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Saturday, October 15, 2022

आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत मनमाना प्रतीत होता है

मंजीत ठाकुर

बीसवीं सदी की शुरुआत तक इतिहासकार मानते थे कि भारत में पहले असभ्य पाषाणयुगीन लोग रहते थे और करीब 1500 ईसापूर्व में जब आल्प्स की पहाडियों के पास से ‘आर्य’ घोड़ों पर चढ़कर और लोहे के हथियारों के साथ आए तब जाकर यहां पर एक नए युग की शुरुआत हुई. औपनिवेशिक इतिहासकार इस आक्रमण का ही परिणाम भारतीय सभ्यता का विकास मानते हैं. इन इतिहासकारों के मुताबिक, आर्य आक्रमण सिद्धांत ही एकमात्र सिद्धांत है.

लेकिन, इन इतिहासकारों का मुताबिक, 1500 ईसापूर्व में आर्य इधर आए थे (200 बरस के स्टैंडर्ड डेविएशन के साथ भी) तो भी यह तारीख तय करना एकदम से मनमाना था. असल में, इस तारीख के पीछे ‘उनके पास’ कोई पुरातात्विक या लिखित साक्ष्य नहीं था.

इस सिद्धांत के पीछे दो कारक काम कर रहे थे. पहला, बाद के सालों में मध्य एशिया की तरफ से हुआ लगातार आक्रमण. दूसरा, यूरोपीय और (उत्तर) भारतीय भाषाओं के बीच भाषायी समानता. (कुछ लोग इसके पीछे साजिश भी बताते हैं कि बाद के आक्रमणकारियों को डायल्यूट किया जा सके यह कह कर कि, हम बाद के आक्रमणकारी हैं और तुम पहले के)

हमारी गरदन उस वक्त अंग्रेजों के बूटों के नीचे थे इसलिए इतिहासकारों के लिए यह कहना भी मुफीद रहा होगा कि अंग्रेज भी बाद के दौर के आर्य हैं और हम लोगों को ‘सभ्य’ बनाने आए हैं. (हालांकि, यूरोप के इतिहास को ध्यान से पढ़िएगा तो पता चलेगा कि ये लोग, खुद कितने असभ्य लुटेरे थे)

लेकिन हडप्पा-मुएन-जो-दड़ो जैसे शहरों के पता लगने और हडप्पा सभ्यता के शहरों की खुदाई के बाद इस सिद्धांत पर सवालिया निशान लग गए. उसी समय यह पता चल गया कि भारत की सभ्यता के लिए 1500 साल ईसापूर्व पहले का वक्त तो एकदम हाल की घटना है.

आप भी थोड़ा हिसाब लगाइए. अगर आर्य 1500 ईसापूर्व आए थे और उस वक्त वे लोग घोड़ों पर सवार पशुपालक भर थे तो दूसरा प्रस्थान बिंदु आप बुद्ध के जन्म का लीजिए. बुद्ध ईसा से 563 साल पहले हुए. यानी बीच की अवधि बची 900 सालों की.

इन नौ सौ सालों में भारत में आर्य आए, घोड़ो से उतरकर खेती करनी शुरू की. गांव बनाए. उनको शहरों में तब्दील किया. ऋग्वेद से लेकर यजुर्वेद तक की रचना की. सोलह महाजनपद बसाए. हिंदू धर्म फला-फूला और उसमें साथ के साथ इतनी बुराइयां आ गईं कि उसको ठीक करने के लिए बुद्ध और महावीर को नया धर्म बनाना पड़ा! इतनी सारी घटनाएं महज 900 साल में!

लेकिन, साहब वैचारिक रूप से कलर्ड इतिहासकार इतनी आसानी से हार नहीं मानते. उन्होंने तर्क दिया कि हडप्पा की सभ्यता द्रविड़ों की थी (जिनको आप आज का तमिल कहते हैं) और द्रविड़ों ने यह शहर बसाया और ‘आक्रमणकारी आर्यो’ ने उन शहरों को नष्ट कर दिया. इसलिए आर्यों के देवता इंद्र को ‘पुरंदर’ यानी ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा जाता है.

लेकिन, इस थ्योरी में भी झोल है.

