Monday, December 25, 2017

मधुपुर का तिलक विद्यालय

मधुपुर. अपने कस्बाई खोल से शहरी ढांचे में ढलने के लिए यह शहर ज़रूर छटपटा रहा होगा, लेकिन जो लोग शहरों में रहते हैं, वे ही बता सकते हैं कि महानगरों के जीवन में जो संकीर्णता और भागमभाग होती है, वह अपनी जड़ों की याद दिलाती है. दिलाती रहती है.

हर किसी को अच्छा लगेगा कि उनका शहर आगे बढ़े और तरक्की करे.

लेकिन अगर नगर नियोजन सही हो, तो भी सपनों और हकीकत में फासले कम रखने चाहिए. आखिर हर शहर, क़स्बे और गांव की एक आत्मा होती है. नकल में वह मर जाएगी. आपको अच्छा लगेगा कि आपके शहर के दूसरे मुहल्ले या अपने ही मुहल्ले को लोग आपसे अनजान रहें!

तो एक सवाल यही उठता है कि क्या सब ठीक ठाक है? क्या मधुपुर एक बेहतर शहर के रूप में विकसित हो रहा है? पर इसकी परीक्षा कभी कभी अतीत के उन 'टिप्स' से मालूम हो सकता है जो हमारे महान लोगों ने दिया था. खासकर जो लोग शहर का 'मास्टर प्लान' बनाते हैं, बनाना चाहते हैं या बना रहे हैं.

मुझे नहीं मालूम कि मधुपुर के लोग मधुपुर को कितना बड़ा शहर बनाना चाहते हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि मधुपुर सभी शहरी सुविधाओं से युक्त तो हो लेकिन उतना ही छोटा, उतना ही प्यारा, उतना ही हरा-भरा बना रहे. नदियों में पानी रहे, झरने बहते रहे, लोग प्यारे रहें, कुछ सड़कें कच्ची रहें, धान के खेत रहे, भेड़वा और गोशाला मेला बना रहे...

कुछ दिन पहले भाई रामकृपाल झा ने मधुपुर के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की थी. इस विषय पर उमा डॉक्यूमेंटेशन सेंटर के सर्वेसर्वा उत्तम पीयूष ने बहुत काम किया है. लेकिन मैंने अपने स्तर पर जो जानकारी जुटाई है उसे साझा करने की कोशिश कर रहा हूं. अपने पहले के पोस्ट में मैं तिलक विद्यालय के दिनों की चर्चा कर रहा था, वह चर्चा जारी रहेगी और कोशिश करूंगा कि इसी बहाने कुछ इतिहास भी आए.

आपमें से अधिकतर को पता होगा कि अपने कस्बेनुमा शहर में कितनी विशिष्टता थी. सन् 1925 में जब महात्मा गांधी मधुपुर पधारे और उन्होंने तब एक 'राष्ट्रीय शाला '(नेशनल स्कूल) तिलक विद्यालय और नगरपालिका का उद्घाटन किया था. यह बड़ी और ऐतिहासिक घटना है मधुपुर के संदर्भ में. एक ज्ञान और राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले केंद्र और एक शहरी जीवन को सिस्टम देने वाला केंद्र. यह बड़ी बात थी. बड़ा संयोग.

तिलक कला विद्यालय अपने पीछे स्वर्णिम इतिहास लिए खड़ा है. बापू उस दौरान आजादी की लड़ाई के साथ-साथ लोगों में स्वदेशी और खादी अर्थशास्त्र के प्रति भी जागरूकता फैला रहे थे. एक पत्र से इस बात की जानकारी मिली है. इससे पता चलता है कि छात्रों के जरिए सूत कताई को लोकप्रिय बनाने के प्रति वे काफी संजीदा थे. पत्र के अनुसार, बापू आठ अक्टूबर 1934 को पहली बार मधुपुर आए थे. उन्होंने नौ अक्टूबर 1934 को ऐतिहासिक तिलक कला विद्यालय के विषय में पत्र लिखा था. उसमें इस विद्यालय के बारे में जिक्र किया गया है. कहा गया है कि यहां पर राष्ट्रीय शाला का आयोजन किया गया था. वहीं प्रधानाध्यापक ने अभिनंदन पत्र के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जिक्र करते हुए विद्यालय की समस्याओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था.

इसमें कहा गया था कि सूत कताई के कारण विद्यालय में लड़कों की उपस्थिति कम हो रही है. साथ ही लोगों की तरफ से विद्यालय को कम आर्थिक सहायता मिल रही है. कुछ लोगों ने अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए हटा लिया है क्योंकि कार्यशाला में सूत कताई का विषय अनिवार्य कर दिया गया है. इस अभिनंदन पत्र में बापू से मुश्किलों से बाहर निकलने का मार्ग पूछा गया था.

बापू का जवाब थाः यदि शिक्षकों को अपने कार्य में श्रद्धा है तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए. सभी संस्थाओं को भले बुरे दिन देखने पड़ते हैं और यह स्वाभाविक ही है. उनकी ये कठिनाई उनकी परीक्षा है. दृढ़ विश्वास के बल पर भीषण तूफान का भी सामना किया जा सकता है. यदि शिक्षकों को पूर्ण विश्वास है कि वे पाठशाला के जरिए आसपास के लोगों को विकास का संदेश दे रहे हैं तो उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कुछ ही दिनों में उन्हें वहां के अभिभावकों से अनुकूल सहयोग मिलने लगेगा. लेकिन यदि उनके इस कार्य में वहां के लोगों का जल्दी सहयोग नहीं मिले तो उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है. पाठशाला में एक भी छात्र रहे तो उन्हें उसे चलाते रहना है, क्योंकि नए विचार का शुरूआत में लोग विरोध जरूर करते हैं.

