Monday, August 31, 2009

डेडिकेटेड टू माइ फर्स्ट लव

डेडिकेटेड टू माइ फर्स्ट लवये पंक्ति होगी मेरी किताब के पहले पन्ने पर .... बिलकुल सादा पन्ना जिसके बीच में होंगी ये लाईनें। इटैलिक्स में.... प्रेरणा का स्रोत भी बता ही दूं, यूं तो यह अनगिनत किताबों में होता है। लेकिन ताज़तरीन मामला मुझे गुज़रे ज़माने के सबसे मशहूर टीवी पत्रकार सुधांशु रंजन की जेपी पर लिखी किताब के पहले पन्ने में दिखा।

किताब जेपी पर थी, गंभीर और बेहतरीन थी। लेकिन ये डेडिकैशन सबसे ज्यादा संजीदा लगा। लोग अपने पहले प्रेम को नहीं भूल पाते हैं क्या? वैसे, मैंने तभी तय कर लिया कि अपनी किताब (अगर कभी लिखी गई) तो पहले पन्ने पर मैं भी ऐसी ही लाईनें लिखूंगा...डेडिकेटेड टू माई फर्स्ट लव..। कोई नाम नहीं दूंगा कि यह किताब मेरी प्रेयसी मुन्नी, चुन्नी गुड़िया, चीकू, बन्नी, बिट्टी, गुड्डी या मिली को समर्पित है।

नाम लेने का मतलब संभावनाओं का अंत, तुरंत..।

इससे होगा क्या कि आपकी मौजूदा लव को लगेगा कि यह किताब उन्हीं के लिए है और आपके बिना सुबूत दिए यह साबित हो जाएगा कि आपका पहला प्यार वही है।
दूसरे, आपके पहले, दूसरे, तीसरे...और जितने भी आपकी औकात के हिसाब से प्यार हुए हों, हरेक को लगेगा कि किताब उन्हीं को समर्पण है। कई लोग राजेंद्र यादव, तो कोई नामवर सिंह को समर्पित करते हैं। हम उनको करेगे जिनसे हमारा मतलब सध चुका है और भविष्य में कभी संभावना होगी कि पुनः सधेगा।

विद्वज्जन कहते हैं लव चाहे किसी भी नंबर पर क्यों न आए होता हमेशा फर्स्ट ही है। वैसे ही जैसे मुनियों ने कंस को मिसगाइड किया था कि आपकी बहन के आठवें गर्भ की संतान आपका नाश करेगी.. आठवें गर्भ को लेकर चक्कर चल गया था। कंस परेशान था लेकिन आपको ऐसी परेशानी पेश नहीं आनी चाहिए..।

दरअसल, ऐसे समर्पण से यह साबित हो जाएगा कि आप कितने समर्पित प्रेमी रहे हैं। और एक साथ कईयों से उत्कट समर्पण का ऐसा लाजवाब आईडिए को पेंटेंट करवाने जा रहा हूं।

हर मर्ज की दवा है गुस्ताख के पास। लेकिन मैं किसी को गिनी पिग नहीं बनाने जा रहा हूं । पहला प्रयोग मैं खुद करुंगा। खुद पर। आप चाहें तो मेरे फॉर्म्युले का इस्तेमाल कर सकते हैं..। बाइलाइन देने का कोई चक्कर नहीं, हां नाम लेंगे तो अच्छा लगेगा( बतर्ज-गांधी शांति प्रतिष्ठान की किताबें)

तो गुस्ताख़ का यह आइडिया कैसा लगा आपको? है ना दूर की कौड़ी?

Thursday, August 27, 2009

गुस्सैल नौजवान अब फेंके हुए पैसे भी उठाता है- बदलता दौर बदलते नायक





उस दौर में जब राजेश खन्ना का सुनहरा रोमांस लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, समाज में थोड़ी बेचैनी आने लगी थी। राजेश खन्ना अपने 4 साल के छोटे सुपरस्टारडम में लोगों को लुभा तो ले गए, लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेमकहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था।


उन्ही दिनों परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद एक बाग़ी तेवर की धमक दिखीी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना। गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी। और उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया।


विजय, के नाम से जाना जाने वाला यह शख्स, एक ऐसा नौजवान था,ा जो इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और जिसको न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता हैै।


लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया। जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टर की नौकरी छोड़ देने वाला नौजवान देव तक अधेड़ हो जाता है। जंजीर में उस सब-इंस्पेक्टर को जो दोस्त मिलता है वह भी ग़ज़ब का। उसके लिए यारी, ईमान की तरह होती है.


