Tuesday, September 29, 2015

परिवार, जाति, और बिपाशा और टीवी पर दिखती टल्ली लड़की

मैं अब अमूमन टीवी पर खबरें देखने की जहमत नहीं उठाता। खासकर निजी चैनलों पर। खबरों का मुहावरा सिर्फ डीडी के पास रह गया है। लेकिन आदत है जो जल्दी जाती नहीं। आदतन टीवी खोला, इस उम्मीद में कि टीवी पर कुछ खबरें देख लूं।

मुझे हैरत नहीं, गुस्सा आया कि अमूमन हर चैनल पर एक ही पट्टी चल रही थी, अगले आधे घंटे बाद नशे में टल्ली लड़की का थाने में हंगामा। विजुअल इम्पैक्ट रहा होगा कुछ उस खबर में। मुंबई देहरादून हर जगह लड़की का नशे में होना खबर बन गया।

टीवी पत्रकारिता में खबर का बिकाऊ होना एक बड़ी शर्त हो गई है। वैसे हैरत होनी नहीं चाहिए। जिस देश में, पैर की बिवाईयां सूखे खेतों में पड़ी दरारों से अधिक महत्वपूर्ण हो, जिस देश में सिर में डैंड्रफ की समस्या किसानों की आत्महत्या से अधिक अहम हो, जहां गोरेपन की क्रीम को महिला के आत्मविश्वास के लिए जरूरी माना जाता हो और जहां एक लड़के-लड़की के रिश्ते की नींव डियोडरेंट की खुशबू हो, वहां नशे में टल्ली लड़की का हेडलाइन होना बनता ही है।

अब इस विषय पर ज्यादा टिप्पणी की जाए तो भी टीवी पर खबरों का कुछ होने वाला नहीं है। बुधवार को नीतीश कुमार भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखे। अठारह-उन्नीस साल बाद नीतीश को पता चला कि बीजेपी आरएसएस के कहने पर चलती है। नीतीश की दिक्कत है कि विकास पुरूष वाला उनका तमगा उनसे छिन गया है और वह हवा-हवाई मुद्दे उछालने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बीच, खबरों के नाम पर बिहार में महागठबंधन, एनडीए और कथित तीसरे मोर्चे ने अपने प्रायः सारे उम्मीदवारों के नामों की सूची जारी की। टिकट पाने वालों की बल्ले-बल्ले हुई है, बेटिकट कभी प्रेस वार्ता में ही रोए-चीखे-चिल्लाए। बिहार की जनता दम साधे हुई है।

जनता दम साधे देख रही है कि बिहार में एक बार फिर परिवार का दबदबा है। लालू के दोनों बेटे, तेजस्वी और तेजप्रताप टिकट पा गए हैं। यह बात भी कोई हैरत वाली नहीं है। पप्पू यादव इसी वजह से लालू से नाराज़ हुए थे। लालू ने दो टूक कह ही दिया था, उनके बेटे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो क्या भैंस चराएंगे।

लेकिन सिर्फ आरजेडी ही नहीं, वंशवाद की बेल एनडीए के घटक दलों लोजपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा में भी काफी हरी है। और उतनी ही ताकतवर यह जेडीयू और कांग्रेस तक है।

लगभग सारी पार्टियों में कार्यकर्ताओं की हैसियत तो कौड़ी के तीन की ही है। इन कार्यकर्ताओ ने पहले बाप के लिए बैनर पोस्टर लगाए अब बेटे और बेटियों के लिए लगाएंगे।

एलजेपी में 3 प्रत्याशी तो पासवान परिवार के ही हैं। रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस, अलौली से और सांसद रामचंद्र पासवान के बेटे प्रिंस की कल्याणपुर सुरक्षित सीट से चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। सहरसा जिले की सोनबरसा सुरक्षित सीट से सरिता पासवान को टिकट मिला है वो रामविलास की रिश्ते में बहू लगती हैं। इस सूची में इस लेख के छपने तक संभवतया कुछ दामाद भी जुड़ जाएं। लोजपा के पूर्व सांसद सूरजभाऩ के साले रमेश सिंह को विभूतिपुर से टिकट मिला है। खगड़िया से लोजपा सांसद महबूब अली कैसर ने अपनी पुश्तैनी सिमरी बख्तियारपुर की सीट पर बेटे यूसुफ को उतारा है।

हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम के प्रमुख जीतन राम मांझी के बेटे संतोष और पिता पुत्र शकुनी चौधरी और उनके बेटे राजेश उर्फ रोहित भी उम्मीदवार हैं। चकाई और जमुई सीट पर पेंच हैं। दोनों सीटों पर नरेंद्र सिंह के दो बेटे बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। मांझी ने अपनी ओर से पांच उम्मीदवारों की लिस्ट बीजेपी को भेजी है उसमें इन दोनों के नाम हैं।

बीजेपी में ब्रह्मपुर सीट से सीपी ठाकुर हों या नंदकिशोर यादव, चंद्रमोहन राय हों या हुकुमदेव नारायण यादव या फिर जनार्दन सिंह सिग्रीवाल सब अपने बेटों के लिए जीतोड़ कोशिशों में लगे हैं।

महागठबंधन में लालू परिवार के अलावा आरजेडी सांसद जयप्रकाश नारायण यादव के भाई विजय प्रकाश को जमुई से आरजेड़ी का टिकट मिला है। बरबीघा सीट से पूर्व सांसद राजो सिंह के पोते सुदर्शन को टिकट दिया गया है।

वंशवाद तो खैर अब बिहार की राजनीति में आम बात है लेकिन चिंता की बात यही है कि चुनाव अभी भी जाति के आधार पर ही लड़ा जा रहा है। कोई मुद्दा उछालने की बात करे, तो बिजली-पानी-सड़क यानी बिपाशा ही चुनावी मुद्दा है। जनता बुनियादी मसलों के लिए वोट देने का मन बना भी रही हो, लेकिन नेताओं के लिए परिवार ज्यादा अहम है। शायद उनके मन में यही बात रही हो कि परिवार ठीक करो, तो दुनिया ठीक हो जाएगी। उधर, इंतजार इस बात का भी है टीवी वाले नशे में धुत्त किसी और लड़की का वीडियो खोज निकालें, चुनाव के बीच जनता का रसरंजन भी तो होते रहना चाहिए। इंशाअल्लाह।

Monday, September 21, 2015

मांझी का दंगल

हाल ही में एक फिल्म आई थी, दशरथ मांझी पर। उसमें एक संवाद था, जब तक तोड़ेगा नहीं, तब तक छोड़ेगा नहीं। बिहार चुनाव में जीतनराम मांझी भी नीतीश को तोड़ने के संकल्प के साथ हैं।

काफी माथापच्ची के बाद बिहार में एनडीए के बीच सीटों का बंटवारा हो गया। लेकिन इस सीट बंटवारे से भी विवाद कम नहीं हुए हैं। लोजपा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। क्योंकि वह सीट बंटवारे में अपनी तुलना उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के साथ दलित नेता के रूप में उभर चुके मांझी से भी कर रहे हैं। उधर, मांझी की पार्टी के नेता देवेन्द्र यादव ने इस्तीफा दे दिया, उनका तर्क है कि उन्हें कम से कम 50 सीटें तो मिलनी ही चाहिए थीं।

लेकिन सीटों के बंटवारे पर मांझी के पास नाराज़ होने के ज्यादा विकल्प थे नहीं। उनकी पार्टी नवजात है और उनकी पार्टी के सारे के सारे विधायक जेडी-यू के बाग़ी हैं। मांझी की पार्टी नेता अपने इलाकों के ही क्षत्रप हैं और उनका बाकी के इलाकों में कोई नामलेवा नहीं है। मुख्यमंत्री बनने से पहले जीतनराम मांझी को भी बहुत अधिक लोग जानते नहीं थे और उनकी सियासी दुनिया गया-जहानाबाद के इलाकों में थी। शकुनी चौधरी हों, या नरेन्द्र सिंह, नीतीश मिश्रा हों या वृषण पटेल, इनकी पूरे सूबे में कोई पुख्ता पहचान या जनाधार नहीं है और इनका जनाधार एक या दो विधानसभा सीटों तक महदूद है।

इसलिए मांझी के सामने खतरा यह था कि अगर उनकी बीजेपी के साथ सीटों पर समझौते की कोशिश नाकाम रहती या वह नाराज़ होकर एनडीए से बाहर निकल लेते, तो जीत के लिए बेचैन उनके ज्यादातर उम्मीदवारों में फूट पड़ती और पार्टी दोफाड़ हो जाती।

