Monday, March 28, 2016

लंदन बनने के कलकतिया सपने

कोलकाता के एक झुग्गी में घूम रहा था। एक नल, न जाने कितने लोग। कतार में खड़े होकर खाली बाल्टी लिए, अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। बस्ती में गंदगी है। सफाई वाला हफ्ते में एक बार आता है।

मैं एक महिला से पूछता हूं- समस्या होती होगी? वह नकार देती है, कहती है बस सफाई हो नियमित रूप से तो कोई समस्या नहीं है। अपनी टूटी झुग्गी को ठीक कर रहे रमेश राम बिहार के मोकामा से यहां आकर रहते हैं। जाहिर हैः रोज़ी के लिए। वह कहते हैं, नल से दोनों वक्त पानी आए तो फिर कोई समस्या नहीं है। बिजली के लिए कोई नियमित कनेक्शन नहीं है, कनेक्शन मिल जाए तो फिर कोई समस्या नहीं है।

कोलकाता सिटी ऑफ जॉय है। आनंद का शहर। उत्सव का शहर। इसलिए समस्याओं के बीच भी कोई समस्या नहीं है। लोग आनंद में हैं। सीमित साधनों में। बुनियादी समस्याओं से जूझते हैं, कहते हैं कोई समस्या नहीं है। कम साधनों, गंदगी और कमियों के बीच उनको जीने की आदत पड़ गई है इसलिए कोई समस्या नहीं है।

रात के दस बजे निकलता हूं, बालीगंज रेलवे स्टेशन के पास फ्लाई ओवर के नीचे नजर जाती है। दिन में जहां दुकानों की कतार थी वहां लोग कतार से सोए पड़े हैं। उनको जगाकर पूछता हूं- यहां सोने में क्या समस्या है? कहते हैं- कोई समस्या नहीं।

बंगाल की राजनीति का एक अनोखा पहलू है। आदमी कहता है कोई समस्या नहीं है। फ्लाई ओवर के पास कतार में सोए आदमियों के ऊपर कतार से तीन लैम्पों वाला लैम्प पोस्ट है। ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में वादा किया थाः कोलकाता को लंदन बना देंगी।

मैं कोलकाता को लंदन होते हुए देखना चाहता हूं। लेकिन ममता ने सबसे पहला काम किया कि पूरे शहर में एक खास किस्म की लाईटें लगवाईं। विपक्षी इनको त्रिकुटी लाइट कहते हैं। विपक्षी आरोप लगाते हैं कि महज 6 हजार वाली इन त्रिकुटी लाइटों को लगाने में 39 हजार का खर्च आया है। आरोप अपनी जगह है। त्रिकुटी लाईटें देखने में बहुत खूबसूरत हैं। उससे भी खूबसूरत है, उसके पोस्ट से लिपटी सफेद-नीली छुटके बल्ब। लैंपपोस्ट के नीचे स़ड़क पर सोने वालों तक इस त्रिकुटी लाईट की रोशनी नही पहुंचती तो क्या हुआ। कोई समस्या नहीं है।

कोलकाता को लंदन बनाने का यह पहला दौर था। फिर, कोलकाता की सभी सार्वजनिक इमारतों का रंग नीला-सफेद करने का दौर शुरू हुआ। कोलकाता में हर फ्लाईओवर, पुल, सड़क के किनारे के पत्थर अब नीले सफेद हैं।

लेकिन लंदन में ऐसा नहीं है। लंदन में कोलकाता की तरह लोग इतने बड़े पैमाने पर शायद सोते भी नहीं होंगे।

वाम मोर्चे वाले पहले कोलकाता को लेनिनग्राद बनाना चाहते थे। जेम्स ओरवेल ने एक किताब लिखी थी। संदर्भ सोवियत संघ का था। उसमें जुमला थाः बिग ब्रदर इज वॉचिंग। बड़े भैया देख रहे हैं। आप उनकी निगहबानी में हैं। वाम के दौर में परिवार के झगड़ो में भी वामी कैडरों का दखल होता था। अब ऐसा ही कुछ दखल तृणमूल के कार्यकर्ताओँ का है।

इसलिए अवाम, वाम से दूर हो गया। अब सत्ता के उसी तरीके को ममता ने भी अपनाया है। उतने ही ठसक भरे अधिनायकत्व से। उनके मंत्री दागी हो गए है। कैमरे ने उनको (क्या पता वीडियो से छेड़छाड़ हुई हो, लेकिन वह तो समय बताएगा) नकद लेते पकड़ा है। सारदा से नारदा तक तृणमूल की छवि धूमिल हुई है। तो अब ममता उसी ठसक से लोगों से कह रही हैं, राज्य की सभी सीटों पर समझो मैं ही खड़ी हूं। वोट मेरे नाम पर दो।

कोलकाता लंदन नहीं बन पाया। कोलकाता में झुग्गी वहीं हैं, नाले वहीं हैं। लोग अब भी सड़कों पर सो रहे हैं। रोजगार और उद्योग वहीं है। सिंगूर का मसला अब भी अनसुलझा है।

लंदन बनाने का सपना बिक गया था। शायद अबकी बार भी बिक जाए। लेकिन ममता बनर्जी सपना भले ही बेच लें, लेकिन याद रखना चाहिए कि लंदन में खुद विक्टोरिया रहती थीं, कोलकाता में तो सिर्फ उनका मेमोरियल है।

