Saturday, April 21, 2012

अमलतास, गुलमोहर, कचनार


लोगों को घर की याद आती होगी, घरवालों की याद आती होगी। याद आती होगी दोस्तों की, जो कहीं न कहीं नून-तेल-लकड़ी के जुगाड़ में व्यस्त होंगे। किन्ही-किन्ही महानुभावों को अपनी प्रेमिका या प्रेमिकाओं की याद आती होगी। नियति ने हाल ही में बड़ा झटका दिया है...इन सारी यादों से मैं भी गुज़रा हूं लेकिन आज मुझे बेतरह याद आ रही है एक पेड़ की।


हमारे आंगन में एक पेड़ था, कटहल का।

उस पेड़ को मैंने ही लगाया था। तब लगाया था जब हमारा आंगन इतना सिकुड़ा नहीं था।

धुपुर में, और हमारे आसपास के इलाके में शरीफे और कटहलों के बहुत सारे पेड़ होते हैं। ये बात और है कि जितने शरीफों के पेड़ हैं लोग उतने शरीफ रहे नहीं। वहां उनके फलने-फूलने के बहुत सारे औज़ार हैं। बहरहाल, बरसात के दिन थे और हमारे किसी जानने वाले ने एक कटहल भिजवाया था, पका हुआ।

खूब सोंधी-सोंधी ख़ुशबू आ रही थी उसमें से। हमने उसके एक बीज को गमले में यो ही ऱोप दिया। स्कूल से आकर तकरीबन रोज ही हम उस रोपी जगह पर देखते कि शायद कहीं कोई कोई हरापन दिख जाए। बचपन से ही आशावादी रहा हूं।

क दिन जब बरसात धारासार हो रही थी, और हम भींगते हुए स्कूल से आए, तो  देखा कि गमले में एक करीब दो इंच ऊंचा हरा-सा, लौंडा-सा चंट अंकुर सीना तान कर खड़ा है। उसे शायद मेरा ही इंतजार था। दो नन्हें-नन्हें पत्ते..और एकदम तुनुक पतली हरी डंडी जो जमीन में जा गड़ी थी।

दसेक दिन बाद हमने उस थोड़े मज़बूत हो चुके अंकुर को सलीके से मिट्टी समेत उखाड़ कर ज़मीन में लगा दिया। छोटा-सा अंकुर नर्सरी से केजी में आ गया।  दाखिला कामयाब रहा था।

म सातवी में थे, पौधा नर्सरी में। उम्र में भी करीब ग्यारह साल का फ़र्क था। लेकिन पौधे को थोड़ी देखभाल मिली और थोड़ा गोबर वाला खाद कि बस..एक साल में ही वह मेरे घुटनों तक पहुंच गया। उस समय तक मैं उसके पत्ते भी गिनने लगा था। सूखी पत्तियों को कैंची से अलग कर देता। बिलकुल नए ललछौंह पत्तियों को किसी को छूने न देता।

सके अगल बगल से निकल रही शाखाओं को मैंने कुतर दिया, ताकि पेड़ सीधा बढ़े। और भाई साब, पेड़ ऐसा बढ़ा कि जब मैं दसवीं में पहुंचा वो मेरे सिर के ऊपर पहुंच गया। ग्यारहवीं में पढने अपने क़स्बेनुमा शहर से बाहर निकल गया। वापस आता था, तो पेड़ और तन गया होता था। मैं तो खैर लहीम-शहीम था लेकिन पेड़ गबरु जवान की तरह बढ़ा। फिर वह इतना मजबूत हो गया कि मैं उसकी डालियों पर चढ़ कर हवा से बातें करता।

कटहल का वो पेड़ फला भी, और खूब फला। खूब स्वादिष्ट।

मां ने पड़ोसियों को खूब भिजवाए, उपहार में।

लेकिन जब हम बढे, तो पेड़ के लिए जगह कम पड़ने लगी। मकान का विस्तार करने की बात की जा रही थी, लेकिन घर का आकार सिकुड़ने वाला था। कमरे बढ़ने वाले थे..आंगन का आंचल छोटा करके।

मेरे तमाम विरोधों के बावजूद मेरे दोस्त का सीना छलनी कर दिया गया। मैं नाराज होकर हॉस्टल वापस चला गया। लेकिन मेरे नाराज होने का तब भी किसी पर कोई असर नहीं पड़ा, आज भी नही पड़ता है।

रे पत्ते सझली चाची नाम की पड़ोसन ले गईं, अपनी बकरियों को खिलाने। लकड़ी से भैया ने खिड़की-दरवाजों के चौखट-पल्ले बनवा लिए। मेरा दोस्त आज भी मौजूद है अपने उस रुप में..मेरे घर में।

बहरहाल, उसी दिन मैंने प्रण लिया कि अपने इसी पेड़ दोस्त की याद में अपने शहर से सटी पहाड़ी को गोद लूंगा। उसे भी लोगों ने उजाड़ कर रख दिया है। उस पहाड़ी पर भटकटैया, धतूरे, नागफ़नी, और तमाम ऐसे पौधे लगाऊंगा जो अनाथ हैं। जिन्हे कोई नहीं पूछता। साथ ही वहां गुलमोहर भी होगा, अमलतास भी, कचनार भी, पलाश भी..सारे देशी पौधे। गुड़हल या अड़हुल, सदाबहार, हरसिंगार के जंगल भी होंगे।

