तिवारी फिर से घपला न कर दे...सिर्फ दिल्ली के रजिस्टार और रोहित को छोड़कर देहरादून में सब के सब तिवारी के मोहरे हैं। खेल न हो जाएं कहीं............

Manjit Thakur कांग्रेस ये नहीं चाहेगी कि तिवारी की भद (जो कि पहले ही पिट चुकी है) और ज्यादा पिटे....कांग्रेस बचा लेगी बुढऊ को

Deepika Lal अदालत बनेगी फिर डाक्टर.......

Sushant Jha वैसे मान लो वह रोहित को बेटा मान ही लेता तो क्या हो जाता...? अरे यहीं न संपत्ति देनी होती और दस लोगों में उठबैठ नहीं पाता।(वैसे भी कौन बैठ पाता है) इसके जवाब में एक पंडिज्जी ने कहा कि ऐसे कैसे मान ले...सवाल एक ही रोहित का थोड़े ही है...!

अमोल सरोज बीरन वाले ab is umar me sperm test jara mushkil hota

Siddhartha Srivastava नौछमी नरैना ------, वैसे मेरी जानकारी के अनुसार ब्लड से डीएनए की रिकवरी अच्छी होती है।

Manjit Thakur मेरी जानकारी कहती है कि नाखून तक से डीएनए रिकवरी हो सकती है

Siddhartha Srivastava रिकवरी तो किसी भी सेल से ह सकती है लेकिन मात्रात्मक रूप से रक्त से ज्यादा डीएनए (किसी अन्य सैंपल की तुलना मे) आसानी से मिल जाता है।


Manish Kumar Neurosurgeon any way to get a single viable cell - urine/ skin scrap/ a hair plugged from the root will do!

Manjit Thakur लेकिन सिद्धार्थ भाई, आरबीसी में तो न्यूक्लियस होता ही नहीं। तो डीएऩए कहां से मिलेगा। माइटोकॉन्ड्रिया का न्यूक्लिय तो मदर सेल से आता है। यानी मां का डीएऩए मिलेगा उसमें

Siddhartha Srivastava डबल्यू बी सी मे न्यूक्लियस होता है मंजीत जी।


Abhinav Garg Actually the mere fact that Tiwariji refused to undergo DNA test should have led the Delhi High Court and later the Supreme Court to draw an adverse inference and rule in favour of Rohit's paternity suit.

Vartika Tomer nahi

Tuesday, May 29, 2012

सुनो मृगांकाः माटी मेरे देश की

कांच का तकरीबन वैसा ही ग्लास लिए अभिजीत लकड़ी के एक मोढा-कम-बेंच पर टिका था। कत्थई चाय उसके होठों का इंतजार कर रही थीं। शाम उतरने के साथ ही जो हल्की-हल्की ठंडी हवा लजाई दुलहन की तरह पहले बाहर दरवाजे की ओट में खड़ी थी, अब झुटपुटा होते ही सीधे सामने आ गई थी।

अभिजीत अप्रैल में ऐसे गर्म मौसम में इस सुकूनबख्श हवा से तरोताजा होने लगा। पूरी भीड़ में वही एक था, जिनके पास शहरी कहने लायक कपड़े थे। ऐसा नहीं था कि बाकी लोगों के कपड़े कुछ बेहद देहाती किस्म के रहे हों, लेकिन अभिजीत के कपड़ो में एक सलीका था, जो उसे भीड़ से अलग कर रहा था।

भीड़ से अलग कर देने वाले इन कपड़ों से उसे कुछ याद आया।

पता नहीं क्यों उसे हर बात में मृगांका की याद क्यों हो आती है। मृगांका की एक सहेली थी। दफ्तर में जॉइन करते ही सहेली बनना भी लाजिमी ही थी। उस सहेली से नजर बचाकर कभी-कभी अभिजीत उसकी आंखों में झांकने की कोशिश कर लेता था।

अभिजीत के दिमाग़ में एक्सट्रीम क्लोज-अप में सिर्फ मृगांका थी। जो मुस्कुराती थी तो लगने लगता कि मोतियों की बारिश होनी शुरु हो गई है। जो उसे कभी अमलतास तो कभी कचनार जैसी लगती थी।

अभिजीत को वह दिन कभी नहीं भूलेगा जब मृगांका से उसकी बातचीत शुरु हुई थी। बातें न जाने कहां से शुरु हुई थीं, जो किताबों, मौसम, खबरों, ए राजा, सेंसेक्स से होती हुई कविताओं वगैरह पर खत्म हुई। अभिजीत बहुत खुश था। उसके खुश होने की कुछ खास वजहें हुआ करती थीं। आज तो उन सब वजहों के ऊपर एक नई वडह पैदा हुई थी...मृगांका।

अकेले में वह इस नाम को बार-बार दुहराता रहता। हमेशा बढ़ी हुई शेव में रहने वाले, तीन दिन तक एक ही शर्ट में दफ्तर में आने वाले अभिजीत को कुछ सतर्कता बरतनी पड़ी। दरअसल, उसका शेव किया जाना भी, उसके बाकी के सहयोगियों के लिए बड़ी खबर की तरह थी।

शेव बनाकर आए अभिजीत को देखकर पता नहीं क्यों, लेकिन मृगांका मुस्कुराई थी। ऐसी मुस्कुराहटों के कई अर्थ निकाले जाते हैं। अभिजीत ने अपने मतलब का अर्थ निकाल लिया था। वैसे पता तो आजतक नहीं चला है कि शेव बनाने की उसकी दुर्लभ आयोजन के बारे में मृगांका को किसीने पहले ही बताया था या नहीं।

पास के वेटिंग रुम से खास किस्म की स्टेशनी गंध आ रही थी। शायद कल इधर भी बारिश हुई थी।

