Thursday, February 22, 2018

ज़बानी पकौड़े के दौर में मिथिला का तरूआ है सदाबहार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोजगार का जिक्र करते हुए पकौड़े का नाम क्या लिया, सड़क से लेकर संसद तक हर तरफ पकौड़ा प्रकरण चर्चे में आ गया. इस बयान के लिए कोई तंज कर रहा है, कोई आलोचना. कोई समर्थन में है तो कोई मुखालफत में. मुखालफत में किसी ने पकौड़े की दुकान लगा ली, किसी ने पकौड़ा छानते हुए हाथ जला लिए.

लेकिन, सोशल मीडिया पर चल रही चटखारेदार चर्चा, तमाम राजनीति और आलोचनाओं को किनारे कर दें तो इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पकौड़े वास्तव में देश के लगभग हर हिस्से में बहुतों को रोजगार दे रहे हैं और उनके परिवार का पेट भर रहे हैं.

पर आज हम पकौड़े के जिस भाई से आप का परिचय करवा रहे हैं वह असल में पकौड़े जैसा दिखता तो है लेकिन यह है मिथिला का तरूआ. इसको बनाने की विधि भी अलग है और किन सब्जियों से तरूआ बनता है उसका रेंज तो खैर विविधता भरा है ही.

इससे पहले की मैं आपको मिथिला के खान-पान के महत्वपूर्ण हिस्से तरूआ से परिचय करा दूं उससे पहले मैं मिथिला के खान-पान के बारे में एक लोकोक्ति बता दूं. मिथिला में खान-पान की संस्कृति में तीन चीजों का होना बेहद जरूरी हैः मिथिलाक भोजन तीन, कदली, कबकब मीन

यहां कदली यानी केला, कबकब यानी ओल या सूरन, और मीन यानी मछली. लेकिन यह जो ओल है उसे तलकर पकौड़े की तरह भी य़ानी तरूआ बनाकर भी खाया जाता है. शायद अचंभा लगे पर मिथिला के भोजन भंडार का यह तो महज एक नमूना है.

तरूआ को लेकर एक अन्य लोकगीत है,

भिंडी भिनभिनायत भिंडी के तरुआ,

आगु आ ने रे मुँह जरुआ

हमरा बिनु उदास अछि थारी,

करगर तरुआ रसगर तरकारी

पूरा अर्थ न जानिए बस इतना ध्यान रखिए कि इस गीत में भिंडी से लेकर काशीफल तक के तरूए का जिक्र है.

तरूआ तो तकरीबन सभी सब्जियों का बनता है. आलू, बैंगन, गोभी, लौकी, कुम्हड़ा (काशीफल), परवल, खम्हार, ओल (सूरन), अरिकंचन (अरबी के पत्ते). लेकिन मिथिला में अतिथि के सत्कार में सबसे महत्वपूर्ण तरूआ होता है तिलकोर का. तिलकोर एक किस्म का कुंदरू जैसे फल का पत्ता होता है, जिसके औषधीय गुण भी होते हैं.

मिथिला में तिलकोर की बेल आपको हर घर की बाड़ी में मिल जाएगा. जानकारों का दावा है कि तिलकोर टाईप वन डायबिटीज के लिए प्राकृतिक चिकित्सा का रामबाण है. मैथिल लोग बताते हैं कि तिलकोर के नियमित सेवन से पेनक्रियाज से इंसुलिन का स्राव नियमित हो जाता है.

बहरहाल, मिथिला में तिलकोर ही नहीं बाकी सब्जियों का तरुआ बनाने की विधि तकरीबन एक जैसी है. इसके लिए अमूमन बेसन या चावल के आटे (जिसको मैथिली में पिठार कहा जाता है) का इस्तेमाल किया जाता है. मिसाल के तौर पर आलू के तरुए की बात की जाए तो उसे पतले टुकड़ों में स्लाइस की तरह काटकर रख लिया जाता है. इस तरह जैसे कि चिप्स के लिए काटा जाता है. बेसन फेंटकर उसमें नमक हल्दी मिला दी जाती है. अगर इच्छा हो तो थोड़ी लाल मिर्च का पाउडर भी. नमक आप स्वाद के मुताबिक डाल सकते हैं.

फिर आलू के फ्लेक को उस बेसन में डुबोकर कड़कते तेल में तल लिया जाता है. आंच धीमी रखने से तरूआ अच्छे से पकता है. ऐसा ही, बैंगन और तिलकोर समेत अन्य सब्जियों के लिए भी किया जाता है.