लेकिन उम्र में आया बदलाव उसूलों में भी बदलाव का सबब बन गया। देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं, और वह समझौतावदी हो जाता है।


लेकिन अमिताभ जैसे अभिनेता के लिए, भारतीय समाज में यह दो अलग-अलग तस्वीरों की तरह नहीं दिखतीं। दोनों एक दूसरे में इतनी घुलमिल गए हैं कि अभिनेता और व्यक्ति अमिताभ एक से ही दिखते हैं। जब अभिनेता अमिताभ कुछ कर गुज़रता है तो लोगों को वास्तविक जीवन का अमिताभ याद रहता है और जब असल का अमिताभ कुछ करता है तो पर्दे का उसका चरित्र सामने दिखता है।


अमिताभ का चरित्र बाज़ार के साथ जिस तरह बदला है वह भी अपने आपमें एक चौंकाने वाला परिवर्तन है। जब ‘दीवार’ के एक बच्चे ने कहा कि उसे फेंककर दिए हुए पैसे मंज़ूर नहीं तो लोगों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं।


बहुत से लोगों को लगा कि यही तो आत्मसम्मान के साथ जीना है। उसी अमिताभ को बाज़ार ने किस तरह बदला कि वह अभिनेता जिसके क़द के सामने कभी बड़ा पर्दा छोटा दिखता था, उसने छोटे पर्दे पर आना मंजूर कर लिया।


फिर उसी अमिताभ ने लोगों के सामने पैसे फ़ेंक-फेंककर कहा, ‘लो, करोड़पति हो जाओ.’ कुछ लोगों को यह अमिताभ अखर रहा था लेकिन ज्यादातर लोगों को बाज़ार का खड़ा किया हुआ यह अमिताभ भी भा गया।


बहरहाल, अमिताभ आज भी चरित्र निभा रहे हैं, लेकिन उनके शहंशाहत को किसी बादशाह की चुनौती झेलनी पड़ रही है। हां, ये बात और है कि शहंशाह बूढा ज़रुर हो गया है पर चूका नहीं है। बाज़ार अब भी उसे भाव दे रहा है क्योंकि उसमें अब भी दम है।

Monday, August 24, 2009

बदलता दौर, बदलते नायक-३




दिलीप-देवानंद और राज कपूर के दौर के ठीक बाद या उसके दौरान ही हिंदी सिनेमा में सुपरस्टारडम की शुरुआत हुई। इस दौर में राजेश खन्ना रौमांटिक किरदारों में नजर आते रहे। वे दिलीप कुमार की परंपरा में थे। किशोर कुमार की आवाज़ गीतों के लिए परदे पर राजेश खन्ना की आवाज़ बन गई। राजेश खन्ना दरअसल एक मैटिनी आइडल थे।



बाद अपने जमाने के टॉप आइडल राजेश खन्ना के लिए जनता के बीच एक खास क़िस्म का हिस्टिरिया था।



लेकिन उनके ज़माने तक समाज में बहुत कुछ बदल रहा था। सिनेमाई परदे पर पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच-गाने लोगों को पसंद तो आ रहे थे और दुनियावी मुश्किलों को लोग कुछ देर के लिए भूल तो जाते लेकिन यह महज इसलिए था क्योंकि दर्शक के पास विकल्प नहीं थे।



मुख्यधारा के सिनेमा में विकल्प नहीं थे और दर्शक अभी तक गंभीर कला सिनेमा को झलने के मूड में नहीं था। ऐसे में कुरते और पैंट का काकटेल चलता रहा.. किशोर कुमार की आवाज़ में गाने बजते रहे, फिल्में हिट होती रहीं लेकिन इनमे समाज का सच नहीं था।