सुना है मधुपुर के इस ऐतिहासिक तिलक विद्यालय में महात्मा गांधी और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी कई स्मृतियां आज उपेक्षा की वजह से संकट में हैं. आजादी से पहले 1925 से 1942 तक तिलक विद्यालय मधुपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख सेनानियों को कैद करने की कोशिश की थी तो वे लोग भूमिगत हो गए और गुस्से में अंग्रेजों ने विद्यालय के पुस्तकालय को ही जला दिया.

1936 में डॉ राजेंद्र प्रसाद मधुपुर आए थे. यहां उनको आजादी के दीवानों से मुलाकात करनी थी. इसी स्कूल में राजेंद्र बाबू ने एक रात बिताई थी. पुआल का बिछौना लगा और पाकशाला में भोजन बना. बाद में प्रांतीय चुनावों (1937) के वक्त भी राजेंद्र बाबू मधुपुर आए थे.

गांधी जी ने तिलक विद्यालय से जाकर उन्होंने मधुपुर, मधुपुर के कुदरती सौंदर्य और नगरपालिका पर जो कुछ लिखा वह आज भी 'संपूर्ण गांधी वांङमय', खंड- 28 (अगस्त-नवंबर 1925) में सुरक्षित है. आप और हम समझें कि कोई महानायक कैसे छोटी से छोटी लगती बातों पर गौर करते हैं, उसे समझते और लिखकर या बोलकर समझाते हैं. और उसके निहितार्थ आप भी समझें कि आखिर इस छटपटाते से शहर को कैसे विकसित करें. गांधीजी ने मधुपुर के संदर्भ में, नगरपालिका के दायित्व से जुड़ी बातें लिखी थी. क्या ये बातें जो मधुपुर के प्राकृतिक सौंदर्य और स्थानीय स्वशासन से जुड़ी हैं क्या आज भी प्रासंगिक हैं?

उन्होंने कहा था, "हमलोग मधुपुर गए. वहां मुझे एक छोटे से सुंदर नए टाउन हाल का उद्घाटन करने को कहा गया था. मैंने उसका उद्घाटन करते हुए और नगरपालिका को उसका अपना मकान तैयार हो जाने पर मुबारकबाद देते हुए यह आशा व्यक्त की कि वह नगरपालिका मधुपुर को उसकी आबोहवा और उसके आसपास के कुदरती दृश्यों के अनुरूप ही एक सुंदर जगह बना देगी. मुंबई व कलकत्ता जैसे बड़े शहरों को सुधार करने में बडी मुश्किलें पेश आती हैं मगर मधुपुर जैसी छोटी जगहों में भी नगरपालिका की आमदनी बहुत ही थोड़ी होते हुए भी उन्हें अपनी अपनी हद में आने वाले क्षेत्र को साफ सुथरा रखने में मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता."

1925 के बाद शहर, साधन और सुविधाएं काफी बदल गयी है. जनसंख्या का दबाब और शहरीकरण की दिक्कतें भी बढ़ी हैं. नेता भी बदल गए हैं. आज का आक्रामक नेतृत्व क्या यह जानता भी है कि गांधी ने मधुपुर के बारे में क्या कहा था? नगरपालिका के कर्ता-धर्ताओँ ने कभी सोचा भी कि हमें महात्मा गांधी के मधुपुर के संदर्भ में कहे गए विचारों को न केवल वर्तमान 'नगरपर्षद' पर कहीं शिलालेख पर उत्कीर्ण कराना (लिखाना) चाहिए बल्कि उनके विचारों को समझने और अनुकरण करने का भी प्रयास करना चाहिए?

उन्हें न तो समझ होगी, न फुरसत होगी. होती तो करा दिए होते.

तिलक विद्यालय के मजेदार पलो पर पोस्ट अगली दफा.

Wednesday, December 20, 2017

भाजपा के हाथों से खिसक रही गांव की जमीन

गुजरात के चुनाव नतीजों को लेकर न जाने कितनी बातें कहीं जाएंगी. लेकिन नतीजों का रणनीतिक विश्लेषण अभी भी प्रासंगिक होगा क्योंकि अगले साल चार बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनावों में महज अठारह महीने बाकी हैं. इस निगाह से देखें तो गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को झटका खाना पड़ा है और उसमें भी सौराष्ट्र क्षेत्र उसके लिए दुःस्वप्न सरीखा ही रहा.

मिसाल के लिए, उत्तरी गुजरात के ग्रामीण इलाकों में जहां 2012 में मोदी की रैलियों के दौरान भारी-भरकम भीड़ जमा हुई थी वहां पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन नहीं किया. गुजरात में करीब दो साल पहले दिसंबर में हुए जिला पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने 31 में से 23 सीटों पर भाजपा को शिकस्त दी.

तालुक चुनाव में भी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिलीं थीं. इन दोनों चुनाव के नतीजों को 2017 के नतीजों के मिला दें तो ग्रामीण गुजरात में भाजपा की खिसक चुकी जमीन का मसला सच साबित होता है. गुजरात के गांव भाजपा के लिए चुनौती बने और कांग्रेस के लिए गुजरात में वापसी बल्कि यह कहें कि पैर जमाने के मौके के तौर पर आए, और कांग्रेस एक हद तक उसमें कामयाब भी रही.