वेटिंग रुम में यहां-वहां पोटलियां पसरी थीं। मक्खियां भिनभिना रही थीं। औरतें आदतन गुलगपाडा मचा रही थीँ। कोई बूढा़ अपने फेफड़ों में जमा तकरीबन सारे बलगम को खांस-खांसकर वहीं सादर समर्पित किए दे रहा था। एक औरत अपने बच्चे को दुकान के आगे मचलते देखकर उसे थपड़ाने पर उतारू थी और गालियों से उसके खानदान का उद्धार किए दे रही थी।

मिथिला का वह गंवई समाज अपने ठेठ अंदाज में उस मुसाफिरखाने में मौजूद था। कोई परिवार शाम की चाय के साथ ठेकुआ या खुबौनी जैसे होममेड पकवान उड़ाने में व्यस्त था, तो कहीं सास अपनी पोतहू के सात पुश्तों की कुंडली बांच रही थी।  अभिजीत इऩ सारी बातों से असंपृक्त, असंबद्ध सा लग रहा था।

पता नहीं क्या सोचते हुए वह दरभंगा स्टेशन की गंदी जगह से बाहर निकल गया। यहां एक शिलालेख होना चाहिए.. अगर कहीं नरक है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। उसने सोचा। अपनी हथेलियां रगड़ते हुए उसने सिगरेट सुलगा ली।
स्टेशन के अहाते से बाहर निकलते ही सामने था सवारी के लिए आवाज़ लगाते मिनी बस वाले, जो राहगीरों को तकरीबन बांह पकड़कर खींच लेने की जुगत में थे। शाम होते हुए भी भीड़ कम नहीं हुई थी और सब जल्द-से-जल्द अपने ठौर-ठिकानों को भाग लेने की फिराक में थे।

बसें, मुसाफिरों को भरकर दनादन निकल रही थीं। यहां दनादन शब्द का इस्तेमाल महज साहित्यिक संदर्भ में किया गया है। उम्मीद है कि पाठक इसका कत्तई बुरा न मानते हुए मुआफ़ करेंगे, क्योंकि इस सड़क की दशा महज प्राचीन काल में ऐसी रही होगी, जब उसपर गाडियां दनादन दौड़ सकती होंगी। वरना अभी तो सड़क कहीं बिला गई है और ऊबड़-खाबड़ ईंटों के ढेर पर बसें फुदकती-कुदकती चलती हैं। बहरहाल, उसी चिल्लपों और गुलगपाड़े से निकलता हुआ अभिजीत बस अड्डे को जाने के लिए तैयार हुआ।

अहाते के बाहर सड़की की दूसरी तरफ, कई होटलों (पढिए-ढाबों) के साईन बोर्ड, चाणक्य होटल, मिथिला होटल.. ऐसे ही नाम। कोई शुद्ध मांसाहार, कोई मिथिला का ठेठ माछ-भात खिलाने का दावा करता हुआ दिख रहा था तो किसी के इश्तिहार में शुद्ध बैष्णव ढाबा लिखा था। साईन बोर्ड पढ़ता वह सड़क पर आ गया।

इन्ही ढाबों के बगल में समोसे-जलेबियां खिलाने वाले नाश्ते की दुकानें हैं, जिनमें चाय भी मिलती है। फूस की दुकानें। बैठने के लिए बांस के फट्टों की तथाकथित बेंचें, जो आपके पैंट पर शायद ही रहम करें। इन्हीं दुकानों की पृष्ठभूमि में दिखता है एक पोखर। बडा-सा पोखर। फिर दुकानों की कतारों की बगल में दो-एक ट्रक खड़े थे। वह आगे बढ़ा।

दुकानों की गिनती अभी भी कम नहीं हुई थी और इसबार की दुकाने जूट और सीमेंट की बोरियों की थीं। जमीन पर बिछी बोरियां, जिनपर रखकर सामान बेचने की कोशिश की जा रही थी। कोई खिलौने बेच रहा था, कोई मकई के दाने भून रहा है। अभिजीत के दोस्त दिल्ली में इन्हें पॉपकॉर्न कहा करते, किसी मल्टीप्लेक्स में जाते तो कॉम्बो ऑफर में इन गंवई भुट्टों के भूंजे को कोक के साथ खाते।

 ...जारी

Friday, May 25, 2012

सुनो! मृगांकाः ज़िंदगी तन्हा सफ़र की रात है...

जिंदगी में जो होता है, कई बार किताबों में नहीं होता।

'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'

***

बाहर बरसात फिर से होने लगी थी। लेकिन इस बार बारिश में वो बात नहीं थी। अंधेरा घिरने ही वाला था। यह वक़्त अभिजीत को बहुत अजीब लगता है। तब तक डोर बेल बजी। कौन होगा, सोचता हुआ अभिजीत आगे बढ़ा और दरवाजा खोल दिया।

सामने प्रशांत खड़ा था।

'हट बे, दरवाजे से हट। ऐसे क्या देख रहा है, क्या मैं हमेशा के लिए दफ्तर चला गया था?'

'नहीं ऐसी बात नहीं...अकेलापन फील कर रहा था।'

'अच्छा, तो अब अकेलापन फील भी होने लगा।'--प्रशांत ने मोजे उतारते हुए कहा। उसके कहते न कहते कामवाली आ गई। इन दोनों के लिए पहले चाय और फिर सलाद काट कर रख दिया।

प्रशांत ने अपने लिए एक पूजा का छोटा-स मंदिर बना रखा था। प्रशांत ने ब्लेंडर्स प्राइड की बोतल पूजा वाले टेबल के ऐन सामने रख दी। धीरे से पैग सिप करते हुए अभिजीत मुस्कुराने लगा। बहुत पहले...कम से कम लगता तो ऐसा ही है कि बहुत पहले घटी हो ये बात...मृगांका ने टोका था, 'अभिजीत को, अरे ये क्या कर रहे हो, भगवान जी देख रहे होंगे। उनके सामने शराब...छीः छीः'