तो अगली दफा आप जब भी किसी मैथिल दोस्त से मिलें तो उससे तरूआ खाने की फरमाईश जरूर करें. लेकिन याद रखिए, तरूआ तरूआ है, यह पकौड़ा नहीं है.

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Friday, February 16, 2018

जीवन का असली मजा तो गोलगप्पे में है

बाजार गया तो देखा भीड़-भाड़ के बीच भी एक जगह कुछ ज्यादा ही भीड़ थी. गोल घेरा-सा बना था. खासकर महिलाओं की ज्यादा तादाद थी. जिज्ञासावश वहां गया तो पता चला कि वहां गोलगप्पे बिक रहे हैं.

अब गोलगप्पों का तो क्या है, आपको दिल्ली में बंगाली मार्केट से लेकर कनॉट प्लेस और संगम विहार से लेकर रोहिणी तक मिल जाएंगे. लेकिन यह ऐसा शुद्ध स्वदेशी डिश है जो देश के हर हिस्से में मिलता है.

गोलगप्पा उर्दू का शब्द है. जैसा नाम से ही पता चलता है कि गोल पूरी जैसी चीज में आलू के चटकारेदार मसाला बनाकर डाला जाता है और उससे भी चटकारेदार रस उसमें भरकर कागज के पत्तल या पत्तों के दोने में रखिए और रखने के फौरन बाद गप्प से उदरस्थ कर जाइए. आपने देर की नहीं, कि बुलबुला फूटा नहीं. तोड़कर इसको खाना तो तकरीबन उतना ही नामुमकिन है जितना ग्यारह मुल्कों की पुलिस के लिए डॉन को पकड़ना.

तो गोल चीज को गप्प से मुंह रख लेने से ही शब्द बना गोलगप्पा. वैसे अंग्रेजीदां लोगों को बता दें कि अंग्रेजी के शब्दकोश में गोलगप्पे का अर्थ ‘पानी से भरा इंडियन ब्रेड’ या फिर ‘क्रिस्प स्फेयर ईटेन’ लिखा गया है! इसके ही एक और नाम पानीपूरी का शाब्दिक अर्थ है "पानी की रोटी" इसके मूल के बारे में बहुत कम जानकारी है पानी पूरी शब्द को 1955 में और गोलगप्पा शब्द को 1951 में दर्ज किया गया.

जरा बताइए तो, गोलगप्पे में डलता क्या है? एक पूरी होती है, जो या तो आटे से बनती है य़ा फिर सूजी मिलाकर. फिर गोलगप्पे वाला अपने अंगूठे से इसमें बड़ी मुलायमियत से एक छेद करता है, और उसमें एक मसाला डालता है. अलग-अलग इलाकों में गोलगप्पे में भरा जाने वाला मसाला अलग हो सकता है. लेकिन आलू उसमें केंद्रीय भूमिका में होता है.

आलू का मसाला तैयार करते वक्त उबले आलू को इमली के पानी, मिर्च, चाट मसाले, प्याज वगैरह के साथ मिलाया जाता है. इस मसाले को गोलगप्पे के अंदर डालकर उसे फौरन मटके में भरे एक और तरल से भरकर आपको दिया जाता है. इसमें भी इमली का रस और नमक होता है, मिर्च का पाउडर भी. लेकिन इसके अलहदा जायके भी होते हैं. कोई नींबू का पानी, पुदीने का पानी, खजूर का पानी और बूंदी डला सिरके का पानी तो है ही, हाल ही में मेरा साबका हींग के स्वाद वाले पानी से भी पड़ा. पर मेरा पसंदीदा तो झारखंड-बंगाल वाला हल्का खट्टापन लिए इमली की खटाई वाला पानी ही है.

अभी यह लिख रहा हूं तो गोलगप्पे का जायका जबान पर तैर गया है और मुंह में पानी आ गया.

वैसे झारखंड उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में गोलगप्पे को गुप चुप कहते हैं. गोलगप्पे के दीवानों की संख्या पूरे देश में है. सो उन्होंने अपने प्यार के मुताबिक, गोलगप्पे को कई नाम दिए हैं. महाराष्ट्र में इसका नाम पानीपूरी बताशा है तो गुजरात में पानीपूरी. बंगाल और बांग्लादेश में इसको फुचका कहते हैं.