सिर्फ फूलों के पेड़..फलों के नहीं। फलों के पेड़ों को लेकर स्वामित्व का झगड़ा खडा हो जाता है।

सोचा है एक वहां एक तालाब भी बनाऊं, जहां देशी कमलिनियां हों, जिसे लिलि कहते हैं।

पूरी पहाड़ी पर फल का सिर्फ एक पेड़ होगा...कटहल का...सबसे ऊंची जगह पर। जिसे कोई घर बनाने के लिए काट नहीं पाएगा।

कविताः दरमियां

कहते हैं यह मुक़द्दर का ढकोसला है,
जो हमारे दर्मियां फ़ासला है।

न कहीं तुम हो,
न कहीं मैं हूं
ना कहीं कोई कारवां है।

कुछ नहीं है।

लगता है ऐसा कि
मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।
जो भी था,
ज़ाया कर चुका हूं
जिंदगी नोनी की तरह
मुझको खा चुकी है।

आहिस्ता-आहिस्ता
चौकड़ी उठ गई है
शराब की वो बोतल हूं मैं
जो पी जा चुकी है।

(ऩोनी- मिट्टी का नमक जो ईंट को खराब कर देता है)

Thursday, April 19, 2012

पॉर्न ह्रीं श्रीं स्वाहा:!

पॉर्न देखना राजमार्गी तंत्र साधना का अंग लगता है। पॉर्न ह्रीं श्रीं स्वाहा:! कुछ दिनों पहले जब फेसबुक पर यह स्टेटस डाला था तो लोगों को कुछ मजेदार-सा लगा था। नहीं, इसमें मज़ेदार कुछ नहीं। इसमें गहरा धक्का लगता है लोगों को।

भारत जैसे देश में जहां हिपोक्रेसी की अद्भुत परंपरा है, जहां सेक्स एक वर्जना है। जहां परदा करना जरुरी है, जहां सगोत्रीय विवाह करना मौत को दावत देना है...वहां की आबादी 122 करोड़ पार कर जाती है तो ऐसा लगता है कि हमने सारी की सारी आबादी इंटरनेट से डाउनलोड की है।

वैसे भी खजुराहो के देश में सेक्स स्कैंडलों की एक महान परंपरा और थाती रही है। हमें गर्व है कि हमारे नेताओं की-उनकी जिनके बारे में खुलासा हो चुका है--यौन पिपासा भी कुछ वैसी है, जैसी सार्वजिनक शौचालयों में नर-मादा जननांगो की तस्वीर बनाने वालो की होती है।

कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि नेताओं का ऐसा कृत्य लोकतंत्र को शर्मसार करता है। ऐ बुरा सोचने वालों, जरा ये सोचो कि आखिर हमारे इन नेताओं ने फिल्मों के लिए कितना कहानियां मुहैया कराई हैं। याद है मधुमिता की सेक्स सीडी...बेचारी को जान से हाथ धोना पड़ा। कवयित्री अच्छी थी लेकिन अमर रहें मणि।

एक उत्तरी सूबे के मुख्यमंत्री और दक्षिणी राज्य के राज्यपाल ने भी स्कैंडलों के लिए काफी योगदान किया है। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता को तो डीएनए परीक्षण के लिए भी ललकारा गया है, उनके पुत्र भी अपने जैविक पिता से आंख से आंख मिलाकर देखना चाहते हैं। बुरा हो उस तेलुगू चैनल का, जिसने न जाने क्यों, खबर मानते हुए, या सनसनी मानते हुए या महज पंडिज्जी के खिलाफ फसक में उस सीडी का प्रसारण कर दिया जिसके बाद महामहिम को पद छोड़ देना पड़ा। हत्। कोई निजता को भी ऐसे प्रसारित करता है क्या -)

सेक्स सीडियों की अमर कथा में अगर भंवरी देवी के बवंडर को शामिल न करें तो यह पुराण अधूरा रहेगा।

लेकिन यह न मानिए गा कि ऐसी सीडियों को लेकर सिर्फ कांग्रेस ही विश्वप्रसिद्ध है। हिंदुत्व की रक्षक भारतीय जनता पार्टी के नेता थे एक । नाम उनका वही था जो धृतराष्ट्र के मंत्री का था जो उन्हें युद्ध का आँखों-देखा हाल बताते थे। याद आया..अरे संजय जोशी। मामला कहां है पता नहीं। शायद बेदाग छूट गए हों...आखिर आरोप बेदाग छूटने के लिए ही लगाए जाते हैं।

सुना तो यही है कि आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या के पीछे भी कुछ लोकतंत्र के रक्षक ही हैं। दोस्त लोग बता रहे हैं कि हाल ही में एक बड़े नेता भी राजमार्गी तंत्रसाधना में पोर्न की पुष्पांजलि देते रेकॉर्ड कर लिए गए हैं।

