Wednesday, August 31, 2011

बुंदेलखंड की बेटियां

सरकारी योजनाओं का जंजाल अनपढ़ गांववालों के लिए एक उलझाऊ तानाबाना है।

इसी तानेबाने में फंस कर रह गई उत्तर प्रदेश सरकार की विशेष वृक्षारोपण योजना। साल 2008 में यूपी सरकार ने 10 करोड़ पेड़ लगाने की योजना बनाई। इस काम में वन विभाग के साथ-साथ विद्युत विभाग, पीडब्ल्यूडी, सिंचाई विभाग, पंचायतें और प्राइवेट ठेकेदार लगे। हर पेड़ की लागत बैठी तकरीबन 600 रुपये..पैसा था मनरेगा और वन विभाग का..लेकिन बुंदेलखंड के किसी जिले में वो 10 करोड़ पेड़ कहीं नहीं दिखते।

इस वृक्षारोपण की मॉनीटरिंग करने वाले पी के सिंह कहते हैं कि उन्हें ज्यादातर पौधे पॉलीथीन बैग समेत ही मिले, उन पर मिट्टी डालने की जहमत भी नहीं उठाई गई थी, उन्हें यूं ही गड्ढों में फेंक दिया गया था।

केंद्र सरकार ने 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया। इनमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे। हालांकि इस रकम से उम्मीदें बढनी चाहिए थीं...लेकिन उम्मीदों से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है।

ये चिंताएं इतनी बड़ी राशि की लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह रकम भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी हमने आपको दिखाई है।

2010-11 में केन्द्र सरकार ने बुंदेलखंड को दिए पैकेज से मिले पैसों में राज्य सरकार के 10 विभाग शामिल किए गए। इनकी योजनाओं को 2 साल के लिए मंजूरी मिली। उम्मीद तो जगी लेकिन प्रबंधन की असलियत कुछ और ही है।

बांदा जिले को 2010-11 के लिए 213 करोड़ रुपये आवंटित हुए। जिनमें से पहले साल 10 सरकारी महकमों को 40 करोड़ दिए गए।

पशुपालन विभाग 1.75 करोड़ रुपयों में से महज 4 लाख रुपये खर्च कर पाया। जबकि, भूमि विकास विभाग 5.22 करोड़ में से 2.37 करोड़, लघु सिंचाई विभाग 12.01 करोड़ में से 7.95 लाख, कृषि विभाग 5.30 लाख में से 3.20 करोड़, सिंचाई विभाग 12.89 करोड़ में से 9.72 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाया।

इस तरह बांदा जिले को आवंटित 40.38 करोड़ रुपयों में महज 29.73 करोड़ ही खर्च हो पाए और 10.65 करोड़ रुपये बगैर खर्च हुए वापस चले गए। पशुपालन विभाग को पैकेज के तहत 28 कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र खोलने थे और इसके लिए 1 करोड़ 44 लाख रुपये उसे मिले भी, लेकिन पशुपालन विभाग एक भी गर्भाधान केन्द्र खोलने में नाकाम रहा।

जिस क्षेत्र में और जिस काम में सरकारी मशीनरी नाकाम रही, वहीं कुछ लोगों के व्यक्तिगत प्रयासों ने साबित किया कि हिम्मत और लगन हो, इच्छा हो तो कोई भी काम नामुमकिन नहीं रहता।

हालांकि, इन व्यक्तिगत प्रयासों से बुंदेलखंड की हर समस्या का स्थायी समाधान मुमकिन नहीं, लेकिन ये प्रयास उम्मीद जगाते हैं..और नई राह दिखाते हैं।

नई राह दिखाने वाली शख्सियतों में से एक हैं नीतू सक्सेना। उनकी दुबली काया पर मत जाइए, एमए पास यह लड़की बुंदेलखंड की असली बेटी है। फौलादी इरादों वाली नीतू ने अपने आस-पास आत्महत्याओँ का दौर देखा। पिता के भी उसी राह चले जाने के डर ने उनके अंदर एक नई राह को रौशनी दिखाई।

नीतू सक्सेना ने अपनी सहेलियों रीना और गुड़िया परिहार के साथ घर-घर जाकर पहले तो कर्जदारों और भूखे परिवारों की सूची बनाई। इनमें से उनके गांव में छह परिवार बूखमरी के शिकार निकले। नीतू ने इसके लिए नई राह खोज निकाली।

महिलाओं को दादरा यानी गाने बजाने के लिए इकट्ठा किया। बुंदेलखंड में दादरा के दौरान आखत की परंपरा है। यानी गाने के लिए आने वाली महिलाएं अपने साथ अनाज लाकर इकट्ठा करती है, जो बुलावा देने वाले नाई का होता है। लेकिन यहीं नीतू ने एक छोटा-सा बदलाव किया।

आखत में आने वाला अनाज नीतू ने भूखे परिवारों में बांट दिया। नीतू का यह प्रयास आज अगल-बगल के 58 गांवों में फैल चुका है। लेकिन, नीतू सिर्फ अनाज बांट कर ही चुप नहीं बैठी..। उन्होंने महिलाओं को साथ लेकर आसपास के नलों के पास बेकार पड़े पानी को जमा करने के लिए वॉटर रिचार्ज पिट बनाए। इससे सूखे पड़े नल भी जी उठे।


...सवाल है कि बुंदेलखंड को क्या चाहिए...बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की जरुरत है। साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे। समाज को पानीदार बनाने की कोशिशे...और लोगो के साथ की जरुरत है बुंदेलखंड को। वरना अकाल पड़ने से ज्यादा खतरनाक है अकेले पड़ जाना। 