राजेश खन्ना के कुरते और पैंट के कॉकटेल की भी कहानी है, खासकर उनके शर्ट को बाहर रखने की भी। उनकी कमर ज्यादा फैली हुई थी, तो उसे ढंकने के लिए शर्ट बाहर रखना ज़रुरी था। राजेश खन्ना के गरदन को अदा से हिलाना एक स्टाइल स्टेटमेंट बन गया। रोमांस के बाद०शाह बन चुके खन्ना पेड़ों के इर्द-गिर्द ही दौड़-दौड़ कर नायिकाओं के आगे पीछे गाने गाते रहे। हां, आनंद जैसी कुछ फिल्में ज़रुर बेहतर थीं, लेकिन इनमें निर्देशक की कुशलता अधिक नायक की अपनी छवि कम थी। जाहिर है, सिनेमा का एक बेहद प्रचलित मुहावरा विलिंग सस्पेंसन ऑफ़ डिसविलिफ़ सच होता दिख रहा था।



लेकिन तब राजेश खन्ना के इस सुनहरे सपनों वाले हवाई किले को तोड़ने वाली एक बुलंद शख्सियत की ज़रुरत थी। और ये शख्सियत सिनेमा में दस्तक दे चुकी थी।

Saturday, August 22, 2009

कविता- पोशीदा रंग


परेशान हूं मैं, ......

रंगो के जटिल होते जाने से

रंग भी पेचीदा हो गए हैं

आसमां का रंग लगने लगा है

पडोसन की अलगनी पर सूखती रंग छुटी नाइटी की तरह

कभी-कभी पूछता हूं खुद से

क्या रंग है पसीने का.?

कौन-सा शेड है?.

पर्पल, पीच या टेरेकोटा?

और भी ना जाने क्या-क्या.

अक-बक सोचने लगा हूं.


ओसारे की चौकी मेंजेंटा धूप से रंगी है

-और भाभी मरुन शर्ट खरीद लाई है मेरे लिए।


तालाब मे गोता लगाकर आंखे खोलूं

तो कौन सा रंग है ये?

स्यैन और हरे का मिलाजुला ?


यूं तो दोपहर का रंग नहीं कहते आधुनिक है

पर, पेट भर खाकर झपकी लेने के सुख का क्या रंग हैं?

बॉस से पूछूंगा


फिर वही सवाल उठ खड़ा है मेरे सामने

ज़िंदगी में नए रंग आ गए हैं

या पहले से मौजूद रंगों मे बढ गई है पेचीदगी??

Friday, August 21, 2009

बदलता दौर, बदलते नायक-२




इस तिकडी़ के शबाब के दिनों में ही बिमल रॉय ने दो बीघा ज़मीन के ज़रिए मार्क्सवादी विचारों को सिनेमाई स्वर दिए। प्यासा में गुरुदत्त ने एक शायर की मन की उथव-पुथल और भावुक गीतों के ज़रिए कहा कि , ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो... गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे। लेकिन उन फिल्मों का दायरा बेहद सार्वजनिक हुआ करता था।


दरअसल, रचनाशीलता के बारें में हमारे गुरु बलराम तिवारी कहा करते थे कि जभ तक आपके विचार आपके मन में हैं, वह आपकी निजी संपत्ति हैं, लेकिन काग़ज़ पर उतरते ही अभिव्यक्तियां सार्वजनिक संपत्ति हो जाती हैं। गुरुदत्त की रचनाओं के बारे में, जो काग़ज़ पर भी थी और सिल्वर ब्रोमाइड से रंगी प्लास्टिक पर भी, यही कहा जा सकता है।


गुरुदत्त ने परदे पर एकत अलग तरीके के नायक की रचना की। भावुकता में करीब-करीब शरतचंद्रीय बाना लिए इसनायक पर दुखों का पहाड़ था। काग़ज़ के फूल की बात करें तो इस नायक ने दुनिया के बेगानेपन पर अपनी तल्ख़ टिप्पणी छोड़ी। और जहां तक निजी अभिव्यक्तियों की बात है, वहीदा उनकी फिल्मों का मुख्य स्वर बनकर उभरी। गुरुदत्त की फिल्मों में परदे पर वहदा के बेहतरीन क्लोज शॉट्स इस बात की तस्दीक करते हैं।


दो बीघा ज़मीन की बात करें, तो उस ज़माने की यह पहली फिल्म थी, जिसमें इटालियन नव-यथार्थवाद की झलक तो थी ही, इसका कारोबार भी उम्दाा रहा था। फिल्म वायसिकिल थीव्स से एक हद तक प्रेरित थी और रचनाशीलता के स्तर पर भी कलात्मस विचारधारा झलक रही थी।


