Thursday, March 17, 2011

अपने मुंह...मियां..(होली विशेष)

लेखक को दो चीज़ों से बचना चाहिए : एक तो भूमिकाएँ लिखने से, दूसरे अपने नजदीकी लेखकों के बारे में अपना विचार प्रकट करने से। यहाँ मैं दोनों भूलें करना जा रहा हूँ; पर इसमें मुझे जरा भी झिझक नहीं, खेद की तो बात ही क्या। मैं मानता हूँ; कि गुस्ताक मंजीत पत्रकारिता और ब्लॉगिंग की उन उठती हुई प्रतिभाओं में से हैं जिन पर देश के चौथे खंभे का भविष्य निर्भर करता है और जिन्हें देखकर हम कह सकते हैं कि हिन्दी उस अँधियारे अन्तराल को पार कर चुकी है जो इतने दिनों से मानो अन्तहीन दीख पड़ता था।


प्रतिभाएँ और भी हैं, कृतित्व औरों का भी उल्लेख्य है। पर उनसे मंजीत ठाकुर जी में एक विशेषता है। केवल एक अच्छे, परिश्रमी, रोचक लेखक ही नहीं हैं; वे नयी मीडिया के सबसे मौलिक लेखक भी हैं।
 
मेरे निकट यह बहुत बड़ी विशेषता है, और इसी की दाद देने के लिए मैंने यहाँ वे दोनों भूलें करना स्वीकार किया है जिनमें से एक तो मैं सदा से बचता आया हूँ; हाँ, दूसरी से बचने की कोशिश नहीं की क्योंकि अपने बहुत-से समकालीनों के अभ्यास के प्रतिकूल मैं अपने समकालीनों के ब्लॉग भी पढ़ता हूँ तो उनके बारे में कुछ विचार  प्रकट करना बुद्धिमानी न हो तो अस्वाभाविक तो नहीं है।

मंजीत जीनियस नहीं है : किसी को जीनियस कह देना उसकी प्रतिभा को बहुत भारी विशेषण देकर उड़ा देना ही है। जीनियस क्या है, हम जानते ही नहीं। लक्षणों को ही जानते हैं : अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यावेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परम्पराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और हाँ, एक गहरी विनय। ठाकुर जी में ये सभी विद्यमान हैं; अनुपात इनका जीनियसों में भी समान नहीं होता। और गुस्ताख़ में एक चीज़ और भी है जो प्रतिभा के साथ ज़रूरी तौर पर नहीं आती- हास्य।

ये सब बातें जो मैं कह रहा हूँ, इन्हें वही पाठक समझेगा जिसने वे नहीं पढ़ीं, व सोच सकता है कि इस तरह की साधारण बातें कहने से उसे क्या लाभ जिनकी कसौटी प्रस्तुत सामग्री से न हो सके ? और उसका सोचना ठीक होगा : स्थाली-पुलाक न्याय कहीं लगता है तो मौलिक प्रतिभा की परख में, उसकी छाप छोटी-सी  अलग कृति पर भी स्पष्ट होती है; और ‘गुस्ताख’ पर भी ठाकुर जी की विशिष्ट प्रतिभा की छाप है।

सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की-बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं—अलिफ़लैला वाला ढंग, पंचतन्त्र वाला ढंग, फक्क़ड़ों वाला अलमस्त और गाली-गलौज वाला बेलौस अंदाज...  ऊपरी तौर पर देखिए तो यह ढंग उस जमाने का है जब सब काम फुरसत और इत्मीनान से होते थे; और कहानी भी आराम से और मज़े लेकर कही जाती थी। 
 
बात फुरसत का वक्त काटने या दिल बहलाने वाली नहीं है, हृदय को कचोटने, बुद्धि को झँझोड़कर रख देने वाली है। मौलिकता अभूतपूर्व, पूर्ण श्रृंखला-विहीन नयेपन में नहीं, पुराने में नयी जान डालने में भी है (और कभी पुरानी जाने को नयी काया देने में भी)।