मंजीत ठाकुर

Sunday, March 20, 2016

अयोध्या हिल्स में रामराज्य

अयोध्या हिल्स यानी पुरुलिया का वह हिस्सा जो माओवादी उपद्रवों के लिए पूरे देश में बदनाम था। इस इलाके में घूम रहा हूं तो एक बात गौरतलब दिख रही हैः शांति। साल 2009 में नक्सली हिंसा के दौर में इधर आया था तो जिन रास्तों में आप कदम भी नहीं रख सकते थे वहां आज सैनानियों का मेला लगता है। होली के आसपास का वक्त है और अयोध्या हिल्स में कोलकाता से आए सैलानी मटरगश्ती करते देखे जा सकते हैं। सवाल यह है कि आखिर 2011 के बाद ममता बनर्जी ने इस इलाके में क्या जादू किया?

जंगल महल कहा जाता है इस इलाके को। यह इलाका यानी बांकुरा, पुरिलाय और पश्चिमी मेदिनीपुर का हिस्सा, जो झारखंड और छत्तीसगढ़ से लगता है। जंगल महल का नाम माओवादी उपद्रवों के लिए देशभर में मशहूर था, लेकिन अब इस इलाके में विकास की गतिविधियां शुरू होती देखी जा सकती हैं। उद्योगों की कमी वाले इस इलाके में माओवादी गतिविधियों में रोज़ाना कोई न कोई हत्या हुआ करती थी, साथ इलाके में अधिकतर लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते थे।

लेकिन करीबों की समर्थक मानी जाने वाली वाम मोर्चे की सरकार 33 साल के शासन में जो नहीं कर सकी, ममता ने चार साल में कर दिखाया है। ममता की तारीफ करनी होगी कि इस इलाके में अब हिंसक गतिविधियां शून्य हैं। वरना साल 2010-11 में सिर्फ लालगढ़-झारग्राम में 350 लोग नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ गए थे। 2012 के बाद से एक भी व्यक्ति की मौत हिंसक गतिविधियों या नक्सली हमले में नहीं हुई है।

2011 में सत्ता में आईँ ममता बनर्जी जंगल महल में शांति और विकास को अपनी बड़ी कामयाबियों में गिनाती हैं। हालांकि यह दावा कुछ ठीक भी लगता है कि पिछले साढ़े तीन साल से यहां शांति है और सारे माओवादी लीडर पकड़ लिए गए हैं।

सरकार ने इस इलाके में टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज और जंगल के इलाकों में बेहतर सड़कों के विकास के साथ लालगढ़ में कंसावती नदी पर 60 करोड़ की लागत से बने पुल ने विकास को नया नज़रिया दिया है।

रोज़गार के लिए इलाके से 10000 (दस हजार) लोगों को होम गार्ड की नौकरी दी गई है और इस इलाके में रहने वाले हर शख्स को 2 रूपये किलो की दर से हर हफ्ते 2 किलो चावल देने की योजनाएं चलाई गई हैं। मनरेगा के पैसे से तालाबों पर भी काम चल रहा है।

लेकिन, अयोध्या हिल्स हो या सालबॅनी, या फिर झाड़ग्राम...यह इलाका अब ठिठककर देशभर की विकास गतिविधियों से अपनी तुलना करने लगा है। दो राय नहीं कि सड़कें बनी हैं। लेकिन रोज़गार के लिए पुरुलिया के अयोध्या हिल्स इलाके में अब भी संताल जनजाति के लोगों के लिए जंगल से लकड़ी काटकर लाना और साल के पत्ते तोड़कर बाजार में बेचना ही है। मनरेगा से मिलने वाली मजदूरी और 2 रूपये किलो चावल, विकास के नाम पर यही हुआ है। नए संस्थान खोले जाने के काम हुए हैं, लेकिन ज्यादार मेदिनीपुर के आसपास।

यह भी सच है कि वाम मोर्चे से लोगों के मोहभंग हुआ था, लेकिन तब से पांच साल बीत चुके हैं। पुरुलिया के काफी बड़े इलाके में कुएं तालाब सब सूख गए हैं। नदियों की तली खोदकर जो पानी इकट्ठा किया गया है, वहां मवेशी भी पानी पी रहे हैं, घरों में भी वही पानी ले जाया जा रहा है। घरों की बहू बेटियों के नहाने का भी एकमात्र साधन वही है। और यह सिर्फ एक गांव की बात नहीं है। अयोध्या हिल्स के आसपास 106 गांवों में यही स्थिति है। इस इलाके के लोग बड़ी दयनीयता से ममता बनर्जी से पानी की गुहार लगाते हैं।

पूरी यात्रा के अंत में मैं तो सिर्फ इतना देख पा रहा हूं कि विकास का काम शुरू तो हुआ है लेकिन यह शुरूआत से भी काफी पीछे है। हम अगर इन लोगों से देशभक्ति की उम्मीद करें तो कैसे, खाली पेट भजन भी तो नहीं होता। और् रही बात शांति की, यह शांति से अधिक खामोशी लग रही है। जो शायद ममता बनर्जी के राजनीतिक कौशल का नतीजा है, और शायद एक फौरी जुगत का भी, जिसके नाकाम हो जाने की आशंका हमेशा सताती रहेगी।