फिल्म में बलराज साहनी थे, बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर दिया था। वह ज्यादा आश्चर्यजनक इसलिए भी था क्योंकि उन्हीं दिनों देव-दिलीप और राज कपूर परदे पर रोमांस ही उकेर रहे थे।


हालांकि, दिलीप कुमार ने आवाज़ के मामले में अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया, और ज्यादातर अँडरप्ले कर अदाकारी की। फिर भी, असल जिंदगी में बेहद अभिजात्य बलराज साहनी ने गरीबी को परदे पर जी दिया।


इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह दिखा। महबूब ख़ान ने जो दिखाया, उसमें भी आदर्शवाद था। नरगिस ने मां को उकेरा...भारत माता के रुप में। अपने ही डकैत बेटे को गोली मारकर इस मदर इंडीया ने आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी। लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरु हो चुका था, जिसकी सहानुभूति डकैत बेटे सुनील दत्त से थी।


लेकिन, साठ के दशक में भी फिल्मों में नायक आते तो रहे लेकिन उनका स्वरुप कमोबेश वैसा ही रहा। पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमकर गानेवाले हीरो की। साठ के दशक में लेकिन बदलाव की रुपरेखा तैयार होनी शुरु हो गई थी। मुग़ल-ए-आज़म ने दिलीप कुमार को ट्रैजिक रोमांस के शिखर पर बैठा दिया। लेकिन इसी दशक में एक देशभक्त नायक का आविर्भाव भी हुआ। उपकार में मनोज कुमार ने देशभक्ति को एक नया एंगल दिया और जल्दी ही भारत कुमार बन बैठे।


संगम ने विदेशों में शूटिंग करने का ट्रेंड शुर कर दिया। लेकिन बॉलिवुडीय नायक कुछेक अपवादो ंको छोड़ दें तो रोमांस की परिक्रमा ही करता रहा। 1969 को शक्ति सामंत की ब्लॉकबस्टर आराधना ने रोमांस के एक नए महानायक को जन्म दिया। जो पूढ रहा था मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू....

Monday, August 17, 2009

बदलता भारत, बदलते नायक-1

सन 47 में जब देश आजा़द हुआ, तो उस समय एक नया जोश था, अपनी आजादी और भविष्य को लेकर। कैसा भविष्य हिंदुस्तान को चाहिए, ये आदर्शवाद फिल्मों में भी दिख रहा था। उस जमाने में जो भी फिल्म बनती थीं उनके चरित्रों में उस वक्त की जिंदगी की झलक साफ दिखाई देती थी।

इसी दौरान सिनेमाई परदे पर देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार सितारे की तरह उगे। लंबे समय तक भारतीय सिनेमा का दर्शक इन तीनों अभिनेताओं में अपने को और अपने आसपास को तलाशने की कोशिश करता रहा।



इस तिकड़ी में दिलीप कुमार असल में रोमांटिक रोल करते थे और दिलीप कुमारनुमा रोमांस का मतलब था ट्रैजिक रोमांस। दिलीप कुमार, रोमांस हो या भक्ति, मूल रुप से अपनी अदाकारी को केंद्र में रखते थे। एक ट्रैजिक हीरो के रुप में उनकी पहचान बन गई थी और वे ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर भी हो गए।



आजादी के बाद के युवाओं में रोमांस का पुट भरा, देवानंद ने। देवानंद कॉलेज के लड़कों में, एडोलेसेंट लेवल पर काफी लोकप्रिय थे। खासतौर पर शहरों के युवा वर्ग में उनकी गजब की पकड़ थी।



राज कपूर का मामला इन दोनों से अलग था। वे एक अच्छे अभिनेता तो थे ही लेकिन अभिनेता से भी बड़े निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को उभारने की कोशिश की। एक सामान्य आदमी को गढ़ने में उन्होंने अपनी पूरी प्रतिभा लगा दी। आर के लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होने रुपहले परदे पर साकार करने की कोशिश की।



एक आम आदमी, किस तरह देश और समाज के भीतर के बदलावों को समझता है, कैसे इस दुनिया को देखता है, उस किस्म के किरदार उन्होंने करने शुरु किए। 10-12 सालों तक उन्होंने इसी तरह की फिल्में बनाईं। ऐसी ही फिल्मों के सहारे वे एक अभिनेता के साथ-साथ एक मंझे हुए निर्देशक के रुप में उभर कर सामने आए।



राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद, इन तीनों का एक खास स्टाइल था। वह स्टाइल अब भी एकतरह से कायम ही है, क्योंकि हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए ये तीनों एक स्टाइल आइकॉन थे।



पहले हम देखें तो देवानंद और दिलीप कुमार की अदाकारी का वही सिलसिला चला जिसके लिए वो मशहूर थे। लेकिन राज कपूर ने कुछ- कुछ जगहों पर खुद को बदला भी, वो एक आम आदमी बन गए जिसमें चार्ली चैपलिन किस्म का चरित्र भी उन्होंने कई तरीकों से दिखाया।



लेकिन इन तीनों का जादू तब चुकने लगा...जब एक किस्म का रियैलिटी चेक (जांच) जिदंगी में आया। परदे पर जो दृश्य बन रहा था, उसका धरातल से कोई रिश्ता नहीं बन पा रहा था। ऐसे में इनकी अदाकारी चलती तो रही लेकिन उसमें वो दीवाना कर देने वाली अपील बची नहीं रही, जिसके लिए लिए तीनों मशहूर थे।


Saturday, August 15, 2009

ये देश है तुम्हारा खा जाओ इसको तल के


पहले देश को, देशवासियों को, ब्लॉग जगत के लिक्खाडों को ज़श्ने-आजादी की मुबारकवाद, मुबारकबाद उन्हें जो आम हैं, खास नहीं। और ऐसे ही रहे ईमानदार वगैरह तो जिंदगी भर आम ही रहेगे। लेकिन असली अभिनंदन, उन भ्रष्टाचारियों का जो देश को बपौती का माल समझकर दीमक का अनुसरण किया करते हैं।


हे बेईमानी के मील के पत्थरों, आजादी की इस सालगिरह पर उन तमाम लोगों के दिलों पर गिरह लग गई होगी, जिन्होंने पता नहीं क्या सोचकर खून-पसीना वगैरह बहाकर, अंग्रेजो की गोलियां वगैरह खाई। तुम लोगों के गुरदे, जिगर दिल बेचो, शर्म और हया के साथ ईमान बेचो...स्वाईन फ्लू से बचाने वाले मास्क से लेकर दवा तक कालाबाजार के हवाले कर दो, खरीदने वालों की होगी औकात तो खरीदेंगे वरना न तो देश में लकडियों की कमी है ना कब्र के लिए ज़मीन की।

ट्रेन में बिना टिकट चलने वाले हे महासपूतों, टिकट लेकर चलना न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि धिक्कार है तुम्हारी मर्दानगी पर..। एक अदने से टिकट चेकर की यह औकात कि तुम जैसे वीर को टिकट लेने पर मजबूर करो। देश की हर रेल पर तुम्हारा अधिकार है। हर गाड़ी तुम्हारे ही पूज्य पिता की है, जब चाहों आंदोलन के नाम पर इसे फूंक दो।


और, हे उन पिताओं का सच्चे सपूतों, सुबह उठकर अपने मलमूत्र वगैरह सड़क के किनारे ही सादर समर्पित करो। इससे बरसात के इस मौसम में क्या ही मनोरम छटा पैदा होती है.. हरी-हरी घास पर पीला-पीला गू... मानो हरी चादर पर सुनहरे बेलबूटे...।


दाल, चावल आटा, गन्ना, चीनी, पेट्रोल. जो इच्छा हो जिस चीज़ की इच्छा हो, ब्लैक में बेचो। काला धन, धन के नस्लवाद को कम करता है, धन के रंग भेद के खिलाफ फतवा है।


हे आम आदमी, तुम चक्की में पिसने वाले घुन हो, तुम बलियूप की प्रतीक्षा में खड़े पाठा अर्थात् मेमने हो, तुम दड़बे में दुबक कर अपनी मौत का इंतजार कर रहे मुर्गी के नपुंसक संतान अर्थात् चिकन हो.. लेकिन यह भरोसा रखो कि तुम्हारे नेता भी तुम्हारी तरह हैं। ....ये बात और है कि कुछ लोग उन चिकनों को हेडलैस चिकन कह जाते हैं......उनका भरोसा करो.. वह भरोसा तो दिला ही रहे हैं और मंहगाई बढेगी, दाल-चीनी मंहगी होगी. मौत के दिन नजदीक आंगे..पानी कम बरसेगा...माटी और गरम होगी।


