Monday, November 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं गोवा के दूधसागर झरने का दूधिया पानी गंदला लाल न हो जाए

गोवा की नदियों के पारितंत्र पर खनन गतिविधियों ने बुरा असर डाला है. मांडवी और जुआरी जैसी प्रमुख नदियों में लौह अयस्क की गाद जमा होने लगी है इसके इन नदियों की तली में जलीय जीवन पर खतरा पैदा हो गया है


इन दिनों गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की धूम हुआ करती है. मांडवी के किनारे कला अकादमी और और पुराने मेडिकल कॉलेज के पीछे आइनॉक्स थियेटर में गहमागहमी होती है. फिल्मों के बीच थोड़ी छुट्टी लेकर लोगबाग मांडवी के तट पर टहल आते हैं. ज्यादा उत्साही लोग दूधसागर जलप्रपात भी घूमने जाते हैं. दूधसागर जलप्रपात पर ही मांडवी नदी थोड़ा ठहरती है और आगे बढ़ती है. दूधसागर यानी दूध का सागर. इस नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.

बहुत पहले, पश्चिमी घाट के बीच एक झील हुआ करती थी जहां एक राजकुमारी अपनी सखियों के साथ रोज स्नान करने आती थी. स्नान के बाद राजकुमारी घड़ा भर दूध पिया करती थी. एक दिन वह झील में अठखेलियां कर ही रही थी, कि वहां से जाते एक नवयुवक की उन पर नजर पड़ गई और वह नौजवान वहीं रुककर नहाती हुई राजकुमारी को देखने लग गया.

अपनी लाज रखने के लिए राजकुमारी की सखियों ने दूध का घड़ा झील में उड़ेल दिया ताकि दूध की परत के पीछे वे खुद को छुपा सकें. कहा जाता है कि तभी से इस जलप्रपात का दूधिया जल अनवरत बह रहा है.

पर अब यह दूधिया पानी लाल रंग पकड़ने लगा है. लौह अयस्क ने मांडवी को जंजीरों में बांधना शुरू कर दिया है. लौह अयस्क का लाल रंग मांडवी के पानी को बदनुमा लाल रंग में बदलने लगा है.

माण्डवी नदी जिसे मांडोवी, महादायी या महादेई या कुछ जगहों पर गोमती नदी भी कहते हैं, मूल रूप से कर्नाटक और गोवा में बहती है. गोवावाले तो इसको गोवा की जीवन रेखा भी कहते हैं. मांडवी और जुआरी, गोवा की दो प्रमुख नदियां हैं. 

लंबाई के लिहाज से मांडवी नदी बहुत प्रभावशाली नहीं कही जा सकती. जिस नदी की कुल लंबाई ही 77 किलोमीटर हो और जिसमें से 29 किलोमीटर का हिस्सा कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहता हो, आप उत्तर भारत की नदियों से तुलना करें तो यह लंबाई कुछ खास नहीं है. पर व्यापारिक और नौवहन की दृष्टि से यह देश की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है और यह इसकी ताकत भी है और कमजोरी भी.

इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में है. नदी का जलग्रहण क्षेत्र, कर्नाटक में 2,032 वर्ग किमी और गोवा में 1,580 वर्ग किमी का है. दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात, मांडवी के ही भाग हैं.

गोवा में खनिजों में लौह अयस्क सबसे महत्वपूर्ण हैं और राज्य के राजस्व का बड़ा हिस्सा भी. लेकिन लौह अयस्क के गाद ने राज्य की दोनों प्रमुख नदियों की सांस फुला दी है. गोवा की नदियों पर हुए एक हालिया अध्ययन कहता है कि लौह अयस्क की गाद से दोनों नदियां दिन-ब-दिन उथली होती जा रही हैं. और इसका असर नदियों की तली में रहने वाले जलीय जीवन पर पड़ने लगा है.

गोवा विश्वविद्यालय के सागर विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य की बिचोलिम लौह और मैगनीज के अयस्कों की वजह से बेहद प्रदूषित है वहीं मांडवी नदी के प्रदूषकों में मूल रूप से लौह और सीसा (लेड) हैं.

बिचोलिम उत्तरी गोवा जिले में बहती है और मांडवी की सहायक नदी है. इस अध्ययन में इस बात पर चिंता जताई गई है कि दक्षिणी गोवा जिले में बहने वाली जुआरी नदी और उसके नदीमुख (एस्चुअरी) पर भी धात्विक प्रदूषण का असर होगा.

गोवा में खनिज उद्योग करीबन पांच दशक पुराना है और 2018 में मार्च में उस पर रोक लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने 88 लौह अयस्क खदानों के पट्टों का नवीकरण खारिज कर दिया था. गोवा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सिंथिया गोनकर और विष्णु मत्ता ने गोवा की नदियों और उसकी तली के पारितंत्र पर खनन के असर और जुआरी नदी की एस्चुअरी (जहां नदी समुद्र में मिलती है) पर धात्विक प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया है.

