Sunday, November 22, 2009

गुस्ताख का रिटायरमेंट प्लान

कक्का जी हड़बड़ाए हुए जा रहे थे। क्या हुआ कक्का जी? गुस्ताख ने बड़ी अदा से पूछा। कक्का के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं, एक दम फक्क..। 'अरे रिटायरमेंट प्लान करने जा रहा हूं। ताकि अपनी पत्नी को सिंगापुर घुमाने ला जा सकूंम. बुढापे में। ता नहीं बाल-बच्चे कब लतिया कर घर से बाहर का दरवाजा दिखा दें?'

हम भी वहीं खड़े थे,-" का कक्का, अमिताभ की बागबान देख आए हो क्या? "

-"अरे नहीं बचुकिया, दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल पढ़ आया हूं..सो अचानक चिंता बढ़ गई है। "

"कौन सी ग़ज़ल कक्का?"

"अरे बुढापे पर बड़ी मार्मिक ग़ज़ल कही है, दुष्यंत ने। हमारे ज़माने के शायर थे। सुन लो....

लगने लगा है बिस्तर बाहर दालान में,
बूढे के लिए अब नहीं कमरा मकान में ,
दी थी जिन्हें ज़बान वो जवान हो गए ,
कहते हैं लगा लीजिए ताला ज़बान में,
रोटी बची है रात की सालन नहीं बचा
देकर गई है बेग़म कह कर ये कान में,
जान उसके जिस्म से जब निकल गई
बेटे ने मकबरा बनाया है शान में

हां कक्का कह तो आप सही ही रहे हैं...कनाडा वाले उड़नतश्तरी और दिल्ली वाले डॉ अनुराग को भी सुना दीजिए। मुमकिन है वह भी अपने बुढापे का कुछ इंतजाम कर लें।

कक्का मेरी तरफ मुडे, --"क्यों बे, अपनी सोच तूने क्या इंतजाम कर रखा है। उड़नतश्तरी और डॉ अनुराग की मत सोच। डॉक्टर तो फिर भी उम्रदराज़ (?) हैं, लेकिन उड़नतश्तरी तो माशाअल्लाह जवान हैं.. खुद बूढा़ हो रहा है, बाल तेरे सफेद हो गए, जो बचे हैं उनको लेमिनेट करवा ले। यादें रह जाएंगी तो देख-देख कर आहें तो भर पाएगा...

हम हुमक उठे, --"क्या कक्का, अभी तो हमने बड़ी-बड़ी शरबती आंखों और रेशमी जुल्फों वाली मादक मादा की खोज ही शुरु की है..बुढापे की बात मत करो। गोपालप्रसाद व्यास भी तो कह गए हैं..

हाय न बूढा कहो मुझे तुम,
शब्दकोष में प्रिये और भी
बहुत गालियां मिल जाएंगी

गुस्ताख मुस्कुरा उठा..। उम्र बढती है तो विनय बढ़ता है..।

बालों में छा रही सपेदी,
रोको मत उसको आने दो
मेरे सिर की इस कालिख को
शुभे स्वयं ही मिट जाने दो...
झुकी कमर की ओर न देखो,
विनय बढ़ रही है जीवन में
तन में क्या रखा है रुपसि,
झांक सको तो झांको मन में...

कक्का खिसिया गए, --बच्चा. अभी बच्चे हो मान लिया लेकिन रिटायरमेंट का प्लान तो करो...जो हम भुगतने से डरे और मरे जा रहे हैं तुम पर ना आए..

हमने कहा कक्का, अभी अरुणाचल गए थे। वहां देख आए हैं, दिहांग नद के किनारे झोंपडा बनाकर मछली मारुंगा.. गोवा में भी अच्छा है.. समंदर के किनारे टीन की शेड डाल दूंगा... जिदंगी कट जाएगी। वैसे अच्छा ऑप्शन तो बिहार के अपने गांव में लौटकर खटाल अर्थात् गऊशाला खोल देने का है। सात-आठ गायें और उतनी ही भैसे पोस लूंगा, दूध बेचेंगे घी खाएंगे....

