Friday, November 30, 2007

उम्मीद...

एक बार फिर बातें करना,
ज़िंदगी की गर्माहट की,
ताकि कुछ तो जान सकें--
वह गर्म नहीं है।

पर वह गर्म हो सकती थी।

मेरी मौत के पहले
एक बार फिर बातें करना
प्यार की,
ताकि कुछ तो जान सकें,
वह था--

वह ज़रूर होगा।

फिर एक बार बातें करना,
खुशी की, उम्मीद की,
ताकि कुछ लोग सवाल करें,

वह क्या थी, कब आएगी वह ?

मंजीत ठाकुर

फिल्म- द पोएट चाइल्ड

जिजीविषा की अद्भुत गाथा

भारत में ही नहीं दुनिया भर में ईरानी फिल्मों को लेकर एक शानदार उत्साह है। लोग उन्हें देखना चाहते हैं। गोवा में भी दो ईरानी फिल्में हैं, एक तो है द ईरानियन प्रिंस जिसे दुर्भाग्यवश मैं देख नहीं पाया हूं अभी तक। लेकिन एक अन्य फिल्म थी द पोएट चाइल्ड। ये देखी। ये फिल्म एक अनपढ़ पिता, जो अब अपंग होने की वजह से कारखाने में काम नहीं कर सकता और उसके बेटे के बीच के बेहद मार्मिक रिश्ते की कहानी है. पिता-पुत्र में एक शानदार कैमिस्ट्री है। बच्चे का अभिनय वयस्कों को भी मात दे दे।

बच्चा स्कूल में पड़ने जाता है, लेकिन अनपढ़ पिता अपने रिटायरमेंट के लिए खुर्राट सरकारी अधिकारियों से पार नही पा पाता। एक समझदार की तरह लड़का अपने पिता को पढ़ाई न करने के बुरे नतीजे बताता रहता है, और साथ ही साथ सरकारी अधिकारियों को नियम-कायदों की असली और नई किताब के ज़रिए लाजवाब भी करता जाता है.( वैसे यह साबित हो गया कि ईरान हो या भारत, सरकारी अधिकारी हर जगह एक जैसे अडंगेबाज होते हैं)

फिल्म में कई प्रसंग ऐसे हैं, जो बच्चे को बच्चा नहीं एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि साबित करते हैं। कई जगहों पर प्रतिनिधि ने एक्वेरियम की अकेली मछली के ज़रिए बेहतरीन मेटाफर का इस्तेमाल किया है।

वह बच्चा जो अपनी दुनिया में अकेला है, जिसे बूढे बाप की देखभाल भी करनी है, उससे संवाद भी करना है, अधिकारियों से अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी है। और बीच-बीच में अपना बचपन भी बचाए रखना है। यह फिल्म समाकालीन झंझावातों के बीच जिजीविषा की अनोखी दौड़ है। फिल्म के एक दृश्य में एक चोर उसके पिता की एकमात्र संपत्ति साइकिल चोरी करके भागने लगता है। उसी दिन जिस दिन सरकारी अधिकारी लड़के के पिता को पेंशन देना मंजूर कर लेते हैं। हाथ में मछली लिए का बरतन लिए लड़का उस चोर के पीछे भागता है। और अचानक आपको द बाइसिकिल थीव्स की याद आ जाती है.।

बहरहाल, चोर का पीछा करके आखिरकार उसे पकड़ लेता है। पर भागमदौड़ में मछली का बरतन टूट जाता है... लड़का कपड़े वाले प्लास्टिक के थैले में नाली का पानी भर के मछली डालता है। फिल्म के इस आखिरी दृश्य में नाली के पानी में भी मछली जिंदा है, लड़के के बाप को नाममात्र को पेंशन मिली है, फिर भी वह खुश है, लड़का अपने पिता को पढना सिखाता है। इससे बेहतर जिजीविषा की गाथा क्या हो सकती है भला? जहां तक साक्षरता के सवाल है.. यह फिल्म किसी भी सरकारी प्रचार से ज़्यादा प्रभावी साबित होगी।

मंजीत ठाकुर

Wednesday, November 28, 2007

क्या आप मुबारक बेगम को जानते हैं?

चढ़ते सूरज को सलाम करना फिल्म इंडस्ट्री की खासियत है। जो एक बार नज़र से उतर गया उसे फिर कोई याद भी नहीं करता। बीते जमाने की बेहद प्रतिभाशाली ओर मशहूर गायिका मुबारक बेगम इन दिनों गोवा में हैं। भारत के ३८ वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के गैर फीचर फिल्मों के वर्ग में विपिन चौबल की फिल्म मुबारक बेगम भी दिखाई जा रही है। यह बीते दिनों की इस मशहूर पार्श्व गायिका के जीवन पर आधारित है। उनके साथ बातचीत में हमने बांटे कुछ खास पल और अतीत वर्तमान हो गया।- गुस्ताख़
गुस्ताख़- बहुत दिनों के बाद इंडस्ट्री ने आपको याद किया है?

मुबारक बेगम- हां, ...आखिरकार याद तो किया। ये तो फिल्म्स डिवीजन वाले और विपिन जी हैं, जिन्होने लोगो को बताया कि मुबारक अभी भी ज़िंदा है। मेरे घर आकर फिर से उतना सम्मान मिलने से खुश हूं.. फिल्म्स डिवीजन की आभारी हूं। यहां लोग अब फिल्म देखकर जान रहे हैं कि मुबारक बेगम ने भी कुछ गाया था।


गुस्ताख़- आपके ज़माने और आज में क्या कोई फर्क पड़ा है?

मुबारक बेगम- बहुत फर्क पड़ा है। लोग डूब के गाते थे। आज की तरह नहीं। म्यूजिक सिर्फ पैसे कमाने का ज़रिया नहीं था। लोग अपने लिए भी गाते थे. संतुष्टि के लिए। आज तो गाने क्या होते हैं...गिनती की तरह एक दो तीन चार होते हैं। पहले ऐसा नहीं था।


गुस्ताख़- आजकल तो आपके गाने का रीमिक्स भी आ गया है?

मुबारक बेगम-( पूछती हैं..) किस गाने का आया है? .. (मैं बताता हूं) ...अच्छा वो वाला...क्या अच्छे भले गाने का कचरा करके रख दिया है। ... चेहरे पर असंतुष्टि के भाव हैं।


गुस्ताख़- कुछ गा सकती हैं? हमारे लिए...???

मुबारक बेगम- विवशता में सर हिलाती हैं... नहीं गा सकती.. गला खराब रहता है.. खांसी के दौरे होते रहते हैं..(फिर पूछती हैं) क्या नाम है तुम्हारा? मैं बताता हूं.. अच्छा... चलो तुम कह रहे हो तो गा देती हूं... गाती हैं.. फिल्म हमारी याद आएगी का गना... कभी तनहाईयों में हमारी याद आएगी.......पुरकशिश आवाज़ की तान होटल में लॉबी में बैठे लोगों को ध्यान खींचती है, फिर वह आवाज़ पास ही हिलोरें मार रहे समंदर की आवाज़ से बंदिश करने लग जाती है। गाना खत्म होता है, मेरा कैमरामैन कैबल समेट रहा है.. मैं ठगा-सा बैठ हूं। निर्देशक विपिन चौबल की आंखे पनीली हैं।

मुबारक बेगम के काम के बारे में और हाल ही में सारेगामा पर जारी सीडी पर कभी फिर लिखूंगा..

मंजीत

Tuesday, November 27, 2007

समकालीन जादुई यथार्थ जी रहा हूं...

