Thursday, December 27, 2007

जीत गए मोदी

मोदी जीत गए. मेरी प्रतिक्रया थोड़े देर से सही आनी चाहिए थी.. आ रही है।

लोग हल्ला कर रहे हैं सांप्रदायिकता की जीत हो गई... भी लोगों ने चुना है। आप कौन होते हैं बीच में टांग अडाने वाले? ढेर सारे विरोध के बीच मोदी ने मोदीत्व को परवान चढ़ा दिया। अब जीत गए हैं..तो कल तक उनका विरोध करने वाले भाई-बंदे भी उनके ही गीत गाएंगे।

उनका विरोध.. माफ कीजिएगा उनके विरोध में ताताथैया करके ज़मीन-असमान एक कर देने वाले चैनल भी हार मान गए हं। उन्हें पहले ङी खयाल नही ंरहा था.. कि ये चुनाव गुजरात दंगों के बाद नहीं हो रहे।

गुजरात दंगो के बाद का चुनाव पांच बरस पहले खत्म हो चुका है। ये चुनाव तो विकास के मुद्दे पर लड़े गए थे। उधर लालू भन्ना रहे हैं। सोनिया जी ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक कर ली। किसके सर पर तलवार की धार होगी.. ये भी दिख जाएगा..लेकिन जिन मोदी के खिलाफ विरोधी और उनके दल के भीतर के विरोधी सर उठाए थे।

अब नाटक उनके सर को कुचलने को लेकर होगा। खुद को सेकुलर कहने वाले लोग वास्तव में सेकुलर हैं क्या? दरअसल सेक्युलरिज़्म की परिभाषा ही इन्हें याद नहीं।

वोट की खातिर अल्पसंख्यकों (पढ़े- मुसलमानों के लिए) अलग से बजट की व्यवस्था करने वालो के लिए धर्मनिरपेक्षता की बात करनी बेमानी है। मोदी को लोगों ने वोट देकर जिताया है, इस तथ्य को खेल भावना के साथ स्वीकार करें तो बेहतर होगा।

जिस पार्टी में परिवार पार्टी से भी ऊपर है, (और मैं यह कोयी नई बात नही ंकह रहा, सर्वविदित है) उसके लिए व्यक्तिवाद का मुकाबला हास्यास्पद ही है। युवराज की जय और जय माता दी कहने वाले नौटंकीबाजों के लिए गुजरात भले ही आम चुनाव के लिए कैलेंडर का काम करें, लेकिन गुजरात के लोगों ने यह साबित कर दिया कि जीत उसकी होगी, जो आम आदमी के लिए काम करेगा।

जो न खाएगा और न खाने देगा।

और हां, युवराज एक बार फिर चुनावी दौड़ में फिसड्डी साबित हुए। यूपी में उनके सघन अभियान ने कांग्रेस की तीन सीटें कम कर दीं, गुजरात में कुछ बढ़त के बावजूद माता-पुत्र टांय-टांय फिस्स ही रहे। हां, जल्दी चुनाव को लेकर घबराने वाले सांसद अब राहत की सांस ले रहे होंगे। क्योंकि लोक सभा चुनाव तो तयशुदा वक्त पर ही होंगे।

Sunday, December 23, 2007

जोरा-जोरी चने के खेत में


हमने बहुत से गाने सुने हैं, जिनमें चने के खेत में नायक-नायिका के बीच जोरा-जोरी होने की विशद चर्चा होती है। हिंदी फिल्मों में खेतों में फिल्माए गए गानों में यह ट्रेंड बहुत पॉपुलर रहा था। अभी भी है, लेकिन अब खेतों में प्यार मुहब्बत की पींगे बढ़ाने का काम भोजपुरी फिल्मों में ज्यादा ज़ोर-शोर से हो रहा है। उसी तर्ज पर जैसे की एक क़ॉन्डोम कंपनी कहीं भी, कभी भी की तर्ज पर प्रेम की पावनता को प्रचारित भी करती है। या तो घर में जगह की खासी कमी होती है, या फिर खेतों में प्यार करने में ज्यादा एक्साइटमेंट महसूस होता हो, लेकिन फिल्मों में खेतो का इस्तेमाल प्यार के इजहार और उसके बाद की अंतरंग क्रिया को दिखाने या सुनाने के लिए धडल्ले से इस्तेमाल में लाया जा रहा है।

एक बार फिर वापस लौटते हैं, जोरा-जोरी चने के खेत में पर। प्रेम जताने के डायरेक्ट एक्शन तरीकों पर बनी इस महान पारिवारिक चित्र में धकधकाधक गर्ल माधुरी कूल्हे मटकाती हुई सईयां के साथ चने के खेत में हुई जोरा-जोरी को महिमामंडित और वर्णित करती हैं। सखियां पूछती हैं फिर क्या हुआ.. फिर निर्देशक दर्शकों को बताता है कि जोरा-जोरी के बाद की हड़बड़ी में नायिका उल्टा लहंगा पहन कर घर वापस आती है।

अब जहां तक गांव से मेरा रिश्ता रहा है, मैं बिला शक मान सकता हूं कि गीतकार ने कभी गांव का भूले से भी दौरा नहीं किया और गीत लिखने में अपनी कल्पनाशीलता का जरूरत से ज़्यादा इस्तेमाल कर लिया है। ठीक वैसे ही जैसे ग्रामीण विकास कवर करने वाली एक टीवी पत्रकार ने मुझे बताया कि धान पेड़ों पर लता है। धान के पेड़ कम से कम आम के पेड़ की तरह लंबे और मज़बूत होते हैं। मेरा जी चाहा कि या तो अपना सर पीट लूं, या कॉन्वेंट में पढ़ी उस अंग्रेजीदां बाला के नॉलेज पर तरस खाऊं, या जिसने भी रूरल डिवेलपमेंट की बीट उसे दी है, उसे पीट दूं। इनमें सबसे ज़्यादा आसान विकल्प अपना सिर पीट लेने वाला रहा और वो हम आज तक पीट रहे हैं।

बहरहाल, धान के पेड़ नहीं होते ये बात तो तय है। लेकिन चने के पौधे भी इतने लंबे नहीं होते कि उनके बीच घुस कर नायक-नायिका जोरा-जोरी कर सकें। हमें गीतकारों को बताना चाहिए कि ऐसे पवित्र कामों के लिए अरहर, गन्ने या फिर मक्के के खेत इस्तेमाल में लाए जाते या जा सकते हैं। लेकिन गन्ने के खेत फिल्मों में मर्डर सीन के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। उनमें हीरो के दोस्त की हत्या होती है। या फिर नायक की बहन बलात्कार की शिकार होती है। उसी खेत में हीरो-हीरोइन प्यार कैसे कर सकते हैं? उसके लिए तो नर्म-नाजुक चने का खेत ही मुफीद है।

हां, एक और बात फिल्मों में सरसों के खेतों का रोमांस के लिए शानदार इस्तेमाल हुआ है। लेकिन कई बार यश चोपड़ाई फिल्मों में ट्यूलिप के फूलों के खेत भी दिखते हैं। लेकिन आम आदमी ट्यूलिप नाम के फूल से अनजान है। उसे यह सपनीला परियों के देश जैसा लगता है। अमिताभ जब रेखा के संग गलबहियां करते ट्यूलिप के खेत में कहते हैं कि ऐसे कैसे सिलसिले चले.. तो गाना हिट हो जाता है। अमिताभ का स्वेटर और रेखा का सलवार-सूट लोकप्रिय हो जाता है। ट्यूलिप के खेत लोगों के सपने में आने लगते हैं, लेकिन यह किसी हालैंड या स्विट्जरलैंड में हो सकता है। इंडिया में नहीं, भारत में तो कत्तई नहीं।

फिर कैमरे में शानदार कलर कॉम्बिनेशन के लिए सरसों के खेत आजमाए जाने लगे। लेकिन यह जभी अच्छा लगता है, जब पंजाब की कहानी है। क्योंकि सरसों के साग और मक्के दी रोटी पे तो पंजावियों का क़ॉपीराईट है। फिर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के बाद सरसों के खेत का इस्तेमाल करना भी खतरे से खाली नही रहा। सीधे लगता है कि सीन डीडीएलजे से उठा या चुरा लिया गया है।

बहरहाल, मेरी अद्यतन जानकारी के मुताबिक, चने के पौधों की अधिकतम लंबाई डेढ फुट हो सकती है, उसमें ६ फुटा गबरू जवान या पांच फुटी नायिका लेटे तो भी दुनिया की कातिल निगाहों से छुपी नहीं रह सकती। इससे तो अच्छा हो कि लोगबाग सड़क के किनारे ही प्रेमालाप संपन्न कर लें। यह भी हो सकता है कि हमारे यशस्वी गीतकार गन्ने या मक्के के खेत की तुकबंदी न जोड़ पा रहे हों।

हमारी सलाह है राष्ट्रकवि समीर को कि हे राजन्, गन्ने और बन्ने का, मक्के और धक्के का तुक मिलाएं। अरहर की झाड़ी में उलझा दें नायिका की साड़ी फिर देखें गानों की लोकप्रियता। एक दो मिसाल दे दिया है.. क्या कहते हैं मुखड़ा भी दे दूं..

चलिए महाशय सुन ही लीजिए- गांव में खेत, खेत में गन्ना, गोरी की कलाई मरोड़े अकेले में बन्ना,
या फिर, कच्चे खेत की आड़, बगल में नदी की धार, धार ने उगाए खेत में मक्का, साजन पहुंच गए गोरी से मिलने अकेले में देऽख के मार दिया धक्का..

एक और बानगी है- हरे हरे खेत मे अरहर की झाडी़, बालम से मिलने गई गोरी पर अटक गई साड़ी

अब ब़ॉलिवुड के बेहतरीन नाक में चिमटा लगा कर गाने वाले संगीतकारों-गायकों से यह गाना गवा लें। रेटिंग में चोटी पर शुमार होगा। बस ये आवेदन है कि हे गीतकारों, सुनने वालों को चने की झाड़ पर मत चढ़ाओ... गोरियों से नायक की जोरा जोरी कम से कम चने के खेत में मत करवाओ हमें बहुत शर्म आती है।

Saturday, December 22, 2007

तारे ज़मीन पर, आमिर आसमान में


बॉलिवुड में अपनी अलग तरह की फिल्मों और अभिनय के लिए मशहूर आमिर खान अपनी नई पेशकश तारे जमीन पर के साथ एक बार फिर मैदान में हैं। विशेष बच्चों को लेकर बुनी गई इस फिल्म का अलग ट्रीटमेंट इसे खास साबित कर रहा है।


पिछले कुछ साल से आमिर खान नाम के इस सितारे की किस्मत के तारे बेहद बुलंद रहे हैं। रंगीला से जारी उनका सफर कामयाबी के साथ आज भी जारी है। लगान, दिल चाहता है, फ़ना रंग दे बसंती जेसी कामयाब फिल्मों के ढेर के साथ आमिर आज की तारीख में बॉलिवुड में मैथड एक्टिंग का दूसरा नाम बन चुके हैं। इसके अलावा आमिर हमेशा अलग क़िस्म की फिल्मों के चयन के लिए जाने जाते हैं। इस बार भी तारे ज़मीन पर के ज़रिए उन्होंने एक अलहदा किस्म की पटकथा पर काम किया है। फिल्म की कहानी विशेष बच्चों की समस्याओं को लेकर बुनी गई है। एक ऐसा विषय जिसे फिल्म की पटकथा के रूप में उठाना खतरे से खाली नहीं माना जाता।


आमिर ने बदलते वक्त के साथ अपनी शख्सियत और नज़रिए को बदला है। वे जोखिम उठाने और ज़रूरत पड़ने पर अपने खुद के साथ प्रयोग करने के लिए भी तैयार हो गए। उनकी पिछली फिल्में इस बात की ताकीद करती हैं।


तारे जमीन पर’ फिल्‍म की कहानी ने मुझे पहले दिन से ही सम्‍मोहित कर रखा था। आमिर मेरे सबसे पसंदीदा अदाकारों में से एक हैं। और उन्होंने इस फिल्म की कहानी भी इतने संवेदनशील और परफैक्‍ट तरीके से बुनी है कि आप भी वाह कर उठें। पूरी फिल्‍म केंद्रित है, ईशान अवस्‍थी नाम के आठ साल के बच्‍चे के ईर्द गिर्द। बच्‍चा डिसलेक्सिया नाम की एक बीमारी से पीडित है।


खास बात ये कि आमिर न सिर्फ इस फिल्म के निर्माता हैं, बल्कि इस बार उन्होने निर्देशन की कमान भी संभाली है। इसके साथ ही शंकर-एहसान-लाय का संगीत और प्रसून जोशी के गीत इस फिल्म के विषय के आयामों की तलाश करते हैं। फ़ना और रंग दे बसंती में अपने बिलकुल अलग रंग दिखाने के बाद अब आमिर तारे ज़मीन पर के गीतों की धुन पर खास बच्चों के साथ थिरक रहे हैं।


अमोल गुप्‍ते की इस कहानी में बच्‍चे को कुछ अक्षर पहचानने में परेशानी आती है और वे उसे उल्‍टे या फिर तैरते हुए नजर आते हैं। घर वाले उसे शैतान या पढाई से जी चुराने का बाहना मारकर बोर्डिंग स्‍कूल में डालने का प्‍लान बनाते हैं और बच्‍चे को मुंबई से पंचगनी की न्‍यू ईरा डे बोर्डिंग स्‍कूल में शिफ़ट कर दिया जाता है। घर से दूर जाने और उसकी चित्र बनाकर अपनी मां को डायरी बनाकर भेजने वाले सीन्‍स को आमिर ने पूरी संवेदनशीलता के साथ फिल्‍माया है।


फिल्म में आमिर एक ऐसे टीचर बने हैं, जो यह मानता है कि बच्चे की दुनिया बड़ो से अलग होती है। बच्चे के लिए बादल नीले, सूरज हरा और पानी लाल हो सकता है। मछली उड़ सकती है और हसीन औरते जलपरियों का रूप ले सकती हैं। लेकिन समझदार वयस्क इंसान बच्चों की इन बातों का बचकाना मान कर इग्नोर कर दे सकता है। लेकिन यहीं से तारे ज़मीन पर शुरु होती है।


यूं समझिए कि अगर आप इत्‍मी‍नान से फिल्‍म देख रहे हैं तो आपकी आंखें गीली होनी तय है। फिल्म देखने आए कई लोगों से हम प्रतिक्रियाएं ले रहे थे। दूसेर चैनल वाले भी थे, लोगों से मिले रिएक्शन वाकई उम्दा थे। अब आमिर जैसा बड़ा सितारा भी फिल्म में मध्यांतर से ठीक पहले एंट्री करता है। शाहरुख की तरह पहले ही फ्रेम से परदे पर दिखने की कोई ललक नहीं दिखी। ऐसा ही ामिर ने रंग दे बसंती में भी किया था, जब उन्होंने अपने साथी कलाकारों को भी बराबर मौका दिया था। अब मुझे लग रहा है कि साल की सबसे अच्छी फिल्म किसे मानूं, क्यों कि अब मुकाबला चक दे इंडिया और तारे ज़मीन पर के बीच सीधा हो गया है। फिल्‍म का संपादन दुरुस्‍त है, शंकर-एहसान-लाय के संगीत से किसी को किसी क़िस्म की शिकायत नहीं सकती। आमिर ने एक बार भी अपने सुर साधे हैं और उस पर खरे भी उतरे हैं।


आमिर खान ने किसी तरह के बॉलिवुडीय मसाले का इस्तेमाल किए बगैर शानदार फिल्म बनाई है। आमिर भारतीय फिल्मों के अलग किस्म के तारे हैं, एक ऐसा सितारा जिसके पटकथाओं की जड़ ज़मीन में हैं और जिनकी मंजिल आसमान में।

सफ़र है तो धूप भी होगी...