और घी खाने के लिए चार्वाक की तरह कर्ज लेने की भी ज़रुरत नहीं पड़ेगी। कक्का, .. कहीं सचिन के एड वाले एक्शन प्लान से प्रेरित तो नहीं हो रहे आप? वैसे भी-पूत कपूत तो क्या धन संचय, पूत सपूत तो क्या धन संचय। अर्थात् पूत कपूत हो संचित धन की वाट लगा देगा। पूत सपूत हो चो उसके लिए धन संचित करने की ज़रुरत ही क्या।

कक्का को असह्य हो रहा था, सीधे सिर पर चपत मारी कहा, तुम उल्लू हो, गधे भी..और अपनी राह ले ली।

पाठकों आप ही बताइए, रिटायरमेंट का प्लान ज़रुरी है? अगर है तो क्या करना चाहिए ....

Friday, November 20, 2009

क्योतो से कोपनहेगन


क्योतो में जिन मुद्दों पर सहमति हुई थी, उस पर अंकल सैम का अड़ियल रवैया जारी है। चीन जाकर ओबामा ने भी कोपनहेगन से ज्यादा उम्मीदें न रखने की सलाह दे दी है। क्या था क्योतो नयाचार में...


ऐसा भी नहीं कि अपनी ही आबो-हवा को जहरीला और तवे की तरह गरम बना दे रहे इंसानों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इसकी सबसे ताजी मिसाल है १९९७ क्योटो में हुआ सम्मेलन जिसमें दुनिया भर के 184 देशों ने हवा में शामिल हो रहे कुल कार्बन की मात्रा में ५.२ फीसद की कमी लाने का मसौदा तैयार किया।


अपनी ज़मीन और हवा को साफ-सुथरा रखने का यह पहला मामला नहीं था।


जिन दिनों इंगलैंड में आद्योगिक क्रांति अपने शबाब पर थी, उन्हीं दिनों 1824 में फ्रांस के साइंसदान जोसेफ फुरियर ने ग्रीन हाउस गैसों के बारे में बताया।


1896 में स्वीडन के रसायनशास्त्री स्वांते अरहेनियस हों या 1938 में ब्रिटिश इंजीनियर गे कैलेंडर, विद्वानों ने पर्यावरण के लिए नुकसानदेह ग्रीन हाउस इफैक्ट के प्रति आगाह करना शुरु कर दिया था।


सन 1965 में पहली बार किसी सरकार ने पर्यावरण पर सलाह देने का काम कि.या और अमेरिकी सलाहकार समिति ने ग्रीन हाउस गैसों को चिंता का कारण बताया।


1972 में स्टॉकहोम में पहला जलवायु सम्मेलन हुआ। पर्यावरण को लेकर जाकरुकता की शुरुआत भी हुई। फिर 1988 में मांट्रियल प्रोटोकॉल सामने आया, जिसमें सीएफसी यानी क्लोरोफ्लोरो कार्बन और एचएफसी यानी हाइड्रोफ्लोरो कार्बन के कम उत्सर्जन का संकल्प लिया गया था।


1992 में रियो डि जिनेरो मे पृथ्वी सम्मेलन हुआ, लेकिन चिंताएं बरकरार रही। फिर,मौसम परिवर्तन के ख़तरों से निपटने के लिए 1997 में जापान के क्योटो में यह तय हुआ कि अलग-अलग चरणों में विकसित, विकासशील और पिछड़े देश तापमान बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले गैसों का ऊत्सर्जन कम करेंगे।


क्योटो प्रोटोकॉल के तहत चालीस औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए 1990 के आधार पर मानक तय किए गए । भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर यह पाबंदी बाध्यकारी नहीं थी। अब तक 184 देश इस पर अपनी सहमति जता चुके हैं। लेकिन ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने अब तक क्योटो संधि को लागू नहीं किया है।