हालांकि भाजपा ने पूरी कोशिश की थी कि ग्रामीण इलाके में उसका वोट बैंक नहीं टूटे, यदि किसी वजह से इन्हें टूटने से नहीं बचाया जा सके तो कम से कम वोटरों को कांग्रेस की तरफ एकजुट होने से तो रोका ही जाए. भाजपा की यह रणनीति ही बयान कर रही थी कि पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में है. आखिर, जीएसटी, गन्ना और मूंगफली के मूल्यों को आखिर पलों में समर्थन देना ऐसा ही कदम था. जरा इलाकावार देखिएः

सौराष्ट्र इलाके में कुल 54 विधानसभा सीटें हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने यहां 35 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस बार उसे 23 सीटों से संतोष करना पड़ा. पूरे राज्य में सौराष्ट्र ही एकमात्र क्षेत्र रहा जहां भाजपा-कांग्रेस के बीच सीट शेयर का अंतर सकारात्मक से नकारात्मक की तरफ गया. तो इस बदलाव का क्या अर्थ है? क्या सिर्फ भौगोलिक विभाजन या इसके कोई आर्थिक संकेत भी हैं?

निश्चय ही, आर्थिक कारक अधिक मजबूत कारण बने. अब यह बात हर किसी को पता है कि गुजरात के गांवों में भाजपा के जनाधार को चोट पहुंची है. अगर क्षेत्रवार बात करें तो हर क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में मतदाता भाजपा से नाराज दिखा है.

उत्तर गुजरात में करीब 90 फीसदी सीटें ग्रामीण इलाके की हैं, जबकि दक्षिण गुजरात में सिर्फ 50 फीसदी. सौराष्ट्र में 75 फीसदी और मध्य गुजरात में ग्रामीण सीटों की संख्या 63 फीसदी है. जैसी कि उम्मीद थी कांग्रेस ने उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र क्षेत्र में भाजपा पर सीटों की संख्या के मामले में बढ़त बना ली. इन दोनों इलाकों में कांग्रेस को क्रमशः 53.1 और 55.56 फीसदी सीटें हासिल हुईं.

दोनों पार्टियों के प्रदर्शन में क्षेत्रवार अंतर की वजहें सीटों की प्रकृति में छिपी हैं. कुछ नहीं, एक आसान सा आंकड़ा स्थिति स्पष्ट कर देता है. राज्य स्तर पर दोनों पार्टियों के बीच सीट शेयरिंग में करीब 12 फीसदी का फासला है. लेकिन इसी आंकड़े को इलाकावार देखें तो इसमें काफी उतार-चढाव भी है. शहरी और ग्रामीण सीटों पर अलग-अलग विश्लेषित करने पर इस अंतर में पर्याप्त कमी आती है.

क्षेत्रवार सीटों का अंतर ग्रामीण इलाकों में कम और शहरी इलाकों में अधिक है. इसका मतलब यह हुआ कि ग्रामीण गुजरात में भाजपा के खिलाफ असंतोष अधिक मुखर था. 2012 में ऐसा नहीं था. ग्रामीण इलाकों में भी भाजपा का प्रदर्शन सौराष्ट्र में कांग्रेस के प्रदर्शन से बेहतर था. तब उसे सौराष्ट्र की 40 ग्रामीण सीटों में से 24 और दक्षिण गुजरात में 15 में से 9 सीटें हासिल हुई थीं. तो इस बार क्या बदल गया?

गुजरात में सौराष्ट्र का इलाका कपास उत्पादक क्षेत्र है. 2012 के बाद से कपास की कीमतें औंदे मुंह गिरी हैं. शायद दक्षिण गुजरात के किसानों को सौराष्ट्र के किसानों जैसी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा हो क्योंकि वहां, कपास नहीं गन्ना प्रमुख फसल है. गन्ने के फसल की कीमत मूंगफली या कपास की तरह धड़ाम नहीं हुई थी. ऐसे में दक्षिण गुजरात में कांग्रेस और भाजपा के बीच ग्रामीण इलाकों में मुकाबला बराबरी पर छूटा है.

खैर, गुजरात में तो हाथी भी निकल गया और उसकी पूंछ भी, लेकिन भाजपा के सामने बड़ी चुनौती होगी राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी सत्ता बचाए रखना. आखिर, गांवों के अपने छीजते जनाधार को बचाए रखन पाने में अगर भाजपा नाकाम रही तो 2019 में अपने बूते बहुमत में आऩा टेढ़ी खीर साबित होगा.



Tuesday, December 19, 2017

मेरा मधुपुरः शिक्षकों के हाफिज सईद थे हेड सर

तिलक कला मध्य विद्यालय सरकारी स्कूल था. जब हमने स्कूल की चौथी कक्षा में एडमिशन लिया था, वह सन् 87' का साल था. देश भर में सूखा पड़ा था. मास्टर साहेब लोग अखबार बांचकर बताते थे कि कोई अल-नीनो प्रभाव है. हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था. लेकिन उस अकाल के मद्देनजर सरकार ने यूनिसेफ से प्रायोजित दोपहर का भोजन किस्म की योजना चलाई थी.

हर दोपहर पांचवीं कक्षा के हमारे क्लास टीचर अशोक पत्रलेख पूरी कक्षा में हर बच्चे को कतार में खड़ा कर भिंगोया हुआ चना देते थे. हालांकि, ज्यादातर चना उनके घर में घुघनी (बंगाली में छोले को घुघनी कहते हैं) बनाने के काम आता था.

अशोक पत्रलेख से जुड़ा एक वाक़या हमारे सीनियर पंकज पीयूष ने फेसबुक पर शेयर किया है. पंकज भैया ने मुझे पढ़ाया भी है. वह भी तिलक विद्यालय के छात्र थे. मुझसे करीब एक दशक पहले. उनका दौर था सन् 1979 से 1982 तक. उन दिनों महेंद्र बाबू (अब स्वर्गीय) स्कूल के हेड मास्टर हुआ करते थे. उन दिनों गजानन सर, महानंद सर, अशोक पत्रलेख, विजय सिंह सर के अलावा आरिफ सर और मौलाना सर भी थे. और तब पंकज भैया शायद सातवीं क्लास में थे.