यह अध्ययन रिसर्च जरनल इनवायर्नमेंट ऐंड अर्थ साइंसेज में छपा है और इसमें कहा गया है कि उत्तरी गोवा में रफ्तार से हुए खनन की वजह से प्रदूषण बढ़ा है. इस में गोवा की तीन नदियों बिचोलिम, मांडवी और तेरेखोल से नमूने लिए गए था.

अध्ययन के मुताबिक, बिचोलिम नदी में लौह और मैगनीज के साथ सीसे और क्रोमियम का भी प्रदूषण बडे पैमाने पर मौजदू है. इनमें से सीसा और क्रोमियम भारी धातु माना जाता है और इसके असर से कैंसर का खतरा होता है. जबकि मांडवी नदी में मैगनीज और सीसे का प्रदूषण है. तेरेखोल नदी (जो हाल तक प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त थी) में तांबे और क्रोमियम (यह भी खतरनाक है) जैसे धातुओं की भारी मात्रा मौजूद है.

गौरतलब है कि इन नदियों में बड़े पैमाने पर जहाजों के जरिए अयस्कों का परिवहन किया जाता है और इससे अयस्क नदी में गिरते रहते हैं. खुले खदानों से बारिश में घुलकर अयस्कों का मलबा भी आकर नदियों में जमा होता है. इससे नदियों की तली में गाद जमा होने गई है और इसने तली के पास रहने वाले या तली में रहने वाले जलीय जीवों का भारी नुक्सान किया है.

अध्ययन के मुताबिक, जुआरी नदी के पानी में ट्रेस मेटल्स (सूक्ष्म धातुओं) की मात्रा खनन के दिनों के मुकाबले खनन पर बंदिश के दौरान में काफी कम रही हैं. इससे साफ है कि यह प्रदूषण खनन की वजह से ही हो रहा है.

मांडवी पर गोवा के लोग उठ खड़े हुए हैं. सरकार भी सक्रिय हुई है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी आदेश दे दिया है. कोशिश यही होनी चाहिए कि मांडवी का जल गाद में जकड़ न जाए और दूधसागर प्रपात का जल दूधिया ही रहे, गंदला लाल न हो जाए.

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Friday, November 22, 2019

अगर चुंबन निजी काम है तो हगना भी, दोनों खुलेआम कीजिए

यह पोस्ट चुंबन पर है. पर साथ ही पाखाने पर भी है. पर मुझे उम्मीद है आप पढ़ेंगे जरूर. आज दो ऐसी बातों पर लिखना चाहता हूं जो निजी मानी जाती हैं. एक है किस. जिसे आप अपनी सौंदर्यदृष्टि के मुताबिक चुंबन, पुच्ची, चुम्मा आदि नामों से अभिहीत कर सकते हैं. इसमें जब तक सामने वाले को पायरिया न हो, बू नहीं आती.

दूसरा निजी काम बदबूदार है. जिसकी बू आप क्या खाते हैं उस पर निर्भर करती है. वैसे यह निजी काम शुचिता से जुड़ा है पर इस विचार में कई पेच हैं. पर यह शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है. राजा हो या भिखारी, कपड़े खोलकर कोई इंसान जब मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएं फीकी पड़ जाती हैं.

कम से कम हिंदी में मलत्याग के दैनिक कर्म के लिए सीधे शब्द नहीं है. पाखाना फारसी से आया है, जिसका अर्थ होता है पैर का घर. टट्टी आमफहम हिंदी शब्द है जिसका मतलब है कोई पर्दा या आड़ जो फसल की ठूंठ आदि से बना हो. खुले में शौच जाने को दिशा-मैदान जाना कहते हैं. कुछ लोग फरागत भी कहते हैं जो फारिग होने से बना है. आब को पेश करने से बना पेशाब तो फिर भी सीधा है पर लघु शंका और दीर्घ शंका जैसे शब्द अर्थ कम बताते हैं, संदेह अधिक पैदा करते हैं.

मलत्याग के लिए हगना और चिरकना जैसे शब्द भी हैं, मूलतः ये क्रिया रूप हैं और इनका उपयोग पढ़े-लिखे समाज में करना बुरा माना जाता है. इन शब्दों के साथ घृणा जुड़ी हुई है.

बहरहाल, सोचिएगा इस बात पर कि जिन सरकारी अफसरों और संभ्रांत लोगों को गरीबों की दूसरी समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं होता वे उनके शौचालय बनाने की इतनी चिंता क्यों करते हैं. क्या खुले में शौच जाना रुक जाए तो समाज स्वच्छ हो जाएगा?

छोड़िए, इसी के उलट हम बस इतना ही कहना चाहते हैं कि जिस देश में खजुराहो और कोणार्क की परंपरा रही है वहां किस ऑफ लव का विरोध क्यों? सहमत? चुंबन तो प्रेम का प्रतीक है न. पर खुले में चुंबन लेने से समाज में प्रेम का विस्तार होता है? अगर हां, इस प्रेम को खुलेआम अपने पिता और माता के सामने भी प्रकट करिए. अपनी बहन को भी वही करने की छूट दीजिए जो आप कर रहे हैं और अपने पिता और माती जी को भी. जली? खैर बुरा न मानिए. असल में, मसला दो सभ्यताओं के प्रतीकों का हैं. भारत के हिंदू हो या मुसलमान, जब तक हद दर्जे का और छंटा हुआ क्रांतिकारी न हो तब तक खुलेआम चुंबन को तरजीह नहीं देगा.