अमेरिका अब भी अपने पुराने रुख पर कायम है कि प्रोटोकाल के तहत विकासशील देशों के लिए भी लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए। उसकी दलील है कि चीन और भारत जैसे देशों पर भी बाध्यकारी पाबंदियां होनी चाहिए।


अमेरिका, कनाडा और जापान जैसे विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन कम करने की कोई तय सीमा मानने को तैयार नहीं, वहीं भारत,चीन और ब्राजील जैसे देश विकसित देशों की और उंगलियां उठा रहे हैं। ऐसे में मामला पहले आप-पहले आप पर फंसा हुआ है।


भारत और चीन की दलील है कि उनका ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन विकसित देशों की बनिस्पत काफी कम है और इस वक्त उत्सर्जन पर रोक लगाना विकास पर पाबंदी जैसा होगा।


चीन और भारत दोनों का मानना है कि विकसित देशों और विकासशील देशों के लिए उत्सर्जन में कटौती के मानक अलग-अलग होने चाहिए, हालांकि विकासशील और विकसित देशों का यह विवाद पुराना है और जलवायु परिवर्तन की हर बैठक में उठता रहा है।


अमरीका और ऑस्ट्रेलिया ने संयुक्त राष्ट्र के क्योतो प्रोटोकॉल पर सिर्फ़ इसीलिए हस्ताॿर नहीं किए क्योंकि वे इस बात का विरोध कर रहे हैं कि इसमें भारत और चीन के लिए कार्बन गैस उत्सर्जन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है और यह भी एक सच है कि इस समय कार्बन गैसों के उत्सर्जन में चीन का नंबर अमरीका के बाद दूसरा है।


लेकिन चीन का तर्क है कि अमीर देशों के अब तक किए गए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से ही जलवायु परिवर्तन हुआ है.


इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज,--आईपीसीसी-- में रखे गए अपने प्रस्ताव में चीन धनी देशों के ग्लोबल वार्मिंग में योगदान का उल्लेख रिपोर्ट में चाहता है। चीन के मुताबिक 1950 से पहले अमीर देश 95 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार थे, जबकि 1950 से 2000 के बीच वे 77 प्रतिशत गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं, ऐसे में उत्सर्जन कम करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विकसित देशों पर होनी चाहिए। उधर, विकसित देश चीन की इस दलील से सहमत नहीं हैं।


अमेरिका के साथ-साथ यूरोपीय संघ भी चाहता है कि विकासशील देशों को भी इस मामले में जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यूरोपीय संघ मानता है कि विकासशील देश धनी देशों को दोषी ठहराना छोड़कर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने के लिए प्रयास करना शुरु करें।


यानि मामला अब भी वहीं अटका है जहां क्योटो में था।


बहरहाल, क्योटो प्रोटोकॉल का पहला दौर 2012 में खत्म हो रहा है। विकसित देशों को जिम्मेदारी दी गई थी कि वह 2012 तक उत्सर्जन के स्तर को 1990 के स्तर से नीचे ले जाएं। इसके लिए नई तकनीकें अपनाने की पैरवी की गई है जिसके लिए क्योटो प्रोटोकाल में क्लीन डिवेलपमेंट मैनेजमेंट (सीडीएम) का प्रावधान है।


लेकिन उत्सर्जन अभी भी जारी है।


अब तक क्योटो प्रोटोकॉल पर भारत समेत 184 देशों ने दस्तखत किए हैं,जो कुल 70 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। 16 फरवरी 2005 से इसे दस्तख्वत करने वाले सभी देशों ने लागू कर दिया है। लेकिन दुनिया की 35 फीसदी ग्रीन हाउस उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने इसे लागू नहीं किया।


डेनमार्क के कोपेनहेगन में होने वाली युनाइटेड नेशंस क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में अब तक के हालात की समीॿा के साथ आगे की कार्रवाई पर विचार होगा। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इस साल अक्टूबर मेंो बैंकॉक में हुई क्लाइमेट चेंज टॉक में क्योटो प्रोटोकॉल को तकरीबन खारिज करने वाले अमेरिका का कोपेनहेगन में क्या रवैय्या रहता है।