लेकिन, मांझी जिस महादलित वोटों के लिए खड़े हैं, तो राज्य में करीब 18.5 फीसद वोटर इस समुदाय से हैं। इसमें रविदास, मुसहर और पासवान शामिल है। बिहार की कुल अनुसूचित जातियों में से 70 फीसद यही तीन जातियां है। इनमें भी मुसहर की आबादी सबसे ज्यादा करीब साढे पांच फीसदी होती है। जबकि पासवान की आबादी साढ़े चार फीसदी के आसपास है। पासवान वोटों पर पूरी पकड़ रामविलास पासवान की है।

असल में रामविलास पासवान दलितों के बड़े नेता हुआ करते थे, और साल 2005 में उन्होंने 30 सीटें हासिल भी की थीं। बाद में नीतीश एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने महादलित वर्ग तैयार करके दलितों को दोफाड़ कर दिया था। नीतीश ने दलितों की कुल 22 उपजातियों में से 21 को महादलित बना दिया और उसमें सिर्फ पासवानों को शामिल नहीं किया।

पासवान का जनाधार इससे कमजोर पड़ गया था।

लेकिन लोकसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश ने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर अपने हिसाब से जो मास्टरस्ट्रोक खेला था, वही उनके लिए अभिशाप बनता नजर आ रहा है क्योंकि मांझी ने मौके को भुनाने में ज़रा भी ढील नहीं दी।

अब सबकी नजर बिहार की उन सुरक्षित 38 सीटों पर हैं और इस बात पर भी कि आखिर महादलितों का सर्वमान्य नेता बनता कौन है। नीतीश कुमार के साथ ही इस पदवी के लिए पासवान, रमई राम, श्याम रजक, उदय नारायण चौधरी और अशोक चौधरी जैसे नेता कतार में खड़े हैं।

वैसे, नीतीश कुमार ने एक निजी चैनल पर एक कार्यक्रम में कहा भी कि अगर बिहार की जनता उन्हें वोट नहीं करेगी तो वह यानी जनता लूज़र होगी, खुद नीतीश लूज़र नहीं होंगे। लूज़र कौन होगा यह नवंबर में नतीजों के दिन पता चलेगा लेकिन मांझी के उभार और एनडीए के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के बरअक्स नीतीश का ऐसा बयान उनके डिगते आत्मविश्वास को ही बताता है।


Saturday, September 19, 2015

लेह-लद्दाख में आवारगी

हमारी फ्लाइट लेह उतरने के लिए बादलों से नीेचे उतरी तो दोनों खिड़कियों से झांकने वाली मुंडियां बाहर झांकने लगी थीं। महान हिमालय की बर्फ़ से ढंकी चोटियां दोनों तरफ नज़र आ रही थीं। 

विमान के बाईं तरफ वाली खिड़की से थोड़ा कम, दाहिनी तरफ थोड़ा ज्यादा। विमान को आड़े-तिरछे चक्कर काटकर रनवे पर उतरना पड़ा। मुझे भूटान के पारों अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की याद हो आई थी। वहां भी एयरपोर्ट ऐसा ही है। 

एक घाटी में बहती एक नदी। नदी के किनारे सड़क। सड़क के बाद एयरपोर्ट का अहाता। पारो में भी ऐसा है, लेह में भी। लेकिन लेह पारो जितना हरा-भरा नहीं है। लेह की घाटी भी पारो से अधिक चौड़ी है। 

बहरहाल, हम दिल्ली वाले (पता नहीं, लेकिन आप मैदानी इलाके के उत्तर भारतीय तो कह ही सकते हैं) जब लेह में उतरे, तो हमारे साथ हिदायतों की एक पोटली थी। लेह उतरते ही, तेज़ मत चलना। सांस फूल सकती है। नो स्मोकिंग एंड नो ड्रिंकिंग एट ऑल।
लेह का हवाई अड्डा फोटोः मंजीत ठाकुर

लेह में हवा हल्की है। एयरपोर्ट पर हमें गैलसन महोदय मिले। गैलसन अगले हफ्ते भर तक हमारे साथ रहने वाले थे। एयरपोर्ट पर बार-बार यह उद्घोषणा हो रही थी कि अलां होने पर मेडिकल मदद लें, फलां होने पर मेडिकल मदद लें, और ढिमकाना होने पर भी मेडिकल मदद ही लें। हमारा आत्मविश्वास पहले से डगमग था, यह सब सुनकर और छीज गया। 