हे आम आदमी अगर तुम रैकेट नहीं चला सकते, ध्रुव के निकट नहीं जा सकते.. तो आम तो नहीं ही रहोगे अमरुद और शरीफे भी नहीं बन पाओगे।

अतः हे कापुरुषों अगर भ्रष्टाचार के अतिचार के संवाहक अर्थात् वैक्टर बनकर इस परंपरा के अंग नहीं बन सकते तो अपने अंग भंग के लिए तैयार रहो।
अतएव आजादी के इस पावन दिवस पर गुस्ताख की सीख मानो और िस गीत को गुनगुनाओ


'घोटालों की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के...

ये देश है तुम्हारा खा जाओ इसको तल के। '

आमीन।

Wednesday, August 12, 2009

रहमान अनप्लग्डः पर श्रोता निराश



दूरदर्शन के पचास साल इसी १५ सितंबर को पूरे हो रहे हैं। ऐसे में इतने बड़े संस्थान के स्वर्ण जयंती समारोह के लिए आयोजन भी उतना ही बड़ा होना चाहिए। सो, कल यानी ११ अगस्त से एक कार्यक्रम श्रृंखला की शुरुआत हुई है और सही ही इसका उद्घाटन कार्यक्रम रहमान साहब के कार्यक्रम से हुआ।
बहरहाल, रहमान अनप्लग्ड की शुरुआत बेहतर रही।
कैलाश खेर अपने पूरे रंग में नजर आए। और जागो से शुरु हुआ उनका परफॉरमेंस आठ गानों तक चलता रहा। ये जो देश है.. स्वदेश से, कैलाशा के गैने, सैंया, मरम्मत मुक़द्दर की कर दे मौला। श्रोताओं के लिए गज़ब का अनुभव था।


फिर आए शिवमणि. और इस ड्रमर ने पहले जालियां और सूटकेस बजाया। शिवमणि को बहुत दिनों से देखता आ रहा हूं लेकिन उनकी हर प्रस्तुति पहले से अलग होती है। शिवमणि के ड्रम को सुनना अद्भुत है। उंगलियां ही सुमिरनी बना ली हैं मणि ने। मणि तो सचमुच मणि हैं भारत मां की ताज के ।


फिर आए हरिहरन...तू ही रे.. से शुरु किया। सूदिंग कहते हैं ना जिसे अंग्रेजी में, उनकी आवाज़ से कुछ वैसा ही लगता है। मखमली.. या कहें शहद टपकती-सी आवाज़। कैलाश खेर की आवाज़ मे अगर पहाड़ी नदी सी चंचलता और जलप्रपात सी ऊंचाई है तो हरिहरन की आवाज में वह नदी मैदानी हिस्से में कलकल करती बहती लगी। गहराई और वॉल्यूम के लिहाज से भी।


आखिर में, हरिहरन ने रोजा का भारत हमको जान से प्यारा है गाया। साधना सरगम ने किसना फिल्म का भजन गुगुनाया ..बस हो गया खत्म। रहमान पता नहीं क्यों गाने स्टेज पर नहीं आए। जय हो..तो जाने दीजिए वंदे मातरम् भी नहीं गाया। हम इंतजार करते रहे। वैसे रहमान कंसर्ट के दौरान पियानो बजाते रहे लेकिन हम तो उनकी जादुई आवाज़ सुनने के लिए बेताब थे।


बड़ी निराशा हुई। वह निराशा अभी तक तारी है। वैसे रात में हम घर गए १२ बजे के आसपास तो वंदे मातरम प्लेयर पर चला कर सुन ज़रुर लिया, लेकिन निराशा कम नहीं हुई। वो इसलिए कि रहमान की आवाज़ में लाइव सुनना अलग मज़ा देता और हम रहमान के प्रशंसकों में से एक हैं।

चलिए फिर कभी सही..।

Wednesday, August 5, 2009

सफ़रनामा- इंसेफेलाइटिस के इलाके में


बनारस के हम निकले तो सुबह के ११ बज रहे थे। आलू के तीन परांठे चांपने के बाद और उस पर लस्सी गटकने के बाद सोने की तीव्र आकांक्षा मन में व्याप्त थी। किंतु समय का ख्याल रखते हुए हमें चल देना ही था। अस्तु..पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़मीन का जायज़ा लेते हुए आगे जाना था हमें।


