Saturday, September 24, 2011

अजीब `मौसम` है ये , बिखरा-बिखरा बिगड़ा-बिगड़ा सा...

मौसम किसी का भी मूड बिगाड़ने की काबिलियत खुद में समेटे है। कॉमेडी , ट्रेजेडी, रोमांस का ये दमघोंटू कॉकटेल पंजाब के मल्लूकोट, कश्मीर , अहमदाबाद, स्कॉटलैंड और स्विटजरलैंड के बीच दर्शकों को चकरघिन्नी के माफिक नचाती है।

पंकज कपूर की इस चिरप्रतिक्षित फिल्म से लोगों को किसी भी मौसम और मूड में निराशा ही हाथ लगेगी, अभिनय के महारथी पंकज कपूर फिल्म निर्देशन के अखाड़े में पस्त हो गए। पंजाब और कश्मीर से शुरु हुआ फिल्म का सफर अहमदाबाद जाकर ही खत्म हुआ ।


जादू की कमी इस मौसम में, पंकज कपूर ने निराश किया

शाहिद और सोनम के गंगा-जमुनी प्यार की गाड़ी जब भी रफ्तार पकड़ती , जहरीला जमाना अयोध्या , बंबई, कारगिल , 9/11 की शक्ल में प्यार के इन पंछियों को मानो साजिशन विपरीत दिशा में उड़ने को मजबूर कर देता... खैर मासूम रज्जो के अनवरत प्रेम ने भी कुछ कम नुकसान नही पहुंचाया ।

अन्त तक आते आते दर्शकों का दिल घबड़ाने लगा कि शाहिद-सोनम के अटूट प्यार को दिल्ली हाइकोर्ट की नजर न लग जाए... पंकज कपूर को धन्यवाद कि आशंका आशंका ही रही और शाहिद-सोनम के प्यार को दिल्ली की नजर नही लगी।

शाहिद ने अदाकारी के जलवे, लेकिन फिल्म घटनाजाल में उलझी

हकीकत फिल्म के एक मशहूर गाने की लाइन है- कहीं ये वो तो नही , लेकिन दर्शकों के सामने दूर-दूर तक ऐसा कोई कंफ्यूजन नही। दर्शक पंकज कपूर से काफी कुछ ज्यादा की उम्मीद लगाए थे, और खासकर तब जबकि मुख्य किरदार के चोले में खुद उनके सुपुत्र हों ।




पोस्ट स्क्रिप्ट-- कुछ घोर टाइप के दर्शक गौरी, गजनबी, मुगल और सन सैंतालीस की कमी महसूस करते दिखे और सुनाई भी दिए।
 
( इस समीक्षा के लेखक रजनीश प्रकाश हैं। फिल्मों के शौकीन और प्रायः हर फिल्म देख लेने वाले रजनीश मौसम देखने के बाद से बहके-बहके और परेशान से घूम रहे हैं। कहते हैं पंकज कपूर ने उन्हें ठग लिया)

Friday, September 23, 2011

चलो हमहूं यात्रा कै आई


एक रहें निरहू, एक रहें घूरहू। दुनू जने के सपन आवा कि यात्रा कै लेबा तौ तोहार भाग चमक जाई। भई योजना बनी, दूनो जने समय और जगह तै कै लेहैं लेकिन निरहू के रथयात्रा में पेंच आई गा। 
अपने बड़े भाई के आज्ञा के बिना कैसे करैं यात्रा, काहे कि साजो सामान तौ बड़े भैया ही तैयार कराइहैं। बिचारै मिलैं गएं पर कौनौ बड़ा आश्वासन नहीं मिला, आपन एस मुंह लेके रह गयें। बेचारे मुल्लही बनके रह गएं। 
काव करैं अब...तो मुनादी पिटवाइन देहे रहैं यह बेर यात्रा तो होबै करे ऐसा सोच के लौट आए, जोन ख्वाब मन रहन सब तो नहीं लेकिन कुछ तौ मटियामेट होइन गवा। बड़े बुजुर्ग कहे अहैं कि जब ज्यादा उनर होई जाय तो कंठी माला लै लेक चाही, बुढौती मा ससुर सठिआय गवा है। अब केहू का करै जब निरहू आपन भद्द पिटावई मा लगा अहै। जा तोहार रामव मालिक नहीं रहे गए। खाली डोल पीटा और मंजीरा बजावा। कुछ उखाड़ न पाउबा।
अब बात घुरहू कै सेवा यात्रा करत अहैं, अरे भएवा, पहले ठीके से सेवा तौ कै लिआ, फिर सेवा यात्रा निकाल्यो। जनता जैसे चढ़ावथै वैसे उतारुय देत है, विकास वाला मनई बना रहा, घूरे मा फैंके मा देर न लागे।
 तोहरे शौंक चढ़ा अहै पूरा कै लिया, गांव-गांव घूमे कै बरै बूता चाही, दस परग चलबा, कांच निकर आए। 