‘गुस्ताख’ एक ब्लॉग नहीं, ब्लॉगों की भीड़ में सबका सिरमौर है।  एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
 
आम तौर पर जैसे हम अपने को छोड़ दूसरोंके प्रति एक शाश्वत अनादर और गाली गलौज वाला भाव रखते हैं, गुस्ताख उसी कबीरपंथी सिलसिले को एक नवीन रंग दे रहा है।

यह ब्लॉग और यह ब्लॉगलेखक दोनों ही सुन्दर, प्रीतिकर या सुखद नहीं है; हालांकि खुद गुस्ताख खुद को बंबास्टिक दिखने का दम भरता है, लेकिन यह पाठकों के विवेक पर है कि वह ऐसा या वैसा सोचें। (अभिव्यक्ति की आजादी के तहत) पर वह असुन्दर या अप्रीतिकर भी नहीं, क्योंकि वह थोडी बहुत चापलूसी करने की कोशिश भी करता है, कविताएं और पहुंचेलियों की कहानियां भी लिखता है। 
 
उसमें दो चीज़ें हैं जो उसे इस ख़तरे से उबारती हैं—और इनमें से एक भी काफी होती है : एक तो उसका हास्य, भले ही वह वक्र और कभी कुटिल या विद्रूप भी हो; दूसरे एक अदम्य और निष्ठामयी आशा। वास्तव में जीवन के प्रति यह अडिग आस्था ही गुस्ताख है, वह ऐलान करता है--मेरी अदब से सारे फरिश्ते सहम गए ये कैसी वारदात मेरी शाइरी में है...अपने अदब (साहित्य और शिष्टाचार दोनों पर) ऐसा गुमान महज गुस्ताख ही कर सकता है। साहसपूर्ण ढंग से स्वीकार, और उस स्वीकृति में भी उससे न हारकर उठने का निश्चय—ये सब ‘गुस्ताख’ को एक महत्त्वपूर्ण ब्लॉगलेखक बनाते हैं।

कठमुल्ले पन को छोड़कर ठुड्डी पर हाथ टिकाए गुस्ताख एक बुद्धिजीवी किस्म की चीज साबित होते हैं..अपने मुंह मियां मिट्ठू..की तासीर को रग रग में बसाते हुए महाशय एलान करते हैं कि, चार्वाक, अरस्तू मार्क्स और फ्रायड.जैसे मनीषियों ने अपनी सारी जिम्मेदारी मेरे कधों पर डाल रखी है--अर्थात् गुस्ताख को अपनी महती जिम्मेदारी का अहसास भी है और उसे वह निभाने की कोशिश भी करते हैं। उनकी गुस्ताखी ऐसी चीज है,  जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। 
 
किसी उक्ति के निमित्त से एक ब्लॉगर के साथ उनके पत्रकारीय और साहित्यिक गुणों को घालमेल और गुम करने  की प्रचलित मूर्खता मैं नहीं करूँगा, पर इस उक्ति में बोलने वाला विश्वास स्वयं मंजीत ठाकुर जी भी विश्वास है, ऐसा मुझे लगता है; और वह विश्वास हम सबमें अटूट रहे, ऐसी कामना है।



( यह अज्ञेय द्वारा लिखित -सूरज का सातवां घोड़ा की भूमिका का होलीनुमा डिस्टॉरटेड रुप है। इसे गंभीरतापूर्वक लें न लें यह आपके विवेक पर है)

Thursday, March 10, 2011

सिनेमा-राजा रविवर्मा का असर

राजा रवि वर्मा भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक खास स्थान रखते हैं। भारतीय चित्रकला के सौंदर्यबोध को उन्होंने एक जीवंत छवि दी। बेशक उनपर यूरोपीय खासकर रोमन शैली का प्रभाव था। लेकिन इससे भारतीय चित्रकला को नए आयाम मिले।