असल में इतने बड़े पैमाने पर हुए आक्रमणों का कोई पुरातात्विक साक्ष्य अभी तक नहीं मिला है. दूसरी तरफ, राखीगढ़ी में ईसा से 4500 साल पुराना एक शव मिला है, इससे ‘रंगे’ इतिहासकारों में अलगै सनसनी-खलबली है.

अब हडप्पा शहरों में कोई अचानक तो ध्वंस दिखता नहीं है. हर इतिहासकार आपको कहेगा (एकदम ही ब्लैंक चेक पर न बिका हो तो) कि हड़प्पा के शहरों का विघटन शनैः शनैः हुआ है. शनैः शनैः नहीं समझते? जा मरदे, अंग्रेजी वाला शब्द लिख देंगे तो लोटपोट होते रहोगे. आसान हिंदी में शनैः शनैः का अर्थ है धीरे-धीरे, उर्दू में आहिस्ते-आहिस्ते और अंग्रेजी में आप यूं समझेः Harappan cities suffered a slow decline. अब तो बूझ गए होगे. ठीक?

अब राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवार बनते ही आपको राजनैतिक बिसात की याद आ रही होगी और आपको पता चल गया होगा कि वह संताल जनजाति की हैं. मौजूदा राष्ट्रपति दलित हैं.

मने, अगल-बगल नजर दौड़ाइए तो आपको जाति, जनजाति, भाषा और न जाने किस-किस किसिम की विभिन्नता नजर आएगी.

अच्छा, आपको इसके अलावा यहूदी, पारसी, तुर्क और अहोम भी दिखेंगे.

इसके अलावा आप इस बात से शायद ही इनकार कर पाएं कि हजारों सालों से देश के अंदर आंतरिक विस्थापन और पलायन होता रहा है. आज राजस्थानी मारवाड़ी सिलीगुड़ी और अरुणाचल तक में कपड़े से लेकर खिचड़ीफरोश की दुकान लिए बैठा है. सरदार जी का ढाबा कन्याकुमारी में भी है और गोहाटी में भी.

उधर अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ ऐसी जनजातियां हैं जिनका मुख्यधारा के भारत के साथ मेल-जोल ज्यादा नहीं है. लेकिन हमारे हिंदुस्तान की इस बड़ी और मिली-जुली आबादी को लेकर आनुवांशिक अध्ययनों ने कमाल के नतीजों की तरफ इशारा किया है.

पहली बात, भारत में कोई भी नस्ल शुद्ध नहीं है. चाहे वह दरभंगा महाराज के खरोड़े भौर हों या महाराजा हरिसिंह कर्ण सिंह का खानदान. नस्ल के मामले में नेहरू-गांधी परिवार तो अलग ही मिसाल है.


इस फोटो का इस लेख से ताल्लुक नहीं है.  

फिर भी, हर खानदान में आनुवांशिक मिलावट है आप यह मानकर चलिए.

कुछ न हो तो अपने अगल-बगल चाचा-ताऊ-मामा-मौसा (और सबके स्त्रीलिंग रूपों) को नाप-तौल कर ही देख लीजिए. सबके रंग अलग. चाचा गहरे, पर आपके पिताजी गेहुआं, नानाजी एकदम झक्क अंग्रेज जैसे गोरे तो मौसी थोड़ी सांवली. होगा, चेक करिए.

लेकिन, 2006 में एक अध्ययन किया गया था जिसका नतीजा यह निकला है कि भले ही हम लोग अलग साइज और शेप में हो पर भारतीयों के मोटे जीन पूल में पिछले 10,000 (दस हजार) साल से कोई बड़ा जीन इंजेक्शन नहीं हुआ है.

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि अगर इंडो-यूरोपियनों (पढ़ें आर्यों) का कोई बड़ा आगमन हुआ भी होगा तो यह कम से कम 10 हजार साल पहले हुआ होगा. और उस वक्त तक न तो घोड़े पालतू बनाए गए थे और न ही लोहे के हथियार बनाने की कला विकसित हुई थी.

इसी तरह, यही अध्ययन यह भी बताता है कि द्रविड़ भाषी लोग लंबे समय से दक्षिण भारत में रहते आए हैं और उनका ‘कथित’ द्रविड़ जीनेटिक पूल का भी उधर-इच उद्भव ऐंड विकास हुआ होगा.