अगर आप दिल्ली या मुंबई जैसे शहर में रहते हैं और एक दिन अचानक जब सुबह आप सोकर उठें तो न दूधवाला आपके लिए दूध लेकर आए, न सड़क पर रिक्शेवाले से आपकी मुलाक़ात हो..तो कैसा रहेगा? कहने का गर्ज़ ये कि सेवा के इन क्षेत्रों में आमतौर पर बिहारियों की भरमार है और ये भी कि असम से लेकर मुंबई तक नामालूम वजहों से इन्हें खदेड़ने की कोशिश की जा रही है।


हमारे कहने का यह कतई मतलब नहीं है कि रिक्शा चलाना या मज़दूरी करके पेट पालना या फिर सब्जी बेचना बिहारियों की महानता है, सवाल ये है कि क्या इस समुदाय को इस देश में रहने का बराबर हक़ है? क्या बंगलुरु सिर्फ कन्नड लोगों को वसीयत में मिला है, या फिर चंडीगढ़ पंजाबियों की निजी संपत्ति है? कुछ महीनों पहले मुंबईकर नेता राज ठाकरे का बयान आया था कि किसी वजह से अगर मुंबई में रहने वाले बिहारी आगा-पीछा करते हैं तो उनके कान के नीचे खींचा जाएगा। मानो बिहार से विस्थापित बेरोज़गार लोग न हुए, अजदहे हो गए। और ये स्थिति सिर्फ मुंबई ही नहीं दिल्ली में भी है जहां बिहारी शब्द एक गाली के तरह इस्तेमाल किया जाता है। अगर राज ठाकरे को बिहारियों से इतना ही ऐतराज है तो वे पहले महाराष्ट्र को भारत से अलग करवाने की मुहिम छेड़ दें। क्यों कि भारतीय संविधान में तो देश के अंदर कहीं भी रहने और आने-जाने की छूट है।


पिछले साल की बात है जब मैं एक दोस्त की शादी में शामिल होने इटावा जा रहा था तो बिहार जाने वाली एक ट्रेन के साधारण डब्बे में अलीगढ़ उतरने वाले कुछ लोगों ने निचली सीट पर बैठे मजदूरनुमा लोगों को जबरिया ऊपर बैठने के लिए मजबूर किया। वजह- इन दैनिक यात्रियों को ताश खेलने में दिक्कत हो रही थी। दिल्ली, महाराष्ट्र या फिर असम कहीं भी बिहारी अनवेलकम्ड विजिटर की तरह देखा जाता है। इन सब परिस्थितियों में याद आता है गिरिराज किशोर का उपन्यास पहला गिरमिटिया। शायद बिहार के लोग भी उसी स्थिति में हैं जैसी स्थिति में उनके पूर्वज २०० बरस पहले दक्षिण अफ्रीका या सूरीनाम, मारिशस जैसे देशों में थे। अंतर बस इतना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से गए ये पुरखे विदेशी ज़मीन पर संघर्ष कर रहे थे और इन बिहारियों को देश में ही परदेशीपन झेलना पड़ रहा है। निदा फाजली का एक शेर है, सफ़र है तो धूप भी होगी, जो चल सको तो चलो, बहुत हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो।


हर जगह मीडिया में भी बिहारियों की भाषा, इनके उच्चारण और रीति-रिवाजों पर ताने कसे जाते हैं। खान-पान और रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। अनुरोध है बंधुओं, कोई भी आदमी जानबूझकर गरीब नहीं होता। संतोष की बात ये है कि बिहार के लोग हर क्षेत्र में अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं। हां, थोड़ी मानसिकता सकारात्मक हो जाए तो शायद शिकायतें दूर हो जाएं। सकारात्मकता से मतलब है कि दकियानूसी बातों से थोड़ा परे होकर अगर हम सोच सकें, थोड़ा अपने-आप को उन बातों से ऊपर उठाएं जो हमें नीचे की तरफ ले जा रही है।


ऱवीश कुमार का एक लेख पढ़ा था, -जूते माऱुं या छोड़ दूं- इसमें एक गांव के शिकायती लोगों का क़िस्सा था। वे विकास नहीं होने की शिकायत तो कर रहे थे, लेकिन वोट अपनी जाति के नेता को ही देने वाले थे। यह कहानी उत्तर प्रदेश की थी। लेकिन बिहार जातिवाद के इस कोढ़ से अलग नहीं है। बल्कि हमारा मानना है कि जातिवाद बिहार में और ज़्यादा खतरनाक स्तर पर है। जाति के चक्कर से अलग रहकर ही विकास हो सकता है। दूसरी बात ये कि राजनीति बिहार के गांव और चौपाल का सबसे अहम शगल है। चौक पर बैठे नौजवान अंतरराष्ट्रीय से लेकर परिवार तक की सारी खबरों पर चर्चा कर लेते हैं। हम अपने विकास से ज़्यादा सरोकार दूसरों में रखने लग गए हैं।


तीसरी बात जिसकी चर्चा ज़रूर करनी होगी, वो है अडंगेबाज़ी की। स्कूल से लेकर सचिवालय तक हर काम में अडंगा लगाना जिस दिन कम हो जाएगा, हम नई राह पर चल सकेंगे।


ऐसा नहीं है कि बिहारी मूढ़मति हैं और बिल्कुल बदलना ही नहीं चाहते। इस समुदाय के लोग जहां भी गए, वहां की संस्कृति को अपनाने में कोई हिचक नहीं रही है इनमें। बल्कि कई बार तो मूल निवासियों से के साथ फर्क करने में भी दिक़्क़त पेश आती है। लेकिन यह समानता केवल ऊपरी तौर पर है। लोग उनकी बोली, चाल-ढाल और कपड़े तो अपना लेते हैं लेकिन नज़रिए को नहीं। जबकि ज़रूरत ठीक इसके उलट है।


बिहारी समुदाय को काम के प्रति उनका नज़रिया और अपनी संस्कृति बनाए रखनी होगी। क्योंकि दोष संस्कृति में नहीं, नज़रिए में है। आप ही देखिए .. बंगाली या कोई भी दूसरी भाषा को जानने वाले दो लोग मिलते हैं तो आपस में बातचीत अपनी भाषा में ही करते हैं। लेकिन बिहारियों में भाषा के प्रति ऐसा लगाव कम ही देखने को मिलता है।प्रिय बिहारियों... विकास की संभावनाओं को देखिए। विकास किसी एक इलाक़े या एक दिशा में सीमित रहने वाली चीज़ नहीं है। यह कहीं से शुरु होकर कहीं तक जा सकती है। अगर पंजाब के किसान सफलता की इबारत लिख सकते हैं तो हम क्यों नहीं। विकास की भागदौड़ में कोई काम छोटा या बड़ा नहीं। ज़रूरत है सिर्फ ईमानदार कोशिश की। बिहार का मज़दूर अगर फिजी का प्रधानमंत्री बन सकता है, सूरीनाम का उद्योगपति हो सकता है, तो भारत में, बल्कि बिहार में क्यों नहीं। सच पूछिए तो ज़रूरत सिर्फ इसी की है कि हम वापस लौटें और ज़ड़ से चीज़ों को ठीक करने की शुरुआत करें। यह मान कर कि सफ़र है तो धूप भी होगी। आमीन.......


(यहां बिहारी का मतलब बिहार की भौगोलिक सीमा के लोग ही नहीं है, बिहारी होना एक फिनोमिना है। मैं भी मूलतः बिहारी हूं और झारखंड, फश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों, मध्य प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को भी इसी समुदाय का मानता हूं। इस लेख में प्रयुक्त बिहारी शब्द उन सभी राज्यों के निवासियों के लिए माना जाना चाहिए।)- गुस्ताख़

Sunday, December 16, 2007

चौधरी की जात

ये किस्सा मुझसे जुड़ा भी है और नहीं भी। यह सच भी हो सकता है और नहीं भी। यानी यह फिक्शन और नॉन फिक्शन के बीच की चीज़ है। कहानी पढ़कर आपसे गुजारिश है कि आप प्रभावित हों और हमारे इस किस्से को किसी पुरस्कार के लिए भेजें। बात उन दिनों की है जब हम छात्र जीवन नामक कथित सुनहरा दौर जी रहे थे। कथित इसलिए कि हमने सिर्फ सुना ही है कि छात्र जीवन न तो सुनहरा हमें कभी लगा, न हम इसके सुनहरेपन को महसूस कर पाए। बहरहाल, उन दिनों में जब मैं पढाई करने की बाध्यता और न पढ़ने की इच्छा के बीच झूल रहा था..जैसा कि उन दिनों में आमतौर पर होता है..मेरी मुलाकात एक निहायत ही हसीन लड़की से हो गई।

ये दिन वैसे दिन होते हैं, जब लड़कियां हसीन दिखती हैं( आई मीन नज़र आती हैं) । लड़कियां भी संभवतया लड़कों को जहीन मान लेती हैं। उन सुनहरे दिनों के लड़के आम तौर पर या तो ज़हीन होते हैं, या उचक्के.. और उनका उचक्कापन उनके चेहरे से टपकता रहता है। उन उचक्के लड़कों से लड़कियों को हर क़िस्म का डर होता है। जहीन लड़कों से ऐसा डर नहीं होता। जहीन लड़के अगर ऐसी वैसी कोई हरकत करने - जिसे उचक्के अच्छी भाषा में प्यार जताना- कहते हैं तो प्रायः समझाकर और नहीं तो रिश्ता तोड़ लेने की धमकी देकर लड़कियां जहीनों को काबू में ऱखती हैं। वैसे, उचक्के भी पहले प्यार से ही लड़कियों को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन न मानने पर सीधी कार्रवाई का विकल्प भी होता है। प्रेम का डायरेक्ट ऐक्शन तरीका.... सारा प्यार एक ही बार में उड़ेल दो.. पर इस तरीके में लात इत्यादि का भय भी होता है। सो यह तरीका तो जहीनों के वश का ही नहीं।

अपने कॉलेज के दिनों में मैं भी ग़लती से जहीन मान लिया गया था। या फिर यूं कहें कि मुझपर यह उपाधि लाद दी गई थी। इस उपाधि के बोझ तले मैं दबा जा रहा था, और भ्रम बनाए रखने की खातिर मुझे पढ़ना वगैरह भी पड़ता था। इस खराबी के साथ-साथ मेरे साथ एक अच्छी बात ये हुई कि लड़कियों के बीच मैं लोकप्रिय हो गया। नहीं गलत न समझें... उस तरह से तेरे नाम मार्का दादा लोग ही लोकप्रिय होते हैं... हम तो नोट्स की खातिर पापुलर हुए। अस्तु...उनहीं में एक लड़की थी..नाम नहीं बताउंगा.. बड़े आत्मविश्वास से कह रहा हूं कि मैं उनका बसा-बसाया घर नहीम उजाड़ना चाहता। तो नाम तय रहा अनामिका। चलिए टायटल भी बताए देते हैं... चौधरी..।


प्रेम प्रकटन हो गया। हम खुश। लड़की राजी। प्यार चला। जहन होने का दम भरते हुए हम हमेशा इनसे दो कदम दूर से बाते करते रहे। नो चुंबन, नो लिपटा-लिपटी। नो स्पर्श। खालिस प्लूटोनिक लव। दाद मिली कॉलेज में। दोस्तों का साथ मिला। घर में बताया। बेरोज़गार लौंडे का प्रेम। घर में मानो डाका पड़ गया। भौजाई से लेकर मां तक का चेहरा लटक गया। चाचा ने बात करना बंद कर दिया। लेकिन मां शायद मां ही होती है, कहने लगी- लड़की की जात क्या है। हमने कहा चौधरी...। अम्मां बोलने लग गईं ये कौन सी जात होती है? जात क्या है जात? ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ, कोई तो जात होगी? हम लाजवाब।

टायटल का पंगा। न उसने बताया था, न हमने पूछा था.. चौधरी तो सभी जातों में होते हैं... ऊपर से लेकर नीचे तक हर जाति में चौधरी हैं। लड़की से पूछना मुनासिब न लगा। एक दिन डरते-डरे पूछ ही डाला। लड़की मुझसे ज़्यादा बौद्धिक थी.. उसके बाप ने भी कुछ ऐसा ही पूछा था... जाति नही मिली। मेरे टायटल के भी कई सारे अर्थ निकलते हैं। आज मां कीबात मान ली है। लड़की ने अपने बाप की बात। वह अपनी जाति सीने से लगाए कहीं ससुराल संवार रही है, मैं अपनी जाति की चिपकाकर घूम रहा हूं। मुझमें ट्रेजिडी किंग वाला दिलीपकुमारत्व आ गया है। मैंने सोचा है अपनी अगली पीढ़ी में प्यार करने वाले की जाति नहीं पूछने दूंगा।

हे दुष्टता, तुझे नमन,


हे दुष्टता, तुझे नमन,

कुछ न होने से-

शायद बुरा होना अच्छा है।


भलाई-सच्चाई में लगे हैं,

कौन से ससुरे सुरखाब के पंख


घिसती हैं ऐडियां,

सड़कों पर सौ भलाईयां,

निकले यदि उनमें एक बुराई,


तो समझो पांच बेटियों पर हुआ,

एक लाडला बेटा


ढेर सारी भलाई पर,

छा जाती है

थोड़ी सी बुराई,


जैसे टनों दूध पर तैरती है,

थोड़ी सी मलाई


मंजीत ठाकुर

Saturday, December 15, 2007

बाथरूम के शाश्वत साहित्यकार


आप सबने बाथरूम सिंगर शब्द ज़रूर सुना होगा। कई तो होंगे भी। बाथरूम में गाना अत्यंत सुरक्षित माना जाता है। न पड़ोसियों की शिकायत, न पत्नी की फटकार का डर..। लोगबाग भयमुक्त वातावरण में अपने गाने की रिहर्सल करते हैं। बाथरूम ऐसी जगह है, जहां आप और सिर्फ आप होते हैं। कई मामलों में आप अकेले नहीं भी होते हैं, लेकिन हम अभी अपवादों की बात नहीं कर रहे। बहरहाल, हम मानकर चल रहे हैं कि बाथरूम में आप अकेले होते हैं। ठीक? चलिए... ।


शौचालय वह जगह है, जहां आप सोच सकते हैं। वहां कोई व्यवधान नहीं है। नितांत अकेलापन। आप और आपकी तन्हाई। हम तो मानकर चल रहे हैं कि शौचालय का नाम बदलकर सोचालय रख दिया जाए। प्रैशर को हैंडल करने का तरीका। आ रहा है तो अति उत्तम... नहीं आ रहा तो सोचना शुरु कर दीजिए। नई कविता, नई कहानी, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद जैसे कई आंदोलनों ने शौच के दौरान कूखने की प्रक्रिया में ही जन्म लिया. ऐसा हमारा विश्वास है.। कई तरह की कविताएं.. जो एसटीडी बिलों पर लिखी जाती हैं, कहानी की नई विधाएं जो आम लोगों की समझ के बाहर हों, दूसरे प्रतिद्वंद्वी साहित्यकारों पर कीचड़ उछालने की नायाब तरकीबें... कल कौन सी लड़कियां छेड़ी जाएं, इसकी लिस्ट सब बाथरूम में ही तैयार की जाती हैं।



अस्तु, हम तो मानते हैं कि इस शब्द बाथरूम और शौचालय में थोड़ा अंतर है। ट्रेनों में बाथरूम नहीं होता। लेकिन वहां भी साहित्य रचना करने वाले धुरंधरों को भी हम बाथरूम साहित्यकारों के नाम से ही अभिहीत करते हैं। हिंदी में शब्दों का थोड़ा टोटा है। जगह की भी कमी है। दिल्ली जैसे शहर में बाथरूम और टायलेट में अंतर नहीं होता। दोनों का अपवित्र गठबंधन धड़ाके से चल रहा है। इसे कंबाइंड कहते हैं। एलीट लोग कुछ और भी कहते हों, हम किराएदार तो यही कहते हैं। दिल्ली में तो क्या है, मकानमालिक यहां उत्तम पुरुष है... किराएदार अन्यपुरुष। बहरहाल, टायलेट और बाथरूम की इस संगति की वजह से नामकरण में मैने यह छूट ली है। बाद के साहित्यकार अपने हिसाब से वर्गीकरण कर लें।



तो बाथरूम साहित्यकारों का जो यह वर्ग है, जम्मू से कन्याकुमारी तक फैला है। मैं सिर्फ पतिनुमा बेचारे लेखकों की बात नहीं कर रहा। लेकिन भोपाल हो या गोहाटी अपना देश अपनी माटी की तर्ज़ पर टायलेट साहित्यकार पूरे देश में फैले हैं। मैं अब उनकी बात नहीं कर रहा हूं...जो लेखन को हल्के तौर पर लेते हैं और जहां-तहां अखबारों इत्यादि में लिखकर, ब्लॉग छापकर अपनी बात कहते हैं। मैं उन लेखकों की बात कर रहा हूं, जो नींव की ईट की तरह कहीं छपते तो नहीं लेकिन ईश्वर की तरह हर जगह विद्यमान रहते हैं। सुलभ इंटरनैशनल से लेकर सड़क किनारे के पेशाबखाने तक, पैसेंजर गाडि़यों से लेकर राजधानी तक तमाम जगह इनके काम (पढ़े कारनामे) अपनी कामयाबी की कहानी चीख-चीख कर कह रहे हैं।



ज्योंहि आप टायलेट में घुसते हैं, बदबू का तेज़ भभका आपके नाक को निस्तेज और संवेदनहीन कर देता है। फिर आप जब निबटने की प्रक्रिया में थोड़े रिलैक्स फील करते हैं, त्योहि आप की नज़र अगल-बगल की गंदी या साफ-सुथरी दीवारों पर पड़ती है। यूं तो पूरी उम्मीद होती है कि नमी और काई की वजह से आप को कुदरती चित्रकारी ही दिखेगी, अगर गलती से दीवार कुछ दीखने लायक हो.. तो आप को वहां गुमनाम शायरों की रचनाएं नमूदार होती हैं, कई चित्रकारों की भी शाश्वत पेंटिंग्स दिख सकती हैं। सकती क्या दिखेंगी ही। कितना वक्त होता है, बिल्कुल डेडिकेटेड लोग.। कलम लेकर ही टायलेट तक जाने वाले लोग। जी करता है उनके डेडिकेशन पे सौ-सौ जान निसार जाऊं। इतना ही नहीं, आजकल मोबाईल फोन का ज़माना है, लोग अपना नंबर देकर खुलेआम महिलाओं को आमंत्रण भी देते हैं। इतना खुलापन तो खजुराहो के देश में ही मुमकिन है। इन लोगों के बायोलजी का नॉलेज भी शानदार होता है.. तभी ये लोग दीवारों पर नर और मादा जननांगों की खूबसूरत तस्वीरें बनाते हैं। पहले माना जाता था कि ऐसा सस्ता और सुलभ साहित्य गरीब तबके के सस्ते लोगों का ही शगल है। इसे पटरी साहित्य का नाम भी दिया गया था। लेकिन बड़ी खुशी से कह रहा हूं आज कि इनका किसी खास आर्थिक वर्ग से कोई लेना देना नहीं है। राजधानी एक्सप्रेस में यात्रा करने वाले ठेलेवाले या रिक्शेवाले तो नहीं ही होते हैं, वैसे में इन ट्रेनों के टायलेट में रचना करने वाले सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों की संख्या के लिहाज से मैं कह सकता हूं कि साहित्य के लिए कोई सरहद नहीं है। कोई वर्गसीमा नहीं है। अपना सौंदर्यशास्त्र बखान करने की खुजली को जितना छोटे और निचले तबके के सिर मढ़ा जाता है, उतनी ही खाज कथित एलीट क्लास को भी है।




इन तस्वीरों के साथ चस्पां शेरों को उद्धृत करने की ताकत मुझमें नहीं है। मेरी गुस्ताखी की सीमा से भी परे ऐसे महान, सार्वकालिक, चिरंतर गुमनाम लेकिन देश के हर हिस्से में पाए जाने वाले साहित्यकारों को मैं शत-शत नमन करता हूं।




मंजीत ठाकुर

Tuesday, December 11, 2007

सूत न कपास,...


