Wednesday, January 30, 2008

तारीफ और बिहार

ताज़ा समाचार यह है कि योजना आयोग ने बिहार में हो रहे विकास के कामों की तारीफ की है। अगले वित्तीय वर्ष के लिए बिहार सरकार ने १३ हज़ार ८ सौ करोड़ रूपए की मांग की थी। आयोग इसमें से १३००० करोड़ जारी करने पर राजी हो गई है। कामकाज ठीक रहा तो आयोग ५०० करोड़ और भी देने के लिए रजामंद है। आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने माना कि कुछ खामियों के बावजूद बिहर में विकास के काम की तारीफ की जानी चाहिए।

इसाक मतलब है कि पिछले कुछ बरस में पहली बार बिहार में कुछ अच्छा हो रहा है। कुछ बंधुओं को लगेगा कि सिर्फ बिजली, पानी और सड़क ही विकास नहीं होता। विकास इससे भी बढ़कर होता है। क्या हो रहा है और क्या और अधिक होना चाहिए? विकास के काम में सरकार किसे पीछे छोड़कर भुलाती जा रही है। मिलनेवाले १३,५०० करोड़ अगले साल बाबुओं के गोदामनुमा पेटों में तो नहीं समा जाएंगे?

बहुत सारी चिंताएं हैं, लेकिन हमारी चिंता यह है कि केंद्र में बैठे लालू मोंटेक की इस बात पर न जाने क्या प्रतिक्रिया देंगे। कहीं समर्थन ही न वापस लें लें। चिर प्रतिद्व्द्वी की इतनी तारीफ? उनके हिसाब तो तारीफ के काबिल तो महज लालू और उनकी रेल है। मैनेजमेंट पढ़ाने का गुर जो आ गया है उन्हें। तो फिर आपकी क्या राय है इस मुददे पर?

चोटी के पत्रकार

निखिल मेरे बेहद करीबी दोस्त हैं। आजकल दाढ़ी बढ़ा रहे हैं। उनका तर्क है अब मैं गंभीर पत्रकार बनना चाहता हूं। ठुड्डी पर हाथ टिका कर फोटों खिंचवाने के मेरे सद्प्रयास से शायद उन्हें प्रेरणा मिली है। रेगिस्तान में उगी यत्र-तत्र की झाडियों के मानिंद उनके मुखमंडल पर भी यहां-वहां दाढ़ी उगती है।

मेरे एक और मित्र हैं। वे चोटी के पत्रकार बनना चाहते हैं। लिहाजा उन्होंने बाल बढाने शुरु कर दिए हैं। उनकों बुरी तरह यकीन है कि बाल जब पूरी तरह बढ़ जाएंगे, चोटी गूंथने के लायक हो जाएंगे तो वह चोटी के पत्रकार कहलाने लग जाएंगे। हमने तो कई बार एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया हमारे बाल चोटी लायक नहीं हुए।

वैसे, चोटी की वजह से कई बार धोखा हो जाता है। बेहद दूर तलक चोटी वाली एक कन्या का पीछा करने और पीठ पीछे-पीछे कन्या के मुखमंडल की सुंदरता का अनुमान प्रक्षेपित करने के बाद जब चेहरे का दीदार हुआ तो पता चला कि चोटी वाली शख्सियत बहन जी नहीं, भाई साहब हैं। सोचो, क्या हुआ होगा मेरे मन का ...।

हाल में खबर सुनी-पढी-देखी कि हमारे चोटी के तीन पत्रकार पद्मश्री पा गए। अब दुआ साहब को तो हम बचपन से सुनते-गुनते आ रहे हैं। उनके चुनावी विश्लेषण पर हमें चुनाव आयोग से भी ज़्यादा भरोसा है।

राजदीप भी ऐसे ही हैं, विशवसनीय। बरखा जी से भी खबरों की बरसात भी हमने देखी। जब उन्होंने उचारा कि टेरर एन्ड वॉयलेंस रिटर्न्ड इन वैली। ( श्रीनगर में मोटर साइकिल बम विस्फोट के बाद) तो हमने यह जानते हुए भी टेरर ौर व़यलेंस वैली से कभी भी कहीं नहीं गया था। हमने मान लिया, चलो वापसी हो गई हिंसा की। लेकिन सरकार की खाल खींच लेने की ठसक भरी पत्रकारिता क्या सरकारी सम्मान के बाद भी बची रहेगी। क्या कहीं से यह नहीं लगेगा कि हम जिस सरकार को बे-कार बता रहे हैं। छब्बीस जनवरी को इसी ने हमें पद्म सम्मान दिया था? आगे से इनकी खबरों को भी इसी तरह पढ़ पाएंगे हम लोग?

सादर, ससम्मान
गुस्ताख

Tuesday, January 29, 2008

शर्म हमको मगर नहीं आती..