संकट के समय समाज में एक दूसरे का साथ निभाने की परंपराएं पूंजी की तरह थीं...संवेदना की इस पूंजी के सहारे हमने कई बड़े संकट पार किए हैं। लेकिन सवाल है कि मशीनरी में आए ईमानदारी के अकाल का क्या करें..सवाल ये भी है कि संवेदना की पूंजी हमारे पास बची भी है या नहीं।



Thursday, August 25, 2011

लोकतंत्र-लोकतंत्रः कविता


लोकतंत्र-शोकतंत्र
हो गया वोटतंत्र
वोटतंत्र-चोटतंत्र
शोषण का एक यंत्र
लोकतंत्र शोकतंत्र
लूट-खसोटतंत्र
सब हमारा मालतंत्र
कैसा से कमाल तंत्र
माथे गिनते रहे
बन गया अब थोकतंत्र
थोकतंत्र-थूकतंत्र
कमाई का अचूकतंत्र
चूकतंत्र, भूखतंत्र
तन गया है सूखतंत्र
सूखतंत्र, रसूखतंत्र
सबसे बड़ा चूसतंत्र
चूसतंत्र, थूकतंत्र
थूकतंत्र-थोकतंत्र
शोकतंत्र-फोकतंत्र
लोकतंत्र-लोकतंत्र

Wednesday, August 24, 2011

फलक (फेसबुक लघु कथाएं)- तीन उम्दा रचनाएं

मित्रों, नई मीडिया के सामने आने पर हमने सोचा की कथा के स्वरुप में भी एक बदलाव जरुर आना चाहिए। फेसबुक पर इसी अंदाज में रवीश कुमार लप्रेक (लघु प्रेम कथाएं) लिख रहे हैं। हमने सोचा सभी कथाएं प्रेमकथाएं नही होती, ऐसे में फलक की शुरुआत हुई। पहले इसका नाम फेलक था, लेकिन अजय ब्रह्मात्मज के सुझाव पर इसे फलक कर दिया, जाहिर है बेहतर है। फलक के हाल-फिलहाल की तीन कथाओं को हम यहां साझा कर रहे हैं, इनके शीर्षक भी नहीं है। आप चाहें तो शीर्षक सुझा सकते हैं।---


कथा एकः  
'कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।' करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा 'मैं जरूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।' भेड़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया।
कथाकार- नीरज शर्मा। 

कथा दोः
इंद्रप्रस्थ मे अन्ना की रैली देखने युधिष्ठिर भी पहुंचे। कुछ देर बाद गला प्यास से सूखने लगा तो पास के नल पर पहुंचे। नल खोला तो सूं सूं की आवाज के बाद एक कीड़ा नल से टपका और देखते ही देखते एक यक्ष मे तब्दील हो गया। यक्ष ने अपनी पुरानी आदत के मुताबिक युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा " हे युधिष्ठिर! इस रैली के बाद फिर से कौन छला जाएगा? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया हे यक्ष! इस बार फिर जनता ही छली जाएगी। यक्ष ने फिर प्रश्न पूछा "तो युधिष्ठिर इस भारत भूमि पर फिर कौन राज करेगा? युधिष्ठिर ने जवाब दिया " हे यक्ष! इस भारत भूमि पर राजपरिवार की अगली पीढ़ी ही हज़ारे उपनाम लगा कर राज करेगी। नल से पानी शर्मसार होकर बहने लगा था।
कथाकारः सिद्धार्थ श्रीवास्तव।  
(2 दिसंबर 1972 को पैदा हुए  सिद्धार्थ ने गोविंद वल्लभ पंत यूनिवर्सिटी ऑफ अग्रीकल्चर एंड टेक्नॉलजी से पढाई की है। फेसबुक पर मेरे मित्र है।)

कथा तीनः
सरकारी नाई ने बाल काटते समय कपिल सिब्बल से पूछा- 'साहब, यह स्विस बैंक वाला क्या लफड़ा है? सिब्बल चिल्लाये, 'अबे, तू बाल काट रहा है या इन्क्वारी कर रहा है?
नाई बोला, सॉरी। 
अगली बार नाई ने चिदम्बरम से पूछा- 'यह काला धन क्या होता है? चिदम्बरम चिल्लाये- तुम हमसे ये सवाल क्यूँ पूछता है? 
अगले दिन सीबीआई की टीम ने नाई से पूछताछ की। 
क्या तुम बाबा या अन्ना के एजेंट हो? 
नहीं, 
तो फिर तुम बाल काटते वक़्त काग्रेस के नेताओं से फालतू सवाल क्यूँ करते हो? 
नाई बोला- साहब ना जाने क्यूँ स्विस बैंक और काले धन के नाम पर इन कांग्रेसियों के बाल खड़े हो जाते है और मुझे बाल काटने में आसानी हो जाती है. इसलिए पूछता रहता हूँ...!
कथाकार- सुशांत झा। 
आईआईएमसी से रेडियो-टीवी पत्रकारिता पढ़ चुके सुशांत की राजनीतिक समझ बहुत बेहतर है। फिलहाल, कुछ अंग्रेजी किताबों के अनुवाद में लगे हैं। शीघ्र प्रकाश्य।
 

Thursday, August 18, 2011

राहत के सूखे चैक- बुंदेलखंड का सच

बुंदेलखंड का त्रासदी सिर्फ बारिश की कमी ही नहीं है। प्रशासन में समझदारी और संवेदनशीलता की कमी हालात को बदतर बना रहे हैं। सरकारी मशीनरी के चक्कर में आम जनता चकरघिन्नी बनी है।सूखा राहत में 12 रुपये के चैक किसानों को दिए गए हैं..ये आखिर माजरा क्या है?


