Saturday, July 30, 2011

बुंदेलखंड का सच-अंतर्गाथा तीसरा हिस्सा

पिछले पोस्ट से आगे---

सिर्फ प्रह्लाद सिंह जैसे जीवट वाले इंसान ही हैं, जो त्रासदी से निपट रहे हैं। उन्ही के गांव गढ़ा की राजकिशोर ने जीने की हर उम्मीद छोड़ दी है। राजकिशोर के पति ने अपनी खेती को बेहतर बनाने के लिए एजेंटों के झांसे में आकर ट्रैक्टर खरीद तो लिया, लेकिन साल-दर-साल के सूखे ने जिंदगी को भी नीरस बना दिया। तिस पर, ट्रैक्टर नीलामी के लिए हर हफ्ते आने वाले नोटिसों ने जीना हराम कर रखा था।

एक दिन ऐसा हुआ कि राजकिशोर के पति का ट्रैक्टर चोरी हो गया। शाम को वे घर तो लौटे लेकिन देर रात उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। अब राजकिशोर और उनकी युवती होती बेटी के लिए रोजी-रोटी मुहाल है। इज्जतदार किसान की विधवा घर-घर जाकर झाडू-कटकी करती है। लेकिन जिनके घर में वह झाडू-कटकी करती हैं, उनकी भी हालत कोई अच्छी नहीं। राजकिशोर अपनी बेटी के विवाह की चिंता में घुली जाती हैं। हमसे बातें करते समय उनकी आंखों से उनकी मजबूरी बह निकलती है।

हमारे बगल में ही सुरादी बैठे हैं। उनके घर में दो मौते हुई हैं। राज्य सरकार के अधिकारी उनके घर की आत्महत्याओं को गृहकलह का नाम देती है।

सुराजी के घर में अब कोई नहीं। बीवी बहुत पहले भगवान को प्यारी हो गई। एकमात्र पोती को ब्याह कर उऩका बेटा निश्चिंत हो गया था। लेकिन, एक दिन जब बेटे के बेटी दामाद घर आए तो सूखे की वजह से हालात बदतर हो चुके थे। पिछले ही साल की बात है।
बुंदेलखंड में किसानों की मौत का जिम्मेदार कौन है?


....सुराजी की आंखें डबडबा जाती हैं। पिछले ही साल, पोती और उसके पति पहली बार अपने घर आए, घर में सेर भर भी गल्ला नहीं था। इसी संकोच के मारे सुराजी के बेटे ने पास के नीम के पेड़ से फांसी लगा ली। ...सुराजी तर्जनी से सामने नीम का पेड़ दिखाते हैं। पिता की आत्महत्या के अपराधबोध से पोती ने भी जान दे दी। सुराजी के साथ-साथ वहां दालान पर जमा पूरा समुदाय रो पड़ा।

नीम का पेड़ अब भी हरा है, उस पर सुराजी की आहों का कोई असर नहीं..।

हमारी पूरी टीम स्तब्ध होकर देखती रहती है। बाहर दालान में हम बैठे हैं। बारिश हो रही है। पुष्पेन्द्र भाई के कहने पर गांववाले हमारे लिए रोटी और करेले की सब्जी लेकर आते हैं। घर पर में खाने के मामले में बहुत नकचढा माना जाता हूं...आजतक कभी करेला खाया नहीं।

पहली बार जिंदगी में खाने की अहमियत सामने दिखती है। (पढा और सुना बहुत था) मां की हिदायत को पोटली याद आ जाती है। मां आज भी कहती है, बेटा, अन्न अन्नपूर्णा है। इसे बेकार न जाने दो।

पता नहीं क्यों मैं रुआँसा हो उठता हूं। सामने प्रह्लाद सिंह है, राजकिशोर हैं...सुराजी हैं। निवाला अंदर नहीं जा रहा..पहली बार करेला कड़वा नहीं लग रहा। मैं खाना खत्म करता हूं। आशुतोष शुक्ला भी संजीदा हैं..।