अभिजीत के मुंह से यह सुनकर प्रशांत भी मुस्कुरा उठा। अगर ईश्वर ने पूरी सृष्टि बनाई तो शराब बनाने का जिम्मा भी उनके ही सर। दोनों बहुत देर तक ईश्वर की इस गलती पर हो हो करते हंसते रहे।

पांचवे पैग तक दोनों कुछ नहीं बोले। आखिरकार, प्रशांत ने कहा, 'क्या बाबा आज मौनव्रत में हैं क्या?'
'नहीं यार कुछ सोच रहा हूं'
'वैसे ये काम कब से शुरु कर दिया'
'कौन सा काम'
'सोचने का'
'आज ही से, अभी से'
'क्या सोचा'

'देखो प्रशांत, मुझे लग रहा है मुझे आराम की जरुरत है।'
'वो तो मैं कब से कह रहा हूं। खाओपियो आराम करो।' प्रशांत ने जोड़ा।

स शाम को ब्लेंडर्स प्राइड की पांच पैग हलक में उड़ेल लेने के बाद अभिजीत ने घोषणा की कि अब वो दिल्ली में नहीं रहेगा और अपने गांव जाएगा, जहां आराम करता हुआ वह असल में देशसेवा करेगा, कि जहां के लोग अब भी जाहिल हैं और उन लोगों को अभिजीत जैसे पढ़े-लिखे लोगों की बहुत जरुरत है। पांच पैग के बाद अभिजीत आमतौर पर शाहरुख की फिल्म स्वदेश का मोहन भार्गव हो जाता था, या वैसा ही बिहेव करने लग जाता था।

प्रशांत उसको गौर से देखने लग गया। 'क्या हुआ बाबू, इस बार मैं सीरियस हूं'--अभिजीत ने टोका
'हां, लग रहा है'
'तो सोच क्या रहे हो'
'सोच रहा हूं--रुख़सत करो किसी को तो जीभर के देख लो, शायद हो उसकी तुमसे मुलाकात आखिरी

हां'  ये तो सच है। जब तक जियूंगा यह अफसोस रहेगा...जाते वक्त उसका चेहरा तक न देख पाया।'

'कब निकल रहे हो'
'कल ही...'

***

रभंगा स्टेशन। चार बजकर दस मिनट पर जयनगर के लिए चलने वाली ट्रेन छूट चुकी है। स्टेशन पर भीड़ होने के बावजूद एक शांति कायम है। अगले दो -ढाई घंटे तक न तो कोई गाड़ी यहां आने वाली है और न छूटने वाली। जाना ज़रूरी है। शाम गहराती जाएगी और मधुबनी की तरफ जानेवाली बसों और परिवहन के दूसरे साधनों की गिनती कम से कमतर होती जाएगी। वह लपककर बाहर की ओर निकला। इस जगह से उसे जानी-पहचानी गंध मिल रही है। प्लेटफॉर्म नंबर एक से बाहर निकलते हुए उसने देखा, लोगबाग ज़मीन पर ही बैठे हैँ।

सामाजिक न्याय की धारा प्रचंड वेग से बहने के बावजूद सामाजिक स्थिति में बहुत सुधार नहीं आ पाया है। हालांकि जातीय समीकरणो और जातिगत स्थिति में एक बदलाव आया है कि ज़मीन पर सब बैठे हैं, सभी जाति के लोग। अगल-बगल।

हिंदू हों या मुसलमान, एक ही भाषा बोल रहे थे- मैथिली। मान्यता है कि मैथिली मिठासभरी भाषा है। इतनी मीठी कि बोलने वाले और मुमकिन है कि सुनने वाले को भी मधुमेह यानी डायबिटीज हो जाए। इस मिठास की भी एक वजह है। यहां के लोग खाने में मीठे पर ज्यादा जोर देते हैं।

हर बार खाने में मीठेपन-गुड़ या चीनी ही क्यों न हो-का होना एक अपरिहार्य बात है। चूड़ा-दही-चीनी और गरमियों में उसके साथ आम जैसा फल भी यहां की फूड हैबिट है।

वह टहलता हुआ बाहर निकल आया। पान की दुकान तक। बेहद अस्त-व्यस्त सड़क। सड़क पर तरह-तरह की गाड़ियां। नहीं , महानगरों की तरह की किसिम-किसिम की कारें नहीं, बल्कि रिक्शे से लेकर साइकिलों तक, ठेलेगाड़ियों से लेकर मिनी बसें, बैलगाडि़यां, तांगे... ऐसी ही अर्ध-क़स्बाई और गंवई गाडि़यां। चिल्ल-पों। सबको जाने की जल्दी।

वह एक चाय की दुकान पर ठिठक गया। उसने पहले तो चाय और सिरगेट की डिब्बी मांगी। गोल्ड फ्लेक। चाय आई .. खूब उबली हुई महुआ दूध की।

...जारी

Thursday, May 24, 2012

इशक़ज़ादेः इश्क़ कम, कमअक़्ली ज़्यादा, और बेड़ा गर्क़

क शेर याद आ रहा है, बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का...सच साबित हो गया। इशकजादे ने अर्जुन कपूर, हबीब फैज़ल और खुद इस फिल्म को लेकर बहुत उम्मीदें पैदा कर दी थीं। प्रोमो ने फिल्म देखने पर मजबूर कर दिया। कई कन्याओं ने अर्जुन कपूर को लेकर आहें भरनी भी शुरु कर दी थीं...कई लड़कों ने परिणीति चोपड़ा को लेकर। हम फिल्म देखर दर्द भरी आह भरने पर मजबूर हुए।
बंदूक तो है प्यार नदारद

फिल्म में इशकजादे तो हैं लेकिन इश्क गायब है। यह फिल्म हमारे समाज की कड़वाहट हमारे चेहरे पर तेज़ाब की तरह फेंकती है। यह फिल्म उन हजारों इशकजादों की तलाश करती है जो कभी हजारों में हुआ करते थे, लेकिन अब जहानों में नहीं। वो हर साल मरते हैं, कभी खापों के हुक्म से, कभी परिवारों के सम्मान के लिए।