2002 से ही सूखे की स्थिति से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने सूखा राहत अभियान चलाया..और किसानों को इसके लिए मुआवजा भी दिया। लेकिन..10 बीघे के काश्तकार के लिए सूखा राहत की रकम अगर 12 रुपये हो तो... तो आपको ये एक मज़ाक लग सकता है।

..थोड़ा कड़वा सही, लेकिन सच यही है कि सूखा राहत के नाम पर किसानों को 12, 15, 27, 30 और 39 रुपये के चैक राज्य सरकार ने दिए हैं। मालूम हो कि इन चैकों को भुनाने के लिए खुलने वाले बैंक खाते का खर्च 500 रुपये आता है।

सुशील कुमार, मंझोले किसान हैं। उनके तीन भाईय़ों को सरकार ने 30-30 रुपये के सूखा राहत चैक दिए। चैक तुलसी बैंक का है। सुशील कहते हैं, ये राज्य सरकार ने हमारे साथ अच्छा मजाक किया है, सूखा राहत के नाम पर।

लेकिन बुंदेलखंड में सूखे से राहत पाना कोई मजाक नहीं।

पानी की समस्या से निजात पाने के लिए ही बड़े किसानों ने ट्यूब वैल का सहारा लिया। ट्यूब-वैलों के बढ़ते चलन से भूमिगत जल का दोहन बढता गया...और अब यह जलस्तर खतरनाक तरीके से नीचे जा रहा है। 

 
पूरे यूपी-बुंदेलखंड में समूचे खेती लायक ज़मीन का 41 फीसदी ही सिंचित है। कुल सिंचित भूमि का 48 फीसद नहरों से, 4 फीसद कुओं से, 7 फीसद निजी स्रोतों से और 41 फीसद बाकी के दूसरे साधनों से सींचा जाता है। ट्यूब वैल और पंपिंग सैट इन्ही बाकी के 41 फीसद में आते हैं।

जाहिर है, भूमिगत जल पर दबाव काफी बढा है।

साल 2003 में बांदा में भूमिगत जलस्तर 0.75 मीटर, चित्रकूट में 1.05 सेमी, महोबा में 2.11 सेमी, और हमीरपुर में 1.55 सेमी था। साल 2005 में भूमिगत जलस्तर घटकर बांदा में 1.02 सेमी, चित्रकूट में 1.79 सेमी, महोबा में 1.89 सेमी, और हमीरपुर में 1.59 सेमी हो गया। जबकि, 2006 में इसी ट्रेंड में बांदा में यह 1.62 सेमी, चित्रकूट में 2.19 सेमी, महोबा में 2.09 सेमी, और हमीरपुर में 1.69 सेमी तक चला गया।

बारिश की कमी से भूमिगत जलस्तर रिचार्ज नहीं हो पा रहा..और सूखे की वजह से लगातार हो रहे दोहन ने धरती का कलेजा तार-तार कर दिया।

अब यह कुदरत का कहर है या धरती के भीतर से लगातार खींचे जा रहे पानी की वजह, बुंदेलखंड में धरती कई जगहों पर फट पड़ी है। सूखे के बाद कुदरत का ये एक और क़हर बुंदेलखंड के लोगों को डरा रहा है। 

क्या बुंदेलखंड को सूखे से बचाने का एकमात्र ज़रिया बारिश ही है..? क्या कोई और उपाय नहीं..? उपाय है..और था।

बुंदेलों ने इस सूखे इलाके को हरा रखने के पुख्ता इंतजाम किए थे। तालाब बनाकर। लेकिन बदलते राज और समाज ने तालाबों को बिसरा दिया।


सूखे की वजह से पूरे बुंदेलखंड के करीब 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं। हालांकि, कुछ खर्च से उन्हें फिर से इस्तेमाल के लायक बनाया जा सकता है। लेकिन, ठेकेदारों और अधिकारियों के लिए नए कुएं-तालाब खुदवाना फायदे का सौदा होता है।

इसकी मिसाल हैं कुलपहाड़ तहसील के बरजोरा करन। बुंदेलखंड में सरकार की 30,000 कुएं खोदने की योजना के तहत बरजोरा करन की जमीन में कुएं खोदने को मंजूरी मिली। लेकिन पानी नहीं निकला...क्योंकि बरजोरा करन के बेटे ने 5 हजार की रिश्वत देने से इनकार कर दिया था।

ठेकेदार ने उनके पहले से ही खुदे हुए सूखे कुएं में थोड़ी खुदाई कर दी, और फिर उसे वैसे ही छोड़ गए।

बरजोरा के भाई इस समझौते के लिए तैयार थे...ऐसे में थोड़ी ही दूर पर उनके खेत में खुदे कुएं में पानी निकल आया।


ऐसी गड़बडियों का विस्तार तालाब की तरह चौड़ा है। राज्य सरकार की योजना थी, 30 हजार तालाब खुदवाने की। नारा था, खेत का पानी खेत में। इसके तहत ठेकेदारों के ज़रिए मॉडल तालाब खुदवाए गए।

इन मॉडल तालाबों के चारों ओर बाड़ लगी है। तर्क ये कि इससे तालाबों के किनारे लगाए गए पेड़ सुरक्षित रहेगे। ..लेकिन बाड़ से घिरी इस जमीन से पेड़ भी अदृश्य हैं, पानी भी..। इस जमीन को तालाब कहना बहुत मुश्किल है..जब तक कि यहां मॉडल तालाब का साइन बोर्ड न लगा हो।