हाल के दिनों में ब्लॉग की दुनिया से लेकर टीवी और अखबारों तक एक बहस तेज़ रही है कि मादा होने का दर्द क्या है? मोहल्ले पर एक दीप्ति दूबे हैं, वो अपनी दर्द बयां करती नज़र आईं। शर्म आई .. सिर्फ मर्द जात पर नहीं .. पूरी इंसानियत पर कि यार एक ही गाड़ी के दूसरे पहिए के साथ ऐसा सुलूक क्यों?

लेकिन ग़ौर से देखें बंधु तो स्त्री जाति पर ज़ुल्म ढाने में हमारा यानी हमारी कथित उच्च आदर्शों वाली भारतीय संस्कृति का बड़ा शानदार ट्रैक रेकॉर्ड रहा है। हमारे यहां कहावत है कि यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता। यानी जहां नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है। मान्यवर, जहां नारियां होंगी वहां देवता तो रहेंगे ही। देवताओं के मन में नारी को लेकर बडी शानदार अनुभूति रही है और गाहे-बगाहे हमारे देवता नारी को इस्तेमाल करने की चीज़ जानकर पर्याप्त मात्रा में बल्कि पर्याप्त से भी ज़्यादा उपभोग करते रहे हैँ।

ऐसा हमारी सभ्याता में तो है ही दुनिया की सभी सभ्यताओं में है। महिलाओं को देखते ही सभी संस्कृतियों के देवता बराबर रूप से स्खलित हो हैं। मामला डेन्यूब के देवता सुवोग का हो, जो देवी परंती के साथ संभोग में डूबे हैं या अपने परमपिता ब्रह्मा का जो अपनी बेटी सरस्वती पर आसक्त हो गए। औषधियों, तारागणों और ब्राह्मणों का देवता चंद्रमा तो देवताओं के गुरु वृहस्पति की पत्नी तारा पर इतना आसक्त हो गया कि उसने तारा को इंद्र के राजसूय यग्य से अपहृत कर लिया और उनके साथ बलात्कार करता रहा।

अब हमारे अंदर देवताओं वाले धर्म का पालन करने की इतनी अद्मय इच्छा है तो हम तो उनके स्त्री संबंधी विचारों का भी पालन करेंगे ही। क्या हमारे धर्म को बदलाव की ज़रूरत नहीं है, स्त्री से हमारे आचरण को लेकर?

(दीप्ति से सहानुभूति जताकर खुद को महिला आंदोलन के समर्थक मानने वाले कई आंदोलनकारी खुद कितने दूध के धुले हैं, यह भी गुस्ताख को अखरता है।)

Sunday, January 27, 2008

गणतंत्र पर नायिकाओं की राय


इस बार बीकानेर जाने का मौका हाथ लगा। आधे घंटे का खास कार्यक्रम बनाने के वास्ते। लौटते वक्त जयपुर में आउटलुक पढ़ रहा था। सभी चीज़ों के साथ पत्रिका ने एक बहस की शुरुआत की है।

बहुत पुरानी और घिसी हुई बहस है जनाब.. देश में संसदीय प्रजातंत्र अच्छा या, अध्यक्षीय प्रजातंत्र। बहरहाल, बहस में हिस्सा लेने के लिए जिनके इंटरव्यू लिए गए थे। उससे मुझे बहुत अजीब सा लगा। आंखों को अच्छा लगा लेकिन दिल को नहीं। टीआरपी के लिए टीवी वालों को गरियाने में अत्यंत अग्रणी रहने वालों ने इस मसले पर ज्यादातर अभिनेताओं का इंटरव्यू लिया है। उनमें तो पांच बिंदास बालाएं हैं।

इनमें से एक अभिनेत्री के बारे में मेरा निजी अनुभव है कि उनका जेनरल नॉलेज अत्यंत उच्च कोटि का है। उन्होंने एक बार महाराष्ट्र की राज़धानी राजस्थान बताया था। मैं हैरान हूं कि आडवाणी, पवार, चंद्रबाबू नायडू, लालू, करुणानिधि, जयललिता, और अगली-पिछली पंक्ति के अंतहीन नेताओं के होते इन मादक मादाओं के साक्षात्कार की क्या महती आवश्यकता आन पड़ी थी। महान पत्रकार संपादक महोदय इस विषय पर मुझ नादान का मार्गदर्शन करें, तो अतीव कृपा होगी।

सादर,
गुस्ताख़

Saturday, January 19, 2008

पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण मिलेगा?