भले ही देशों के बीच तकरार जारी है लेकिन इस बार अपने मतभेदों को दूर कर सबको इस बात पर सहमत होना चाहिए कि धरती को जलवायु परिवर्तन के बुरे असर से कैसे बचाया जाए।


उम्मीद करनी चाहिए की कोपनहेगन में देशों के बीच आम राय बनेगी, क्योंकि वक्त हाथ से निकला जा रहा है।

Wednesday, November 18, 2009

गरम होता धरती का मिजाज़


धरती के गर्म होने की प्रक्रिया ग्रीन हाउस एफेक्ट कहलाती है। दरअसल ग्रीन हाउस ठंडे इलाकों में कांच के घर होते हैं, जिनके अंदर खेती की जाती है। कांच के इस घर की दीवारें धूप को अंदर आने देती हैं, जिसे धरती सोख लेती है लेकिन कांच की छत और दीवारों की वजह से ये किरणें वापस नहीं जा पातीं। इससे कांच के घर के भीतर का तापमान बाहर के वातावरण के मुकाबले ज्यादा हो जाता है, और बर्फीले इलाकों में भी सब्जियां उगाना मुमकिन हो पाता है।


धरती को सूरज से प्रति वर्ग मीटर ३४३ वाट सौर विकिरण मिलता है। ऊर्जा की यह मात्रा बहुत ज्यादा है, हमारी कायनात को जलाकर राख कर देने के काबिल...लेकिन हम सुरक्षित हैं क्योंकि इस ऊर्जा का ज्यादातर हिस्सा अंतरिक्ष में वापस चला जाता है।


सूरज से आने वाली किरणों का करीब तीस फीसद हिस्सा बादलों से टकरा कर अंतरिॿ में वापस लौट जाता है। करीब बीस फीसद हिस्सा धरती की कुदरती कामकाज यानी पौधों के खाना बनाने की प्रक्रिया यानी प्रकाश संश्लेषण , और दूसरी भौतिक-रासायनिक बदलावों में खर्च होता है।


बचे हुए 50 प्रतिशत विकिरण में से तकरीबन 49 फीसद हिस्से को धरती की सतह सोख लेती है और और फिर उसे इंफ्रारेड किरणों यानी ताप किरणों में बदलकर वापस अंतरिक्ष में भेज देती है।


लेकिन हमारे वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाइ ऑक्साइ़ड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोक्साइड और जलवाष्प इस ऊर्जा को रोकने का काम करती हैं। ऐसे में वायुमंडल में इन गैसों मौजूदगी बढ़ने से धरती गर्म हो रही है तय है। तापमान में इस बढो़त्तरी से ध्रुवों पर बर्फ तेजी से पिघलती है जिसके साथ शुरु होती है प्राकृतिक असंतुलन की एक लंबी श्रृंखला।


इस मुश्किल की शरुआत हूई 18 वीं सदी में यूरोप की औद्योगिक क्रांति के बाद से। पूरी दुनिया में तेजी से कल कारखानों का विकास हुआ और हमने वायुमंडल में धुआं और दूसरी जहरीली गैस छोड़नी शुरु कर दीं।


हवा को जहरीला बनाने के साथ ही धरती द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ी जा रही इंफ्रारेड ताप किरणों का पहले से ज्यादा हिस्सा इन गैसों की वजह से वायुमंडल में ही रुकने लगा है। धरती का बढ़ता तापमान इसी प्रक्रिया का नतीजा है।


पृथ्वी का औसत तापमान 18 वीं सदी के बाद अब तक 0.6 डिग्री सेन्टीग्रेट तक बढ़ गया है। समुद्र का जलस्तर बीसवीं सदी में औसतन 10 से 20 सेमी तक बढ चुका है। 21वी सदी के पहले दशक के अंत तक इस स्तर में 10 सेमी और इजाफा होने की आशंका जताई जा रही है।


धरती के गरम होते जाने से आर्कटिक की बर्फ लगातार पिघल रही है।


अनुमान है कि बीसवीं सदी के दौरान उत्तरी गोलार्ध में सात फ़ीसदी बर्फ पिघल चुकी है। हिमालय की चोटियां भी इसकी जद से दूर नहीं.....