इनके विरोध मा ेक जनै लोटा प्रसाद पोल-खोल यात्रा निकालत अहैं। अरे पहले अपने खोल मा झांक लिया जहां केवल पोलै-पोल अहै। सरऊ कुछ कै नही पाए तो डुगडुगी बजावत अहैं। जनता के खून चूस के समानता लावत अहैं, बहुड़बक कहीं का।
ेक जनै कैं परिवार कऊ साल से राज करत अहैं। पीढी दर पीढी उनके परिवार के वंदना होत अहैं। उनके परिवार से ेक जने पदयात्रा करत रहथैं और घूमत थै गाड़ी से। 
हालचाल पूछै कै दावा करत थै, अरे अपने घरौ मा झांक लेवा करा, रोज-डेली जाथ्या लेकिन कुछ होइन नहीं पावत तो का फायदा। 
भाट चारण लाग अहैं, उनका राजकुमार बनाबै का बरे, उनकै हाल तौ बहुतै बुरा अहै, अपने मन सोचिन नहीं पावत। देखकै पढईस तबो गड़बड़ाई दिहिस। अरे मुंहचोट्टा के कहे रहा इ सब करै का, जब बोल नहीं पउता तो चुप रहता। 

ऐसा जोश मा आया कि रहा सहा लगा सगा सब गंवाय बैठा। और सुने भूकंप वारे गांव मा गा रह्या। सब बताबत रहै, हवा आंसू पौंछे के बजाय मुस्कियात रह्या, और युवा रैली करत अहा। कुछ तो सहूर सीख लिया।  न हुऔ तो, अपनी महतारी से पूछ ल्या। कुछ आवत जात नहीं, बागडौर पकड़िहैं। 
जा एहि देस कै नैया ऐसे डूबत अहै तूहू थोड़के गड्ढा मा ढकेर देबा तौ फरक का पड़ जाए।
तौ भैय्या ऐसे का सीख मिली, यात्रा करा, लेकिन जोन यै सबे करते अहैं ऊ बाली नहीं। उठास खड़ा हुआ, जागा विचार करा, अपने जीवन के विकास के बरै यात्रा करा। आत्मिक उन्नति करा। कहावत अहै, आप भला तो सब भला। चला राम राम। 
इतना कह कर चचा ने घड़ी देखी। रात के दस बज रहे थे। फटाफट पान कल्ले में दबाकर गुस्ताख को राम जोहार कर रामलला के रामल्ला की ओर निकल पड़े। 
(भाषा -अवधी, लेखकः कौशल जी, डीडी न्यूज में मेरे सहयोगी, वरिष्ठ कॉपी एडिटर हैं)

Monday, September 19, 2011

मोदीः विचारक, प्रचारक या विकासपुरुष

नरेन्द्र मोदी अपने राजनैतिक उपवास पर बैठें हैं। गुजरात में उनकी राजनीति चमक रही है, सफेदी की चमकार से वह बीजेपी के दूसरे नेताओं को चमत्कृत कर रहे हैं। तीन दिनों का उनका उपवास उनके प्रायश्चित के रुप में देखा जाना चाहिए, या प्रधानमंत्री की कुरसी तक के लॉन्च-पैड के रुप में, इस पर गहन विश्लेषण करना होगा।