हमें लगा कि पता नहीं अगले किस कदम पर हमारी सांस फूलने लग जाए।लेकिन सांस नहीं फूली हां, आशंका में सांस अटकी रही कि सांस अब फूली कि तब फूली। 

लेह को आंख फाड़कर घूर-घूरकर देखते और जितना हो सकता था उतना अपनी आंखों में बसाते हुए हम सुबह के नौ बजे ही सर्किट हाउस में पहुंच गए। 

हमें कहा गया था कोई काम नहीं। बस हाथ मुंह धोकर चाय-नाश्ता। सुबह के 9 भी नहीं बजे थे। 
लेह  में सर्किट हाउस के सामने, आईस हॉकी की जगह फोटोः मंजीत ठाकुर


सारा दिन बस आराम ही करना था। मैं बिस्तर पर लेटकर कुछ पढ़ने लग गया था। आखिर मैं रात में सोया नहीं था। हमारी फ्लाइट सुबह सवा 6 बजे की थी और इसके लिए रात को नींद पूरी नहीं हो पाई थी।


आंखों में नींद भरी थी। 

ठीक इसी वक्त तो नहीं लेकिन थोड़ी देर बाद सिरे भारी होने जैसे लक्षण उभरने लगे थे। लेकिन शारीरिक कमजोरियों के मुकाबले मन के भीतर डर हावी था। लेकिन बेडरेस्ट की हिदायत के बावजूद हमने पहले ही दिन से काम शुरू कर दिया था। 

पढ़ना और पढ़ना। दिल्ली की ऊमस भरी गरमी से निकलकर लेह की ठंडी हवा में, अचानक अजीब सा फील होने लगा था। 


सिर के पिछले हिस्से में तेज़ दर्द। बहुत मन था कि हम बाज़ार घूमें। लेकिन सिरदर्द बढ़ता ही गया। आखिरकार, हमारे डॉक्टर ने मुझे दवा दी। सिरदर्द की। फिर मैंने कड़क चाय बनवाई...और शाम को हम लेह के बाजार में निकले। 

लेह की हर शै में धुआं मौजूद है। बाजार में, दुकान में, घर में, गली में, चौबारे में, खूबानी में, मेन मार्केट से लेकर किसी माने तक...हर जगह एक गंध

आपको मिलेगी वह है अधजले डीज़ल की।
लेह का मोती बाज़ार, फोटोः मंजीत ठाकुर


मुझे पहले लगा था कि लेह बहुत साफ-सुथरा होगा। एक शहर के तौर पर लेह ठोस कचरे से साफ भी है। लेकिन, हवा गंदी लगी मुझे। 

जो भी सैलानी वहां जाता है, वह मोटर साइकिल की राइड ज़रूर करता है और उस छोटे से शहर में गाड़ियों की रेलमपेल भी बहुत है। तो मुझे हर हमेशा डीज़ल की गंध आती रही। 

शाम ढली तो हम सर्किट हाउस के आसपास ही घूम रहे थे। तीखी लगने वाली धूप ढल चुकी थी और इसकी जगह ले ली थी, चांद ने। 

लेह में चांद बेहद चमकीला नजर आ रहा था। लग रहा था कोई हैलोजन लाइट आसमान में टंगी हो। मैं जादू के नगरी में आए बच्चे की तरह ठगा सर्किट हाउस के लॉन से कभी चांद तो कभी चांदनी में चमचमा रहे बर्फीले पहाड़ो को देख रहा था। 

सर्किट हाउस के ठीक सामने एक तालाब-सा बना हुआ है, जिसमें जाने कैसे जंगली खर-पतवार उग आए थे। हमने बहुत अंदाज़ा लगाया कि आखिर यह होगा क्या...तब गैलसन ने बताया, इस जगह पर जाड़े में आउस हॉकी होती है। 

मैं बस अंदाजा ही लगाता रह गया कि यह तालाब जैसी जगह जाड़ो में जमकर सफेद होकर कैसी हो जाती होगी। 

बस, लेह में आठ बडे मार्केट बंद होने शुरू हो जाते हैं। हमलोगों को जाड़ा कुछ अधिक ही लग रहा था, ऐसे में जल्दी से जाकर खाना खा लेना मुफीद था और हमने वही किया। 

जारी




Sunday, September 13, 2015

बिहार में तेलंगाना-सा है मिथिला

बिहार के चुनाव की तारीखों की ऐलान हो गया। बिगुल बज गया। जो लोग बहुत दिनों से तारीखों के इंतजार में मुंह बाए बैठे थे, और उनको उनके इंतजार का फल मिल गया।