कुछ लोग गोलगप्पे की शुरूआत बनारस से मानते हैं. सन् 1970 में दिल्ली से बच्चों की एक मैगजीन निकलती थी, जिसका नाम रखा गया था ‘गोलगप्पा’. लेकिन कहा-सुना जाने वाला इतिहास कुछ और कहता है. जो लोग दिल्ली आए हैं या यहां रहते हैं उन्हें पुरानी दिल्ली खासकर लाल किले के आसपास के इलाके में जाने का मौका ज़रूर मिला होगा. जिस जगह चांदनी चौक है, वहां आपने एक चौक देखा होगा जिसे फव्वारा कहते हैं. इस अलकतरे की आज की सड़क पर बादशाह शाहजहां के वक्त में नहरें बनवाई गई थीं, जो यमुना का पानी किले और शहर तक लाती थीं. पूरे शाहजहांनाबाद (उस वक्त की दिल्ली) के बाशिंदे उसी नहर से पानी पिया करते थे.

लेकिन, एक वक्त आया जब उस नहर का पानी किसी वजह से गंदा हो गया और शहर के लोग कै-दस्त से परेशान हो गए. फिर शाहजहां के बेटी रोशनआरा ने शाही हकीम को बुलाकर इन बीमार लोगों के लिए कोई नुस्ख़ा तैयार करने को कहा. हकीम साहब ने नुस्खा तैयार कर दिया और लोगों को पिलाया. लोग चंगे हो गए पर कुछ लोगों को इसका जायका बहुत मजेदार लगा. सो उन शौकीन लोगों ने इस नुस्खे को बनाना जारी रखा और उसे आटे की छोटी पूरियों में भरकर पिया जाने लगा. तो इस तरह गोलगप्पे का जन्म हुआ जो कहीं फुचका, कहीं गुपचुप, कहीं पानी बताशा, कही पानी पूरी और कहीं किसी और नाम से जाना जाता है.

राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे पताशी नाम से जाना जाता है. लखनऊ में पांच अलग-अलग टेस्ट के पानी के साथ मिलने वाले पांच स्वाद के बताशे भी काफी फेमस हैं. इसका पानी सूखे आम से बनाया जाता है. गुजरात में चपातियों को फुल्की कहा जाता है, लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में गोल गप्पों को भी फुल्की कहा जाता है. इस नाम से इसे काफी कम लोग जानते हैं. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में गोल गप्पों को टिक्की कहा जाता है.

जो लोग थोड़ी भदेस जबान जानते हैं उनके लिए पड़ाका शब्द जरूर पटाखे से ताल्लुक रखता होगा लेकिन अलीगढ़ में गोलगप्पों को पड़ाका ही कहते हैं. तो गुजरात के कुछ हिस्सों में इसे पकौड़ी भी कहा जाता है. इसमें सेव और प्याज मिलाया जाता है और पानी को पुदीने और हरी मिर्च से तीखा बनाते हैं. कीमत भी इसकी कोई ज्यादा नहीं. जो गोलगप्पा हम अमूमन खाते हैं अभी, वह कोई दस रुपए में चार मिलते है. बचपन में एक रू. के दस गोलगप्पे मिलते थे, इसकी याद तो मुझे भी है.

लेकिन असली मजा तो तब है जब कोई गोलगप्पे वाले से कहे, भैया इसमें मिर्ची थोड़ा और डालना. लोग जब गोलगप्पे जब खा चुके होते हैं तो साथ में घलुए में, भैया सूखी खिला दो कहना कत्तई नहीं भूलते. आखिर मूल से ज्यादा प्यारा सूद जो होता है. तो अगली दफा जब भी गोलगप्पे खाने जाएं तो शाही हकीम और शहजादी रोशनआरा को जरूर याद कीजिएगा और बरसात के मौसम में इससे बचने की कोशिश तो कीजिएगा, लेकिन साथ ही यह भी याद रखिएगा कि यह जो गोलगप्पा है न, यह है असली स्वदेशी डिश.

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Thursday, February 15, 2018

प्रेम केवल फिजिक्स-केमेस्ट्री-बॉयोलॉजी नहीं, हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियो भी है...

बचपन में हीर-रांझा देखी थी, बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे. तब लगा दाढ़ी प्रेम का पोस्टर है. भरोसा न हो तो एक और फिल्म हैः लैला-मजनूं. चॉकलेटी ऋषि कपूर, जिनके बांह चढ़ाए टैक्नीकल स्वेटरों का जमाना दीवाना था, इस फिल्म में ब्लेड क इंतजार करके थक कर बैठ गई दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे.