प्रश्न यह भी है कि मोदीत्व को क्या बीजेपी ने एक राजनीतिक दर्शन के रुप में स्वीकार कर लिया है? ऐसी परिस्थिति में जब अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ के तौर पर सन्यास ले चुके हैं, और आडवाणी का कद लगातार छीज रहा है, सुषमा और जेटली पर बढ़त बनाने के लिए मोदी का यह दांव सामने आया है। वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने दंगे के एक मामले की जांच के लिए इनकार करते हुए इसे निचली अदालत को ही निबटाने को कहा। मोदी एंड कंपनी इसे अपने लिए क्लीन चिट मान रही है, इसके बाद ही उपवास का फ़ैसला सामने आया।


अपने उग्र हिंदुत्व के लिए मशहूर (बदनाम) मोदी के इस उपवास के मकसद को राजनैतिक बताया जा रहा है। हालांकि मुख्यमंत्री मोदी इन आरोपों से विचलित नहीं दिखाई दिए और बात बात पर गुजरात के विकास की दुहाई देते रहे। इन तीन दिनों में टीवी चैनलों के साथ इंटरव्यू में उन्होंने बार बार यही कहा कि लोग गुज़रात में हो रहे विकास पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमारे कई पत्रकार मित्रों को भी ऐसा ही लगता है।

डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ राजनैतिक संवाददाता और मेरे सहयोगी संदीप झा ने मोदी के विकास पुरुष की छवि पाने की कोशिशों पर अपने फेसबुक अपडेट में लंबा-सा नोट लिखा है। झा लिखते हैं, "नरेंद्र मोदी के उपवास का मकसद राजनीतिक है। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन क्या इससे पहले इस देश में राजनीतिक मकसद से उपवास या अनशन नहीं किया गया ? क्या किसी विकासशील देश में जो , जो देश राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा है, वहाँ राजनीति को अप्रसांगिक मान लिया जाए ? क्या किसी राजनेता को अपना आधार व्यापक करने का अधिकार नहीं है ? क्या सामाजिक सुधार और आर्थिक सुदृढ़ता के लिए राजनीति प्रस्थान बिंदु नहीं है ?" 


निश्चित रुप से विकास के तमाम मॉडलो के लिए राजनीति से ही रास्ता खुलता है। संदीप अपने लेखांश में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि नरेन्द्र मोदी ने विकास के रास्ते को चुना है और अपने कद को बढाने के लिए ऐसे राजनैतिक स्टंट करना कोई गलत बात नही। संदीप आगे कहते हैं, "नरेंद्र मोदी के उपवास पऱ जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं, उन्हें राहुल गाँधी की नौटंकी और सोनिया गाँधी का दोमुंहापन नहीं दीखता। उस वक्त बोलती बंद हो जाती है, या संविधान का अनुच्छेद 19 क काल कवलित हो जाता है। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में जो काम किया, कांग्रेस की सरकार ने पिछले पचास साल में देश में तो छोड़िए अपनी बपौती कही जाने वाले संसदीय क्षेत्र रायबरेली अमेठी और सुल्तानपुर में भी किया होता तो बात समझ में आती। अगर राहुल बेबी जैसे नौसिखिए को राष्ट्र की राजनीति में प्रधानमंत्री पद का स्वभाविक उम्मीदवार मान लिया जा रहा है तो नरेंद्र मोदी ने तो अपनी काबिलियत साबित की है"

निश्चित तौर पर मोदी प्रशासनिक तौर पर एक काबिल नेता हैं। गुजरात का आर्थिक विकास भी हुआ है। लेकिन क्या सिर्फ यही बात उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनने के योग्य बना देता है? क्या भारत के आगे के सभी प्रधानमंत्री बिजली सड़क पानी के मुद्दे पर काम करने लायक लोगों में ही चुने जाएँगे। और एऩडीए का समीकरण मोदी के पक्ष में ज्यादा जुटेगा या नीतीश के पक्ष में।


नीतीश पर बाद में बात पहले मोदी की करें। हिंदुत्ववादी मीडिया ने एक विचारक के तौर पर उनको पेश करने की कोशिश की है। यानी उग्र हिंदुत्व की उनकी टेक को मोदीत्व का नाम दिया गया। गुजरात में केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला के बीच झगड़े की जड़ मोदी ही बताए जाते हैं।

इन्ही मोदी की वजह से बाघेला को-जिन्होंने आरएसएस और बीजेपी की जड़े गुजरात में जमाने में अहम भूमिकी निभाई थी- को बीजेपी छोड़नी पड़ी। तब मोदी के हिमाचल भेजा गया जहां ये पुनः प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार के बीच युद्ध के सू्त्रधार बने।