समकालीन जादुई यथार्थ जी रहा हूं...क्या यह लाईन ज़्यादा बौद्धिक लग रही है आपको? लेकिन सत्य यही है। मुझ जैसे नौसिखिए जर्नलिस्ट के लिए जादुई क्या हो सकता है? अपने से वरिष्ठ लोगों का साथ... जिनको पढ़कर, सुनकर या देखकर बड़ा हुआ। कहीं न कहीं, किसी की तरह बनने या लिखने का विचार मन को सपनों की सुनहरी दुनिया में ले जाता है। उन सबको अपने पास देखकर, या मोबाईल पर सुनकर, या उनका मेसेज पढ़कर, मेरे रिपोर्टस पर उनके विचार जान कर..गहरी अनुभूति होती है।

गोवा आया, तो यहां मिले..वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज, नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण के सुरेश शर्मा , राजस्थान पत्रिका के राम कुमार और जनसत्ता-हंस के जाने माने अजित राय... से मिलकर समय गुजार कर इनसे जान-समझकर लगा कि उन लोगों के बीच हूं, जो सचमुच पड़ने-लिखने वाले हैं। वीकीपिडिया के फिल्मी पत्रकारों न दिल्ली में नाक में दम कर दिया। वहां किसी चैनल के मझ जैसे ही किसी टुटपूंजिया मुझसे पूछता है शुक्रवार को कौन सी रिलीज़ है...। गोवा में उससे इतर हम बातें करते हैं फिल्मों की क्वॉलिटी पर, उस की सिनेमाई भाषा पर, उसके कथानक के विस्तार और उसकी प्रासंगिकता पर। पता है कि वापस फिर उसी खोल में जाना है। लेकिन इस माहौल को जीना सच में जादुई है।

सुरेश शर्मा मंगल पांडे पर बनी फिल्म द राईजिंग की सच्चाई पर केतन से बहस करते हैं। अजय जी का शाहरुख से लव-हेट का रिश्ता चल रहा है। अमिताभ बच्चन इफी में क्यों नहीं हैं, इस पर चर्चा और चिंता होती है। एक नदीर गल्प और मीरा नायर की फिल्म पर बातें... किंगफिशर का लाउंज..दारू नदी की तरह बह रही है। एडलैब्स का अड्डा....सागर तट पर गीली हवा के झोंकों के बीच चिली-चिकन... पता चलता है..फिल्में देखना उतना आसान नहीं..जितना हम पूरे बचपन से दो साल पहले पत्रकार बनने तक मानते रहे। दिल्ली में रवीश कुमार और क़ुरबान अली मुझ पर सदय रहते हैं। उनसे मार्गदर्शन लेता रहता हूं।

किंगफिशऱ लाउंज में एक दूसरे की तस्वीरें उतारी जाती हैं। अगले दिन अजय जी को वापस मुंबई जाना है। सुरेश जी भी जाएंगे.. बचेंगे दो.. मैं और अजित जी..। इस बार बॉलिवुड की नामी हस्तियां नदारद हैं। कथित मुख्यधारा की फिल्में भी नहीं हैं। भारतीय पैनोरमा में धर्म और गफला ही हैं। सिनेमाई रूप से साधारण गफला में कम से कम तो कथ्य की मजबूती है, धर्म में भावन तलवार चीजों को अतिरंजित रूप में दिखाती हैं। देखना न देखना एक जैसा। किसी और दिन बताउंगा कि खोया-खोया चांद के निर्देशक सुधीर मिश्रा लोगों से क्यो कहते हैं कि ये फिल्म देखनी चाहिए और हज़ारों ख्वाहिशों .. के निर्देशक मानते हैं कि इस फिल्म की वजह से लोगों ने उन्हे गलत मान लिया है। वह सब बाद मे..
जारी..

मंजीत ठाकुर

Sunday, November 25, 2007

खुदा के लिए- लाजवाब

यह न माना जाए कि कहानी आतंकवाद को ध्यान में रककर बुनी गई है, इसलिए पसंद की जाएगी। फिल्म का संगीत पक्ष बेहद मज़बूत है। लेकिन बात पहले कुछ और.. पूरी फिल्म ऐसी है कि यह न तो इस्लाम के खिलाफ जाती है, न आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का दम भरने वाले पश्चिमी देशों के हक़ में। यह सिर्फ कट्टरपंथ के खिलाफ है और है इस्लाम की ग़लत व्याख्या करने वाले कठमुल्लाओं के खिलाफ़। कैसे भोले नौजवानों को अपने हक़ में कठमुल्ला इस्तेमाल करते हैं उसकी बेहतरीन मिसाल पेश करती है ये फिल्म। साथ अमेरिकी तंज़ नज़र को भी उघाड़कर नंगा करती है. (इसे निर्देशक की किसी को तुष्ट करने की कोशिश न माना जाए, तो बेहतर)

बहरहाल, औरत के हुकूक, इस्लाम की व्याख्या और जिहाद के लिए नशीली चीज़ो के व्यापार भी करने वाले लोगों की चर्चा करती फिल्म कई बार आपको सोचने के लिए मजबूर भी करेगी। खास कर शिकागो के एक दृश्य में जहां मंसूर संगीत की शिक्षा के लिए जाता है, उसे गाने के लिए कहा जाता है। वहीं परिचय के दौरान एक लड़की उसेस उसके मुल्क का नाम पूछती है..और वह पाकिस्तान को नहीं जान रही होतीहै। विदेशों में आम लोगों के मन में अब भी पाकिस्तान भारत का पडो़सी देश ही है। ताजमहल वाले देश का पड़ोसी...।

खैर.. लड़का जब गाना शुरु करता है तो वह गीत होता है...नीर भरन जाऊं कैसे... भारतीय गीत...। लेकिन उसेके आलाप के साथ दूसरे देशों के संगीतकार भी अपेन वाद्य बजाने लग जाते हैं..और निर्देशक का यह अपना तरीका है यह कहने का कि दुनिया की सबी संस्कृतियां मूल रूप में एक ही चीज़ सिखाती हैं.. भाईचारा।फिल्म में एकाध जगहों को छोड़कर तकनीक भी सही है। खासकर इस साउंड बेचैन कर देता है कभी-कभी। खासकर, कट्टरपंथी मुल्ला के लहू गरमाने वाली तकरीर के दौरान ध्वनि में एक खास कंपन है जो निश्यच ही बेचैन करने वाली है।

नसीरूद्दीन शाह फिल्म में उदारवादी मौलवी की भूमिका में हैं, जो बताते हैं कि संगीत इस्लाम में नाजायज़ नहीं। कुल मिलाकर रोहिल हयात का संगीत फिल्म के प्रभाव में खास योगदान देता है। अदालत में हुई पूरी तकरीर के बाद सरमद अपीन ग़लती मान लेता है, लेकिन अदालत में ही कट्टरपंथी उसकी खूब पिटाई करते हैं।

बहरहाल, मंसूर अमेरिकी प्रशासन की आतंकवादी विरोधी गतिविधियों के नतीजतन लकवाग्रस्त और पागल होकर वापस लौटता है... लेकिन इसके बाद फिल्म में जो होता है..वह वास्तविक लगने की बजाय जनहित मे जारी सरकारी एड की तरह लगने लगता है। मेरी लंदन वापस जाने की बजाय वजीरिस्तान जाकर बच्चों को पढ़ाने लग जाती है.। इस कहानी का इतना सुखद अंत पचता नहीं है... मंसूर के हिस्से आया क्लाईमेक्स ज़्यादा अपील करता है। बहरहाल, फिल्म बेहद शानदार है।

इसे न देख पाए, और अच्छी फिल्में देखने के शौकीन हैं, तो ज़रूर कुछ मिस करेंगे। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए प्रासंगिक है। फिल्म समारोह से एकाध पुरस्कार बटोर ले जाए तो मुझे हैरत नहीं होगी।

मंजीत ठाकुर

फिल्म- ख़ुदा के लिए


समारोह में पाकिस्तान की पहली आधिकारिक प्रविष्टि फिल्म ख़ुदा के लिए (इन द नेम ऑफ गॉड) देखी। शोएब मंसूर की ३ घंटे की यह फिल्म निश्चित रूप से कायल कर जाती है। फिल्म की शुरुआत से ही कट्टरपंथ पर चोट निर्देशक अपेन खास अंदाज़ में करता चलता है। कहानी है एक ऐसे इंसान की जिसने खुद तो गोरी मेम से शादी की है (जिससे बाद में वह तलाक़ ले लेता है) लेकिन अपनी बेटी को वह किसी गोरे के साथ ब्याह करने की मंजूरी नहीं देता। खुद उसका भाई पाकिस्तान में रह रहा है, लेकिन वह उदारवादी है जसके दोनों बेटे संगीतकार हैं। लेकिन एक प्रभावशाली भाषण देने वाला, अपने तर्क से लाजवाब कर देने वाला धर्मांध जहीन इंसान सरमद (छोटे भाई) को इस्लाम की कट्टरवादी धारा की तरफ मोड़ने में कामयाब हो जाता है।
सरमद संगीत को इस्मामविरोधी मान कर तालिबानों में शामिल हो जाता है। बड़ा भाई उसे समझाने की कोशिश तो करता है, लेकिन बात बिगड़ती हुई देखता रह जाता है। बड़े भाई को संगीत की शिक्षा के लिए शिकागो जाना पड़ता है।उधर, मेरी का पिता उसे धोखे से लंदन से लाहौर ले आता है। फिर जबरन उसकी शादी सरमद के साथ वजीरिस्तान ले जाकर करा दी जाती है। इस बीच सीन-दर-सीन मौलवी साहब का धर्मोपदेश जारी रहता है। अमेरिका में इसी दौरान ११ सितंबर की घटना घट जाती है। सारे मुसलमानों पर मानो कहर टूट पड़ता है। मंसूर (बड़े भाई ) को गिरफ्तार कर लिया जाता है। फिर उस पर जुल्मोसितम की इंतिहा हो जाती है। हवालात में उससे बार-बार ओसामा बिन लादेन से उसेक संबंधों के बारे में पूछा जाता है। उसे पेशाब पीने के लिए बाध्य किया जाता है।
उधर मेरी वजीरिस्तान से भागने की नाकाम कोशिशें करती है। वह लंदन में रह रहे अपने प्रेमी को एक खत लिखती है। फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेरी को छुड़ाने की कवायद शुरु होती है। मेरी को छुडा़ लिया जाता है। फिर लाहौर की अदालत में मुकदमा चतलता है। सरमद और मेरी की संतान का वारिस कौन होगा... या इस्लाम में जबरिया शादी की इजाज़त है या नहीं। एक लंबी जिरह होती है, जिसमें इस्लाम के कुछ हिस्सों की व्याख्या हमारे नसीर साहब करते हैं। फिल्म के अंत में मेरी लंदन जाने से इंकार कर देती है, और वजीरिस्तान वापस जाकर बच्चो को पढ़ाने का जिम्मा लेती है।
जारी

