Wednesday, April 30, 2008

मिस्ड कॉल

आधी रात के बाद
रात की ड्यूटी से घर लौटता
अपने मोबाईल पर
देखता हूं जब
एक मिल्ड कॉल,
जिस पर चस्पां होता है, नाम तुम्हारा
तो...
यकीं होता है
कि ऊंघ रहे शहर में,
जहां घूम रहा हूं मैं बरहना-पा,
चाय-काफी की बदौलत,
जबरिया जाग रहे लोग,
एक तुम हो
जो मिस कर रही हो मुझे...।

Saturday, April 26, 2008

साड़ी में चीयर गर्ल्स्

भईयन, अजब-गजब तमाशा हो रहा है आईपीएल में भी। भज्जी भैया ने श्रीसंत को लाफा मार दिया। बदले में संत समान श्रीसंत रो पड़े। ऐसा रोए कि भाई तुलसी मैया भी क्या रोती होंगी। गज़ब ये कि ग्लिसरीन की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। वितंडा हुआ। अख़बारों में लेख लिखे गए। युवराज का बयान आया। प्रीटी जिंटा ने दिलासा दिया। काश कोई हमें भी ऐसे ही थपड़ाता, तो कम से कम प्रीटी जैसी कमसिन, सुंदर, नाजुक, कन्या हमें भी दिलासा देती। ड्रेसिंग रुम में ले जाकर। मार खाने का भी नसीब होता है भाईयों, हम तो लप्पड़ के भी काबिल नहीं।

उधर एक और चोंचला देखने को मिला। लोग-बाग मैदान में लड़कियों के नाचने पर गुस्सा हो गए। शुद्धतावादियों को लगता है यह सब क्रिकेट के नाश के लिए हो रहा है। उनको कोई कहे कि भैये इससे क्रिकेट का विस्तार होगा। जो लोग क्रिकेट नहीं पसंद करते महज रास रंग में ही डूबे रहते हैं, वे बी क्रिकेट के वक्त टीवी खोल कर बैठेंगे। कन्याओं का उत्तम किस्म का नृत्य देखने। इस उम्मीद में कि कभी न कभी, कहीं न कहीं, तो इनमें से किसी का कपडा़ खिसक जाएगा। मुंबई वालों के दिल पर लगी है। वे कहते हैं कि हमने हल्ला करके बार बालाओं को डांसने से रोक दिया है। इनके नृत्य को जारी रहने दें, तो वोट का क्या होगा। सो उन्होंने कह दिया है डांस पूरे कपड़ों में हो,तभी जारी रहने दिया जाएगा। नैतिकता के पहरुओं को लगता है कि यह हमारे कल्चर पर हमला है। गुरु घंटालों, हमारे कल्चर पर ऐसे फतवेबाजी करने से पहले सोचो तो सही कि कोई रास्ता तो होगा.. डांस भी चलता रहे और हमारे कल्चर पर वल्चर की नज़र भी न लगे। साड़ी पहना दें चीयर्स गर्ल्स को? मजा़ आएगा? साडी मेंफुदकती लड़कियां, कल्चर भी सेफ, नाच भी चल रहाहै। मनोरंजन भी क्रिकेट नाम का खेल भी....।

लेकिन गुस्ताख़ को लगता है कि हमारे महान आदर्शों वाले देश में आंकड़े बताते हैं कि ब्लू फिल्मों की मांग सबसे ज्यादा क्यों है। सेक्स को निकृष्ट माननेवाला देश सौ करोड़ से अधिक की आबादी कहां से आयात कर लाया। आईपीएल बिज़नेस है, उसे फलने और फूलने दें। लोगों का आकर्षण कम हो जाएगा, और तब इस नाच की भी प्रासंगिकता खत्म हो जाएगी।
और हां, बात मुंबई की भी, यही वह जगह है जहां फिल्में सबसे ज़्यादा बनती हैं। इनमें हर तरह के नृत्य होते हैं। कथित नैतिकता के ठेकेदार इसपर ध्यान देंगे? और हां, इन फिल्म बनाने वालों में ठाकरे की बहू स्मिता भी हैं, जिनकी फिल्म सपूत में नायिकाओं ने साडि़यां नही पहनी थी। उन्होंने ज़ोरदार बिकनी दृश्य दिए थे, हमारी जेह्न में अब भी ताजा है वह तस्वीरें....। गुस्ताखी माफ.