संसद के शीतकालीन सत्र के आखरी दिनों में जस्टिस रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश करने और उस पर जल्द ही कार्रवायी करने की मांग उठी। इस पर किसी भी दल के मुस्लिम सांसदों ने उन्हें समर्थन नहीं दिया। इस पूरी प्रक्रिया पर प्रतिक्रिया जताते हुए ज़ी न्यूज के वरिष्ठ रिपोर्टर युसुफ अंसारी ने भाई संदीप के ब्लाग पर एक आलेख लिखा है।

अंसारी ने मिश्र आयोग की सिफारिशों का पुरज़ोर समर्थन करते हुए लिखा है कि- अगर ये सिफारिश अमल में आती है तो मुसलमानों की एक बड़ी आबादी को इसका सीधा फायदा पहुंचेगा। मुसलमानों में जुलाहा ( अंसारी ) , धोबी , हलालखोर , कुम्हार , बंजारे , फकीर समेत करीब चालीस से पचास जातियों के लोग दलित आरक्षण के तहत मिलने वाली तमाम सुविधाओं के हक़दार हो जाएंगे। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण लोकसभा और विधानसभा सीटों पर मुसलमानों के चुनाव लड़ने का रास्ता भी खुल जाएगा। इससे हर क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन की समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी।

यहां पर मेरा सवाल है कि क्या राजनीतिक कद बढाने से पिछड़े मुसमानों को वाकई फायदा होगा और मुसलमानों में दलितों की स्थिति को दलित क्यों माना जाए, जबकि उनका धर्म ऐसे किसी भेदभाव से इनकार करता है। इस मज़हब की खासियत है कि यह बराबरी और भाईचारे पर टिका धर्म है। ऐसे में अगड़े और पिछड़े मुसलमानों का सवाल ही बेमानी हो जाता है।

भई... मुझे तो सख्त आपत्ति है। बाकी सुविधाओं के लिए शरीयत का हवाला देने वाले लोग आरक्षण के लिए अपनी जाति बताने पर क्यों उतर आए हैं? और इस बात की क्या गारंटी है कि आरक्षण मिलने के बाद इसका फायदा वंचितों के बदले फुरकान अंसारी जैसा मलाईदार तबका नहीं उठा लेगा? और सोचिए ज़रा कि आखिर अंसारी जैसे पिछड़े(?) मुसलमानों ने अपनी बिरादरी के हक़ में अब तक किया क्या है?

वहीं, एक सवाल और है कि आरक्षण का फायदा तो आप संविधान के तहत लेना चाहते हैं, लेकिन बाकी मसलों पर आपका धर्म आपको इस बात की इजाज़त नहीं देता। मसलन, एकसमान नागरिक संहिता आपको अपने अधिकारों का हनन लगता है, बहुविवाह आपको सांस्कृतिक परंपरा दिखती है, विवाह के पंजीकरण पर आपका रवैया ढुलमुल ही है। सिर्फ जाति आधारित आरक्षण के मामले में आप संविधान का हवाला क्यों देना चाहते हैं, यहां बराबरी की बात करने वाले धर्म को क्यों नज़रअंदाज करना चाहते हैं आप?

नहीं, पहले फैसला कीजिए कि आप मुसलमानों को मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं या पिछड़ों को मिलने वाली सुविधाओं का। दोनों हाथ में लड्डू नहीं चलेगा। वैसे आपकी मांग नाजायज़ भी नहीं मानी जा सकती, क्यों कि संसाधनों पर पहला हक़ तो बकौल प्रधानमंत्री, आपकी कौम का ही है। अपनी कौम और जाति के लिए आवाज उठाना बेहद ज़रूरी है युसुफ भाई लेकिन अपनी कमियों को दूर करना उससे भी ज़्यादा ज़रूरी।

मुस्लिम वोट बैंक लिए एक बेहतर कौम -जो कम से कम जाति के स्तर पर बराबरी की बात तो करता है- जातियों में बांटना एक बेहतर विकल्प नहीं ही है।

वे आगे कहते हैं, आबादी के हिसाब से महिलाओं को आरक्षण की पुरज़ोर वकालत करने वालों का ध्यान कभी इस तरफ नहीं गया है या फिर इतनी बड़ी आबादी को माकूल राजनीतिक प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा है। महोदय इसके जवाब तो आपको खुद पता होने चाहिएं। जब तक कोई बिरादरी चाहे हिंदुओं की हो या फिर मुसमानों की , औरतों को घर से बाह निकल कर खुद के विकास करने के लिए रास्ता साफ नहीं करेगी, तबतक आंकड़े आपके मनमाफिक नहीं हो पाएंगे।

Friday, January 18, 2008

उत्तर भारतीय बनाम दक्षिण भारतीय ब्राह्मण

उत्तर भारत का ब्राम्हण, क्यों नहीं दक्षिण के अपने सजातीय की तरह विकास कर पाया? मुझे लगता है कि घूम-फिरकर इसकी वजह वहीं जातीय जडता है जिसका शिकार उत्तर का ब्राह्मण रहा है।