खुलेआम चुम्माचाटी को प्रेम का प्रतीक बताते हुए लोग कह रहे हैं कि 'किस' निजी चीज है. बिल्कुल. हम भी तो वही कह रहे हैं. किस निजी चीज है तो हगना भी निजी है. चुंबन के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों पर हगने की भी छूट क्रांतिकारियों को दी जाए.

(अगेन हगना शब्द पढ़े-लिखों को बुरा लग सकता है आप उस हर जगह पर मलत्याग पढ़ें जहां मैंने हगना लिखा है)

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Tuesday, November 19, 2019

मधुपुर मेरा मालगुड़ी है

जेहन में एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है-जंगलों से घिरा गांव। वह गांव मधुपुर अभी भी काफी हरा है, पहले तो यहां घने जंगल थे। जंगल भी ऐसा कि सूरज की रोशनी भी छन कर ही आती। महुआ, सखुआ, शीशम, जामुन, कटहल और पीपल बरगद के घने पेड़। पास में बहती नदियां पतरो (पात्रो), अजय, जयंती और कितनी ही जोरिया। जंगल ही जंगल। कहीं-कहीं खेत, कुछ झोपड़ियां, कुछ खपरैल की, कुछ ताड़ के पत्तों से ढंकी, पुआल-माटी के बने मकान। 

मेरा वह मालगुड़ी अब एक कस्बा है बल्कि अपने कस्बाई खोल से शहरी ढांचे में बदलने के लिए छटपटा रहा है। लेकिन मेरे मधुपुर के लोगों को नहीं पता कि मेट्रोपॉलिस जीवन में जो संकीर्णता और भागमभाग होती है, वह बारबार पुराने दिनों की याद दिलाती है।

आज जंगल इतिहास हो गया और गांव जवान शहर। पर इस शहर के बसने, जंगलों के विनाश और एक नए भविष्य की नई इबारत के पीछे बरतानिया हुकूमत का षडयंत्र है। उन्हें दरअसल मधुपुर नहीं बसाना था। मधुपुर तो महज एक गांव था जैसे आज साप्तर है या फागो या कुर्मीडीह। पर अंग्रेज बहादुर जब सन 1855 और 1857 में संताल लड़ाकों और भारतीय फौजियों के विद्रोह से परेशान हो गए और हताशा फैलने लगी तब रेल ब्रिटिश हुकूमत का नया हथियार बन गई। 

ईस्ट इंडिया कंपनी की राजधानी कोलकाता से मुगलों की राजधानी दिल्ली तक रेल की पटरियां बिछने लगी। रेल की पटरियों को मधुपुर से गुजरना था, इसलिए वर्ष 1871 में मधुपुर के जंगल कटने लगे। धड़ाधड़ पेड़ काटे और गिराए जाने लगे और कोलकाता-आसनसोल-चित्तरंजन होते ट्रेन की पटरियां मधुपुर में भी बिछाई जाने लगी। 

अचानक एक गांव हरकत में आ गया। रेलवे कांट्रेक्टर नारायण कुण्डू ने मधुपुर में कैंप कर लिया। बाद में उन्होंने 1885 साल में एक अंग्रेज मि. मोनियर से एक रैयती मौजा ही खरीद लिया। फिर अमडीहा मौजा आदि खरीद कर वे जमींदार की हैसियत पा गए। उन्हीं के नाम पर आज भी मधुपुर में एक मुहल्ला ‘कुण्डू बंग्ला‘ के नाम से विख्यात है। एक बात यह भी है कि कुण्डू को पेट की कोई बीमारी थी, मधुपुर के पानी से उनकी बीमारी जाती रही और बंगाली बाबुओं में यहां बसने का क्रेज हो गया। अन्यथा 1855-1857 के इतिहास में मधुपुर कहीं नजर नहीं आता, जबकि 1857 के सैन्य विद्रोह में पड़ोस के गांव रोहिणी ने अपना नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित करा लिया था।

मधुपुर का सौभाग्य है कि महात्मा गांधी मधुपुर पधारे और उन्होंने एक ‘राष्ट्रीय शाला ‘(नेशनल स्कूल), तिलक विद्यालय और नगरपालिका का उद्घाटन किया था। एक ज्ञान और राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले केंद्र और एक शहरी जीवन को सिस्टम देने वाला केंद्र। यह बड़ी बात थी। मैंने पांचवी से सातवीं यानी तीन साल की पढ़ाई उसी स्कूल में की है जिसे आज भी लोग गांधी स्कूल के नाम से जानते हैं। बापू उस दौरान आजादी की लड़ाई के साथ-साथ लोगों में स्वदेशी और खादी अर्थशास्त्र के प्रति भी जागरूकता फैला रहे थे। छात्रों में सूत कताई को लोकप्रिय बनाने के प्रति वे काफी संजीदा थे। 