सूत न कपास, कोरियों में लठ्ठमलट्ठा.. ये कहावत तो आपने सुनी ही होगी। अब सुन लीजिए.. आडवाणी होंगे अगले पीएम पद के प्रत्याशी। क्या ही अनुप्रास अलंकार है। दैनिक जागरण की हैड लाईन है ये.. संसदीय बोर्ड ने वाजपेयी की सहमति के बाद ये फैसला किया है।

सरकारी स्कूलों में छठी कक्षा में अंडे वाली एक कहानी पढाई जाती थी। अंडे बेचने निकली लड़की अपने सारे सपनों को टोरकी सिर पर रखे ही खुली आंखों देख डालती थी। नतीजतन, अंडों के साथ सपने भी टूट जाते थे। बीजेपी वालों को सोचना चाहिए कि वो कौन से सपने हैं, जिन्हें जनता, (वोटरों) की आंखों में जबरिया डालकर वह उन्हें जीत की रहा पर डाल सकेगी। बीजेपी की जीत का आधार क्या होगा? मोदी? आडवाणी? बुढा गए वाजपेयी? ना मुन्ना ना...

आडवाणी की पीएम के पूर में ताजपोशी.. हो पाएगी? क्या लगता है? ेक कहानी सुनाता हूं... तीन ज़ार में मेंढक रखे थे। दो के डक्कन बंद एक का डक्कन खुला था। लोग हैरत में। दो के बंद एक का खुला क्यों? भाई लोगों ने बताया। दो में विदेशी मेंढक हैं। इटली वाला मेेढक एक में... दुसरे में रूस-चीन का मिला-जुला। दोनों के ढक्कन बंद। डक्कन खुला रखें, तो एक एक कर सारे फरार हो जाएंगे। तीसरे में भारतीय मेंढक थे। ढक्कन खुला.. फिर भी कोई निकल नहीं पाएगा.. जो निकलना चाहेगा.. बाकी उसकी टांग खींचकर अंदर कर देंगे।

ये गुजरात में हो सकता है। झारखंड में भी... यूपी में हो चुका है। खुद को पीएम बनाने का दावा पेश कर दें, लेकिन दिल्ली जाने वाली बारात के दूल्हे का क्या होगा? जनादेश हासिल करने वाले नेता तो हाशिए पर हैं, या फिर अपने खिलाफ हो रहे भीतरघात से परेशान । राम मंदिर वाला मुद्दा भी चलेगा नहीं, काफी पुराना औप घिसा-पिटा है। लोग अब भ्रमित नहीं होंगे। भारत उदय भी फुस्स ही रहा। सेंसेक्स भी आपके ६ हज़ार के मुकाबले २० हज़ार के आस-पास कबड्डी कर रहा है। मुद्दा क्या है आपके पास...? लौह पुरुष की ापकी छवि जिन्ना प्रकरण ने तार-तार कर ही दी है। तो आडवाणी जी किस किंगडम का किंग बनना पसंद करेंगें? सवाल ढेरों हैं, जवाब तो आडवाणी को देना

Saturday, December 8, 2007

खाई की तस्वीरें

खाई की तस्वीरें



कुछ चीज़े आपको हमेशा परेशान करती रहतीं हैं, हम सबको हमारे बच्चों को परेशान करती रहती हैं। मेरे एक मित्र ने कुछ तस्वीरे भेजी हैं, उन्हें आभार देते हुए तस्वीरें छाप रहा हूं, विचार कीजिएगा-


Thursday, December 6, 2007

आधुनिक कबीर की सूक्तियां

काल खाए सो आज खा, आज खाए सो अब,
गेहूं मंहगे हो रहे हैंस फेर खाएगा कब?

कबीरा कड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ,
जिसको ट्यूशन पढ़ना हो, चले हमारे साथ।


पोथी पढि-पढि जग मुआ, साक्षर भया न कोय,
तीन आखर के नकल से हर कोय ग्रेजुएट होय।

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
आपन को शीतल करे दूजो को दुख होय।

प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय
छोटी-छोटी बात पर, हर साल दंगा हो जाय।।

Monday, December 3, 2007

वॉट एन आइडिया सर जी..

पीली पगड़ी पहने दाढीमय अभिषेक के पीछे निहोरे करते, टीवी स्क्रीन पर खींसे निपोरते.. एक चमचानुमा इंसान तो आपने देखा ही होगा। अमिताभनंदन के आइडिए पर वह कहते हैं- वॉट एन आईडिया सर जी..। यह चरित्र हमारे समाज का आईना है। चमचा। मक्खनबाज़। .... चलिए मुखिया जी के नायाब आइडिया पर बात करते हैँ। सचमुच शानदार आइडिया है। कोई आगे से बुरमी ( बिहार, यूपी के लोग पढ़े- कुरमी, ) और बूमिहार (पढ़ें भूमिहार..) नहीं होगा। लोग अब से अपने नंबरों से पहचाने जाने जाएंगे.. । स्वागत है। ऐसा एड दिमाग़ में लाने वालों स्वागत है।

लेकिन कुछ प्रश्न सचमुच दिमाग़ को मथते हैं। मसलन, लोगों के नाम नंबर होंगे, उनकी जाति भी नहीं होगी। लेकिन उनका संप्रदाय तो फिर भी बना रहेगा। आइडिया, एयरटेल, टाटा इंडिकॉम, वोडाफोन जैसे संप्रदाय उभर आएंगे। जिसका नेटवर्क जितना मज़बूत, उसका उतना ज़्यादा ज़ोर . उसकी सत्ता में उतनी भागीदारी।

फिर झगड़े होंगे... नंबर (नाम) परिवर्तन के। टेलाकॉलर्स दिन-रात , सुबह-शाम आपको फोन किया करेंगे.. सर मैं अमुक संप्रदाय की ओर से बोल रही हूं क्या आपको हमारा संप्रदाय जॉइन करना है? आपको १०० दिनों का टॉक टाइम मुफ्त दिया जाएगा. सलोगद धडल्ले से अपना धर्म बदलने लगेंगे। फिर आइडिया से लेकर वोडाफोन और एयरटेल तक में कोई शाही इमाम और कोई तोगड़िया पैदा होगा. मोदी भी हो सकते हैं।

किसी खास नंबरों को लेकर नंदीग्राम जैसा संग्राम भी हो सकता है। खास नंबर सिर्फ सत्तापुत्रों और नजदीकी दल्लों को मिलेंगे। दलितों, कमज़ोरों और निचले तबके के लोगों को ऐसे नंबर ही मिला करेंगे जो आसानी से याद ही न हों. इसके अलावा कई सामाजिक समस्याएं भी पैदा होंगी। मसलन, नंबर से कोई भेदभाव न भी हो, तो आप किस ब्रांड का, किस मॉडल का मोबाईल इस्तेमाल करते हैं, वह आपकी आर्थिक कलई खोल देगा। यह देखा जाएगा कि आपका मोबाईल कैमरे वाला है या नहीं, उसके क्या-क्या फीचर्स हैं। ४-५ हज़ार से कम कीमत वाला सेट इस्तेमाल करने वाला हंसी का पात्र माना जाएगा और फिर समरसता का एक और सिद्धांत हमेशा की तरह ध्वस्त हो जाएगा।

(यह एक शंकालु के सवाल हैं, दिल पर मत लें).. गुस्ताख़

Sunday, December 2, 2007

फिल्म- मोर दैन एनिथिंग इन द वर्ल्ड

अपने-अपने संसारों का दर्द

मोर दैन एनिथिंग इन द वर्ल्ड-( Más que a nada en el mundo )

इस स्पेनिश फिल्म को देखें और ईरान की द पोएट चाइल्ड कहीं न कहीं दोनों फिल्मों की अंतर्गाथा एक ही है। दोनों ही फिल्म सिनेमाई पटल पर कहानी बच्चे की नज़र से विस्तार देती है. आंद्रे लियॉन बेकर और ज़ेवियर सोलर के निर्देशन में बनी मैक्सिको की इस फिल्म में एक साथ दो कहानियां असंबद्द तरीके से शुरु होती है, लेकिन ताज्जुब की बात ये कि दोनों कहानियां कहीं भी आपस में मेल नहीं खातीं, सिवाय उस जगह के जब बच्ची आखिरी दृश्य में वैंपायर के नाम से जाने जाने वाले बूढ़े के फ्लैट में दाखिल होती है।

फिल्म में मां और बेटी के आपसी संबंधों की कहानी है। मां की अपनी दुनिया है। वह अपने पति का घर छोड़ आई है, और उम्र के उस दौर में है, जब शरीर की ज़रूरतें भी होती हैं। मर्द का सहारा भी चाहिए होता है। उस महिला के कई मित्र आते हैं रात को ठहरते हैं। बच्ची घर में सहमी-सहमी रहती है। उसे डर है कि उसके पड़ोस के फ्लैट में एक रक्तपिपासु वैंपायर रहता है।सहमी हुई लड़की मां का साथ चाहती है, लेकिन महिला अपने पुरुष मित्रों के साथ वक्त गुजारना चाहती है।

वयस्क स्त्री की दुनिया में ऐसी डेर सारी चीज़े हैं, जो बच्ची के संसार से विलग है, लेकिन साथ ही बच्ची की दुनिया में ऐसी बातें हैं जिसमें किसी बड़े का साथ चाहिए होता है। बच्ची समझती है कि रात को मां पर वैंपायर का साया पड़ जाता है। उसके डर को एक नया आयाम मिलता है।महिला के मित्र धीरे-धीरे साथ छो़ड़ते जाते हैं। औरत फिर अकेली है, लेकिन उन मुश्किल हालात में बच्ची को मां का सहारा बनना पड़ता है। दोनों एक दूसरे के लिए जीते हैं।

उधर पड़ोस वाले बूढे की मौत हो जाती है, बच्ची उसे वैंपायर समझ कर उसकेसीने पर क्रास लगाने जाती है। तभी वह पाती है कि बूढा़ अब नहीं रहा। फिल्म एक साथ ही मां-बेटी के रिश्तों के साथ छीजते संबंधों और उसके बुरे (?) प्रभावों की पड़ताल करता चलता है। एक अकेली औरत के लिए समाज में हर मर्द एक खून चूसने वाले वैंपायर की तरह ही होता है। सात ही जिन लोगों को खल माना जाता है, वाकई वे वैसे होते नहीं हैं। निर्देशक की यह स्थापना सिद्ध तो हो जाती है, लेकिन फिल्म में उस तत्व की बारी कमी है, जो बच्चो से जुड़े मसलों को डील करते वक्त ईरानी फिल्मों मे देखने को मिलता है.

वैसे इस फिल्म को मिस कर देंगे तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होने जा रहा आपका...।

Saturday, December 1, 2007

धान पर ध्यान

चीन मे एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है। शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रहा है, वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं। नेचर पत्रिका में तो कुछ महीने पहले धान के जीनोमिक सीक्वेंस को छापा भी गया है।

एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में ८० करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब ५० लोख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ों को और भी भयावह बनाता है यह तथ्य कि दुनिया की आबादी में हर साल ८ रोड़ ६० लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले दो दशकों में चावल की उपज को ३० फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा।

लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा? आमतौर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना। साठ के दशक के पहले, पहले वाले विकल्प को ज्यादा आसान मानकर उसी पर अमल किया गया। परिणाम सबके सामने है। हमने विश्वभर में बहुमूल्य जंगलों की कटाई कर उनमें खाद्यान्न बो दिए और प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन को न्यौता दिया। लेकिन साठ के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति की नजाकत को समझकर दूसरे विकल्प यानी पैदावार बढ़ाने के लिए बीजों की गुणवत्ता में सुधार और तकनीकी साधनों की ओर ध्यान दिया। उस प्रयास का परिणाम निकला हरित क्रांति के रूप में। जैसे ही पौधों की नई किस्मे पहले मैक्सिको और फिर पूरे विश्व में बोई जाने लगी फसल उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर २ फीसदी सालाना के आसपास रही।

हरित क्रांति के सफर में कुछ पड़ाव भी आए। पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से खत्म हो जाती है।

कई वैज्ञानिक मानते हैं किदुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचाना का उपाय जीन इंजिनिरिंग से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट-प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई।

यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानोें में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।

लेकिन हरित क्रांति की राह में पड़ाव भी आए। वैसे तो, १९८३ से ही चावल के बी संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन १९८७ में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। इस द्वितीय चरण में १४ राज्यों के १६९ ज़िलों का चुनाव किया गया। संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए १६९ में से १०८ ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के ७ और पंजाब के ३ ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। अन्य प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश(छत्तीसगढ़ सहित) के ३० उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के ३८, बिहार के १८, राजस्थान के १४ और महाराष्ट्र के १२ ज़िले।

दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) को खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा देश है।

चवाल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।दुनिया में करीब १२० करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते है। ऐसे में , रोग, पेस्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।

मंजीत ठाकुर

Friday, November 30, 2007

उम्मीद...

एक बार फिर बातें करना,
ज़िंदगी की गर्माहट की,
ताकि कुछ तो जान सकें--
वह गर्म नहीं है।

पर वह गर्म हो सकती थी।

मेरी मौत के पहले
एक बार फिर बातें करना
प्यार की,
ताकि कुछ तो जान सकें,
वह था--

वह ज़रूर होगा।

फिर एक बार बातें करना,
खुशी की, उम्मीद की,
ताकि कुछ लोग सवाल करें,

वह क्या थी, कब आएगी वह ?

मंजीत ठाकुर

फिल्म- द पोएट चाइल्ड

जिजीविषा की अद्भुत गाथा

भारत में ही नहीं दुनिया भर में ईरानी फिल्मों को लेकर एक शानदार उत्साह है। लोग उन्हें देखना चाहते हैं। गोवा में भी दो ईरानी फिल्में हैं, एक तो है द ईरानियन प्रिंस जिसे दुर्भाग्यवश मैं देख नहीं पाया हूं अभी तक। लेकिन एक अन्य फिल्म थी द पोएट चाइल्ड। ये देखी। ये फिल्म एक अनपढ़ पिता, जो अब अपंग होने की वजह से कारखाने में काम नहीं कर सकता और उसके बेटे के बीच के बेहद मार्मिक रिश्ते की कहानी है. पिता-पुत्र में एक शानदार कैमिस्ट्री है। बच्चे का अभिनय वयस्कों को भी मात दे दे।

बच्चा स्कूल में पड़ने जाता है, लेकिन अनपढ़ पिता अपने रिटायरमेंट के लिए खुर्राट सरकारी अधिकारियों से पार नही पा पाता। एक समझदार की तरह लड़का अपने पिता को पढ़ाई न करने के बुरे नतीजे बताता रहता है, और साथ ही साथ सरकारी अधिकारियों को नियम-कायदों की असली और नई किताब के ज़रिए लाजवाब भी करता जाता है.( वैसे यह साबित हो गया कि ईरान हो या भारत, सरकारी अधिकारी हर जगह एक जैसे अडंगेबाज होते हैं)

फिल्म में कई प्रसंग ऐसे हैं, जो बच्चे को बच्चा नहीं एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि साबित करते हैं। कई जगहों पर प्रतिनिधि ने एक्वेरियम की अकेली मछली के ज़रिए बेहतरीन मेटाफर का इस्तेमाल किया है।

वह बच्चा जो अपनी दुनिया में अकेला है, जिसे बूढे बाप की देखभाल भी करनी है, उससे संवाद भी करना है, अधिकारियों से अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी है। और बीच-बीच में अपना बचपन भी बचाए रखना है। यह फिल्म समाकालीन झंझावातों के बीच जिजीविषा की अनोखी दौड़ है। फिल्म के एक दृश्य में एक चोर उसके पिता की एकमात्र संपत्ति साइकिल चोरी करके भागने लगता है। उसी दिन जिस दिन सरकारी अधिकारी लड़के के पिता को पेंशन देना मंजूर कर लेते हैं। हाथ में मछली लिए का बरतन लिए लड़का उस चोर के पीछे भागता है। और अचानक आपको द बाइसिकिल थीव्स की याद आ जाती है.।

बहरहाल, चोर का पीछा करके आखिरकार उसे पकड़ लेता है। पर भागमदौड़ में मछली का बरतन टूट जाता है... लड़का कपड़े वाले प्लास्टिक के थैले में नाली का पानी भर के मछली डालता है। फिल्म के इस आखिरी दृश्य में नाली के पानी में भी मछली जिंदा है, लड़के के बाप को नाममात्र को पेंशन मिली है, फिर भी वह खुश है, लड़का अपने पिता को पढना सिखाता है। इससे बेहतर जिजीविषा की गाथा क्या हो सकती है भला? जहां तक साक्षरता के सवाल है.. यह फिल्म किसी भी सरकारी प्रचार से ज़्यादा प्रभावी साबित होगी।

मंजीत ठाकुर

Wednesday, November 28, 2007

क्या आप मुबारक बेगम को जानते हैं?

चढ़ते सूरज को सलाम करना फिल्म इंडस्ट्री की खासियत है। जो एक बार नज़र से उतर गया उसे फिर कोई याद भी नहीं करता। बीते जमाने की बेहद प्रतिभाशाली ओर मशहूर गायिका मुबारक बेगम इन दिनों गोवा में हैं। भारत के ३८ वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के गैर फीचर फिल्मों के वर्ग में विपिन चौबल की फिल्म मुबारक बेगम भी दिखाई जा रही है। यह बीते दिनों की इस मशहूर पार्श्व गायिका के जीवन पर आधारित है। उनके साथ बातचीत में हमने बांटे कुछ खास पल और अतीत वर्तमान हो गया।- गुस्ताख़
गुस्ताख़- बहुत दिनों के बाद इंडस्ट्री ने आपको याद किया है?

मुबारक बेगम- हां, ...आखिरकार याद तो किया। ये तो फिल्म्स डिवीजन वाले और विपिन जी हैं, जिन्होने लोगो को बताया कि मुबारक अभी भी ज़िंदा है। मेरे घर आकर फिर से उतना सम्मान मिलने से खुश हूं.. फिल्म्स डिवीजन की आभारी हूं। यहां लोग अब फिल्म देखकर जान रहे हैं कि मुबारक बेगम ने भी कुछ गाया था।


गुस्ताख़- आपके ज़माने और आज में क्या कोई फर्क पड़ा है?