वैसे असली कमाल तो बीजेपी के नेताओं ने कर्नाटक और गुजरात में किया । हिंदुत्व की रक्षा में तैनात इन नेताओं ने मंत्रजाप करते हुए भैरवी साधना ठान ली। अब मौबाईल पर पॉर्न क्लिप देखना इतना बड़ा गुनाह तो नहीं। आखिर वो वयस्क भी थे और क्या कहा...विधानसभा की मर्यादा? ये क्या होता है...कम से कम कुरसियां और माइक तो नहीं तोड़ रहे थे. एक दूसरे को पीट तो नहीं रहे थे...शांति से बैठकर पॉर्न ही तो देख रहे थे।


असली समस्या तो तब होती है जब कोई फेसबुक वगैरह पर किसी सरकार के सदस्य के बारे में कार्टून वगैरह बना दे। कभी नौकरी पर बन आती है तो कभी इंटरनेट को ही बैन कर देने की बात शुरु हो जाती है। अच्छा है, पॉर्न देखने और उसमें बतौर कलाकार हिस्सा लेने का अधिकार तो महज नेताओं और अधिकारियों को ही है। आम जनता तो रोटी की चिन्ता करे, मंहगाई, पेट्रोल की कीमतों के गम में डूबी रहे। उसे पॉर्न की चिंता न ही करनी चाहिए।

पॉर्न आधुनिक राजमार्गी तंत्र साधना का अंग है। पॉर्न ह्रीं श्रीं स्वाहा:!

Tuesday, April 17, 2012

अथ कॉकरोच (प्रेम) कथा

एक कॉकरोच था। लोग कहते थे कि बहुत अच्छा कॉकरोच था। कॉकरोच को किसी का इंतजार था। कॉकरोच के साथ दिक़्क़त ये थी उसे किसी बाबा ने ये कन्विन्श कर दिया कि पिछले कई जन्मों से उसकी सोलमेट उसे खोज रही है। उस दिन से कॉकरोच को हमेशा से उस कॉकरोच(नी) की तलाश रहती। जिसकी आंखों में वह खो जाए, जिसे वह देखता ही रह जाए। जिसका रंग उसके गहरे कत्थई रंगो से मिल जाए, जिसकी सूंढ़ उसी की तरह हो...मतलब कॉकरोच अपने पंख फड़फड़ाता प्यारमय हो गया।

प्लीज इसको आम आदमी न समझे, यह कॉकरोच ही है
ऐसा नहीं था कि कॉकरोच हमेशा कॉकरोच ही था। पिछले जन्म में फतिंगा था और उसे एक मेंढकी से प्यार हो गया था। मेंढकी ने प्यार से उसे किस करने के लिए जीभ निकाली और कहा प्यारे मेरी भूख तो मिटा दो। मेरे लिए प्लीज अपनी जान दे दो। उस वक्त फतिंगे रहे अपने कॉकरोच ने विरोध नहीं किया और उसे फतिंगा जन्म से मुक्ति मिल गई। उससे पिछले जन्म में अपने कॉकरोच महोदय ग्रासहॉपर थे। वहां भी उऩ्हें प्यार की राह में जान देनी पड़ी थी।


अपना ये कॉकरोच, यूं ही कॉकरोच नहीं बन गया था। उसके धर्म के पंडित बताते थे कि 84 लाख योनियों के बाद उसे कॉकरोच की यह पवित्र नस्ल मिली है। कॉकरोच शास्त्र के पंडित जोर देते कि उसे एक अच्छा कॉकरोच बनना चाहिए। मंगलवार को, गुरुवार को और शनिवार को नियमतः कीड़े-मकोड़ों का शिकार नहीं करना चाहिए।

कॉकरोच सूंढ़ हिलाता रह जाता। बचपन से उसे बस्ती के सारे कॉकरोच तिलचटवा (तिलचट्टे का लोकल रुप) कह कर बुलाते। कॉकरोच की कुछ महत्वाकांक्षाएं थी, लेकिन जब से टीवी पर दिखने वाले बाबाओं ने उसे पूर्वजन्म का प्यासा पतक बता दिया था उसकी भूख प्यास सब मर गई थी। पहले तो गंदी बस्ती के तिलचट्टे के रुप में वह चूना और सीमेंट छोड़कर सब कुछ चट कर जाता था लेकिन अब उसे कुछ भी नहीं भाता था।

कॉकरोच को पता नहीं क्या तलाश थी। वह पता नहीं क्या कुरेदता रहता। उन दिनों जब नीली पगड़ी वालों ने यह घोषित कर दिया कि शहरी कॉकरोच 32 रुपये खर्च करें और गंवई कॉकरोच 26 रुपये खर्च करें तो वह गरीबी रेखा के ऊपर माने जाएँगे तब से उसके आत्मविश्वास में बहुत बढोत्तरी हुई थी।

कॉकरोच अब हमेशा आलमारियों के कोनों में छिपा नहीं रहता था। न ही कागजो़ के कोने कुतरता रहता, अब वह सिर्फ सरकारी श्वेत पत्र खाता, अब वह सिर्फ कत्थई-भूरी फाइलें चबाता। उसे लगता कि कॉकरोच बस्ती का विकास फाइलें चबाने वाली पीढी के विकास से ही होगा।