खेत का पानी खेत में के नारे ने कई छोटे किसानों के खेत छीन लिए। तालाब खुदवाने के दौरान स्थानीय लोगों के तजुरबे को तवज्जो नहीं दी गई। नतीजा ये कि तालाब सबसे ऊंची जमीन पर खोद डाले गए। नतीजतन ये तालाब बारिश का पानी मापने के कटोरे बनकर रह गए हैं। कई किसान अब इन तालाबों की वजह से अपना सर पीट कर रह गए हैं।


तालाबों के ये काम मनरेगा के पैसे से किए गए थे। सोच ये थी कि शायद इससे सूखे से त्रस्त लोगों को थोड़ी राहत मिल जाएगी।

लेकिन महोबा जिले में मनरेगा लागू करने वाली पंचायत ही गड़बडियों की जड़ साबित हो रही है। जिले के बेलाताल विकास खंड के बमहोरी गांव में कच्ची सड़क बनाने का काम चल रहा है। लोग मनरेगा में काम तो कर रहे हैं...लेकिन उनके पास जॉब कार्ड नहीं है। सवाल है कि अगर जॉब कार्ड नहीं है तो मजदूरों को भुगतान कैसे होता है..? भुगतान होता है नकद, जो कि मनरेगा के निर्देशों का खुला उल्लंघन है।

मनरेगा के तहत काम कर रहे मजदूरों में महिलाएं भी हैं। लेकिन, न तो पानी पिलाने वाले की व्यवस्था है न बच्चों की देखभाल करने वाले की। मेडिकल किट की बात तो भूल ही जाइए। पंचायत सदस्य खुद काम के मेट बने हैं..इसके लिए रोजाना सौ रुपये उन्हें मिलते भी हैं, लेकिन हमें उनसे सवालों के जवाब नहीं मिलते। 

इस काम में बच्चे भी लगे हैं। काम में बच्चों का लगाना भी मनरेगा के निर्देशों का खुला उल्लंघन है। बच्चों का पैसा उनके मां बाप को मिलता है। खाता नहीं है, जॉब कार्ड नहीं है..

भुगतान होता कैसे हैं..मेट साहब के पास फिर से जवाब नहीं..। मजदूरों का पिछला भुगतान भी बकाया है.. मेट साहब के पास इसका भी जवाब नहीं. वो ब्लॉक दफ्तर पर टालते हैं।

कुलपहाड़ तहसील में ही कर्रा गांव कौशल किशोर चतुर्वेदी बैंक के हाथों ट्रैक्टर और साढे तीन एकड़ जमीन गंवाने के बाद कौशल खेती छोड़कर मजदूरी में लगे। अब मनरेगा की मजदूरी उनके उसी बैंक के खाते में आई जिससे उन्होंने कर्ज लिया था। अब बैंक पहले उनसे कर्ज चुकाने को कह रहा है, उसके बाद ही वह मनरेगा की मजदूरी का भुगतान करेगा।

अब कौशल किशोर बकाया रकम केलिए बैंक का चक्कर काटने का भी कोई फायदा नहीं देखते। निराश आंखों से अपने बाकी के खेतों की तरफ देखते हैं।

कर्रा गांव के ही अमर सिंह, 2008-09 से ही मनरेगा के तहत किए गए अपने काम की मजदूरी के लिए भटक रहे हैं..वह न तो उनके जॉब कार्ड में दर्ज है न वन विभाग वाले बता रहे हैं। टालमटोल का यह खेल, चिंता पैदा करता है।

बेसहारा हनसू की वृद्धावस्था पेशन पिछले तीन साल से बंद है। उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अनपढ़ गांववालों के लिए यह सब एक उलझाऊ तानाबाना है।

जारी....

Monday, August 15, 2011

चल उड़ जा रे पंछीः बुंदेलखंड का सच

पिछले पोस्ट से आगे...

बांदा जिले में ही सूखे की कहानी का यह सबसे बुरा किस्सा है। गांव में सारे पानी के स्रोत सुख गए। एक धनी-मानी घर को छोड़कर, सिर्फ एक तालाब बचा था, जिसमें पानी गड्ढे में बचा था। उसके लिए भी मारा-मारी।

पानी की मारामारी में कभी पानी मिल पाता कभी नहीं। उस पैसेवाले के घर के पास ही रहती थी वह महिला। पड़ोस से पानी, जेट पंप से लेना आसान भी था, और साफ पानी भी मिल जाता था। एक दिन मौका देखकर उस घर के मनचले नौजवान ने महिला को छेड़ दिया। महिला चुपचाप चली आई। तीन-चार दिन वह पडोसी के घर पानी लेने नहीं गई। लेकिन कोई रास्ता न था।

पानी फिर लेने गई तो वह नौजवान ढीठाई पर उतर आया था। आखिरकार, एक बाल्टी की पानी एक महिला की इज्जत बैठी।

इस खबर ने बुंदलेखंड के लोगों को आंदोलित किया, और कई गांवों में तालाब खोदने जैसे प्रयास शुरु हुए। लेकिन प्यास बुझाने का कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं हो पाया।


भूख और प्यास ने बुंदेलखंड के लोगों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल की आंतरिक समिति की रपट के मुताबिक झांसी जिले से लाख 58 हजारललितपुर से लाख 81 हजारहमीरपुर से 4लाख 17 हजारचित्रकूट से लाख 44 हजारजालौन से लाख 38हजारबांदा से लाख 37 हजार, और महोबा से लाख 97 हजार किसान अपना घर-बार छोड़कर बाहर निकल चुके हैं।