सवाल यहां यह है कि ऐसा उत्तर में क्यों हुआ, जवकि ब्राह्मण तो दक्षिण के भी समान रुप से कूप-मंडूक और ओर्थोडोक्स थे। यहां मुझे लगता है कि संख्याबल काफी महत्वपूर्ण रहा है ओर दूसरा है अंग्रजों और अंग्रेजी का सानिद्ध्य। यह बात लगभग स्थापित हो चुकी है कि आर्य बाहर से गंगा की घाटी में आए और तब वो दक्षिण की तरफ गए। जाहिर सी बात है कि आर्यों के स्वयंभू नेता ब्राह्मणों की आबादी उत्तर में ज्यादा है और यहीं आवादी उनकी जडता के लिए उत्तरदायी है।

दक्षिण में कम आर्यन और ब्राह्मण आवादी की वजह से सामाजिक परिवर्तन पहले हो गया और पचास के दशक में ही व्राह्मणों को सत्ता से बेदखल कर दिया गया या वो उचित स्तर पर आ गये। लेकिन उत्तर में एसा नहीं हो पाया।

दक्षिण में पिछडों और दलितो के सशक्तिकरण ने शिक्षा से लेकर तमाम क्षेत्रों में बढत हासिल कर ली और ब्राह्मण वर्ग गांव छोड कर पचास के दशक में ही शहर में जा बसा। ये भी इस वर्ग के लिए फायदे के सौदा हो गया। भागा था वो ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन के डर से, लेकिन मद्रास से लेकर पूना और दिल्ली तक के तमाम आधुनिक ज्ञान के मंदिर उसके लिए खुलते चले गए। यह वर्ग तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण के चलते सिविल सेवा समेत तमाम केंद्रय सेवाओं में भर गया। और जव नव्वे के दशक में दक्षिण के राज्यों ने आइटी और उदारीकरण का फल चखना शुरु किया तो फिर से दक्षिण के ब्राह्मणों की चान्दी हो गयी।

तुलना किजीए, उत्तर के ब्राह्मणों का इससे...नव्वे के दशक तो तमाम झा जी, तिवारी जी और दूवे जी खेती ही कर रहे थे। कुछ लोग सरकारी सेवा में थे..और बाकी की हालत अपने पिछडे समकक्षों से थोडी ही अच्छी थी और इसकी वजह थी कि जमीन पर इनका कव्जा था और पिछडो के पास जमीन न के बराबर थी।

यहां ब्राह्मण से मेरा मतलब तमाम ब्राह्मण-टाइप जातियों से है। हां, उत्तर में बंगाली ब्रह्मण कुछ अच्छे थे और इसकी बहुत कुछ वजह उनका अंग्रेजों से संपर्क, पहले नवजागरण और वामपंथ का उस राज्य में प्रभाव होना हो सकता है। बाद बाकी तो उत्तर का ब्राह्मण अपने जडता,सामंती मानसिकता और समय के साथ न चलने की प्रवृति के कारण सिर्फ इस काविल रह गया कि उसे कोई भी लालू या मायावती आकर उसे गलिया सकता था। और यह होना ही था क्योंकि यह इतिहास का एक आवश्यक अध्याय था दक्षिण के ब्राह्मणों ने भी इसे पचास के दशक में झेला था।

जो पीढीगत बढत दक्षिण के ब्राह्मणो को मिल गयी है वह शायद इतना बडा गैप बना गया है कि अब उत्तर के ब्राह्मण, दक्षिण के ब्राह्मणों के साथ तुलना के योग्य नहीं है। वो इंफोसिस और सत्यम बनाने के स्टेज में है जवकि हमारे पास ढंग के इंजिनियरिंग कालेज तक नहीं।

हालत तो ये है कि अव दक्षिण के पिछडे भी उत्तर के अग़डों से आगे हैं। और मजे की बात तो यह है कि उत्तर में भी सत्ता में रहते हुए तमाम व्राह्मण या सवर्ण मलाई नहीं खा पाए- अलवत्ता बदनाम सब हो गए। कुछेक हजार ठेकेदार किस्म के ब्राह्मण या राजपूत ही माल बना पाए-हां मूंछे सबने जरुर फरकाई थी।

<(सुशांत झा इनफॉरमेशन टीवी में काम करते हैं। राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर उनकी गहरी पकड़ है। उनका यह वक्तव्य दिलीप मंडल के मोहल्ले पर दिए एक पोस्ट की प्रतिक्रिया या कहे समर्थन में आया । हमें लगा कि यह गुस्ताख़ की सोच से मेल खाती है। ऐसे में सुशांत जी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए हम एक बहस की शुरुआत करना चाह रहे हैं।)

व्यंग्य क्या है?