चुनाव पांच चरणों में होंगे। चार चरणों की पाद-वंदना बाद में, लेकिन अभी मैं जिक्र करना चाह रहा हूं, पांचवे चरण की तरफ। पांचवे दौर में सबसे अधिक 57 सीटों पर वोटिंग होगी और यह इलाका है मिथिला का। लोकसभा के सीटों के मुताबिक कहें तो झंझारपुर, मधुबनी, दरभंगा...और इसके पूरब कटिहार, पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा जैसे इलाके। यही इलाका है, जहां यादव-मुस्लिम वोट बाहुल्य में है। हैं तो महादलित और ओबीसी भी, लेकिन समीकरण का सिक्का माई का ही चला।

2014 के लोकसभा चुनाव में झंझारपुर, मधुबनी, दरभंगा पर बीजेपी ने कब्जा किया। यह इलाका ठेठ मिथिला है। उसके पूरब के इलाकों के ज़रिए ही आरजेडी, जेडी-यू, कांग्रेस और एनसीपी ने अपनी इज्जत बचाई थी। इस बार इसी इलाके में असदुद्दीन ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारेंगे।

लेकिन मसला सिर्फ जाति आधारित चुनावी चकल्लस ही नहीं है। मुद्दा विकास का भी है। मिथिला के लोगों का रूझान अगर बीजेपी की तरफ हुआ था, तो इसकी वाजिब वजहें भीं हैं। असल में नीतीश कुमार के दस साल ( से कुछ कम) के मुख्यमंत्रित्व काल में मिथिला की ओर उपेक्षा का भाव प्रबल रहा था। बाज़दफ़ा तो मिथिला के लोग नीतीश को नालंदा का मुख्यमंत्री भी कह डालते थे।

हालांकि, मिथिला इलाके की शुरूआत बंगाल की ओर से कटिहार घुसने के साथ ही हो जाती है, जहां आबादी में मुसलमान ज्यादा हैं। कुछ लोगों को ‘मिथिला’शब्द से चिढ़ है, सिर्फ इसलिए क्योंकि इससे उन्हें पौराणिक ब्राह्मणवाद की गंध मिलती हैं। लेकिन सच तो यह है कि मिथिला के प्रतीक मान लिए गए मैथिल ब्राह्मणों से परे इलाके में तकरीबन 24 फीसदी यादव और 15 फीसदी मुसलमानों की आबादी है। अनुसूचित जातियों की तादाद भी काफी है।

पूरा मिथिला क्षेत्रीय विकास के तराजू पर असमानता का शिकार है। मिथिला के किसी भी कोने मे चले जाए, नीतीश कुमार के 11 फीसदी विकास के दावों की पोल खुल जाएगी। गंगा के उत्तर और दक्षिण विकास की सच्चाईयों में जमीन आसमान का फर्क है।

बाढ़ (मोकामा के पास) में एनटीपीसी की योजना से लेकर, नालंदा विश्वविद्यालय तक और आयुध कारखाने से लेकर जलजमाव से मुक्ति की योजनाओं तक में कहीं भी मिथिला के किसी शहर का नाम नहीं है। इन योजनाओं के तहत आने वाले इलाके नीतीश के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाके रहे हैं। नीतीश ने अपनी सारी ताकत मगध और भोजपुर में खर्च करने में केन्द्रित कर रखी थी।

इन विकास योजनाओं से किसी किस्म की दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब इसी के बरअक्स समस्तीपुर के बंद पड़े अशोक पेपर मिल की याद आती है,जिसे फिर से शुरू करने की योजनाओं को पलीता लगा दिया गया या फिर सड़कों के विकास की ही बात कीजिए तो मिथिला का इलाका उपेक्षित नजर आता है।

इस इलाके के पास एक मात्र योजना है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखा की। मिथिला में न तो किसी उद्योग की आधारशिला रखी गई है न शैक्षणिक संस्थानों की। सारा कुछ पटना और इसके इर्द-गिर्द समेटा गया है, एम्स, आईआईटी, चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान और चाणक्य लॉ स्कूल। हाल में धान के भूसे से बिजला का प्रस्ताव गया की ओर मुड़ गया और कोयला आधारित प्रोजेक्ट औरंगाबाद के लिए। ऐसे में मिथिला की हताशा बढ़ती ही गई।