कई जानकार मानते हैं कि राजा रवि वर्मा का योगदान इससे कहीं बढ़कर रहा और कला के क्षेत्र में इसने राष्ट्रीयता की भावना को बढावा दिया। राजा रवि वर्मा पहले भारतीय चित्रकार थे, जिन्होंने पश्चिमी शैली के रंग-रोगन-सामग्रियों और तकनीक का प्रयोग भारतीय विषयवस्तुओं पर किया।  तकनीक का यह फ़्यूज़न कला के क्षेत्र में आधुनिकता और राष्ट्रीयता के विकास के सहायक सिद्ध हुआ।
        छाया-प्रकाश का अद्भुत मेलः चित्र राजा रवि वर्मा 
 
रवि वर्मा ने भारतीय मिथकों के चित्रों में पश्चिमी प्रकाश-छाया तकनीक और पर्सपेक्टिव का इस्तेमाल किया।


राजा  रवि वर्मा पर तंजाउर की कला शैली का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। साथ ही उन्नसीवी सदी की यूरोपीय कला के नव-शास्त्रीय यथार्थवादी चित्रकला का असर भी उन पर था, जिनमें ऐतिहासिक विषयों की चित्रकारी की जाती थी। जाहिर है, यह यथार्थवादी असर रवि वर्मा की चित्रकला पर भी पड़ा। 

यथार्थवाद का यह आयात देश में अनोखा था, क्योंकि उस वक्त तक ऐसी कोई यथार्थवादी कला धारा मौजूद नहीं थी। जाहिर है, रवि वर्मा के चित्रों की कामयाबी ने हिंदू देवी-देवताओं की ऐसी छवियां पेश करनी शुरु की, जैसी पहले कभी नहीं की गई थीँ। देवताओं की यह छवियां चित्रीय रुप में पहले से दैवीय और शारीरिक गुणों को प्रदर्शित करने वाली थीं। रिकन्स्ट्रक्शन और महिमामंडन करनेवाले इन चित्रों ने शिक्षित कुलीनों का ध्यान आकर्षित किया, और रवि वर्मा की कला को नई चित्रकला और भारतीय संवेदऩाओं की चित्रकला माना गया। जाहिर है, इसके इन्हीं गुणों ने रवि वर्मा की चित्रकला को राष्ट्रीयता के गुण भी दिए। 

उनके चित्रों की मांग इतनी ज्यादा थी कि रवि वर्मा ने बॉम्बे के पास 1892 में एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया, जो उनके चित्रों को ओलियोग्राफ के रुप में छापता था। ये कैलेंडरनुमा चित्र बहुत लोकप्रिय हुए और रवि वर्मा के चित्रों को पूना चित्रशाला प्रेस और कलकत्ता आर्ट स्टूडियो ने भी बड़े पैमाने पर छापा।

इन प्रिंट्स(कैलेंडरों) को अगर शुरुआती फिल्मो से मिलाएं तो साफ हो जाता है कि शुरुआती मिथकीय. फिल्मों के पोस्टर इसी शैली में चित्रित  किए गए हैं। 1927 में बाबूराव पेंटर के निर्देशन में बनी फिल्म सती सावित्री के पोस्टर से यह बात साबित भी होती है।

हालांकि पोस्टर बनाने वाले कलाकारों का काम रवि वर्मा के सधे हाथों के मुकाबले करीब-करीब बेडौल लगता था, लेकिन ये पोस्टर रवि वर्मा के प्रकाशित सस्ते कैलेंडरों की ठेठ नकल थे। जिस कलात्मकता और राष्ट्रीयता की झलक हम वर्मा के चित्रों में पाते हैं, सिनेमाई रुप में वह फाल्के की फिल्मों में प्रतिध्वनित होता दिखता है। फाल्के ने भी हिंदू देवताओं को पट पर उतारा और उनका चित्रण भी तकरीबन वैसा ही किया जो वर्मा की शैली थी। अब यह भी संयोग ही है कि फिल्मकार बनने से पहले और अपना खुद  का कामयाब प्रिंटिंग प्रेस खोलने से पहले फाल्के 1905 तक रवि वर्मा के प्रैस में ही काम करते थे।


अगला हिस्साः रवि वर्मा का असर..