अपने मुख्यमंत्री बनने तक मोदी संघ के प्रचारक थे। उन्हें कुछ ऐसे ही लाया गया था जैसे उत्तर प्रदेश में रामबाबू गुप्ता, मध्य प्रदेश में बाबू लाल गौड़, और दिल्ली में सुषमा स्वराज लाई गई थीं। मोदी के मोदीत्व के लिए उनकी विचारधारा को जिम्मेवार बताया जाता है। लेकिन, दंगों के दौरान उनके कार्यकलाप साबित करते हैं कि गोधरा की घटना को उन्होंने न सिर्फ एक मौके के तौर पर लिया। और रातों-रात कथित तौर पर हिंदू हृदय सम्राट हो गए। गुजरात अस्मिता के नाम पर मोदी ने अपनी दुकान खड़ी की। विचारधारा के अंदर अगर मोदी होते तो गुजरात में आरएसएस को कमजोर नहीं बनाते।

मोदी ने गुजरात बीजेपी में भी विकल्पहीनता की स्थिति पैदा कर दी है। संगठन निष्ठा को मोदी-निष्ठा ने रिप्लेस कर दिया है। मोदी के खिलाफ सोचने वाले हरेन पांड्या बन गए।

अब मोदी में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब जागा है। कुछ उसी तरह जैसे कुछ पहले आडवाणी में जागा था। लेकिन इसके लिए उन्हे अपनी छवि को नील-टिनोपॉल से धोकर चमकदार बनाना होगा। जाहिर है, मोदी अपनी छवि बनाने के लिए उपवास वगैरह कर रहे हैं। लेकिन, अब वे प्रचारक और विचारक तो नहीं रहे। ऐसे में मोदीत्व शुद्ध फासीवादी रवैये के सिवा और क्या कहा जा सकता है, जहां उनका पितृ-संगठन आरएसएस भी ठगा हुआ महसूस कर रहा है।

रही बात उनके विकास पुरुष होने की...दावे चाहे जितना करें। नीतीश उनके सामने प्रबल दावेदार के रुप में सामने आएँगे। नीतीश ने मोदी के उपवास पर कोई टिप्पणी नहीं करके अपनी मंशा जता भी दी है। वो सब...अगली पोस्ट में।.

Saturday, September 17, 2011

क़िस्सा कहानी-दाल बिरयानी उर्फ धर्मात्मा सेठ जी

एक थे सेठ जी। जैसा कि आमतौर पर कहानियों में होता है, सेठ जी बड़े दयालु थे और प्रायः पुण्य इत्यादि करने के वास्ते हरिद्वार वगैरह जाते रहते थे। एक बार वह गंगासागर की यात्रा पर गए। कहते हैं, सब धाम बार-बार, गंगासागर एक बार। 
ये भी मान्यता है कि गंगासागर जैसी पवित्र जगह में अपनी एक बुरी आदत छोड़कर ही आना चाहिए। इस बाबत सेठ जी अपने दोस्त से बातें कर ही रहे थे, और उसे बता रहे थे कि इस बार वह अपने बात-बात में गुस्सा हो जाने की आदत को गंगासागर में ही छोड़ आए हैँ।

सेठ जी का दोस्त बड़ा खुश हुआ, हमेशा की तरह सेठानी भी मन ही मन नाच उठी कि अब तो सेठ जी उसे हर बात पर नहीं डांटेंगे। जैसा कि आमतौर पर होता है, सेठ जी लोगों का एक नौकर होता है और आमतौर पर उसका नाम रामू ही होता है। इन सेठ जी के भी नौकर का नाम भी रामू ही था।

तो, उसी मुंहलगे रामू से सेठ जी ने पीने के लिए पानी मंगवाया। रामू ने सेठ जी के लिए पानी का गिलास रखते हुए सेठजी और उनके दोस्त के बीच में टांग अडाई और पूछा, "सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ?" सेठ जी जवाब दिया- गुस्सा छोड़ आया हूं। रामू पानी रखकर चला गया।
फिर छोड़ी देर बाद जब वह ग्लास उठाने आया तो उसने फिर पूछा, "सेठ जी, आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ?" सेठजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "गुस्सा छोड़ कर आया हूं।"