मुबारक बेगम- बहुत फर्क पड़ा है। लोग डूब के गाते थे। आज की तरह नहीं। म्यूजिक सिर्फ पैसे कमाने का ज़रिया नहीं था। लोग अपने लिए भी गाते थे. संतुष्टि के लिए। आज तो गाने क्या होते हैं...गिनती की तरह एक दो तीन चार होते हैं। पहले ऐसा नहीं था।


गुस्ताख़- आजकल तो आपके गाने का रीमिक्स भी आ गया है?

मुबारक बेगम-( पूछती हैं..) किस गाने का आया है? .. (मैं बताता हूं) ...अच्छा वो वाला...क्या अच्छे भले गाने का कचरा करके रख दिया है। ... चेहरे पर असंतुष्टि के भाव हैं।


गुस्ताख़- कुछ गा सकती हैं? हमारे लिए...???

मुबारक बेगम- विवशता में सर हिलाती हैं... नहीं गा सकती.. गला खराब रहता है.. खांसी के दौरे होते रहते हैं..(फिर पूछती हैं) क्या नाम है तुम्हारा? मैं बताता हूं.. अच्छा... चलो तुम कह रहे हो तो गा देती हूं... गाती हैं.. फिल्म हमारी याद आएगी का गना... कभी तनहाईयों में हमारी याद आएगी.......पुरकशिश आवाज़ की तान होटल में लॉबी में बैठे लोगों को ध्यान खींचती है, फिर वह आवाज़ पास ही हिलोरें मार रहे समंदर की आवाज़ से बंदिश करने लग जाती है। गाना खत्म होता है, मेरा कैमरामैन कैबल समेट रहा है.. मैं ठगा-सा बैठ हूं। निर्देशक विपिन चौबल की आंखे पनीली हैं।

मुबारक बेगम के काम के बारे में और हाल ही में सारेगामा पर जारी सीडी पर कभी फिर लिखूंगा..

मंजीत

Tuesday, November 27, 2007

समकालीन जादुई यथार्थ जी रहा हूं...

समकालीन जादुई यथार्थ जी रहा हूं...क्या यह लाईन ज़्यादा बौद्धिक लग रही है आपको? लेकिन सत्य यही है। मुझ जैसे नौसिखिए जर्नलिस्ट के लिए जादुई क्या हो सकता है? अपने से वरिष्ठ लोगों का साथ... जिनको पढ़कर, सुनकर या देखकर बड़ा हुआ। कहीं न कहीं, किसी की तरह बनने या लिखने का विचार मन को सपनों की सुनहरी दुनिया में ले जाता है। उन सबको अपने पास देखकर, या मोबाईल पर सुनकर, या उनका मेसेज पढ़कर, मेरे रिपोर्टस पर उनके विचार जान कर..गहरी अनुभूति होती है।

गोवा आया, तो यहां मिले..वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज, नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण के सुरेश शर्मा , राजस्थान पत्रिका के राम कुमार और जनसत्ता-हंस के जाने माने अजित राय... से मिलकर समय गुजार कर इनसे जान-समझकर लगा कि उन लोगों के बीच हूं, जो सचमुच पड़ने-लिखने वाले हैं। वीकीपिडिया के फिल्मी पत्रकारों न दिल्ली में नाक में दम कर दिया। वहां किसी चैनल के मझ जैसे ही किसी टुटपूंजिया मुझसे पूछता है शुक्रवार को कौन सी रिलीज़ है...। गोवा में उससे इतर हम बातें करते हैं फिल्मों की क्वॉलिटी पर, उस की सिनेमाई भाषा पर, उसके कथानक के विस्तार और उसकी प्रासंगिकता पर। पता है कि वापस फिर उसी खोल में जाना है। लेकिन इस माहौल को जीना सच में जादुई है।

सुरेश शर्मा मंगल पांडे पर बनी फिल्म द राईजिंग की सच्चाई पर केतन से बहस करते हैं। अजय जी का शाहरुख से लव-हेट का रिश्ता चल रहा है। अमिताभ बच्चन इफी में क्यों नहीं हैं, इस पर चर्चा और चिंता होती है। एक नदीर गल्प और मीरा नायर की फिल्म पर बातें... किंगफिशर का लाउंज..दारू नदी की तरह बह रही है। एडलैब्स का अड्डा....सागर तट पर गीली हवा के झोंकों के बीच चिली-चिकन... पता चलता है..फिल्में देखना उतना आसान नहीं..जितना हम पूरे बचपन से दो साल पहले पत्रकार बनने तक मानते रहे। दिल्ली में रवीश कुमार और क़ुरबान अली मुझ पर सदय रहते हैं। उनसे मार्गदर्शन लेता रहता हूं।

किंगफिशऱ लाउंज में एक दूसरे की तस्वीरें उतारी जाती हैं। अगले दिन अजय जी को वापस मुंबई जाना है। सुरेश जी भी जाएंगे.. बचेंगे दो.. मैं और अजित जी..। इस बार बॉलिवुड की नामी हस्तियां नदारद हैं। कथित मुख्यधारा की फिल्में भी नहीं हैं। भारतीय पैनोरमा में धर्म और गफला ही हैं। सिनेमाई रूप से साधारण गफला में कम से कम तो कथ्य की मजबूती है, धर्म में भावन तलवार चीजों को अतिरंजित रूप में दिखाती हैं। देखना न देखना एक जैसा। किसी और दिन बताउंगा कि खोया-खोया चांद के निर्देशक सुधीर मिश्रा लोगों से क्यो कहते हैं कि ये फिल्म देखनी चाहिए और हज़ारों ख्वाहिशों .. के निर्देशक मानते हैं कि इस फिल्म की वजह से लोगों ने उन्हे गलत मान लिया है। वह सब बाद मे..
जारी..

मंजीत ठाकुर

Sunday, November 25, 2007

खुदा के लिए- लाजवाब

यह न माना जाए कि कहानी आतंकवाद को ध्यान में रककर बुनी गई है, इसलिए पसंद की जाएगी। फिल्म का संगीत पक्ष बेहद मज़बूत है। लेकिन बात पहले कुछ और.. पूरी फिल्म ऐसी है कि यह न तो इस्लाम के खिलाफ जाती है, न आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का दम भरने वाले पश्चिमी देशों के हक़ में। यह सिर्फ कट्टरपंथ के खिलाफ है और है इस्लाम की ग़लत व्याख्या करने वाले कठमुल्लाओं के खिलाफ़। कैसे भोले नौजवानों को अपने हक़ में कठमुल्ला इस्तेमाल करते हैं उसकी बेहतरीन मिसाल पेश करती है ये फिल्म। साथ अमेरिकी तंज़ नज़र को भी उघाड़कर नंगा करती है. (इसे निर्देशक की किसी को तुष्ट करने की कोशिश न माना जाए, तो बेहतर)

बहरहाल, औरत के हुकूक, इस्लाम की व्याख्या और जिहाद के लिए नशीली चीज़ो के व्यापार भी करने वाले लोगों की चर्चा करती फिल्म कई बार आपको सोचने के लिए मजबूर भी करेगी। खास कर शिकागो के एक दृश्य में जहां मंसूर संगीत की शिक्षा के लिए जाता है, उसे गाने के लिए कहा जाता है। वहीं परिचय के दौरान एक लड़की उसेस उसके मुल्क का नाम पूछती है..और वह पाकिस्तान को नहीं जान रही होतीहै। विदेशों में आम लोगों के मन में अब भी पाकिस्तान भारत का पडो़सी देश ही है। ताजमहल वाले देश का पड़ोसी...।

खैर.. लड़का जब गाना शुरु करता है तो वह गीत होता है...नीर भरन जाऊं कैसे... भारतीय गीत...। लेकिन उसेके आलाप के साथ दूसरे देशों के संगीतकार भी अपेन वाद्य बजाने लग जाते हैं..और निर्देशक का यह अपना तरीका है यह कहने का कि दुनिया की सबी संस्कृतियां मूल रूप में एक ही चीज़ सिखाती हैं.. भाईचारा।फिल्म में एकाध जगहों को छोड़कर तकनीक भी सही है। खासकर इस साउंड बेचैन कर देता है कभी-कभी। खासकर, कट्टरपंथी मुल्ला के लहू गरमाने वाली तकरीर के दौरान ध्वनि में एक खास कंपन है जो निश्यच ही बेचैन करने वाली है।

नसीरूद्दीन शाह फिल्म में उदारवादी मौलवी की भूमिका में हैं, जो बताते हैं कि संगीत इस्लाम में नाजायज़ नहीं। कुल मिलाकर रोहिल हयात का संगीत फिल्म के प्रभाव में खास योगदान देता है। अदालत में हुई पूरी तकरीर के बाद सरमद अपीन ग़लती मान लेता है, लेकिन अदालत में ही कट्टरपंथी उसकी खूब पिटाई करते हैं।

बहरहाल, मंसूर अमेरिकी प्रशासन की आतंकवादी विरोधी गतिविधियों के नतीजतन लकवाग्रस्त और पागल होकर वापस लौटता है... लेकिन इसके बाद फिल्म में जो होता है..वह वास्तविक लगने की बजाय जनहित मे जारी सरकारी एड की तरह लगने लगता है। मेरी लंदन वापस जाने की बजाय वजीरिस्तान जाकर बच्चों को पढ़ाने लग जाती है.। इस कहानी का इतना सुखद अंत पचता नहीं है... मंसूर के हिस्से आया क्लाईमेक्स ज़्यादा अपील करता है। बहरहाल, फिल्म बेहद शानदार है।

इसे न देख पाए, और अच्छी फिल्में देखने के शौकीन हैं, तो ज़रूर कुछ मिस करेंगे। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए प्रासंगिक है। फिल्म समारोह से एकाध पुरस्कार बटोर ले जाए तो मुझे हैरत नहीं होगी।

मंजीत ठाकुर

फिल्म- ख़ुदा के लिए


समारोह में पाकिस्तान की पहली आधिकारिक प्रविष्टि फिल्म ख़ुदा के लिए (इन द नेम ऑफ गॉड) देखी। शोएब मंसूर की ३ घंटे की यह फिल्म निश्चित रूप से कायल कर जाती है। फिल्म की शुरुआत से ही कट्टरपंथ पर चोट निर्देशक अपेन खास अंदाज़ में करता चलता है। कहानी है एक ऐसे इंसान की जिसने खुद तो गोरी मेम से शादी की है (जिससे बाद में वह तलाक़ ले लेता है) लेकिन अपनी बेटी को वह किसी गोरे के साथ ब्याह करने की मंजूरी नहीं देता। खुद उसका भाई पाकिस्तान में रह रहा है, लेकिन वह उदारवादी है जसके दोनों बेटे संगीतकार हैं। लेकिन एक प्रभावशाली भाषण देने वाला, अपने तर्क से लाजवाब कर देने वाला धर्मांध जहीन इंसान सरमद (छोटे भाई) को इस्लाम की कट्टरवादी धारा की तरफ मोड़ने में कामयाब हो जाता है।
सरमद संगीत को इस्मामविरोधी मान कर तालिबानों में शामिल हो जाता है। बड़ा भाई उसे समझाने की कोशिश तो करता है, लेकिन बात बिगड़ती हुई देखता रह जाता है। बड़े भाई को संगीत की शिक्षा के लिए शिकागो जाना पड़ता है।उधर, मेरी का पिता उसे धोखे से लंदन से लाहौर ले आता है। फिर जबरन उसकी शादी सरमद के साथ वजीरिस्तान ले जाकर करा दी जाती है। इस बीच सीन-दर-सीन मौलवी साहब का धर्मोपदेश जारी रहता है। अमेरिका में इसी दौरान ११ सितंबर की घटना घट जाती है। सारे मुसलमानों पर मानो कहर टूट पड़ता है। मंसूर (बड़े भाई ) को गिरफ्तार कर लिया जाता है। फिर उस पर जुल्मोसितम की इंतिहा हो जाती है। हवालात में उससे बार-बार ओसामा बिन लादेन से उसेक संबंधों के बारे में पूछा जाता है। उसे पेशाब पीने के लिए बाध्य किया जाता है।
उधर मेरी वजीरिस्तान से भागने की नाकाम कोशिशें करती है। वह लंदन में रह रहे अपने प्रेमी को एक खत लिखती है। फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेरी को छुड़ाने की कवायद शुरु होती है। मेरी को छुडा़ लिया जाता है। फिर लाहौर की अदालत में मुकदमा चतलता है। सरमद और मेरी की संतान का वारिस कौन होगा... या इस्लाम में जबरिया शादी की इजाज़त है या नहीं। एक लंबी जिरह होती है, जिसमें इस्लाम के कुछ हिस्सों की व्याख्या हमारे नसीर साहब करते हैं। फिल्म के अंत में मेरी लंदन जाने से इंकार कर देती है, और वजीरिस्तान वापस जाकर बच्चो को पढ़ाने का जिम्मा लेती है।
जारी

Saturday, November 24, 2007

फिल्म ४ मंथ्स...- पुनर्मूल्यांकन

कल ओपनिंग सेरेमनी में रोमानिया की पूरी फिल्म देखने को मिली। फिल्म की शुरुआत होती है एक लड़की की भागदौड़ से। लड़की अपनी दोस्त के लिए एक होटल का कमरा खोज रही होती है। इसी दौरान कॉलेज जाकर अपने पुरुष मित्र से मिलना.. उसकी मां के जन्मदिन पर जाकर फूल भंट करने का वादा भी करती है। यूं तो पूरी फिल्म में है , लेकिन शुरुआत के तीन सीन, सीन न रहकर सीक्वेंस बन जाते है। मौंगू (निर्देशक) का कैमरा पहले सीन में ४ मिनट और उसके अगले दृश्य में ७ मिनट तक कट नहीं होता। फिर के बाद एक कई ऐसे दृश्य आते हैं, जहां यह लगता है कि हम रियलिटी में हों। वर्चु्अलिटी का खात्मा हो जाता है। बहरहाल, लड़की जद्दोजहद करके एक होटल का कमरा खोज निकालती है।

कम्युनिस्ट शासन.. कड़ाई के दिन.. दर्शकों को लगता है कि लड़की अपने और अपने दोस्त के लिए एकांत की तलाश में हैं.. यह धारणा पुष्ट होती है तब जब वह किसी मि. बेबे को लेकर उस कमरे तक आती है। बातो ही बातों में पता चलता है कि बेबे महोदय चोरी-छिपे गर्भपात को अंजाम देते हैं। वह लड़ीक से जितनी रकम की मांग करते हैं, वह न तो उसके पास होता न ही उसकी सहेली के पास। याद रखना ज़रूरी है कि लड़की की सहेली गर्भवती है, लड़की नहीं। फिर पता यह चलता है कि लड़की को ५ माह का गर्भ है, जिसेक गर्भपात पर १०साल की कैद हो सकती है। यानी हत्या का मुदमा। डॉक्टर साबहब लड़की को कहते हैं कि वह यह काम महज कुछ हज़ार रुपयो के लिए नहीं करते बल्कि वह तो कुछ और मांग करते हैं। लड़की डॉक्टर के साथ हमबिस्तर होती है।.

..... कहानी पूरी तरह बताना मेरे बस में नहीं... फिर खेल शुरु होता है कि किस तरह पेट में पल रहे बिना जन्मे बच्चे को क्रूरता से वह डॉक्टर मार डालता है।फिल्म के आखिर में पता चलता है कि अपनी सहेली की सहायता के के लिए डॉक्टर के साथ हमबिस्तर होने वाली लड़की खुद गर्भवती हो गई है. उसके पेट में उसी डॉक्टर का गर्भ पल रहा होता है। फिल्म आपोक सन्नाटे में छोड़ देती है। कुछ महसूस करने के लिए.... रोमानिया में गर्भपात पर से कानूनी अड़चन हटने के बाद किस तरह से गर्भपातों के मामले बढ़ गए , इसका जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं. २ साल में १० लाख गर्भपात...