यानी सात जिलों की 82 लाख की आबादी में से 32 लाख लोग बुंदेलखंड से बाहर रह रहे हैं। यह पूरी आबादी का 40 फीसदी से ज्यादा है।

वीर आल्हा-ऊदल की धरती....जिन्होंने कभी मैदान में पीठ नहीं दिखाई। उन्हें पानी अपनी धरती छोड़ने पर मजबूर कर रहा है। जिन्हें हमलावरों की फौजे हरा नहीं पाई...उन्हें पानी ने हारने पर मजबूर कर दिया है।

पानी की कमी ने बुंदेलखंड के अतर्रा इलाको को भी बदल डाला है।  अतर्रा डेढ़ दशक पहले तक एशिया की दूसरी सबसे बड़ी धानमंडी हुआ करती थी। उस वक्त तक यहां 37 चावल की मिलें हुआ करती थीं। लेकिन आज की तारीख में सारी की सारी बंद हो चुकी हैं।

अतर्रा के मिलों के सारे पल्लेदार (चावल मिलों में काम करने वाले) बेरोज़गार हो गए हैं। जाहिर है, वह अब अगल बगल के शहरों इटावा के ईंट भट्ठों का रुख कर रहे हैं, या फिर दि्ल्ली जैसे शहरों में रिक्शा चला रहे हैं। दरअसल,. पिछले कुछ साल में बुंदेलखंड में नहरों का कमांड एरिया सिकुड़ गया है। 

बुंदेलखंड का यह इलाका एशिया में बांधों की सबसे ज्यादा घनत्व के लिए जाना जाता है। बांध की तली में जमी गाद  से बांधों की क्षमता बहुत कम हो गई है। साथ ही नहरों में भी जमा गाद की बरसों से सफाई नहीं हुई है। ऐेसे में पानी कम खेतों तक ही पहुंच पा रहा है। 

राजस्व विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, बांदा जिले में पिछले साल कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में से सिर्फ 27 हजार हेक्टेयर भूमि को ही इन बांधों से पानी मिल पाया था।


सिंचाई विभाग के लोग ऐसे में किसानों को बताना भी ठीक नहीं समझते। पहले जब बारिश ठीक होती थी, या नहरों का पानी इतना कम नहीं आता था तो किसान धान की फसल के लिए बीज खेतों में डालते थे, लेकिन जब बिचड़े खेतों में ही सूख जाने लगे, तो पता लगा नुकसान बहुत गहरा है। 

(पंद्रह साल पहले तक बुंदेलखंड में 54 दिन बरसात के होते थे। लेकिन अब ...बरसात के ये 54 दिन घटकर 20 हो गए हैं।)

नहरों और बांधों की क्षमता पहले से 65 प्रतिशत कम हो गई है, और धान का उत्पादन पहलेसे महज 30 फीसद ही रह गया है। ...अतर्रा का मशहूर सेला चावल बीते दिनों की बात हो गई है। यहां के किसान पुराने जमाने की शरबती और ऐसी ही दुर्लभ धान की नस्लों को याद कर आह भरते हैँ। 



Saturday, August 13, 2011

हार या हाराकिरीः क्रिकेट के रणछोड़

भारत की टीम के तीसरे टेस्ट मैच भी हारने के बाद, मैं कोई विशेषण नहीं जोड़ूंगा, कुमार आलोक ने अपने फेसबुक स्टेटस को कुछ यूं अपडेट किया है, "भारतीय क्रिकेट टीम की इस हार ने स्पस्ट कर दिया कि खूब खेलो आपीएल..देश को झोंक दो ...कोइ शब्द नही है मेरे पास ..फैज का ये कलाम काफी होगा।

जब अर्जे खुदा के काबे से ।
सब बुत उठाये जायेंगे ।
हम अहले-सफा- महदूदे करम।
...मनसद पे बिठाये जायेंगे।
सब ताज उछाले जायेंगे ।
सब तख्त गिराये जायेंगे। "
हम भारतीय इतने भावुक हैं  कि अपनी टीम के हारते ही उसे जमकर कोसते हैं। उन्हीं खिलाडियों को जिन्हे विश्वकप का ताज पहनते ही, और टेस्ट में भी दुनिया की अव्वल टीम बनते ही हमने उन्हें सर-आंखों पर बिठाया था।
इंग्लैंड के हाथों तीसरे टेस्ट में एक पारी और 242 रनों की करारी हार के बाद भारत ने टेस्ट टीम में नंबर वन की हैसियत खो दी है। इसके साथ ही आईसीसी टेस्ट रैंकिंग शुरु होने के बाद 32 वर्षों में इंग्लैंड पहली बार टेस्ट रैंकिंग में पहले नंबर पर पहुँचा है।

भारत की सबसे बुरी हारों में से एक है नॉटिंघम की हार

बहरहाल, ये ऐसी खबरें हैं जो आप तक पहुंच गई होंगी और टीवी चैनलों ने इसे विभिन्न कोणों से खींचा और ताना भी होगा।

लेकिन, इस श्रृंखला में कुछ ऐसा हुआ है वह अनोखा है। हार-जीत भले ही खेल का हिस्सा होता है लेकिन भारत की टीम जिस तरह से छितरा गई, वह भौंचक्का कर देने वाली है। हार जीत को खेल का हिस्सा मानने वाले भी यह जरुर मानते हैं कि जीत या हार का तरीका ही जीत या हार को शालीन बना देता है।