बापू आठ अक्टूबर 1934 को पहली बार मधुपुर आए थे। उन्होंने नौ अक्टूबर 1934 को ऐतिहासिक तिलक कला विद्यालय के विषय में पत्र लिखा था। उसमें इस विद्यालय के बारे में जिक्र किया गया है। कहा गया है कि यहां पर राष्ट्रीय शाला का आयोजन किया गया था। वहीं प्रधानाध्यापक ने अभिनंदन पत्र के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जिक्र करते हुए विद्यालय की समस्याओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था। कहा गया था कि सूत कताई के कारण विद्यालय में लड़कों की उपस्थिति कम हो रही है। लोगों की तरफ से विद्यालय को कम आर्थिक सहायता मिल रही है। कुछ लोगों ने अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए हटा लिया है क्योंकि कार्यशाला में सूत कताई का विषय अनिवार्य कर दिया गया है। इस अभिनंदन पत्र में इन मुश्किलों से बाहर निकलने का मार्ग बापू से पूछा गया था।

बापू का जवाब था कि यदि शिक्षकों को अपने कार्य में श्रद्धा है तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। सभी संस्थाओं को भले-बुरे दिन देखने पड़ते हैं और यह स्वाभाविक ही है। दृढ़ विश्वास के बल पर भीषण तूफान का भी सामना किया जा सकता है। यदि शिक्षकों को पूर्ण विश्वास है कि वे पाठशाला के जरिए आसपास के लोगों को विकास का संदेश दे रहे हैं तो उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। कुछ ही दिनों में अभिभावकों से अनुकूल सहयोग मिलने लगेगा। लेकिन यदि उनके इस कार्य में वहां के लोगों का जल्दी सहयोग नहीं मिले तो उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है। पाठशाला में एक भी छात्र रहे तब भी उन्हें उसे चलाते रहना है क्योंकि शुरूआत में लोग नए विचार का विरोध जरूर करते हैं।

आजादी से पहले 1925 से 1942 तक तिलक विद्यालय मधुपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख सेनानियों को कैद करने की कोशिश की थी तो वे लोग भूमिगत हो गए और गुस्से में अंग्रेजों ने विद्यालय के पुस्तकालय को ही जला दिया। 1936 में डॉ राजेंद्र प्रसाद मधुपुर आए थे। यहां उनको आजादी के दीवानों से मुलाकात करनी थी। इसी स्कूल में राजेंद्र बाबू ने एक रात बिताई थी। पुआल का बिछौना लगा और पाकशाला में भोजन बना। बाद में प्रांतीय चुनावों (1937) के वक्त भी राजेंद्र बाबू मधुपुर आए थे।

गांधी जी ने तिलक विद्यालय से जाकर मधुपुर के कुदरती सौंदर्य और नगरपालिका पर जो कुछ लिखा, वह ‘संपूर्ण गांधी वांङमय‘, खंड- 28 (अगस्त-नवंबर 1925) में सुरक्षित है। उन्होंने कहा था, ‘‘हमलोग मधुपुर गए। वहां मुझे एक छोटे से सुंदर नए टाउन हाल का उद्घाटन करने को कहा गया था। मैंने उसका उद्घाटन करते हुए और नगरपालिका को उसका अपना मकान तैयार हो जाने पर मुबारकबाद देते हुए यह आशा व्यक्त की थी कि वह नगरपालिका मधुपुर को उसकी आबोहवा और उसके आसपास के कुदरती दृश्यों के अनुरूप ही एक सुंदर माहौल देगी। मुंबई व कलकत्ता जैसे बड़े शहरों में सुधार करने में बडी मुश्किलें पेश आती हैं, मगर मधुपुर जैसी छोटी जगहों में नगरपालिका की आमदनी बहुत ही थोड़ी होते हुए भी उन्हें अपनी सीमा में आने वाले क्षेत्र को साफ सुथरा रखने में मुश्किलों का सामना नहीं करना पडेगा।” लेकिन इधर मैंने सुना है कि मधुपुर के इस ऐतिहासिक तिलक विद्यालय में महात्मा गांधी और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी कई स्मृतियां उपेक्षा की वजह से नष्ट हो रही हैं।

1925 की तुलना में आज शहर, साधन और सुविधाएं काफी बदल गई है। जनसंख्या के दबाब और शहरीकरण की दिक्कतें भी बढ़ी हैं। नेता बदल गए हैं। आज का आक्रामक नेतृत्व क्या यह जानता भी है कि गांधी ने मधुपुर के बारे में क्या कहा था? नगरपालिका के कर्ताधर्ताओं ने कभी सोचा भी कि हमें महात्मा गांधी के मधुपुर के संदर्भ में कहे गए विचारों को न केवल वर्तमान ‘नगरपर्षद भवन’ में कहीं शिलालेख पर उत्कीर्ण कराना (लिखाना) चाहिए बल्कि उनके विचारों को समझने और अनुकरण करने का भी प्रयास करना चाहिए? उन्हें न तो समझ होगी, न फुरसत होगी। होती तो करा दिए होते।