जिस घर के एक किचन के आलमारी के पल्लों अंधेरे कोनों में वह छिपा रहता, उस की मालकिन को उसने पहली बार देखा। वरना पहले यूं होता कि वह ब्लडी इंसानों की आहट से ही छिप जाता था। लेकिन अब उसने देखा कि वह लड़की उसी को देख रही थी। लड़की इंसान थी अर्थात् मानवी थी, वह कॉकरोच था. लेकिन जैसा मुच्छड़ बाबा ने टीवी पर उसे ज्ञान दिया कि अमुक मंगल को सुबह इतने बजे से इतने बजे राहुकालम् के बाद जो दिखे उसी को अपना सोलमेट मानना।

कॉकरोच ने समझा यही लड़की मनुष्य वेश में उसकी सोलमेट है। लड़की भी कछ देर तक उसे देखती रही, घूरती रही। फिर चीख मार कर भाग गई। पता नहीं मनुष्य योनि की लड़कियां कॉकरोचों को देखकर इतना क्यों चीखती हैं।

फिर पता नहीं, कहां से काले रंग का बेलना कार यंत्र ले आई। उसमें से कुछ छिड़का...वह पता नहीं कैसा हिट था। कॉकरोच का दम घुटने लगा और जल्दी ही कॉकरोच के आठों पैर ऊपर और पीठ नीचे हो गया। कॉकरोच प्यार के नाम कुर्बान हो गया।

कॉकरोच पुलिस ने कहा, एक आतंकवादी मारा गया। गृह मंत्री ने बयान दिया कि यह कॉकरोच दरअसल इतालवी सैलानियों को अगवा करने वाले नक्सली का एरिया कमांडर था। एनजीओ वगैरह ने इसे भूख से हुई मौत करार दिया तो सिविल सोसायटी वालों ने इसके लिए जन लोकपाल लाने की मांग कर दी।

सिर्फ कॉकरोच ही जानता था कि उसकी डेस्टिनी यही थी। वह जानता था कि बड़े नेताओं ने जब भी ट्रिस्ट विद डेस्टिनी यानी नियति से वायदा किया तो उनके जेह्न में अपने परिवार की नियति का वायदा था और उनने कॉकरोचों की नियति के बारे में कुछ भी नहीं सोचा था। लिटरली, कुछ भी नहीं। सिर्फ कॉकरोच जानता था और कॉकरोच की आत्मा (पता नही उसके शरीर के किस हिस्से में थी) जानती थी कॉकरोच प्यार की राह में शहीद एक और कॉकरोच है।

वह जानता था कि जब भी, कॉकरोचों का इतिहास लिखा जाएगा उसको को इतिहास की किसी भी किताब में फुटनोट लायक जगह भी नहीं मिलेगी।

Sunday, April 15, 2012

ज़िंदगी ख़िज़ा-ओ-बहार का फलसफ़ा है

पिछली बार जब मैंने जॅतो खाबने तॅतो मॅजा पाबेन लिखा तो लगा कुछ छूट-सा गया है। कई दिनों से सोच रहा था कि क्या जिंदगी और क्रिकेट के नियम एक ही हैं..? दोनों को एक ही तरह से लागू किया जा सकता है क्या? चार्ली चैप्लिन ने कहीं लिखा है कि, जिंदगी लॉन्ग शॉट में कॉमिडी और क्लोज शॉट में ट्रैजिडी है।

सुखांत और दुखांत, क्लोज शॉट और लॉन्ग शॉट...दुखों की अपनी-अपनी परिधियां हैं।

मेरे दुख का वृत्त कई बार बहुत बड़ा हो जाता है। कई बार दूसरों का दुख दुखी करता है, कई बार अपना निजी दुख व्यापक लगता है। लेकिन हेकड़ी यह है कि उन दुखों को लेकर कभी मन्नत नहीं मांगी।

याद आता है, बचपन में कई बार लगा कि चारों तरफ़ से घिर गया हूं। एक कविता के अंश हैं, कुछ उन्ही परिस्थितियों के लिएः

हमारी वादी में अब ख़िज़ां है
सभी दरख़्तों ने अपने पत्ते उतार फ़ेंके
किसी की आंखों में आने वाली हसीं दिनों की चमक नहीं है
किसी के चेहरे पर ज़िंदगी की रमक़ नहीं है

सभी ने शायद समझ लिया है
कि कल कोई मोजज़ा न होगा
कभी ये मौसम हरा न होगा
ये दिन जो अब है, तवीलतर है
कि हर दुआ अब के बेअसर है

(ख़िजां-पतझड़, रमक़- आभा, मोजज़ा-चमत्कार, तवीलतर-अत्यंत लंबा)

कई बार ऐसा लगता है कि जिंदगी का ये मोड़ कभी न सुधरे। कभी अच्चा मौसम आएगा ही नहीं। अँधेरे रास्ते, सूझती नहीं मंजिल...की तरह का।

महज ढाई साल का था तो पिताजी का निधन हो गया। सबसे बड़े भैया थे, जिनपर सारे घर का भार आ गया। चाचा और दायाद बांधवों जैसे रिश्तों के साथ बदकिस्मती ये है कि मौके पर धोखा देना कोई इनसे सीखे। गांव पर हमारे हिस्से की जमीन पर कब्जा कर लिया। इन मौकों पर ही दबी-सकुचाई रहनेवाली मां ने दिखा दिया कि वो लौह महिला हैं।