इंगलैंड में भारत की करारी हार संभवतः शालीन तो नहीं कही जाएगी।

मुकाबला होने से पहले हार मान लेना, या इच्छाशक्ति की कमी, इसी ने हारों को अशालीनता में तब्दील कर दिया। टेस्ट मैचों में दुनिया की नंबर एक टीम से यह उम्मीद की जा रही थी, कि वह अगर उम्दा टीम है तो वह मुश्किल हालातों से जूझने का दम दिखाए। प्रतिकूल हालातों में ढल जाने की बात तो दूर, ज्यादातर विज्ञापनों में दिखते रहने वाले भारत के बल्लेबाज, विकेट पर टिकते कम ही दिखे। पांच दिन...तीनों मैच तयशुदा वक्त से पहले खत्म हो गए।

हवा में कलाबाजियां खाती गेंदों पर चम्मच भिडाकर हमारे बल्लेबाज़ पवेलियन लौटते रहे। पहले दो मैचों में प्रतिष्ठा के अनुरुप प्रदर्शन करने वाले द्रविड़ और लक्ष्मण ने भी तीसरे मैच में हथियार डाल दिए।

सहवाग के नाम का बहुत हल्ला था। लेकिन तीसरे मैच में दोनों पारियां मिला कर कुल दो गेंदें वो खेल पाए। शेर है, बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, काटा तो कतरा-ए-खूं न निकला। दोनों पारियों में शून्य। तीसरे मैच में सिर्फ और सिर्फ धोनी ही बल्लेबाजी कर पाए वह भी ठेठ अपने अंदाज में ही। इससे साबित यही होता है कि अपने अंदाज को बदले बिना भी बैटिंग की जा सकती है।

सचिन पर लोग जरुर उंगली उठाएंगे। लेकिन यही सही वक्त है जब ऐसी जिम्मेदारियां सचिन के अलावा बाकी के लोगों पर भी डाली जाएं। सचिन के अवकाश के वक्त में बहुत देर नहीं है।

पूरे दौरे में, हवा में घूमती गेंदों ने टीम को परेशान रखा है। साथ ही, बदतर फुटवर्क, और छोटी  गेंदों को खेलने में हो रही परेशानियां...रैना की असलियत खुलकर सामने आ गई। रैना ने हर बार पसलियों पर आती गेंद को डक करने की बजाय हुक करने की कोशिश की। रैना की तकनीक में बड़ी गंभीर खामी है। युवराज भी उछलती गेंदों की उछलकर पिच पर गिराने की हास्यापद कोशिश करते हैं।

जीत के लिहाज से इयान बेल को वापस बुलाने का फैसला भी गलत रहा। ऐसे नैतिकता भरे फैसले 30 साल पहले किए जाते थे। यह काम अब अंपायरों के लिए ही रहना चाहिए।

टेस्ट क्रिकेट में नंबर एक टीम के लगातार इस तरह हारने से लाज और ताज दोनों गए हैं। जूझने और इंस्टिक्ट की जो कमी हमें दिखी है, और अपने विकेट फेंकने की जो कला भारतीय कला भारतीय खिलाड़ियों ने दिखाई है। वह सिर्फ हार या हाराकिरी से नहीं जुड़ी है। डर है कि कहीं हमारे खिलाड़ीयों में क्रिकेट को लेकर संजीदगी तो कम नहीं हो गई?

Wednesday, August 10, 2011

बेपानी होते समाज की कहानीः बुंदेलखंड का सच

पिछली पोस्ट से आगे...

 पानी की कमी ने बुंदेलखंड के समाज को बेपानी बना दिया है। बादल रुठे, तो केत वीरान हो गए। हर गांव में कई बदोलन बाई हैं, जो भूख से रिरियाती फिर रही हैं, कहीं बच्चों को घास की रोटी खाने पर मजबूर होना पड़ रहा है..यह सब उस देश में जहां पॉपकॉर्न और पित्सा कल्चर पॉपुलर कल्चर के नाम से जाना जा रहा है। क्या हमें शर्मिन्दा होना चाहिए?

हमारे एक ब्लॉगर दोस्त राहुल सिंह ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि क्या बुंदेलखंड में यह समस्या हमेशा से रही है? क्या यह इलाका पहले से खुशहाल रहा है...?

मुमकिन है मेरे पोस्ट से उन्हें एक एक कर जवाब मिलता जाएगा। 
बुंदेलखंड के ज्यादातर लोग खेती करते हैं...तकरीबन 85 फीसदी लोगों के पेट भरने का ज़रिया खेती ही है। लेकिन, पिछले कई साल से बादल रुठ गए..खेत वीरान हो गए। 

सूखा...जिसने किसानों के हलक सुखा दिए। हालांकि, सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही। सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है। 

गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में एक केंद्रीय टीम बनाई। 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के मुताबिक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 साल सूखे के थे। यानी इस दौरान  सूखा हर 16 साल में एक बार पड़ता था। लेकिन 1968 से लेकर पिछली सदी के आखिरी दशक में हर पांचवां साल सूखा रहने लगा। 

....और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है।

पिछले दशक भर से बारिश की मात्रा साल दर साल कम होती गई है। बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश के सात जिलों की बारिश की मात्रा बताती है कि स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैँ।

साल 2 हजार तीन-चार में औसत सालाना बारिश की मात्रा 987 मिलीमीटर थी, जबकि साल 2 हजार 4-05 में यह 530 मिलीमीटर, 2005-06 में 424 मिलीमीटर, 2006-07 में 330 मिलीमीटर, 2007-08 में 240 मिलीमीटर ही हुई।


सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए। खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं।

..आपदा जैसी इस स्थिति ने बदोलन बाई का परिवार ही उजाड़ दिया। 
बदोलन की भूख से देश को शर्मिन्दा होना चाहिए.