मधुपुर में जितने चौक-चौराहे हैं, उन्हें मूर्तियों ने घेर लिया है। मधुपुर के बीच के चौक पर गांधी जी की मूर्ति है। इससे थोड़ा दक्षिण आज का जेपी चैक है। पहले आर्य समाज मंदिर की वजह से यह आर्य समाज चैक कहलाता था। यहां सन् 86 में जेपी की मूर्ति लगा दी गई-आवक्ष प्रतिमा। नीचे नारा भी लिखा है, संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है। नारा संगमरमर की पट्टिका पर शब्दों में दर्ज है बस। आम जनमानस में चैक अब भी आर्य समाज का ही है। 

इसके बाद थाना और थाने के आगे एक तिराहा। तिराहे के एक कोने पर लोहिया जी की मूर्ति है। यह भी आवक्ष, संगमरमर की। लोहिया की मूर्ति के नीचे एक और घोषणा, जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। इस लिहाज से हमारी कौमें कब की मर चुकी है। हर पांच साल बाद अपनी जाति के लोगों को संसद, विधानसभा भेजकर अपने कलेजे पर दुहत्थड़ मार कर अरण्य रोदन करती रहती है। लोहिया की मूर्ति और विचार दोनों उपेक्षित हैं। वैसे, खुद लोहिया ने भी कहा था कि किसी नेता की मूर्ति उसके मरने के सौ साल बाद ही लगानी चाहिए। सौ साल में इतिहास उसकी प्रासंगिकता का मूल्यांकन खुद कर लेगा। बहरहाल, वह तिराहा अब भी थाना मोड़ ही है।

सड़क के साथ मुड़कर दक्षिण की ओर चलते चलें, तो आधा किलोमीटर बाद ग्लास फैक्ट्री मोड़ आता है। झारखंड आंदोलन के दौरान शहीद हुए आंदोलनकारी निर्मल वर्मा के नाम पर इस चौक पर एक पट्टिका लगा दी गई है। बदलते वक्त में ग्लास फैक्ट्री-जिसमें लैंप के शीशे से लेकर जार और मर्तबान बनते थे, ग्लासें बनतीं थी-बंद हो गई। लोग बड़े पैमाने पर बेरोजगार हो गए, लेकिन ग्लास फैक्ट्री से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ। निर्मल वर्मा के नाम पर उस तिराहे को कोई नहीं जानता। वह मोड़ अब भी ग्लास फैक्ट्री मोड़ ही है।

पता नहीं कैसे एक चौराहा जहां भगत सिंह की मूर्ति है उसे भगत सिंह चौक कहा जाने लगा है। भगत सिंह बिरसा की तरह ही मधुपुर की अवाम के मन में बसे हैं। आर्य समाज चौक से दाहिनी तरफ सिनेमा हॉल है-सुमेर चित्र मंदिर। लेकिन उससे पहले एक कोने पर बंगालियों की संस्था तरुण समिति ने सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति लगा दी है। आदमकद प्रतिमा ललकारती-सी लगती है। लेकिन आज की पीढी के लिए बोस की प्रतिमा पर नजर देना भी वक्त की बरबादी लगने लगा है। उधर, आर्य समाज चौक पर ही एक बहुत बड़ा स्कूल है। उसके बोर्ड पर नजर गई तो अजीब लगा। पहले यानी जब हम छात्र रहे थे तब वह स्कूल एडवर्ड जॉर्ज हाई स्कूल था, अब उसे डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय कर दिया गया है। काश, नाम बदलने की बजाय सरकार स्कूल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर कोई पुस्तकालय शुरु कर देती।

जिस वक्त हम शहर छोड़ गए उस वक्त की यादों और आज के हालात में ज्यादा फर्क नहीं। विकास और तरक्की के नाम पर कुछ फैशनेबल दुकानों और मोबाईल टॉवरों के अलावा मधुपुर में कुछ नहीं जुड़ा। हरियाली कम हो गई है, पानी का संकट खड़ा होने लगा है। हमेशा ताजा पानी मुहैया कराने वाले कुएं सूख चले हैं। बढ़ते शहर में पेड़ों की जगह मकानों ने ले ली है। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर में तनाव फैला है, यह तनाव सांप्रदायिक नहीं है, जीवन-शैली का तनाव है। दुखी होने के लिए इतना काफी है।

Friday, November 8, 2019

नदीसूत्रः पूर्णिया की सरस्वती बनने को अभिशप्त है सौरा नदी

ब्रिटिश छाप लिए शहर पूर्णिया में एक नदी है, सौरा. यह नदी बेहद बीमार हो रही है. सूर्य पूजा से सांस्कृतिक संबंध रखने वाली नदी सौरा अब सूख चली है और लोगों ने इसके पेटे में घर और खेत बना लिए हैं. भू-माफिया की नजर इस नदी को खत्म कर रही है और अब नदी में शहर का कचरा डाला जा रहा है.