खाने की थाली समेटने आती है सोनू। पुष्पेन्द्र भाई बताते हैं, इसने भी जान देने की कोशिश की थी। वजहः सोनू के पिता रामकिशोर बैंक के कर्जदार हैं। बड़ी बहन की शादी में दो-तीन लाख और चढ़ गए। 8वीं में पढ़ने वाली सोनू ने सोचा अगर वही न रहे, तो पिता को शादी की चिंता भी न करनी होगी, और न ही कर्ज लेना पड़ेगा।

कर्ज के बोझ और उसके बाद आत्महत्या से बचाने के लिए एक रात सोनू डाई ( बाल रंगने वाले रसायन) को पीकर सो गई। वक्त रहते ही उसका उपचार शुरु कर दिया गया और सोनू बचा ली गई।
सोनू के पिता घटना बयान करते-करते अचानक चुप होकर शून्य में निहारने लगते हैं।

सोनू भी हमसे बात करने सो थोडा़ कतराती है। आशुतोष पूछते हैं, मरने की कोशिश कर क्या साबित करना चाहती थी, वह मासूमियत से बताती है, जब हमहीं ना रहेगें तो पापा को कर्ज नहीं लेना पडेगा ना। आशुतोष के पास जवाब नहीं है, मैं कैमरामैन राजकुमार को कुछ प्रोफाइल और क्लोज-अप शॉट्स लेने के निर्देश देने में खुद को व्यस्त कर लेता हूं।

आखिर उम्र से पहले बड़ी हो गई, इस लड़की से क्या पूछूं...क्या टीवी माध्यम का सबसे बदनाम सवाल....? मरते वक्त कैसा लग रहा था?

मेरे अंदर का शख्स मुझसे पूछ रहा था, इस व्यवस्था के खिलाफ कोई हथियार क्यों न उठा ले, मेरे अँदर का पत्रकार इस बात का पूरा समर्थन कर रहा था। दोपहर बाद हमें वहां से निकलना था, कैमरामेन कुछ शॉट्स लेने में व्यस्त हो गया।

मैं और आशुतोष सिगरेट पीने के बहाने एक कच्ची दुकान में रुक गए। उसने आदर से बिठाया, सिगरेट दी और कहने लगा कि अब तो आप लोगों के ही हाथ ही है सब..।

गढा गांव नाउम्मीदी की जीती-जागती मिसाल बन गया है। हम केन को फिर से पार कर उस जगह आ गए। रास्ते फिसलन भरे हो गए थे।मैं फिर सोचने लगा था, क्या जीने के रास्ते सच में इतने ही फिसलन भरे हो जाते हैं...??

....जारी

Tuesday, July 26, 2011

बुंदेलखंड का सच 2- 519 आत्महत्याओं का इलाका


 बुंदेलखंड-यूपी के सात जिलों में पिछले 5 महीनों, यानी जनवरी 2011 से 31 मई तक 519 आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए। राज्य सरकार इन आत्महत्याओं का गृहकलह जैसी वजहों से जोड़ती है। सवाल ये है कि गृहकलह तो अंबानी भाईय़ों के बीच भी हुआ था, और हजार-लाख रुपयों के लिए नहीं, कई हजार-लाख करोड़ रुपयों के लिए हुआ था। उनने आत्महत्या क्यों नहीं की, तनाव पवा गांव की रामकली को ही क्यों..कोकिलाबेन को क्यों नहीं..?