बदोलन बाई का घर किसी भी कोण से झोंपड़ा भी नहीं लगता। तीन तरफ की गिरी हुई दीवारों ने घर को खंडहर कहलाने लायक नहीं छोड़ा है। 

चित्रकूट जिले के पवा गांव की बदोलन के पति भूमिहीन मजदूर थे। कई साल से चल रहे सूखे ने जब 2007 में भयावह रुप अख्तियार किया तो बदोलन के पति को मजदूरी मिलनी भी बंद हो गई। पूरा परिवार भुखमरी की चपेट में आ गया।

..आखिरकार बदोलन के पति को आखिरी बार भूख लगी...। पिता की मौत के बाद बदोन का बड़ा लड़का दिमागी संतुलन खो बैठा, छोटा दिल्ली जाकर रिक्शा चलाने लग गया।

अब गांव में बदोलन अकेली भूख से जूझ रही है। उसके विक्षिप्त हो चुके लड़के को गांववाले दया से कुछ खिला देते हैं। लेकिन, ये सारी स्थिति बयान करते समय विगलित होने का दौर आता है। उम्र में मेरी दादी जैसी बदोलन कभी मेरे तो कभी अभय निगम (कैमरामैन) के पैरों पर गिरी जाती है। 'सब राज-काज चलत दुनिया में, एक हमारे सुधि न ले है कोई...' उसकी शिकायत में भारतीय प्रजातंत्र का पोस्टमॉर्टम हो जाता है।




मेरे मन में एक साथ शर्मिंन्दगी और गुस्से के भाव आते हैं। व्य़वस्था के खिलाफ़ मेरे मन में एक और परत बैठ जाती है।

लेकिन भूख से जूझने वाली बदोलन अकेली नहीं है। चित्रकूट के पाठा इलाके में कई ऐसे घर हैं, जहां के बच्चों को खर-पतवार यानी चौलाई की रोटी खानी पड़ रही है। घर में आटे की कमी है, लेकिन भूखों की पेट का क्या करें...जंगली खर-पतवार को पीसकर आटे में मिलाकर खाने का बंदोबस्त किया जा रहा है। 

तीन-चार घरों में जाता हूं, महिलाएं सिल-बट्टे पर चौलाई कूटती हैं, उसे आटे में मिलाकर रोटियां तैयार करती हैं। दिखने में यह रोटीपालक-परांठे जैसा ही है, लेकिन घास की रोटी मूलतः घास की रोटी होती है। दिखने में चाहे जैसी हो...।


मुझे याद आते हैं दिल्ली के मॉल्स में घूमते वो बच्चे, कैप्री पहने बच्चे, कई सौ रुपये की आइसक्रीम पर हाथ साफ कर जाने वाले, सिनेमा देखने जाएं तो मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न के साथ कोक के कॉम्बो ऑफर के लिए सैकड़ों खर्च कर देने वाले, अपनी ही उम्र के न जाने कितने बच्चों की रोटी का हिस्सा खा जा रहे हैं। 



मौज-मजे के लिए पॉपकॉर्न खाने के आदी हो रहे देश में यह घटना दिल दहला देने वाली है।

बेपानी होते समाज की कहानी
यह भूख अकेली नहीं, इसका साथ दे रही है प्यास..।


यूपी-बुंदेलखंड के सात जिलों के कुल 4551 गावों में से करीब 3 सौ में ही साल भर पीने का पानी रहता है, जबकि 74 गांवों में सिर्फ एक महीने पीने का पानी मिलता है।

पानी के संकट का सबसे बडा असर पड़ता है महिलाओं पर। उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी का बड़ा हिस्सा पानी ढोने में गुज़र जाता है। 

पूरे बुंदेलखंड के लगभग 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं - या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं। 

पानी का संकट पूरे बुंदेल समाज को बेपानी बना रहा है। पूरा समाज पानी के लिए तरस रहा है। लोग गंदा पानी पीने के मजबूर हैं। 

आपने शायद पहले कभी देखा न होगा...कि एक ही गड्ढे से सूअर और इंसान दोनों ही पानी पी रहे हैं। लेकिन सड़क के एक ओर गड्ढे से पानी लेती लड़की को देखता हूं, पानी बेहद गंदा है। उससे भी जुगुप्सापूर्ण बात ये कि लड़की के ठीक पीछे पानी पी रहा सूअर दिखता है। 

सारी मानवीयता भूलकर मैं राजकुमार पर चिल्लाता हूं, शूट कर, शूट कर, विजुअल बना। वह पूरी ईमानदारी से अपना काम करता है। मेरे अंदर का आदमी धीमी मौत मर रहा है उस वक्त। उस वक्त मैं सिर्फ एक रिपोर्टर की तरह देख रहा हूं। 

बोतलबंद पानी के बढ़ते बाजार भारत में मैं अगर अमानवीय रुख अपना रहा हूं, तो यह घटना अमानवीयता से कुछ ज्यादा ही है। 

हम केन नदी तक पहुंचते हैं। कुछ लोग पीने के लिए पानी ढोकर ले जा रहे हैं। पानी बैलगाडियों से ढोई जा रही हैँ। किनारे गंदा पानी है, मछलियां मरी पड़ी है, बगल में बैल भी पानी में घुसे हैं, कुछ लोग नदी की बीच धारा से पानी ले कर आ रहे हैं, कमर भर पानी में घुस कर...इन लोगों को लग रहा है कि शायद नदी की बीच धारा से पानी लाने पर उसकी गुणवत्ता बोतलबंद पानी जैसी हो जाएगी। 

पानी ढो रहगी महिला शिकायत करती है, सारे नल और कुएं सूख चुके हैं। इसी पानी में मुरदे पड़े रहते हैं...लेकिन पानी कहीं और मिलता ही नहीं। पानी के इसी संकट ने कई बार आबरु का व्यापार भी करवाया है। एक बाल्टी पानी रके लिए एक महिला को अपनी इज़्ज़त तक दांव पर लगानी पड़ी। लेकिन वह कहानी अगली कड़ी में।




जारी....