Sunday, March 6, 2011

....मुहबब्त एगो चीज है-चौथी किस्त

"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे,
डर है कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे।"

हम नंबरों को अपने फोन में सुरक्षित कर लेते हैं...आदमी नंबरों में तब्दील हो गए...कहानियां टेक्स्ट मेसेजेज में। किसी का टेलिफोन नंबर पूछे तो पहले की तरह आप फटाक-देनी से बता नहीं पाएँगे। पहले नंबर आदमी पर हावी नहीं थे..पहले कितना अच्छा था

सुबह तक दारु का नशा बिलकुल उतर चुका था...दारु पीकर आदमी दार्शनिक हो जाता है। मेरी डायरी में दारुबाजी के बाद ऐसे ही दर्शन और तमाम किस्म के ब्रह्मज्ञान चस्पां हो जाते हैं।

बेग़म अख़्तर तकदीर के तमाशा न बनने और दीवाना बनना मंजूर करने के बाद डीवीडी में तब्दील होकर रह गईं थीं। एक बार फिर मैं और मेरी तन्हाई...।

एक बार फिर फोन देखा, पहुंचेली का मिस्ड कॉल..और एक मेसेज था। सुबह सात बजकर तैंतीस मिनट का कॉल..और मेसेज था--जाग जाओ तो कॉल बैक करो..।

बातचीत बेहद संक्षिप्त थी...पहुंचेली ने बुलाया था एक मॉल में। मैं मॉल में उसे खोजता रहा..हर सुंदर आंखों वाली लड़की मुझे पहुंचेली ही लगी। फोन आया--'कहां हो.?'
.मैंने कहा- 'बस आपको ही खोज रहा हूं..'
'सीसीडी आ जाओ..तुम्हारे इंतजार में पांच कप कॉफी गटक चुकी हूं..'.मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गई। जीवन में पहली बार कोई लड़की, मेरे सपनों को शहज़ादी मेरा इंतजार कर रही थी ....सीसीडी में एक कुरसी को धन्य बनाती हुई पहुंचेली बैठेली थी..और हमेशा की तरह ऑरेंज सूट में सजेली थी..

पहुंचेली का आंखों का सुरुर हमेशा की तरह अपने शबाब पर था..।
 'सुनो..'उसने कटाक्षपूरित नयनों के बाण चलाए...'जी '---मैंने अपना सारा ध्यान उसकी बातों की तरफ लगा दिया। --'तुमने कल कहा था...कि तुम्हे एक सीढी लगानी है मेरे कंधों पर.." मैंने कहा।
'मैंने कल तुमसे बात की थी..?" -- वो हैरत में पड़ गई। हैरत में ही उसने कॉफी के कुछ सिप लिए। विस्फारित हो गई आंखों से उसने आगे कहा कि दरअसल वह यही बात करने मुझे सीसीडी तक खींच लाई है..और उसे बहुत हैरत हो रही है कि मैंने उसके कहने से पहले ही सारी बातें कह दी हैं।

वैसे...मुझे मॉडलिंग करनी है..मुझे पता चला है कि तुम्हारी पहचान कुछ डिजाइनर्स के साथ है। रैम्प पर मेरी पूछ बहुत कम होती जा रही है...कामयाबी के लिए जो सीढियां चढ़नी होती हैं उन्हें कंधों पर रखना होता है जानू...माइ बेस्ट फ्रेंड। ...और मैंने सोचा सिर्फ तुम मेरी मदद कर सकते हो।

मैं ही क्यों तुम्हारे तो सिर्फ फेसबुक पर ही 5 हजार से ज्यादा दोस्त हैं, न जाने कितने ऑरकुट पर होंगे..कितने हाईफाइव पर न जाने कितने कहां कहां होंगे...कंधों के लिए मुझे ही क्यों चुन  रही हो तुम?....