लेकिन बाद में जो अध्ययन हुए इससे तो इतिहासकारों का खाना गरगट हो गया. (खाना गरगट होना , मैथिली कहावत है मने कौर गले से न उतरना. बिना पानी पिए नहीं उतरेगा)

खैर. हार्वर्ड मेडिकल कॉलेज में डेविड रीख ने एक शोध किया जो नेचर पत्रिका में 2009 में छपा था. उसमें लिखा गया है कि, भारतीय आबादी के अधिकांश हिस्से की पुरखों के दो समूहों (एंसेस्ट्रल ग्रुप) के मिश्रण के रूप में व्याख्या की जा सकती है.

पहला है एएसआइ (Ancestral South Indians) और दूसरा है एएनआइ (Ancestral North Indians).

शोध के मुताबिक, एएसआइ पुराना ग्रुप है और इसका कोई रिलेशन किसी यूरोपीय. पूर्वी एशियाई या इस उपमहाद्वीप के बाहर के किसी समूह से नहीं है.

लेकिन, एएनआइ यानी एनसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन समूह की उत्तर भारत में अधिक हिस्सेदारी है और कश्मीरी पंडितों और सिंधियों में तो इनकी जीन पूल में 70 फीसद से अधिक की हिस्सेदारी है.

अब, आपके मन में लप्प से ख्याल आया होगा वही पुराने आर्य आक्रमण के सिद्धांत पर इस आंकड़े को रख देने का. है न, है न? हे हे.

ऐसा करने का नय. रुको. रुक जाओ. अगले पोस्ट तक रुक जाओ.

Sunday, October 9, 2022

शरद पूर्णिमा यानी कोजागरा में करिए लक्ष्मी पूजन, अपन अब पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं

एकतरफ रूस-यूक्रेन युद्ध, दूसरी तरफ बढ़ती मुद्रास्फीति... आर्थिक हालात पूरी दुनिया में चिंताजनक हैं. लेकिन इस नामउम्मीदी के दौर में भी भारत एक चमकीले स्पॉट की तरह उम्मीद जगा रहा है. रविवार को शरद पूर्णिमा का दिन है. अगर आप धार्मिक हैं तो इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करें. असल में, रविवार को शरद पूर्णिमा है. पूरे भारत में इस पूर्णिमा की अहमियत अलग है. आप चौंक गए होंगे कि देवी लक्ष्मी की पूजा तो दिवाली के दिन होती है, शरद पूर्णिमा को उनकी पूजा कैसे हो सकती है!

असल में, शरद पूर्णिमा के दिन इस लेख के जरिए हम देश के अलग-अलग हिस्सों में इस दिन प्रचलित कुछ सांस्कृतिक परंपराओं के बारे में बताने जा रहे हैं.

 

वैसे तो शरद पूर्णिमा की शाम को चांद के निहारने की रात मानी जाती है, क्योंकि इस रात चांद कुछ ज्यादा ही खिला-खिला नजर आता है. हो सकता है कि देश के अधिकतर हिस्सों में हो रही बारिश की वजह से आप चांद दा दीदार न कर पाएं. पर ऐसे ही मौकों के लिए एक शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा हैः

दिल के आईने में थी तस्वीर-ए-यार,
जब जरा गरदन झुकाई देख ली

आपको गरदन झुकाने की नौबत नहीं आएगी, आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर गरदन उठाइए और चांद को निहारिए. आप चलेंगे तो चांद साथ चलेगा. आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा. इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः

'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा.
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.'

कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चांदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चांदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी. 



मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है.

नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.

लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं, दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर कांटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं. जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है. जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकलकर बाहर आ जाता है. 



मखाने निकालना बड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं. शरद के चंद्रमा की इस भरपूर चांदनी का मजा सिर्फ मिथिलांचल में ही नहीं लिया जाता बल्कि मध्य प्रदेश, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र में भी इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन इलाकों में खीर के पात्र को रात भर चांदनी में रखकर सवेरे खाया जाता है. कहते हैं, शरद पूर्णिमा की रात में खुले आकाश के नीचे चांदी के पात्र में खीर रखने से उसमें अमृत का अंश आ जाता है.