Friday, April 25, 2008

एक कविता-

कोई नहीं पढ़ता,
चेहरे पर लिखे प्रेम के अक्षर
लगता है सारे हो गए हैं,
निरक्षर

Monday, April 21, 2008

आईपीएल और राहुल बाबा 2



राहुल बाबा नेहरु की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ यानी ‘भारत एक खोज’ लिखे जाने के तीन पीढ़ी और छह दशक बाद एक बार फिर ‘भारत की खोज’ कर रहे हैं। भारत को फिर से खोजने की योजना उनके जिन भी शुभचिंतक ने भी बनाई है यक़ीनन उनकी सोच में महात्मा गांधी नहीं रहे होंगे.

हवाई जहाज़ से उड़ीसा के पिछड़े-आदिवासी इलाक़े तक जाकर एसपीजी से घिरे राहुल गांधी यदि बैरिकेट के पार खड़े लोगों से हाथ मिला भी लें तो वे भारत को कितना समझ पाएँगे?

राहुल गांधी के मुँह से एक पते की बात फिसल गई है. राहुल बाबा ने कांग्रेस में हाईकमान या आलाकमान की परंपरा ख़त्म होनी चाहिए और पार्टी में भी लोकतंत्र दिखने की वकालत की है। पता नहीं राहुल गांधी कांग्रेस आलाकमान कहने से क्या समझते हैं लेकिन इस देश के ज़्यादातर लोग और सौ फीसद कांग्रेसी जानते-समझते हैं कि इसका मतलब गांधी परिवार होता है. यानी सोनिया गांधी और ख़ुद राहुल गांधी.

दस साल बीत गए जब कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी ने अपनी टोपी सोनिया गांधी के पैरों पर रखकर कहा था कि वे कांग्रेस की कमान संभाल लें.

तब से अब तक सोनिया गांधी ने कांग्रेस के लिए बहुत कुछ किया लेकिन आलाकमान की परंपरा को ख़त्म करने की कोशिश करती वे भी कभी नहीं दिखाई पड़ीं.


सार्वजनिक रुप से न उन्होंने ठकुरसुहाती बातों का प्रतिकार किया न दस जनपथ के सामने जुटने वाली चाटुकारों की भीड़ को रोका है। राज्यों में पार्टी के अध्यक्ष किस तरह बनाए जाते हैं और किस तरह बदले जाते हैं यह किसी से छिपा नहीं है. मुख्यमंत्रियों को विधायक नहीं दस जनपथ ही चुनता है.

जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने भाषण में कहते हैं कि राहुल गांधी भविष्य हैं तो इसका मतलब किसे समझ में नहीं आता? ऐसे में राहुल गांधी किससे कह रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी को बदलना चाहिए. अगर राहुल का उपनाम गांधी नहीं होता वे महज गोड्डा, भागलपुर या चिंकपोकली के सांसद होते तो क्या वे कांग्रेस के महासचिव बन पाते?


उत्तरप्रदेश और गुजरात में वे जमकर प्रचार करके देख ही चुके हैं कि अब गांधी परिवार के दर्शन में लोगों की भले ही दिलचस्पी बची हो, उन्हें वोट देने में उनकी रुचि ख़त्म हो चुकी है.

और ऐसा क्यों हुआ है इसके लिए भारत को जानना सच में ज़रुरी है लेकिन इस तरह नहीं जिस तरह से राहुल जानना चाहते हैं.

राहुल बाबा की सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ नेहरु-गांधी परिवार के नाम से चल रही संस्थाओं से अधिक नहीं हैं. ऐसे में वे भारत को कैसे जान सकेंगे?

अभी जो कुछ वे कहते, करते हैं उससे साफ़ दिखता है कि वे भारत को नहीं सत्ता पाने का शार्टकट जानना चाहते हैं.