वह याद करते हुए बताते हैं कि उन दिनों यानी सन् 1981 में निर्मल सर और ख़ुशी सर ने हाल-हाल ही में जॉइन किया था. पंकज भैया ने लिखा है, "मुझे याद है कि जिस पूजा के दिन जैसे विश्वकर्मा पूजा, अनंत चतुर्दशी, कर्मा, सरहुल आदि के दिन स्कूल में छुट्टी घोषित नहीं रहती थी, तो क्लास में हाज़िरी बनने के बाद, अशोक सर मुझसे छुट्टी का आवेदन लिखवाकर हर क्लास के 5-5 बच्चों से हस्ताक्षर करवाने भेजते थे और फिर मैं डरते हुए उस आवेदन को लेकर हेड सर के चैम्बर में जाता था. वे मुझे और इस आवेदन को देखकर मुस्कराते हुए जानबूझ कर पूछते थे कि अशोक (सर) ने लिखवाया है?"

हालांकि पंकज भैया इनकार करते थे लेकिन सच तो सबको पता था.

उनके साथियों में यह भरोसा भी था कि स्कूल में छुट्टी जल्दी करानी हो तो दोनों आंख से पलकों के बाल निकाल कर टीचर के जूते में डाल दो... देखना छुट्टी की घंटी बज़ जाएगी,

यह फॉर्मूला कितना सही होता था यह तो पंकज भैया और उनके साथी ही जानें लेकिन एक दशक बाद के छात्रों में, यानी हम लोगों तक आते-आते मासूमियत थोड़ी क्रूरता में बदलने लगी थी. 1989 के दौर के छात्र तिलक विद्यालय के बड़े से अहाते में कभी कभार कबड्डी और अमूमन रबर की गेंद से एक दूसरे को पीटने वाला क्रूर खेल बम-पार्टी खेला करते थे. हमारी पीठ पर गेंदो की मार से निशान और चकत्ते उभर आते. लेकिन वो दाग़ अच्छे थे.

स्कूल के अहाते में यूकेलिप्टस के कई ऊंचे-मोटे पेड़ थे. जिनकी जड़ों के पास दो खोमचे वाले अपना खोमचा लगाते. ये खोमचे वाले भुने चने को कई तरह से स्वादिष्ट बनाकर बेचते. उनके पास मटर के छोले होते, खसिया (आधा उबले चने को नमक मिर्च के साथ धूप में सुखाने के बाद बनाया गया खाद्य) फुचका, जिसे गुपचुप कहा जाता या बाद में जाना कि असली नाम गोलगप्पे हैं. वैसे मधुपुर का गुपचुप लखनऊ में पानी बताशा, मुंबई में पानीपूरी, दिल्ली में गोलगप्पे और कोलकाता में फुचका के नाम से मशहूर है. लेकिन जो स्वाद गुपचुप में था वह इसके किसी और अपररूप में नहीं.

इन्हीं ठेलों पर बिकता था एक बेहद खट्टा नींबू जिसे काले नमक के साथ खाया जाता था. यह मुझे कत्तई पसंद न था. खट्टा खाना मुझे आज भी नापसंद है.

अहाते में कई पेड़ अमड़े के भी थे. अमड़ा जिसे अंग्रेजी में वाइल्ड मैंगो या हॉग प्लम भी कहते हैं. हिंदी में इसको अम्बाडा कहते हैं.

मधुपुर में बांगला भाषा का बहुत असर था, इसलिए हम इसे अमड़ा ही कहते. इसके फूल वसंत की शुरुआत में आते थे. इनके फूल भी हम कचर जाते. हल्का खट्टापन, हल्का मीठापन... सोंधापन फाव में.

अमडा जब फल जाता तो उसकी खट्टी और मीठी चटनी बनाई जाती. यह हमारे स्कूल के आसपास का खाद्य संग्रह था...डार्विन ने अगर शुरुआती मानवों को खाद्यसंग्राहक माना था तो हम उसे पूरी तरह सच साबित कर रहे थे.

लेकिन, इन खाद्यसंग्रहों के बीच पढ़ाई अपने तरीके से चल रही थी...पढ़ाई का तरीका कुछ वैसा ही था जैसा 19वीं सदी की शुरुआत में हुआ करता होगा.

हम लोग हाथों में मध्यावकाश तक पढ़ाई जाने वाली चार किताबें और कॉपियां लेकर स्कूल जाते. बस्ते का तो सवाल ही नहीं था. भोजनावकाश में दौड़कर घर जाते, खाना खाकर, वापस स्कूल लौटने की जल्दी होती.

हम जितनी जल्दी लौटते उतना ही वक्त हमें खेलने के लिए मिलता. लड़कियां इस खाली वक्त में पंचगोट्टा खेलतीं थी. पांच पत्थर के टुकड़े, हथेलियों में उंगलियों के बीच से बाहर निकालने का खास खेल, हम बम पार्टी या कबड्डी खेलते... क्रिकेट के लिए शाम का वक्त सुरक्षित रखा जाता.

इन्हीं में विभिन्न मास्टर साहबों के करतब थे, जिनकी चर्चा अगली पोस्ट में करूंगा. निर्मल सर, खुशी सर, विजय सर से लेकर चंद्रमौलेश्वर सिंह यानी हमारे वक्त के हेड मास्टर साहेब...

वह इन सभी आतंकवादी मास्टरों के सरगना थे. समझिए शिक्षकों के हाफिज सईद.



क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

गुजरात विधानसभा में भाजपा की सरकार बन गई है. 22 साल से गुजरात में सत्ता से दूर कांग्रेस फिर से विपक्ष में बैठेगी. लेकिन गुजरात के चुनाव ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी हार कर बाजीगर बने या न बने हों, लेकिन मोदी की लहर की दहक कहीं न कहीं कमजोर हुई है.