Saturday, November 24, 2007

फिल्म ४ मंथ्स...- पुनर्मूल्यांकन

कल ओपनिंग सेरेमनी में रोमानिया की पूरी फिल्म देखने को मिली। फिल्म की शुरुआत होती है एक लड़की की भागदौड़ से। लड़की अपनी दोस्त के लिए एक होटल का कमरा खोज रही होती है। इसी दौरान कॉलेज जाकर अपने पुरुष मित्र से मिलना.. उसकी मां के जन्मदिन पर जाकर फूल भंट करने का वादा भी करती है। यूं तो पूरी फिल्म में है , लेकिन शुरुआत के तीन सीन, सीन न रहकर सीक्वेंस बन जाते है। मौंगू (निर्देशक) का कैमरा पहले सीन में ४ मिनट और उसके अगले दृश्य में ७ मिनट तक कट नहीं होता। फिर के बाद एक कई ऐसे दृश्य आते हैं, जहां यह लगता है कि हम रियलिटी में हों। वर्चु्अलिटी का खात्मा हो जाता है। बहरहाल, लड़की जद्दोजहद करके एक होटल का कमरा खोज निकालती है।

कम्युनिस्ट शासन.. कड़ाई के दिन.. दर्शकों को लगता है कि लड़की अपने और अपने दोस्त के लिए एकांत की तलाश में हैं.. यह धारणा पुष्ट होती है तब जब वह किसी मि. बेबे को लेकर उस कमरे तक आती है। बातो ही बातों में पता चलता है कि बेबे महोदय चोरी-छिपे गर्भपात को अंजाम देते हैं। वह लड़ीक से जितनी रकम की मांग करते हैं, वह न तो उसके पास होता न ही उसकी सहेली के पास। याद रखना ज़रूरी है कि लड़की की सहेली गर्भवती है, लड़की नहीं। फिर पता यह चलता है कि लड़की को ५ माह का गर्भ है, जिसेक गर्भपात पर १०साल की कैद हो सकती है। यानी हत्या का मुदमा। डॉक्टर साबहब लड़की को कहते हैं कि वह यह काम महज कुछ हज़ार रुपयो के लिए नहीं करते बल्कि वह तो कुछ और मांग करते हैं। लड़की डॉक्टर के साथ हमबिस्तर होती है।.

..... कहानी पूरी तरह बताना मेरे बस में नहीं... फिर खेल शुरु होता है कि किस तरह पेट में पल रहे बिना जन्मे बच्चे को क्रूरता से वह डॉक्टर मार डालता है।फिल्म के आखिर में पता चलता है कि अपनी सहेली की सहायता के के लिए डॉक्टर के साथ हमबिस्तर होने वाली लड़की खुद गर्भवती हो गई है. उसके पेट में उसी डॉक्टर का गर्भ पल रहा होता है। फिल्म आपोक सन्नाटे में छोड़ देती है। कुछ महसूस करने के लिए.... रोमानिया में गर्भपात पर से कानूनी अड़चन हटने के बाद किस तरह से गर्भपातों के मामले बढ़ गए , इसका जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं. २ साल में १० लाख गर्भपात...

४ मंथ्स... का कैमरा शानदार है, उससे भी शानदार है निर्देशन क्रिस्टीन मोंगू का। गर्भपात वाले दृश्य में एक पल के लिए तो कलेजा मुंह को आने लग जाता है। हालांकि हमने जहां देखा वह हॉल साउंड के लिहाज से उत्तम नहीं कहा जा सकता ..लेकिन तब भी जितना हम महसूस कर सकते थे, सिनेमैटोग्राफी और साउंड ने..गीले-गीले वातावरण बारिश और बरफीले माहौल ने कहानी के मौतनुमा वातावरण को सिरजने में मदद ही दी है।

बहरहाल, मनीष झा की फिल्म मातृभूमि की चर्चा किए बगैर मैं नही रह सकता..कहना होगा कि मातृभूमि एक तरह से इस फिल्म का तीसरा अध्याय है। दूसरा अध्याय कोई और बनाएगा. जो अभी अधूरा रह रहा है।

मंजीत ठाकुर

Friday, November 23, 2007

भारतीय पैनोरमा- अब आएगा मज़ा


इस बार के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में लेनिन राजेंद्र की रात्रि माझा ( रात की बारिश. मलयालम) और समीर चंदा की ऐक नदीर गोल्प (एक नदी की कहानी, बंगला) फिल्में भारतीय पैनोरमा से एशियन-अफ्रीकन और लैटिन-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा खंड में भारतीय फिल्मों का प्रतिनिधित्व करेंगी। इन दोनों फिल्मों को भारतीय पैनोरमा की २१ फिल्मों में से चुना गया है।


वैसे, फीचर और गैर-फीचर फिल्मों के लिए २१ फिल्मो के चयन के लिए जूरी के सदस्यों ने ११९ फीचर और १४९ गैर-फीचर फिल्में देखीं। भारतीय पैनोरमा में फीचर फिल्मों में ओपनिंग फिल्म होगी मलयालम की ओरे काडाल, जिसे निर्देशित किया है श्यामा प्रसाद ने। जबकि गैर-फीचर फिल्मों में ओपनिंग फिल्म बंगला की बाघेर बाच्चा होगी।


फीचर फिल्मों के भारतीय पैनोरमा में देखने लायक कुछ उल्लेखनीय फिल्मों के अगर नाम गिनाए जाएं, तो उनमें अडूर गोपाल कृष्णन की नाल्लू पेन्नूगल और भावना तलावार की धर्म अहम होगी। मिथुन चक्रवर्ती की शानदार अदाकारी में बनी ऐक नदीईर गल्प भी च्छी फिल्मों में शुमार की जा सकती है। बांगला फिल्मों की इस बार शानदार बहार फिल्मोत्सव में देखी जा सकती है, इनमें अर्जन दास की जा-रा वृष्टिते भिजेछीलो (जो बारिश में भींगे थे), बुद्ध देव दासगुप्ता की आमि, इयेसिन आर आमार मधुबाला आलोचकों को पसंद आने वाली फिल्में हैं।


पैनोरमा में फीचर फिल्मों में मराठी फिल्में भी ज़ोरदार हैं, गजेंद्र अहीरे की माई-बाप और विपिन नाडकर्णी की एवडे से आभाल , विशाल भंडारी की कालचक्र उम्मीदें जगाने वाली फिल्में हैं।


गैर फीचर फिल्मों की सीरीज़ में अशोक राणे की मस्ती भरा है समां, अडूर गोपाल कृष्णन की द डांस ऑफ इंचांटर्स, विपिन चौबल की मुबारक बेगम जैसी फिल्में निश्चय ही लोगों खासकर सीरियस दर्शकों और फिल्म समीक्षकों का ध्यान खींचने में कामयाब होंगी। लेकिन असली बात तो इन फिल्मों को देखने के बाद ही पता चल पाएगा।

टिप्पणी- अभी तक समारोह में जादू घुल नहीं पाया है। सब कुछ निपटा डालने जैसा नज़रिया लोगों के उत्साह पर पानी फेर रहा है।