फिर भी, इशकजादे एक कमजोर फिल्म लगी। यह फिल्म समाज तो खैर जाने दीजिए, इश्क को भी कायदे से पहचान नहीं पाती। हां, परिणीती चोपड़ा ने अपनी अदाकारी से फिल्म ढोने की कोशिश जरूर की है, लेकिन एक हद तक ही। बाद को फिल्म मुंह के बल गिर जाती है।
उफ़्...जैसा पोस्टर में है वैसा फिल्म में भी होता
फिल्म की विचारधारा से मुझे सख्त शिकायत है, जहां लड़की शिकार की शौकीन है, जो बंदूक तनी होने पर भी हीरो को सख्ती से कहती है कि सॉरी बोल। लेकिन हमारा खलनायक टाइप हीरो जब उसका शिकार करता है तो तुरंत वह अबला भारतीय नारी बन जाती है।

फिल्म हीरोइन की दशा को लेकर बहुत कन्फ्यूज़ है।

हीरो कई दफा हीरोइन से कहता है कि वह उससे प्यार करता है लेकिन उसकी करतूतों से यह कहीं भी जाहिर नहीं होता। इंटरवल से पहले फिल्म एक उम्मीद की तरह देख सकते हैं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्म बोझिल होती चली जाती है। जहां निर्देशक दर्शक को तकरीबन बेवकूफ (और मैं अपनी भाषा में कहूं तो चूतिया) समझता है।

इशकजादे अपने कथानक में भी बेहद कन्फ्यूज़ फिल्म है। इसमें परेश रावल की वो छोकरी और आमिर खान की क़यामत से क़यामत तक का घटिया घालमेल है। गंभीर सिनेमा और प्रकाश झा की फिल्मों की तरह इशकजादे भी एक ही साथ राजनीतिक भी होना चाहती है और ज़मीनी, यथार्थवादी और खुरदरी भी। लेकिन फिल्म यशराज की है तो उसे हल्की-फुल्की होने की जिम्मेदारी भी ओढ़नी है। नतीजाः बेड़ा गर्क।
परिणीति और अर्जुन दोनों ने मेहनत की, काश कोई कहानी भी होती
पूरी फिल्म में दो राजनीतिक परिवार है, शहर है, कॉलेज है, गलियां है। लेकिन समाज नहीं है। गलियां सूनी हैं। कॉलेज में छात्र नहीं है। अपराध है लेकिन कहीं पुलिस नहीं है। कहानी से सारे किरदार एक से हैं, तकरीबन बुद्धिहीन, अपने दिमाग के इस्तेमाल से बचनेवाले।

कई दफ़ा तो मुझे लगा कि इशकज़ादे में निर्देशक ने अपने विवेक की बजाय कमअक्ली का सुबूत दिया है।

गलियों में दौड़-भाग करते समय हमें मकान दिखते हैं, लेकिन कही भी एक आदमी नहीं दिखता। शहर छोटा है लेकिन एक रेहड़ी तक नजर नहीं आती। हद तो तब हो जाती है जब लड़की और लड़के के परिवारों के सैकड़ों गुंडे भूंजे की तरह गोलियां चलाते हैं। उनका जवाब भी हीरो सैकड़ों गोलियां चला कर देता है। हालांकि, मौत एक भी नहीं होती।

जीन्स पहने हुए हीरो के पास अनगिनत गोलिया हैं, जो कभी खत्म नहीं होतीं। आखिरी दृश्य में नायिका अपने पास बची तीन गोलियां नायक को दिखाती है। लेकिन खुदकुशी करने के फ़ैसले के बाद दोनों एक दूसरे को छह-छह गोलियां मारते हैं।

बहरहाल, इशकजादे के हबीब फैसल ने बैंड बाजा बारात और दो दूनी चार से उम्मीद जगाई थी, लेकिन अब लगता है वो भी भेड़चाल का हिस्सा बन गए हैं। अर्जुन कपूर की मुस्कुराहट अभिषेक बच्चन की खिलंदड़ेपन जैसी है। लेकिन उन्हें अगर नकल ही करनी थी तो किसी समर्थ अभिनेता की करते, फिर भी लगा कि वो मेहनती हैं। परिणीती चोपड़ा तो खैर संभावनाशील हैं ही।


Tuesday, May 22, 2012

फलकः कुछ उम्दा रचनाएं

फलक (फेसबुक लघु कथाएं) के मंच पर लोग लगातार लिख रहे हैं। उम्दा लिख रहे हैं। हम उनमें से कुछ ताजा उम्दा रचनाओं को यहां आपके साथ साझा कर रहे हैं-गुस्ताख़

कथाः एक

बचपन
विजय राज सिंह
कथाकारः विजय राज सिंह
उसने फोन करके कहा, आज से मेरी छुट्टियां शुरू हैं, पापा मुझे यहाँ घूमने जाना, पापा मुझे अपने लिए स्केट ख़रीदने है आपमें वादा किया था कि हॉलिडेज में दिलाएंगे ... मुझे यह करना है मुझे वो करना है।

उसकी अपने मम्मी-पापा के साथ यह चर्चा सुनकर धीरे धीरे मैं भी अपने बचपन की यादों में खोता जा रहा था। अन्दर-अन्दर बचपन एक बार फिर से पैदा होने के लिए हिलोरें मार रहा था। लग रहा था काश एक बार बस एक बार मेरा बचपन लौट आये और मैं फिर से उससे जीभर कर जी लूं।

(विजय राज सिंह दूरदर्शन न्यूज़ में ब्रॉडकास्ट एक्जीक्यूटिव हैं)