बनारस के बाद हमने जी टी रोड अर्थात् एनएच-२ का दामन छोड़ दिया। गरमी और उमस के बारे में कुछ कहना नहीं चाहता, जो हमें महसूस हो रहा था, वह सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। उसे बताया नहीं जा सकता है।
हमने सारनाथ के रास्ते गोरखपुर जाने के लिए हमने एनएच-२९ पकड़ा। अब हम उत्तर की तरफ बढ़ रहे थे। गाज़ीपुर आते ही हमें हमारे एक प्रोड्यूसर दीपक राय याद आए। दीपक जी की भदेस गालियों की बौछार में जो प्यार होता है, उसे गाज़ीपुरिया महक होती है--माटी की ख़ुशबू..।


गाजीपुर शहर से बाहर निकलते वक्त एक दुकान पर हमने पकौडियां खाईं और जलेबी भी। चाय इतनी शानदार थी.. उसमें अब बिहार की मिट्टी का सोंधापन आने लगा था।


आज़मगढ़ पहुंचे तो एक नई स्टोरी हमारा इंतजार कर रही थी। आज़मगढ़ के गांवो में नई पीढी के लोग नहीं मिलते और आज़मगढ़ को जिस वजह से बदनाम किया जाता है उसका भी कोई निशां हमें दिखा नहीं।


आजमगढ़ की समस्या है जिसे अंग्रेजी में कहते हैं इंटरनल माइग्रेशन। क्या हिंदू क्या मुस्लिम..हर संप्रदाय के लोग रोज़गार के लिए इलाका छोड़ रहे हैं। लेकिन एक बदनामी है जिसकी वजह से नौकरी मिलती नहीं बाहर..। बनारस के बाद गोरखपुर तक हमें सारनाथ, सैदपुर, गाज़ीपुर, बिरनोन, मरदा, मऊनाथभंजन, घोसी, दोहरीघाट और चिल्लीपुर वगैरह पार करना पड़ा।


जहां तक मुझे याद है दोहरीघाट के पास हमारे कैमरामैन गंगा-गंगा करते शूट करने कार से उतर पड़े। लेकिन वह घाघरा नदी थी। पानी एक दम साफ। सुनील नहाने के मूड में आ गया और हमारा ड्राइवर भी। लेकिन मुझे लगा कि स्वाति के सामने नहाना.. ठीक नहीं रहेगा। कोई सिक्स पैक-वैक तो है नही हमारे पास। तो बेवजह अपने स्वास्थ्य पर तीखी टिप्पणियां क्यो सुनी जाए? आ बैल (गाय) मुझे मार वाले स्टाइल में।


बहरहाल, गोरखपुर के बारे में हमने सुन रखा था कि यहा जापानी बुखार का बड़ा कहर है। और हजारो बच्चों की जान हर साल चली जाती है।


गोरखपुर पहुंचे तो वहां के डॉक्टर आर एन सिंह से हमारी मुलाकात हुई। सिंह साहब ने इँसेफेलाइटिस के खिलाफ जंग छेड़ रखा है। गोरखपुर की हालत ये है कि वहां २००५ में ४ हजा़र से ज्यादा २००६ में करीब ५ हजार २००७ में साढे चार हजार और २००८ में दो हजार बच्चे काल के गाल में समा गए हैं। केंद्र ने टीकाकरण का काम किया है लेकिन एक बार टीकाकरण के बाद कर्तव्यों की इतिश्री मान ली गई। सूअर पालन पर कोई रोक वोट की वजह से नहीं लगाया जा रहा है।


क्या बिडंबना है..। अमीरो की बीमारी स्वाईन फ़्लू पर केंद्र का रुख देखिए और गरीबो और पूर्वांचल की बीमारी इंसेपेलाइटिस पर सरकार का रवैया..। स्वाइन फ्लू से अब तक मेरी अद्यतन और अधिकतम जानकारी से महज एक लड़की की मौत हुई है- पुणे में। कोई शुबहा नहीं, एक भी मत नहीं होनी चाहिए और स्वाइन फ्लू की रोकथाम होनी चाहिए। लेकिन इँसेफेलाइटिस पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की ज़रुरत है और अभी क्या ताजा़ आंकडा़ है बीमारों का इसका ख्याल रखा जाना चाहिए। न्यूज़ चैनल्स की तचरफ से भी अभी तक कोई फॉलो-अप नहीं है।