मंजीत ठाकुर

Wednesday, November 21, 2007

प्रसन्नात्मक कविता

प्रसन्न कुमार ठाकुर निजी तौर पर कवि है। प्रसन्न की कलम ने सैकड़ों सन्न कर देने वाली कविताएं उलीच दी हैं। पेट के लिए एडवरटाइजिंग से जुड़े हैं, हालांकि हमारा मानना है कि पत्रकारिता से कहीं ज़्यादा एड के क्षेत्र में कविताई की ज़रूरत होती है। फिलहाल प्रह्लाद कक्कड़ के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन जो प्रश्न उन्हें मथते रहते हैं, उन्होंने उन प्रश्नों से हमें भी अवगत कराया है। कुछ सुर-कुछ साज़ो की बात करते हैं। प्रसन्न जी मिले सुर हमारा-तुम्हारा....गुस्ताख़




क्या कहूँ और कैसे ?
शब्दों के सहारे अपने व्योम
या व्योम के सहारे शब्द !
प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास में
उसका व्यक्तित्व ही जिम्मेदार होता है
.मैं कैसा हूँ?
क्या हूँ?
क्यूँ हूँ?
और न जाने क्या-क्या ...!
हजारों यक्ष प्रश्न....
इन्हीं प्रश्नो की तार से,
जीवन के साज़ पर
कोई अच्छी सी धुन बजाते हैं...

फिल्म समीक्षा- ४ मंथ्स, ३ वीक्स, २ डेज़

रोमानिया की मांओं का दर्द



गोवा में ३८वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह शुरु होने में महज दो दिन बचे हैं, लेकिन पिछले साल की तरह का कोई उत्साह अभी तक देखने को नहीं मिला है। आयोजकों के पास कल भर तक का वक्त है, लेकिन पिछली बार की तरह की सजावट इस साल नदारद है। मुमकिन है, कि कल कुछ धमाका हो।

२३ नवंबर को समारोह की ओपनिंग फिल्म होगी- रोमानिया की ४ मंथ्स, ३ वीक्स, २ डेज़। इस फिल्म को क्रिस्टीन मुंगुयू ने निर्देशित किया है। ये फिल्म पहले ही इस साल पामे डि ओप अवॉर्ड जीत चुकी है। ज़ाहिर है, लोगों(दर्शकों) में इस फिल्म को लेकर काफी मारामारी होगी। वैसे सारी दुनिया के आलोचकों ने इस फिल्म की अब तक जी भर कर तारीफ ह की है। लेकिन अलग तर के टेस्ट के लिए जाने जाने वाले भारतीयों को यह फिलम कैसी लगती है। ये तो २३ की शाम को ही साफ हो पाएगा। गोवा में इस समारोह के उद्घाटन के मौके पर फिल्म के निर्देशक के मौजूद रहने की भी उम्मीद ज़ाहिर की जी रही है। दरअसल, ये फिल्म रोमानिया में गर्भपात जैसे जटिल मुद्दे को खंगालती है। फिल्म में गर्भपात से जुड़े मसले और एक लड़की की ज़िदंगी पर इसके असर को उकेरने की कोशिश की गई है। पूरी फिल्म देखी जाए ( हालांकि आज हम इसाक थोड़ी-सा ही हिस्सा देख पाए) इसे मनीष झा की दो बरस पहले आई फिल्म मातृभूमि से भी जोड़ा जा सकता है। अलबत्ता, दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि में अंतर है। दोनों के परिवेश साफ तौर पर दोनो देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की झलक भी दिशला जाते हैँ। वैसे, तकनीकी तौर पर यह फिल्म मातृभूमि से ज़्यादा मजबूत है और इसाक कैमरा मनीष के कैमरे से ज़्यादा घूमता है।

कम्युनिस्टों से रोमानिया को मिली आज़ादी के बाद जो सबसे पहला क़ानून बना वह गर्भपात को कानूनी दर्ज़ा दिलाने का था। नतीजतन, दो साल के भीतर ही दस लाख गर्भपात के मामले सामने आए। वह भी तब जब इस छोटे से देश की कुल आबादी ही महज २ करोड़ है। ग़ोरतलब है कि रोमानिया में १९६६ से १९८९ तक गर्भपात एक अपराध था। ये फिल्म १९८७ के एक शनिवार की रात की कहानी है। भावनात्मक रूप से मथ देने वाली इस फिल्म का असर इतना ज़्यादा है कि सब-टाइटल्स होने के बावजूद फिल्म दर्शक को बांधे रखती है।
व्यक्तिगत तोर पर मैं भारतीय भाषाओं में भी ऐसी ही संजीदा फिल्मों की उम्मीद रखता हूं।

मंजीत ठाकुर

Monday, November 19, 2007

धोखा खाने वाले नादान राजनेता..

लो जी लो.. अभी-अभी खबरें फ्लैश हो रही हैं कि दक्षिण में बीजेपी के झंडाबरदार येदुरप्पा सत्ता से बाहर होने ही वाले हैं। बेंपेंदी के लोटों की तरह इधर-उधर लुढ़कते हुए गठबंधनवालों का हश्र यही तो होना था। कुमारस्वामी तय नही कर पाए कि करना क्या है। पहले कहा समर्थन नहीं देंगें, फिर कहा देंगे अब फिर कह रहे हैं नहीं देगें। जनता को कंफ्यूज़ मत करो कन्फ्यूज्ड राजनेताओं .. विचारधारा आपके पास नहीं है। कोई बात नहीं.. बहुतों के पास नहीं है। लेकिन थोड़ा तो सोचों, इस नंगई का जनता पर क्या असर पड़ेगा। लेकिन असर भी घंटा पड़ेगा। जाति, संप्रदाय और उससे भी छोटे-छोटे खांचों में बंटी हुई जनता फिर जाति-उपजाति में बंटकर वोट करेगी। बीजेपी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर वोट मांगेगी। कहेगी देखो.. जेडीएस ने हमको धोखा दिया।

हम पूछते हैं कि आप लगातार धोखा खाते रहे हैं। बसपा ने धोखा दिया, जेडीएस ने धोखा दिया। क्या आप इतने भोले हैं कि सारे लोग आपको ही धोखा देते रहे हैं। क्या आप धोखा खाने की राजनीति करते हैं? राजनाथ टीवी पर गठबंधन की राजनीति की दुहाई देते दिखे। कहते रहे हमें धोखा मिला। गुरु .. तब तो आप सत्ता के लायक ही नहीं। सत्ता में आ गए तो जिलाधिकारी, एमएलए, पार्षद.. केंद्र में आए तो पाकिस्तान और चीन जैसे शातिर पड़ोसी आपको धोखा देते रहेंगे। देश का क्या होगा, भोले-भाले नेताओं? लेकिन आपकी अपनी गलती की ओर ध्यान नहीं गया आपका? बसपा ने और जेडीएस ने आपको धोखा क्यों दिया। आपसे उनके रिश्ते खराब क्यो हो गए, जबकि आप उनके सहयोगी थे। तब की समता पार्टी, जयललिता से भी आपके रिश्ते मधुर रहे हों, ऐसा याद नहीं कुछ। ज़रूर आप ही गठबंधन का कथित धर्म भूलकर उनकी मांद में सेध लगा रहे होंगें।

ये वक्त है कि आप आत्मालोचन करें, धोखा फिर न खाने की तैयारी में जुटे।

मैं अतीतजीवी हो रहा हूं..