ग्लेशियर हर साल घटते जा रहे हैं जिससे बाढ़ औरभूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आने की आशंका भी पहले से काफी ज्यादा हो चुकी हैं।


हिमालय की बर्फ पिघलने की अगर यही रफ्तार रही तोे मैदानी इलाकों को सींचने वाली नदियों में पहले बाढ़ आएगी और फिर वो सूखने के कगार पर पहुंच जाएंगी। भारत, चीन, नेपाल, बांग्लादेश और म्यामां इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।


जलवायु परिवर्तन की अगली मार होगी खाद्यान्न के उत्पादन पर, धरती के गर्म होने से गेहूं और धान की पैदावार पर असर पड़ेगा और फसल चक्र पूरी तरह गड़बड़ा जाएगा।


जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीकी देशों में होने वाली खेती में दिक्कतें आएंगी। इसका सबसे ज्यादा असर उन छोटे किसानों पर पड़ेगा जो कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले दशकों में बरसात के पैटर्न में बदलाव आएगा और इसके चलते खाद्यान्न उत्पादन में तेजी से गिरावट आएगी।


समस्या ये है कि इसका सबसे ज्यादा असर उस आबादी पर पड़ेगा जिसका वैश्विक तापमान बढ़ाने में सबसे कम योगदान है।

Tuesday, November 17, 2009

पर्यावरण परिवर्तनः प्रलय की ओर


टीवी का ज़माना है, और रवीश के शब्दो में शाकाल जैसा कोई टकला ज्योतिषी २०१२ में दुनिया में प्रलय का एलान कर जाता है। मुझे नहीं पता कि ज्योतिषी महाराज की भविष्यवाणी का असर होगा या कुछ और लेकिन इतना तय है कि दुनिया पर विनाश का साया पड़ने वाला है। डूबते शहर और कुदरत के कहर से दो-चार होती दुनिया की टीवी पर आ रही एनिमेटेड तस्वीरें धरती पर आने वाले उस प्रलय की है जिसकी शुरुआत जलवायु परिवर्तन के साथ हो चुकी है।



हम धरती की आबोहवा को इसी तरह ज़हरीला बनाते रहे तो विनाशकारी गतिविधियों के शुरु होने के जिम्मेदार हम खुद होंगे। अगर कुदरत से चलने वाली छेड़छाड़ इसी तरह जारी रही तो ये सब हकीकत में बदल सकता है।

शुरुआत हो चुकी है..

हमारे आस पास चिड़ियों का चहचहाना कब कम हो गया, देखते देखते कैसे पेड़ कटकर हमारे घरों के दरवाज़ों और खिड़कियों में तब्दील हो गए, कभी रात में साफ़ दिखने वाले तारों और हमारे बीच कैसे एक झीना सा धुंध का पर्दा आ गया, कैसे नदियों में आम तौर पर पानी कम हो गया या नदियों का रंग ही बदल गया ... और कैसे कभी पड़ोसी की अलग सी दिखने वाली गाड़ी हमारी और हम जैसे बहुत से लोगों की गाड़ियों की भीड़ में गुम हो गई।....

विकास की ये रफ्तार हम पर भारी पड़ने वाली है।

हमारी धरती, पूरे सौरमंडल में बल्कि पूरे ब्रह्मांड में अभी तक मालूम एक मात्र जीवन वाला ग्रह..लेकिन यह दिन-ब-दिन खतरे की ओर बढ़ रही है।

इंसान के शरीर की तरह धरती का भी अपना एक सामान्य तापमान होता है। पृथ्वी का ये औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड होता है लेकिन इस सदी के आखिर तक इसके 6 डिग्री बढ़ने की आशंका है। तापमान में ये इजाफा दुनिया के भूगोल और पर्यावरण दोनों को बदल कर रख देगा।

कभी हमें लंबा सूखा झेलना होगा, तो कभी लगातार बारिश। ये सब होगा धरती के बदलते मिजाज़ की वजह से....