सुबह जब हम बांदा के पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस से निकले तो मेरे मन में कहीं भी यह बात नहीं थी कि आज का दिन मेरी जिंदगी, खासकर पत्रकारीय अनुभवों को एकदम से बदल देगा। हमारे पास छोटी कार थी। हमलोग, यानी मैं, कैमरामैन राजकुमार रॉकी, साथी रिपोर्टर आशुतोष शुक्ला, ड्राइवर राकेश और साथ में थे भाई पुष्पेन्द्र। 


दिल्ली से जाने वाले पत्रकारों के लिए भाई पुष्पेन्द्र मार्गदर्शक का काम करते है। स्वाति माथुर, टाइम्स ऑफ इंडिया वाली रिपोर्टर, जिनकी रिपोर्ट पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया था, वो भी पुष्पेन्द्र भाई की मदद से ही रिपोर्ट लिख पाई थीं।


बहरहाल, हम बांदा जिला के आखिरी छोर पर पहुंच गए। केन नदी के किनारे। जिसके दूसरी तरफ था हमीरपुर जिला। केन नदी दोनों जिलों का बांटती तो है लेकिन वह नहीं बांट पाई है तो दोनों तरफ भूख की तस्वीर को, लोगों की तकदीर को और आत्महत्याओं के सिलसिले को। 

केन पार करने के लिए हमारी पूरी टीम को पैंट उतारनी पड़ी। पुष्पेन्द्र भाई मजाक में बोले कि वह हर पत्रकार की पैंट बुंदेलखंड दर्शन से पहले उतरवा लेते हैं। हम हंसे। लेकिन हमारी यह हंसी थोड़ी ही देर में काफूर हो गई। जब हम गढ़ा गांव में दाखिल हुए। गढ़ा गांव,  किसी भी आम हिंदुस्तानी गांव की तरह ही है...घरौंदों की तरह कच्चे-पक्के मिट्टी के घर, और आटा-चक्की से आती एक जानी-पहचानी आवाज..लेकिन इस गांव में आज की तारीख में कहीं उम्मीद की झलक तक नहीं दिखती।

उम्मीद...जिसके सहारे जिंदगी आगे बढ़ती है। शायद इसी उम्मीद ने जिंदा रखा था, गढा गांव के प्रह्लाद सिंह को। बड़ी-बड़ी शानदार मूंछों वाले प्रह्लाद सिंह ने अपनी जवानी में किसी का क़त्ल कर दिया था। कत्ल के जुर्म में 1962 में सज़ा-ए-मौत मिली। लेकिन, प्रह्लाद सिंह ने अपनी जिंदगी की उम्मीद नहीं छोड़ी थी उन्होंने राष्ट्रपति से जीवनदान की गुहार लगाई। उनकी सज़ा आजीवन कारावास में बदल गई। 

सन बहत्तर में उनकी नेकचलनी से उन्हें वक्त से पहले रिहा कर दिया गया। गांव लौटे तो नई उम्मीद के साथ जिंदगी फिर शुरु की। 

अभी एक दशक पहले तक उनके साथ कोई समस्या नहीं थी। लेकिन परिवार बड़ा हुआ तो प्रह्लाद सिंह और उनके भाई ने मिलकर ट्रैक्टर के लिए बैंक से कर्ज ले लिया...और इसी कर्ज ने उनके परिवार को बरबाद कर दिया।

पिछले साल बुंदलेखंड-यूपी में हुई सिर्फ 120 मिमी बारिश

2002 के बाद बुंदेलखंड लगातार सूखे की गिरफ्त में आता गया। पहले से ही कम बारिश वाला इलाका धीरे-धीरे अकाल की चपेट में आता गया। साल 2007 में बैंक ने भाड़े के गुंडों से प्रह्लाद सिंह के ट्रैक्टर को कब्जे में ले लिया...ट्रैक्टर नीलामी के बाद बाकी की रकम की देनदारी की आखिरी नोटिस भी निकाल दी गई। पहले तो परेशान भाई ने फिर बेटे, बच्ची सिंह ने आत्महत्या कर ली। पोती मनोरमा भी ब्याह के खर्च से बेचारे दादा को बचाने की खातिर एक दिन डाई पीकर हमेशा के लिए सो गई। 