जिस नाकाम प्रेमी ने झाड़ीनुमा दाढ़ी न बढ़ाई, उसके दुख का थर्मामीटर ही डाउन. मानो दाढ़ी दुख के प्रकटीकरण का उपकरण है. संकेत है. प्रेम में नाकाम हुए और दाढ़ी नहीं बढ़ाई? अरे मरदे कैसा प्यार किया था. छी दाढ़ी नहीं बढ़ाई. धिक्कार है दाढ़ी तक नहीं बढ़ाई?

प्रेम में मात खाए लोगों के दुख को साकार करने के भी कुछ प्रॉप (प्रॉपर्टी) होते हैं. बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दनाक ध्वनि अविरल झरझराएः 'ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नही या फिर, 'कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को. रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद, पत्थर हों कि उछलते ही जाएं, रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक करती जाए, करती ही जाए.

पैमाने पर पैमाने खाली होते जाएं. मयखाने में लुढ़क जाएं. होश न रहे. (जोश तो पहले ही जा चुका है) आप यह न कहें कि आप क्यों ऐसे फलसफे दे रहे हैं कि प्रेम में लोग नाकाम ही होते हैं. अब प्रेम को लेकर मैं क्या कहूं, खुद कबीर कह गए हैं

आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन व्यवहार।

(अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है, किंतु प्रेम का निरंतर समान रूप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है)

तो जो प्रेम करेगा उसका निवेदन माना भी जा सकता है, नामंजूर भी किया जा सकता है. तो अगर आप प्रेम करते हैं, और करना ही चाहिए, दुनिया में नफरत फैल रही है प्रेम कम है, तो आप फौरन से पेश्तर इजहार कर दिया करें.

पर आप इजहार करने में देर करेंगे तो खासी दिक्कत हो सकती है. कुछ भले लोग तो सही वक्त का इंतजार करते रह जाते हैं और जैसा कि एक मशहूर हिंदी फिल्म में नायक का संवाद है, कि मुहल्ले के उनके प्रेम को कोई डॉक्टर-इंजीनियर लेकर उड़ जाता है. अतएव, देर न करें.

चूंकि प्रेम करना कोई दिल्लगी नहीं, सो दिल की बात फौरन बता दें. प्रेम में डायरेक्ट ऐक्शन सबसे बेहतर विकल्प है. आप मान कर चलिए कि यह मिसफायर भी हो सकता है. महिला सशक्तिकरण के दौर में आपने शिष्टता में जरा भी चूक की (मुझे उम्मीद है कि आप खुद को बाहुबली न समझें कि आप लड़की छेड़ देंगे और पिटेंगे नहीं) तो आप खुद नायिका से, उसके भाई और पिता से पिटने के लिए तैयार रहें.

चूंकि बड़े लोग कह गए हैं कि प्रेम गली अति सांकरी होती है. ऐसे में, प्यार की राह में पिट-पिटा जाना, हड्डी तुड़वाना कोई बड़ी बात नहीं है. तो इतने बलिदान के लिए तैयार रहें.

प्रेम की बात हो रही है तो अभी इंटरनेट पर एक सनसनी का जिक्र किए बिना बात अधूरी रहेगी. प्रिया प्रकाश वॉरियर अब जबकि राष्ट्रीय क्रश घोषित हो चुकी हैं, तो आप भी उस वीडियो में दिखाए हीरो की तरह शर्माएंगे इसकी पूरी उम्मीद की जानी चाहिए.

इस दुनिया में प्रेमियों पर जुल्म-ओ-सितम की इंतिहा हुई है. कभी संप्रदाय के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी सिर्फ खानदानी दुश्मनी के नाम पर, मतलब अछूत कन्या से लेकर कयामत से कयामत तक, और कभी खुशी कभी गम से लेकर इश्कज़ादे तक, जमाना मुहब्बत करने वालों के खिलाफ गोलबंद रहा है. पर फिर कबीर याद आते हैं,

कहां भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास
नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।

शरीर बिछुड़ने और दूर में बसने से क्या होगा? केवल दृष्टि का अंतर है. मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है.

यही वह प्रेम है. जो ढोला को मारू से, सोहिणी को महिवाल से, लैला को मजनूं से, मनु को शतरूपा से, शीरीं को फरहाद से, नल को दमयंती से, बाज बहादुर को रानी रूपमती से, मस्तानी को बाजीराव से और अमिताभ को रेखा से बांधे रखता है.