असल में शरद पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा या कुआनर पूर्णिमा एक फसली उत्सव है. आसिन (आश्विन) के महीने में जब खेती-बाड़ी के सारे कामकाज खत्म हो जाते हैं, मॉनसून का बरसता दौरे-दौरा समाप्त हो जाता है, तब यह उत्सव आता है और इसे कौमुदी महोत्सव भी कहते हैं. कौमुदी का अर्थ चांदनी होता है. यह उत्सव गोपियों के साथ कृष्ण के रास का उत्सव है.

दंतकथाएं कहती हैं कि एक राजा अपने बुरे दिनों में दरिद्र हो गया और उसकी रानी ने जब कोजागरा की रात को जागकर लक्ष्मी पूजन किया तो राजा की समृद्धि लौट आई. कोजागरा की रात देवताओं के राजा इंद्र को भी पूजा जाता है.

अब कई लोगों का यह भी विश्वास है कि इन दिनों चांद धरती के ज्यादा नजदीक होता है और औषधियों के देवता चंद्र इन दिनों अपनी चांदनी में देह और आत्मा को शुद्ध करने वाले गुण भर देते हैं.


वेद कहता है कि चन्द्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ, 'चन्द्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत (पुरुषसूक्त). चन्द्रमा और सूर्य, इन्हीं दोनों से तो सृष्टि है. चन्द्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका सम्बन्ध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार अपनी चरम सीमा पर रहता है.

यह कैसा अभिशाप, चांद तक
सागर का मनुहार न पहुंचे,
नदी-तीर एकाकी चकवे का
क्रन्दन उस पार न पहुंचे.

समुद्र-मंथन के बाद महारत्न के रूप में एक साथ निकलने के कारण चन्द्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगमाता हैं, इसलिए उनके भाई चन्द्रमा सबके मामा हैः चन्दा मामा.

शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है. लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. मिथिला में कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुन्दरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उनसे हमेशा अपने घर में रहने की विनती की जाती हैः

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी
गंभीरावर्तनाभि: स्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रै: मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:
नित्यं सा पद्महस्ता वसतु मम गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता॥

कभी पूजा विधि को गौर से देखिए तो समझ में आएगा कि सामान्य पूजा के बाद बाकी देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोऽसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व).

कोजागरा की रात महाराष्ट्र का उत्सव थोड़ा अलग होता है. इसमें परिवार के सबसे बड़ी संतान को सम्मान दिया जाता है.

गुजरात में यह शरद पूनम है. जहां गरबा और डांडिया के साथ लोग इसे मनाते हैं. तो बंगाल के लिए यह कोजागरी लक्खी पूजो है. ओडिशा में यह शिव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा का दिन है. इसलिए वहां इसे कुमार पूर्णिमा कहते हैं. कार्तिकेय ने इसी दिन तारकासुर के साथ युद्ध किया था.



ओडिशा की लड़कियां कार्तिकेय जैसा वर पाने के लिए पूजा करती हैं. क्योंकि कार्तिकेय या स्कंद—जिनको तमिलनाडु में मुरुगन कहते हैं—देवों में मोस्ट एलिजिबल बैचलर हैं. सबसे दिलेर, हैंडसम और खूबसूरत भी. लेकिन विचित्र है कि कार्तिकेय जैसा वर मांगने का दिन होने के बावजूद ओडिशा में इसका कोई कर्मकांड नहीं है. इसके बजाय सुबह में सूर्य की ही पूजा 'जान्हीओसा' होती है. शाम में चांद की पूजा होती है और उनके लिए खास भोग चंदा चकता बनता है. इसको घी, गुड़, केला, नारियल, अदरक, गन्ने, तालसज्जा, खीरा, मधु और दूध से बनाया है और फिर इसको कुला (पंखे) पर रखा जाता है. कोजागरा के दिन कटक से आगे केंद्रपाड़ा के तटीय इलाको में गजलक्ष्मी की पूजा भी होती है.

इलाके अलग-अलग है तरीके भी अलग, लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है.

हमलोग दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं. कोविड के दौर में -6.6 फीसद की नकारात्मक वृद्धि दर से उबरकर हमने 6-7 फीसद की वृद्धि दर से उम्मीदें जगा दी हैं. कोरोना के बाद हमारी रिकवरी की दर सबसे अधिक है. मुश्किल वक्त में भी हमारी ग्रोथ रेट बाकी देशों की तुलना में कम गिरी, तो उम्मीद में इससे अधिक और क्या चाहिए.