सभी देशों में व्यंग्य साहित्य के एक तीखे औजार के रूप में जाना जा रहा है। यह लेखकों को एक नई पहचान देती है। मार्क ट्वेन, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, चेखव और भारतेंदु से लेकर परसाई तक अपनी व्यंग्य शक्ति के लिए मशहूर रहे हैं। लेकिन ये तो कलात्मक साहित्य की बात हुई। दूसरी विधाओं खासकर राजनीतिक साहित्य में भी व्यंग्य एक मारक शक्ति है।

मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के साहित्य में तीखे व्यंग्य मिलते हैं। मार्क्स की 'पवर्टी ऑफ फिलॉसफी','एंगेल्स की ड्यूरिंग...' और लेनिन के विभिन्न लेखों में ऐसी शक्ति है, जो कई व्यंग्यकारो के यहां से नदारद है। इससे साबित होता है कि व्यंग्य सिर्फ साहित्यिक भाषा के कमाल का नाम नहीं है। तब प्रश्न यह उठता है कि व्यंग्य क्या है और कहां से आता है?

व्यंग्य क्या है?

व्यंग्य अंग्रेज़ी के सटायर शब्द का हिंदी रूपांतर है। और इस आधार पर किसी व्यक्ति या समाज की बुराई को सीधे शब्दों में न कह कर उल्टे या टेढे शब्दों में व्यक्त किया जाना ही व्यंग्य है। बोलचाल में इसे ताना, बोली या चुटकी भी कहते हैं। हास्य, उपहास, परिहास, वाक्-वैदग्ध्य, पैरोडी, वक्रोक्ति, उपालंभ, कटाक्ष, विडंबना, अर्थ-भक्ष्य, ठिठोली, आक्षेप, निंदा-विनोद, रूपक, प्रभर्त्सना, स्वांग, अपकर्ष, चुहल, चुटकुला, मसखरी, भडैंती, ठकुरसुहाती, मज़ाक, दंतनिपौरी, गाली-गलौज ऐसे अनेक शब्द हैं, जो व्यंग्य को कमोबेश संप्रेषित करते हैं। फिर भी, इनमें से कोई शब्द व्यंग्य के व्यापकत्व को पूरी तरह निरूपित नहीं कर पाता। प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी बिंदु पर व्यंग्य के समान होकर भी किसी अन्य बिंदु पर व्यंग्य से भिन्न हो जाता है।

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक, व्यंग्य वह पद्यमय या गद्य रचना है, जिसमें प्रचलित दोषों या मूर्खताओँ का कभी-कभी कुछ अतिरंजना के साथ मज़ाक उड़ाया जाता है। इसका अभीष्ट किसी व्यक्ति विशेष या समूह का उपहास करना होता है। यानी, यह एक व्यक्तिगत आक्षेप के समान होता है।

इनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के मुताबिक, साहित्यिक दृष्टि से व्यंग्य उपहासास्पद या अनुचित वस्तुओं से उत्पन्न विनोद या घृणा के भाव को समुचित रूप से अभिव्यक्त करने का नाम है। बशर्ते, उस अभिव्यक्ति में हास का भाव निश्चित रूप से विद्यमान हो तथा उक्ति को साहित्यिक रूप मिला हो। हास्य के अभाव में व्यंग्य गाली का रूप धारण कर लेता है। और साहित्यिक विशेषता के बिना वह विदूषक की ठिठोली मात्र बनकर रह जाता है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने कहा है कि आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर उसमें हास्य उत्पनना करना ही व्यंग्य है। वहीं डॉ हजारी प्रसाद द्विदेदी कबीर में लिखते है कि व्यंग्य तभी होता है, जब कहने वाला अधरोष्ठ में हंस रहा होता है, सुनने वाला तिलमिला उठा हो, फिर भी जवाब देना खुद को उपहासास्पद बना लेना होता है। वैसे व्यंग्य में क्रोध की मात्रा आ जाए तो हास्य की मात्रा कम हो जाती है।

मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई अपनी किताब सदाचार का ताबीज की भूमिका कैफियत में व्यंग्य को जीवन की आलोचना करने वाला मानते हुए इसे विसंगतियों,मिथ्याचारों और पाखंडो का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। जीवन के प्रति वंय्ग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है, जितनी कि गंभीर रचनाकार की। बल्कि ज़्यादा ही। इसमें खालिस हंसना या खालिस रोना जैसी चीज़ नहीं होती।

यानी, व्यंग्य का वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराईयों और कमजोरियों की हंसी उड़ाकर पेश करना होता है। मगर इसमें तहज़ीब का दामन मजबूती से पकड़े रहना जरूरी है। वरना व्यंग्यकार भडैंती की सीमा में प्रवेश कर जाएगा। फिर कुछ विद्वानों ने व्यंग्य में हास्य को एक अनिवार्य तत्व माना है तो कुछ ने नहीं। आखिर वास्तविकता क्या है? हास्य और व्यंग्य में आपसी रिश्ता क्या और कैसे है? हास्य और व्यंग्य की विभाजक रेखा आखिर क्या है? और व्यंग्य का काव्यशास्त्रीय आधार क्या है है भी या नहीं?