मेरी इस बात से कुछ लोग इत्तफाक नहीं रखेंगे और कहेंगे कि जीत तो आखिर जीत होती है.

लेकिन, गुजरात मोदी का है. पार्ट टाइम मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2014 में लोकसभा में प्रचंड बहुमत पाने तक मोदी एक लहर थे. मुझे याद है एक दफा गुजरात में नीलोफर नाम के तूफान आऩे का खतरा था और तब राजकोट में मुझे एक चाय की दुकान पर किसी ने कहा थाः कोई तूफान नहीं आएगा, क्योंकि यहां का तूफान तो दिल्ली चला गया.

उस चायवाले का यह बयान कहता था कि गुजरात का आम आदमी मोदी पर किस कदर गर्व करता था. उस जगह पर मोदी की भाजपा अगर 115 के पुराने (2012 चुनाव) के आसन से नीचे खिसकती है तो इसको गुजरात के शेर के कद का एक बिलान कम होना ही मानिए.

ज़रा वोट प्रतिशत की तरफ ही ध्यान दीजिए. एग्जिट पोल के परिणाम यही बता रहे थे कि राहुल गांधी की मेहनत गुजरात में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ाने वाली है. नतीजों से भी साफ है कि टीम राहुल ने समाज के सभी वर्गों को साथ लाकर न केवल पार्टी का वोट बैंक और वोट शेयर बढ़ाया है बल्कि गुजरात विकास के मॉडल को भी सवालों के घेरे में खड़ा किया है.  

खासकर गांवों में तो कांग्रेस ने अपना वोट शेयर और सीटें दोनों में ही इजाफा किया है. गांवों से खिसकते जनाधार और गांव और शहर के अलग मिजाज़ से वोट करने के क्या सियासी मायने हैं और उसके क्या नतीजे होंगे, वह एक अलग विमर्श की विषय वस्तु है.

पिछले विधानसभा में भाजपा को 47.85 फीसदी, कांग्रेस को 38.93 फीसदी और अन्य को 13 फीसदी वोट मिले थे. यानी कांग्रेस भाजपा से महज 9 फीसदी वोटों से पीछे थी. 2017 के एग्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी को 47 फीसदी वोट मिलने की संभावना है जबकि कांग्रेस को 42 फीसदी वोट की. अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस को 41.4 फीसदी वोट मिले हैं. हार के बावजूद कांग्रेस के वोट शेयर में भाजपा की तुलना में बढोत्तरी हुई है. हालांकि वोट शेयर भाजपा का भी बढ़ा है लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में सीटें कम हो रही हैं.

इस गुजरात को जीतने के लिए मोदी को अपने पसंदीदा विकास के मुद्दे से बेपटरी होना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी अधिकांश चुनावी रैलियों में विकास की बजाय राहुल गांधी पर निजी हमले करते रहे. इसकी बजाय राहुल ने सायास अपनी छवि मृदुभाषी युवा की बनाई. जाहिर है, उनकी टीम ने राहुल की छवि गढ़ने पर बहुत मेहनत की क्योंकि पिछले चुनावों में कीचड़ राहुल पर उछलकर उनकी छवि खराब की गई थी.

इस तमाम मेहनत के बावजूद अमित शाह 150 सीटों के अपने लक्ष्य से काफी दूर ही रुक गए.

जबकि गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर रैली में इस चुनाव को खुद से जोड़ा और खुद ही जिताने की अपील की. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कुल 36 रैलियां की थी. अपनी रैलियों में मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी, पाटीदार, दलित हर मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाया और सरकार पर लगे आरोपों का बचाव तो किया ही सख्ती से जवाब भी दिया.

गुजरात का चुनाव शुरू तो हुआ था विकास के नारों के साथ, लेकिन जाति में दुष्चक्र में फंस गया, मणिशंकर अय्यर के नीच वाले बयान को भाजपाई ले उड़े. माफीनामे और राहुल गांधी की सफाई के बावजूद प्रधानमंत्री ने इसे गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया. जाहिर है, भाजपा के करीब सौ सीटों में इस भावना के रसायन ने बखूबी काम किया.

गुजरात जीतने के लिए मोदी को पाकिस्तान को भी बीच में घसीटना पड़ा. इस आरोप में प्रधानमंत्री ने डॉ मनमोहन सिंह से लेकर बहुत सारे नेताओं को लपेट लिया. यह और बात है कि ऐसे आरोप किसी चुनावी मंच से लगाने चाहिए या नहीं, खासकर देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे करिश्माई नेता से, लेकिन नतीजों में कुछ हिस्सा तो पाकिस्तान का भी ठहरा.

चुनाव प्रचार में कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन थामना चाह रही थी. अब भाजपा को उसी के टर्निंग विकेट पर हराना मुश्किल था. फिर उसमें मंदिर यात्राओं के दौरान राहुल का नाम किस रजिस्टर में दर्ज है यह भी खूब उछला. फिर राहुल के 'जनेऊधारी' होने के बयान भी आए. इसे कुछ यूं समझ लीजिए कि कांग्रेस की तेज़ गेंदबाजी से बचने के लिए भाजपा ने विकेट की घास साफ करवा दी.

फिर राम मंदिर के मुददे पर कपिल सिब्बल की बयानबाजी और पाटीदार आंदोलन की लहर को थामने की कांग्रेस की कोशिश में बाकी जातियों के खिसक जाने को वजहें बताई जा सकती हैं. लेकिन पटेल वोटों के बिखराव को भाजपा ने दोनों हाथों से समेटा. पटेल फैक्टर वाले 37 में से करीब 20 सीटों पर भाजपा जीत रही है.