कुछ देर और बीता रामू फिर सवाल लेकर आ गया- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठ जी थोड़े झल्लाए तो सही लेकिन उन्होंने अपने-आपको जब्त करते हुए कहा कि मैं गंगासागर में गुस्सा छोड़कर आया हूं।

फिर रात के खाने का वक्त आया। रामू फिर खुद को रोक न पाया, पूछ ही बैठा- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? अब तो सेठ जी का पारा गरम हो गया। जूता उठा कर दौड़े और नौकर को पटक दिया। लातों से उसे दचकते हुए उन्होंने कहा, हरामखोर। तब से कहे जा रहा हूं कि गुस्सा छोड़कर आया हूं तो सुनता नहीं? हर जूते के साथ सेठ जी कहते सुन बे रमुए, गुस्सा छोड़ कर आया हूं, गुस्सा। गुस्सा। गुस्सा।

इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? 
पता नहीं आपको क्या शिक्षा मिली, मुझे तो ये मिली कि नंबर 1- किसी सेठ के यहां नौकरी मत करो।
२- नौकरी करनी ही पड़ जाए तो सेठ के दोस्तों के साथ बातचीत के दौरान मत उलझो, वह नौबत भी आ जाए तो सवाल मत पूछो और नियम पालन करो कि सेठ एज़ आलवेज़ राइट
३- कभी किसी सेठ की बात का भरोसा मत करो, चाहे वह गंगासागर से ही क्यों न आया हो।

Monday, September 12, 2011

नायक तलाशता भारत

अन्ना हजारे का रामलीला मैदान में चल रहा अनशन खत्म तो हुआ, लेकिन वह कई सवाल भी छोड़ गया है। इस अनशन के दौरान मैं अन्ना हूं लिखी गांधीटोपी भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान की पहचान बन गई, और अन्ना उसके नायक। आखिर अन्ना को यह नायकत्व मिला कैसे, जबकि एक सर्वेक्षण के अनुसार जंतर-मंतर पर अनशन से पहले देश में लोग बाबा रामदेव के मुकाबले अन्ना के बारे में कम जानते थे। लेकिन, रविवार की कड़ी धूप वाली सुबह जब अन्ना हजारे ने सिमरन और इकरा, दो बच्चियों के हाथों अनशन तोड़ा तो मैदान में तिल रखने की जगह नहीं थी। 

कड़ी धूप में बेहाल दो दर्जन से ज्यादा लोग गश खाकर गिरे, लेकिन जन-सैलाब थमा नहीं। आखिर, अन्ना ने ऐसा क्या किया कि इतने लोगों का समर्थन उन्हें मिला?

जन-जन की उम्मीद बने अन्ना

दरअसल, अन्ना के आंदोलन ने जनता की आंखों में एक उम्मीद बो दी। इन आँखों में भ्रष्टाचारमुक्त समाज का सपना तैरने लगा। लहराते तिरंगों, भारतमाता की जय और वन्दे मातरम् के उद्घोष ने अन्ना के अखिल भारतीय नायकत्व को पुष्ट कर दिया।

अनशन के दौरान नारों और मीडिया ने उन्हें देश का दूसरा गांधी घोषित कर दिया। वस्तुतः, भारत के लिए नए नायक बने अन्ना हजारे के पास इसकी पूरी तैयारी थी। विज्ञापन प्रबंधन की भाषा में, अन्ना ने भ्रष्टाचार पर ध्यान केंद्रित कर पूरे मध्य वर्ग को अपने साथ कर लिया। मध्यवर्ग के तमाशाई स्वभाव, भीतर के गिल्ट और कॉरपोरेट मीडिया ने उसे रोड पर उतार कर हाथ में मोमबत्तियां थमा दीं।
अन्ना के नायकत्व के पीछे कई स्थापनाएं दी जा सकती हैं। पहली तो यही कि, हाल के वर्षों में मंहगाई के अतिरेक से निम्न और मध्य वर्ग असंतुष्ट था। स्थापित राजसत्ता के प्रति असंतोष तो आमतौर पर चुनाव में भी दिखता है। गैस, बिजली, दूध, पेट्रोल की कीमतों से जूझती जनता ने भ्रष्टाचार को मुद्दा माना, हालांकि किसी भी दल ने भ्रष्टाचार को इस पैमाने पर जनता के सामने रखा नहीं था। 
हर दौर में जनता को चाहिए होता है अपना हीरो