कथाः दो

प्यार
कथाकारः सुशांत झा
सुशांत झा
गलती उसकी भी नहीं थी, उसने तीन साल तक इंतजार किया। गलती मेरी भी नहीं थी, इस तीन साल में जब-2 मैंने शादी का मन बनाया, मेरी नौकरी चली गई। यह अरेंज मैरेज का ही मामला था उसके पिता ने मेरे घर पैगाम भेजा था। हम फेसबुक फ्रेंड भी थे। यह कोई प्लेटोनिक लव नहीं था, एक भरोसा था जो धीरे-धीरे पनप रहा था। लेकिन आखिरकार उसने घरवालों के दवाब के आगे घुटना टेक दिया। बस, एक ही खुशी है कि उसे अच्छा लड़का मिला। एक ही खुशी है कि मैंने उसे अपने नौकरी के बारे में गलत जानकारी नहीं दी। धोखा नहीं दिया।


(सुशांत झा कई मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद आजकल फ्रीलांसर हैं, रामचंद्र गुहा की किताब इंडियाः आफ्टर गांधी का उन्होंने हिंदी अनुवाद किया है। पेंग्विन से शीघ्र प्रकाश्य। अन्य किताबों में व्यस्त।)
कथाः तीन

हिपोक्रेसी

कथाकारः सिद्धार्थ श्रीवास्तव
सिद्धार्थ श्रीवास्तव
साब! ठंढा ले लो, सफर की थकान दूर हो जाएगी। ठंढे वाले ने ओपेनर को बोतलों पे चला कर चिरपरिचित ठंढतरंग बजाई। इस ठंढतरंग से उसकी तंद्रा टूटी। 

 माई, ठंढा लेबे।

माँ ने इनकार मे सर हिला दिया।  तू ले ला, थाक लाग गइल होई।  उसने भी इनकार मे सर हिला दिया।

 दोनों फिर से चिंताओ के सागर मे उतराने लगे। अब कुछ महीनों के लिए उसके हिस्से मे माँ है। माँ के रहने का मतलब व्यर्थ की खड़ी की गई शिकवा- शिकायतों मे फिर वो मथा जाएगा और उससे निकलने वाले हलाहल...... वो भी उसके ही भाग्य मे तो है।

 बस स्टैंड से घर तक के रास्ते मे जगह-जगह मदर्स डे के बैनर-पोस्टर उसकी मजबूरी पर उसे बिराते हुए से लग रहे थे।

(सिद्धार्थ श्रीवास्तव उत्तराखंड में सरकारी नौकरी में हैं और फलक पर कहानियों का शतक जमा चुके हैं, हमारे स्टार कथाकार)

कथाः चार

भरोसा

दीपिका लाल
कथाकारः दीपिका लाल

'सोना कहां हो.....?'
'ओटी में। काफी सिरियस केस आया हुआ है। एक्सीडेंट का। बाद में बात करता हूं।'

दो घंटे बाद... 'कहां हो सोना...?'
'बाबू खाना खा रहा हूं।'

तीसरे घंटे- 'वेयर आर यू...?'
'इन हास्पीटल डीयर...'
'...और मैं तुम्हारे सामने हूं...!'

वो चौंका..... मैं सिर्फ शाक्ड थी। पिछले तीन घंटे वो रासलीला में मग्न था। मैं लगातार तीन घंटे से वहां खड़ी सब देख रही थी। उस पल के लिए उसकी नजरें नीचे झुक गई... और उम्र भर के लिए मेरा भरोसा...

लौटते समय उसकी आवाज सुनाई दे रही थी.... कम बैक.... लेकिन जाने कहां टकराकर लौट जा रही थी.... भरोसे का एक्सीडेंट हो चुका था.. इस केस को न तो ओटी में भेजा जा सकता था... न ही आपरेशन के बाद बचने का कोई चांस था....

(दीपिका लाल, दो अंग्रेजी अखबारों में रिपोर्टर रह चुकी हैं, फिलहाल ऑल इंडिया रेडियो में है।)


कथाः पांच

पटने के लड़के
कथाकारः अविनाश कुमार चंचल
अविनाश कुमार चंचल
हौज खास मेट्रो से मुनिरका तक ही दोनों को साथ जाना था। इतने में 511 बस आके रूकी। लड़का झट से बस में चढ़ गया। लड़की की नजर बस के डबल खाली सीट ढुंढ़ने लगी। इतने में लड़की ने लड़के का हाथ पकड़कर झट से नीचे खींच लिया। लड़का कहता रहा,"अरे। इसी से चलेंगे, हरी वाली है डीटीसी पास है टिकिट नहीं लेना पड़ेगा"

 लड़की-''नहीं। बस में एक साथ दो सीट खाली नहीं है, ऑटो से चलेंगे''

 लड़की ने ऑटो वाले से 40 रूपये में किराया फिक्स किया, इधर लड़का सोचता रहा,"इतने में तो जेएनयू में खाना खा लेते"

मुनीरका में बर्फ चुस्की खाने का प्लान बना।

"का, दस रूपये में एगो। एतना में तो दुनो आदमी खा लेंगे भाई"-लड़का बर्फ वाले से मोल-तोल करने में लगा था।

लड़की सोच रही थी-"उफ्फ! ये पटने के लड़के !
(अविनाश कुमार चंचल भारतीय जनसंचार संस्थान से ताजा-ताजा निकरे हैं, फलक के सक्रिय सदस्य, बेहद
ऊर्जावान्)
कथाः छह

आगजनी
मूल कथाः मंटो
संकलकः मंजीत ठाकुर

आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया--सिर्फ एक दुकान बच गई, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ था---
'यहां इमारत-साज़ी का सारा सामान मिलता है'

Sunday, May 20, 2012

सुनो! मृगांकाः ख्वाहिशों का काफ़िला भी अजीब है...

तीत फेड इन होकर वर्तमान में फेड आउट हो गया। कुरसी पर टिके-टिके ही सोचने लगा आखिर रिश्ते होते क्या हैं..जो हमें जन्म से मिलते हैं या जो हम खुद कमाते हैं बनाते हैं और जमा करते हैं?