इँसेफेलाइटिस पानी से होने वाला रोग है। सूअर इसका वैक्टर है। ड़ॉ सिंह ने इसेक लिए ेक सस्ता उपाय हमें बताया। साफ बाल्टी में पानी को रख कर उसे कपड़े से ढंक दें और सूरज की रौशनी में २ घंटे छोड़ दें..इसमें इँसेफेलाइटिस के वायरस मर जाते हैं। इससे उबालने का खर्च भी नहीं।

ऊपर जो आंकड़े मैंने दिए हैं वह नजदीकी अंको तक साधे गए हैं और सरकारी अस्पतालों के हैं। असल आंकड़ा इसेस ज्यादा हो सकता है। डॉक्टर साहब के यहां से निकले तो चार बज गए थे शाम के। मेरी मंजिल थी बेतिया। जहां गेस्ट हाउस में ठहरने का इंतजाम मुन्ना ने किया था। मुन्ना डीडी के स्ट्रिंगर हैं बेतिया में और असरदार काम करते हैं। लेकिन गोरखपुर से आगे का हाल अगली पोस्ट में।

जारी...

Tuesday, August 4, 2009

जिंदगी की आवाज़ थे किशोर दा


आज किशोर दा का ८०वां जन्मदिन है..। लेकिन सच कहूं तो किशोर जैसे लोग, इन जैसी शख्सियतों का जन्मदिन या पुण्यतिथि मायने नहीं रखती। दरअसल, किशोर दा हम सब की यादो में हैं। मैं किशोर कुमार से कभी नहीं मिला..लेकिन बचपन से अमानुष का गीत दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा.. या फिर पल पल दिल के पास... या जय जय शिव शंकर.. या फिर रात कली एक ख्वाब में आई...छूकर मेरे मन को किया तूने क्यआ इशारा, या मेरे महबूब कयामत होगी..कितने गाने गिनवाऊं। आप सबों की ज़बान पर ये गाने आते होंगे, कई बार कई कई बार।




किशोर दा की आवाज़ से हमारा उतना ही तारतम्य है जितना अमिताभ और देव आनंद का या फिर राजेश खन्ना का। उनने शात्रीय संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा ली नहीं थी, लेकिन गानों में कहीं सुर-ताल की कमी थी कभी? उनकी यूडलिंग का जवाब है आज के किसी गायक के पास? किशोर दा की नकल से कितने गायको के पेट पल रहे है, इसकी कोई गिनती नहीं।


दरअसल, किशोर एक हरफनमौला शख्सियत थे। उनकी अदाकारी पर क्या कहूं. पैसा ही पैसा, बाप रे बाप, पड़ोसन को कौन भूल सकता है। उनकी हाफ टिकट देखते हुए मैं कई बार कुरसी से गिर चुंका हूं हंसते-हंसते। गंगा की लहरें, चलती का नाम गाड़ी, वगैरह...। फिल्म पड़ोसन में किशोर का सुनील दत्त को बोले कहने का अंदाज़.. और सच कहूं तो उस फिल् में दत्त साहब को किशोर खा गए थे।


आज कह सकता हूं कि .. कि किशोर के दर्द भरे गीत ने कभी न कभी कहीं न कहीं हर युवा के दिलो की धड़कन को छुआ होगा। किशोर ने अपनी ावाज़ से हमारे सपनों को नई ऊंचाई दी। आज भी युवा मन प्यार से पहले गुनगुनाता है, मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू... प्यार हो जाए तो गाता है ड्रीम ग्रर्ल और प्यार हुआ है जब से .... प्यार रुठ जाए तो कहता है पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, दिल टूटे तो कहता है, दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा..।


हर मूड के गाने..। हर फलसफे के। रोमांस की हद को रुप तेरा मस्ताना से ज्यादा कौन बयां कर सकता है। और दर्द की हद में मैं शायर बदनाम से गहरा गाना कौन है? या फिर ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा? और खुशी में झुमरु का सतवां आसमान..इना-मीना-डीका... हजारों गाने हैं।


मेरी पीढी़ की तरफ से किशोर दा के हुनर को प्रणाम..।