जारी

Saturday, November 14, 2009

बीस साल बाद



बीस साल पहले याद है मुझे, मैं प्राइमरी में पढ़ा करता था। तब, भी क्रिकेट को लेकर यहीं जुनून था। बड़े भाई साहब क्रिकेट खेलते भी थे, क्रिकेट सम्राट नाम की पत्रिका भी घर में आती थी। तो सचिन तेंदुलकर और अमोल मजूमदार नाम के दो शख्सों से परिचय हुआ। चौथी कक्षा में पढ़ता था, पाठ्य-पुस्तकों से ज्यादा मन क्रिकेट सम्राट में लगता था।


सचिन का चयन टीम में हुआ था। लेकिन स्कूल के दिनों मे मेरा दोस्त सचिन की बजाय अमोल को ज्यादा टैलेंटेड बताता रहा। लेकिन शारदाश्रम के इस बच्चे को लेकर मेरे मन में एक मोह-सा हो गया।
कुछ दिनों बाद भाई ने बताया कि पहले टेस्ट मैच मे यह लड़का कुछ खास नहीं कर पाया..पहले वनडे में भी सिफर। फिर भी मन नहीं माना।


बड़े भाई साहब उन दिनों वेंगसरकर, शास्त्री और कपिल के दीवाने थे। अज़हर की कलाई की लोच पर फिदा थे, और मैदान पर अज़हर जैसा ही दिखना और खेलना पसंद करते थे। लेकिन फिर हमने अखबार में पढ़ा कि सचिन नाम के इस लडके ने अजीबोगरीब एक्शन वाले अब्दुल कादिर के धुनक दिया। मेरे मन को ठंडक पहुंची।


सचिन का कारवां बढ़ निकला था। मेरे खपरैल घर में सचिन का एक पोस्टर विराजमान हो गया। सन ९१ का साल था, बूस्ट वाला कोई विग्यापन था। गले में सोने की चेन, घुंघराले बाल। सोफे पर पसारा हुआ सचिन..। उन दिनों नवजोत सिंह सिद्दू ६ शतक मार कर वनडे भारतीय बल्लेबाज़ी में शीर्ष पर थे। उनका लाठीचार्ज मशहूर हुआ करता था।


सन ९४ में सिंगर कप में सचिन का पहला शतक आया तो हमने यही सोचा कि क्या यह सिद्धू के ६ शतकों की बराबरी कर पाएगा? डेसमंड हेंस के १७ शतकों को तो हम अजेय मान चुके थे। उन दिनों सचिन की तुलना अपने समकालीनों इंजमाम और लारा से होने लगी थी।


लेकिन इसके बाद क्या हुआ, इसके लिए मुझ अपने ब्लॉग पर लिखने की ज़रुरत नहीं। सारे समुद्र के पानी को स्याही बनाकर और सारे जंगलों की लकड़ी को कलम बनाकर सारी पृथ्वी क कागज बना कर पीटर रीबॉक से लेकर गावस्कार तक ढेर सारा लिख चुके हैँ। कमेंट्री में जेफरी बायकॉट वॉट अ शॉट, वाट अ शॉट चिल्ला-चिल्ला कर अपना गला बैठा चुके हैं।