आखिर,

प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।

प्रेम कभी भी पुराना नहीं होता. यदि अच्छी तरह प्रेम किया गया हो तो जिस तरह सौ साल तक भी वर्षा में रहने पर भी पत्थर से आग अलग नहीं होता उसी तरह प्रेम बना रहता है.

उम्मीद पर दुनिया कायम है और मुझे उम्मीद है कि देश और दुनिया के हर हिस्से में कायम नफरत हार जाएगी और प्रेम की फसल लहलहा उठेगी. मौका शिवरात्रि का भी है, तो शिव और सती के प्रेम को अपना उत्स बनाइए.

यह ठीक है कि पखवाड़ा ही बाबा वैलेंटाइन के नाम का है. पर महर्षि वात्स्यायन को मत भूलिए. बाबा वैलेंटाइऩ तो सिर्फ प्यार करने वालों को मिलवाते थे पर हमारे यहां तो वैलेंटाईन के भी चच्चा पैदा हुए हैं जो प्यार करने की खासी अंतरंग गतिविधि बता गए हैं. स्टेप बाई स्टेप.

और हां, सबको वात्स्यायन दिवस के पश्चिमी संस्करण की शुभकामनाएं.

Sunday, February 11, 2018

ये जो देश है मेरा की गौरव झा की समीक्षा

आज सुबह ही यह किताब पढ़कर खत्म की, तो सोचा दो-चार लाइनें लिख दी जाएं इस किताब के बारे में, जिसे हमारे मामा ने लिखा है। यह देश के जमीनी हकीकत की कहानियां हैं, जो उन्हें पत्रकारिता के दौरान अनेक जगह में किये गए यात्राओं से मिली हैं। उन जानकारियों, अनुभवों को उन्होंने बहुत रिसर्च के बाद किताब की शक्ल दी है।

इस किताब में भारत के पांच हिस्सों और वहां के लोगों का दर्द ए हाल बयां किया गया है। बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश/उत्तरप्रदेश) के लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं, कूनो पालपुर (मध्य प्रदेश) के सहरिया जनजाति पर अभ्यारण्य की वजह से  विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, नियामगिरि (ओडिशा) के डंगरिया-कोंध जनजाति पर बॉक्साइट खनन के लिए विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, सतभाया पंचायत (ओडिशा) के लोगों को बढ़ते समंदर का खतरा परेशान किये हुए है, लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) के लोगों को नक्सलियों-पुलिस-राजनीतिक पार्टी के कैडर का खतरा हमेशा परेशान करता रहता है।

आपको पढ़कर यह भी पता चलेगा कि ऐसा नही है कि इन परेशानियों के निपटारे के लिए सरकारों ने प्रयास नही किये। ढेरों प्रयास किये गए और किये जा रहे हैं। बजट आवंटित किए जा रहे हैं, स्थानीय लोग भी प्रयास कर रहे हैं। पर एक चीज की कमी हर जगह दिख रही है वह है उन योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी, लापरवाही, लूट-खसोट, अनियमितता।

उन जगहों के इतिहास, भूगोल, वर्तमान और भविष्य के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की गई है।

आमलोगों से बातचीत करके उनकी समस्या को सामने रखने का बेहतरीन प्रयास आपको किताब में दिखेगा। हर इलाके के परेशानियों को आंकड़ों सहित दर्शाने के कारण उसे समझना आसान हुआ है, कई बारीक जानकारियां मिलेंगी आपको उन जगहों के बारे में, परिस्थिति के बारे में इस किताब को पढ़कर।

साथ में यह भी पता चलता है कि लेखक ने इसके लिए कितनी मेहनत की होगी।

एक बार जब आप किताब पढ़ना शुरू कीजियेगा तो आपको उन क्षेत्रों के बारे में जानने की इच्छा इतनी बढ़ जाएगी कि बिना खत्म किये किताब छोड़ना मुश्किल होगा। आपके भी जेहन में ये सवाल आएगा कि विकास के मायने सबके लिए एक ही पैमाने से तय किये जा सकते हैं क्या??

बेहतरीन किताब को लिखने के लिए मामा जी को बधाई। जय हो,शुभ हो।

Friday, February 9, 2018

किसानों से किया वादा पूरा नहीं कर पाएंगे मोदी!