Saturday, March 5, 2011

सिनेमाः प्रचार के निहितार्थ- दूसरी किस्त

शुरुआती फिल्मों के विज्ञापनों पर रहा ललित कलाओं का असर, बाद में शुद्धतावादियों को लगी हेठी

सजीव फोटॉग्रफी जैसे शब्दों के विज्ञापनों में इस्तेमाल ने इसे उत्पाद (सिनेमा) के गुण के तौर पर प्रचारित किया। दरअसल, सजीव तस्वीर कहने से तस्वीरों के गुण के सिनेमा में परिवर्तित और हस्तांतरित होना सुगम हो गया। फोटॉग्रफी का गुण था यथार्थ को पूरी सच्चाई और वस्तुनिष्ठता के साथ छापने का...फोटॉग्रफी इस लिहाज से भी चित्रकला से आगे की चीज थी।

सिनेमा ने फोटॉग्रफी के इसी गुण को आगे बढाया था..लेकिन सिनेमा में सजीवता भी थी..गति भी।


सिनेमा के शुरु के दौर में प्रचार का काम  बैलगाडियों के ज़रिए हुआ करता था..परचे बांटे जाते थे। प्रचार का काम तांगों से भी किया जाता था। तांगों से प्रचार करने की तरकीब अभी भी जारी है. कम से कम मेरे शहर मधुपुर में तो फिल्मों का प्रचार अब भी तांगे से ही होता है।

दरअसल, भारतीय सिनेमा पर पारसी थियेटर के असर की बात की जाती है। और यह असर प्रचार के मामले में भी इतना ही सच है। पारसी थियेटरों की ही तरह शुरुआती दौर में सिनेमा में परचे बांटे जाने लगे। लेकिन ये परचे सिर्फ शब्दाधारित होते थे। इनमें तस्वीरें अभी तक जगह नहीं बना पाईं थी।
शुरुआती दौर की फिल्म का प्रचार हैंडबिल

छपाई तकनीक में विकास के साथ ही इन परचों की छपाई में भी सुधार आने लगा। 1920 के दशक में अक्षरों की छपाई में कैलिग्राफीनुमा लैटर्स के ब्लॉक बनाए जाने लगे। इसी दशक के आखिरी सालों में बुकलेट्स छपने लगे। इन बुकलेट्स में फिल्मों की कुछ तस्वीरें और सिनॉप्सिस भी दी जाने लगीं।


बुकलेट्स लेकर जिस फिल्म का प्रचार सबसे पहले किया गया, वो थी- प्रेम सन्यास। गौतम बुद्ध के जीवन पर बनी यह फिल्म भारत और जर्मनी का संयुक्त निर्माण थी और इसे जर्मन निर्देशक फ्रेंज ऑस्टिन और भारतीय हिमांशु राय ने निर्देशित किया था। 1926 में रिलीज इस फिल्म का हिंदी में नाम प्रेम सन्यास था तो जर्मन दर्शको के लिए यह लाइट ऑफ एशिया था।

फिल्में शुरु से ही कला से जुड़ी चीज मानी जाती रही है। ऐसे में ललित कलाओं से जुड़े लोगों को इसमें(विज्ञापनों में ) प्राथमिकता मिलती रही। लेकिन विज्ञापन कला में ललित कला से जुड़े लोगों को कभी भी पूरी तरह से कलात्मक आजादी नहीं मिली। और कला की शास्त्रीयता से जुड़े लोग पोस्टरों और फिल्म प्रचार सामग्री बनाने को कभी भी उत्कृष्ट कला कार्य मानने में हेठी समझते रहे।

दूसरी तरफ विज्ञापन कला से जुड़े लोगों ने भी शास्त्रीयता को ज्यादा भाव नहीं दिया, हालांकि, वह छवियां गढ़ने की बुनियादी बातें ललित कलाओं की उधारी लेते रहे। विज्ञापन कलाओं के विकास ने भारत की ललित कलाओं को भी एक नया तेवर दिया इसमें शक नहीं। इन विज्ञापनों ने एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें सिनेमैटिक छवियों को सिनेमाघरों से बाहर और विस्तार दिया।