बड़े भैया 15 साल के ही थे महज उस वक़्त। गुल फैक्ट्री ( एक तरह का पाउडर होता है तंबाकू का) उसके डिब्बों पर लेबल लगाने लगे। मां को पेंशन  मिलना तीन साल बाद शुरु हुआ। इन तीन सालों ने और जो कुछ किया हो, बचपन छीन लिया हमारा। मुझसे 9 साल बड़ी मेरी बहन, और सात साल बड़े मेरे भाई..और मैं। घर में हमीं लोग रह जाते। घर के अहाते के ठीक सामने एक बड़ा पोखरा था। अहाते की दीवार और पोखरे के बीच इमली का बड़ा पेड़...घना..। अंधेरे में बाहर निकलते ही लगता कि कोई आके दबोच लेगा। भूत-प्रेत। इँसानों का डर तो पहले खत्म हो चुका था।

उस वक्त लगता था कि हमारा ये वक़्त, ये बुरा वक्त कभी खत्म नहीं होगा। अपने चाचाओं के व्यवहार ने मुझे बहुत धक्का पहुंचाया। छह-सात साल का होते न होते मुझे दुनियादारी की बहुत सी बातें समझ में आने लगीं। और यही वजह है कि मैं अपने भतीजों को वह प्यार देना चाहता हूं जो मैंने अपने चाचाओं से नहीं पाया।

हमारे आंगन में भी पेड़ों की कमी न थी। पिताजी को बागवानी का बहुत शौक़ था। आंगन में हरसिंगार के, नीम के, और आंता (एक तरह का फल जो शरीफे जैसा ही होता है) के दो बड़े पेड़ थे। इतने पेड़ थे कि अंधेरा डराने लायक तमाम आकृतियां बना देता।

मेरी दीदी हनुमान चालीसा पढ़ने लगती थीँ। बड़े भैया और मां पेंशन के लिए प्रायः पटना जाते। सरकारी बाबुओं का रवैया कुछ ऐसा कि उन्हें हमसे हमदर्दी तो खैर क्या होती, अड़ंगेबाजी के लिए बहाने मिल ही जाते। 

ऐसी परिस्थितियों में बहुत सी चीजों, संस्थाओं से विश्वास छीज गया। ईश्वर भी उन्हीं संस्थाओं में हैं। हालांकि उस वक्त तक मैं ईश्वर के खिलाफ़ गुस्से में था, बाद में विज्ञान का छात्र हुआ तो गुस्से की बजाय अविश्वास को तार्किक आधार मिले।

लेकिन, वक़्त बड़ा मरहम है। जिंदगी के उस फेज़ से हम निकले। हम अपनी राह पकड़ ली।

क्रिकेट का बड़ा शौक़ रहा था मेरे भैया को। उनको खेलते देखता था...। प्रतिभावान् क्रिकेटर थे। लेकिन 15 साल की उम्र अगर कमाना पड़े। पांच लोगों के पेट के आगे...कौन खेल को ध्यान देगा। लेकिन भैया भी और मैं भी क्रिकेट को जिंदगी की पाठशाला मानता हूं।

बुरे वक्त पर बाउंसरों के सामने डक करना हो या कमजोर गेंद पर चौका मारना, अपने ऑफ स्टंप का पता रखना हो या फील्डिंग सजाना...जिंदगी को कायदे से जीने का हर गुर क्रिकेट में है। लेकिन इस बारे में चर्चा फिर कभी...अभी तो अंत करुंगा इसी लाईन पर कि.--

मैं अब भी ये सोचता हूं
कोई तो होगा
गई बहारों के फूल कुछ, जिसके घर में होंगे
कोई तो होगा
मेरे ही जैसा
कि दूर के सब्ज़ाज़ार जिस की नज़र में होंगे

(सब्ज़ाज़ार- हरियाली)

Wednesday, April 11, 2012

भूकंप, सुनामी और बेनकाब हो गए चैनल

इंडोनेशिया में रिक्टर पैमान पर पहले 8.9 फिर सुधारकर 8.7 का भूकंप क्या आय़ा, टीवी पर मार्कन्डेय काटजू की टिप्पणी सच होती लगी। फिर सुनामी की चेतावनी भी आ गई। भूकंप के दौर में हड़कंप मचाने वाले चैनलों ने हाहाकार मचा दिया।
ऐसे होता है भूकंप का केंन्द्र, अधिकेन्द्र और फोकस। ज्यादा खतरा होता है फोकस पर


इंडिया टीवी, आजतक, ज़ी सब अपने-अपने तरीके से घुट्टी पिला रहे थे जनता को। सुनामी की घुट्टी। पहले तो भारत समेत 27 देशों में सुनामी की चेतावनी आई। सभी चैनलों ने सुनामी के विजुअल तलाशने शुरुकर दिए। आजतक ने अपने पुराने पैकेज का ग्राफिक्स उठाया, जिसमें कहा गया कि भूकंप का केन्द्र धरती के भीतर है। (अब उनको कौन बताए कि भूकंप का केन्द्र हमेशा धरती के नीचे  ही होता है।)

ज्यादातर चैनलों के रिपोर्टरों को रिक्टर पैमाने पर बढ़ते या घटते पॉइंट के लॉगरिथमिक वैल्यू का पता नहीं।