४ मंथ्स... का कैमरा शानदार है, उससे भी शानदार है निर्देशन क्रिस्टीन मोंगू का। गर्भपात वाले दृश्य में एक पल के लिए तो कलेजा मुंह को आने लग जाता है। हालांकि हमने जहां देखा वह हॉल साउंड के लिहाज से उत्तम नहीं कहा जा सकता ..लेकिन तब भी जितना हम महसूस कर सकते थे, सिनेमैटोग्राफी और साउंड ने..गीले-गीले वातावरण बारिश और बरफीले माहौल ने कहानी के मौतनुमा वातावरण को सिरजने में मदद ही दी है।

बहरहाल, मनीष झा की फिल्म मातृभूमि की चर्चा किए बगैर मैं नही रह सकता..कहना होगा कि मातृभूमि एक तरह से इस फिल्म का तीसरा अध्याय है। दूसरा अध्याय कोई और बनाएगा. जो अभी अधूरा रह रहा है।

मंजीत ठाकुर

Friday, November 23, 2007

भारतीय पैनोरमा- अब आएगा मज़ा


इस बार के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में लेनिन राजेंद्र की रात्रि माझा ( रात की बारिश. मलयालम) और समीर चंदा की ऐक नदीर गोल्प (एक नदी की कहानी, बंगला) फिल्में भारतीय पैनोरमा से एशियन-अफ्रीकन और लैटिन-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा खंड में भारतीय फिल्मों का प्रतिनिधित्व करेंगी। इन दोनों फिल्मों को भारतीय पैनोरमा की २१ फिल्मों में से चुना गया है।


वैसे, फीचर और गैर-फीचर फिल्मों के लिए २१ फिल्मो के चयन के लिए जूरी के सदस्यों ने ११९ फीचर और १४९ गैर-फीचर फिल्में देखीं। भारतीय पैनोरमा में फीचर फिल्मों में ओपनिंग फिल्म होगी मलयालम की ओरे काडाल, जिसे निर्देशित किया है श्यामा प्रसाद ने। जबकि गैर-फीचर फिल्मों में ओपनिंग फिल्म बंगला की बाघेर बाच्चा होगी।


फीचर फिल्मों के भारतीय पैनोरमा में देखने लायक कुछ उल्लेखनीय फिल्मों के अगर नाम गिनाए जाएं, तो उनमें अडूर गोपाल कृष्णन की नाल्लू पेन्नूगल और भावना तलावार की धर्म अहम होगी। मिथुन चक्रवर्ती की शानदार अदाकारी में बनी ऐक नदीईर गल्प भी च्छी फिल्मों में शुमार की जा सकती है। बांगला फिल्मों की इस बार शानदार बहार फिल्मोत्सव में देखी जा सकती है, इनमें अर्जन दास की जा-रा वृष्टिते भिजेछीलो (जो बारिश में भींगे थे), बुद्ध देव दासगुप्ता की आमि, इयेसिन आर आमार मधुबाला आलोचकों को पसंद आने वाली फिल्में हैं।


पैनोरमा में फीचर फिल्मों में मराठी फिल्में भी ज़ोरदार हैं, गजेंद्र अहीरे की माई-बाप और विपिन नाडकर्णी की एवडे से आभाल , विशाल भंडारी की कालचक्र उम्मीदें जगाने वाली फिल्में हैं।


गैर फीचर फिल्मों की सीरीज़ में अशोक राणे की मस्ती भरा है समां, अडूर गोपाल कृष्णन की द डांस ऑफ इंचांटर्स, विपिन चौबल की मुबारक बेगम जैसी फिल्में निश्चय ही लोगों खासकर सीरियस दर्शकों और फिल्म समीक्षकों का ध्यान खींचने में कामयाब होंगी। लेकिन असली बात तो इन फिल्मों को देखने के बाद ही पता चल पाएगा।

टिप्पणी- अभी तक समारोह में जादू घुल नहीं पाया है। सब कुछ निपटा डालने जैसा नज़रिया लोगों के उत्साह पर पानी फेर रहा है।


मंजीत ठाकुर

Wednesday, November 21, 2007

प्रसन्नात्मक कविता

प्रसन्न कुमार ठाकुर निजी तौर पर कवि है। प्रसन्न की कलम ने सैकड़ों सन्न कर देने वाली कविताएं उलीच दी हैं। पेट के लिए एडवरटाइजिंग से जुड़े हैं, हालांकि हमारा मानना है कि पत्रकारिता से कहीं ज़्यादा एड के क्षेत्र में कविताई की ज़रूरत होती है। फिलहाल प्रह्लाद कक्कड़ के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन जो प्रश्न उन्हें मथते रहते हैं, उन्होंने उन प्रश्नों से हमें भी अवगत कराया है। कुछ सुर-कुछ साज़ो की बात करते हैं। प्रसन्न जी मिले सुर हमारा-तुम्हारा....गुस्ताख़




क्या कहूँ और कैसे ?
शब्दों के सहारे अपने व्योम
या व्योम के सहारे शब्द !
प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास में
उसका व्यक्तित्व ही जिम्मेदार होता है
.मैं कैसा हूँ?
क्या हूँ?
क्यूँ हूँ?
और न जाने क्या-क्या ...!
हजारों यक्ष प्रश्न....
इन्हीं प्रश्नो की तार से,
जीवन के साज़ पर
कोई अच्छी सी धुन बजाते हैं...

फिल्म समीक्षा- ४ मंथ्स, ३ वीक्स, २ डेज़

रोमानिया की मांओं का दर्द



गोवा में ३८वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह शुरु होने में महज दो दिन बचे हैं, लेकिन पिछले साल की तरह का कोई उत्साह अभी तक देखने को नहीं मिला है। आयोजकों के पास कल भर तक का वक्त है, लेकिन पिछली बार की तरह की सजावट इस साल नदारद है। मुमकिन है, कि कल कुछ धमाका हो।

२३ नवंबर को समारोह की ओपनिंग फिल्म होगी- रोमानिया की ४ मंथ्स, ३ वीक्स, २ डेज़। इस फिल्म को क्रिस्टीन मुंगुयू ने निर्देशित किया है। ये फिल्म पहले ही इस साल पामे डि ओप अवॉर्ड जीत चुकी है। ज़ाहिर है, लोगों(दर्शकों) में इस फिल्म को लेकर काफी मारामारी होगी। वैसे सारी दुनिया के आलोचकों ने इस फिल्म की अब तक जी भर कर तारीफ ह की है। लेकिन अलग तर के टेस्ट के लिए जाने जाने वाले भारतीयों को यह फिलम कैसी लगती है। ये तो २३ की शाम को ही साफ हो पाएगा। गोवा में इस समारोह के उद्घाटन के मौके पर फिल्म के निर्देशक के मौजूद रहने की भी उम्मीद ज़ाहिर की जी रही है। दरअसल, ये फिल्म रोमानिया में गर्भपात जैसे जटिल मुद्दे को खंगालती है। फिल्म में गर्भपात से जुड़े मसले और एक लड़की की ज़िदंगी पर इसके असर को उकेरने की कोशिश की गई है। पूरी फिल्म देखी जाए ( हालांकि आज हम इसाक थोड़ी-सा ही हिस्सा देख पाए) इसे मनीष झा की दो बरस पहले आई फिल्म मातृभूमि से भी जोड़ा जा सकता है। अलबत्ता, दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि में अंतर है। दोनों के परिवेश साफ तौर पर दोनो देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की झलक भी दिशला जाते हैँ। वैसे, तकनीकी तौर पर यह फिल्म मातृभूमि से ज़्यादा मजबूत है और इसाक कैमरा मनीष के कैमरे से ज़्यादा घूमता है।

कम्युनिस्टों से रोमानिया को मिली आज़ादी के बाद जो सबसे पहला क़ानून बना वह गर्भपात को कानूनी दर्ज़ा दिलाने का था। नतीजतन, दो साल के भीतर ही दस लाख गर्भपात के मामले सामने आए। वह भी तब जब इस छोटे से देश की कुल आबादी ही महज २ करोड़ है। ग़ोरतलब है कि रोमानिया में १९६६ से १९८९ तक गर्भपात एक अपराध था। ये फिल्म १९८७ के एक शनिवार की रात की कहानी है। भावनात्मक रूप से मथ देने वाली इस फिल्म का असर इतना ज़्यादा है कि सब-टाइटल्स होने के बावजूद फिल्म दर्शक को बांधे रखती है।
व्यक्तिगत तोर पर मैं भारतीय भाषाओं में भी ऐसी ही संजीदा फिल्मों की उम्मीद रखता हूं।

मंजीत ठाकुर

Monday, November 19, 2007

धोखा खाने वाले नादान राजनेता..

लो जी लो.. अभी-अभी खबरें फ्लैश हो रही हैं कि दक्षिण में बीजेपी के झंडाबरदार येदुरप्पा सत्ता से बाहर होने ही वाले हैं। बेंपेंदी के लोटों की तरह इधर-उधर लुढ़कते हुए गठबंधनवालों का हश्र यही तो होना था। कुमारस्वामी तय नही कर पाए कि करना क्या है। पहले कहा समर्थन नहीं देंगें, फिर कहा देंगे अब फिर कह रहे हैं नहीं देगें। जनता को कंफ्यूज़ मत करो कन्फ्यूज्ड राजनेताओं .. विचारधारा आपके पास नहीं है। कोई बात नहीं.. बहुतों के पास नहीं है। लेकिन थोड़ा तो सोचों, इस नंगई का जनता पर क्या असर पड़ेगा। लेकिन असर भी घंटा पड़ेगा। जाति, संप्रदाय और उससे भी छोटे-छोटे खांचों में बंटी हुई जनता फिर जाति-उपजाति में बंटकर वोट करेगी। बीजेपी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर वोट मांगेगी। कहेगी देखो.. जेडीएस ने हमको धोखा दिया।

हम पूछते हैं कि आप लगातार धोखा खाते रहे हैं। बसपा ने धोखा दिया, जेडीएस ने धोखा दिया। क्या आप इतने भोले हैं कि सारे लोग आपको ही धोखा देते रहे हैं। क्या आप धोखा खाने की राजनीति करते हैं? राजनाथ टीवी पर गठबंधन की राजनीति की दुहाई देते दिखे। कहते रहे हमें धोखा मिला। गुरु .. तब तो आप सत्ता के लायक ही नहीं। सत्ता में आ गए तो जिलाधिकारी, एमएलए, पार्षद.. केंद्र में आए तो पाकिस्तान और चीन जैसे शातिर पड़ोसी आपको धोखा देते रहेंगे। देश का क्या होगा, भोले-भाले नेताओं? लेकिन आपकी अपनी गलती की ओर ध्यान नहीं गया आपका? बसपा ने और जेडीएस ने आपको धोखा क्यों दिया। आपसे उनके रिश्ते खराब क्यो हो गए, जबकि आप उनके सहयोगी थे। तब की समता पार्टी, जयललिता से भी आपके रिश्ते मधुर रहे हों, ऐसा याद नहीं कुछ। ज़रूर आप ही गठबंधन का कथित धर्म भूलकर उनकी मांद में सेध लगा रहे होंगें।

ये वक्त है कि आप आत्मालोचन करें, धोखा फिर न खाने की तैयारी में जुटे।

मैं अतीतजीवी हो रहा हूं..

लोग गरियाएंगे.. दूसरों की तरह गुस्ताख़ भी नॉस्टलेजिक होने लग गया है। लेकिन इंसाफ कीजिए गुरुजनों.. पुरानी बातें याद करने पर, उन्हें अश्लीलता के साथ दुहराने पर भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के तहत आरोप नहीं तय होते। होने चाहिएं ये हम भी मानते हैं।अस्तु, बात ये है अपनी एक पुरानी सी छेड़छाड़ात्मक कविता कल रात पढ़ रही था। तो याद आ गया पिछला जमाना।

उन दिनों.. जब आत्महत्या न करने की कसमें खाने के दिन थे....दोस्तों के मुंह से भारतीय जनसंचार संस्थान का नाम खूब सुना था। लोगों ने कहा बौद्धिक बनने के लिए( अर्थात् पत्रकारोचित कमीनेपन में संपूर्णता से दीक्षित होने के लिए) आईआईएमसी में दाखिला लेना अनिवार्य है। डरते कदमों से हम जेएनयू का चक्कर काट कर संस्थान के लाल ईँटों वाली इमारत में दाखिल हुए थे। हम.. यानी मैं और मेरा एक और दोस्त.. मेरा दोस्त गया था जेएनयू में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन का फॉर्म लेने। मैंने पूछा था एमबीए के ज़माने में संस्कृत पढ़कर क्या उखाड़ लोगे.. उसने तपाक से जवाब दिया था- प्रोफेसरी। जितने पढ़ने वाले कम होते जाएंगे.. प्रोफेसरी का चांस उसी हिसाब से बढ़ता जाएगा।

खैर...मई के तीसरे हफ्ते में हमारी प्रवेश परीक्षा थी। (पढ़े- इंट्रेस टेस्ट) अस्तु..कई बच्चे (?) जमा थे। सेंटर था, केंद्रीय विद्यालय..जेएनयू के पास वाला। कार में, बड़ी और लंबी कारों में परीक्षार्थी आए थे। हमारा कॉन्फिडेंस खलास हो गया। सुंदर लड़कियों को देखते ही हम वैसे भी हैंग कर जाते हैं। लगा, जितना पढ़ा है आज तक सब बेकार होने जा रहा है। अपने मां-बाप पर ग़ुस्सा आ गया। क्यों गरीब हुए, अमीर नहीं हो सकते थे? परीक्षा दी। पास भी हो गया , पता नहीं कैसे? जिस दिन लिखित रिजल्ट निकला.. खुद गया देखने। संस्थान के परिसर में। कुछ दिन बाद, इंटरव्यू था। और कई बड़े नाम और राघवाचारी...। विकास पत्रकारिता पर सवाल। पर पता लगा बाद में कि इसमें से कुछ भी काम नहीं आने वाला। सारे सिद्धांत घुसड़ जाने वाले हैं। बाद में, इधर एक सोचने-विचारने वाले पत्रकार से एक निजी टेलिविज़न चैनल में इंटरव्यू के दौरान भालू के कुएं में गिरने की ख़बर को लीड बनाने लायक मसाला तैयार करने को कहा गया। श्रीमान तो बिफर गए। लेकिन चिरंतर और शाश्वत सत्य तो यही है न। सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रियान्ति की तर्ज पर सर्वे गुणाः टीआरपीमाश्रियांति....बहरहाल, संस्थान में अंग्रेजीदां लोगों लड़के और लड़कियों का जमावड़ा था। हम भदेस.... जल्दी ही हिंदी पखवाड़ा आया। एक कविता भी लिखी थी। फ्लर्टात्मक। एडवरटाइजिंग की लड़कियों की सुंदरता का बखान करता। कई के नाम भी थे। कभी याद रहा तो छाप भी दूंगा।
जारी...

Friday, November 16, 2007

छठ की याद


छठ एक राष्ट्रीय पर्व हो गया है। मूल रूप से छठ तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का त्योहार है, लेकिन अगर यह नैशनल मीडिया में खासी जगह पा रहा है, तो इसके पीछे के तर्क खंगालने होंगे। बिहार ( पढ़ें हिंदी पट्टी) एक प्रदेश या सूबा नहीं है सिर्फ़। यह तो एक फिनोमिना है। यह चलताऊ हिंदी है। शुद्ध और सरकारी हिंदी में यह परिघटना है। मीडिया में छठ की खबरों ने मुझे नॉस्टेल्जिक कर दिया है।

छठ की तैयारी दीवाली के ठीक बाद से होने लग जाती थी। नदी के या तालाब के घाट पर जाकर उसे गोबर से लीपना.. वहां आम के पल्लव और केले के तने से सजाना कुल मिला कर घाट का बडा हिस्सा छाप लेना हम बच्चों का पहला काम था। फिर कदुआ-भात ... साफ-सुथरा खाना.. बिना प्याज-लहसुन के... एक शानदार पवित्रता का अहसास। एक जिम्मेदारी-सी रहती थी। ऐसे ज़िम्मेदारियां आम दिनों में मेरे जैसे नौजवानों के हिस्से रहती ही नहीं। या फिर रहती भी है तो बाज़ार जाकर सब्जी लाने तक ही महदूद रहती है।

फिर होता खरना.. गुड़ की खीर ( याद नहीं या फिर दूसरी आंचलिक भाषाओं में क्या कहते हों, लेकिन हमारे यहां मैथिली में उसे रसिया कहा जाता था।) पहले दादी मां और उनके गुजरने के बाद मां के हिस्से में छठ पूजा आ गया। पूजा के बाद घर आए लोगों में वह प्रसाद बांटा जाता। हम परेशान रहते, प्रसाद पा चुके लोगों को पानी देने में। फिर शाम का अर्घ्य होता...अगले दिन। ३ बजते न बजते.. जब सूरज ढलना भी शुरु नहीं होता.. हम लोग डाला या दौरा सिर पर उठाकर घाट की ओर चल देते कि कोई घाट पर कब्जा न कर ले.। कर भी ले तो झगड़ा नहीं किया जाता.. आखिर छठ पूजा का काम है। छठ महारानी की पूजा व्यक्तिगत होते हुए भी निजी नहीं होती। सबकी समान श्रद्धा...। हमारे यहां हर साल कच्ची सड़क बरसात के दिनों में बह जाती, नरक पालिका कितनी गंभीर होती है सफाई को लेकर कहने की ज़रूरत नहीं। नालियों का पानी सड़क पर बेरोकटोक बहता रहता। उस पर से छठ माता की पूजा के लिए डाले कैसे जाएंगे... तो सारे ळौंडे-लपाड़िए सुबह से ही सड़कों की सफाई करके पानी की छिडकाव कर देते। साल में पहली और आखिरी बार मुहल्ले के लोग किसी बात पर एकमत होते। अच्छा लगता। मुहल्ले के खूसट अकारण खिसिआए बुजुर्ग, अपनी बेटी पर लाईनबाजी से त्रस्त प्रौढ़ पिता, बहन का विकट भाई, किसी बात पर कोई गुस्सा नहीं होता। बुजुर्ग महोदय ने घर के पंप से पानी देना मंजूर कर लिया है। खुद पानी के छिड़काव में मदद दे रहे हैं। सदा सुहागिन आंटी चाय ले आ रही हैं। बीच-बीच में लौंडे उनकी पोती जो बिल्लो या टम्मो के नाम से मशहूर होती हैं, उनको भी टाप लेते हैं। ( टापना अर्थात् नज़र बचा कर जी भर देख लेना)

फिर साल में एक बार नहाने वाले लोग भी अल्लसुबह जगकर सुबह के अर्घ्य के लिए स्नान कर लेते हैं। डाला उठाना है। लड़के तालाब में नहाने के लिए गमछा साथ ले लेते हैं। तालाब में अपनी तैराकी की कला का मुजाहिरा करके प्रेयसी के सम्मुख सुर्खरू होंगे। इतनी डेडिकेशन के साथ किसी ओलंपिक में हिस्सा लेते तो ग्राहम थोर्प की जगह तैराकी किंग यहीं लोग कहलाते। अस्तु...