लोग गरियाएंगे.. दूसरों की तरह गुस्ताख़ भी नॉस्टलेजिक होने लग गया है। लेकिन इंसाफ कीजिए गुरुजनों.. पुरानी बातें याद करने पर, उन्हें अश्लीलता के साथ दुहराने पर भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के तहत आरोप नहीं तय होते। होने चाहिएं ये हम भी मानते हैं।अस्तु, बात ये है अपनी एक पुरानी सी छेड़छाड़ात्मक कविता कल रात पढ़ रही था। तो याद आ गया पिछला जमाना।

उन दिनों.. जब आत्महत्या न करने की कसमें खाने के दिन थे....दोस्तों के मुंह से भारतीय जनसंचार संस्थान का नाम खूब सुना था। लोगों ने कहा बौद्धिक बनने के लिए( अर्थात् पत्रकारोचित कमीनेपन में संपूर्णता से दीक्षित होने के लिए) आईआईएमसी में दाखिला लेना अनिवार्य है। डरते कदमों से हम जेएनयू का चक्कर काट कर संस्थान के लाल ईँटों वाली इमारत में दाखिल हुए थे। हम.. यानी मैं और मेरा एक और दोस्त.. मेरा दोस्त गया था जेएनयू में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन का फॉर्म लेने। मैंने पूछा था एमबीए के ज़माने में संस्कृत पढ़कर क्या उखाड़ लोगे.. उसने तपाक से जवाब दिया था- प्रोफेसरी। जितने पढ़ने वाले कम होते जाएंगे.. प्रोफेसरी का चांस उसी हिसाब से बढ़ता जाएगा।

खैर...मई के तीसरे हफ्ते में हमारी प्रवेश परीक्षा थी। (पढ़े- इंट्रेस टेस्ट) अस्तु..कई बच्चे (?) जमा थे। सेंटर था, केंद्रीय विद्यालय..जेएनयू के पास वाला। कार में, बड़ी और लंबी कारों में परीक्षार्थी आए थे। हमारा कॉन्फिडेंस खलास हो गया। सुंदर लड़कियों को देखते ही हम वैसे भी हैंग कर जाते हैं। लगा, जितना पढ़ा है आज तक सब बेकार होने जा रहा है। अपने मां-बाप पर ग़ुस्सा आ गया। क्यों गरीब हुए, अमीर नहीं हो सकते थे? परीक्षा दी। पास भी हो गया , पता नहीं कैसे? जिस दिन लिखित रिजल्ट निकला.. खुद गया देखने। संस्थान के परिसर में। कुछ दिन बाद, इंटरव्यू था। और कई बड़े नाम और राघवाचारी...। विकास पत्रकारिता पर सवाल। पर पता लगा बाद में कि इसमें से कुछ भी काम नहीं आने वाला। सारे सिद्धांत घुसड़ जाने वाले हैं। बाद में, इधर एक सोचने-विचारने वाले पत्रकार से एक निजी टेलिविज़न चैनल में इंटरव्यू के दौरान भालू के कुएं में गिरने की ख़बर को लीड बनाने लायक मसाला तैयार करने को कहा गया। श्रीमान तो बिफर गए। लेकिन चिरंतर और शाश्वत सत्य तो यही है न। सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रियान्ति की तर्ज पर सर्वे गुणाः टीआरपीमाश्रियांति....बहरहाल, संस्थान में अंग्रेजीदां लोगों लड़के और लड़कियों का जमावड़ा था। हम भदेस.... जल्दी ही हिंदी पखवाड़ा आया। एक कविता भी लिखी थी। फ्लर्टात्मक। एडवरटाइजिंग की लड़कियों की सुंदरता का बखान करता। कई के नाम भी थे। कभी याद रहा तो छाप भी दूंगा।
जारी...

Friday, November 16, 2007

छठ की याद


छठ एक राष्ट्रीय पर्व हो गया है। मूल रूप से छठ तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का त्योहार है, लेकिन अगर यह नैशनल मीडिया में खासी जगह पा रहा है, तो इसके पीछे के तर्क खंगालने होंगे। बिहार ( पढ़ें हिंदी पट्टी) एक प्रदेश या सूबा नहीं है सिर्फ़। यह तो एक फिनोमिना है। यह चलताऊ हिंदी है। शुद्ध और सरकारी हिंदी में यह परिघटना है। मीडिया में छठ की खबरों ने मुझे नॉस्टेल्जिक कर दिया है।

छठ की तैयारी दीवाली के ठीक बाद से होने लग जाती थी। नदी के या तालाब के घाट पर जाकर उसे गोबर से लीपना.. वहां आम के पल्लव और केले के तने से सजाना कुल मिला कर घाट का बडा हिस्सा छाप लेना हम बच्चों का पहला काम था। फिर कदुआ-भात ... साफ-सुथरा खाना.. बिना प्याज-लहसुन के... एक शानदार पवित्रता का अहसास। एक जिम्मेदारी-सी रहती थी। ऐसे ज़िम्मेदारियां आम दिनों में मेरे जैसे नौजवानों के हिस्से रहती ही नहीं। या फिर रहती भी है तो बाज़ार जाकर सब्जी लाने तक ही महदूद रहती है।

फिर होता खरना.. गुड़ की खीर ( याद नहीं या फिर दूसरी आंचलिक भाषाओं में क्या कहते हों, लेकिन हमारे यहां मैथिली में उसे रसिया कहा जाता था।) पहले दादी मां और उनके गुजरने के बाद मां के हिस्से में छठ पूजा आ गया। पूजा के बाद घर आए लोगों में वह प्रसाद बांटा जाता। हम परेशान रहते, प्रसाद पा चुके लोगों को पानी देने में। फिर शाम का अर्घ्य होता...अगले दिन। ३ बजते न बजते.. जब सूरज ढलना भी शुरु नहीं होता.. हम लोग डाला या दौरा सिर पर उठाकर घाट की ओर चल देते कि कोई घाट पर कब्जा न कर ले.। कर भी ले तो झगड़ा नहीं किया जाता.. आखिर छठ पूजा का काम है। छठ महारानी की पूजा व्यक्तिगत होते हुए भी निजी नहीं होती। सबकी समान श्रद्धा...। हमारे यहां हर साल कच्ची सड़क बरसात के दिनों में बह जाती, नरक पालिका कितनी गंभीर होती है सफाई को लेकर कहने की ज़रूरत नहीं। नालियों का पानी सड़क पर बेरोकटोक बहता रहता। उस पर से छठ माता की पूजा के लिए डाले कैसे जाएंगे... तो सारे ळौंडे-लपाड़िए सुबह से ही सड़कों की सफाई करके पानी की छिडकाव कर देते। साल में पहली और आखिरी बार मुहल्ले के लोग किसी बात पर एकमत होते। अच्छा लगता। मुहल्ले के खूसट अकारण खिसिआए बुजुर्ग, अपनी बेटी पर लाईनबाजी से त्रस्त प्रौढ़ पिता, बहन का विकट भाई, किसी बात पर कोई गुस्सा नहीं होता। बुजुर्ग महोदय ने घर के पंप से पानी देना मंजूर कर लिया है। खुद पानी के छिड़काव में मदद दे रहे हैं। सदा सुहागिन आंटी चाय ले आ रही हैं। बीच-बीच में लौंडे उनकी पोती जो बिल्लो या टम्मो के नाम से मशहूर होती हैं, उनको भी टाप लेते हैं। ( टापना अर्थात् नज़र बचा कर जी भर देख लेना)

फिर साल में एक बार नहाने वाले लोग भी अल्लसुबह जगकर सुबह के अर्घ्य के लिए स्नान कर लेते हैं। डाला उठाना है। लड़के तालाब में नहाने के लिए गमछा साथ ले लेते हैं। तालाब में अपनी तैराकी की कला का मुजाहिरा करके प्रेयसी के सम्मुख सुर्खरू होंगे। इतनी डेडिकेशन के साथ किसी ओलंपिक में हिस्सा लेते तो ग्राहम थोर्प की जगह तैराकी किंग यहीं लोग कहलाते। अस्तु...

उस दिन सुबह देर से होती...या फिर सूरज महोदय जानबूझ कर नेताओं की तरह अपनी अहमियत ज़ाहिर करने के वास्ते देर से निकलते... मां.. या दूसरी पवनैतिन ( पर्व करने वाली) पानी में खडी ठिठुर रही होती। कमर तक ठंडे पानी में.. लौंडों की निगाह किनारे खड़ी भीड़ पर..छोकरियों को एकटक निहारते... बीच-बीच में अगरबत्ती जलाने के या दीए में तेल डालने के बहाने खुद को व्यस्त दिखाने की कवायद...। कितना मज़ा आता था। फिर पूरब लाल हो जाता। इँतजार के बाद सूरज निकलने की तैयारी,,, लोग खुश.. पवनेतिनों की पूजा और ज़्यादा संजीदा..हो जाती... हे सूर्य देवता, धन दो. पोते दो, बेटे को इनक्रिमेंट दो, पेपर में हैं तो टीवी में लगवा दो, पेपर है तो पास करा दो. .. सूर्य देवता के पास आवेदनों की बौछार... लगता है दो-तीन पीए लेकर चलते होंगे, सुरुज देवता उस दिन। घाट के किनारे अर्घ्य देने के लिए दूध फ्री बांटने वाले। बहनें मना करतीं, पैसे देकर ही दूध लेना.. नहीं तो पुण्य बंट जाएगा। मेले का-सा माहौल..। कई लोगों ने बैंड वालों को भी बुला लिया है। रिक्शे पर लाउडस्पीकर बंधा है, शारदा सिन्हा पूरे सुर में, गा रही हैं। हे दीनानाथ ....या चुगले को गालियां देतीं, या फिर नारियक के पेड़ पर उगला सुरुज जी के छाहे गोटे...। फिल्मी गाने भी। छोकरे पटाखे छोड़ने में जुटे। व्यस्त माहौल। फिर अर्घ्य देने की मारामारी.. कौन कितने पवनैतिनों के सूप में दे सकता है अर्घ्य... नदी में दूध गिराते.. श्रद्धा का पारावार...। दिव्य। ये सब खत्म हो जाता, मश्किल से १० मिनट में , फिर प्रसाद पाने की चेष्टा। सब पवनेतिनों से प्रसाद ले लो। केले, सिंघाड़े, ठेकुए का प्रसाद.. साथ में चावल के लड्डू.. गन्ने, मूली का प्रसाद , नारियल... जितना पाओगे अगला साल उतना ही फलदायक होगा।.......यहां दिल्ली में हर चीज़ याद आती है, छठ पूजा की पवित्रता,,, खरना, सुबह शाम का अर्घ्य.. घर जाकर नारियल छीलने में लग जाना, गली मे खड़े होकर गन्ना चूसना, ये भी कि हमारी संस्कृति में सिर्फ उगते सूरज को ही नहीं डूबते सूरज को भी पूजा जाता है। और हरदम याद आती है मां.। जो आज शाम छठ का अर्घ्य देने के लिए उपवास पर होगी।.....