दिवंगत बेटे और पोती की तस्वीर दिखाते प्रह्लाद सिंह कहते हैं कि उन्होंने ऐसे बुढापे के लिए क्षमादान नहीं मांगा था राष्ट्रपति से। उनके घर में उनके एक पोते का विवाहोत्सव है, लेकिन खुशियों की बूंद तक नहीं दिखती। 

हमें देखते ही गांव के कई लोगों को लगता है कि हम उनकी रिपोर्ट दिखाएंगे तो शायद उनका कर्ज माफ हो जाएगा। बुंदलेखंड का एक खुद्दार किसान,  कर्ज चुकाना तो चाहता है लेकिन प्रह्लाद सिंह की मजबूरी है कि जिस खेती पर उन्होंने अपनी जिंदगी गुजार दी वह खेती आज उनके बीज तक वापस नहीं कर पा रही। 

2002 से 2011 दस साल हो गए, उनकी खेती उन्हें दाने-दाने को मोहताज बना दे रही है। 

सात जिले, 5 महीने, 519 किसान आत्महत्याएं




प्रह्लाद सिंह की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की 2 करोड़ 10 लाख की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है। प्रह्लाद सिंह की ही तरह बाकी के लोगों की उम्मीदों की डोर टूटने लगी है। कर्ज एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं।..लेकिन ये शर्त जानलेवा है।



बुंदेलखंड के 13 में से सात जिले उत्तर प्रदेश में हैं...और उनमें सबसे ज्यादा बदहाली है बांदा में..। इस साल जनवरी से लेकर मई तक सिर्फ बांदा जिला अस्पताल में ही आत्महत्या के करीब 330 मामले दर्ज हैं। 


हालांकि, यह सिर्फ दर्ज हुए मामले ही हैं। असली तस्वीर ज्यादा भयानक हो सकती है। इस साल के पहले पांच महीने में ही बुंदेलखंड के सात जिलों में 519 मौतों की  खबर है। 
 

पिछले पांच महीने बुंदेलखंड के लोगों के लिए अच्छे नहीं रहे। 519 लोगों की आत्महत्याओं की खबर खतरे की एक घंटी है। साल 2009 में बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में सात जिलों, यानी महोबा, चित्रकूट, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा, झांसी और जालौन में कुल 568 मौते दर्ज की गई थीं। साल 2010 में आत्महत्याओं का आंकड़ा 583 था। जबकि, साल 2001 से 2005 के बीच 1275 आत्महत्याओं के मामले सामने आए थे। 




ध्यान देने वाली बात यह है कि इन 1275 आत्महत्याओं में साल 2002 और 2004 का वह दौर भी शामिल है, जो सूखे के सबसे भयावह साल थे। यानी आत्महत्याओं का सूखे से संबंध तो है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं।  

आल्हा-ऊदल की धरती, जंग में हमेशा सीना तानकर लड़ने वाले जुझारु वीरों की धरती के लोग सिर्फ सूखे से ही मौत की राह चलने को मजबूर नहीं हुए हैं।

कुछ तो ऐसा है जिसने इस इलाके में आत्महत्या की सामूहिक प्रवृत्ति को बढावा दिया है। 

....जारी

Sunday, July 24, 2011

बुंदेलखंड का सच-अंतर्गाथा

पिछले दिनों मेरी एक रिपोर्ट आई थी। बुंदेलखंड पर। एक बार जब रिपोर्ट दिखा चुका, तो दोबारा लिखने की जरुरत क्या है..। सच तो ये है कि टीवी पर हमने जिताना दिखाया, उससे कहीं ज्यादा दिलो-दिमाग पर छप गया। टीवी की अपनी मजबूरियां हैं। जितने विजुअल्स हैं, उतना ही कह सकते हैं।

बहुत पहले एक मुहावरा सिखाया गया था- एक तस्वीर हजार शब्दों से भी ज्यादा बयां करती है। लेकिन बावजूद इस मुहावरे के, यह भी सच है कि तस्वीरों की अपनी एक सीमा होती है।