भारत में जिस तरह अर्थव्यवस्था झटकों से उबरने की कोशिश कर रही है और जिस तरह कृषि की विकास दर भी गोते लगा रही थी, किसान अधिक उपजाने पर भी संकट में था और कम उपजाकर भी, ऐसे में खेती-किसानी की तुलना कुछ लोग ब्लू व्हेल गेम से करने लगे थे, जिसमें आखिर में आकर मौत ही हासिल होनी है.

ऐसे में, लग रहा था कि इकोनॉनोमिक सर्वे 2017-18 में इस पर गंभीरता से कुछ कहा जाएगा. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ तथ्य प्रधानमंत्री मोदी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, जिसमें खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को रेखांकित करने की कोशिश की गई है.

बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का एक लक्ष्य तय किया. अब भारत में खेती से जुड़े तमाम कार्यक्रम और योजनाओं की रुख इसी तरफ मुड़ गया लगता है.

आर्थिक सर्वेक्षण "मध्यकालिक अवधि में खेती से होने वाली आमदनी 20 से 25 फीसदी तक घटने" की चेतावनी देता है. देश में खेती सबसे अधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है और ऐसी चेतावनियां खेतिहरों की आमदनी दोगुनी करने के दिशा में कोशिशों पर पानी फेर सकती हैं.

आर्थिक सर्वे यह भी कहता है कि सरकार का खेतिहरों की मुश्किल दूर करने और उनकी आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लगातार फॉलो अप करना होगा, जिसमें किसानों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने के लिए फैसलाकुन कोशिशें भी करनी होंगी. बिजली और उर्वरक पर दी जा रही सब्सिडी की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए मदद पहुंचानी होगी.

आर्थिक सर्वेक्षण साफ करता है कि मौसम में तापमान में अत्याधिक उतार-चढ़ाव से किसानों की आमदनी में खरीफ की फसल के दौरान 4.3 फीसदी की कमी आई है, जबकि रबी की फसल के दौरान यह कमी 4.1 फीसदी रही है. जबकि ज्यादा बारिश ने आमदनी को क्रमशः 13.7 और 5.5 फीसदी कम कर दिया.

किसानों की आमदनी पर मौसम की मार असिंचित इलाकों में अधिक रही है. गौतरलब है कि देश के 60 फीसद रकबे में सिंचाई का जरिया महज बारिश ही है. आर्थिक सर्वे में कहा गया है, 'एक बार फिर, इन औसतों ने विविधता पर असर डाला. मौसम में बदलाव का असर असिंचित इलाकों में ज्यादा रहा.

अभी यह स्पष्ट नहीं कि कृषि राजस्व किस तरह मुड़ना चाहिए--एक तरफ तो उपज में कमी आई दूसरी तरफ, कम आपूर्ति से स्थानीय रूप से कीमतों में उछाल आई. ऐसे में नतीजे साफ तौर पर संकेत दे रहे हैं कि "आपूर्ति पर दुष्प्रभाव" ज्यादा जोरदार रहा है--उपज में कमी ने राजस्व को कम कर दिया.'

सर्वे के मुताबिक, इन सालों में जब तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, वर्षा सिंचित जिलों में खरीफ के दौरान किसानों की आमदनी 6.2 फीसदी कमी हुई, जबकि रबी की फसल में यह कमी 6 फीसदी रही. इसी तरह, उन वर्षों में जब बरसात की मात्रा औसत से 100 मिलीमीटर कम रही, किसानों की आय में खरीफ के दौरान 15 फीसदी और रबी के दौरान 7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.

अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 फीसदी की कमी आई है. वर्षासिंचित इलाकों में यह औसत 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है. यह तथ्य वाक़ई चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में खेती से आय पहले ही काफी कम है.

इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सरकार का किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य भी अप्रासंगिक हो जाएगा. अगर सरकारी आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए नुकसान को शामिल कर लिया जाए तो कहानी सिरे से बदल जाएगी.

सर्वे की चेतावनी और भी चिंताजनक है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान असली असर से थोड़ा कम ही सामने आया है. आखिर भविष्य में तापमान बढ़ने की दुश्चिंता भरी भविष्यवाणियां भी हैं. नीति नियंताओं के लिए यह तथ्य उनके सिर का तापमान बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.

Monday, February 5, 2018

मध्य प्रदेश में किसानों बटाईदारों का भाजपाई वोट कैसे बचाएंगे शिवराज?