लेकिन, फिर सवाल वही घूमकर आता है. क्या गुजरात चुनाव ने ठोस मुद्दे को घुमा-घुमाकर अमूर्त मसलों (हिंदुत्व, जनेऊ वगैरह) पर लाकर, निजी हमले करके. पाकिस्तान को बीच में लाने की जो मजबूरी भाजपा को दिखानी पड़ी, उससे यह नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी की ताकतवर दहाड़ने वाले नेता का करिश्मा कहीं चुक तो नहीं गया!

क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

मंजीत ठाकुर

Saturday, December 16, 2017

मेरा मधुपुरः पढ़ाई लिखाई हाय रब्बा

मेरा बेटा एक प्राइवेट स्कूल की चौथी कक्षा में पढ़ता है. पहली क्लास में उसका एडमिशन का मिशन मेरे लिए कितना कष्टकारी रहा, वह सिर्फ मैं जानता हूं. इसलिए नहीं कि बेटे का दाखिला नहीं हो रहा था. बल्कि इसलिए, क्योंकि एडमिशन से पहले इंटरव्यू की कवायद में मुझे फिर से उन अंग्रेजी कविताओं-राइम्स-की किताबें पढ़नीं पड़ी, जो हमारे टाइम्स (राइम्स से रिद्म मिलाने के गर्ज से, पढ़ें वक्त) में हमने कभी सुनी भी न थीं.

अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी ज़रूर 'बा बा ब्लैक शीप', 'हम्प्टी-डम्प्टी' और 'चब्बी चिक्स' जानते होंगे, लेकिन बिहार और बाकी के राज्य सरकारों के स्टेट बोर्ड से निकले मित्र जरूर इस बात से सहमत होंगे कि घरेलू स्तर पर छोड़कर औपचारिक रूप से अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ करती थी.

बहरहाल, शिक्षा के उस वक्त की कमियों की ओर इशारा करना मेरा उद्देश्य नहीं. चौथी के मेरे सुपुत्र की किताबों की कीमत छह से सात हजार के आसपास थी. मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था लेकिन सिर्फ किताबों की कीमत इतनी रहने वाली है इस पर मैं श्योर नहीं था.

मुझे अपना वक्त याद आय़ा. जब मैं अपने ज़माने की, हालांकि हमारा ज़माना इतना पीछे नहीं है, सिर्फ अस्सी के दशक के मध्य के बरसों की बात है, की बात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं. बहुत सी बातें एकदम से बदल गईं हैं. 

हालांकि, प्रायः सारे बदलाव सकारात्मक से लगते हैं. लेकिन पढ़ाई के बारे में ऐसा ही कहना, कम से कम पढ़ाई की लागत के बारे में... हम स्वागतयोग्य तो नहीं ही मान सकते.

मेरा पहला स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर था. कस्बे के कई स्कूलों को आजमाने के बाद तब के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल (संसाधनों के लिहाज से) शिशु मंदिर ही था. हमारे कस्बे का सबसे बेहतर स्कूल कॉर्मेल कॉन्वेंट माना जाता था...अंग्रेजी माध्यम का. पूरे कस्बे में इसमें बच्चे का दाखिला गौरव की बात मानी जाती है, हालांकि जिनके बच्चों का दाखिला इस स्कूल में नहीं हो पाता, वो यह कह कर खुद को दिलासा देते कि स्कूल नहीं पढ़ता बच्चे पढ़ते हैं. और इसकी तैयारी हम घर पर ही करवाएंगे अच्छे से. 

अब यह भी जानिए कि तैयारी किस की? नेतरहाट में या नवोदय में छठी कक्षा में एडमिशन की. नवोदय का तो पता नहीं, लेकिन झारखंड में नेतरहाट ने अपनी साख बचाई हुई है अब तक.

वैसे भी, तैयारी तो खैर क्या होती होगी. हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर में हुआ, दाखिले की फीस थी 40 रुपए और मासिक शुल्क 15 रुपए. यह सन 84' की बात होगी. इसमें यूनिफॉर्म था. नीली पैंट सफेद शर्ट...लाल स्वेटर. बस्ता जरूरी था और टिफिन भी ले जाना होता, जो प्रधान जी के मूड के लिहाज से लंबे या छोटे वाले भोजन मंत्र के बाद खाया जाता.

भोजन के पहले मंत्रो की इस अनिवार्यता सबसे बुरी बात लगती थी. चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25 रुपये हो गया, और तब घरवालों को लगा कि यह शुल्क ज्यादा है.

बहरहाल, सरस्वती शिशु मंदिर से निकाल कर हमें  तिलक विद्यालय में भर्ती कराया गया, जिसे राज्य सरकार चलाती थी और यह मशहूर था कि गांधी जी उस स्कूल में आए थे. गांधी जी की वजह से पूरे कस्बे में यह स्कूल गांधी स्कूल भी कहा जाता. एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये.

गांधी स्कूल की खासियत थी कि हम 10 बजे स्कूल में प्रार्थना करने के बाद, जो कि हमारे लिए बदमाशियों का सबसे टीआरपी वक्त होता था, सफाई के लिए मैदान में इकट्ठे होते थे. स्कूल के अहाते में चारों तरफ शीशम, सागवान और यूकेलिप्टस के ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे और उसके पत्ते अहाते में गिरते तो उसे साफ कौन करेगा? स्कूल में कोई चतुर्थवर्गीय कर्मचारी नहीं था. स्कूल में शौचालय भी नहीं था. स्कूल में हैंडपंप था, लेकिन कई बरसों से खराब था. 