पूर्णिया की सौरा नदी की एक धारा. फोटोः पुष्यमित्र

देश में नदियों के सूखने या मृतप्राय होते जाने पर खबर नहीं बनती. चुनावी घोषणापत्रों में अमूमन इनका जिक्र नहीं होता. बिहार को जल संसाधन में संपन्न माना जाता है और अतिवृष्टि ने बाजदफा लोगों को दिक् भी किया है. इस बार तो राज्य के उप-मुख्यमंत्री भी बेघर हो गए थे.

पर इसके बरअक्स एक कड़वी सचाई यह भी है कि एक समय में बिहार में लगभग 600 नदियों की धाराएं बहती थीं, लेकिन अब इनमें से अधिकतर या तो सूख चुकी हैं और अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदी की इन धाराओं की वजह से न केवल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया था, बल्कि इससे क्षेत्र का भूजल भी रिचार्ज होता था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ बिहार में ही लगभग 100 नदियां, जिनमें लखंदी, नून, बलान, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फालगू आदि शामिल हैं, खत्म होने की कगार पर हैं.

पिछले नदीसूत्र में हमने सरस्वती का जिक्र किया था और आज आपको बता रहे हैं भविष्य की सरस्वती बनकर विलुप्त होने को अभिशप्त नदी सौरा का.

बिहार के भी पूरब में बसा है खूबसूरत शहर पूर्णिया, जो अब उतना खूबसूरत नहीं रहा. ब्रिटिश काल की छाप लिए इस शहर में एक नदी सौरा बहती थी. नदी बहती तो अब भी है, पर बीमार हो रही है. बहुत बीमार.

पूर्णिया में नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाने वाले अखिलेश चंद्रा के मुताबिक, यह नदी लंदन की टेम्स की तरह थी, जो पूर्णिया शहर के बीचों-बीच से गुजरती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है और यहां अब शहर का कचरा डाला जा रहा है.

अखिलेश अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, कभी 'पुरैनियां' में एक सौम्य नदी बहती थी सौरा. कोसी की तरह इसकी केशराशि सामान्य दिनों में छितराती नहीं थी. जो 'जट' कभी अपनी 'जटिन' को मंगटिक्का देने का वादा कर 'पू-भर पुरैनियां' आते थे, उन्हें यह कमला नदी की तरह दिखती थी. जटिन जब अपनी कोख बचाने के लिए खुद पुरैनियां आती थी, तो गुहार लगाती थी, "हे सौरा माय, कनी हौले बहो...ननकिरबा बेमार छै...जट से भेंट के बेगरता छै...(हे सौरा माई, आहिस्ते बहिए. बच्चा बीमार है. जट से मुलाकात की सख्त जरूरत है)

...और दुख से कातर हो सौरा नदी शांत हो जाती थी.

अपने लेख में अखिलेश सौरा को 'जब्बर नदी' कहते हैं. जब्बर ऐसी कि कभी सूखती ही नहीं थी. पर बदलते वक्त ने, बदलती जरूरतों, इनसानी लालच और आदतों ने इसे दुबला बना दिया है. नदी का दाना-पानी बंद हो गया है. लोग सांस थामे इसे मरते देख रहे हैं. अखिलेश लिखते हैं, हमारी मजबूरी ऐसी है कि हम शोकगीत भी नहीं गा सकते!

असल में, बदलते भारत की एक विडंबना यह भी है कि हमने जिन भी प्रतीकों को मां का दर्जा दिया है, उन सबकी दुर्गति हो गई है. चाहे घर की बूढ़ी मां हो या गंगा, गाय और हां, पूर्णिया की सौरा नदी भी. इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हमें जिन प्रतीकों की दुर्गति करनी होती है, उसे हम मां का दर्जा दे देते हैं.

चंद्रा लिखते हैं कि पूर्णिया शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली सौरा नदी को सौर्य संस्कृति की संवाहक है. पर पिछले कुछ वर्षों से इस पर जमीन के कारोबारियों की काली नजर लग गई. नतीजतन, अनवरत कल-कल बहने वाली नदी की जगह पर कंक्रीट के जंगल फैल गए हैं.

एक समय था जब सौरा नदी में आकर पूर्णिया और आसपास के इलाकों में सैकड़ों धाराएं मिलती थीं और इसकी प्रवाह को ताकत देती थीं, लेकिन अब ऐसी धाराएं गिनती की रह गई हैं. इन धाराओं के पेटे में जगह-जगह पक्के के मकान खड़े कर दिए गए. नतीजतन सौरा की चौड़ाई कम होती जा रही है.

हालांकि सौरा बेहद सौम्य-सी दिखने वाली नदी है, पर इसका बहुत सांस्कृतिक महत्व है. इसके नामकरण को लेकर अब भी शोध किये जा रहे हैं. लेकिन, यह माना जाता है कि सूर्य से सौर्य और सौर्य से सौरा हुआ, जिसका तारतम्य जिले के पूर्वी अंतिम हिस्से से सटे सुरजापुर परगना से जुड़ा रहा है.