उस दिन सुबह देर से होती...या फिर सूरज महोदय जानबूझ कर नेताओं की तरह अपनी अहमियत ज़ाहिर करने के वास्ते देर से निकलते... मां.. या दूसरी पवनैतिन ( पर्व करने वाली) पानी में खडी ठिठुर रही होती। कमर तक ठंडे पानी में.. लौंडों की निगाह किनारे खड़ी भीड़ पर..छोकरियों को एकटक निहारते... बीच-बीच में अगरबत्ती जलाने के या दीए में तेल डालने के बहाने खुद को व्यस्त दिखाने की कवायद...। कितना मज़ा आता था। फिर पूरब लाल हो जाता। इँतजार के बाद सूरज निकलने की तैयारी,,, लोग खुश.. पवनेतिनों की पूजा और ज़्यादा संजीदा..हो जाती... हे सूर्य देवता, धन दो. पोते दो, बेटे को इनक्रिमेंट दो, पेपर में हैं तो टीवी में लगवा दो, पेपर है तो पास करा दो. .. सूर्य देवता के पास आवेदनों की बौछार... लगता है दो-तीन पीए लेकर चलते होंगे, सुरुज देवता उस दिन। घाट के किनारे अर्घ्य देने के लिए दूध फ्री बांटने वाले। बहनें मना करतीं, पैसे देकर ही दूध लेना.. नहीं तो पुण्य बंट जाएगा। मेले का-सा माहौल..। कई लोगों ने बैंड वालों को भी बुला लिया है। रिक्शे पर लाउडस्पीकर बंधा है, शारदा सिन्हा पूरे सुर में, गा रही हैं। हे दीनानाथ ....या चुगले को गालियां देतीं, या फिर नारियक के पेड़ पर उगला सुरुज जी के छाहे गोटे...। फिल्मी गाने भी। छोकरे पटाखे छोड़ने में जुटे। व्यस्त माहौल। फिर अर्घ्य देने की मारामारी.. कौन कितने पवनैतिनों के सूप में दे सकता है अर्घ्य... नदी में दूध गिराते.. श्रद्धा का पारावार...। दिव्य। ये सब खत्म हो जाता, मश्किल से १० मिनट में , फिर प्रसाद पाने की चेष्टा। सब पवनेतिनों से प्रसाद ले लो। केले, सिंघाड़े, ठेकुए का प्रसाद.. साथ में चावल के लड्डू.. गन्ने, मूली का प्रसाद , नारियल... जितना पाओगे अगला साल उतना ही फलदायक होगा।.......यहां दिल्ली में हर चीज़ याद आती है, छठ पूजा की पवित्रता,,, खरना, सुबह शाम का अर्घ्य.. घर जाकर नारियल छीलने में लग जाना, गली मे खड़े होकर गन्ना चूसना, ये भी कि हमारी संस्कृति में सिर्फ उगते सूरज को ही नहीं डूबते सूरज को भी पूजा जाता है। और हरदम याद आती है मां.। जो आज शाम छठ का अर्घ्य देने के लिए उपवास पर होगी।.....

मंजीत ठाकुर

Tuesday, November 13, 2007

लस्ट फॉर लाइफ


दोस्तों, मैं हाल ही में मशहूर चित्रकार विंसेंट वॉन गॉग की जीवनी पढ़ रहा था। लस्ट फॉर लाइफ नाम की िस उपन्यासनुमा जीवनी को इरविंग स्टोन ने लिखा है। मैं सोच रहा था कि जो कुछ मैंने पढ़ा है, जो कुछ प्रेरक मुझे मिला..कुछ आपसे भी शेयर किया जाए..



अगर देखा जाए तो अपनी समग्रता में वॉन गॉग की जीवन भी किसी पेंटिंग सरीखा ही है। जिसमें स्थापित मान्यताओं के खिलाफ़ विरोधाभासों का अजीब, आकर्षक और चौंका देने वाला मिश्रण जैसी कुछ है। उसके जीवन में अगर दुख था, तो उतना ही तीव्र उल्लास भी था, जो सभी तरह की की विषमताओं का सामना करने के बाद पनपता है। उसमें अगर उपेक्षा की नितांत निजी पीड़ा थी, तो उतनी ही विशाल सहृदयता भी, जो दूसरों की पीड़ा भी अपनाने की इच्छा जगाती है।


कलाकारों के जीवन का मूल माने जाना वाला बिखराव वॉन गॉग के जीवन में भी कम न था। लेकिन उसमें एक क़िस्म का ऑर्डर भी था, जिसने ताज़िंदगी उसके पहले प्यार चित्राकारी से उसे बांधे रखा। इन सबके अलावा एक और बात जो विंसेंट में थी, वह थी जीवन के प्रति इसकी ईमानदारी और आस्था। बिना किसी लागलपेट के और समझौते के जिए गए इस जीवन ने ही वॉन गॉग के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व को एक प्रेरक विराटता बख्शी है। यह ईमानदारी, यह आस्था--ग़ौर से देखें तो-- एक एक ब्रश स्ट्रोक के पीछे छिपी बेचैनी, अधीरता और सच्चाई में-- उसने दुनिया को अपनी विरासत सौंपी है।
लस्ट फॉर लाईफ-- हर बार इस अबूझ शख्सियत के चरित्र की नई परतें खोलने का अहसास देता है। विंसेंट के नाम और काम से अपिरचित व्यक्ति के लिए इतना जान लेना ज़रूरी है कि वह सच्चा और अभागा कलाकार था। अपने छोटे भाई के पैसों पर पलने वाला अव्यावहारिक व्यक्ति, जिसने बेल्जियम में बोरीनोज़ के कोयला खदानों के मज़दूरों से लेकर बेवफा़ उर्सुला तक और वेश्या रेचेल तक को समान रूप से प्यार दिया। ( रैचैल को तो उसने प्यार में अपना कान भी भेंट में दे दिया था।)


कभी इवांजेलिस्ट, कभी कला दीर्घा के क्लर्क, कभी डॉक्टर तो कभी हमदर्द चित्रकार के तौर पर...। विंसेंट ने चित्रों में जड़ जीवन( स्टिल लाइफ) की बजाय कूची के ज़रिए प्रवाहमान जीवन की रचना करने को ज्यादा अहमियत दी। ये बात और है कि इंप्रेशनिज़्म के जन्म के उस शुरूआती दौर में उसके काम को उसके जीवन काल में पहचान नहीं मिली, लेकिन सूरजमुखी हों, या फिर स्टारी नाइट... विंसेंट ने चित्रकारी को एक नई सीरत दी। वह जीना चाहता था,पर जी न सका..

विंसेंट वॉन गॉग की जीवनी पढ़ कर मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूं.. पाठकों को उसके जीवन और उसके काम के बारे में वक्त-वक्त पर बताता रहूंगा- गुस्ताख़

Monday, November 12, 2007

फिल्म समीक्षा- फुस्स होगी सांवरिया

खयालों की दुनिया और ख्वाबों के शहर में लॉजिक खोजना बेमानी है। हिंदी फिल्मों में तर्क नहीं चलते। लेकिन बात तो ज़रूर करनी होगी, उस बड़े तर्क की .. कि बॉक्स ऑफिस पर भिड़ंत फराह खान की ओम शांति ओम से है। दर्शक यह जानता है कि किसने बनाया है से ज़्यादा अहम होता है कि क्या बनाई गई है। अफसोस ये है कि भव्यता ओर क्लपना ने संजय की कहानी की लील लिया है। इस सपनीली दुनिया का परिवेश भव्य और काल्पनिक है और साथ ही अवास्तविक भी। नहर है, नदी है, पुल है, अंग्रेजों के जमाने के बार हैं और आज की अंग्रेजी मिश्रित भाषा है। सांवरिया का रंग और रोमांस वास्तविक नहीं है और यही इस फिल्म की खासियत भी है और कमज़ोरी भी।

संजय लीला भंसाली के काल्पनिक शहर में राज (रणबीर कपूर) गायक है। हिंदी फिल्मों के नायक को गायक भी होना होता है। यह बॉलिवुड की वास्तविकता है। बहरहाल, उसे एक बार में गुलाब ( रानी मुखर्जी) मिलती हैं। दोनों के बीच दोस्ती होती है। दोस्तोवस्की की कहानी ह्वाइट नाइट्स पर आधारित इस फिल्म में दो प्रेमियों की दास्तान है। सिर्फ चार रातों की इस कहानी में संजय लीला भंसाली ने ऐसा समां बांधा है कि हम कभी राज के जोश तो कभी सकीना (सोनम कपूर) की शर्म के साथ हो लेते हैं। संजय लीला भंसाली ने एक स्वप्न संसार का सृजन किया है, जिसमें दुनियावी रंग नहीं के बराबर हैं। तो अगर आप शाहरुख के दुनियावी अंदाज़ को पसंद करते हैं और फराह खान के ठुमके तो सांवरिया आपके लिए तो नहीं ही है। अस्तु..

रणबीर और सोनम को प्रोजेक्ट करने के लिए बनी इस फिल्म में भंसाली ने खयाल रखा है कि हिंदी फिल्मों में नायक-नायिका के लिए जरूरी और प्रचलित सभी भावों का प्रदर्शन किया जा सके। साफ पता चलता है कि कॉमेडी, इमोशन, एक्शन, ड्रामा, सैड सिचुएशन, रोमांस, नाच-गाना और आक्रामक प्रेम के दृश्य टेलरमेड हैं। सहज नहीं। फिल्म बड़ी बारीकी से राज कपूर और नरगिस की फिल्मों की याद दिलाती है। खासकर आक्रामक प्रेम,बारिश और छतरी से तो मुझे भी ऐसा ही लगा। रणवीर कपूर को विरासत में अभिनय मिला है लेकिन उन्हें काफी कुछ सीखना होगा अभी। कभी कभी तो उनसे मुझे हृतिक रोशन की झलक भी मिली। बहरहाल, उनसे भविष्य की उम्मीद की जा सकती है। इसी प्रकार सोनम कपूर में भी अभिनय की गाड़ी आगे खींच पाने का माद्दा है, ज़ाहिर है उनके पिता अनिल कपूर की खासी मदद रहेगी उसमें।

सोनम में संभावनाएं हैं और उनके चेहरे में विभिन्न किरदारों को निभा सकने की खूबी है। सांवरिया में रानी मुखर्जी को कुछ नाटकीय और भावपूर्ण दृश्य मिले हैं। सलमान खान तो अपने खास रंग-ढंग में हैं ही। संजय लीला भंसाली की सपनीली दुनिया यथार्थ से कोसों दूर है। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहतर कर पाएगी , इसमें मुझे संदेह है। आखिर मिड्ल सिनेमा ने दर्शकों का जायका बदला है। और दर्शकों की परिष्कृत रूचि में सांवरिया फिट नहीं बैठेगी।

मंजीत ठाकुर

Friday, November 9, 2007

राजनीति का शॉर्टकट

अभी हाल ही में खबर आई कि हमारे सम्माननीय नेता बिहार रत्न सर्व श्री राम विलास पासवान के लाडले फिल्मों का रूख़ करने वाले हैं। अच्छी बात है। जब गुलशन कुमार के भाई किशन कुमार और जीतेंद्र के बेटे (एकता कपूर के भाई) तुषार हीरो बन सकते हैं, तो पासवाननंदन क्यों नहीं। वैसे भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नायक बनने के लिए अभिनय आना ज़रूरी नहीं होता। चाहिए होता है असीमित जुगाड़ और पहाड़ जैसी विकट तकदीर भी। वरना कितने महान कलाकार अभिनेता एडि़यां रगड़ कर रह गए.. नायक क्या सह-नायक बनने की जुगत नहीं लगा पाए।


इसी के बराबर रेलमपनाह( अर्थात् रेल की दुनिया के सर्वेसर्वा श्रीमंत लालू प्रसाद यादव के सुपुत्र तेजस्वी क्रिकेट में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। सुयोग देखिए, हम जैसे आम सड़े-गले अल्लम-गल्लम आदमी भी जानते हैं कि भारत में दूरी के मापक कितने व्यापक प्रभाव रखते हैं। जी नहीं मील के पत्थरों की बात नहीं कर रहा.. बात कर रहा हूं २२ गज और ३५ और ७० मिमी के परदे के सर्वव्यापकता की। साथ ही एक अत्यंत संक्षिप्त लंबाई भी है, जिसका उल्लेख श्लीलता के दायरे में नहीं आएगा। अतएव उसका उल्लेख समीचीन नहीं जान पड़ता।


बहरहाल, २२ गज यानी क्रिकेट का प्रभाव इतना व्यापक है कि माननीय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं। हाकी और क्रिकेट की टीमों का बुलाकर उनमें से क्रिकेट को तरज़ीह देना इसे ही तो बताता है। सचिन, धोनी,सहवाग गांगुली वगैरह की लोकप्रियता से लालू जी कितने प्रभावित हैं, कि उन्होंने अपने बेटे को क्रिकेटर ही बनाने की ठान ली है। पिता क्रिकेट असोसिएशन में हो , इतना प्रभावशाली हो, तो बेटा ज़िद करके मैन ऑफ द मैच भी बन जाएगा। दिक़्क़त कहां है? फिर ३४-३५ साल का होकर, और लोकप्रिय होकर उसे चुनाव लड़ने में परेशानी आएगी क्या। दूर की कौड़ी लाने वालो, ये है हिडेन अजेंडा... अब पासवाननंदन ने भी ऐसा ही रास्ता चुना है। विकट मार्क्सवादी पत्रकार ने सहसा पूछ लिया कि आगे राजनीति में जाने का इरादा है या नहीं... पिता की राजनीति को समझने और विचारधारा से अनजान पुत्र ने क्षणांश में बताया, मौका मिला तो देश की सेवा करने का मौका मिलेगा तो पीछे नहीं हटूंगा..। क्यों हटेंगे भला, सत्ता की चुसनी चुभलाने का मज़ा कौन खोना चाहेगा। फिल्मी हीरो बनिए, लोकप्रिय हो ही जाएंगे, ग्रेड सी के हीरो भी पॉपुलर हो ही जाते हैं। फिर लडेंगे चुनाव राजेश खन्ना की तरह.. केंद्र में मंत्री बनेंगे। तब आएगा मज़ा।

राजनीति में आने का बुरा ख्वाब देखने वालों, किसी लालू किसी पासवान के बेटे होने का फायदा उठाना सीखो... फिल्म में काम करो, क्रिकेट खेलो फिर राजनीति में आने की सोचो। लोकप्रिय होने का सबसे आसान नुस्खा है ये। आमीन......

Friday, November 2, 2007

दीयों की याद

निखिल रंजन मेरे परम मित्रों में से एक हैं। लेकिन यह तो उनका व्यक्तिगत परिचय है। उनकी शख्सियत का अहम पहलू है, एक गंभीर चैनल का अति गंभीर पत्रकार होना। निखिल एनडीटीवी इंडिया में हैं, खबरों को लेकर उनकी ललक मैं साफ़ महसूस करता हूं। लेकिन निजी ज़िंदगी में बेहद खुशनुमा इंसान.. गांव की माटी और सोंधी गंध को अपने रक्त बिंदवों में जीने वाला आदमी... हमारा साझा ब्लाग भगजोगनी है..दीवाली की भुकभुकाती यादों को समेटती उनका पोस्‍ट छाप रहा हूं। -गुस्ताख़


आठ दिन बाद ही दिवाली है, पता नहीं नज़र धुंधली हो गई है या कान कमज़ोर हो गए वैसी रौनक नहीं दिख रही जिसे देखने की बचपन से आदत है या फिर शायद दिल्ली के शोर और भीड़ में बचपन का वो मासूम उत्साह कहीं खो गया है। जेबखर्च का एक-एक पैसा बचाकर पटाखों का बजट बढ़ाना, घर की सफाई मे ज़बर्दस्ती ज़िद करके दीदी, भैया और मां के साथ शामिल होना। घरौंदा बनाने के लिए गत्ते, रंगीन काग़ज़ गोंद और दूसरी चीजों का इंतज़ाम करना भैया से कहके मैं उसमें बिजली की वायरिंग भी करवाता। वैसे मेरे घर में बहुत पहले से घरौंदा बनाने का दायित्य छोटका भैया(मझले भैया को मैं इसी नाम से बुलाता हूं) उठाते थे। पहले मिट्टी के गारे और इंटो से और बाद में गत्ते और रंगीन कागज से । उनके बनाए घरौंदे का एक्सक्लूसिव गुण था कि उसमें बिजली की वायरिंग भी होती थी। पूरे मोहल्ले में हमारे घरौंदा सबसे अच्छा होता । भैया को घरौंदा बनाने का इतना शौक था कि जब भी किसी अच्छे घर का डिज़ाइन देखते उसे याद कर लेते और फिर दिवाली के घरौंदो में उस डिजाइन का इस्तेमाल करते । मोहल्ले और इलाक़े के अनुभवी लोगों के साथ बाबुजी भी तब भैया में भविष्य का इंजीनियर देखते थे। हालांकि घरौंदा बनने के दौरान कई बार अनाधिकार छेड़छाड़ करने पर भैया का थप्पड़ खाकर मेरा उत्साह आंसूओं में बह जाता लेकिन जल्दी ही मां के आंचल की गरमाहट इस पिघले उत्साह को वापस दिल में लौटा देती। घरौंदा देखने पूरा मोहल्ला जमा होता और दिवाली बाद के कुछ दिनों तक सबसे बढ़िया घरौंदा बनाने वाले के छोटे भाई होने के गर्वातिरेक में मैं मगन रहता।भैया जब हाईस्कूल के बाद पढ़ाई करने मुजफ्फरपुर चले गए तब भी ये सिलसिला बना रहा वो दिवाली से पहले घर आ जाते और फिर घरौंदो की तैयारी शुरू हो जाती। छोटका भैया घरौंदो में व्यस्त रहते तो बड़का भैया कंदील बनाने में। बाकी हम दो छोटे भाई इन दोनों की मदद करके ही खुश हो लेते। स्कूल जाने से पहले और लौट के आने के बाद कई हफ्ते तक मैं दिवाली के अलावा और कुछ सोचता ही न था। खेलना, दोस्तों से मिलना सबकुछ कम हो जाता या फिर बंद उनसे मिलने पर बात होती तो घरौंदे की। हर दिन घरौंदे को धीरे धीरे करके आकार लेते हुए देखना किसी आर्किटेक्ट के पूरे होते सपने जैसा होता और हमारी खुशी भी घरौंदे की तरह बढ़ती रहती । १९९० में छोटका भैया समय पर घर नहीं आ सके शायद परीक्षाओं के कारण और तब घरौंदा बनाने की कमान मेरे कंधो पर आई । पहली बार जब घरौंदा बना रहा था तब बाबूजी ने पूछा तुम्हारे घरौंदे का बजट कितना है मैंने हिसाब लगाकर बताया तीस रूपये। इसके बाद उन्होंने इसके लिए अपनी तरफ से ५ रुपये के अनुदान की घोषणा की मेरी खुशी के तो कहने ही क्या ? पचास पैसा देते तो साथ में सोच समझकर खर्च करने की हिदायत भी और वही बाबूजी पांच रुपये देने का एलान कर रहे थे मेरे लिए ये बड़ी उपलब्धि थी। पूरे उत्साह से घरौंदा बनाना शुरू किया किसी तरह बाकी तो सबकुछ हो गया लेकिन बिजली की वायरिंग आती नहीं थी तो भैया की मदद मांगी और फिर घरौंदा तैयार हुआ। घर के आसपास हरियाली तैयार करने के लिए लकड़ी के बुरादे को हरे रंग में रंग देते हम लोग। तब घर में साइकिल भी नहीं थी लेकिन घरौंदे के पोर्च में खड़ी करने के लिए खिलौना वाली अंपाला और मारूती कार जरूर थी, एक एंबेसडर भी थी जिसे हम घरौंदे के बगल में या फिर पिछवाड़े में खड़ी करते ये अहसास शायद तब भी था कि अब ये कार पुरानी हो चुकी है, कागज का बना टीवी और प्लास्टिक का फ्रिज भी था। मेहमानों के लिए सोफे और बढ़िया सा अंग्रेजी स्टाइल वाला टी-सेट भी था जिसमें चाय की केतली के साथ दूध और चीनी के लिए अलग प्याली होती थी। उस समय तक हमने ऐसे टी सेट खिलौनौं और फिल्मों में ही देखे थे आजकल बॉस के केबिन में देखते हैं। छत पर लगा लकड़ी के सींक का बना एंटेना हमारे सपनों जैसे उंचा था और घरौंदा हमारे सपनों की तामीर। ये सारे खिलौने हम बड़ी जतन से सालों भर संभाल कर रखते और सिर्फ दिवाली के समय बाहर निकालते सच तो ये है कि वो खिलौने नहीं हमारे सपने थे । घरौंदा जो हर साल हमारे आंगन में बनता और दिलों में सपने जगाता। आज जिंदगी की हक़ीकत ने इस सपने को आगर पूरी तरह से तोड़ा नहीं तो छोटा ज़रूर किया है। लेकिन तकलीफ इस बात की नहीं बल्कि इस बात की है कि वो घरौंदे कही खो गए हैं पांच साल पहले दिवाली मे घर गया था लेकिन ना तो मेरे घर में ना ही किसी औऱ घर में घरौंदा नज़र आया। सपने तो बिखरे ही सपना दिखाने वाले घरौंदे भी गायब हो गए। दिवाली के दिन बहने इसी घरौंदे में मिट्टी के खिलौने वाले बर्तनों में खील-बताशे भर कर पूजा करतीं। बाद में ये खील बताशे भाइयों को खाने के लिए मिलते। बताशे की मिठास भाई बहन के रिश्तों में घुलती। जारी...निखिल रंजन