स्कूल में अगर कुछ था, तो मास्टर थे, छात्र थे. कड़क अनुशासन था. पिटाई थी. गजानन सर थे, महानंद सर थे. इन सरों के सर के तापमान के बारे में बाद में.

मैदान में पत्ते और कागज चुनने के बाद, क्लास के फर्श की सफाई का काम होता। लाल रंग के उस ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था इसलिए सफाई जरूरी थी. यह काम रोल नंबर के लिहाज से बंधा होता.

उस वक्त भी, जो शायद 1987 का साल था, किताबों की कीमत हमारी ज़द में हुआ करती थी. पांचवी क्लास में विज्ञान की किताब की कीमत 6 रुपये 80 पैसे थी और उसे कोर्स की सबसे मंहगी किताब माना जाता था. बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन पाठ्य पुस्तकें छापा करती थी, जिनमें सबसे सस्ती थी संस्कृत की किताब और सबसे मंहगी विज्ञान की.

उसमें भी घरवालों की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएं. आधी कीमत पर. किताब कॉपियां हाथों में ले जाते. सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर के...25 पैसे वाली बॉल पॉइंट का पॉइंट पीतल का होता, उससे मोटी लिखाई होती. 35 पैसे वाले थोड़ी ठीक होती, लेकिन 75 पैसे में बॉल पॉइंट रीफिल का पॉइंट स्टील का होता था, और वह पाने के लिए ज्यादातर छात्र अपने बड़े भाईयों, पिता, या माताओं के सामने घिघियाते थे. (अगर दिलचस्पी लिखने में होती थी) 

कलमों के इस परिदृश्य को रेनॉल्ड्स ने बदल दिया, उस पर अगली पोस्ट में लिखेंगे.

जिन दिनों की बात मैं कर रहा हूं तब स्याही का इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था. उस वक्त बिहार सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं थीं...जिन पर गत्ते की जिल्द चढ़ी होती. अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता. मध्यम मोटाई की कॉपी दो रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती. 

हमारे स्कूल (तिलक विद्यालय) में ज्यादातर ब्लैक बोर्ड का ब्लैकनेस घिसकर सुफेद हो रखा था. आज बेटे के स्कूल में कंप्यूटरों की भरमार है. एक कक्षा में तीन तीन तरह के बोर्ड हैं. वाइट बोर्ड, ग्रीन बोर्ड और एक और प्रोजेक्टर की स्क्रीन.  

पता नहीं, इतने किस्म के बोर्ड पर क्या पढ़ लेते हैं बच्चे और क्या पढ़ा लेते हैं शिक्षक! इनसे पढ़ाई होती तो पहले के मुकाबले शायद हम ज्यादा रामानुजम, ज्यादा बसु, ज्यादा शांति स्वरूप भटनागर और ज्यादा भाभा पैदा करते. 

स्कूलों की फीस की रकम देखिए...पढ़ाई महंगी हो गई है या वक्त का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढ़ाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का अंतर....वही सोच रहा हूं. 

सरकारी स्कूलों में पढ़कर और जिंदगी के ढेर सारे साल गरीबी में बिताकर हमने खोया है या पाया है...

Monday, December 11, 2017

राहुल अब शहज़ादे नहीं रहे!

तेरह साल तक टालते रहने के बाद नेहरू-गांधी खानदान के वारिस ने आखिरकार कांग्रेस की कमान तो संभाली लेकिन सवाल यही है कि क्या वह इस सबसे पुरानी औप पस्त पड़ी पार्टी में नई जान फूंक पाएंगे? खासकर तब, जब मौजूदा समय में सियासी परिस्थितियां तकरीबन कांग्रेसमुक्त भारत की तरफ ही बढ़ रही हैं.

16 दिसंबर से (संयोग है कि यह विजय दिवस भी है) राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष का पदभार संभालेंगे. अब यह और बात है कि यह जिम्मेदारी उनके लिए पद की तरह रहता है या भार की तरह. हाल तक, गाहे-ब-गाहे कुछ मौकों को छोड़कर राहुल गांधी ने ज्यादा कुछ ऐसा किया नहीं कि उन पर भरोसा किया जा सके.

उनके लिए पहली चुनौती तो यही होगी कि वह खुद पर नेहरू-गांधी खानदान के छठे सदस्य के रूप में बने अध्यक्ष का तमगा छुड़ा सकें. भाजपा ने उन पर नाकामी का ठप्पा चस्पां करने में सोशल मीडिया मशीनरी का बखूबी इस्तेमाल किया है.

हालांकि, पिछले तेरह साल में राहुल गांधी लगातार कमजोर और हाशिए पर पड़े वंचित तबके की आवाज बनने की कोशिश करते रहे. लेकिन उनकी कोशिशें बड़े कदम की बजाय प्रतीकात्मक ही रहीं.

जरा तारीखवार गौर करें,

2008 में राहुल गांधी ओडिशा के कालाहांडी जिले के नियामगिरि में डंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ खड़े हुए और कांग्रेस ने उनको नियामगिरि का सेनापति घोषित किया. बाद में, नियामगिरि में वेदांता को खनन पट्टा रद्द कर दिया गया. अगले साल 2009 में उन्होंने भारत की खोज यात्रा शुरू की था और यूपी के दलितों के यहां खाना खाकर खुद को जमीन से जुड़ा नेता साबित करने की कोशिश की. इसका फायदा 2009 के लोकसभा चुनावों में मिला.

साल 2011 में राहुल किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भट्टा पारसौल में आंदोलन के हिस्सेदार बने. बाद में केंद्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना कानून पारित कराया.