खैर इस आपाधापी में मेरे भौगोलिक ज्ञान में खास बढोत्तरी हुई। पहले तो कॉपरनिकस को गलत ठहराया इंडिया टीवी ने। एक एटलस के सहार ज्ञान बघारते हुए रोहित नाम के ज्ञानी रिपोर्टर ने कहा कि  धरती पूर्व से पश्चिम की तरफ घूमती है। इसे ज़बान फिसलने का मामला माना जा सकता है। लेकिन जनाब ज़बान फिसलने ही क्यों दें। आखिर ज़र्नलिज्म को कुछ लोग जिम्मेदारी काम मानते थे और इस गलतफहमी में मेरा बुरी तरह यकीन है।

दूसरा बड़ा ज्ञान मिला कि इंडिरा पॉइंट तमिलनाडु में कन्याकुमारी के नीचे हैं। जब हम पांचवी में पढ़ते थे तो सरकार स्कूल में हमें बताया गया था कि भारत का दक्षिणतम बिंदु इंदिरा पॉइंट है, जो कि अँडमान निकोबार द्वीप समूह में है।

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत भी पढ़ा है हमने। सबसे तेज़ चैनल ने प्लेटों की गति इतनी तेज कर दी कि इंदिरा पॉइंट सरकता हुआ नहीं, बहता हुआ तमिलनाडु तट पर आ लगा। बाजाप्ता चैनल ने इसे ग्राफिक्स के जरिए दिखाया भी। लाल बिंदु से। अरुण पुरी किसी से जवाबतलब करेंगे? नहीं करेंगे। तेजी मे ऐसी गलतियां हो जाती हैं.। माफी मांगने की भी जरुरत नहीं।

क्यों मांगे माफी। चैनल किसी दर्शक के प्रति जिम्मेदार तो है नहीँ। डीडी ने ऐसा कोई कदम उठाया ही नहीं। काहे सरदर्द लिया जाए। जब तक ग्राफिक्स बने उससे पहले सारा नटखेला खत्म। चेतावनी वापस ले ली गई। दुनिया में सच में भी बरबादी आ जाए तो आ जाए, डीडी अपने क्यूशीट (तयशुदा प्रोग्राम) से हट नहीं सकता। खेल समाचार चल रहा था उस वक्त। खेल समाचारवाचक अनिल टॉमस एक क्लूलेस भूकंप के बारे में पूछते नजर आ रहे थे।

ऐसी ही घटनाएँ होती हैं, जो कम से कम टीवी रिपोर्टिंग के बारे में न्यायमूर्ति मार्केंडेय काटजू को सच साबित करती है। ज्यादातर रिपोर्टर सतही रिपोर्टिंग करते हैं। अब आप बाकी की खबरों के बारे में भी ऐसा ही पैमान तय कर लें तो पता लग जाएगा कि भारत में टीवी  में कैसे अनपढ़ लोग रिपोर्टिग कर रहे हैं।

एक और नजारा जो हर बारिश के बाद आता है वो ये कि देश में कही भी बारिश हो, लेकिन ज्यादातर मामलों में दिल्ली में-तो हर रिपोर्टर का एक ही तर्क होता है। पश्चिमी विक्षोभ। जुलाई में बारिश हो तो पश्चिमी विक्षोभ और जनवरी में तो भी पश्चिमी विक्षोभ और अप्रैल में हो तो भी पश्चिमी विक्षोभ। न फूलो की बारिश का पता न मैंगो शावर का।

हर रिपोर्टर या कोई रिपोर्टर जरुरी नहीं कि भूगोल का जानकार हो, लेकिन जिस विषय पर आप बोल रहे हों, उसकी बेसिक्स तो पता हो। ये तो नहीं कि आप अफगानिस्तान की राजधानी उलानबटोर बोल दें और कवर करते रहें विदेश मामले। या रणवीर सेना को और नक्सलियों को एक ही बताकर गृह मंत्रालय की बीट कवर करते रहें।

सुना है चैनलों ने जब तक सुनामी के विजुअल न मिले जापान वाली सुनामी और अंडमान वाली सुनामी के शॉट्स दिखाने का फैसला कर लिया था। वक्त है अब टीवी के लिए कि परिपक्व हुआ जाए। वरना रही सही क्रेडिबिलिटी की भी मदर-सिस्टर हो जाएगी।

Sunday, April 8, 2012

निर्मल बाबा का सच

कई बाबाओं को धंधा जमाते देखा, निर्मल बाबा एकदम तेज-तर्रार निकले। लंबे घुंघराले बालों, बड़ी दाढियों और टकले बाबाओं को भी वक्त लगा था। लेकिन निर्मल बाबा अचानक नेपथ्य से निकल कर दुखियों के तारनहार हो गए।

निर्मल बाबा, नए बाबा जिनकी तूती है, लेकिन शक है उनकी ताकत पर
लेकिन निर्मल बाबा को जानना बहुत जरुरी है। आखिर, मन्नतें पूरी करने की नई तकनीक खोजने वाले को जानना ही चाहिए। पति नहीं पसंद करता, ब्युटी पार्लर जाओ। गर्लफ्रेंड भाव नहीं देती या है नहीं, फेसबुक पर अकाउंट खोलो। या तो निर्मल बाबा स्वयं भगवान हैं, जो हो नहीं सकते या पब्लिक को वही बना रहे हैं, जो पब्लिक बनते रहना चाहती है।