लोकतांत्रिक भारत ने पिछले साठ सालों में जो कुछ हासिल किया है उसमें सबसे बड़ी उपलब्धि यह भी है कि मतदाता अब वोट पाने के शॉर्टकट को पहचानने लगा है. और यह सच राहुल गांधी को सबसे पहले समझना होगा.

और अच्छा होगा कि भारत की खोज में निकलने से पहले वे एक बार भारतीय राजनीति में अपने होने के सच को तलाश लें. और हां, हम पहले ही कह चुके हैं कि इडेन की लाईट की तरह भारतीय राजनीति में भी छद्म और
ओढे हुए नेताओं की बत्ती गुल हो सकती है।

आईपीएल और राहुल बाबा 1


कल कोलकाता नाइट राइडर्स और डेक्कन चार्जर्स के मैच में अपने देश के युवराज और भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी, प्रियंका और राब्रट वाड्रा मौजूद थे। क्रिकेटिया ड्रेस में खूब नाचे भी। देश की जनवता खुश हो गई। युवराज नाच रहे हैं, बहनोई और बहन के साथ नाच रहे हैं। शाहरुख और विजय माल्या प्रिटी और अक्षय की तरह नातच रहे हैं। साथ मं जनता को नचा रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले राहुल बुंदेलखंड में थे। पानी की बात कर रहे थे। बुंदेलखंड की प्यास बुझाने का तरीका खोजने के लिए ही राहुल ईडेन गार्डन में थे। हर चौके-छक्के के साथ विदेशी बालाओं के थिरकते नितंबों के बीच देश के विकास का चिंतन हो रहा था। धन्य हो, साधु-साधु।

राहुल गांधी ने दलितों की चिंता के लिए ईडेवन गार्डन चुना था। दलितों के बीच प्यार बांटने का उनका काम वंचित तबके की महिलाओं के साथ परांठे खाने मात्र से पूरा नहीं हुआ। इसके लिए और अधिक प्रोपेगैंडा की ज़रूरत थी। ये काम कमिश्नर के दफ्तर में धरने से भी पूरा नहीं हो सकता। आईपीएल इसके लिए सबसे मुफीद जगह है। चकाचौंध, ग्लैमर की बात हो, तो राहुल उसका फायदा न उठाएं य कैसे हो सकता है। उनके सलाहकारों ने उन्हे ईडेन जाने की ज़रूरत बताई। राहुल हर जगह छाना चाहते हैं, कोलंबिया से कोच्चि तक, लेकिन ईडेन में अचानक गुल हुई बत्ती से शायद उन्हे सबक मिले। राजनिति में भी बत्ती कभी भी गुल हो सकती है राहुल बाबा।

Saturday, April 19, 2008

रेगिस्तान में फंसने का सुख

अगर आप रेगिस्तान गए। उसमें फंसे नहीं। रेगिस्तानी रेत के असीम चादर पर फैली चांदनी का सागर नहीं निहारा तो क्या रेगिस्तान गए गुरु। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। बीकानेर से ४५ किलोमीटर पश्चिम की तरफ है गांव लाडेरा। हम जब लाडेरा के लिए निकले, तो राह में मिले मोरों के कुनबे। उन्हे कैमरे में क़ैद करने का लालच मैं रोक न पाया। जाड़ो में धूप तापते मोरों के झुंड बेहतरीन लग रहे थे।

बहरहाल, खानाबदोश परिवारो और दूर दूर बसे गांवो के बीच में से हम लाडेरा पहुंचे। वहां उंट महोत्सव का आयोजन किया जा रहा था। कार्यक्रम खत्म होते न होते, रात के साढे ग्यारह बज गए। साढे ग्यारह बजना दिल्ली के लिए कुछ न हो लेकिन गांव में यह बेहद रात होती है। बहरहाल, रेत के टीलों से घिरे उस रेगिस्तान में गाडि़यों का काफिला आहिस्ता-आहिस्ता रेग-रेगं कर निकलने लगा। हमारा ड्राइवर बेहद चालाक था, उसने कहा कि हम बाद में निकलेंगे। सरकारी गाडि़यां निकल लीं। लोग बाग भी कल्टी हो लिए। बच गए हम लोग, यानी हमारी पूरी टीम। बाद में जब गाड़ी निकालने की बारी आई, तो काफिले के निकलने की बजह से पैदा हुई रेतीली धंसान मे ंहमारी गाड़ी फस गई। चालाक ड्राईवर होने का खामियाजा कभी-कभी भुगतना पड़ता है। उसने गाड़ी निकालने की जो तरकीब लगाई, उससे गाड़ी के चारो पहिए रेत के अंदर चले गए।