इस लेख के अगले हिस्से निखिल की भगजोगनी पर पढ़े जा सकते हैं।- गुस्ताख़

Thursday, November 1, 2007

थूक कर चाटने की कला

दोस्तों, मैं बहुत नाराज़ हूं अपने आप से। सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी की तर्ज़ पर, हमने थूक कर चाटने की कला नहीं सीखी। औक़ात ही नहीं थी, विंसेंट बान गाग (चित्रकार) की तरह ऐसी औपचारिक शिक्षा के लायक ही नहीं मैं। वैसे, पब्लिक मैनेजमेंट की यह कला, मेरी हार्दिक इच्छा है कि सीख लूं, ( देखिए इसे चमचागीरी कहने की हिमाकत न कीजिएगा।) लोगबाग मैनेजमेंट की िस कला के ज़रिए सीढियां चढ़ रहे हैं, बखूबी चढ़ रहे हैं। हम हैं कि उन्हें चढ़ते हुए देख रहे हैं। इसके सिवा कुछ नहीं कर सकते.. कि साथी( पढ़ें प्रतिद्वंद्वी) आगे बढ़ रहा है, तो सहृदयता से ताली बजाया करें। मानसपटल पर भारतीय दर्शक की मनोदशा होती है। पोंटिंग हमारे गेंदबाज़ों को धो रहा है, हम उनके शतक पर दिल खोल कर ताली बजा रहे हैं। अस्तु...

मैं बात कर रहा था, थूक कर चाटने की। इस कला का मेरी ऊपर की बातों से कोई लेना-देना नहीं। मैं तो यूं ही -वो- हो जाता हूं, जिसे साहित्यकार वगैरह जज़्बाती होना कहते हैं। बहरहाल, थूककर चाटने की उचित परिभाषा तलाश करनी हो, तो हमारे दो सबसे बड़े राजनीतिक दल इस कला में सिरमौर होंगे। आप अगर अब भी नहीं बूझ पाए हैं, तो साफ़-साफ़ सुन लें। वर्णक्रम में बता रहा हूं ( अर्थात् अल्फाबेटिकली) पहली पार्टी है अलग तरह की अपनी पार्टी बीजेपी। जिस-जिस को थूका, उसे फिर से चाटा। इस चीज़ को हम पॉलिटिकल इंजीनियरिंग नाम देते हैं। कल्याण को थूका, फिर उसे चाट लिया। आडवाणी को जिन्ना मसले पर संघ ने थूका ही नहीं उनकी उल्टी-कै कर दी लेकिन फिर चाट रहे हैं। क्या बात है.. क्या मानें इसे...। अजी, राजनाथ लाख कहते रहें... दिल्ली जाने वाली बारात के दूल्हे वो ही हैं, लेकिन सेहरा उनके सर से छीन कर चचा आडवाणी के माथे सजाने की हरचंद कोशिशें कर रहे हैं भाई लोग। हां, थूका तो राजनाथ ने भी.. अपनी गठबंधन सरकारों के मुद्दे पर। मायावान् बसपा की कई बेवफाईयों और हाल ही में कर्नाटक में नाटक झेलकर फिर से सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के सामने विधायकों की परेड करवाना थूक कर चाटना ही नहीं हैं क्या?

चलिए, इस कला के दूसरे महारथी भी कम नहीं हैं। मनमोहन के अमेरिकापरस्त करार पर रार करने वाले वाम दलों ने कहा कि इंसान के तौर पर उन्हें क्लीन चिट दे दी है। मनमोहन दुखी हैं करार नहीं हो पाया। रहा करें। वाम दलों ने तो कहा ऐसा बिना रीढ़ का पीएम कब मिलेगा फिर भला। अभी अच्छा है। जो कहो मान लेते हैं। अब तो घर में पानी की घूंट भरने से पहले भी हमारे सकुचाए हुए पीएम करात को फोन पर पूछते हैं- प्रकाश जी पानी पी लूं। करात जवाब देते हैं- स्वदेशी पानी ही पीना। मनमोहन हामी भरते हैं। स्वदेशी का ज़िम्मा बजरंगियों के हाथों से फिसल कर लेफ्ट के हत्थे चढ़ गया है।

सोच रहा हूं, थूक कर चाटने के इस अद्भुत प्रबंधन कला को आईआईएम में पढ़ाने की सिफारिस कर ही डालूं। फैसले करो, बयान दो, पलट जाओं। खंडन मत करो। मीडिया के पास फुटेज हैं, खींच देगा। बल्कि ढिठाई से कहो, कहा था पहले अब ऐसा नहीं है। तकरार खत्म हो गया है। अब पीएम अच्छे हैं। कहो, यदुरप्पा आधुनिक धृतराष्ट्र को मंजूर हो गए हैं। सत्ता की चुसनी ऐसी है कि उसे चुभलाने के लिए खंखारकर थूक दीजिए, उस बलगम को चाट लीजिए, तो भी कम। और सिद्धांत.. क्या कहा?...सिद्धांत ..ये क्या होता है भला? कम से कम राजनीति में तो नहीं ही होता है।

Monday, October 15, 2007

बुद्धिजीवी होने के पेंच

आपने मेरी तस्वीर, जिसे मैं प्यार से फोटू कहता हूं, देख ही ली होगी। इस तस्वीर को खिंचवाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी मुझे। मुझे लगा कि ऐसी तस्वीर के ज़रिए लोग मुझे भी बुद्धिजीवी समझने लगेंगे। मैं सीधे तोप हो जाऊंगा। टाइमबम। किसी ने छेड़ा नहीं कि सीधे फट पड़ने वाला...। तो श्रीमानों, महानुभावों, श्रीमंतों, कृपानिधानों नौजवानों ऐसा अभी तक तो हुआ नहीं है अभी तक।

दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं। जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, प्रोफेसर इत्यादि हैं, वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं। हाथ गाल पर.. ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियों में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।

पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में यदुरप्पा और देवेगौड़ा जैसा रिश्ता...। मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले क्षेत्रीय पार्टियां उग आती हैं। ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढीं के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह त्स्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।

मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। अब ये मत बोलना कि हमारे देश की हर लड़की मां है, बहन है, बेटी है...। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।

हाथ में कलम लेकर उपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानों दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..। मेरा स्वबाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया माताश्री, आडवाणी (सावधान, पिताश्री नहीं बोल रहा हूं उन्हें.. अपनी तरफ से कुछ भी बाईट मत सोच लिजिए.. कलाकार हैं आपलोग कुछ भी कर सकते हैं। वरना झज्जर की सभा में माताश्री के बयानों को तोड़-मोड़ कर ऐसे पेश नहीं करते कि यूपीए और वाम दलों में कबड्डी मैच आयोजित करवाने की ज़रूरत पड़ने लगती।) , प्रकाश करात जैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्तासुख का पान करने वाले महादेशभक्त और मधुकोड़ा जैसे छींका टूटने से सत्ता पाने वाले से लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत पर ऐसे ही हंसी आने लगती हैं।

आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं की चूतियागिरी पर हंसता है। हंसता नहीं होता तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या। हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने। सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी हो गया हूं। सब्जियां उबालकर खा रहा हूं, मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।

तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवा लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी, ठीक वैसे ही जैसे सरकार बचाने के लिए कॉंग्रेस एटमी करार को ठंडे बस्ते में डालने पर राजी हो गी है। वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तोला कभी माशा की तरह टीम में रहें, कम से कम मेरे नाना के घर पर भी आयकर महकमे का एक छापा तो पड़ ही जाए। लेकिन आसमान को यह मंजूर ही नहीं।

गोया गंभीर हम तब हो गए, जब किसी खराब स्टोरी की कवरेज के लिए दबाव आया कि यह पीआर स्टोरी है, करनी ही है। जी नहीं चाहता था कुछ भी करने का, पीआर का मतलब.. ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान से दंडवत् करते हुए स्टोरी पेलना, और खराब स्टोरी इतने बड़े होने जा रहे यानी भावी बुद्धिजीवी से पीआर कवरेज करवाना न्याय है क्या? सुनकर हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गोतम वाला नहीं) हो गए, दोस्त मेरा पियोर खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वार टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।

पैगाम

दुर्गा मित्रा युवा लेखिका हैं, अंग्रेजी में कविताएं लिखती हैं। बंगलाभाषी होते हुए भी हिंदी में कविता लिखना हिंदी के लिए अच्छा शगुन है। उनकी ताज़ा कविता को छाप रहा हूं। प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार तो दुर्गा को भी होगा, मुझे भी। और हां, उनकी बेहद कम उम्र के मद्देनज़र कविता की शैली से कम-से-कम मैं बेहद प्रभावित हूं। पढ़ें और बताएं..


खुदा का करिश्मा है ये,
या क़िस्मत की इनायत..
लफ़्जों को सिखाया है बोलना उनका नाम,
जिनकी तस्वीर है इन आंखों में सुबह-शाम,
दिल से करते हैं हम उन्हें सलाम,
और भेज रहे हैं ये पैगाम,
ख़ुदा की खुदी भी क्या चीज़ है.
का नाम लिखा है इस इश्क़ के मयखाने में,
तोड़ बंदिशें याद करते हैं हम,
अफसानों में

Thursday, October 11, 2007

क्षणिकाएं..

सुधाकर दास दूरदर्शन न्यूज़ के घुटे हुए पत्रकार हैं। गृह मंत्रालय की बीट देखने के साथ कभी कभी कविता करने की कोशिश भी करते हैं, उनकी कुछ क्षणिकाएं पेश है, हंसी लगे तो भी न लगे तब भी, प्रतिक्रिया देंगे तो कभी किसी लफड़े में पड़ने पर वो आपका गृह मंत्रालय में काम करवा देंगे, इसका वायदा वो कर रहे हैं- गुस्ताख़

पत्नी

पत्नी,
अर्थात्-
पहले नरम,
फिर तनी

क्षणिकाएं..

पत्नी-2



फेरों में पति के पीछे रहना,


पत्नी को हुआ न सहन,


क्योंकि पत्नी है,


सौ मीटर की राष्ट्रीय चैंपियन।

Tuesday, October 9, 2007

प्यार के नाम कविता-२

प्यार की कई परिभाषाएं होती हैं,
कोई प्यार को जीना-
कोई जीने को प्यार समझता है,
सोच लो,
तुम किसे क्या समझते हो,
फिर अपनी जगह
इन ऐतिहासिक परिस्थितियों में तुम्हें मिल जाएगा।।

कौन देशभक्त, कौन देशद्रोही...

लो जी लो... कर लो फैसला। कौन है देशभक्त और कौन देशद्रोही... महर्षि मार्क्स के चेले चपाटी कह रह हैं, अमेरिका से एटमी करार करने वाले देशद्रोही हैं। मयडम जी फरमा रही हैं, करार पर तकरार करने वाले देश के विरोधी हैं। गुरु हम तो नरभसा गए हैं। हम तो आज तक तय ही नहीं कर पाए कि हम एटमी करार के पक्ष में हैं या विपक्ष में। अमेरिका के साथ करार हो जाएगा, तो यकीन मानिए भारत के हर नागरिक को बिना लिंगभेद, बिना जाति भेद और बिना किसी अन्य भेदभाव के रोज़गार मिल जाएगा। रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या हल हो जाएगी। दिल्ली की सड़कों पर ब्लू लाईन बसें तांडव नहीं मचाएंगी। हर पत्रकार के लिए एक प्लैट अलॉट किया जाएगा... हम्म।लेकिन ज़रा देशभक्त लोगों के बारे में, उनके अतीत के बारे में पढ़ता हूं तो दिमाग़ का शक्की कीड़ा कुलबुलाने लगता है। १९६२ में इन्होंने ही चीन के साथ जाने या फिर उसे नैतिक समर्थन देने की बात की थी ना। कहीं ऐसा तो नहीं कि चीन के ही सपोर्ट पर गुरुघंटाल लोग फिर समर्थन वापसी(?) का वितंडा खड़ा कर रहे हों? और समर्थन वापसी.. हिम्मत है क्या? अरे वापस लेना होता तो इंतज़ार किस बात का? जियांग जेमिन ने हरी झंडी नहीं दी है क्या? चलो मान लेते हैं कि करार गलत है, लेकिन इतने दिनों का इंतजार किस लिए? वोट पाकर मदमस्त हुए वामपंथियों .. जनता के बीच क्या कह कर जाओगे? सरकार किस लिए गिराई? प्याज मंहगे होने लगे हैं उस मुद्दे पर? राम सेतु पर संप्रदायवादियों के खिलाफ? गरीबों के कितने हितकारी-शुभाकांक्षी हो, नंदी ग्राम में देख चुका है पूरा भारत। कम्युनिस्ट हो, तो उसे जीवन में उतारकर दिखाओ यारों। बोतलबंद पानी पीकर, रीड एंड टेलर के सूट मेंसज कर किस विचारधारा (जो भी है, उधर की ही है) को फॉलो कर रहे हो, उसकी कलई खुल रही है। माफ करना महर्षि मार्क्स आपके चेले चपाटी आपके ही विरोध में हैं। अपने अनुयायियों से कहो आपके नाम की रोटी सेंकना बंद करें। आपके सच्चे चेले तो किसी बेर सराय में पागल कहे जाक अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य हैं। (देखे राजीव की क़िस्सागोई)वैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्ता सुख पाने वाले काहिल वामपंथी नेताओं आपका अच्छा वक्त खत्म होता अब..।

यारों कोई कहे उनसे कि करार के पक्ष या विपक्ष में खड़ा होने वाला आदमी द्रोही या भक्त नहीं है देश का। वह तो खालिस राजनेता हैं। देशभक्त तो सरहद पर शहीद होने वाले जवान हैं, संसद पर हमले के वक्त जान देने वाले सिपाही। ईमानदारी से देश के लिए सपने देखने और उसे साकार करने वाला हर कोई... डॉक्टर, इंजीनियर, सॉफ्टवे.यर प्रफेशनल, पत्रकार,...ट्रेन सही वक्त पर ले आने वाला ड्राईवर.. हर इंसान जो देश के सोचता है। ....

Sunday, October 7, 2007

पाकिस्तानी लोकतंत्र के लड्डू

पाकिस्तान को नया राष्ट्रपति मिलने वाला है। राष्ट्रपति कितना नया होगा, वर्दी में होगा..( सेना की वर्दी जनाब, अपने दिमागड का कूड़ेदान न खोले कृपया) या बिना वर्दी का, इस सवाल का जवाब उतना ही साफ है, जितना बीजेपी का राम मुद्दा। भारत के लोग, भारत की मीडिया और भारत के नेता... एक साथ गला फाड़ कर चिल्लाते हैं, अमेरिका के सामने साबित करने पर तुले रहते हैं. देखिए मालिक... हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। अबे..क्या खाक लोकतंत्र हैं? आपको चुनाव के ठीक बाद पता होता है कि किस उम्मीदवार को कितने फीसद वोट मिले हैं? नहीं पता ना....। अजी नज़रें पश्चिम पर रखने वालों बुद्धिमानों, देखों पाकिस्तान के मुख्य चुनाव आयुक्त को वोटिंग के ठीक बाद पता चल गया कि जनाब मुशर्रफ को सबसे ज़्यादा वोट मिलें हैं। जीतने वाले वही हैं। आपके माननीय चुनाव आयुक्त कैसे हैं... एक्जिट पोल करने तक पर गोपनीयता का पहरा बिठा रखा है। चैनलों को मनाही है। नहीं दिखा सकते। दिखाया तो कारण बताओ नोटिस जारी हो जाएगा। वैसे एक बात और .. कुछ बेकार के चैनलों को छोड़कर किसी को एक्जिट पोल दिखाने का वक्त भी नहीं। अरे यार, देखते नहीं रोज़ाना पब्लिक सड़क पर उतर रही है... हमें राखी सावंत को देखना है, राखी का इंटरव्यू हंसते हुए पत्रकार के साथ आए तो स्क्राल हटाओ. हमें देखने लायक और नहीं देखने लायक हर चीज़ देखने दो। बहरहाल, बात लोकतंत्र की हो रही थी। हमारे यहां लोकतंत्र बुढा गया है। साठ साल का हो गया है। सठिया रहा है यह। इसे सही राह पर ले जाने के लिए वाइग्रा की ज़रूरत है। कर्नाटकी नाटक देखिए.. वाइग्रा खाकर हमारा लोकतंत्र यौनाचार के नए आसन आजमा रहा है। पाकिस्तान में लोकतंत्र ओढ़ा जा रहा है, हम जन्मजात लोकतंत्र की चुसनी के साथ पैदा हुए हैं, उसे ही चुभला रहे हैं। टीवी चैनलों, एफएम चैनलों पर पाबंदियों के साथ हम अपने गणराज्य को वाइग्रा खिला रहे हैं...पाकिस्तान में अवाम बदल-बदलकर रस लेती है। कभी तानाशाही, कभी मूर्ख सियासयदां, जिनका अपनी ही फौज और अवाम पर कंट्रोल नहीं..कभी कभी लोकतंत्र की नौटंकी भी।हम ऐसे है कि विविधता से भरे हैं। केसरिया भारत अलग. हरा हिंदोस्तां अलग ..सफेद तो खैर अलग है ही...। हमारी जनता को भी कोई चूतिया नहीं बना सकता सिर्फ नेता उनकी जात का, तो फिर अवाम यह नहीं देखती कि चुना जाने वाला नेता किस पार्टी का है, उसकी पृष्ठभूमि क्या है। हमारे लोकतंत्र का फलक बेहद बड़ा है.. उनकी तरह नहीं। आमीन

Friday, October 5, 2007

आस्थाओं के प्रति अनास्था का दौर..