भक्तजनों, निर्मल बाबा मूल रूप से झारखण्ड का रहनेवाले हैं। निर्मल बाबा भले ही धर्म की धंधेबाजी के कारण अब चर्चा में आ रहे हों लेकिन फेसबुक पर अपडेट किए सुशील गंगवार नाम के मित्र की अद्यतन जानकारी के मुताबिक, निर्मल बाबा के एक रिश्तेदार झारखण्ड के रसूखदार नेताओं में गिने जाते हैं। निर्मल सिंह इन्हीं इंदर सिंह नामधारी के सगे साले हैं। यानी नामधारी की पत्नी मलविन्दर कौर के सगे भाई।

गंगवार आगे लिखते हैं, कि "
निर्मल बाबा का असली नाम है निर्मलजीत सिंहनरुला इसने जनता को चमत्कार दिखा-दिखा कर अकूत दौलत इकट्ठी कर ली है। इसे आप अगर ठगी कहें, (मैं तो कहता ही हूं) तो इसी ठगी से कमाई दौलत से दिल्ली के पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश के ई ब्लॉक मे चार सौ करोड का बंगला खरीदा है।"

निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा पहुंचे नामधारी झारखण्ड के दो बार विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उनके सामने निर्मल का नाम लेने पर कई राज खुलते हैं। मीडिया दरबार के संचालक धीरज भारद्वाज निर्मल बाबा की खोजबीन के दौरान नामधारी से संपर्क करने में कामयाब हो गये और नामधारी ने भी बिना लाग-लपेट के स्वीकार कर लिया कि वह उनका सगा साला है, लेकिन उसका जो कुछ भी काला है उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। इंदर सिंह नामधारी कहते हैं कि वे खुद कई बार निर्मल को सलाह दे चुके हैं कि वह लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ न करे, लेकिन वह सुनता नहीं है।

नामधारी स्वीकार करते हैं कि शुरुआती दिनों में वे खुद निर्मल को अपना करिअर संवारने में खासी मदद कर चुके हैं। धीरज भारद्वाज से बात करते हुए उन्होंने बताया कि उनके ससुर यानी निर्मल के पिता दिलीप सिंह बग्गा का काफी पहले देहांत हो चुका है और वे बेसहारा हुए निर्मल की मदद करने के लिए उसे अपने पास ले आए थे। निर्मल को कई छोटे-बड़े धंधों में सफलता नहीं मिली तो वह बाबा बन गया।

जब धीरज भारद्वाज ने नामधारी से निर्मल बाबा के विचारों और चमत्कारों के बारे में पूछा तो उन्होंने साफ कहा कि वे इससे जरा भी इत्तेफाक़ नहीं रखते। उन्होंने कहा कि वे विज्ञान के छात्र रहे हैं तथा इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी कर चुके हैं इसलिए ऐसे किसी भी चमत्कार पर भरोसा नहीं करते। इसके अलावा उनका धर्म भी इस तरह की बातें मानने का पक्षधर नहीं है।

सिख धर्म के धर्मग्रथों में तो साफ कहा गया है कि करामात कहर का नाम है। इसका मतलब हुआ कि जो भी करामात कर अपनी शक्तियां दिखाने की कोशिश करता है वो धर्म के खिलाफ़ काम कर रहा है। निर्मल को मैंने कई दफ़ा ये बात समझाने की कोशिश भी की, लेकिन उसका लक्ष्य कुछ और ही है। मैं क्या कर सकता हूं?” नामधारी ने सवाल किया।

उन्होंने माना कि निर्मल अपने तथाकथित चमत्कारों से जनता से पैसे वसूलने के गलत खेलमें लगे हुए हैं जो विज्ञान और धर्म किसी भी कसौटी पर जायज़ नही ठहराया जा सकता।


(फेसबुक पर सुशील गंगवार के इनपुट्स के साथ)

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Friday, April 6, 2012

जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...

हम जब बहुत छोटे थे, हमारे शहर में एक मौलवी साहब हाजमा-चूरन बेचा करते। इंजेक्शन वाली छोटी शीशी में रबर का डॉट लगा होता, अंदर काले रंग का गीला सा पदार्थ।  दोपहर की धूप में जब हम घर के कोनों में दुबके होते, या स्कूली दिनों में टिफिन का वक़्त होता ,तो उनकी जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई देती। 

बारह रकॅम जड़ी-बूटी, तेरह रकॅम स्वाद, जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...बारह तरह की जड़ी-बूटियां तेरह तरह का स्वाद, जितना खाएंगे उतना मजा पाएंगे। अठन्नी की शीशी खरीद ली जाती...कनिष्ठा उंगली से निकाल कर जब हाजमे का गीला पाउडर खाते, तो तमाम किस्म के स्वाद मुंह में भर आते। 

कभी अज़वाइन, कभी काला नमक, कभी हल्की मिठास...अब गूंगे की तरह उस स्वाद को बताने में खुद को नाकाम पा रहा हूं। 

जिंदगी भी कुछ हाजमे की चूरन सी हो गई है...जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...। जितना आगे बढ़ता हूं, उतना इसके स्वाद से परिचित होता जाता हूं। कभी करेले सा, कभी काले नमक सरीखा...कभी मिठास तो कभी गुदगुदा स्वाद जिसके लिए मन के जीभ की तमाम स्वादेन्द्रियां ही नहीं, देह की तमाम ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय हो जाती हैं।