मंजीत ठाकुर

Friday, March 18, 2016

हिन्दी खड़ी बाज़ार मेंः आख़री किस्त

भारतीय सिनेमा जब हिन्दी सिनेमा में तब्दील हुई, यानी मूक फिल्में जब सवाक फिल्मों का रूप लेने लगीं तो उसकी भाषा हिन्दी ही थी। या मान लीजिए कि हिन्दुस्तानी थी। हिन्दुस्तानी इसलिए क्योंकि थियेटर के नाम पर लोकप्रिय पारसी थियेटर था, कलाकार उनके पास थे और थियेटर की भाषा उर्दूनुमा हिन्दी थी। उनके पास आबादी के लिहाज से बड़ा दर्शक वर्ग भी था।

उन दिनों जब कागज पर हिन्दी का विकास हो ही रहा था और हिन्दी क्लिष्ट और आसान के बीच झूल रही थी, सिनेमा ने तय कर लिया था कि ज्यादा लोगों तक पहुंच बनाने के लिए हिन्दी को आसान होना होगा। कई स्टूडियो ऐसे रहे जहां हिन्दी फिल्मों के संवाद लिखवाने के लिए गैर-हिन्दी भाषी या हिन्दी कम जानने वाले लेखक रखे जाते थे, जो आसान हिन्दी लिख सकें। आप याद करें, उन दिनों संवाद अधिक लोगों की समझ में लाने के लिए उनकी द्विरूक्ति होती थी। प्रमथेश बरूआ की देवदास को याद कीजिए, अरे देवदास तुम आ गए, हां पारो, मैं आ ही गया—सरीखे संवाद।

हिन्दी लोगों की ज़बान पर चढ़ने लगी। फिल्मों का बाजार पेशावर से लेकर चटगांव तक था। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक। तो हिन्दी ने अपना परचम लहराना शुरू कर दिया मेरा जूता है जापानी रूस में हिट था तो सूरीनाम, फिजी, मॉरीशस में होना ही था। अमिताभ बच्चन उजबेकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक शहंशाह रहे।

आजादी के बाद हिन्दी संस्कृतनिष्ठ होती गई, और उर्दू फारसी की तरफ बढ़ गई। विभाजन की खाई के बाद उर्दू को मुसलमानों की भाषा करार दिया गया। लेकिन हिन्दी के इस संस्कृतकरण ने हिन्दी को लोगों की ज़बान नहीं बनने दिया था। लोग हिन्दी बोल तो रहे थे, लेकिन उनकी हिन्दी वह हिन्दी नहीं थी जो लिखी जाती थी।

रेडियो, गीतमाला, हिन्दी गीतो ने हिन्दी को ज़बान पर ला दिया। लेकिन हिन्दी ज़बान पर भले ही चढ़ गई हो। लोग सलमान-शाहरूख क असर में आज भी फिल्मी संवाद दोहरा लें, शोले के कितने आदमी थे से लेकर एक बार मैने कमिटमेंट कर दी...तक या फिर हम तुममें इतने छेद करेंगे...जैसे महापॉपुलर संवाद तक, लेकिन हिन्दी को पढ़ाई की भाषा बनने में अभी भी वक्त लगेगा।

जब तक हिन्दी रोजगार देने वाली भाषा नहीं बनेगी, तब तक इसका प्रसार भी नहीं होगा। हिन्दी साहित्य पढ़ने वाला या तो हिन्दी का शिक्षक बन सकता है या अनुवादक। हिन्दी के साहित्य को समृद्ध करने के लिए अनुवाद के काम को प्रकाशक कर तो रहे हैं लेकिन हिन्दीवालों की पढ़ने की आदत छीजती जा रही है।

विज्ञान की कोई मान्यता प्राप्त आखिरी किताब कौन सी है जो हिन्दी में छपी हो। हिंदी के अनुवादकों की क्या औकात है यह तो खुद अनुवादक ही बता सकता है या प्रकाशक। वैसे तो प्रकाशकों के सामने हिन्दी के लेखको की भी क्या औकात, लेकिन अगर कोई शख्स विज्ञान, या दर्शन के किताब को हिन्दी में अनुवाद कर भी दे तो क्या छपेगा कौना छापेगा और उस शख्स को भाषा की सेवा करने का तमगा मिलने के अलावा क्या मिलेगा यह सब जानते हैं।

एक और बात यह है कि हिन्दी मे जो साहित्य लिखा जा रहा है वह उत्कृष्ट तो है लेकिन लोकप्रिय नहीं हो पाता। जो लोकप्रिय है वह लुगदी ही है। सैकड़े में एक दो उत्कृष्ट लेखन होता है जो मास लेवल पर पसंद किया जाता है। वरना क्या वजह है कि गोरखपुर से लेकर झारखंड के देवघर तक चेतन भगत की किताब तो बिक जाती है, लेकिन किसी बड़े हिन्दी लेखक का उपन्यास नहीं बिकता।