किसी चीज को हासिल करने या किसी बड़े बदलाव अथवा प्रतिरोध का माहौल बनाने की खातिर हम नायक तलाशते हैं। अवाम को हमेशा एक रोल मॉडल चाहिए। वह अपनी आस्था को टिकाने के लिए स्थान ढूंढ़ता है। इसी प्रक्रिया के तहत देवता अस्तित्व में आए। आदमी ने देवता को रचा। वहाँ आश्रय ढूंढ़ा। राम नायक। कृष्ण नायक। ऐसा नायक जिसमें कोई कमी नहीं। सर्व गुण संपन्न। हमेशा जीत हासिल करने वाला। मगर यह पराजित होते मनुष्यों का दौर है। आज किसी भी क्षेत्रा में असल नायक नहीं है। अवाम को लगता है कि भारत खलनायकों से भरा है।

यह भारतीय मानसिकता ही है जो हमेशा नायक की तलाश करता है। उसके अवचेतन में अवतारवाद है- एक ऐसा ईश्वर या नायक जो चमत्कार करता है।

कुछ साल पीछे चलें तो बोफोर्स घोटाले के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। उस वक्त उन्हें भी जनता ने नायक का दर्जा दिया था और उन्हें सत्ता भी सौंपी। ये बात और है कि राजा मांडा राजनैतिक रुप से उस बढ़त को समेटकर रख  नहीं पाए।

उत्सवधर्मी भारत के मिजाज को समझना मुश्किल है। वह अलग-अलग विधाओं से अपने नायक चुनता रहा है, कभी उसने अपना हीरो विश्वकप जीतने वाले महेन्द्र सिंह धोनी में दिखता रहा, जिनका आत्मविश्वास से भरा मैचजिताऊ छक्का हाल तक ( चार टेस्ट मैच हारने तक) भारतीय गौरव का प्रतीक बना रहा। कभी महान क्रिकेटर तेन्दुलकर तो कभी सहवाग नायक बनते रहे।

वीपी से पहले राजीव गांधी थे, जिन्होंने राजनीति में पदार्पण तो हीरो तरह ही किया, जनता शुरु में उनसे हीरो की तरह बर्ताव करती रही, और इंदिरा लहर के नाम पर राजीव ऐतिहासिक बहुमत से जीते। लेकिन जल्दी ही उनकी मिस्टर क्लीन की छवि छीजती चली गई।

इसी रामलीला मैदान में जहां, अन्ना के अनशन ने लाखों लोगों को मैं अन्ना हूं कहने को प्रेरित किया, वहीं जयप्रकाश नारायण ने सिंहासन खाली करो कि जनता आती है की हुंकार भरी थी। जेपी संपूर्ण क्रांति और इमरजेन्सी के गहन विरोध के कारण जनता के हीरो बने और बने हुए हैं।

राजनैतिक शख्सियतों में गांधी पटेल और नेहरु भी नायकों जैसी हैसियत रखते हैं। आजादी के आंदोलन के दौरान जनता इनमें करिश्माई छवि देखती थी। गांधी बाबा तो मसीहा और अवतार माने जाने लगे।

आजादी के बाद के रियलिटी चैक वाले दौर में जनता ने अमिताभ बच्चन को अपना नायक माना। अमिताभ बच्चन गुस्सेवर नौजवान के रुप में देश की जनता के गुस्से को जंजीर से इंकलाब तक परदे पर साकार करते रहे।

उदारीकरण के बाद पाकिस्तान से कड़वाहट और उग्र-राष्ट्रवाद के दौर में मिसाइलमैन एपीजे अब्दुल कलाम को जनता नायक मानती रही। लेकिन, उनके राष्ट्रपति पद से अवकाश के बाद जनता एक नायक की तलाश कर रही थी, जिससे एक चमत्कार की उम्मीद की जा सके। 
हीरो मिलने पर भड़कती है देशभक्ति की भावनाएं