लेकिन मुझे साल ९८ का शारजाह याद है। सेमिफाइनल में १४३ और फाइनल में १३६ बनाकर जीतने वाले सचिन की तारीफ में उन्ही के हाथों कुटने-पिसने वाले वॉर्न और माइकल कास्परोविच ने पुल नही फ्लाई ओवर बांध दिए। हमारी सहयोगी विनीता उनकी बड़ी फैन हैं। कहती हैं, जबतक सचिन क्रीज पर रहता है, जीत की उम्मीद बंधी रहती है। वह इसकी ताकीद करती हुई ऑस्ट्रेलिया के साथ पिछले मैच का हवाला भी देती हैं, जिसमें सचिन ने १७५ रन ठोंके थे।


बहरहाल, मैं कोई सचिन के आंकडो का बड़ा जानकार नहीं। लेकिन उनकी विनम्रता और जमीन से जुड़ाव का कायल हूं। सचिन और रहमान जैसी बड़ी शख्सियते मुझ पर असर करती हैं, और उन्हें मिलता हुआ सम्मान मुझे खुद को मिलता सम्मान लगता है। कई बार तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।


सचिन किसी की रगो में एड्रिनलीन दौड़ाने के लिए काफी नहीं है?

Friday, November 13, 2009

झारखंड: पैंतरा दोनों ओर से है..

एक-दूसरे को कोसते-कोसते भाजपा पलट जिन भाविमो प्रमुख बाबूलाल मरांडी और कांग्रेस की ताजा दोस्ती हुई है, उसका हश्र क्या होगा? सूबे में इस सवाल का जवाब खोजा जा रहा है।

सही उत्तर तो चुनाव परिणाम के बाद ही सामने आएंगे, लेकिन कांग्रेस और बाबूलाल कि निष्ठा को लेकर बहस छिड़ी हुई है।



कहने वाले तो कहते हैं, जब कांग्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन की न हुई, जब आरजेडी वाले लालू यादव और एलजेपी वाले रामविलास पासवान की नहीं हुई तो बाबूलाल किस खेत की मूली है।


पलटवार यह कि जिस संघ की हाफ पैंट की बदौलत झोलाछाप मास्टर से ऊपर उठकर बाबूलाल भाजपा के भग-वे के भरोसे केंद्र में मंत्री बने, राज्य के मुख्यमंत्री बने, वे जब उसके न हुए तो कांग्रेस के नीचे कब तक रहेगे?



अर्थात्, पैंतरा दोनों ओर से है..।

Wednesday, November 11, 2009

मेरा हंसना भारी पड़ रहा है...

याद है पिछली बार हम कब रोए थे?

कभी जिंदगी में ऐसे क्षण आते हैं, जब आप रोना चाहते हैं..बुक्का फाड़कर। लेकिन रो नहीं सकते..क्योंकि आपकी रेपुटेशन ही नहीं है, उदास दिखने की। हर गम में खुश दिखना होता है, जोकर की तरह। मेरे साथ यही मुश्किल है। लाल दंत मंजन छाप दांत दिखाने की ऐसी आदत है कि लोग-बाग ज़रा सीरियस होते ही पूछ बैठते हैं- क्या बात है, उदास हो?

हर बात पर हंसो, तो दोस्त ताना देते हैं मेरी बात पर सीरियस नहीं हो, सीरियसली नहीं ले रहे हो?? क्या किया जाए। मौलिक कैसे बना जाए?

कभी एक शेर स सुना था- बहुत संजीदगी भी चूस लेती है लहू दिल का, फकत इस वास्ते जिंदादिली से काम लेते हैं... एक और था ऐसा ही, ..... मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं वाला।

लेकिन, मजाक-मजाक में जिंदगी का आधा हिस्सा निकल लिया..। डॉक्टर भी कुछ दूसरे किस्म की सलाहें दे रहे हैं..। अपने आसपास से गजब के लोगों को जाते देख रहा हूं, मानता हूं मेरी उम्र अभी मरने की नहीं। लेकिन मरने की कोई खास उम्र भी होती है क्या?