इसकी एक वजह तो मुझे यह भी दिखाई देती है कि हिंदी का लेखक इस अहंमन्यता का शिकार होता है कि वह स्वांतः सुखाय लिख रहा है। तो फिर उसे बाजार का मोह नहीं होना चाहिए। प्रकाशकों की नीयत भी कुछ वैसी ही होती है। दूसरी बात, हिंदी का लेखक कहते ही हम सीधे साहित्यकार क्यों मान लेते हैं? हिंदी का लेखक कथेतर साहित्य भी तो लिख सकता है। लेकिन मुझे दुख है यह कहते हुए कि हिंदी में कथा हो या कथेतर पढ़ने वाले कम ही बचे हैं।

एक दो मिसालें मैं और देना चाहता हूं। अंग्रेजी के बेस्ट सेलर का खिताब शायद एक लाख प्रतियों के बाद मिलता है लेकिन अनु सिंह चौधरी की नीला स्कार्फ 2100 प्रतियो के बाद और नॉन रेजिडेंट बिहारी उससे भी कम प्रतियों के बिकने के बाद बेस्ट सेलर घोषित हो गए। सिर्फ इसलिए क्योंकि हिंदी में पाठक कम हो गए हैं। आप ही बताएं कि अनिल कुमार यादव का यात्रा वृत्तांत ये भी कोई देस है महराज या अजय तिवारी का डोंगी में डगमग सफर जैसा यात्रा वृत्तांत हाल में क्यों नहीं लिखा गया।

हमें खोजना होगा उस वजह को, कि आखिर क्यों हिंदी में पाठक नहीं बचे हैं। वरना हिन्दी फिल्मों के दर्शक न सिर्फ हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। हिन्दी गानों का जलवा बरकरार है और सिर्फ गानों के दम पर न जाने कितने म्युजिक चैनल अपनी दुकान चला रहे हैं। एफएम रेडियो भी मनोरंजन के नाम पर गाने ही तो परोसते हैं। वह भी फिल्मी।

साइबर संसार में हिन्दी ब्लॉगिंग अब गंभीरता की तरफ बढ़ गई है। फेसबुक के आने के बाद ब्लॉगिंग में सिर्फ संजीदा लोग बच गए हैं। हिंदी में कंटेंट की कमी तो नहीं है। लेकिन छपे हुए सामग्री के स्तर पर विविधता जरूरी है।

फेसबुक पर हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ी है। रवीश कुमार ने जिस लप्रेक को शुरू किया उसे गिरीन्द्र नाथ झा ने रवीशमैनिया नाम देकर लगातारता दी। विनीत कुमार और गिरीन्द्र की कहानियों को भी राजकमल प्रकाशन ने लप्रेक श्रृंखला के तहत ही छापा है। हमारा फलक भी लप्रेक से प्रेरित था, लेकिन अगर 15 हजार सदस्यों वाले समूह में लोग कहानियां लिख रहे हैं और हिंदी में लिख रहे हैं तो समझिए कि इंटरनेट पर भी हिंदी का वक्त उज्जवल है।

मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि अभी तक नेट की पहुंच सिर्फ पैसे वाले अंग्रेजीदां तबके तक थी। स्मार्ट फोन पर हिंदी लिखने की छूट, और स्मार्टफोन के हर हाथ तक पहुंच ने यह सुनिश्चित कर दिया है, कि आने वाला वक्त हिंदी का ही है। सिनेमा, रेडियो और टीवी पर हिंदी का जलवा है। साइबर संसार में बढ़त बन रही है। बस सोचना है साहित्यकारों को, कि आखिर उत्कृष्टता और लोकप्रियता (कभी कभी एक चीज दोनों मुकाम हासिल कर लेती है, लेकिन सिर्फ कभी-कभी) दोनों में वह क्या चुनना चाहती है।

Monday, March 14, 2016

बंगाल का रणघोष

चुनाव का शंखनाद हो गया है। पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुदुचेरी इन पांच राज्यों में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। एक बार फिर मैं बंगाल पहुंच गया हूं। मैंने 2009 के लोकसभा से लेकर अभी तक बंगाल के तमाम चुनावों को नजदीक से देखा है। मैंने बंगाल में पोरिबोर्तन (परिवर्तन) को देखा है।

लेकिन इस बार बंगाल कि फिज़ा अलग है। बंगाल का नज़ारा बहुत ही दिलचस्प है। ममता बनर्जी जानती हैं कि लोगों के जेहन से अभी 33 साल के वाम शासन की यादें मिटी नहीं है और वह इस डर को, जो वाम की अकड़ की वजह से पैदा हुई थी, और ममता बनर्जी उस डर को एक दफा फिर से भुनाने में लगी हैं।

कांग्रेस के सामने चुनौती है कि वह अपने छीज चुके जनाधार को किसी तरह बचा ले। कांग्रेस का आधार ऐसे भी सिर्फ बंगाल के उत्तरी इलाके में बचा है, जो मरहूम एबीए गनी खान चौधरी दीपा दासमुंशी, अभिजीत मुखर्जी और अधीर रंजन चौधरी का इलाका है।

वाम मोर्चे के जनाधार में जबरदस्त सेंध लगी थी और पिछले विधानसभा के बाद लोकसभा चुनाव में भी वाम मोर्चा औंधे मुंह गिरा था। पांच साल बाद भी, वाम मोर्चा बंगाल में खुद को व्यवस्थित नहीं कर पाया है।