इसकी चर्चा अगले पोस्ट में करूंगा..
जारी

Wednesday, January 16, 2008

पिछड़ गई एकलव्य


लो जी लो, एकलव्य ऑस्कर की दोड़ में पिछड़ गई। गुस्ताख को पहले ही पता था। भारत तक में जिसे लोगों ने बोरिंग और बेकार बता दिया था, वह फिरंगियों को कैसे लुभा पाएगी? आज तक रहस्य ही है कि एकलव्य में ऐसी क्या खास बात थी कि उसे ऑस्कर के लिए भेज दिया गया?


एकैडमी के विदेशी भाषा श्रेणी में फिल्म भेजने के लिए जो मारकाट मची थी, उस से आप सभी परिचित हैं.धर्म और एकलव्य ऐसे टकराए थे मानो एकैडमी में फिल्म नहीं गयी तो फिल्म ही बनाना बेकार है


फिलहाल आप को बता दें के इस साल ६३ देशों की फिल्मों को एंट्री मिली थी, उनमें से ९ पहले चरण में नामांकित की गयी हैं.२२ जनवरी को इनमें से ५ की अन्तिम सूची जारी की जायेगी।


चलिए अब बात करते हैं कि इस साल कौन सी फिल्म ऑस्कर के लिए भेजी जा सकती है। आप अपनी राय हमें बताएँ-

Tuesday, January 15, 2008

फिल्म समीक्षा- कमाल हैं कमल


पोंगल के दिन रिलीज होने वाली कमल हासन की दस भूमिकाओं वाली फिल्म दशावतार का प्रदर्शन अब टल गया है। यह अब अप्रैल में किसी दिन रिलीज़ होगी। तारीख अभी तय नहीं हुई है।

कमल हासन ने इससे पहले कई बार अवतार लेकर दर्शकों को हंसाया-रूलाया है। दशावतार की सबसे बड़ी खासियत है, कमल की दस भूमिकाएं। फिल्म में अभिनेत्री असिन दो भूमिकाओँ में हैं। साथ में जयाप्रदा भी हैं।

मादक मादाओं को देखने के लिए ललायित लोग बोनस के तौर पर मल्लिका सहरावत के कटावदार ज़िस्म से नयनसुख पा सकते हैं। यह हरियाणवी बाला- जैसा कि नया ट्रेंड उभरा है- जिस्म की ठीक-ठाक नुमाइश करने के लिए एंटी रोल में है। मल्लिका सीआईए एजेंट की भूमिका में हैं।

कमल ने अपने दस विभिन्न किरदारों के लिए अपनी दस अलहदा किस्म की आवाजे इस फिल्म में दी हैं।

यह फिल्म एक साथ तमिल,तेलुगू और हिंदी में रिलीज़ की जाएगी। फिल्म के एक्शन सीक्वेंस हॉलिवुड के स्टंट डायरेक्टर जूप ने फिल्माए हैं। जिसकी शूटिंग मलयेशिया, अमेरिका और चिदंबरम् में की गई। फिल्म में ऐसी कुछ खासियतें हैं, जिन्हें देखना अपने-आप में शानदार अनुभव होगा। मसलन, चेन्नई में बनाया गया ह्वाइट हाउस का सेट और नौका दौड़ का दृश्य जिसकी शूटिंग में १००० नावों को शामिल किया गया। फिल्म के एक दृश्य में सुनामी भी है, जो दर्शकों को रोमांचिक करेगी।


फिल्म के पहले तीन मिनट की लागत तीन करोड़ रूपये आई है। कमल हासन ने फिल्म में ब्राह्मण, बौना, साइंटिस्ट, फाइटर, श्रीलंकाई तमिल, टूरिस्ट गाइड, बूढ़ी औरत, डाकू, युवती, और राजा के किरदार निभाए हैं। अंदाज़ लगाया जा रहा है कि इसमें साइँटिस्ट अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से, और एक किरदार दलेर मेंहदी से मिलता-जुलता है।


यारों को याद होगा कि इससे पहले हिंदी सिनेमा में नौ किरदार करने का सेहरा संजीव कुमार के सर बंधा था, जिसमें जया बच्चन उनके साथ थीं, वह फिल्म थी - नया दिन ,नई रातें। महान अभिनेता अमिताभ बच्चन ने भी एक फिल्म में तीन किरदार ही निभाए हैं, और वह फिल्म थी- महान। वैसे डबल रोल तो उन्होंने बहुतेरे किए। लेकिन ऐसा प्रयोग (कमल) जैसा अभी तक करने का हिमाकत नहीं की।


कमल की हर फिल्म चाहे नायकन हो, पुष्पक हो, हिंदुस्तानी हो , अभय या फिर मुंबई एक्सप्रैस..उन्होंने हमेशा कुछ नया (मेकअप) करने की कोशिश की है। दरअसल दर्शक थियेटर उनके अभिनय के साथ उनका मेकअप भी देखने जाते हैं। तमिस सिनेमा की बात करें तो इस फिल्म से कमल शिवाजी गणेशन के रेकॉर्ड को भी तोड़ देंगे, जिन्होंने इससे पहले फिल्म नवरात्रि में नौ किरदार निभाए थे।



निर्देशक- के एस रविकुमार

संगीत- हिमेश रेशमिया

सिनैमेटोग्राफी- रवि वरम्मन

एडिटिंग- अस्मित कुंदर


मंजीत ठाकुर

Monday, January 14, 2008

एक ठो भारत रत्न हमको भी..