....हाथ की सिगरेट राख हो गई।  अभिजीत ने देखा सूरज बालकनी में झांकने लगा था। बस झांकने भर ही। बादलों के पीछे सूरज सहमा-सा खड़ा था। बाहर तो रौशनी है, लेकन मन का अंधेरा इतना घना क्यों हैं।

लाई हयात आये कज़ा ले चली चले...अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले...पड़ोस के घर में बेग़म अख्तर की आवाज़ दिल के ग़म को गहराई देने लगे। अभिजीत उस पड़ोसी को कोसने लग गया, सुबह में ससुरा बेग़म अआख़्तर सुनता है...शाम को पंडित भीमसेन जोशी। यार कुछ तो खयाल रखा करो...एक तो मन का स्याह होता जाना, उस पर से बेग़म अख़्तर...।

हालांकि सुबह-सुबह पीना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन जब जिंदगी में कुछ भी अच्छा न हुआ हो, तो ये भी एक और खराब बात ही सही। अभिजीत अंदर जाकर एक पैग बना लाया।
जिंदगी में जो चाहा कभी पूरे ही नहीं हुए। ये ख्वाहिशें होती ही क्यों है ऐसी...

ख्वाहिशों का काफ़िला भी अजीब है...
कमबख़्त गुज़रता वहीं से हैं, जहां रास्ते नहीं होते।


अभिजीत फिर से फ्लैश बैक में जाने लगा था।

बाबूजी की मौत के बाद मां ने बहुत भाग-दौड़ की। उनके जीपीएफ के पैसों के लिए...हर जगह घूस मांगी जाती। गांव के कुछ खेत बेचने पड़े थे। चाचा लोग अड़ गए। दादी चाचाओं के पक्ष में खड़ी हो गई। गांव की ज़मीन पर दोनों चाचाओँ ने कब्जा कर लिया कुछ इस अंदाज में कि बड़ा भाई तो चला गया, अब तुम कौन। ये यही चाचा थे जिनको पढ़ाने का खर्च अभिजीत के पिताजी ने खुशी-खुशी उठाया था। अपने बच्चों का पेट काट कर भाईयों पर प्यार लुटाया था।

मां कई कई दिनों तक बड़े भाई को लेकर पटना के चक्कर काटती। घर में अकेले रह जाते अभिजीत, मंझले भाई और बहन। घर के सामने पोखरा, पोखरे और घर की चहारदीवारी के बीच इमली का घना-काला डरावना पेड़। आंगन में भी नीम का ऊंचा पेड़। नीम के उस पेड़ पर बगुले रहते और रात को डरावनी आवाज़ में शोर मचाते। मुहल्ले में भी घर बेहद कम।

सके शहर की डिजाइन कुछ कुछ अंग्रेजी शैली की थी। अंग्रेज जब इस देश के हुक्मरान थे तो उसके शहर में कोलकाता से हवा बदलने आते। कई कोठियां, खूब सारे बागान...।

इमली का वो पेड़ रात को डरावना लगता। बरसात के मौसम में किसी जलपक्षी का कोई अंडा खो जाता तो रात भर शोर करता। डर कई गुना बढ़ जाता।

बहन सांझ होते ही कोयले के चूल्हे सुलगाती। चूल्हे के कोयले से उठा धुआं अब भी अभिजीत की नाक में जिंदा है, बचपन की याद के तौर पर। खाना बारामदे में पकता। रात को खाना पकाने के बाद सारे बरतन-भांड़े अंदर ले जाए जाते। बहन और भाई को डर लगता था, अभिजीत को भूत से डर नहीं लगता...उसे अपने बाबूजी की याद आती थी।

अतीत की परतें पता नहीं क्यो इतनी खुलती जाती हैं कि आपको रुआंसा कर सकती हैं।

जस्ट फॉरगेट द पास्ट....

भिजीत को याद आया इसी मृगांका ने कभी प्यार के क्षणों में बहुत पुलक कर कहा था, शायद इकरार के क्षणों की बात हो...'आप को कुछ समझ में तो आता नहीं।' अभिजीत को मृगांका की हर बात याद है...लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़,

याद है अभिजीत को मृगांका से मुलाकात के बाद उसने फटीचर प्रेमी की तरह उसके प्रोफाइल की गलियों में भटककर कई फोटो डाउनलोड कर लिए...टाइट क्लोज अप और एक्स्ट्रीम क्लोज अप को और भी टाइट बनाने के वास्ते सिर्फ आंखों वाले हिस्से क्रॉप कर लिए...प्रशांत कहता कि वो दीवाना हो रहा है,  पगला रहा है..तमाम किस्म की बॉलिवुडीय भावुकता उसके सर चढ़कर बोल रही है। अभिजीत ने प्रशांत को कई बार मुस्कुरा कर देखा...उसेक भीतर प्यार इतना भर गया था कि सर  भन्नाता रहता था उसका।

अभिजीत ने घड़ी देखी, नौ बज रहे हैं। सूरज न निकले तो कभी सबेरा होता ही नही क्या? जब-जब वह सूरज को देखता है उसे हमेशा सूरजमुखी याद आती है। पीले कपड़े, लाल दुपट्टा...नहीं आखिरी बार देखा था तो लाल कपड़े थे दुपट्टा पीला था। दारू का नशा काम कर रहा है।  सर भन्नाना शुरु हो गया। मृगांका ने जाते वक़्त आखिरी बार मुड़के भी नहीं देखा था।

अभिजीत प्यार के अपने शुरुआती दिनों में ही दीवाना हो गया था। मृगांका कॉन्वेंट से पढी़ थी। उसकी आवाज़...अभिजीत ने कई बार उससे कहा था कि तुम टीवी में या तो एंकर बनो या रेडियो जॉकी बन जाओ। मृगांका को सोचते-सोचते अभिजीत भी हिंग्लिश में ही सोचने लगा था...कॉपी लिखते वक्त ऐसे लिखता कि एक दिन उसके कॉपी एडिटर ने ऐसे देखा जैसे वो इंडस्ट्री का सबसे चूतियाटिक रिपोर्टर बन गया हो।....स्साला...भैन....