आज हजरत साहब की जयंती मिलाद-उल-नबी भी है. चांद देखिए और दुनिया भर के महापुरुषों को याद करिए. आध्यात्मिकता, सांसारिकता, व्यावहारिकता सबका मेल है शरद पूर्णिमा में.

Friday, September 23, 2022

हम इंसानों में क्या मानवेतर जीन मौजूद है!

आज से कोई 70,000 साल पहले की बात है. हिमयुग अफ्रीका में ही काट चुकने के बाद एक और मानव जत्था (होमोसेपियंस) हहास बांधकर निकला. इस बार उन्होंने निएंडरथल्स और दूसरी मानव प्रजातियों को खदेड़ दिया. उन्होंने निएंडरथल्स को न सिर्फ अरब प्रायद्वीपीय इलाके (अंग्रेजी मानसिकता वाले इसको 'मध्य-पूर्व' पढ़ें, स्वतंत्र विचारक 'अरब प्रायद्वीप' ही पढें) से निकाल दिया, बल्कि यह निएंडरथल्स के विनाश की शुरुआत थी.

विचारणीय प्रश्न यह भी है कि करीब 45,000 साल पहले यही लोग पता नहीं कैसे, ऑस्ट्रेलिया जा पहुंचे. इस महाद्वीप में उस वक्त तक, इंसान नहीं पहुंचे थे. इन्हीं लोगों ने स्टाडेल में नर-सिंह (यानी सिर सिंह का का, शरीर इंसान का) को तराशा. (अपने नरसिंह अवतार को भी याद करते हुए हाथ जोड़ लो माराज.)

इसका मतलब यही है कि हमारे पुरखे आज के इंसानों जितने ही अक्लमंद रहे होंगे.

बहरहाल, बात को थोड़ा पीछे लिए चलते हैं. आज से कोई 65,000-70,000 साल पहले अफ्रीका से कुछ सौ लोगों का समूह निकला और अफ्रीका को पार करके अरब प्रायद्वीप के दक्षिणी हिस्से में पहुंचा. विद्वान मित्रों के लिए संदर्भ दे रहा हूं (निकोल माका-मेयर व अन्य, बीएमसी जेनेटिक्स, 2001 में प्रकाशित, मेजर जीनोमिक माइटोकोंड्रियल लिनियेजेज डेलिनेट अर्ली ह्यूमन एक्सपेंशन)

तो जाति और रंग के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानने वाले दुनिया भर के मूर्खो, हम-आप सभी इसी कुछ सैकड़ों मनुष्यों की संतान हैं. चाहे छुटकी मूंछों वाला हिटलर हो या लंबी मूंछों वाला स्टालिन, क्लीन शेव्ड चर्चिल हो या बेतरतीब दाढ़ी-मूंछों वाला चे-गुएरा. सदाशयी मार्टिन लूथर किंग और सम्मोहक मुस्कुराहट वाले गांधी, सब एक ही छोटे समुदाय की संतानें हैं.

इसका एक अन्य अर्थ हैः इन गैर-अफ्रीकी समुदायों में बहुत कम आनुवांशिक (जीनेटिक) अंतर होना चाहिए. क्या इसकी कोई चाबी इस बात में है कि वैश्विक महामारियों को लेकर हम सभी कथित नस्लों के लोग एक ही तरह से कैसे प्रभावित होते हैं?

बेशक, आधुनिक इंसानों के भौगोलिक विस्तार पर पर्यावरण और जलवायु की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

अपनी धरती का क्या है, इसका मिजाज भी हॉर्मोनल ही है. कभी ठंडा कभी गरम. आप स्त्री हैं तो अपने पति/ बॉयफ्रेंड को याद करे और पुरुष हैं तो तुनुकमिजाज पत्नी/ प्रेमिका को. सैकड़ों मौके मिल जाएंगे जब आपको उनके तापमान से तारतम्य बिठाना पड़ा होगा.

खैर. शुरुआती इंसानों ने जब अफ्रीका से बाहर कदम रखा होगा, तब धरती आज के मुकाबले काफी ठंडी रही होगी. धरती का बहुत सारा पानी बर्फ की चादरों में कैद रहा होगा. इसका मतलब यह भी हुआ समुद्रों का जलस्तर काफी नीचे रहा होगा. एक वैज्ञानिक अनुमान है कि तब समुद्री जलस्तर आज से कोई 100 मीटर नीचे था. (इस संदर्भ में एलिस रॉबर्ट की द इन्क्रेडिबल ह्यूमन जर्नी पढ़ना अच्छा रहेगा. ब्लूम्सबरी ने छापी है.)