ममता बनर्जी ने चुनाव की तैयारी बहुत पहले से करनी शुरू कर दी थी। उन्होंने चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भी कर दी। ममता दी की सूची में फुटबॉल खिलाड़ी वाइचुंग भूटिया से लेकर रहीम नबी और क्रिकेटर लक्ष्मी रतन शुक्ला से लेकर पत्रकार प्रवीर घोषाल जैसे नाम है।

शुरूआती अनुमानों के मुताबिक, हालांकि मैंने अभी पूरे सूबे का जायज़ा नही लिया है, लेकिन ममता बनर्जी के बारे में यहां के राजनीतिक पंडित फिलहाल यही उचार रहे हैं कि इस बार उनकी सीटें पिछली बार से अधिक होंगी। यानी ममता बनर्जी के लिए सत्ता विरोधी लहर काम नहीं करेगा इस बार।

इधर, देशद्रोह के आरोप में जेल जाने के बाद कन्हैया वाम दलों के लिए हॉट केक बन चुके हैं और सीताराम येचुरी ने कह दिया है कि कन्हैया बंगाल में प्रचार करेंगे।

लेकिन, येचुरी के लिए बंगाल में अच्छा प्रदर्शन करना बहुत जरूरी है क्योंकि माकपा महासचिव बनने के बाद यह उनके लिए पहला चुनाव है। लेकिन येचुरी के लिए आगे की राह कठिन है। वाम दल अंदरूनी विवादों के बावजूद कांग्रेस के साथ गठजोड़ की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वाम मोर्चे के कई दल इस गठबंधन से खुश नहीं हैं। लोकसभा चुनाव 2014 में वाम दलों को 27 फीसद वोट मिले थे और कांग्रेस दस फीसद वोट के साथ दो सीटें हासिल कर पाई थी।

इसी तर्क के आधार पर कांग्रेस ने बंगाल में एक सौ सीटें मांग ली हैं और सीपीएम को कांग्रेस की यह मांग नाजायज़ लग रही है।

गौरतलब है कि साल 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की एक लहर उठी थी और उनकी पार्टी 184 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी।

लेकिन बंगाल में ममता बनर्जी का हाथ ऊपर बताया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि ममता ने विकास के दिखने वाले काम कर दिखाए हैं। सड़के, पानी, बिजली। यानी विकास का वही बिपाशा समीकरण। गांव के लोग खुश हैं कि पिछले साठ साल में जो सड़क नहीं बनी, जिन गांवो में बिजली नहीं थी, वहां यह सब हुआ है। ममता की वजह से हुआ है।

तो नीतीश मॉडल पर अगर बंगाल में भी ममता वापस आएँ तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। राजनीतिक पंडित तो यह भी कह रहे हैं कि इस बार ममता बनर्जी की सीटें पिछली दफा के 184 से भी अधिक आएंगी। वाम मोर्चे के लिए चिंता का एक सबब भारतीय जनता पार्टी भी है।

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 6.5 फीसद के आसपास वोट आए थे। लोकसभा में मोदी लहर में यह बढ़कर 17 फीसद हो गया था।

इस बार बीजेपी इसे थोड़ा और आगे खिसकाने के प्रयास में है। झारखंड से लगते इलाकों और मालदा, मुर्शिदाबाद के मुस्लिम बहुल इलाकों में बीजेपी की पैठ पहले से अधिक हुई है, और उसका असर चुनावी नतीजों पर पड़ेगा।

लेकिन बंगाल राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक है और यहां बिहार या यूपी की तरह वोटों का जातिगत बंटवारा नहीं होता है। हुगली और भागीरथी में पानी बहुत तेजी से बहता है, ममता के लिए 294 में से 220 सीटों की भविष्यवाणी भी अभी भविष्य के गर्त में ही है। चुनावी कवरेज के क्लीशे अपनी जगह, लेकिन ममता की ही दोबारा राइटर्स बिल्डिंग में ताजपोशी होगी, यह तय है।

मंजीत ठाकुर

Saturday, March 5, 2016

कुछ तस्वीरें रूला देती हैं

फेसबुक कभी-कभी रुला देता है। नीचे जो तस्वीर साझा कर रहा हूं, वह संजय तिवारी जी ने ली है। उसके आगे जो घटना है वह कुमुद सिंह ने साझा की है। यह तस्वीर देखकर आंखें नम हुईं, नोर आ गए, लेकिन कुमुद जी ने जो कहानी साझा की है, उसे पढ़कर खूब रोया हूं। जीभर कर। 

मोटे चश्मे को उतारने की भी फुरसत नहीं दी आंसुओ ने, अभी भी धुंधला सा दिख रहा है। खुद पढ़ लीजिए।

फोटोः संजय तिवारी

बकौल कुमुद सिंहः इस तसवीर को देखकर सचमुच आंखें नोरा गयी..। उन आंखों का हंसना भी क्‍या जिन आखों में पानी ना हो....। 

कल की ही बात है भैरव लाल दास जी के घर गयी थी तो उन्‍होंने ऐसा ही एक प्रसंग सुनाया। सोच रही थी आपसे उसपर बात करू, तभी संजय तिवारी जी की इस तसवीर पर नजर गयी। 