Friday, August 5, 2011

बुंदेलखंड का सच-अंतर्गाथा चौथी किस्त


पिछली पोस्ट से जारी...

देश की प्रतिव्यक्ति आमजदनी से यूपी-बुंदेलखंड की प्रतिव्यक्ति आय तीन गुनी कम है। यह तो सिर्फ आंकड़ा है, जमीनी हकीकत ज्यादा बदतर है

गढा़ गांव से हम निकले तो बारिश ने इलाके की काली चिकनी लसेदार मिट्बुंटी से गठजोड़ कर लिया था। हमारी गाड़ी घुटनों (पहियों ) तक धंस चुकी थी। आसपास के गांववालों ने मदद की। खुद पुष्पेन्द्र भाई भी कपड़े घुटनों तक चढा कर मैदान में कूदे। कार को धकेलते घसीसते हम उसे पक्की सड़क तक ले आए। 


लेकिन इस कसरत में जितना तन थका, उससे ज्यादा मन थका था। वापसी में में सोचता रहा कि आखिर क्या वजह है इस इलाके में बढी हुआ आत्महत्याओं के पीछे। 


बैंक और साहूकारों के कर्जों को इऩ आत्महत्याओं के पीछे मानने की खासी वजहें हैं।

मिसाल के तौर पर, बांदा जिले के खुरहंड गांव के इंद्रपाल तिवारी को अपने बीघे जमीन के लिए ट्रैक्टर की कोई खास जरूरत नहीं थीलेकिन एक ट्रैक्टर एजेंट के दबाव में आकर उन्होंने 2004 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक से इसके लिए लाख 88 हजार रुपए कर्ज लिए। फसलों से बीज तक न निकल पाने के कारण उनकी हालत खस्ता थी इसलिए वे उसकी किस्तें नहीं चुका पा रहे थे। 

आखिरकार 2006 में झांसी स्थित मेसर्स सहाय एसोसिएट्स के कुछ लोग तिवारी के पास आए और खुद को बैंक का आदमी बताकर उनका ट्रैक्टर छीन कर ले गए। तिवारी ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से आरटीआई कानून के तहत बैंक से जानकारी मांगी। पता चला, बैंक ने रिकवरी एजेंसी सहाय एसोसिएट्स के जरिए ट्रैक्टर को तिवारी से लेकर लाख 99 हजार रु में नीलाम कर दिया था।
यह तो एक बानगी भर है...ऐसे कई मामले हैं, जिनमें बैंको का मनमाना रवैया सामने आता है।

बुंदेलखंड के ग्रामीण बैंकों की किसानों पर मौजूदा कुल बकाया रकम 4,370 करोड़ रुपये से ज्यादा ही है। यह 2010 के कुल बकाया रकम 3,613 करोड़ रुपये से 21 फीसदी ज्यादा है।

बांदा जिले में मार्च 2011 तक बैंक की रकम वापस करने में नाकाम रहने वाले कर्जदारों में एक लाख से ज्यादा लोग छोटे और सीमांत किसान हैं, और इन पर बैंकों का 453 करोड़ रुपया बकाया है। बांदा जिले में 31 मार्च 2011 तक खेती के काम के लिए दिए गए कुल बकाया कर्ज की रकम 740 करोड़ से ज्यादा थी।

पड़ोसी जिलों जालौन, ललितपुर, झांसी हमीरपुर, महोबा और चित्रकूट में भी स्थिति इतनी ही बदतर है। जालौन जिले में किसानों पर बैंको का करीब 866 करोड़, झांसी में 776 करोड़, ललितपुर में 645 करोड़, हमीरपुर में 575 करोड़, महोबे में 455 करोड़ और चित्रकूट में 311 करोड़ रुपये बकाया है।

आखिर, बुंदेलखंड की यह हालत कैसे हुई..। लोग बैंको का कर्ज क्यों नहीं चुका पा रहे।

कहते हैं कि प्रतिव्यक्ति आय से इलाके की खुशहाली का पता चलता है। बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले सात जिलों में चित्रकूट जिले में प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 9106 रुपये है। जबकि इन सात जिलों में बांदा में यह 14,117 रुपये, जालौन में 16,711 रुपये, महोबा में 15,744 रुपये, हमीरपुर में 15,984 रुपये, ललितपुर में 14,872 रुपये और झांसी में 21,397 रुपये हैं।

जबकि भारत के प्रतिव्यक्ति आय की बात करें तो जिस दौरान के आँकड़े मैंने दिए हैं, उस दौरान यानी 2009-10 में 46, 533 रुपये था। 2011 के फरवरी में देश की प्रतिव्यक्ति आमदनी 54 हजार रुपये के आसपास है। 

लेकिन प्रतिव्यक्ति आय का यह आंकड़ा भी महज एक झलकी भर है। ज़मीनी हक़ीक़त इन आकड़ों को और भी डरावना बनाते हैं...