Thursday, November 27, 2014

नेपाल को फॉर ग्रांटेड न ले भारत

दक्षिण एशियाई देशों के संगठन-दक्षेस के शिखर सम्मेलन को कवर करने के लिए काठमांडू में हूं। काठमांडू हवाई अड्डे पर बुनियादी सुविधाओं की कमी है। वहां पर उकताए हुए किरानियों का जमावड़ा है, जो आपको सुविधाएं देने में आनाकानी करेंगे, कुछ वैसे ही जैसे भारतीय नौकरशाही को जनता को सुविधा मुहैया कराने में होता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कारवां जब त्रिभुवन हवाई अड्डे से सीधे उस जगह की ओर चला, जहां एक ट्रॉमा सेंटर का उन्हें उद्घाटन करना था, तो रास्ते के दोनों तरफ लोगों का हुजूम था। 

मुझे नहीं पता कि पाकिस्तान या सार्क के दूसरे सदस्य देशों के नेताओ के आने पर इतनी ही भीड़ थी या नहीं। लेकिन, हर मोड़ पर जब मोदी-मोदी के नारे लगने लगे, तो मुझे इल्म हुआ कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता भारत के बाहर भी है, और भारत से कम नहीं है।

तराई इलाके के एक नेता ने मुझे बाद में कहा भी, मोदी अगर नेपाल के मधेशी इलाके से चुनाव में खड़े हों तो यहां से भी जीत जाएंगे। 

फेसबुक पर मेरे कुछ मित्र यह आरोप लगाते हुए पोस्ट करते हैं कि मोदी ऐसी भीड़ प्रायोजित करवाते हैं। अब उनके पोस्ट पूर्वाग्रह और ईर्ष्याग्रस्त है, यह मानने की वाजिब वजह मुझे मिल गई।

ट्रॉमा सेंटर पर प्रधानमंत्री ने सब बातों के  साथ जिस बात का जिक्र किया वह था नेपाल के संविधान का तय समय सीमा पर बनकर तैयार हो जाना। उन्होंने भारतीय संविधान की नम्यता और अनम्यता का जिक्र करते हुए सर्वानुमति से संविधान तैयार करने पर जोर दिया। 

जाहिर है कि भारत ने नेपाल के साथ अपनी मैत्री को नए आयाम देने शुरू किए हैं। लेकिन ध्यान देने वाल बात यह है कि पहले प्रधानमंत्री को सड़क मार्ग से नेपाल आना था। यह कार्यक्रम बदल दिया गया। 

प्रधानमंत्री ने अपने किसी भाषण में इसका जिक्र भी किया। वजह हैः भारत की लापरवाही। सीमावर्ती इलाकों में सड़क बनाने की जिम्मेदारी भारत की है। (इस संदर्भ में समझौते भी है) लेकिन भारत ने इस काम का ठेका जिन कंपनियों को दिया था, (इनमें कोई एक कंपनी हैदराबाद की थी) उनने एडवांस तो लिया, लेकिन काम नहीं किया। 

प्रधानमंत्री को बिहार के शहर सीतामढ़ी से सड़क मार्ग से भिट्ठामोड़ (सरहदी शहर, आधा भारत में आधा नेपाल में) होते हुए जनकपुर जाना था। 

सुनने में आया कि बिहार सरकार ने प्रधानमंत्री की संभावित यात्रा के मद्देनज़र तकरीबन 30 करोड़ रूपये खर्च करके सड़क को ठीक करवा दिया। यद्यपि वह सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग है तथापि खर्च बिहार सरकार ने किया। 

लेकिन भिट्ठामोड़ से लेकर जनकपुर तक 19 किलोमीटर तक सड़कमार्ग बेहद खराब है। और यह सड़क भारतीय कंपनियों को बनानी थी। यह लापरवाही है, बहुत बड़ी चूक। 

मोदी के जनकपुर लुम्बिनी और मुक्तिधाम न जाने के कई कारण  बताए गए। लेकिन बड़ा कारण सड़क का खराब होना भी था। हालांकि प्रधानमंत्री ने यहां के लोगों को निराश नहीं होने के लिए कहा, और कहा कि वह मौका मिलते ही इधर आएंगे। लेकिन मधेश इलाके के उन लोगों को ज़रूर निराशा हुई होगी, जो चाहते थे कि मोदी एक दफा इधर आएं, तो अब तक तरक़्की की राह में नेपाल सरकार की नजरअंदाजी का शिकार रहे तराई इलाके के दिन बहुरेंगे। 


जिस तरह से मोदी सरकार नेपाल के साथ अपने संबंध सुधारना चाहती है,  उसे पुरानी सरकार की ऐसी गलतियों को ठीक करना होगा। 

सार्क देशो के पर्यवेक्षकों में चीन भी है, और भारत की ऐसी गलतियां पाकिस्तान के मुखर सहयोगी रहे चीन को नेपाल में बढ़त दिला देंगी।

मंजीत



Tuesday, November 11, 2014

जनकपुर रेल, जो अब भी छुक-चुक चलती है...