इसके अलावा राहुल ने मौका बेमौका कभी मुंबई लोकल में सफर करके, कभ केदारनाथ मंदिर जाकर, कभी अरूणाचल के छात्र नीडो तानियम के लिए खड़े होकर, कभी केरल के मछुआरे के यहां खाना खाकर खुद को स्थापित करने की कोशिश की. कभी वे पटपड़गंज में सफाई कर्मचारियों के साथ धरने पर बैठे तो रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद भाजपा पर टूट पड़े. कन्हैया मामले में भी राहुल गांधी ने सक्रियता दिखाते हुए जेएनयू में जाकर छात्रों से मुलाकात की थी.

लेकिन उनके कुछ कदमों से उनकी भद भी पिटी है.

नोटबंदी के दौरान 4 हजार रु. निकालने के लिए कतार में खड़ा होने और एक बार फटी जेब दिखाने की वजह से वे सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए.

राहुल गांधी ट्रोल होने की वजह से भी लोकप्रिय हैं.

लेकिन हालिया महीनों में ट्विटर पर तंज भरे और तीखे ट्वीट करने की वजह से राहुल ने सबको हैरत में डाल दिया है.

लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी के सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं. 1999 से लेकर 2014 तक ही देखें तो कांग्रेस का प्रदर्शन गर्त में चला गया है. 1999 में कांग्रेस को 114 सीटें थी, जो 2004 में 145, 2009 में 206 और अब 2014 में महज 44 रह गई है. इसके बरअक्स भाजपा 182, 138, 116 और 282 पर आई है. कांग्रेस का वोट शेयर भी इन्ही सालों मे क्रमशः 28, 27,29 और 20 फीसदी रहा है.

अब कांग्रेस सुप्रीमो बने राहुल को कुछ काम प्राथमिकता के स्तर पर करने होंगे. इनमें संगठन में नई जान फूंकने से लेकर नई टोली का गठन करना, राज्यों में ताकतवर नेताओं को आगे बढ़ाना, 2019 के लिए कार्यकर्ताओं में जोश लाना, गुटबाजी पर लगाम लगाना और भरोसेमंद और निरंतर सक्रिय (जी हां, छुट्टियों पर विदेश सरक जाने की अपनी आदत छोड़नी होगी) नेता के रूप में पेश होना होगा.

राहुल गांधी के एक भाजपा विरोधी गठजोड़ तैयार करना होगा. लेकिन बिहार में वह नीतीश के अपने पाले में रोक नहीं सके. पीएम बनने की ख्वाहिशमंद ममता उनके लिए दूसरी चुनौती होंगी जो वाम दलों के साथ एक मंच पर शायद ही आएं. दूसरी तरफ, मायावती और मुलायम भी शायद ही हाथ मिलाना पसंद करें.

2019 से पहले राहुल के लिए 2018 भी एक चुनौती बनकर मुंह बाए खड़ा है. जब चार बड़े राज्यों के चुनाव होने हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भाजपा के सूबे हैं, कर्नाटक में उनकी अपनी सरकार है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास 230 में से 58 सीटें हैं, 37 फीसदी वोट शेयर है, सूबे के लोकसभा की 29 सीटों में से महज दो कांग्रेस के पास हैं और वोट शेयर 35 फीसदी हैं (यानी वोट शेयर इंटैक्ट है)

राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं, इनमें कांग्रेस के पास महज 21 हैं. वोट शेयर भी 33 फीसदी है. राजस्थान से लोकसभा में एक भी सीट कांग्रेस के पास नहीं, लेकिन 31 फीसदी वोट जरूर मिले थे.

छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटें हैं. कांग्रेस के पास इनमें से 39 सीटें हैं. वोट शेयर जरूर बढ़िया 40 फीसदी है लेकिन लोकसभा चुनाव में पासा पलट गया था जब राज्य की कुल 11 लोस सीटों में से कांग्रेस 20 फीसदी वोट हासिल कर सकी और सिर्फ 1 सीट पर जीत दर्ज कर सकी.

कर्नाटक में मामला थोड़ा अलग है. 224 विधानसभा सीटों वाले सदन में कांग्रेस के 122 सदस्य हैं. वोट शेयर 37 फीसदी है. वहां की 28 लोस सीटों में से कांग्रेस ने 9 जीती और वोट शेयर भी 41 फीसदी हासिल किया. यानी कर्नाटक में बहुत सत्ताविरोधी रूझान न हुआ तो कांग्रेस मजबूत स्थिति में रह सकती है. क्योंकि मोदी लहर (कर्नाटक में भाजपा ने 17 सीटें जीती हैं और 43 फीसदी वोट शेयर हासिल किया है) के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा से महज 2 फीसदी कम रहा और इसी दो फीसदी वोट ने दोनों पार्टियों के बीच 8 सीटों का अंतर पैदा कर दिया.

बहरहाल, राहुल गांधी अब शहजादे से एक नेता में बदल रहे हैं. वह अब कांग्रेस अध्यक्ष हैं. सत्ता को जहर कहने वाले राहुल को अब पार्टी के ढांचे को नया रंग-रूप देने के साथ-साथ चुनावों में जीत दिलानी ही होगी. क्योंकि सत्ता से ज्यादा दिन दूर रही पार्टी का जनाधार ज्यादा तेजी से खिसकता है.

Sunday, December 3, 2017

निपट अकेला मैं

मैं
निर्जन में,
झुकते कंधों वाला बरगद.
मोनोलिथ पहाड़ में
थोड़ी सी जगह में उग आया.

मैं,
निपट सुनसान में
खुद से बातें करता.
मेरी शाखों पर आकर बैठते तो हैं परिन्दे
मुझे भाता है
उनका आना-बैठना-कूकना-उछलना
पर, परिन्दें नहीं समझते मेरी भाषा
पेड़ की भाषा मैं मौन मुखर होता है.
जो समझ सके
पेड़ की भाषा
इंतजार कर रहा हूं
मैं