परदे पर स्टीरियोटाइप नायक की कमी भी जनता को खल रही थी, क्योंकि ज्यादातर अभिनेता या तो कॉमिडी कर रहे थे या फिर चॉकेलटी रोमांस। ऐसे में दबंग, रेडी और वॉन्टेड में सलमान खान ने नायकत्व को फिर से परदे पर जिंदा किया, और जनता ने उन्हें स्वीकार भी किया।

लोगों में मंहगाई, बेरोजगारी और विभिन्न मुद्दों पर गुस्सा था ही, मधु कोड़ा से लेकर राजा तक, राष्ट्रमंडल खेल से लेकर टू-जी तक, एक असंतोष और ठगे जाने के अहसास भी था जिसने समाज में एक नायक की जरुरत पैदा की। भट्टा-पारसौल जैसे मसले पर राहुल गांधी ने हस्तक्षेप जरुर किया, लेकिन नायक का रुतबा हासिल नहीं कर पाए। अन्ना ने सही वक्त पर सही तार छेड़ दिया, और उनको जनता ने नायक बनाकर सिर-आँखों पर बिठाया। आखिर, नायकत्व के लिए सादगी और त्याग दोनों की जरुरत होती है, जनता का मूड भांपने की भी।

 ( मेरा यह आलेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हुआ था)

Wednesday, September 7, 2011

ये सोना, वो सोना

सोकर उठा तो सुना कि सोना 28 हजार रुपये तोला हो गया। पहले तो डर लगा, सोना इतना मंहगा !  जबकि सोना मेरा शगल है। जैसे ही मौका मिलता है, सो लेता हूं। मेरे सोने के कई रुप हैं...पॉवर नैप, झपकी, तंद्रा, उबासियां, नींद..गहरी नींद।...और मेरे नींद का एक अपररुप ऐसा भी है जिसमें मै प्रायः मरा हुआ मान लिया जाता हूं।

लेकिन इन सबका सोने से क्या लेना देना..। है लेना देना है। ऐसी ही एक सुबह जब मैं सोकर जगा तो मेरे मां के गले में पड़ा रहने वाला सोने का हार गायब हो चुका था। फिर एक-एक कर सारे गहने गायब हो गए। सोना फिर हमने अपने घर में कभी नहीं देखा। उस पीले सोने के साथ रात को चैन से सोना भी जाता रहा।

लेकिन मां लौह-महिला थीं। हम तीन भाईयों को पढा-लिखा दिया। दीदी की शादी भी हो गई, बड़े को नौकरी हुई..। फिर, हम सोने लगे। मैं गरमी की दुपहरों में अपने यायावर स्वभाव के अनुकूल ही इमली के पेड़ के नीचे भटकते रहने को अभिशप्त था, मां को कुछ चैन का सोना नसीब हुआ। (सोने की चेन अब भी नहीं मिली थी)
सर्वेगुणाःकांचनमाश्रियन्ति, सोने में हैं सारे गुण

फिर मुझे चस्का लगा सिनेमा देखने का। घर में हम लोग बेहद सस्ता वाला बिस्किट ही खाते थे। और हमारे घर में शाम की चाय के साथ बिस्किट कुतरने का चलन शुरु नहीं हुआ था। बिस्किट हम बस बीमार होने पर ही खाते थे। मैं प्रायः बीमार रहा करता था, बिस्किट भी मेरे ही हिस्से में ज्यादा आते थे। धीरे-धीरे मुझे बिस्किट से नफरत होने लगी। अपनी बीमारियों के दौरान मैं बेहद लंबी नींद लिया करता था। मेरे भाई को कई बार लगता था कि मैं मर गया हूं। सोने का वह मृत्यतुल्य आनंद आज खोजे से भी नहीं मिलता।

लेकिन, अचानक एक दिन मुझे ज्ञात हुआ कि बिस्किट महज मैदे या आटे के ही नहीं हुआ करते। बिस्किट अब सोने के भी होते थे। जिनके कंसाइऩमेंट को किसी जूहू या बोरीबंदर से अमिताभ तस्कर बन कर दूसरे तस्करों से छीन लाया करते, या खुद पुलिसवाले होते फिर भी तस्करों से छीन ही लाते।
हमने सीखा बिस्किट सोने के भी होते हैं