बात पटना संग्रहालय परिसर की है। चार दिनों पहले एक परिवार संग्रहालय घूमने आया। इसी दौरान वो लोग परिसर स्थित बिहार रिसर्च सोसायटी भी आये। परिवार का एक बच्‍चा वहां एक किताब को करीब 10 मिनट तक पलटा रहा, फिर अधिकारी से पूछा कि यह किताब मुझे मिल सकती है, मुझे इस विषय पर एक आलेख लिखना है। पदाधिकारी ने कहा कि यह पुस्‍तक मिल सकती है, 100 रुपये लगेंगे। बच्‍चा अपने पिता से 100 रुपये लेने गया और पिता ने रुपये देने से मना कर दिया। 

बच्‍चे की मां ने भी कहा कि 100 रुपये का ही तो सवाल है दे दीजिए..पिता ने कहा कि नहीं दूंगा..करीब 45 मिनट तक बच्‍चा उस किताब के लिए जिद करता रहा, लेकिन पिता मानने को तैयार नहीं हुए। अंत में बच्‍चा रोने लगा। 

किशोरा अवस्‍था में एक इतिहास की पुस्‍तक के लिए छात्र को रोता देख सोसायटी के पदाधिकारी का दिल भी रोने लगा, लेकिन वो खामोश रहे। करीब 50 मिनट बाद बच्‍चा माता-पिता के पीछे-पीछे परिसर से बाहर जाने लगा। 

पदाधिकारी ने संग्रहालय के गेटमैन को फोन से सूचित किया कि इस परिवार को गेट से बाहर न जाने दें और बच्‍चा को सोसायटी कार्यालय ले आये। गेटमैन से वैसा ही किया। बच्‍चा जैसे ही कार्यालय पहुंचा पदाधिकारी ने उसे वो पुस्‍तक देते हुए कहा कि लो पूरा पढकर जो लिखना वो मुझे दिखाना..यह पुस्‍तक तुम्‍हारे जैसे ज्ञान के प्‍यासे के लिए ही छपी है..तुम से कोई पैसा नहीं लेंगे। बच्‍चे पुस्‍तक को लेकर उछल पडा और उसके चेहरे पर जो खुशी थी उसे देखकर पदाधिकारी की आंख भर आयी...। 
हमारा देश सचमुच अभागा है जो छोटी-छोटी खुशियां भी देखने को तैयार नहीं है।

Thursday, March 3, 2016

हिन्दी खड़ी बाज़ार मेंः भाग दो

हाल ही मैं मॉस्को गया था। हवाई अड्डे पर स्थानीय टैक्सी वालों ने मुझे नमस्कार किया। जी हां, हिन्दी में नमस्कार बोलकर। 

रूस में राज कपूर के बाद मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों का दौर रहा। आजकल वहां सलमान लोकप्रिय हैं। वहां कई विद्वान हैं जो अपने विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाते हैं। उनमें से कईयों के साथ बातचीत का मौका मुझे हासिल हुआ। सर्गेई बंगला, हिंदी और संस्कृत के जानकार है। और अपने जीवन के कई बहुमूल्य साल उन्होंने बनारस में बिताए हैं। भारतीय इतिहास पढ़ाने वाली नतालिया ने मुझसे कहा कि जब वह भारत से लौटकर वापस रूस गईं तो उनके छात्रों ने उनसे पहला सवाल यही किया कि क्या वह भारत मे सलमान खान से मिलीं?

मैं इन मिसालों के ज़रिए हिन्दी फिल्मों की महिमा का गुणगान नहीं कर रहा बल्कि आपको बताना चाहता हूं कि बॉलिवुड ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपनी अहम भूमिका निभाई है।

आजादी के बाद जब टकसाली और रघुवीरी हिन्दी, या फिर जिसे हम एतद् द्वारा वाली हिन्दी कहते हैं का बाज़ार गरम था तब भी सिनेमा ने उसे आसान बनाने की प्रक्रिया को तेजी दी थी। भारतीय जनसंचार संस्थान में हमारे अध्ययन के दिनों में सबसे पहला पाठ जो हमें बताया जाता था वह था आसान हिन्दी लिखने का।

कुछ हिन्दीप्रेमी मित्र उन दिनों भी शिक्षकों से भिड़ जाते थे कि कभी किसी ने आसान अंग्रेजी लिखने के लिए तो नहीं कहा लेकिन हमेशा आसान हिन्दी ही क्यों लिखने पर जोर दिया जाता है? लेकिन यह बात माननी होगी कि हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाने पर हम उसके लिए कुछ भला नहीं कर पाएंगे। खासकर दृश्य-श्रव्य माध्यमों में। 

प्रिंट मीडिया में या किताबों की भाषा में शायद हम यह छूट ले पाएं लेकिन सिनेमा या खबरिया चैनलों की भाषा या फिर टीवी में धारावाहिको की भाषा को हम जितना आसान बनाएंगे उतना ही उसका प्रसार होगा। दर्शक तो हर उम्र और हर पृष्ठभूमि का होता है।