मिथिला के इलाके के पास खूब उपजाऊ जमीन है, संसाधन भी हैं। मानव संसाधन हैं, जो बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपना श्रम बेचते हैं। कभी जयनगर या दरभंगा जाने वाली ट्रेनों को देखिए, हमेशा भारी भीड़ यही साबित करती है कि उस इलाके से कितना पलायन दिल्ली और एनसीआर में हुआ है।

सिर्फ विकास ही एक मुद्दा नहीं है। मिथिला की अपनी एक अलग संस्कृति है, भाषा खानपान और रहन-सहन है। मिथिला की जीवनशैली में एक खतरनाक बदलाव आ रहा है। भाषा का बांकपन छीजता जा रहा है। और जिस तेजी से यह बांकपन छीजा है उसी तेजी से वह गढ़ भी टूटा, जो कभी भोगेन्द्र झा जैसे कम्युनिस्ट नेताओं की मजबूत ज़मीन हुआ करती थी। कम्युनिस्टों के बाद सामाजिक न्याय का डंका बजाने वाले और सामाजिक इंजीनियरिंग की बातों के किले बनाने वाले भी आए, लेकिन धैर्यवान और शांत मिथिला ने उन्हें खारिज़ कर दिया।

बात विकास की हो और युवा वर्ग अपने चारों तरफ तेजी से तरक्की हो रहा हो, तो अधीरता बढ़ती ही है। सबसे पहले यह अधीरता चुनावी नतीजों में दिखती है।

Saturday, September 12, 2015

बिहार का विकास एक साजिश है

देखिए, सीधी बात नो बकवास। बिहार को विकास का लालच दिया जा रहा है। लालच बुरी बलाय। पहले तो एक मुख्यमंत्री भये, जिनने सुशासन बाबू का तमगा हासिल किया। उनने जंगल राज के खिलाफ जंग लड़ी। जीते। दस साल मुख्यमंत्री हुए। बिहार का विकास करने की बात कही। अब कह रहे हमको एक टर्म और दीजिए, तब विकास करेंगे।

विकास न भया, डायनासोर का अंडा हो गया।

एक हैं लालू प्रसाद। खुद्दे सीएम रहे, बीवी को भी बनाया। अब बेटी या बेटा में से किसी को बनाना चाह रहे हैं। बेटा को ही बनाना चाह रहे होंगे। उन्ही के राज में पटना हाई कोर्ट ने बिहार के शासन को जंगल राज कहा था।

उनके दौर की बहुत कहानियां हैं जनता के मन में। भूले नै होंगे लोग। नीतीश के दौर की बहुत कहानियां है। उधर प्रधानमंत्री आए तो उनने भी विकास की बात कहकर पता नहीं कितने लाख रूपये बिहार को देने की बात कह डाली। हम अभी तक सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाएं है कि कितने जीरो होते हैं सवा लाख करोड़ रूपये में।

बात सौ टके की एक कि आखिर विकास इतना जरूरी ही क्यों है। क्या देश के विकसित राज्यों में लोग ज्यादा सुखी हैं?

मानिए हमारी बात, बिहार को विकसित होने देने या विकास के रस्ते पर जबरिया ठेलने की कोय जरूरत नहीं है। चल रहा है अपना टकदुम-टकदुम। चलता ही रहेगा। दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जिस जगह पहले पहुंचेगा, पटना-मुजफ्फरपुर-भागलपुर बाद में पहुंच लेगा।

हम तो सबके भले की सोचते हैं। आखिर लोग गरीबी कहां देखने जाएंगे अगर बिहार से भी गरीबी खत्म हो जाएगी? टूटी हुई सडकें कहां मिलेंगी अगर पटना से लेकर गया तक सारी सडकें चकाचक-चमाचम बन जाएंगी।

बाढ़ में हलकान लोग देखने के लिए असम मत भेजिए। बिहार में बाढ़ पर्यटन उर्फ फ्लड टूरिज़म की अपार संभावनाएं हैं। सड़क-घर-गली-मुहल्ल-रेल लाईन पर पानी। बढ़ता पानी-चढ़ता पानी। मचान पर लटककर बैठे लोग। रेल लाईन से उकडूं बैठकर हगते हुए कतारबद्ध लोग। आप क्या यह नहीं चाहते कि देश में टूरिज़म का विकास हो? पॉवर्टी टूरिज़म?