आजकल भारत रत्न को लेकर देश भर में मोल-तोल हो रहा है। पहले आडवाणी जी ने अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वी को भारत रत्न देकर शंटिंग में डालने का अभियान चलाया। फिर माया ने कहा सवर्ण-मनुवादी नेता को मिले तो कांशी राम को क्यों नहीं? वामपंथियों ने कहा इतिहास में बर्बर कृत्य के लिए जिम्मेदार भाजपाई कहीं इस रत्न को न ले उड़े.. तो यह रत्न उनके ऐतिहासिक भूल करने वाले नेता ज्योति बसु को ही मिलना चाहिए। इस बार सही टाइमिंग से रत्न मांग लो वरना पता चला कि ऐरे-गेरे को मिल जाए तो दुबारा ऐतिहासिक भूल हो जाए।

फिर मांगने वालों ने चौधरी चरण सिंह और बहादुर शाह जफ़र तक के लिए रत्न मांग डाला है। हम तो कहते हैं जफ़र ही क्यों अकबर समेत हर मुगल बादशाह को, भारत रत्न दो। मुस्लिम वोट बैंक पक्का। हर्षवर्धन और समुद्रगुप्त को दे दो, हिंदू खुश। जमशेद जी टाटा को दो, पारसी खुश। गुरु नानक, साईं बाबा, अमीर खुसरो.... लिस्ट तो अंतहीन है। क्योंकि हमारा देश महापुरुषों का देश है,ऐसी मान्यता है।

कल हिंदुस्तान अखबार में सुधीश पचौरी ने भी मांग लिया है। तो हम क्या सौतेले हैं? हम भी भारत के ही नागरिक हैं। ऐसा करों हमको भी दे ही डालों। हमारा योगदान मत पूछो। करीबी दोस्त कहते हैं कि ऊंगली करने में हम वामपंथियों से भी आगे हैं। तो भारत रत्न तो इस आधार पर हमको भी मिलना ही चाहिए ना।

देखो ना देखो.. चश्मे के साथ हम कितने बडे बौद्धिक नज़र आते हैं। हाथ को गाल पर थामे.. लगता है कि जेपी की तरह कोई संपूर्ण क्रांति की बात सोच रहे हैं। ऐसा नहीं लगता कि सारी दुनिया का बोझ हमारे ही कपार पर है? हमारी आंखों में आपको सारी दुनिया की चिंता नज़र नही आती? तो दुनिया के लिए चिंतित मेरे जैसी शख्सियत के लिए भारत रत्न तो क्या शांति और साहित्य का नोबेल भी कम है।

आप सब हर चैनल को एसएमएस करके बताएं कि यह जो गुस्ताख है, यह भारत रत्न पाने का सही बंदा है। रत्न-वित्न चाहे जितने बांट लो, गोटी लाल करते जाओ, लेकिन एक ठो रत्न इधर भी फेंक देने में क्या घट जाएगा?

Friday, January 11, 2008

चंद परिभाषाएं

छाया में बैठ नोट की
लिक्खे वह छायावादी है।
हालावादी को ह्विस्की,रम,ठर्रा
सब की आज़ादी है।

वह रहस्यवादी कबीर से,दादू से
सचमुच क्या कम है
करे विवेचित जो रहस्य
यह थरमस की क्यों चाय गरम है?

अपनी तो ये गिनी-चुनी
परिभाषाएं हैं सीधी-सादी
श्रोता सुनकर जिन्हे पलाएं
कवि है वही पलायनवादी

लाल रोशनाई से लिखकर
पन्ने लाल कर देता
रक्त बहा देता काग़ज़ पर
वीर काव्य का सही प्रणेता

प्रगतिवाद का कवि वह है
जो संयोजक पर घूंसा ताने
सर्वोदयवादी वह है जो
पर की कविता अपनी माने

है प्रतीकवादी लिक्खे जो
उल्टे-सीधे नए प्रतीक
लाल सूर्य जो उलट गई
हो उगलदान में रखी पीक

और अकविता वाले कहते क्या
उनकी पहचान यही है
कवि मैं हूं इसका, लेकिन
यह मेरी कविता कत्तई नहीं है

श्रृंगारिक कविता लिखता कवि
बैठ किसी ड्रेसिंग टेबुल पर
विरह व्यथा लिखते कविगण
सभी ओर से धूनी रमाकर