मंजीत ठाकुर

Tuesday, November 13, 2007

लस्ट फॉर लाइफ


दोस्तों, मैं हाल ही में मशहूर चित्रकार विंसेंट वॉन गॉग की जीवनी पढ़ रहा था। लस्ट फॉर लाइफ नाम की िस उपन्यासनुमा जीवनी को इरविंग स्टोन ने लिखा है। मैं सोच रहा था कि जो कुछ मैंने पढ़ा है, जो कुछ प्रेरक मुझे मिला..कुछ आपसे भी शेयर किया जाए..



अगर देखा जाए तो अपनी समग्रता में वॉन गॉग की जीवन भी किसी पेंटिंग सरीखा ही है। जिसमें स्थापित मान्यताओं के खिलाफ़ विरोधाभासों का अजीब, आकर्षक और चौंका देने वाला मिश्रण जैसी कुछ है। उसके जीवन में अगर दुख था, तो उतना ही तीव्र उल्लास भी था, जो सभी तरह की की विषमताओं का सामना करने के बाद पनपता है। उसमें अगर उपेक्षा की नितांत निजी पीड़ा थी, तो उतनी ही विशाल सहृदयता भी, जो दूसरों की पीड़ा भी अपनाने की इच्छा जगाती है।


कलाकारों के जीवन का मूल माने जाना वाला बिखराव वॉन गॉग के जीवन में भी कम न था। लेकिन उसमें एक क़िस्म का ऑर्डर भी था, जिसने ताज़िंदगी उसके पहले प्यार चित्राकारी से उसे बांधे रखा। इन सबके अलावा एक और बात जो विंसेंट में थी, वह थी जीवन के प्रति इसकी ईमानदारी और आस्था। बिना किसी लागलपेट के और समझौते के जिए गए इस जीवन ने ही वॉन गॉग के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व को एक प्रेरक विराटता बख्शी है। यह ईमानदारी, यह आस्था--ग़ौर से देखें तो-- एक एक ब्रश स्ट्रोक के पीछे छिपी बेचैनी, अधीरता और सच्चाई में-- उसने दुनिया को अपनी विरासत सौंपी है।
लस्ट फॉर लाईफ-- हर बार इस अबूझ शख्सियत के चरित्र की नई परतें खोलने का अहसास देता है। विंसेंट के नाम और काम से अपिरचित व्यक्ति के लिए इतना जान लेना ज़रूरी है कि वह सच्चा और अभागा कलाकार था। अपने छोटे भाई के पैसों पर पलने वाला अव्यावहारिक व्यक्ति, जिसने बेल्जियम में बोरीनोज़ के कोयला खदानों के मज़दूरों से लेकर बेवफा़ उर्सुला तक और वेश्या रेचेल तक को समान रूप से प्यार दिया। ( रैचैल को तो उसने प्यार में अपना कान भी भेंट में दे दिया था।)


कभी इवांजेलिस्ट, कभी कला दीर्घा के क्लर्क, कभी डॉक्टर तो कभी हमदर्द चित्रकार के तौर पर...। विंसेंट ने चित्रों में जड़ जीवन( स्टिल लाइफ) की बजाय कूची के ज़रिए प्रवाहमान जीवन की रचना करने को ज्यादा अहमियत दी। ये बात और है कि इंप्रेशनिज़्म के जन्म के उस शुरूआती दौर में उसके काम को उसके जीवन काल में पहचान नहीं मिली, लेकिन सूरजमुखी हों, या फिर स्टारी नाइट... विंसेंट ने चित्रकारी को एक नई सीरत दी। वह जीना चाहता था,पर जी न सका..

विंसेंट वॉन गॉग की जीवनी पढ़ कर मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूं.. पाठकों को उसके जीवन और उसके काम के बारे में वक्त-वक्त पर बताता रहूंगा- गुस्ताख़

Monday, November 12, 2007

फिल्म समीक्षा- फुस्स होगी सांवरिया

खयालों की दुनिया और ख्वाबों के शहर में लॉजिक खोजना बेमानी है। हिंदी फिल्मों में तर्क नहीं चलते। लेकिन बात तो ज़रूर करनी होगी, उस बड़े तर्क की .. कि बॉक्स ऑफिस पर भिड़ंत फराह खान की ओम शांति ओम से है। दर्शक यह जानता है कि किसने बनाया है से ज़्यादा अहम होता है कि क्या बनाई गई है। अफसोस ये है कि भव्यता ओर क्लपना ने संजय की कहानी की लील लिया है। इस सपनीली दुनिया का परिवेश भव्य और काल्पनिक है और साथ ही अवास्तविक भी। नहर है, नदी है, पुल है, अंग्रेजों के जमाने के बार हैं और आज की अंग्रेजी मिश्रित भाषा है। सांवरिया का रंग और रोमांस वास्तविक नहीं है और यही इस फिल्म की खासियत भी है और कमज़ोरी भी।

संजय लीला भंसाली के काल्पनिक शहर में राज (रणबीर कपूर) गायक है। हिंदी फिल्मों के नायक को गायक भी होना होता है। यह बॉलिवुड की वास्तविकता है। बहरहाल, उसे एक बार में गुलाब ( रानी मुखर्जी) मिलती हैं। दोनों के बीच दोस्ती होती है। दोस्तोवस्की की कहानी ह्वाइट नाइट्स पर आधारित इस फिल्म में दो प्रेमियों की दास्तान है। सिर्फ चार रातों की इस कहानी में संजय लीला भंसाली ने ऐसा समां बांधा है कि हम कभी राज के जोश तो कभी सकीना (सोनम कपूर) की शर्म के साथ हो लेते हैं। संजय लीला भंसाली ने एक स्वप्न संसार का सृजन किया है, जिसमें दुनियावी रंग नहीं के बराबर हैं। तो अगर आप शाहरुख के दुनियावी अंदाज़ को पसंद करते हैं और फराह खान के ठुमके तो सांवरिया आपके लिए तो नहीं ही है। अस्तु..