समर पर समर फतह करती जा रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनाव के नतीजों के बाद शायद में कुछ कसमसाहट में आए. मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है और मुकाबला बराबरी पर छूटा है. दोनों पार्टियों को 9-9 सीटें मिली हैं. एक सीट निर्दलीय के खाते में गई है.

भाजपा के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है. खासकर चुनावी साल में.

इस सूबे में असंतोष की वजह क्या है? खासकर, किसानों के बीच गुस्से की वजह को जानना बेहद जरूरी है. पिछले कुछ साल में मध्य प्रदेश की छवि कृषि उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले सूबे की बनी है. यहां राज्य सरकार ने सिंचाई का रकबा बढ़ाने में भी जोरदार काम किया. फिर भी किसान दुखी और निराश क्यों है? पिछले साल जून के महीने से ही सूबे की किसान हितैषी छवि को धक्का लगना शुरू हुआ, जब मंदसौर में किसान आंदोलन पर उतर आए थे. पुलिस ने आंदोलनरत किसानों पर गोलीबारी भी की थी.

यह मानना गलत नहीं होगा कि भारत में खेती-बाड़ी अपने बुरे दौर से गुजर रही है और इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को धक्का पहुंचाया है. जाहिर है, कृषि और किसानों की समस्या अब सियासत के केंद्र में है.

कृषि की इन समस्याओं की वजह से ही गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को ग्रामीण सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था. अब मध्य प्रदेश के निकाय चुनावों में औसत प्रदर्शन से भाजपा यह सोचने के लिए मजबूर होगी कि शिवराज सिंह चौहान के लगातार तीन बार के कार्यकाल से सत्ताविरोधी रुझान से निपटना एक चुनौती तो है ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद ग्रामीण वोट संभाले रखना भी अहम है.

मध्य प्रदेश में करीब 72 फीसदी ग्रामीण वोट हैं. एक आंकड़ा बताता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 49 फीसद से अधिक किसानों ने एनडीए को वोट दिया था. साथ ही, एक तिहाई भूमिहीन बटाईदारों का वोट भी एनडीए को ही मिला था.

इन्हीं वोटों के दम पर शिवराज सिंह चौहान पिछले दो चुनावों में सत्ता-विरोधी रुझान को थामने में कामयाब रहे थे. लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में से कम से कम 60-70 सीटें ऐसी थीं, जहां भाजपा ने थोड़े ही अंतर से जीत दर्ज की थी.

2013 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से इलाकावार तरीके से अगर भाजपा और कांग्रेस के सीटों को देखें तो यह अंतर साफ दिख जाएगा, जहां भाजपा को मामूली बढ़त मिली थी. साथ ही यह भी साफ होगा कि उत्तरी मालवा कैसे भाजपा के मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित हो गया था. 2013 में भाजपा को कुल 165, कांग्रेस को 58 और अन्य को 7 सीटें मिली थीं.

मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में कुल 34 विधानसभा सीटें हैं जहां भाजपा ने 20 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस 12 सीटे लेकर आई थीं. लेकिन दोनों के वोट हिस्सेदारी में महज दो फीसदी का ही अंतर था. भाजपा को 37.9 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को 35.6 फीसदी.

विंध्य प्रदेश की 56 सीटों में से भाजपा को सीटें 36 सीटें और 39.1 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस कांग्रेस 18 सीटें और 33 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.


महाकौशल इलाके में कुल 49 सीटें हैं. यहां वोट शेयर में दोनों पार्टियों में गहरा अंतर था. वोट शेयर में यह अंतर करीब दस फीसदी का था. यहां भाजपा ने 34 और कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं.

उत्तरी मालवा में कुल 63 और जनजातीय मालवा इलाके में 28 सीटें हैं. इन दोनों इलाकों में भाजपा को क्रमशः 51.8 और 45.8 फीसदी वोट मिले थे. उत्तरी मालवा में भाजपा ने दबदबा कायम करते हुए 55 सीटें जीत ली थीं और कांग्रेस को महज 7 सीटों पर समेट दिया. कांग्रेस को वोट भी 37.8 फीसदी मिले. जनजातीय मालवा में भाजपा को 20 सीटें मिली थीं और कांग्रेस यहां भी सिर्फ 7 सीट ही जीत पाई थी. लेकिन उसे वोट करीब 40 फीसदी मिले थे.