वह िलाका सुनसान हो चुका था। विदेशी मेहमान चले गए थे। रात सवा बारह बजे वहां किसी का रुकना ठीक भी न था। चांदनी रात, चांद सिर पर। मुझे लगा कि जनवरी की इस कड़ाके की सरदी वाली रात, हम रेगिस्तान मे ठिठुरेंगे। अगर बच गए, तो कल की शूटिंग भी कर पाएंगे।

सारा रस निकल गया। थोड़ी देर पहले सवर्ग नज़र आ रहा रेगिस्तान का वह हिस्सा नरक लगने लगा। ऐसे मौके पर भूख भी लग आती है, प्यास की तो पूछिए ही मत। और भी कई तरह की शंकाएँ सर उठाने लगती हैँ। जूते के अंदर गया रेत पसीने से भींग कर ठिठुरन पैदा करने लगा, एक अजीब सी दशा। एक रिपोर्टर को इन सबका सामना करने की कूव्वत रखनी चाहिए, उपर से मैं सामान्य दिखने की कोशिश कर रहा था। ताकि मेरे बाकी के साथी भी हल्ला न करें। अपने तईं हमने गाडी़ को रेत से बाहर निकालने की कोशिश भी की। लेकिन अपने स्वास्थय को लेकर हमें कभी कोई मुगालता नहीं रहा है। ऐसे में गाड़ी रेत से नहीं निकलनी थी, नहीं निकली।

पर ईश्वर पर अनास्था रखने के बावजूद वह मुझ पर ऐसे मौको पर कृपालु रहा है। एक ट्कैर्टर आता दिखा। उस पर सवार कम-अज-कम पचीस लड़के। ट्रैक्टर को गाड़ी से बांधा गया। लड़कों ने ज़ोर लगाया। गाड़ी निकल आई। एवज में मालासर तक जाने वाले उन लड़कों को हमने वहां तक लिफ्ट दी। गाड़ी के अंदर तो जगह थी नहीं, छत पर। रात ढाई बजे वापस हम बीकानेर पहुंचे। अगले दो दिन तक घूम-घूमकर शूट करत रहे। अच्छा लगा। खूब बीकानेरी रसगुल्ले चाभे। मज़ा आया।

वापसी में जयपुर की राह में राजलदेसर नाम की जगह पर चाय के लिए रुके। गांव के चौधरी ने मीडिया के लोग कह कर अपने घर आने की दावत दी। चौधरी के घर पर चाय और पापड़ का नाश्ता हुआ। चौधरी ने महमें खाने का ऑफर दिया । हम भोजनभट्ट हैं और इससे इनकार नहीं कर पाए। खाने में आया, बाजरे की रोटी, सेव की सब्जी, राबरी गुड़ और छाछ। भाईसाहब मज़ा आ गया। यह भोजन मेरा अब तक का खाया सबसे शानदार खाना है। बाजरे की रोटी इतनी स्वादिष्ट भी हो सकती है, मैंने इसका अनुमान तक नहीं लगाया था कभी।

बहरहाल, तीन बजे दोपहर बाद हम जयपुर लौटे और शताब्दी से दिल्ली वापसी आ गया। अपने कार्यक्रम की पटकथा सोचता हुआ।