लोगबाग धरती की गरमाहट से हवा की सनसनाहट और राजनीति से लेकर पता नही क्या-क्या डिस्कस कर ले रहे हैं। पता नहीं मुझे क्या हो रहा है..। खुद पर से भरोसा उठता जा रहा है..।

कुछ दोस्त भी साथ छोड़ रहे हैं, कुछ ने ताजिंदगी दोस्त बने रहने का वायदा किया ज़रुर है पर हमने वायदों पर से यकीन करना छोड़ दिया है। दिल में कई ऐसी बाते होती हैं, जो किसी को भी नहीं बता सकते बेहद करीबी दोस्तों को भी नहीं। कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जिनपर आप सिर्फ आप खुद से बतिया सकते हैं। ऐसे ही कुछ मुद्दों से घिरा बैठा हूं.. अभिमन्यु की तरह..

ऐसा नहीं कि नौकरी का संकट या दफ्तर का तनाव है.. वहां मिल रही कामयाबियां निजी जीवन में असीम मुसीबतें खड़ी कर रही हैं। बस मन में आया तो लिख मारा।

अजीत राय ने मेसेज किया था, उनने भी ब्लॉग बना लिया है, यायावरकीडायरी.ब्लॉगस्पॉट.कॉम..खोजने पर भी नहीं मिला।

Friday, November 6, 2009

अब कौन करेगा कागद कारे?

सुबह सुना, प्रभाष जी नहीं रहे। बॉस ने खबर दी, कोई बाईट ला सकते हो..मन खिन्न हो गया। पत्रकारिता के पितामह, हमारे समय के सबसे भरोसेमंद और क्रेडिबल पत्रकार बिना किसी सूचना के चला गया।

कल रात को भारत-ऑस्ट्रेलिया का मैच देख रहा था। सचिन को बेलौस खेलता देख रहा था, उसके छक्के और चौकों की बरसात देख रहा था। भतीजे मनीष ने भैया से कहा, अब कल अंकल जनसत्ता का पहला पैज फाड़कर लाएंगे। जिसमें प्रभाष जोशी सचिन तेंदुलकर के लिए पन्ने रंगे रहेगें।

सचिन ने ताबड़तोड़ १७५ रन बनाए.. लेकिन ...

आज जनसत्ता खाली-खाली सा था। उदास, पितृहीन बालक की तरह।

दफ्तर गया तो अरविंद चतुर्वेदी प्रभाष जी का पुराना इंटरव्यू लॉग कर रहे थे। सवाल था कि प्रभाष जी आप इस उम्र में देशाटन पर क्यों रहते हैं?

बकौल प्रभाष जी, वह देशाटन पर रहते हैं तो यमराज के दूतों को छकाते हैं। यमदूत दिल्ली आते हैं , तो वह भोपाल मे होते हैं, यमदूत भोपाल पहुंचते हैं तो वह कालाहांडी में होते हैं.....

आईआईएमसी में हमें पढाने आए ते प्रभाष जी तो उनने हमें जानपांडे बनने को कहा था। जानपांडे ऐसे लोग होते थे जो धरती के कंपन को महसूस कर यह जान लेते थे कि वहां कुँआं खोदने से पानी निकलेगा या नहीं। उनका कहना था कि हमें समाज का जान पांडे बनना होगा।

उनकी किताबों और आलेखों और पत्रकारिता के काम पर लिखने वाला उचित आदमी नहीं मैं। यह किसी बड़े आदमी के जिम्मे हो। हमारे लिए प्रभाष जी प्रकाश स्तंभ थे, जिनके ज़रिए हमें सही रास्ता दिखता था।

बहरहाल, उनके तमाम स्तंभों में हम क्रिकेटीय स्तंभ कासकर पढ़ते थे। भारतीय क्रिकेट के लड़कों के धुरंधर प्रशंसक, गोलंदाजों के गुण-अवगुण बताने वाले, और विदेशियों की बखिया उधे़ड़ने वाले, सचिन के पक्षधर प्रभाष जी का जाना पत्रकारिता के साथ क्रिकेट का बड़ा नुकसान है।

क्या सचिन को पता है कि उसका एक बड़ा प्रशंसक बौद्धिक दुनिया छोड़ गया?