यह आस्थाओं के प्रति अनास्था का दौर है। कम से कम मेरे व्यक्तिगत अनुभव यही कहते हैं। राम का सेतु था, या नहीं था। राम थे या नहीं थे? सवाल बड़े हैं, जवाब गोलमोल। मेरा मानना है कि हम वैचारिक अराजकता के दौर में हैं। राम हैं या नहीं है.. मेरे छोटे से दिमाग़ में नहीं आता। लेकिन मेरी विधवा मां अब भी जब राम मंदिर या उससे पहले भी जब मंदिर-कमंडल का मुद्दा सामने था ही नहीं तब भी कुछ घट-अघट होने पर राम के सामने ही रोती थी। मूर्ति के सामने । इस्लाम इसे कुफ्र क़रार देगा। यह उनकी आस्था है कि मूर्तिपूजा काफिरों का काम है। आपकी आस्था ( जो राम को मानते हैं उनके लिए) राम में है, मूर्तिपूजा में है।

हिंदू संस्कृति में कोई एक धर्म नहीं है। लोग शैव हैं, वैष्णव हैं, शाक्त है, लेकिन हिंदू हैं या नहीं इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है। हम मानते हैं कि कुछ ऐसी बाते हैं, जो दकियानूसी कठघरे मे आती हैं, उनसे छुटकारा पाना ही ठीक है। लेकिन उस के बराबर ही यह मानना ही होगा कि आस्था या विश्वास को हथौड़े से नहीं तोड़ा जा सकता। गणेश की पत्थर की मू्र्तियां दूध पी सकती हैं। पत्थर के हनुमान के आंसू निकल सकते हैं। पटना में पत्थर पानी पर तैर सकता है। साइंस कहता है कि पत्थर पानी पर तैर सकता है। कुछ पत्थरों में अंदर ज्वालामुखी की गैस भरी होता है, जिससे वह पानी पर तैर सकते हैं। लेकिन छद्म सेकुलर लोगों के लिए कोई साइंस सत्य नहीं। सत्य तो केवल वोट है, वही शाश्वत है, चिरंतर है।

क्या वजह हो सकती है कि राम सेतु मुद्दे को बीजेपी हवा दे रही है। देश भर में बंद करवा रही है। उसी के बराबर करुणानिधि अपनी गोटी फिट करने में लेगे हैं, क्यों कि द्क्षिण में उनकी गोटी ही राम विरोध पर चलती है। फिट होती आई है। राम के नाम पर हलफनामा देने वाली सरकार को दिखा ही नहीं कि कुछ साल पहले उनके ही एक बेहद लोकप्रिय नेता ने राम लला के मंदिर के ताले खुलवाए थे। उनके ही के मौनी बाबा ने भ्रष्टाचार के आरोप पर कहा था कि इस अग्निपरीक्षा से मैं सीता मैया की तरह निकल आऊंगा। राम ही नहीं तो काहे की सीता मैया गुरु?तो घट-घट में बसने वाले राम पर टीका -टिप्पणी का दौर जारी है। राम अगर कहीं होंगे, तो जन्म स्थान (माफ कीजिएगा, राम ते ही नहीं तो जन्म किसका और कौन सा जन्म स्थल?) फिर भी अगर कहीं हों, तो हंस रहे होंगे कि देखो बेट्टा, मेरे नाम पर कैसे पब्लिक को चू..तिया बना रहे हो। चलिए राम की तो खैर मनाइए..ऐतिहासिक सुबूत मांगे जाएंगे, तो क्या पेश करेंगे आप। लेकिन गांधी का क्या। उनके अपनों ने ही उनको पराया कर दिया है। गांधी आज संजय दत्त की गांधीगीरी के मुहताज हो गए हैं। राजघाट पर आने वाले लड़के, लड़के नहीं लफाडिए होते हैं। लड़कियां ब्यायप्रेंड से मिलने आती है। (सारी नहीं,, लेकिन ज्यादातर)। गांधी स्मृति संग्रहालय में आए बच्चे टीचर को कोस रहे थे, कहां फंसा दिया। अच्छा होता कि किसी पीवीआर में जाकर हे बेबी में उघड़े हुए बदन वाली लड़कियां टापता।
हम अराजक हो रहे हैं। अपनी संस्कृति के तौर पर भी, और अपीन आस्थाओं के लिहाज से भी। प्रचलित परंपराओं का विरोध करना ही ठीक नहीं है। पहले यह जांच लेना ठीक होगा कि उनमें से कुछ परंपराएं हमारी आस्था भी हो सकती है। सच हो न हो, उनका अतीत में कोई अस्तित्व रहा हो., न रहा हो।

मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कई बंधु तो सिर्फ सेकुलर दिखने, या वैचारिक लड़ाई में हाथ ऊपर रखने के लिए राम का विरोध कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे चंदा देते वक्त लोग मार्क्सवादी और प्रसाद-भोग लेते वक्त आस्तिक हो जाते हैं। धिक्कार है।

Thursday, October 4, 2007

एक्सक्लूसिव बिहारी शब्द संग्रह...कुछ और

कुछ और हिंदी-मैथिली गालियों का संग्रह छाप रहा हूं। राजीव को पहले ही भेज चुका हूं। आने वाली नादान गालीविहीन पीढ़ियों के काम आएंगी ताकि दुश्मनों के कान से खून चूने (टपकने ) लगे-

इटेवा- ईंटकुटेव-बुरी आदत
मुंहझौंसा- जो मुंह में आग लगा दिए जाने लायक हो
शरधुआ- जिसका श्राद्ध किया जाए
रोगढुकौना- जिसे रौग बलाएं लगें
निरवंशा- जो निर्वंश मरे
बाढ़िन झट्टा- जिसे बाढ़न यानी झाडू से पीटा जाए
निपूतरा- जिसे बेटा न हो
ढीढ़वाली- नाजायज़ औलाद पेट में रखने वाली
बोंगमरना- अप्राकृतिक यौनाचार करवाने वाला पुरुष
कुछ अन्य शब्द हैं-
सजमइन- लौकी, अरिकोंच-कच्चू,
बूट- चना, छीमी-मटर,
कोंहड़ा- दिल्ली में सीताफल,
ढेपा-पत्थर, भैंसुर-जेठ,
लताम-अमरूद,
खखुआना- चिढ़ना,
भकुआना-तंद्रा में रहना
बुड़बक-बेवकूफ़
चमरछोंछ-कंजूस
लीच्चड़- कंजूस
झिंगड़ी-हरा चना
टाल- ढेर
नार-पुआल
ढेंकी-चावल कूटने का लकड़ी का उपकरण
गोर- पैर
गोर लगना- प्रणाम करना
गांती- ठंड से बचने के लिए गले में भंधा कपड़ा
झपसी-बहुत दिनों तक आकाश में बादल छाए रहना
लाका लकना- बिजली चमकना
घोरन- एक तरह की चींटी
बेंग- मेंढक
जरना या जारइन- जलावन
इनार- कुंआ
इजोत- उजाला
भगजोगनी- जूगनू
फेनूगिलास-जलतरंग के तरह का वाद्य यंत्र
गंगोती- गंगा की मिट्टी
डबरा- छोटा पोखरा
गूंह-पैखाना
हगना- पाखाना करना
छेरना- दस्त की शिकायत होना
तेतर-इमली

बिहारी शब्दकोष..

राजीव मिश्र आजकल लेखन में कमाल कर रहे हैं। उनके ब्लॉग पर एक अत्यंत उपयोगी लेख देखा. छापना समुचित जान पड़ा। राजीव को आभार व्यक्त करते हुए हम जस का तस छाप रहे हैं। आपके पास कुछ और हो जोड़ने के लिए तो जोड़ सकते हैं- गुस्ताख़



आरकुट पर बिहारी कम्यूनिटी पर एक पोस्ट में एक्सक्लूसिव बिहारी शब्द सुझाने को कहा गया था। मतलब ऐसे शब्द या वाक्य जो सिर्फ़ बिहार में बोली और समझी जाती है। कुछ शब्द वहीं से कंट्रोल सी कर लिया और कुछ को स्वयं अपने मेमोरी से जोड़ा। और तैयार हो गया यह मिनी डिक्शनरी। बिहार स्पेशल शब्दकोष। अधिकतर शब्द तदभव ही हैं। मगह, मैथिली, अंगिका, भोजपूरी और मसाले के रूप में पटनिया। लोगों का मानना है कि पटना में मगही भाषा बोली जाती है। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। पटना में पटनिया बोली जाती है जो पूरे राज्य की भाषाओं और राष्ट्रभाषा हिंदी का मिश्रण है। पेश है शब्दकोश के कुछ जाने-पहचाने शब्द:


" कपड़ा फींच\खींच लो, बरतन मईंस लो, ललुआ, ख़चड़ा, खच्चड़, ऐहो, सूना न, ले लोट्टा, ढ़हलेल, सोटा, धुत्त मड़दे, ए गो, दू गो, तीन गो, भकलोल, बकलाहा, का रे, टीशन (स्टेशन), चमेटा (थप्पड़), ससपेन (स्सपेंस), हम तो अकबका (चौंक) गए, जोन है सोन, जे हे से कि, कहाँ गए थे आज शमावा (शाम) को?, गैया को हाँक दो, का भैया का हाल चाल बा, बत्तिया बुता (बुझा) दे, सक-पका गए, और एक ठो रोटी दो, कपाड़ (सिर), तेंदुलकरवा गर्दा मचा दिया, धुर् महराज, अरे बाप रे बाप, हौओ देखा (वो भी देखो), ऐने आवा हो (इधर आओ), टरका दो (टालमटोल), का हो मरदे, लैकियन (लड़कियाँ), लंपट, लटकले तो गेले बेटा (ट्रक के पीछे), की होलो रे (क्या हुआ रे), चट्टी (चप्पल), काजक (कागज़), रेसका (रिक्सा), ए गजोधर, बुझला बबुआ (समझे बाबू), सुनत बाड़े रे (सुनते हो), फलनवाँ-चिलनवाँ, कीन दो (ख़रीद दो), कचकाड़ा (प्लास्टिक), चिमचिमी (पोलिथिन बैग), हरासंख, चटाई या पटिया, खटिया, बनरवा (बंदर), जा झाड़ के, पतरसुक्खा (दुबला-पतला आदमी), ढ़िबरी, चुनौटी, बेंग (मेंढ़क), नरेट्टी (गरदन) चीप दो, कनगोजर, गाछ (पेड़), गुमटी (पान का दुकान), अंगा या बूशर्ट (कमीज़), चमड़चिट्ट, लकड़सुंघा, गमछा, लुंगी, अरे तोरी के, अइजे (यहीं पर), हहड़ना (अनाथ), का कीजिएगा (क्या करेंगे), दुल्हिन (दुलहन), खिसियाना (गुस्सा करना), दू सौ हो गया, बोड़हनझट्टी, लफुआ (लोफर), फर्सटिया जाना, मोछ कबड़ा, थेथड़लौजी, नरभसिया गए हैं (नरवस), पैना (डंडा), इनारा (कुंआ), चरचकिया (फोर व्हीलर), हँसोथना (समेटना), खिसियाना (गुस्साना), मेहरारू (बीवी), मच्छरवा भमोर लेगा (मच्छर काट लेगा), टंडेली नहीं करो, ज्यादा बड़-बड़ करोगे तो मुँह पर बकोट (नोंच) लेंगे, आँख में अंगुली हूर देंगे, चकाचक, ससुर के नाती, लोटा के पनिया, पियासल (प्यासा), ठूँस अयले (खा लिए), कौंची (क्या) कर रहा है, जरलाहा, कचिया-हाँसू, कुच्छो नहीं (कुछ नहीं), अलबलैबे, ज्यादा लबड़-लबड़ मत कर, गोरकी (गोरी लड़की), पतरकी (दुबली लड़की), ऐथी, अमदूर (अमरूद), आमदी (आदमी), सिंघारा (समोसा), खबसुरत, बोकरादी, भोरे-अन्हारे, ओसारा बहार दो, ढ़ूकें, आप केने जा रहे हैं, कौलजवा नहीं जाईएगा, अनठेकानी, लंद-फंद दिस् दैट, देखिए ढ़ेर अंग्रेज़ी मत झाड़िए, लंद-फंद देवानंद, जो रे ससुर, काहे इतना खिसिया रहे हैं मरदे, ठेकुआ, निमकी, भुतला गए थे, छूछुन्दर, जुआईल, बलवा काहे नहीं कटवाते हैं, का हो जीला, ढ़िबड़ीया धुकधुका ता, थेथड़, मिज़ाज लहरा दिया, टंच माल, भईवा, पाईपवा, तनी-मनी दे दो, तरकारी, इ नारंगी में कितना बीया है, अभरी गेंद ऐने आया तो ओने बीग देंगे, बदमाशी करबे त नाली में गोत देबौ, बड़ी भारी है-दिमाग में कुछो नहीं ढ़ूक रहा है, बिस्कुटिया चाय में बोर-बोर के खाओ जी, छुच्छे काहे खा रहे हो, बहुत निम्मन बनाया है, उँघी लग रहा है, काम लटपटा गया है, बूट फुला दिए हैं, बहिर बकाल, भकचोंधर, नूनू, सत्तू घोर के पी लो, लौंडा, अलुआ, सुतले रह गए, माटर साहब, तखनिए से ई माथा खराब कैले है, एक्के फैट मारबौ कि खुने बोकर देबे, ले बिलैया - इ का हुआ, सड़िया दो, रोटी में घी चपोड़ ले, लूड़ (कला), मुड़ई (मूली), उठा के बजाड़ देंगे, गोइठा, डेकची, कुसियार (ईख), रमतोरई (भींडी), फटफटिया (राजदूत), भात (चावल), नूआ (साड़ी), देखलुक (देखा), दू थाप देंगे न तो मियाजे़ संट हो जाएगा, बिस्कुट मेहरा गया है, जादे अक्खटल न बतिया, एक बैक आ गया और हम धड़फड़ा गए, फैमली (पत्नी), बगलवाली (वो), हमरा हौं चाहीं, भितरगुन्ना, लतखोर, भुईयां में बैठ जाओ, मैया गे, काहे दाँत चियार रहे हो, गोर बहुत टटा रहा है, का हीत (हित), निंबुआ दू चार गो मिरची लटका ला चोटी में, भतार (पति शायद), फोडिंग द कापाड़ एंड भागिंग खेते-खेते, मुझौसा, गुलकोंच(ग्लूकोज़)।"

कुछ शब्दों को आक्सफोर्ड डिक्शनरी ने भी चुरा लिया है। और कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ इन शब्दों को अपनें ब्रांड के रूप में भी यूज़ कर रही हैं। मसलन -


- देखलुक - मतलब "देखना" - देख --- लुक (Look)-

किनले - मतलब "ख़रीद" - KINLEY (Pepsi Mineral Water)-

पैलियो - मतलब "पाया" - Palio (Fiat's Car)-

गुच्ची - मतलब "छेद" - Gucci (Fashion Products)


अब बिहार में आपका नाम कैसे बदल जाता है उसकी भी एक बानगी देखिए। यह इस्टेब्लिस्ड कनवेंशन है कि आपके नाम के पीछे आ, या, वा लगाए बिना वो संपूर्ण नहीं है। मसलन....

राजीव - रज्जीवा-
सुशांत - सुशांतवा-
आशीष - अशीषवा-
राजू - रजुआ
रंजीत - रंजीतवा-
संजय - संजय्या-
अजय - अजय्या-
श्वेता - शवेताबा

कभी-कभी माँ-बाप बच्चे के नाम का सम्मान बचाने के लिए उसके पीछे जी लगा देते है। लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि उनके नाम सुरक्षित रह जाते हैं।-

मनीष जी - मनिषजीवा-
श्याम जी - शामजीवा-
राकेश जी - राकेशाजीवा

अब अपने टाईटिल की दुर्गति देखिए।-

सिंह जी - सिंह जीवा
झा जी - झौआ
मिश्रा - मिसरवा
राय जी - रायजीवा
मंडल - मंडलबा
तिवारी - तिवरिया
ठाकुर-ठकुरवा

ऐसे यही भाषा हमारी पहचान भी है और आठ करोड़ प्रवासी-अप्रवासी बिहारियों की जान भी। डिक्शनरी अभी भी अधूरी है। आप इसमें अपने शब्द जोड़कर और भी समृद्ध बना सकते है। तरीका बेहद आसान है। नीचे लिखे केमेंट्स पर क्लिक् करें। अपना संदेश लिखे....फिर अपने ज़ी-मेल आई-डी भरकर पब्लिश क्लिक कर दे।