रणबीर और सोनम को प्रोजेक्ट करने के लिए बनी इस फिल्म में भंसाली ने खयाल रखा है कि हिंदी फिल्मों में नायक-नायिका के लिए जरूरी और प्रचलित सभी भावों का प्रदर्शन किया जा सके। साफ पता चलता है कि कॉमेडी, इमोशन, एक्शन, ड्रामा, सैड सिचुएशन, रोमांस, नाच-गाना और आक्रामक प्रेम के दृश्य टेलरमेड हैं। सहज नहीं। फिल्म बड़ी बारीकी से राज कपूर और नरगिस की फिल्मों की याद दिलाती है। खासकर आक्रामक प्रेम,बारिश और छतरी से तो मुझे भी ऐसा ही लगा। रणवीर कपूर को विरासत में अभिनय मिला है लेकिन उन्हें काफी कुछ सीखना होगा अभी। कभी कभी तो उनसे मुझे हृतिक रोशन की झलक भी मिली। बहरहाल, उनसे भविष्य की उम्मीद की जा सकती है। इसी प्रकार सोनम कपूर में भी अभिनय की गाड़ी आगे खींच पाने का माद्दा है, ज़ाहिर है उनके पिता अनिल कपूर की खासी मदद रहेगी उसमें।

सोनम में संभावनाएं हैं और उनके चेहरे में विभिन्न किरदारों को निभा सकने की खूबी है। सांवरिया में रानी मुखर्जी को कुछ नाटकीय और भावपूर्ण दृश्य मिले हैं। सलमान खान तो अपने खास रंग-ढंग में हैं ही। संजय लीला भंसाली की सपनीली दुनिया यथार्थ से कोसों दूर है। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहतर कर पाएगी , इसमें मुझे संदेह है। आखिर मिड्ल सिनेमा ने दर्शकों का जायका बदला है। और दर्शकों की परिष्कृत रूचि में सांवरिया फिट नहीं बैठेगी।

मंजीत ठाकुर

Friday, November 9, 2007

राजनीति का शॉर्टकट

अभी हाल ही में खबर आई कि हमारे सम्माननीय नेता बिहार रत्न सर्व श्री राम विलास पासवान के लाडले फिल्मों का रूख़ करने वाले हैं। अच्छी बात है। जब गुलशन कुमार के भाई किशन कुमार और जीतेंद्र के बेटे (एकता कपूर के भाई) तुषार हीरो बन सकते हैं, तो पासवाननंदन क्यों नहीं। वैसे भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नायक बनने के लिए अभिनय आना ज़रूरी नहीं होता। चाहिए होता है असीमित जुगाड़ और पहाड़ जैसी विकट तकदीर भी। वरना कितने महान कलाकार अभिनेता एडि़यां रगड़ कर रह गए.. नायक क्या सह-नायक बनने की जुगत नहीं लगा पाए।


इसी के बराबर रेलमपनाह( अर्थात् रेल की दुनिया के सर्वेसर्वा श्रीमंत लालू प्रसाद यादव के सुपुत्र तेजस्वी क्रिकेट में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। सुयोग देखिए, हम जैसे आम सड़े-गले अल्लम-गल्लम आदमी भी जानते हैं कि भारत में दूरी के मापक कितने व्यापक प्रभाव रखते हैं। जी नहीं मील के पत्थरों की बात नहीं कर रहा.. बात कर रहा हूं २२ गज और ३५ और ७० मिमी के परदे के सर्वव्यापकता की। साथ ही एक अत्यंत संक्षिप्त लंबाई भी है, जिसका उल्लेख श्लीलता के दायरे में नहीं आएगा। अतएव उसका उल्लेख समीचीन नहीं जान पड़ता।


बहरहाल, २२ गज यानी क्रिकेट का प्रभाव इतना व्यापक है कि माननीय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं। हाकी और क्रिकेट की टीमों का बुलाकर उनमें से क्रिकेट को तरज़ीह देना इसे ही तो बताता है। सचिन, धोनी,सहवाग गांगुली वगैरह की लोकप्रियता से लालू जी कितने प्रभावित हैं, कि उन्होंने अपने बेटे को क्रिकेटर ही बनाने की ठान ली है। पिता क्रिकेट असोसिएशन में हो , इतना प्रभावशाली हो, तो बेटा ज़िद करके मैन ऑफ द मैच भी बन जाएगा। दिक़्क़त कहां है? फिर ३४-३५ साल का होकर, और लोकप्रिय होकर उसे चुनाव लड़ने में परेशानी आएगी क्या। दूर की कौड़ी लाने वालो, ये है हिडेन अजेंडा... अब पासवाननंदन ने भी ऐसा ही रास्ता चुना है। विकट मार्क्सवादी पत्रकार ने सहसा पूछ लिया कि आगे राजनीति में जाने का इरादा है या नहीं... पिता की राजनीति को समझने और विचारधारा से अनजान पुत्र ने क्षणांश में बताया, मौका मिला तो देश की सेवा करने का मौका मिलेगा तो पीछे नहीं हटूंगा..। क्यों हटेंगे भला, सत्ता की चुसनी चुभलाने का मज़ा कौन खोना चाहेगा। फिल्मी हीरो बनिए, लोकप्रिय हो ही जाएंगे, ग्रेड सी के हीरो भी पॉपुलर हो ही जाते हैं। फिर लडेंगे चुनाव राजेश खन्ना की तरह.. केंद्र में मंत्री बनेंगे। तब आएगा मज़ा।

राजनीति में आने का बुरा ख्वाब देखने वालों, किसी लालू किसी पासवान के बेटे होने का फायदा उठाना सीखो... फिल्म में काम करो, क्रिकेट खेलो फिर राजनीति में आने की सोचो। लोकप्रिय होने का सबसे आसान नुस्खा है ये। आमीन......

Friday, November 2, 2007

दीयों की याद

निखिल रंजन मेरे परम मित्रों में से एक हैं। लेकिन यह तो उनका व्यक्तिगत परिचय है। उनकी शख्सियत का अहम पहलू है, एक गंभीर चैनल का अति गंभीर पत्रकार होना। निखिल एनडीटीवी इंडिया में हैं, खबरों को लेकर उनकी ललक मैं साफ़ महसूस करता हूं। लेकिन निजी ज़िंदगी में बेहद खुशनुमा इंसान.. गांव की माटी और सोंधी गंध को अपने रक्त बिंदवों में जीने वाला आदमी... हमारा साझा ब्लाग भगजोगनी है..दीवाली की भुकभुकाती यादों को समेटती उनका पोस्‍ट छाप रहा हूं। -गुस्ताख़