मैं जापान गया था और बुलेट ट्रेन देख रहा था, तो इसके बरअक्स मेरे जेह्न में दो-तीन ट्रेनें कौंध गई थीं। पहली, दिल्ली वाली मेट्रो, जो चलती तो धीमी हैं लेकिन शहरी सार्वजनिक परिवहन की बढ़िया मिसाल हैं। 

दूसरी, हमारी सामान्य रेलगाड़ियां, जो लेटलतीफी का पर्याय बनी हुई हैं। खासकर, जिन पर चढ़कर, सॉरी लदकर और ठुंसकर बिहारियों-यूपी वालों की भीड़ अपने घर को जाती है, कभी दिवाली पर कभी छठपूजा में। 

तीसरी ट्रेन है, मेरे गृहनगर मधुपुर से आसनसोल को चलने वाली डीएमयू ट्रेनें, जिनमें रोजाना चलने वाले मुसाफिर चढ़ते हैं, जिनकी खिड़कियों में साइकिलें और दूध के डब्बे लटके होते हैं।

लेकिन इन सबसे ज्यादा याद आई मुझे जयनगर से जनकपुर के बीच चलने वाली ट्रेन की।

जिनको नहीं पता, वैसे लोगों के लिए बता दें कि जयनगर बिहार में है, नेपाल की सरहद पर है और यहां तक भारतीय रेल से पहुंचने के बाद, जनकपुर-जो कि नेपाल में है-तक पहुंचने का एक मात्र ज़रिया यही ट्रेन है।

नेपाल जाने के लिए पासपोर्ट और वीज़ा की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि उससे कहीं अधिक मशक्कत करनी होती है।

पहली मशक्कत टिकट लेने के लिए होती है। ट्रेन में कुल सात डब्बे हैं तो मुसाफिरों की जबरदस्त भीड़ होती है। जनरल बोगी में, जब मैं पिछली दफा गया था, तो बीस नेपाली रूपये का टिकट है। इस क्लास का टिकट आप नहीं ले पाएंगे। बता दें, कि एक भारतीय रूपया नेपाली एक रूपये साठ पैसे के बराबर होता है।

दूसरा विकल्प है, पहली श्रेणी का टिकट लेना। इसकी कीमत, पचास नेपाली रूपये है। इसका टिकट तो, मैं शर्त बद सकता हूं, आप क़त्तई नहीं ले पाएंगे। इन दोनों में से कोई भी टिकट आप ले पाएं, तो चैंपियन समझिए।

यही है अलबेली रेल, जयनगर से जनकपुर। फोटो सौजन्यः मधेशी प्राइड


नैरोगेज की यह ट्रेन खिलौना ट्रेन से अधिक कुछ नहीं। यानी, रेल पटरी की कुल चौड़ाई 76 सेंटीमीटर है।

भारत और नेपाल के बीच इस रेल मार्ग की शुरूआत साल 1928 में हुई थी। वैसे तो इस रेललाईन की कुल लंबाई 51 किलोमीटर है, और रेल की पटरी जनकपुर नहीं, बल्कि उससे आगे बीजलपुरा तक जाती है। लेकिन कई दशकों से ट्रेन जनकपुर तक ही जाती है। जितना मुझे याद है, मैंने अपने बचपन से आजतक इस ट्रेन को जनकपुर से आगे नहीं जाते देखा।

मेरा ननिहाल जनकपुर के पास है, इसलिए इस ट्रेन से मेरा बचपन का नाता है।
मुझे याद है कि पहले इस रेल का संचालन ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन ऑफ नेपाल-जनकपुर रेलवे करती थी। लेकिन साल 2004 से इस कंपनी का सरकारीकरण कर दिया गया, और कंपनी का नाम नेपाल रेलवे कॉरपोरेशन लिमिटेड कर दिया गया।

इस रूट पर सिर्फ पैसेंजर ट्रेन चलती है। माल ढुलाई नहीं होती। वैसे, मेरा तजुर्बा तो यही है कि भारत के चिड़ियाघरों में चलने वाली खिलौना ट्रेनों से भी सुस्त यह गाड़ी चल भी कैसे पा रही है।

सात डिब्बे, हमेशा ठसाठस भरे। नेपाल के जनकपुर और आसपास के लोग खरीदारी करने जयनगर आते हैं। सिर्फ यही नहीं, नेपाल का मधेसी इलाका और मिथिला सांस्कृतिक रूप से बेहद नजदीक हैं और उनमें रोटी-बेटी का रिश्ता भी है।

ऐसे में आवागमन बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि, अच्छे भले लड़कों की कीमत (दहेज) सिर्फ इसलिए कम हो जाती हैं अगर लड़की भारत से हो और लड़का नेपाल से।

बहरहाल, यह रेल लाईन दो खंडो में बंटी हुई है। जयनगर से जनकपुर 28.8 किलोमीटर और जनकपुर से बीजलपुरा 22 किलोमीटर।

जनकपुर से बीजलपुरा के बीच यातायात बहुत दिनों से बंद है।

इतनी जानकारी मैंने इसलिए दी है ताकि आपको यह पता चले कि आखिर यह रेललाईन आखिर है क्या बला...बाकी मेरे बचपन के कुछ तजुर्बे हैं, जो अगली पोस्ट में शेयर करूंगा।