पूर्णिया-किशनगंज के बीच एक कस्बा है सुरजापुर, जो परगना के रूप में जाना जाता है. बायसी-अमौर के इलाके को छूता हुआ इसका हिस्सा अररिया सीमा में प्रवेश करता है. यह इलाका महाभारतकालीन माना जाता है, जहां विशाल सूर्य मंदिर का जिक्र आया है. पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट में भी सौर्य संस्कृति के इतिहास की पुष्टि है. वैसे यही वह नदी है, जहां आज भी छठ महापर्व के मौके पर अर्घ देने वालों का बड़ा जमघट लगता है.

अररिया जिले के गिधवास के समीप से सौरा नदी अपना आकार लेना शुरू करती है. वहां से पतली-सी धारा के आकार में वह निकलती है और करीब 10 किलोमीटर तक उसी रूप में चलती है. श्रीनगर-जलालगढ़ का चिरकुटीघाट, बनैली-गढ़बनैली का धनखनिया घाट और कसबा-पूर्णिया का गेरुआ घाट होते हुए सौरा जब बाहर निकलती है, तो इसका आकार व्यापक हो जाता है और पूर्णिया के कप्तानपुल आते-आते इसका बड़ा स्वरूप दिखने लगता है.

यह नदी आगे जाकर कोसी में मिल जाती है. एक समय था, जब सौरा इस इलाके में सिंचाई का सशक्त माध्यम थी. मगर, बदलते दौर में न केवल इसके अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, बल्कि इसकी महत्ता भी विलुप्त होती जा रही है.

नदी के आसपास के हिस्से पर आज कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं. पूर्णिया में सौरा नदी के पानी के सभी लिंक चैनल बंद हो गए. अंग्रेजों के समय सौरा नदी का पानी निकलने के लिए लाइन बाजार चौक से कप्तान पुल के बीच चार पुल बनाए गए थे. ऊपर से वाहन और नीचे से बरसात के समय सौरा का अतिरिक्त पानी निकलता चला जाता था. आज पुल यथावत है, पर उसके नीचे जहां नदी की धारा बहती थी, वहां इमारतें खड़ी हैं. इधर मूल नदी का आकार भी काफी छोटा हो गया है. नदी के किनारे से शहर सट गया है.

हालांकि सोशल मीडिया पर अब पूर्णियावासी सौरा को बचाने के लिए सक्रिय हो गए हैं. फेसबुक पर सौरा नदी बचाओ अभियान नाम का एक पेज बनाया गया है और पूर्णिया शहर के नाम पर बने पेज पर भी लगातार सौरा के बारे में लिखा जा रहा है. स्थानीय अखबारों की मदद से सौरा से जुड़े अभियानों पर लगातार लिखा जा रहा है और जागरूकता भी फैलाई जा रही है. पर असली मसला तो भू-माफिया के चंगुल से सौरा को निकालना है. और उससे भी अधिक बड़ा दोष तो एक इंच और जमीन कब्जा कर लेने की हम सबकी बुनियादी लालची प्रवृत्ति की तरफ जाता है.

सौरा को संजीवनी देनेवाली धाराओं के मुंह बंद किए जा रहे हैं. ऐसे में लग तो यही रहा है कि अगली पीढ़ी सौरा को 'सरस्वती' के रूप में याद करेगी और उसके अस्तित्व की तलाश करेगी. दुख है कि पूर्णिया की सौरा नदी अगली सरस्वती बन रही है.

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Wednesday, November 6, 2019

सिनेमाई नाटकीयता से भरपूर है कुशल सिंह की किताब लौंडे शेर होते हैं

किताबों और कहानियों के शीर्षक इन दिनों ऐसे हैं कि आप सहज ही आकर्षित होकर किताबों की विंडो शॉपिंग के लिए तैयार हो जाएं. ऐसा लगता है कि हल्की हिंदी पढ़ने के शौकीन नौजवानों के लिए ही यह उपन्यासिका 'लौंडे शेर होते हैं' कुशल सिंह ने लिखी है. 


आप चाहे लाख हिंदी साहित्य का मर्सिया पढ़ दें, पर जिस तरह से किताबें बड़ी संख्या में प्रकाशित हो रही हैं और उनको एक हद तक पाठक भी मिल रहे हैं उससे लगता है कि मौजूदा दौर हिंदी किताबों के प्रकाशन और मार्केटिंग के लिहाज से स्वर्ण युग न भी हो, रजत युग तो जरूर है.

इसी कड़ी में लेखक कुशल सिंह की उपन्यासिका है, लौंडे शेर होते हैं. किताबों और कहानियों के शीर्षक इन दिनों ऐसे हैं कि आप सहज ही आकर्षित होकर किताबों की विंडो शॉपिंग के लिए तैयार हो जाएं. ऐसा लगता है कि हल्की हिंदी पढ़ने के शौकीन नौजवानों के लिए ही यह उपन्यासिका कुशल सिंह ने लिखी है. 