लेकिन इस बार शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनौती ज्यादा कठिन है क्योंकि ग्रामीण मध्य प्रदेश का बड़ा तबका उनसे नाराज है. खासकर, जिस सीमांत भूमिहीन किसान और छोटी जोत वाले किसानों ने भाजपा को वोट दिया था, वह उससे बिदके हुए लग रहे हैं.

असल में, मध्य प्रदेश के किसानों की आमदनी कम बारिश और बदलते मौसम की वजह से खराब होती फसलों की वजह से पिछले दो सालों से कम होती गई है. उनकी हालत 2013-14 से ही खराब होनी शुरू हुई है जब खेती का जीडीपी सिकुड़कर 1.14 फीसदी रह गया और उसके अगले साल यह बढ़कर 4.6 फीसदी तो हुआ लेकिन फिर 2015-16 में घटकर 1.7 फीसदी ही रह गया. अब आंकड़ों में एक जादुई उछाल दिखा, जब 2016-17 के आंकड़ों ने इस वृद्धि को 22 फीसदी से अधिक बता दिया.

इसके पीछे सामान्य वजह थी कि एक साल पहले के खराब उत्पादन के बाद बंपर उपज ने वृद्धि के आंकड़े को आसमान तक पहुंचा दिया. लेकिन नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उपज की कीमतों को धराशायी कर दिया. ऐसे में किसान चाहते हैं कि सरकार उनकी लागत का डेढ़ गुना कीमत दिलवाने का आश्वासन दे और उनके सारे कर्ज माफ कर दिए जाएं.

हालांकि, शिवराज सिंह चौहान इस गुस्से को थामने के लिए कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री भावांतर भुगतान योजना शुरू की है, जिसके तहत बादजार में उपज बेच पाने में नाकाम किसानों को सीधे सरकार मूल्य देगी. फिर भी किसान असंतुष्ट हैं और ऐसे मौके पर, जब चुनाव को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है, भाजपा को अपनी रणनीति को अलग नजरिए के साथ तैयार करना होगा.

आखिर कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने वाली भाजपा के लिए शिवराज समस्यामुक्त मध्य प्रदेश तो बनाना ही चाहेंगे.

Saturday, February 3, 2018

ये जो देश है मेरा किताब बिंदु छिब्बर की समीक्षा

शिवपुरी में एक स्कूल की प्रिंसिपल और पढ़ाकू बिंदु छिब्बर ने ये जो देश है मेरा की समीक्षा लिखी है, उसको यहां शेयर करने से रोक नहीं पायाः


Manjit Thakur' s book ' Ye jo desh hai mera' for me, broke a spell of 'books bought but not read / finished' lately.

It is a non-fiction account of a few rural-tribal pockets and the sufferings and agony that lead to the poor going destitute or committing suicides.
The book is basically a study of five troubled areas. There are the poor landless farmers of bundelkhand, wrestling with the parched land, failing crops and indebtedness. Second are the tribals Seheriya, displaced from their native land and resources for an outlandish sanctuary.
The third chapter highlights the fascinating Dangariya-kondh tribes of Niyamgiri, who locked horns with Vedanta, the company that wanted to exploit for bauxite their sacred mountain Niyamgiri! Their united action through gram-sabhas proved their vehement stand against dacoity in the name of development! The pristine greenery of kalahandi belies their long combat against starvation. When land is over-exploited and forests are brutally razed, an entire local civilisation is put to death.
The fourth part of the book is about the sinking lands of coastal Orissa..a place called Satbhaya. The land rich in bio-diversity, mangroves, crocodile and breeding place of Ridley turtles is being gradually gobbled by the hungry sea. Some experts blame global warming,coastal erosion and building of artificial ports. Infertility of soil affected crops, caused poverty and malnutrition and resulted in a reluctant exodus.
The last chapter depicts the trials and tribulations of ethnic group called Santhals in lalgarh, West bengal. Struggling for livelihood, they were caught in the deathtrap of the administration, fear of naxalites and manipulating Marxist communists and predatory capitalists. Fear prevailed over the green haven abundant in natural resource but notorious for violence, starvation and despair.
The book is easy-to-read and replete with official statistics that assert its trustworthiness and anecdotes that move you to compassion.
In our democratic set-up, regional imbalances, corruption and apathy in the system, lack of far-sightedness and injustice are rampant. It would not be patriotic but foolish to deny it. It is an impartial, thought-provoking account of the challenges before the nation and more sensitivity is required to overcome them. 

I applaud the efforts ofManjit Thakur and recommend the book highly especially to the many idealistic youngsters I can see desirous of making a difference.