Tuesday, April 15, 2008

फोकटिया संस्कृति प्रेम

पिछले दिनों पटना में एक फिल्म समारोह का आयोजन किया गया। हमने सुना था कि पटना कभी सांसक्ृतिक रूप से बेहद समृद्ध हुा करता था। लेकिन फिल्म समारोह जैसा आयोजन महज तीसरी बार ही हो पाना .. थोड़ा निराशाजनक ही लगा। कई लोगों से बातचीत(बाईट) सुनने के बाद महसूस हुआ कि आखिर क्यों पटना जैसी पुरवैया जगह में ऐसे आयोजन नाकाम रहते हैं। एक मित्र यह शिकायत करते नजर आए कि उन्हें पास ही नहीं दिया गया। आखिर पास के लिए इतनी मारामारी क्यों? पटना का उदाहरण महज िसलिए दे रहा हूं कि यह वाकया मेरी नज़र के आगे से गुज़र गया. वरना पूरे देश में कमोबेश खासकर उत्तर बारत में फोकट में संस्कृतिकर्म करने का फैशन बड़े जोरो पर है।

लोगों की निगाह मुफ्त में शो देखने की ज्यादा होती है। कला-संस्कृति बीट पर रिपोर्टिंग करने की वजह से कई बार मुझे लोगों की मांग से दो-चार होना पड़ता है, मसलन कोई बड़ी शिद्दत से कहता है- यार मुझे हबीब के नाटक बड़े अच्छे लगते हैं। पास का जुगाड़ कर दो। अब ऐसे संस्कृति प्रेम पर तो दिल टूट जाता है। कल्चर की बखिया पहले ही उधेडी़ जा चुकी है। ऐसे प्यार से कल्चर का कुछ भला नहीं होगा।

Saturday, April 12, 2008

दस जनपथ का अंत न पाया

अरे दिल,

दस जनपथ का अंत न पाया, ज्‍यों आया त्‍यों जावैगा।।

सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्‍या क्‍या बीता।।

आगे सुरक्षा पाछैं सिपहिया, ट्रैफिक कैसै जावेगा ।

परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्‍यान न धरिया।।

दालौ महंगी, महंगी तरकारी, गाफिल गोता खावैगा।।

दास गुस्ताख़ कहैं समझाई, महंगाई में तेरा कौन सहाई।।

सब नेता थाली के बैंगन, क्या कॉंग्रेस क्या ही भाजपाई।

आधुनिक कबीर के पद

कुछ लेना न देना मगन रहना
अंगूर के सत्त का बना रस है, जाम-ए-बौले मेरी मैना
आइस क्यूब भी पैमाने में, देख सखी तू खोल दे नैना
गहरी नदिया नाव पुरानी, बार बाला से मिलते रहना
कहत कबीर सुनौ भई साधौ, कादो-कीच में लिपटे रहना

Monday, April 7, 2008

बीकानेर की करणी माता


हम बीकानेर से जोधपुर की ओर निकले तो 30 किलोमीटर के बाद हमें मिला एक क़स्बा, देशनोक। ये क़स्बा करणी माता के 6 सौ साल पुराने मंदिर के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इस मंदिर में एक खास बात है जिसने इसे दुनिया में अलग जगह खडा कर दिया है। वो है मंदिर में पाये जाने वाले हजारों चूहे।

करणी माता देवी दुर्गा की अवतार मानी जाती हैं लेकिन मंदिर की खासियत है कि यहां हज़ारों चूहे रहते हैं और उनकी पूजा की जाती है। मंदिर में मौजूद हज़ारों चूहे यहां-वहां बेरोकटोक घूमते रहते हैं। प्रसादों पर तो इन्हीं की कृपा होती है।

इस अनोखे मंदिर को देखने की दिलचस्पी देशी लोगों के साथ विदेशियों में भी बराबर ही है।


श्रद्धालुओं का विश्वास है कि इस मंदिर में सिर्फ बेहद भाग्यशाली लोग ही सफेद चूहे देख सकते हैं। इस लिहाज से हमारी टीम की किस्मत के तारे बेहद बुलंद रहे कि हममें से हरेक ने सफेद चूहे का दर्शन किया।
चूहे इस मंदिर में सदियों से रहते आ रहे हैं।


करणी माता बीकानेर राज घराने की कुल देवी हैं। कहा जाता है उनके आर्शीवाद से ही बीकानेर की स्थापना राव बीका ने की थी। इन चूहों को मां का सेवक माना जाता है इसलिए इनको कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जाता।