कुशल सिंह की उपन्यासिका लौंडे शेर होते हैं. फोटोः मंजीत ठाकुर


कुशल सिंह मूलतः इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के हैं और स्नातक स्तर पर इन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. कुशल सिंह की साम्यता सिर्फ इंजीनियरिंग तक ही चेतन भगत के साथ नहीं है, इसके बाद उनने प्रबंधन में परा-स्नातक यानी एमबीए भी किया है. हैरत नहीं कि कोल इंडिया में मार्केटिंग में नौकरी करने वाले कुशल सिंह ने बड़ी कुशलता से, किताब का शीर्षक रखने से लेकर, किताब का कंटेंट तय करने तक बाजार का खास खयाल रखा है. और यहां भी चेतन भगत के साथ उनकी खास साम्यता बरकरार रखती है.

असल में, इस दौर में, जब हिंदी साहित्य में कई नवतुरिए हिंदी का चेतन भगत बनने की जुगत में हैं, कुशल सिंह भी इस कुरसी के लिए मजबूत दावा पेश करते हैं. खासकर, जिस हिसाब उनकी यह किताब बिक रही है उससे तो यही लगता है.

इस उपन्यासिका की प्रस्तावना में कुशल सिंह साफ करते हैं, जो कि हालिया चलन के एकदम करीब भी है, कि इस उपन्यासिका में वर्णित कहानियों में कोई साहित्य नहीं है. यह विनम्रता है या पाठकों के लिए चेतावनी, यह तो कुशल खुद ही बता पाएंगे. पर वह अगली पंक्ति में यह भी साफ करते हैं कि इस उपन्यासिका में कोई विचार-विमर्श भी नहीं है. इसका एक अर्थ यह भी पकड़िए कि पढ़ते वक्त आपको खालिस किस्से ही पेश किए जाएंगे.

वे लिखते हैं, दुनिया में वैसे ही बहुत ग़म हैं, इसलिए मैंने आपके लिए हंसी के हल्के-फुल्के पल बुने हैं. प्रस्तावना इस बात और उम्मीद के साथ खत्म होती है कि शायद पाठकों के अंदर लौंडाई बची रही होगी.

किताब का ब्लर्ब कहता हैः क्या होगा जब कैरियर की चिंता में घुलते हुए लड़के प्रेम की पगडंडियों पर फिसलने लग जाएँ? क्या होगा जब डर के बावजूद वो भानगढ़ के किले में रात गुजारने जाएँ? क्या होगा जब एक अनप्लांड रोड ट्रिप एक डिजास्टर बन जाए? क्या होगा जब लड़कपन क्रिमिनल्स के हत्थे चढ़ जाए?

‘लौंडे शेर होते हैं’ ऐसे पांच दोस्तों की कहानी है जो कूल ड्यूड नहीं बल्कि सख्त लौंडे हैं. ये उन लोगों की कहानी है जो क्लास से लेकर जिंदगी की हर बेंच पर पीछे ही बैठ पाते हैं. ये उनके प्रेम की नहीं, उनके स्ट्रगल की नहीं, उनके उन एडवेंचर्स की दास्तान है जिनमें वे न चाहते हुए भी अक्सर उलझ जाते हैं. ये किताब आपको आपके लौंडाई के दिनों की याद दिलाएगी. इसका हर पन्ना आपको गुदगुदाते हुए, चिकोटी काटते हुए एक मजेदार जर्नी पर ले जाएगा.

सवाल यही है कि पांच सख्त लौंडो (यह शब्द आजकल काफी चलन में है, खासकर स्टैंडअप कॉमिडियन जाकिर खान के वीडियो पॉपुलर होने के बाद से) की इस कहानी में किस्सागोई कितनी है और उनके लड़कपन की कहानियों से आप खुद को कितना कनेक्ट कर पाते हैं.

ट्रेन में सफर करते वक्त समय काटने के लिहाज से अगर आप यह किताब पढ़ेंगे तो समय ठीक बीतेगा. लेकिन सावधान, इसमें साहित्य के मोती न खोजिएगा. बाज़दफा, इस उपन्यासिका में कहानी बी ग्रेड की फिल्मों सरीखी हो जाती है और इसका अंत भी उतना ही अति नाटकीय है. ऐसा लगता है कि लेखक कहानी को बस खत्म करने की फिराक में है.

पर कुशल सिंह ने शुरुआत की है तो हिंदी जगत में उनका स्वागत होना चाहिए. यह उनकी पहली किताब है. दिलचस्प होगा यह देखना कि अपनी अगली किताब में कुशल सिंह अपने सिनेमाई ड्रामे को अधिक मांजकर पेश करते हैं या फिर साहित्य में लेखकीय कौशल हासिल करने की कोशिश करते हैं.

किताबः लौंडे शेर होते हैं (उपन्यास)
लेखकः कुशल सिंह
प्रकाशनः हिंद युग्म
कीमतः 150 रु.

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