आठ दिन बाद ही दिवाली है, पता नहीं नज़र धुंधली हो गई है या कान कमज़ोर हो गए वैसी रौनक नहीं दिख रही जिसे देखने की बचपन से आदत है या फिर शायद दिल्ली के शोर और भीड़ में बचपन का वो मासूम उत्साह कहीं खो गया है। जेबखर्च का एक-एक पैसा बचाकर पटाखों का बजट बढ़ाना, घर की सफाई मे ज़बर्दस्ती ज़िद करके दीदी, भैया और मां के साथ शामिल होना। घरौंदा बनाने के लिए गत्ते, रंगीन काग़ज़ गोंद और दूसरी चीजों का इंतज़ाम करना भैया से कहके मैं उसमें बिजली की वायरिंग भी करवाता। वैसे मेरे घर में बहुत पहले से घरौंदा बनाने का दायित्य छोटका भैया(मझले भैया को मैं इसी नाम से बुलाता हूं) उठाते थे। पहले मिट्टी के गारे और इंटो से और बाद में गत्ते और रंगीन कागज से । उनके बनाए घरौंदे का एक्सक्लूसिव गुण था कि उसमें बिजली की वायरिंग भी होती थी। पूरे मोहल्ले में हमारे घरौंदा सबसे अच्छा होता । भैया को घरौंदा बनाने का इतना शौक था कि जब भी किसी अच्छे घर का डिज़ाइन देखते उसे याद कर लेते और फिर दिवाली के घरौंदो में उस डिजाइन का इस्तेमाल करते । मोहल्ले और इलाक़े के अनुभवी लोगों के साथ बाबुजी भी तब भैया में भविष्य का इंजीनियर देखते थे। हालांकि घरौंदा बनने के दौरान कई बार अनाधिकार छेड़छाड़ करने पर भैया का थप्पड़ खाकर मेरा उत्साह आंसूओं में बह जाता लेकिन जल्दी ही मां के आंचल की गरमाहट इस पिघले उत्साह को वापस दिल में लौटा देती। घरौंदा देखने पूरा मोहल्ला जमा होता और दिवाली बाद के कुछ दिनों तक सबसे बढ़िया घरौंदा बनाने वाले के छोटे भाई होने के गर्वातिरेक में मैं मगन रहता।भैया जब हाईस्कूल के बाद पढ़ाई करने मुजफ्फरपुर चले गए तब भी ये सिलसिला बना रहा वो दिवाली से पहले घर आ जाते और फिर घरौंदो की तैयारी शुरू हो जाती। छोटका भैया घरौंदो में व्यस्त रहते तो बड़का भैया कंदील बनाने में। बाकी हम दो छोटे भाई इन दोनों की मदद करके ही खुश हो लेते। स्कूल जाने से पहले और लौट के आने के बाद कई हफ्ते तक मैं दिवाली के अलावा और कुछ सोचता ही न था। खेलना, दोस्तों से मिलना सबकुछ कम हो जाता या फिर बंद उनसे मिलने पर बात होती तो घरौंदे की। हर दिन घरौंदे को धीरे धीरे करके आकार लेते हुए देखना किसी आर्किटेक्ट के पूरे होते सपने जैसा होता और हमारी खुशी भी घरौंदे की तरह बढ़ती रहती । १९९० में छोटका भैया समय पर घर नहीं आ सके शायद परीक्षाओं के कारण और तब घरौंदा बनाने की कमान मेरे कंधो पर आई । पहली बार जब घरौंदा बना रहा था तब बाबूजी ने पूछा तुम्हारे घरौंदे का बजट कितना है मैंने हिसाब लगाकर बताया तीस रूपये। इसके बाद उन्होंने इसके लिए अपनी तरफ से ५ रुपये के अनुदान की घोषणा की मेरी खुशी के तो कहने ही क्या ? पचास पैसा देते तो साथ में सोच समझकर खर्च करने की हिदायत भी और वही बाबूजी पांच रुपये देने का एलान कर रहे थे मेरे लिए ये बड़ी उपलब्धि थी। पूरे उत्साह से घरौंदा बनाना शुरू किया किसी तरह बाकी तो सबकुछ हो गया लेकिन बिजली की वायरिंग आती नहीं थी तो भैया की मदद मांगी और फिर घरौंदा तैयार हुआ। घर के आसपास हरियाली तैयार करने के लिए लकड़ी के बुरादे को हरे रंग में रंग देते हम लोग। तब घर में साइकिल भी नहीं थी लेकिन घरौंदे के पोर्च में खड़ी करने के लिए खिलौना वाली अंपाला और मारूती कार जरूर थी, एक एंबेसडर भी थी जिसे हम घरौंदे के बगल में या फिर पिछवाड़े में खड़ी करते ये अहसास शायद तब भी था कि अब ये कार पुरानी हो चुकी है, कागज का बना टीवी और प्लास्टिक का फ्रिज भी था। मेहमानों के लिए सोफे और बढ़िया सा अंग्रेजी स्टाइल वाला टी-सेट भी था जिसमें चाय की केतली के साथ दूध और चीनी के लिए अलग प्याली होती थी। उस समय तक हमने ऐसे टी सेट खिलौनौं और फिल्मों में ही देखे थे आजकल बॉस के केबिन में देखते हैं। छत पर लगा लकड़ी के सींक का बना एंटेना हमारे सपनों जैसे उंचा था और घरौंदा हमारे सपनों की तामीर। ये सारे खिलौने हम बड़ी जतन से सालों भर संभाल कर रखते और सिर्फ दिवाली के समय बाहर निकालते सच तो ये है कि वो खिलौने नहीं हमारे सपने थे । घरौंदा जो हर साल हमारे आंगन में बनता और दिलों में सपने जगाता। आज जिंदगी की हक़ीकत ने इस सपने को आगर पूरी तरह से तोड़ा नहीं तो छोटा ज़रूर किया है। लेकिन तकलीफ इस बात की नहीं बल्कि इस बात की है कि वो घरौंदे कही खो गए हैं पांच साल पहले दिवाली मे घर गया था लेकिन ना तो मेरे घर में ना ही किसी औऱ घर में घरौंदा नज़र आया। सपने तो बिखरे ही सपना दिखाने वाले घरौंदे भी गायब हो गए। दिवाली के दिन बहने इसी घरौंदे में मिट्टी के खिलौने वाले बर्तनों में खील-बताशे भर कर पूजा करतीं। बाद में ये खील बताशे भाइयों को खाने के लिए मिलते। बताशे की मिठास भाई बहन के रिश्तों में घुलती। जारी...निखिल रंजन

इस लेख के अगले हिस्से निखिल की भगजोगनी पर पढ़े जा सकते हैं।- गुस्ताख़

Thursday, November 1, 2007

थूक कर चाटने की कला

दोस्तों, मैं बहुत नाराज़ हूं अपने आप से। सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी की तर्ज़ पर, हमने थूक कर चाटने की कला नहीं सीखी। औक़ात ही नहीं थी, विंसेंट बान गाग (चित्रकार) की तरह ऐसी औपचारिक शिक्षा के लायक ही नहीं मैं। वैसे, पब्लिक मैनेजमेंट की यह कला, मेरी हार्दिक इच्छा है कि सीख लूं, ( देखिए इसे चमचागीरी कहने की हिमाकत न कीजिएगा।) लोगबाग मैनेजमेंट की िस कला के ज़रिए सीढियां चढ़ रहे हैं, बखूबी चढ़ रहे हैं। हम हैं कि उन्हें चढ़ते हुए देख रहे हैं। इसके सिवा कुछ नहीं कर सकते.. कि साथी( पढ़ें प्रतिद्वंद्वी) आगे बढ़ रहा है, तो सहृदयता से ताली बजाया करें। मानसपटल पर भारतीय दर्शक की मनोदशा होती है। पोंटिंग हमारे गेंदबाज़ों को धो रहा है, हम उनके शतक पर दिल खोल कर ताली बजा रहे हैं। अस्तु...

मैं बात कर रहा था, थूक कर चाटने की। इस कला का मेरी ऊपर की बातों से कोई लेना-देना नहीं। मैं तो यूं ही -वो- हो जाता हूं, जिसे साहित्यकार वगैरह जज़्बाती होना कहते हैं। बहरहाल, थूककर चाटने की उचित परिभाषा तलाश करनी हो, तो हमारे दो सबसे बड़े राजनीतिक दल इस कला में सिरमौर होंगे। आप अगर अब भी नहीं बूझ पाए हैं, तो साफ़-साफ़ सुन लें। वर्णक्रम में बता रहा हूं ( अर्थात् अल्फाबेटिकली) पहली पार्टी है अलग तरह की अपनी पार्टी बीजेपी। जिस-जिस को थूका, उसे फिर से चाटा। इस चीज़ को हम पॉलिटिकल इंजीनियरिंग नाम देते हैं। कल्याण को थूका, फिर उसे चाट लिया। आडवाणी को जिन्ना मसले पर संघ ने थूका ही नहीं उनकी उल्टी-कै कर दी लेकिन फिर चाट रहे हैं। क्या बात है.. क्या मानें इसे...। अजी, राजनाथ लाख कहते रहें... दिल्ली जाने वाली बारात के दूल्हे वो ही हैं, लेकिन सेहरा उनके सर से छीन कर चचा आडवाणी के माथे सजाने की हरचंद कोशिशें कर रहे हैं भाई लोग। हां, थूका तो राजनाथ ने भी.. अपनी गठबंधन सरकारों के मुद्दे पर। मायावान् बसपा की कई बेवफाईयों और हाल ही में कर्नाटक में नाटक झेलकर फिर से सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के सामने विधायकों की परेड करवाना थूक कर चाटना ही नहीं हैं क्या?

चलिए, इस कला के दूसरे महारथी भी कम नहीं हैं। मनमोहन के अमेरिकापरस्त करार पर रार करने वाले वाम दलों ने कहा कि इंसान के तौर पर उन्हें क्लीन चिट दे दी है। मनमोहन दुखी हैं करार नहीं हो पाया। रहा करें। वाम दलों ने तो कहा ऐसा बिना रीढ़ का पीएम कब मिलेगा फिर भला। अभी अच्छा है। जो कहो मान लेते हैं। अब तो घर में पानी की घूंट भरने से पहले भी हमारे सकुचाए हुए पीएम करात को फोन पर पूछते हैं- प्रकाश जी पानी पी लूं। करात जवाब देते हैं- स्वदेशी पानी ही पीना। मनमोहन हामी भरते हैं। स्वदेशी का ज़िम्मा बजरंगियों के हाथों से फिसल कर लेफ्ट के हत्थे चढ़ गया है।

सोच रहा हूं, थूक कर चाटने के इस अद्भुत प्रबंधन कला को आईआईएम में पढ़ाने की सिफारिस कर ही डालूं। फैसले करो, बयान दो, पलट जाओं। खंडन मत करो। मीडिया के पास फुटेज हैं, खींच देगा। बल्कि ढिठाई से कहो, कहा था पहले अब ऐसा नहीं है। तकरार खत्म हो गया है। अब पीएम अच्छे हैं। कहो, यदुरप्पा आधुनिक धृतराष्ट्र को मंजूर हो गए हैं। सत्ता की चुसनी ऐसी है कि उसे चुभलाने के लिए खंखारकर थूक दीजिए, उस बलगम को चाट लीजिए, तो भी कम। और सिद्धांत.. क्या कहा?...सिद्धांत ..ये क्या होता है भला? कम से कम राजनीति में तो नहीं ही होता है।