शायद यही वजह है कि कलर्स जैसे चैनलों पर आ रहा ऐतिहासिक धारावाहिक चक्रवर्तिन् सम्राट अशोक हो या फिर सिया के राम, या ऐसा ही कोई और पौराणिक धारावाहिक आसान भाषा लिखना बड़ी चुनौती बनी। इसमें आमफहम भाषा का इस्तेमाल तो किया जा रहा है लेकिन वह हिन्दी ही होती है। अभी भी हमारी मानसिकता ऐसी है कि हम शिव के मुंह से उर्दू के लफ्ज सुनना पसंद नहीं करेंगे।
लेकिन सिनेमा ने हिन्दी को जो संजीवनी आजादी के पहले और बाद में दी वह आसान भाषा के जरिए ही दी।
मंजीत ठाकुर

Wednesday, March 2, 2016

गांव, किसान, बजट और सपना

देश में सूखे के हालात की गंभीरता देखकर मैं ऐसे बजट की उम्मीद कर रहा था। पिछले दो चुनाव में बीजेपी की हार और गांव में घटती लोकप्रियता के मद्देनजर भी मैं ऐसे ही बजट की उम्मीद कर रहा था। यकीन मानिए, पूरे बजट भाषण में मैंने खेती और ग्रामीण विकास के बाद जेटलीजी का भाषण सुनना छोड़ दिया।

गांव को यह सब बहुत दिनों से नहीं मिला था।

किसान यह सुनने के लिए तरस गए थे कि कोई सरकार अगले पांच साल में उनकी आमदनी को दोगुना करने की बात कम-से-कम संसद में करेगी, बजट भाषण में करेगी। किसानों के कर्ज़ माफ कर देना, उपचार है। लेकिन सावधानी उपचार से बेहतर है।

हालांकि बजट का अर्थशास्त्र कैसे काम करता है इस मामले में मेरी समझ बुनियादी तौर पर कमजोर है, फिर भी अगले पांच साल में किसानों की आय को दोगुना करने का सरकार का संकल्प एक सपने सरीखा मालूम पड़ता है।

काश सरकार यह भी बता पाती कि यह लक्ष्य कैसे हासिल किया जाएगा।

इस मकसद को पाने के लिए अगले पांच साल तक खेती से होने वाली आय में करीब 14 फीसदी सालाना बढ़ोतरी की जरूरत होगी।

सरकार ने एक काम किया है कि सूखे को देखते हुए खेती और किसानों के कल्याण के लिए 35,984 करोड़ रुपये दिए हैं।

सरकार ने जल संसाधनों का विकास करने पर नज़र डाली है और उमा भारती का जल संसाधन मंत्रालय 89 रूकी हुई परियोजनाओं को जल्द से जल्द (उन्होंने दो साल बताया है) पूरा करके देश के 80 लाख हेक्टेयर ज़मीन को सिंचित बनाने की मकसद को पूरा करने की दिशा में काम कर रही है।

उमा भारती चाहती हैं कि देश में केन-बेतवा समेत नदियों को जोड़ने की पांच परियोजनाओं को जल्द से जल्द शुरू किया जाए। हालांकि इन परियोजनाओं का डीपीआर तैयार होने के बाद भी अभी पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी नहीं मिली है।

बहरहाल, खेती को समस्या से दूर करने के लिए सरकार ने बजट में यह प्रावधान जरूर किया है कि किसानों को सही वक्त पर और पर्याप्त कर्ज मिले। इसके लिए सरकार ने 9 लाख करोड़ रूपये का आवंटन किया है। इस मद में दी गई यह रकम अब तक की सबसे अधिक रकम है।

किसानों के ऋण भुगतान का बोझ कम करने के लिए वित्त मंत्री ने ब्याज छूट के लिए 2016-17 के बजट में 15,000 करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया है। और शायद टिकाई विकास के लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है और इसके तहत 5 लाख एकड़ वर्षाजल क्षेत्रों को लाने के लिए 'परंपरागत कृषि विकास योजना' का एलान किया गया है।

लेकिन बजट में खेती-किसानी के लिए की गई इन बातों से यह समझ में नहीं आया कि पांच साल में किसानों की आय दोगुनी कैसे हो जाएगी। यह तो कृषि क्षेत्र को आवंटित बजट राशि के मद और उसके ब्योरे हैं। इस बजट राशि से सीधे तौर पर किसानों का कोई भला नहीं हो सकता।

लेकिन इतना जरूर है कि खेती को बेहतर बनाने के लिए धीरे-धीरे एक ढांचे की बुनियाद खड़ी होगी, जिसका फायदा एक वक्त के बाद किसानों को मिलेगा।

देश का किसानों इस वक्त जिन हालात से गुजर रहा है वह छिपा नहीं है।

इकॉनमिक सर्वे की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि एक किसान की औसतन सालाना आमदनी 20 से 30 हजार रुपये है। तो क्या ये मानें कि पांच साल बाद इस किसान की सालाना आमदनी 40 हजार से 60 हजार रुपए हो जाएगी।

दूसरी अहम बात यह कि लगातार आपदा की वजह से किसान भीषण कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। अंदाजा है कि खेती के घाटे का सौदा होने की वजह से हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं और रोज़ाना 50 के करीब किसान मौत को गले लगा रहे हैं। देश की संस्थाओं के पास किसान की कोई एक परिभाषा भी नहीं है। वित्तीय योजनाओं में, राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो और पुलिस की नजर में किसान की अलग-अलग परिभाषाएं हैं।

राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के पिछले 5 साल के आंकडों के मुताबिक सन् 2009 में 17 हजार, 2010 में 15 हजार, 2011 में 14 हजार, 2012 में 13 हजार और 2013 में 11 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की राह चुन ली।

यह उस देश के लिए बहुत दुर्भाग्य की बात है जहां 60 फीसद आबादी खेती-बाड़ी से गुजारा करती है। इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि लगातार दो साल तक सूखे से जूझ रहे देश में शायद किसानों की कर्ज माफी का कुछ इंतजाम भी किया जाता।

आने वाले दशकों में खाद्य जरूरतों में बढ़ोत्तरी की वजह से वैकल्पिक खाद्य वस्तुओं, मसलन डेयरी, मछली और पोल्ट्री उत्पादों के विकल्पों पर भी ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि खेती के समानांतर रोजगार के नए विकल्पों की जरूरत महसूस की जा रही है।

उमा भारती ने दावा भी किया है कि अगर हम सारी सिंचाई योजनाएं बावक्त शुरू कर पाएं तो खेती एक बार फिर जीडीपी में 40 फीसद का योगदान करने लगेगी। हम भी यही चाहते हैं, किसान भी। आमीन।


मंजीत ठाकुर

Tuesday, March 1, 2016

हिन्दी खड़ी बाज़ार में

हिन्दी खड़ी बाजा़र में

हाल ही की बात है, नीलेश मिसरा एक रेडियो शो के लिए मैं एक पौराणिक कहानी लिख रहा था। नीलेश मिसरा रेडियो की जानी-पहचानी आवाज़ हैं और गीतकार होने के साथ-साथ किस्साग़ो भी हैं। तो उस पौराणिक कथा की भाषा, जाहिर है हिन्दी, के संदर्भ में उन्होंने मुझे कहा कि इस कहानी की भाषा का तुम एमटीवीकरण कर दो। मैं थोड़ा हिचकिचाया क्योंकि मैं रावण या कुंभकर्ण के मुंह से क़त्तई फ़ारसी नहीं बुलवा सकता था। उन्होंने साफ किया कि हमें भले ही देशकाल के संदर्भ में रामाय़ण के पात्रों से उर्दू-फ़ारसी बुलवाने की छूट नहीं है, लेकिन हर हालत में हमें हर पात्र से आसान हिन्दी बुलवानी होगी।

हिन्दी के फैलते साम्राज्य के पीछे यही सफल रणनीति काम कर रही है। मैं हिन्दी को आज की सफल भाषाओं में गिनना चाहता हूं और उन लोगों की कतार से दूर ही रहना चाहता हूं जो हिन्दी का भाषा का मर्सिया पढ़ने पर उतारू हैं।

हिन्दी आज बाज़ार की भाषा है। इसलिए मैं इसे कामयाब कह रहा हूं। हालांकि कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि हिंदी की स्थिति आज भी कुछ वैसी ही है और उसी मुहाने पर है जैसी आजादी के वक्त थी। कुछ लोग इंटरनेट गवर्नेंस फोरम के एक सर्वे का हवाला देते हैं जिसमें भारतीय इंटरनेट यूजर की प्राथमिकता का भाषा का विकल्प आने पर 99 फीसद लोगों ने अंग्रेजी को चुना था। इसी सर्वे में लोगो ने जवाब दिया कि वह सीखना भी अंग्रेजी ही चाहते हैं और इंटरनेट पर इस्तेमाल होने वाली भाषा भी अंग्रेजी ही है।

हो सकता है कि इंटरनेट पर हुए इस सर्वे में अंग्रेजी बाजी मार गई हो। लेकिन सवाल अंग्रेजी और हिन्दी या बाकी की भारतीय भाषाओं के बीच स्पर्धा का है ही नहीं। 

मुझे नहीं मालूम कि इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले कितने फीसद हिन्दीभाषियों को इस सर्वे में शामिल किया गया था। लेकिन फेसबुक पर मेरे 5 हजार दोस्त हैं, मैं फेसबुक लघुकथाओं का फलक नाम का एक समूह चलाता हूं जिसमें 15 हजार सदस्य हैं। इनमें से लगभग 99 फीसद लोग हिन्दी लिखते हैं। फेसबुक पर भी और ट्विटर पर भी। इनमें से जो लोग देवनागरी में हिन्दी नहीं लिखते वे लोग रोमन में हिन्दी लिखते हैं।

बहरहाल मैं इस बात की तस्दीक कर सकता हूं कि इंटरनेट पर हिन्दी या बाकी की भारतीय भाषाओं का चलन बढ़ा है। दूसरी तरफ, एफएम रेडियो के जॉकी जो शोर मचाते हैं उनमें अहमदाबाद हो या गोहाटी, पटना हो या पुणे, मुंबई हो या दिल्ली या फिर बठिंडा, स्थानीय बोली के पुट के साथ मूल भाषा तो हिन्दी ही होती है।

अगले पोस्ट में जारी...
मंजीत ठाकुर