तो सुनिए, बिहार भी विकसित हो जाएगा तो कुपोषण और गाल धंसे लोगों की तस्वीर उतारने कहां जाएंगे लोग? सोमालिया? घोर अन्याय है यह तो। देश में बिहार हो, तो सोमालिया क्यों जाएंगे आप? बेवजह पासपोर्ट वगैरह का झंझट। बस आपको इतना करना है कि किसी भी बिहार जाने वाली ट्रेन में लटक सकने की कूव्वत हो, तो लटक लीजिए वरना फ्लाइट से पटना उतरिए और शहर से दूर किसी गांव में पहुंचिए।

कुपोषण के शिकार लोगों की एक नहीं सौ तस्वीरें मिलेंगी आपको। गृहयुद्ध कवर करना है? हुतू-तुत्सी जनजातियों के लिए इथयोपिया क्यों....गया की तरफ निकलिए। चाहे तो भोजपुर की तरफ निकल लें।

बिहार के लोग कच्ची सड़क, अंधेरे, गंदगी को एन्जॉय करते हैं और यह बात सत्ताधारी जानते हैं। आज से नहीं दशकों से जानते हैं। लेकिन इस बात का आतमगेयान सबसे पहले जगन्नाथ मिश्र को हुआ था, लालू ने इस बात की नब्ज पकड़ ली और यह भी तथ्य स्थापित किया कि तरक्की वगैरह से बिहारियों का दम घटने लगता है। और सड़क पुल वगैरह बनाना भी बेफजूल की बातें हैं। लालू काल में ही यह बात सत्तावर्ग ने स्थापित कर दी, जिनको विकास, शिक्षा वगैरह की बहुत चुल्ल मची हो, वह दिल्ली पुणे, मुंबई की तरफ निकलें। वहीं पढ़ें लिखे, नौकरी करें। बिहार आकर क्या अल्हुआ उखाड़ेंगे या कोदो बोएंगे?

नीतीश ने भी शुरू-शुरू में रोड-वोड बनाकर बिहार का सत्यानाश करना चाहा। तब जाकर उनको इल्म हुआ कि चुनाव-फुनाव विकास वगैरह के घटिया कामों से नहीं जाति के शाश्वत तरीके से जीते जाते हैं। और नतीजा सबके सामने है।

असल में, यह नया नेता वर्ग बिहार का विकास करके सबको बरगलाना चाहता है। यह चाहता है कि बिहार के बच्चे लालटेन की रोशनी की बजाय बिजली में पढ़ा करें। ताकि उस टाइम टीवी भी चले और वह पढ़ नहीं पाएं। यह बिहारी प्रतिभा को कुंद करने का एक तरीका है। सोचिए, बिजली नहीं होगी तो टीवी चलेगी? टीवी जैसे भ्रमित करने वाले माध्यम नहीं होगे तो बच्चे मन लगाकर पढ़ेंगे भी।

बताइए तो सही, हर साल बाढ़ न आए, हर साल मिथिला इलाके में, झोंपड़ों की शक्ल में बने घर बह न जाएं, तो बिहार की छवि का क्या होगा? दांत चियारे हुए दयनीय दशा में लोग...हाथ फैलाए हुए लोग। कभी राज ठाकरे तो कभी उल्फा के हाथों लतियाए जाते लोग...कभी दिल्ली में बिहारी की गाली सुनने वाले और उस पर मुस्कुराकर अपमान पी जाने वाले लोग...विकास हो जाएगा तो इनका क्या होगा?

अपनी भाषा, संस्कृति और स्मिता पर गर्व करना एक साजिश का हिस्सा है। और विकास उस साजिश का केन्द्र बिन्दु है। प्लीज बिहार का विकास मत करिए। वह अपने कद्दू-करेला में खुश है।



Thursday, September 10, 2015

वोटबैंक की बाज़ी और ओवैसी का इक्का

पिछले कुछ दिनों में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनका सीधे तौर पर आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन बिहार में चुनावी बिगुल का सुर ज्यों-ज्यों शोर में बदलता जाएगा, इन दो घटनाओं का आपसी रिश्ता भी शीशे की तरह साफ होता जाएगा।

पहली घटना है, रजिस्ट्रार जनरल एंड सेन्सस कमिश्नर के धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जारी किया जाना और दूसरी है बिहार के किशनगंज में ओवैसी की रैली।