जिंदगी है...बताया ना जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...। किसी को आप खोजते रहते हैं...खोजते रहते हैं..वह नहीं मिलता। एक दिन अचानक आप पाते हैं कि जिसे आप तमाम दुनिया में खोज कर अधमरे से हो गए आपका वही दोस्त आपका इंतजार कर रहा है। 

रुठना-मनाना, झगड़े...आंखे तरेरना। बिला वजह। आपने कहा, किताब दो, वो बिदक जाएगा। लेकर आया तो था चलो नहीं देता। काहे। मेरी मर्जी। आज भी नहीं और कभी भी नहीं। आपने कहा, वजह तो बताओ, वो कहेगा चल बे, नहीं बताता। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं-कीप गेसिंग। आप अंदाजा लगाते रह जाते हैं। 

जिंदगी का रवैया कुछ ऐसा ही है। जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...

जिंदगी किसी लड़की की तरह व्यवहार करने लग जाती है। आपने गलती से आनंद बक्षी का गीत गा दिया, मौत महबूबा है वाला। फिर देखिए मजा। जिंदगी कहेगी जा बे मौत के हवाले ही जा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में खो जा। 

आप विकल्पहीन...न आपके पास कोई जवाब..न कोई हल। जिंदगी का रुठना आपके लिए खुशियों का टोटा ले आेगा।

आपने कहा आप नास्तिक हैं। जिंदगी कहेगी ईश्वर को कोई कैसे नहीं मान सकता। आप कहेंगे, चलो ठीक है...जिंदगी अकड़ेगी, सब कुछ किस्मत से होता है।

वक्त से लड़ते-लड़ते आप इतने दीन हो जाते हैं कि एक चिकने पत्थर  की तरह..कोई पानी की बूंद नहीं टिकती। जिंदगी सवाल पूछेगी, जैसा मैंने सोचा था, जैसा मैंने तुम्हे बनाना चाहा था, जैसी मेरी  उम्मीद थी..तुम वैसे नहीं। जिंदगी से कोई लड़ सका है आज तक ...जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...।

पेट खाली है, जिंदगी का हाजमा क्या पचाने के लिए खाया जाए। किसी ने कहा था जिसे आप खोजना चाहते हैं जीवन चाहे तो वो आपको खोज लेगा। भीड़ में से जिंदगी ने मुझे खोज निकाला। लेकिन बैंगन चालीस रुपये किलो, खाने का तेल एक सौ पचीस के, खाने लायक चावल तीस रुपये किलो के ऊपर। जीवन ने हमारे हिस्से टूटा बासमती ही छोड़ा। हमारे इलाके में इसको खुद्दी (टूटे चावल) खाना कहते हैं। 

जिंदगी क्या-क्या रंग दिखाती है। विद्यापति का एक पद है। मैथिली में हैं। हमारे इलाकाई गायक हेमकांत बड़े कारुणिक ढंग से गाते हैं..भोलानाथ कखन हरब दुख मोर  (भोलेनाथ मेरा दुख कब हरोगे) बाद में नागार्जुन जी ने लिखा, बांसअक ओइधि उपारि करै छी जारैन..हमर दिन की नहिं फिरतई ..हे जगतारैन। बांस की जड़ उखाड़कर उसे जलावन बनाकर इस्तेमाल कर रहा हूं...हे जगदंबे मेरे दिन कब बहुरेंगे।

ईश्वर में भरोसा न करने वाले को कीर्तन याद आ रहा है। जिंदगी क्या क्या मजा दिलाती है जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...

मजाकों, ठहाको, उल्लासों, आईपीएल, जीतों, विजयों, टीवी की चमक-दमक, सिनेमा के रुपहले परदे...और भी न जाने क्या-क्या। इनके बीच मेरे जीवन का एक पक्ष हाजमे के चूरन की तरह धूसर या शायद काला है। बचपन की कड़वी यादें हैं, जवानी में संघर्ष के दिन हैं...सपने हैं जो धीरे-धीरे मटमैले होते गए...वक्त की बारिश में जिनकी रंगत उतरती गई...संघर्ष के तूफान में जिनके कोने झड़ते गए...

कई बार सोचा कि कोई हो जो इन तूफानों में मेरे साथ, मेरी तरह सोचने के लिए हो। लेकिन जिंदगी ने साथ आने से पहले शर्ते लागू वाला सितारा चस्पां कर दिया। जीवन में शर्ते लागू हैं।

किसी ने कहा था जीवन में किताबों का बड़ा सहारा होता है, जीवन के इस सवाल का किसी किताब में उत्तर नहीं। देश में तमाम किस्म की घटनाएं घट रही है, सेना और सरकार में द्वंद्व है, भूख है, गरीबी है, बेरोजगारी है, मंदी है...पेड न्यूज़ हैं, उड़ीसा से लेकर कश्मीर तक और गुजरात से तमिलनाडु तक अपने-अपने जॅतो खाबेन तॅतो मॅजा पाबेन...का मामला है। 

 इन दुखों के बीच मेरे दुख की क्या गिनती है।