यहां रहने वाले इन चूहों के काबा कहा जाता है। मां को चढाये जाने वाले प्रसाद को भी पहले चूहे ही खाते है उसके बाद ही उसे बांटा जाता है। मंदिर हर तरफ चूहे चूहे दिखाई देते हैं। यहां पर अगर सफेद चूहा दिखाई दे जाए तो उसे भाग्यशाली माना जाता है। मुझे भी सफेद चूहे के दर्शन हो ही गये।


खास बात ये भी है कि इतने चुहे होते हुए भी मंदिर परिसर में बदबू का एहसास भी नहीं होता है। इतने चूहे होते हुए भी आज तक कोई भी मंदिर में आकर या प्रसाद खा कर बीमार नहीं पडा है। ये अपने आप में आश्चर्य है। यहां के पुजारी के घर में तो मैने चूहे किसी बच्चे की तरह ही घूमते देखे। उनके घर के कपडों से लेकर खाने के सामान तक सबमें चूहे ही चूहे दिखाई दे रहे थे।

इसके अलावा मंदिर का स्थापत्य भी देखने के लायक है।मंदिर का मौजूदा स्वरूप बीसवीं सदी में अस्तित्व में आया। इस मंदिर की शैली में उत्तरवर्ती मुगल शैली की झलक दिखती है संगमरमर का बेहद खूबसूरत इस्तेमाल मंदिर में किया गया है। मंदिर के जालीदार झरोखों पर किया बारीक कुराई का काम बेहद सुन्दर है। मंदिर के विशाल मुख्य दरवाजे चांदी के बने हैं।

अब मंदिर में चूहों को लेकर जो भी श्रद्धा और विश्वास हो, लेकिन यहां शूटिंग के लिए मंदिर के रखवाले कड़ी रकम वसूल करते हैं और यह खलने वाली बात लगी। बहरहाल, ये उनका एक्सक्लूसिव अधिकार है। मंदिर में आस्था के अलावा जो बात मुझे बहुत अच्छी लगी वह है इंसान और कुदरत का गहरा रिश्ता जो आज की दुनिया से गायब सा होता जा रहा है।

बीकानेरी भुजिया का स्वाद


बीकानेर कहते ही मन में भुजिया कौंद जाता है। मेरे मुंह में पानी आ जाता है. तो आपने भी ज़रूर चखा होगा। बीकानेर और इसके आसपास के इलाकों में भुजिया और पापड़ तैयार करने की साढे चार सौ से भी ज्यादा छोटी-बड़ी इकाईयां काम कर रही है।

मैंने अपने बीकानेर दौरे में उन कारखानों का भी रुख किया। सोचा आमने-सामने देखते हैं कि स्वादिष्ट भुजिए को बनाने की तरकीब क्या है।

बीकानेरी भुजियों की कई किस्में होती हैं। लेकिन इसे बनाने में बहुत सावधानी बरती जाती है। शिवदीप इंडस्ट्रीज के कारखाने में हमने देखा कि कारखाने के अंदर इलाके में ही पैदा होने वाली मोठ की दाल से बेसन तैयार किया जाता है।

इस बेसन में तेल और एक मसालों का मिश्रण तैयार किया जाता है। इस मिश्रण का राज़ बेहद गुप्त रखा जाता है। कर्मचारियों तक को मसाले बनाने का रहस्य पता नहीं। फिर गूंथे गए बेसन के मिश्रण से तैयार होता है भुजिया।

कारखाने के अंदर ही कड़कते तेल में छन-छन छनते भुजिया की खुशबू से नाक भर गया।

इसी कारखाने में लजीज़ मीठे और नरम-नरम बीकानेरी रसगुल्ले भी तैयार होते हैं। अठारहवीं सही के आखिर में कोलकाता में खोजे गए रसगुल्लों का फॉर्मूला अपने शुरुआती दौर में ही बीकानेर तक आ गया और फिर बीकानेरी रसगुल्लों ने अपनी अलग पहचान बना ली, लोगों की ज़बान पर चढ़कर। कोलकाता के रसगुल्लों से बीकानेर के रसगुल्लों में एक अंतर होता है, वह है मिठास का अंतर।