न्यूज़ रूम में मृगांका तिरछी आंखों से उसकी तरफ देखती। कैमरा अभिजीत के ओवर द सोल्डर से ट्रैक होता हुआ मृगांका की आंखों पर रुकता है और एक्सट्रीम क्लोज अप तक ज़ूम होता है।

प्रशांत कहता है कि मृगांका बेवफ़ा थी। अभिजीत कहता है ऐसा हरगिज़ नहीं है। अभिजीत मृगांका से प्यार करता है। आप जिससे प्यार करते हैं उससे नफ़रत तो कभी कर ही नहीं सकते। प्रशांत हमेशा उसके धैर्य से दंग होता रहा है। उसके प्यार से भी...। प्रशांत कहता है, मृगांका ने उसे नहीं छोड़ा, उसने मृगांका को नहीं छोड़ा। तो दोनों साथ क्यों नहीं है।

यहीं आकर मज़ाक पर उतर आता है अभिजीत। दोनों हाथ हवा में लहराते हुए कहता है, 'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'

चार पैग के बाद अभिजीत का गला सूखने  लगा। गला सूखने का यह क्रम एक महीने से जारी है। एक महीने पहले भी ऐसे ही चार पैग के बाद उसका गला सूखा था, आज भी पैगों की संख्या और गले सूखने की प्रक्रिया एक-सी है।

जीवन में प्रक्रियाएं एक सी क्यों नहीं होती। जिंदगी एक सीधी लकीर की तरह क्यों नहीं चलता। अबिजीत को पता है कि उसके जैसी न जाने कितनी प्रेम कहानियां होंगी,जो फिल्मों में, किताबों में होंगी। अगर किताबों में हैं तो उसके सवालों के जवाब भी होने चाहिए।

अगर उसके जैसा प्रेम दुनिया में पहले भी हो चुका है, तो उसका तजुर्बा अभिजीत के काम क्यों न आय़ा।

जिंदगी में जो होता है, कई बार किताबों में नहीं होता।

'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'

...जारी

Saturday, May 19, 2012

चित्रः द अदरनेस ऑफ सेल्फ़

द अदरनेस ऑफ सेल्फ़; चित्रकारः मंजीत सालः 2000


मित्रों इस पेंटिग के लिए शीर्षक सुझाएं।

Friday, May 18, 2012

श्रीमंत की सड़क

मेरे दफ्तर के से निकलिए और बाएं हाथ को चलते चलेंगे तो इंडिया गेट तक आ जाएंगे। उससे पहले कई भवन है, पंजाब भवन, महाराष्ट्र भवन...हरियाणा भवन। मेरे एक मित्र इन भवनों को देखते हैं तो कहते हैं वाह! ये है प्रजातंत्र। थोड़ी दूर जाओ तो संसद, इधर आ जाओ तो इंडिया गेट, इनके बीच अपने राज्यों के भवन। लगता है अपना भारत सचमुच का लोकतंत्र हो गया है।

लोकतंत्र सचमुच का है कि झूठमूठ का ये तो वही परम आशावादी मित्र जानें। मेरे उऩ मित्र की नजर में राज्यों के ये भवन इसलिए भी महानता के प्रतीक हैं क्योंकि अपने दफ्तर के मुकाबले इन भवनों में भोजन सलीके का मिल जाता है।

मेरी नजर में खाने से ज्यादा इंपॉर्टेंट पीना हैं। बकौल रवीन्द्र कालिया हम खाते-पीते परिवार का होने की बजाय पीते-पीते परिवार का होना ज्यादा पसंद करते।

बहरहाल, मेरी छिद्रान्वेषी नजर बारंबार एक सड़क पर जाकर टिक जाती है। कॉपरनिकस मार्ग को जसवंत सिंह मार्ग से जोड़ने वाली सड़क है श्रीमंत माधव राव सिंधिया मार्ग। नीले रंग के बोर्ड पर सफेद अक्षरों से मुझे बहुत गुस्सा आता है। आखिर लोकतंत्र में इस 'श्रीमंत ' का क्या तात्पर्य?

हमारी सामंती मानसिकता या पता नहीं क्या है। साहित्य अकादमी से उधर फिक्की की ओर गोल चक्कर काटें तो नेपाल के दूतावास के कोने पर अलेक्जेन्द्र पुश्किन की कद्दावर मूर्ति है। हालांकि एक सुकून है पुश्किन है, वरना इनका बस चले तो ज़ार की मूर्ति लगा दें।

आखिर, बाबर रोड, अकबर रोड, शाहजहां रोड, औरंगजेब रोड और बहादुर शाह जफ़र मार्ग है ही। पृथ्वीराज रोड भी है हालांकि हर्षवर्धन के नाम पर रोड नहीं है। अशोक रोड है लेकिन चंद्रगुप्त को इस लायक नहीं समझा गया। कूटनीति के लिए महत्वपूर्ण चाणक्य के नाम पर पूरी 'पुरी' है। लेकिन विजेता समुद्रगुप्त कूड़ेदान में।

हर दूसरे भवन का नाम इंदिरा-नेहरु के नाम पर, केन्द्र सरकार की 53 योजनाएं राजीव गांधी के नाम पर, लेकिन एक तो कबीर के नाम पर सड़क बना देते, एक तो प्रेमचंद को भी पुरी देते। रहीम खानेखाना, बिस्मिल्लाह खां, कोई नहीं मिला। जबकि, टॉल्सटॉय, टीटो, कर्नल नासिर और आर्क बिशपों तक तो आपने जगह दी है।