छवियों के इस नए युग में दादा साहेब फाल्के-जिनने 1913 से 1937 के बीच फिल्में बनाई- एक अलग मुकाम इसलिए भी रखते हैं क्योंकि उनने सिनेमा को एक नई कलात्मक ऊंचाई बख्शी थी। फाल्के की फिल्मों पर राजा रवि वर्मा की चित्रकला का बहुत असर था...जाहिर है यह प्रभाव विज्ञापन कला पर भी पड़ा।

अगलाः रवि वर्मा का असर

Thursday, March 3, 2011

सिनेमाः प्रचार के निहितार्थ

7 जुलाई 1896...टाइम्स ऑफ इंडिया...। भारत में प्रदर्शित होने वाली पहली फिल्म का प्रचार के लिए कुछ वैसा ही प्रकाशित हुआ था, जैसा आजकल अखबारों में वर्गीकृत विज्ञापनों का कॉलम छपता है। एक बॉक्स में
टाइपसैट मेसेज छपे थे---
 " The marvel of the century, The wonder of the world, Living Photographic pictures,...in life sized reproduction."

उस वक्त में भारत अपने सामाजिक बदलावों के दौर से गुजर रहा  था। इन विज्ञापनों को भी आधुनिकीकरण का जरिया और प्रतीक माना जाने लगा। बदलते भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास ने आधुनिकीकरण को नई परिभाषाएं और नए आयाम दिए। इऩ सभी क्षेत्रों के नए तौर-तरीके विज्ञापन कला और सौदर्यशास्त्र में भी दिखे।
पहली सवाक फिल्म 'आलमआरा' का विज्ञापन

             
 बदलाव का वह दौर प्रचार सामग्रियों की कलात्मकता को ऩए तेवर देता रहा। विज्ञापन सिर्फ अखबारों तक सीमिच नही रहे और इसके लिए अलग से परचे प्रकाशित किए जाने लगे। जिनमें उस दौर के सांस्कृतिक वातावरण के विचारों, आस्थाओं, नजरियों और मूल्यों का कलात्मक पर्याय दिखता रहा।

अखबारों में विज्ञापन देने की प्रथा भारत में अखबारो के प्रकाशन के साथ ही शुरु हो गई थी। यानी 18वीं सदी में ही। इंगलैंड के अखबारों में छपे विज्ञापनों की तर्ज पर छपे ये विज्ञापन आखिरी पेज पर छापे जाते थे।

भारत में पहली फिल्म के प्रदर्शन से जुडी़ नोटिस भी अखबार में नए विज्ञापन कॉलम के तहत छपी थी। इस कॉलम में जहाजरानी और कार्गो से जुड़े विज्ञापन छपा करते थे।

उस दौर में टाइम्स ऑफ़ इंडिया सिर्फ विदेशी विज्ञापन ही छापा करता था, ऐसे में शुरुआती भारतीय फिल्मों को उस अखबार में जगह नहीं मिल पाई। 1913 में रिलीज हुई पहली भारतीय फिल्म राजा हरिश्चंद्र का विज्ञापन बॉम्बे क्रॉनिकल में छपा था। -----
"A Powerfully instructive subject from Indian mythology. first film Of Indian manufacture, Specially prepared at enormous cost. Original scenes from city of Banares. Sure to appeal to our Hindu patrons."
बड़े शहरों मे तो इस विज्ञापन का असर ठीर रहा लेकिन प्रांतो में जब इसे प्रदर्शित किया गया, तो यह विज्ञापन बेअसर साबित हुआ।

अबकी बार दादा साहेब फाल्के ने विज्ञापन में कुछ बदलाव किए। विज्ञापन में लिखा गया--" 57000 से भी अधिक तस्वीरों का प्रदर्शन, दो मील लंबी तस्वीर"......लंबाई पर दिया गया जोर 6 घंटे लंबा नाटक देखने वाले दर्शकों को अपने असर में लेने लगा।


जारी.....