जितना आपने कैमरे में क़ैद किया, जिस वक्त कैद किया...उसके अलावा उसके आगे-पीछे का सच मामूली होकर रह जाता है। बहरहाल, कहने को बहुत कुछ है..।

18 जून को बॉस ने कहा कि एक रिपोर्ट बनाओ, चाहो तो दो एपिसोड बनाना। बॉस को मामले की गंभीरता का ज्यादा आइडिया था नहीं...कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है मामले का। आगे देख लो..। कमरे से निकलता ही कि रोककर कहा, सुना है बारिश नहीं होती उधर..खेतों मे दरारे पड़ी हैं। उसके शॉट जरुर ले आना।

एक पत्रकार की हैसियत से मेरी हसरत थी कि कुछ ऐसी रिपोर्टिंग करूं..जो ज़मीनी हो। कुछ ऐसी कसमसाहट थी अंदरखाने कि, लोगों से जुड़े मुद्दे उठा सकूं।

19 जून को मैं लखनऊ के लिए निकला। वहां से मुझे आशुतोष शुक्ला को साथ लेना था। वहां, शुक्ला जी मेरे ही होटल के कमरे में आकर जम गए। तत्वसेवन के लिए। बाद में, रिपोर्ट के बाद उन्होंने मुझे कितने मानसिक कष्ट दिए, इसका जिक्र बाद में।

20 की सुबह, गाड़ी मिलने में काफी जद्दोज़हद के बाद मैं टीम के साथ बांदा के लिए रवाना हुआ। मेरी कैमरा टीम इलाहाबाद से आकर मेरे साथ हो चुकी थी। लखनऊ से निकलते-निकलते मॉनसून की ऐसी झड़ी लगी कि लगा आज ही बरस लेंगे बदरा...सारी जमा पानी आज ही उड़ेल कर मानेंगे।

कानपुर पार कर गए, बारिश ने फिर भी पीछा नहीं छोड़ा।

सारे रास्ते दिमाग में यही चलता रहा कि आखिर कहां से शुरु करुं और किस चीज से शुरु करूं। शाम होते-होते बांदा पहुंच गया। सुमन मिश्रा (हमारे स्थानीय संवाददाता) ने हमारा स्वागत किया।

सुमन मिश्रा को मंदिरों मे दर्शन का बडा़ शौक है। वह अड़ गए की भारी-भरकम नाश्ते के बाद वह हमें पहाड़ी पर बनी काली माई का मंदिर दिखाकर ही मानेंगे।

हम तो ठहरे नास्तिक, उधर शुक्ला जी भी मय के आगे भगवान को भी कुछ नहीं गिनते...ड्राइवर भी थका हुआ था, कैमरा मैन भी कन्यामित्र से बातचीत में व्यस्त...उधर मिश्रा जी हमें आस्तिक बनाए जाने पर उतारु थे।

बहरहाल, हमने ही मना किया। मंदिर से पीछी तो छूट गया..रात में खाकर सोए...दिमाग में इस योजना के साथ कि कल करना क्या है।

सुमन मिश्रा के यहां ही पुष्पेन्द्र भाई से मुलाकात हो गई। वैसे कुमार आलोक ने भी उनका नंबर हमें दे दिया था। पुष्पेन्द्र भाई के बारे में विस्तार से फिर कभी..। लेकिन पहले ही दिन शूट पर जाने का उनका दिया वक्त हमारी पकड़ से छूट गया। सात बजे उनसे मिलना था और देर रात सोई टीम में से कोई भी, ( मैं तो शाश्वत कुंभकर्ण हूं) आठ बजे से पहले जाग नहीं पाया।

...और जब जागे तो देखा, आसमान में काले-काले बादल छाए हैं। बांदा में दुर्ळभ बारिश होने वाली थी। कैमरामैन बोला, काम कैसे होगा..। हमने कहा धीरज धरो..।


...जारी