तब तटीय इलाकों का भूगोल और जलवायु भी आज से एकदम अलहदा ही था.

यानी, हमारे जो कुछ सौ पुरखे अफ्रीका से बाहर निकले थे और दक्षिणी अरब प्रायद्वीप पहुंचे थे उन्हें अपेक्षया उथले लाल सागर को पार करना पड़ा होगा. और अरब के तटीय इलाके भी अधिक नम और सुखद रहे होंगे.

ऐसा प्रतीत होता है कि उसके बाद आधुनिक मानवों ने फारस की खाड़ी पार की होगी. आज फारस की खाड़ी की औसत गहराई करीबन 36 मीटर है. इस संदर्भ में जे काम्फ और एम. सदरीनासाब ने ‘द सर्कुलेशन ऑफ द पर्शियन गल्फ’ नाम का बेहतरीन अध्ययन किया है.

अब, एक अध्ययन कहता है कि बर्फ की चादरों में सिमटे पानी की वजह से अगर समुद्री जलस्तर 100 मीटर नीचे था, तो इसका मतलब यह हुआ कि फारस की खाड़ी शानदार हरा-भरा मैदान रहा होगा. समझिए, ईडन का गार्डन जैसा कुछ. यहीं रुक गए होंगे शुरुआती आगंतुक. इधर ही काफी आबादी बढ़ी होगी, रुक गए होंगे. यहां से मध्य एशिया और यूरोप की तरफ बढ़ना थोड़ा मुश्किल रहा होगा. हिमयुग चल रहा था न.

लेकिन मकरान तट के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप में उनका प्रवेश मुश्किल नहीं था. इधर यह बात याद रखने की है कि भारत की तट रेखा भी तब ऐसी नहीं थी, जैसी आज है. कई जगहों पर तो यह आज के तट से सौ-सवा सौ किमी आगे रहा होगा.

यूरोप में तब निएंडरथल्स थे शायद. क्या फारस वाले लोग उधर बढ़ें होंगे तो उनके साथ युद्ध हुआ होगा या संभोग? जो भी हो, हालांकि वैज्ञानिक कहते हैं कि निएंडरथल्स के कुछ जीन अभी भी मौजूद हैं. यानी कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिनमें मानवेतर जीन या गुण होंगे. यह राजनैतिक रूप से बवंडर खड़ा कर सकता है. इसलिए इस बात पर अभी यहीं मिट्टी डालिए. आगे बढ़िए.

लेकिन जितने का जिक्र बुरा नहीं उतना कर देते हैं.

जीव वैज्ञानिक बताते है कि इंसानों से संघर्ष के बाद निएंडरथल पच्छिम की ओर बढ़ते गए और जिब्राल्टर तक पहुंच गए, जहां उनका अंतिम समूह किसी गुफा में खत्म हो गया. हालांकि, निएंडरथल्स के खत्म होने के बारे में स्पष्टता नहीं है. यह भी अनुमान है कि शायद वे लोग सुमात्रा में टोबा ज्वालामुखी के फटने से मारे गए. उस ज्वालामुखीय विस्फोट का असर दक्षिण भारत तक हुआ था क्योंकि खुदाई में उसके राख दक्षिण भारत में भी मिले हैं.

बहरहाल, इंसानों का प्रसार दक्षिण-पूर्व एशियाई इलाके और वहां से ऑस्ट्रेलिया तक हुआ और यही वहां के एबोरिजिनिल्स के पुरखे बने. हालांकि आनुवांशिक अध्ययनों ने यह साबित किया है कि ऑस्ट्रेलियाई एबोरिजिनल्स का दक्षिण-पश्चिम एशियाई स्थानीय आदिवासियों के साथ आनुवंशिक कड़ियां मिलती हैं. पर आज के आधुनिक भारतीयों के साथ अभी तक कोई लिंक करने वाला जीन नहीं मिला है.

हो सकता है कि यह प्रवासी ग्रुप वह रहा हो जिसने भारत को छोड़कर मध्य एशिया वाला रास्ता पकड़ लिया हो. एनीवे.