आबादी वाली बात पहले। जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक दशक में (2001-11) हिन्दुओं की आबादी 0.7 फीसद कम हुई है और मुसलमानों की 0.8 फीसद कम हुई है। इसतरह भारत की कुल आबादी के 78.8 फीसद हिन्दू और 14.2 फीसद मुसलमान हैं। आबादी की दशकीय वृद्धि दर हिन्दुओं में 16.8 फीसद और मुसलमानों में 24.6 फीसद है।

दूसरी तरफ, बिहार की चुनावी फिज़ां में अब डीएनए, पैकेज, जंगलराज की वापसी जैसे जुमले उछल रहे हैं। इस सबके बीच एमआईएम नेता ओवैसी भी डार्क हॉर्स बनने की तैयारी कर रहे हैं। सीधे तौर पर इसका नुकसान नीतीश-लालू गठबंधन को उठाना पड़ेगा। लालू का वोट बैंक माई यानी मुसलमान और यादव का रहा है। साल 2004 तक उनका यह समीकरण कारगर रहा था। लेकिन इस दफा कनफुसकियां हैं कि बीजेपी 60 से अधिक यादवों को टिकट देने वाली है, और ऐसा अगर सच साबित हो तो हैरत की बात नहीं होगी।

प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी रैलियां उस इलाके में कर रहे हैं जहां बीजेपी की स्थिति कमज़ोर रही थी। पटना की 14 में से 6 और सहरसा की 18 में से केवल एक सीट बीजेपी के पास है। मगध में 26 में 8, भोजपुर में 22 में 10 और दरभंगा में तो 37 में से सिर्फ 10 सीट ही बीजेपी के पास है। मोदी की अगली रैली भागलपुर में है और यह क्षेत्र बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रमुख मुस्लिम चेहरा मोहम्मद शाहनवाज हुसैन का है जहां बारह विधानसभा सीटों में से बीजेपी के पास केवल 4 हैं।

लालू के साथ हाथ मिलाने से पहले नीतीश ने यही उम्मीद की होगी कि आरजेडी-जेडीयू गठजोड़ से यादव और मुस्लिम वोटबैंक को एकजुट किया जा सकेगा। लेकिन एक तरफ बीजेपी, यादव उम्मीदवारों के जरिए यादव वोटबैंक में फूट डालने की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ ओवैसी ने बिहार चुनाव के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री की खबर देकर इनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी यह अभी तय नहीं हो पाया है, लेकिन पार्टी मुस्लिमबहुल क्षेत्र में 20 से 25 उम्मीदवारों को उतार सकती है।

पूरे बिहार में 16 फीसद से अधिक मुसलमान वोटर हैं जबकि सीमांचल के किशनगंज में 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में 20 फीसद वोटर मुस्लिम हैं। इनकी यह संख्या यहां के चुनावी गणित में उलटफेर करती आई है। लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी बुरी तरह हारी थी। ऐसे में यहां अगर ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो फिर लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगना तय है।

पहले तो नीतीश कुमार ने ही उनके माई में से एम यानी मुस्लिम और वाई यानी यादव को दोफाड़ कर दिया था। 2009 और 2010 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों ने जेडी-यू का दामन थाम लिया था।

इसके साथ ही अगर लोकसभा के चुनाव में एनडीए का रिपोर्ट कार्ड देखें, तो 19 फीसद यादवों ने एनडीए को वोट दिया था। और अब अगर लालू से छिटका हुआ मुस्लिम मतदाता ओवैसी में अपना रहनुमा देखता है तो यह न सिर्फ बीजेपी की ताकत को अजेय करेगा, बल्कि आरजेडी-जेडीयू के मजबूत दिखते किले को ताश का महल बना देगा।

ओवैसी सिर्फ वोट ही नहीं काटेंगे। ओवैसी की छवि हिन्दुओं के पूज्य राम और सीता को लेकर उलजलूल बकने वाले की भी रहेगी। अब, जब जनगणना के आंकड़ों में यह बात आ गई है कि मुस्लिमों की आबादी हिन्दुओं के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है तो इस बात को बीजेपी चुनाव में शर्तिया मुद्दा बनाएगी। और हां, यूट्यूब पर ओवैसी का वह ज़हरीला भाषण अभी भी पड़ा हुआ है, तकनीकी प्रचार में महारत हासिल की हुई बीजेपी उसको भी दिखाएगी। यानी, बिहार की राजनीति में ध्रुवीकरण का खेल अभी बाकी है।