सोने के इन बिस्किटों से नायक विजय अर्थात् अमिताभ ने अपनी मां के लिए कई इमारतें खरीद दीं, या अपनी भाभी के लिए सुख-सुविधाओं और देवरानी का इंतजाम कर लिया। उस दिन हमने जाना कि बिस्किटें महज नफरतों के लायक नहीं होतीं। चैने से सोने के लिए सोने का होना बहुत जरुरी है।

फिर, जीवन की आपाधापी में सोने के लिए रात के सोने की कुरबानियां देनी पड़ी। पेशा ऐसा अपना लिया कि 10 जनपथ के सामने फुटपाथ पर रात गुजारनी पड़ जाती है। वहां भी सोना नहीं, गोल्ड फ्लेक की पूरी डिब्बी फूंक कर।
साठ-सत्तर के दशक में सोने की तस्करी को नए आयाम दिए


मेरी पसंदीदा सिगरेट का हिंदी तर्जुमा भी स्वर्ण फलक (गोल्ड फ्लेक) ही है। इसमें भी सोना..सोना बहुत अहम है। जीवन का दर्शन सोना है। संस्कृत वांगमय कहता भी है-सर्वेगुणाः कांचनमाश्रियान्ति, सभी गुण सोने में ही हैं।

हां, सभी गुण सोने में ही हैं। कल रात जब सोनिया गांधी महामाई के इंतजार में हम रात भर 10 जनपथ के सामने पहरा देते रहे...महामाई आवें..हम उनकी एक झलक को कैमरे में कैद करें...देशवासियों को उनकी वही झलक दिखलावें, देशवासी दिन भर कृत-कृत्य होते रहें।

क्या गजब, सोनिया के नाम में भी सोना है, सोनी के नाम में भी। बहरहाल, रात भर जागने के बाद जब झपकियां आने लगीं, तब पता चला सोने का सही अर्थ।

हमारे बिजनेस रिपोर्टरों ने एक दिन शिलाजीत के महत्व की तरह सोने का महत्व समझाया। कहा, कच्चे तेल की कीमत गिरती है, तो सोने की कीमत बढ़ती है। काला सोना बनाम पीला सोना। यहां भी सोना।
टीवी के एक क्राइम शो का एंक चीख-चीख कर चैन से सोने के लिए जाग जाने का आह्वान किया करता है।

यह तो टीवी का ही महात्म्य है कि सोने की आसमान की तरफ उछलती कीमतों से घरवाली कभी भी गहनों की मांग नहीं करती। वरना मेरी नींद पर डाका डलता।

मेरी नजर में तो तकिए पर सिर रखकर सोना एक बेहद कीमती एहसास है, वरना हमने तो वेंटिंग रुम में बिना तकिए के कई रातें गुजारी हैं। सोने के दौरान आप करवट बदल सकते हैं, खर्राटे मार सकते हैं, सपने में जिसे चाहे उसे बुला सकते हैं। कालकवलित हो चुकी डायना से लेकर किसी डायन तक को, मधुबाला से लेकर कैटरीना कैफ तक। आप कई क्विंटल सोना खर्च कर दें, मधुबाला से तो नहीं मिल सकते..लेकिन तकिए पर सोना सब मुमकिन कर देता है।....तो बताइए कौन ज्यादा बेहतर है, 28 हजार रुपये तोला या नरम गद्दे पर तकिए पर सिर टिका कर, खर्राटायुक्त सोना..।


बहरहाल, रात गहराती जा रही है मेरे लिए 28 हजार रुपये तोला से

Saturday, September 3, 2011

पुरवैया-सी आंखेः कविता



वो आंखे,
जिनमें जहान समाया था
वो आंखे,
जो बोलती थीं
फर-फर
पुरवैया की तरह,
वो आंखे,
जिनमें थी हरकतें किसी-
गोरैया की तरह,
वो आंखे-उनींदी-सी आंखें
जिनमें देखा था मैंने खुद को
खुदा को
जिनमें बहती थी नदी
अविरल
जिनमें मैं बह गया
अविकल
उसी नदी के किनारे
बैठकर देखता रहा अपनी ही परछाई
उन्हीं आंखों में,
जिनमें जहान समाया था
जिनके बंद पलकों को-
जिनको मैं बस छू भर पाया था।


उन्हीं आंखो-पलकों में
बंद हैं मेरे सपने
मेरे अपने
जैसे भंवरा क़ैद हो जाता है
किसी कमल की पंखुडियों में।।