सवाल ये नहीं कि आखिर सड़को के नाम विदेशियों के नाम पर रखने पर कोई उज्र है क्या? कोई उज्र नहीं, आप चाहें तो हर सड़क का नाम राजीव गांधी रोड रख दें। परेशानी इस बात पर है कि आखिर सड़कों के नामों पर राजाओं का कब्जा क्यों है।

आखिर विद्यापति, तिरुवल्लुवर, रहीम, तुलसी, प्रेमचंद (मैं टैगोर की बात नहीं कर रहा) के नामों पर सड़कें क्यों नहीं। आखिर सड़कों के नाम श्रीमंतों के नाम पर कब तक रखे जाते रहेंगे।

लोकतंत्र है तो एक ईमानदार ऑटोवाले के नाम पर एक गली का नाम क्यों नहीं रख देते। हालांकि, सड़कों के नाम शनैः शनैः अप्रासंगिक होते जाएंगे। लेकिन बात नाम की नहीं, बात उस मंशे की है, जिसकी वजह से आपने लोकतंत्र को एक खास तबके की जागीर में तब्दील कर दिया है।

Wednesday, May 16, 2012

सुनो! मृगांकाः मांग के खाइब, मसीत में सोईब

ही भाई बहन जिनके साथ बचपन के सबसे दुश्वार साथ गले से गले मिलकर रहे। अंधेरे से डरने वाली बहन जो महज ग्यारह साल की थी, मंझले भाई जो 9 साल के...अंधेरे से कभी नहीं डरा तो अभिजीत। अपने बड़े भाई बहनों को सहारा देने वाले अभिजीत के लिए अब इनके यहां कोई जगह नहीं।

डेस्टिनी।

दिल्ली की गाड़ी पकड़ी तो जेब में महज सौ रुपये का एक नोट था। तूफ़ान एक्सप्रेस आगरा होते हुए दिल्ली आती है। बस नाम ही तूफ़ान है...बाकी हवाओं वाली कोई बात नहीं। दिल्ली पहुंचने में कुल एक हजार किलोमीटर की दूरी तीन दिनों में तय करने वाली गाड़ी में अभिजीत के पास सोचने के लिए बहुत वक़्त था।

लेकिन सोचने से क्या होता है। सोचा कि मंझले भाई साब कुछ न कुछ इंतजाम करवा देंगे। इतने दिनों में कुछ न कुछ पैर तो जमा ही लिए होंगे भाई साब ने। वक़्त सोचने के लिए बहुत था। आसपास के यात्री कुछ ही देर में घुल मिल गए। चलते वक्त मां ने ढेर सारी पूरियां डाल दी थीं।

गले दो तीन स्टेशनों तक जंगल, झाड़ी, लाल मिट्टी सब अपनी ओर बुलाती रहीं। मानो वृंदावन वापस बुला रहो हो कृष्ण को...काहे का कृष्ण। वह तो सुदामा सरीखा जा रहा था...अपनी हेठी अपनी अकड़ के साथ। हेठी कुछ ऐसी कि टूट जाए लेकिन झुके ना।

दिल्ली पहुंचा तो इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई क़स्बे के स्कूल का अनुभव सा मालूम होने लगा। ट्रेन अल्लसुबह पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंची थी। जाड़ों की सुबह। दिल्ली की ठंड। भयानक कोहरा...सफेद चादर में लिपटी दिल्ली।

बस में  किसी तरह ठुंसकर भैया के घर तक पहुंचा था। ऐसी भीड़ भरी जगह...लोग इस मुहल्ले में सांस कैसे लेते हैं। अब तक इतनी कम जगह में इतने लोगों को कभी देखा नहीं था। घर पहुंचा तो भाभी को कोई खास खुशी नहीं हुई थी। घर भी छोटा...।

भैया ने पूछा था, 'कहां रहने का इरादा है?'

भिजीत को अब इससे आगे की घटनाओं का अंदाजा हो गया। लेकिन उसने भावनाओं पर जबर्दस्त नियंत्रण करना सीख लिया था। मुस्कुरा उठा। कहा, 'दो-तीन दिन में इंतजाम हो जाएगा।'

एक झटके में भाई के यहां से पत्ता साफ हो गया था। हालांकि उसने कभी भी भाई के यहां परजीवी होकर रहने की सोची तक न थी, यह उसकी योजनाओं में कहीं था भी नहीं। लेकिन उसे इतनी जल्दी की भी उम्मीद न थी कि आखिर भाई साब ऐसे फटाक-देनी से ऐसा सवाल पूछ देंगे।

सामान छोड़कर उसने नॉर्थ में कैम्प जाने का रास्ता पूछा। उसका एक बैचमेट उधर ही रहता था। विजयनगर की तरफ। तकरीबन दो घंटे बाद जब वह विजयनगर पहुंचा था तो दोस्त ने बड़ी गर्मजोशी दिखाई थी। भरोसा दिलाया और कई बातें बताईं जिसका लब्बोलुआब था कि हिम्मत रखो। पेशा बदलना चाहते हो तो कोई बात नहीं, जब तक रुकना हो मेरे पास रुको। 

अभी कोई बात नहीं जब पैसे कमाने लगना मेरे उधार चुकता करते जाना। अभिजीत गद्गद् हो उठा। पैसा कितना महत्वपूर्ण है।  इसी पैसे ने सुबह-सुबह भाई साब के मुंह से रिश्तों की पोल खुलवा दी, आज इसी पैसे की मदद की वजह से मुझे लग रहा है कि प्रशांत जैसा तो मेरे लिए कोई है ही नहीं।

उसकी आंखों में आंसू भर-से आए थे। आँखें धुंधली सी हो आईं।

अतीत फेड आउट होकर वर्तमान में फेड आउट हो गया। कुरसी पर टिके टिके ही सोचने लगा आखिर रिश्ते होते क्या हैं..जो हमें जन्म से मिलते हैं या जो हम खुद कमाते हैं बनाते हैं और जमा करते हैं?

...जारी