मंजीत

Thursday, January 10, 2008

नीरज सिंह को दूरदर्शन पुरस्कार

नीरज सिंह को दूरदर्शन पुरस्कार एक अच्छी खबर.. नए साल पर इससे बेहतर खबर हमारे लिए नहीं हो सकती थी। नीरज सिंह ने भारतीय जनसंचार संस्थान और रेडियो-टीवी बैच २००४-०५ का नाम शिखर पर ले जाते हुए लाइव डिस्पैच के लिए इस साल का दूरदर्शन पुरस्कार जीता है। अगले हफ्ते नीरज मुंबई में ये पुरस्कार ग्रहण करेंगे।

नीरज बेहद वज़नदार रिपोर्टर हैं। हम जैसे हल्के नहीं.. बेहद दुर्बल क्षणों में भी उनका वजन दो-तीन मन से अधिक होता है। यह पुरस्कार नीरज को किसलिए यानी किस लाइव के लिए दिया गया है, यह तो बाद में पता चलेगा। मुमकिन है कि कुंभ मेले की कवरेज में शानदार लाइव के लिए दिया गया हो।

मथुरा के नीरज सिंह ने २००४-०५ बैच में आईआईएमसी से रेडियो-टीवी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा किया। डीडी न्यूज में ही तीन महीने तक इंटर्नशिप के दौरान ही उनका झुकाव अपराध पत्राकरिता की तरफ हो गया। नीरज ने अनिल पूनिया के साथ कई बड़े हादसे कवर किए। फिर अचानक ही ट्रैक बदलते हुए और पहले से जमे पत्रकारों को धता बताते हुए उन्होंने सांस्कृतिक पत्रकारिता भी की। कुंभ की कवरेज उसी की परिणति थी। फिर सांस्कृतिक पत्रकारिता मे एक माह बिताने के बाद नीरज ने राजनीतिक पत्रकारिता का रुख किया है। और धडल्ले से उत्तर प्रदेश और गुजरात के चुनाव कवर किए। नीरज सिंह अपने भारी शख्सियत (उनका वजन ९५ किलोग्राम के आसपास है) के साथ शिगूफों के लिए और जुगाड़ तकनीक में माहिर हैं। नहीं हम ये नहीं कह रहे कि यह पुरस्कार भी उसी तकनीक का परिणाम है। नीरज बधाई हो। खूब फलिए मगर फूलिए मत।

Wednesday, January 9, 2008

साधुवाद के पात्र हिंदी ब्लागर

इस ब्लॉग को पढने वाले सभी साथियों को नए साल की दिल से शुभकामनाएं... लेकिन शुभकामनाएं अगर फलित होती तो दुनिया के नक्शे पर हमारी भी कुछ जगह होती क्योंकि कई इष्ट मित्रों ने हमें नए साल के तोहफे के तौर पर वरदान दिया कि तुम बहुत आगे जाओ, खूब नाम कमाओ.. पर लक्षण दीख नहीं रहे।
ईश्वर ने धरती पर भेज दिया है..शिकायत किससे करता ? आपसे कह दूं तो बोझ हल्का हो जाए दिल का। मन कर रहा है रो दूं.. हे भगवान.. इंसान बना के ही भेजना था? बुद्धिजीवी क्यों नहीं बनाया? लिखते हुए भी छद्म रूप से भावुक हुए बिना सभी ब्लागरों को एक बार फिर शुभ कामनाएं..सभी हिंदी ब्लागर साधुवाद के पात्र हैं। उम्मीद है कि आगे भी आप हिंदी में लिखते हुए हम अनपढ़ों का मार्गदर्शन और हिंदी का उद्धार करते रहेंगे।

आपका ही,मंजीत

लो मैं आ गया...


नया साल आ गया। मैं देर से सही लेकिन दिल से आप सबों को नए साल की शुभकामनाएं दे रहा हूं। नहीं..इन शुभकामनाओ में कोई गुस्ताखी नहीं.. दिल से कह रहा हूं..। वैसे गुस्ताखियां जारी रहेंगी बदस्तूर..


विपदा से हारा नहीं झेला उसे सहर्ष

तूफ़ानों को पार कर पहुँचा है नववर्ष


नभ मौसम सागर सभी करें कृपा करतार

जंग और आतंक की पड़े कभी ना मार


बागों में खिलते रहें इंद्रधनुष के रंग

घर घर में बसता रहे खुशियों का मकरंद


मन में हो संवेदना तन में नव स्फूर्ति

अपनों में सदभावना जग में सुंदर कीर्ति


उन्नति का परचम उड़े ऐसा करें विकास

संस्कार की नींव पर जमा रहे विश्वास


साल नया गुलज़ार हो–मिटें सभी के दर्द

मेहनत से हम झाड़ दें गए साल की गर्द


अभिनंदन नव वर्ष का मंगलमय हो साल

ऋद्धि सिद्धि सुख संपदा सबसे रहें निहाल


(पूर्णिमा वर्मन)