बीकानेर प्रवास के दौरान मैंने खूब छककर रसगुल्ले उडाए। हमारी टीम के लोगों ने ५-५ किलों रसगुल्ले वापसी के वक्त बंधवा लिए अपने परिवार के लिए। मैंने अपनी ब्राह्मण वृत्ति के ही अनुसार खाने के काम में अपरिग्रह का परिचय दिया, साथ ही माना कि कल पर कोई काम नहीं छोड़ा जाना चाहिए, और रौज़ाना के हिसाब से बड़ी मात्रा में रसगुल्ले उदरस्थ किए। वैसे मजा़ आ गया।

अगले दिन लिखूंगा, हमारे डॉक्यूमेंट्री शूट करने का अनुभव। लाडेरा गांव जाने का तज़रबा और एक स्थानीय शख्स के यहां बाजरे की रोटी उडा़ने का नायाब मौका कैसे मिला यह भी।

Saturday, April 5, 2008

खतरे में बीकानेर का ऊन उद्योग


बीकानेर ही नही आसपास का पूरा इलाका भेड़ों के लिए बेहद मुफीद है। भेडो़ को पलने बढ़ने के लिए जैसा माहौल चाहिए, ठीक वैसा ही बीकानेर के आसपास है। ऐसे में बीकानेर में ऊन उद्योग का खूब विकास हुआ है। यह शहर दुनिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी है। बीकानेर में कच्चे ऊन से यार्न यानी धागा बनाया जाता है। और इस यार्न से कालीन और कंबल बनाए जाते हैं। बीकानेर ऊन उत्पादक संघ के अध्यक्ष कन्हैया लाल बोथरा ने बताया कि बीकानेर का उन उद्योग भदोई के कालीन उद्योग के लिए कच्चा ऊन मुहैया कराता है। और इस इलाके के दस लाख लोगों को रोज़गार देकर उनके लिए रोजी-रो‍टी का बंदोबस्त करता है।

बीकानेरी ऊन के धागे क्वॉलिटी में बेहतर मानी जाती है, लेकिन इसके कुछ तकनीकी पेंच भी हैं। न्यूजीलैंड के ऊन तकनीकी तौर पर ज्यादा सफाई से चुने गए होते हैं। जाहिरे है, उनके बुनाई में ज्यादा आसानी होती है। लेकिन बीकानेरी ऊन के साथ तकनीकी दिक्कत है और इनमें वह पेशेवर सफाई नही आ पाई है। दूसरी तरफ पिछले कुछ सालों से ऊन उत्पादन में गिरावट भी दर्ज की जा रही है। १९९५ में जहां इस इलाके में १ करोड़ ७० लाख भेडें थीं वहीं २००८ तक पड़े बारंबार के अकाल की वजह से भेड़ों की गिनती में लगातार कमी आती जा रही है। २००७ में भेडो़ की गिनती घटकर महज ५० लाख रह गई है।

पहले इस इलाके से चलकर भेड़ों का रेवड़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक चरने के लिए चला जाता था। और किसान इन्हें अपने खेतों में बैठने की छूट देते थे ताकि खेतों का कुदरती खाद मिलता रहे। भेड़ों का रेवड़ अब भी जाता है, लेकिन खेतों में चरने के लिए नहीं, बल्कि मांस की खातिर कटने के लिए। ज़ाहिर है इस इलाके के ऊन उद्योग को बचाने के लिए कुछ मजबूत कदम उठाए जाने ज़रूरी हैं।

खुद बोथरा भी कुछ उपाय सुझाते हैं। मसलन, इंदिरा गांधी नहर के दोनों किनारों पर अगर अल्फा-अल्फा जैसी घास को योजनाबद्ध तरीके से उगाया जाए तो भेड़पालन को एक नया जीवन मिल सकता है। लेकिन फिलहाल तो भेड़पालक चरवाहे सरकार की तरफ से नजरअंदाज किए जाने का दंश झेल रहे हैं।