लेकिन, रुकिए. जल्दबाजी में कोई राय मत बनाइए. एंथ्रोपॉलॉजिलक सर्वे ऑफ इंडिया ने 2009 में एक अध्ययन प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया है कि नेटिव ऑस्ट्रेलियाई लोगों और भारत के कुछ जनजातीयों के बीच जीनेटिक लिंक मौजूद हैं. यह लिंक बहुत हल्का है. 26 जनजातीय समूहों के 966 लोगों में से सिर्फ 7 में यह हल्का लिंक दिखा. और इसके लिए विद्वान कहते हैं कि भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई ग्रुप कोई 60,000 साल पहले अलग हो गया था.

बेशक, फारस की खाड़ी के इलाके में एक भरी-पूरी आबादी रह भी गई होगी, जो वहां से अंतर-हिमयुग अवधि (इंटरग्लेशियल अवधि) में यूरोप और मध्य एशिया की ओर निकली.

ऊपर जितनी भी बातें लिखी गई हैं वह दसियों हजार साल की अवधि में घटी घटनाएं हैं. और जिस छोटे समूह के विस्तार की बात कही गई है वह भी 50-100 से अधिक लोगों का समूह नहीं रहा होगा. ये लोग भी कोई झुंड बांध लगातार यायावरों की तरह नहीं चले होंगे. रुककर, ठहरकर इधर-उधर इनकी गति रही होगी. भारतीय उपमहाद्वीप में जिसतरह झुंड आए होंगे, वैसे ही कुछ लोग निकले भी होंगे.

उनके बीच हुए युद्धों, भोजन की कमी, सूखे, अकाल, बाढ़, महामारियों ने यह तय किया होगा कि कौन सा ग्रुप जिंदा बचेगा.

यूनेस्को ने अपने भारत में भी एक ऐसी साइट को विश्व विरासत में शामिल किया है, भीमबेटका. करीब 30,000 साल पुराने वक्त में लोग यहां रहे होंगे ऐसा अनुमान है. भारत में शुतुरमुर्ग के अंडों के खोल से बनी मालाएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि इधर वह पक्षी पहले बहुतायत में पाया जाता होगा. ये भी हो सकता है कि इस फैशन की वजह से ही बेचारा परिंदा इधर से लुप्त हो गया. फैशन में जाने कितनी चीजें लुप्त हुई हैं इस देश से. कितनी बेशकीमती परंपराएं भी.

बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री में माइकल वुड्स कहते हैं, “भीमबेटका की आकृतियों में चूड़ी और त्रिशूल वाली नृत्यरत देवी को देखकर किसी को भी नटराज की याद आ सकती है.”

आखिरी हिमयुग, करीबन 24,000 साल पहले शुरू हुआ था. करीब 20 हजार साल पहले यह उरूज पर था और उसके बाद गरमाहट बढ़नी शुरू हुई. आज से 14,000 वर्ष पहले से यह बर्फ की चादरें पिघलनी शुरू हुईं. समुद्र के तल में तेजी से वृद्धि होने लगी. और आज से कोई 8000 साल पहले, गल्फ ओएसिस (फारस की खाड़ी का हरा-भरा इलाका) पानी में डूब गया.

अब सुमेरियाई सभ्यता में या बाइबिल में इसी को तो ग्रेट फ्लड नहीं कहा गया? भारत में मनु इसी जलप्रलय से तो नहीं बचाते हैं मानव सभ्यता को? सोचिएगा.

फारस की खाड़ी के विस्थापित लोग बढ़ते सागर और मरुस्थलीकरण से प्रभावित होकर किधर गए होंगे? लेकिन साक्ष्य बताते हैं कि इस समय तक लोग नौकायन से परिचित हो गए थे. यह नवपाषाण युग का उत्तरवर्ती काल था और लोग कृषि, पशुपालन आदि के जानकार हो चुके थे.

यहां के कुछ समूह यूरोप, कुछ मध्य एशिया की तरफ निकले होंगे. उधर, दक्षिण-पूर्व एशियाई समूह खुद को चीन में स्थापित कर चुका होगा.

वैसे जलप्रलय की भारतीय कथा में मनु को भगवान विष्णु ने पहले ही चेतावनी दे दी थी. उनने भी बड़ी-सी नाव बनाई और उसको बीजों और जानवरों से भर लिया, उनकी नाव को भगवान विष्णु मछली के रूप में (मत्स्यावतार) में टोकर सूखी धरती की तरफ ले गए.

अब यही कहानी पूरी मानव सभ्यता में है. संतालों के यहां भी यही कहानी है. नाम बदल दीजिए अवतारों या दिव्य पुरुषों के. बाइबिल में भी यही है. बहरहाल, भूगर्भशास्त्रियों का अनुमान है कि भारतीय तटरेखा उस समय मौजूद तटों से काफी आगे की तरफ होगी और श्रीलंका भी भारतीय मुख्य भूमि से जुड़ा था और एकदम से जुड़ा न हो, गलबहियां वाली पोजीशन में जरूर था. यहां से आप रामसेतु का संदर्भ पकड़ सकते हैं.

वैसे, खंभात की खाड़ी में (कॉम्बे, गुजरात) 7500 साल पहले बसी बड़ी बस्तियों के दो सुबूत 2001 में ही पुरातत्वविद पेश कर चुके हैं. हालांकि, इस पर अभी और अधिक अध्ययन जरूरी है.

कई इतिहासकार यह भी कहते हैं कि फारस की खाड़ी के लोगों ने ही खेती का ज्ञान दूसरों को बांटा. वैसे, यह बात पूरी तरह सच नहीं लगती. कोई 7000 साल पहले के साक्ष्य बताते हैं कि मेहरगढ़, बलूचिस्तान (जो सन 47’ तक भारत था) गेहूं और जौ की व्यवस्थित खेती करते थे. चूंकि ये पश्चिम एशियाई नस्लें हैं इसलिए इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि भारतीय लोगों ने खेती गाजा पट्टी वालों से सीखी.

वैसे, बैंगन, गन्ना और तिल की खेती तो भारत में शुरू हुई यह सबको पता है. होगा ही. पर बाद में ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं कि खेती भारतीयों ने पहले से, स्वतंत्र रूप से विकसित की थी. और धान अपन खूब उपजाते थे.

गुजरात के तट पर उस समय भी बड़े शहर थे. इसका मतलब उन्हें खेती आती होगी. क्या खेती का विकास उस वक्त के टिहरी बने शहरों के लोगों ने विकसित की थी या विस्थापित लोग उसको देश के अलग हिस्सों में लेकर गए?

जो भी हो, इतना तय है कि नवपाषाण युग में भी भारत में ठीक-ठाक जनसंख्या रहती थी. शहर भी थे और खेती भी. पर उस वक्त भारत राष्ट्र था या नहीं? बेशक नहीं था. पर उस समय के लिहाज से अपन दूसरे भूखंडों से अलग नहीं थे.

इस कड़ी में इस बार इतना ही, आगे फिर लिखेंगे.

Saturday, September 17, 2022

इंसान का विकासः दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैं

आज से कोई बीस लाख साल पहले मनुष्य बेहद आदिम रूप में था. (यह कौन-सी रॉकेट साइंस वाली बात है भला!) लेकिन जैसा कि युवाल नोआ हरारी लिखते हैं, प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मामूली प्राणी थे, जिनके अपने पर्यावरण पर गुरिल्लाओं, जुगनुओं या किसी मछली से ज्यादा प्रभाव नहीं था.

बहरहाल, इंसानों का विकास शुरू हुआ. विज्ञान के जानकार लोग जानते हैं कि जीव विज्ञान में जीवों को प्रजातियों (नस्लों) में बांटा जाता है. प्रजातियों को आप आसान भाषा में यह मान लें कि वह आपस में मिलन करके ऐसे बच्चे पैदा कर सकते हैं जो खुद भी वीर्यवान होती है.

मिसाल के तौर पर, घोड़े और गधे दो प्रजातियां हैं. (हर लाइन में सियासत खोजना ठीक नहीं. मैं घोड़ों और गधों की ही बात कर रहा हूं) सामान्य तौर पर दो विभिन्न नस्लों के जीव आपस में यौन दिलचस्पी नहीं रखते. (ध्यान दीजिएगा, मैंने सामान्य तौर पर कहा है. मुझे पता है आपने बहुत तरह के वीडियोज देख रखे हैं. पर वह अपवाद हैं या आपको अभद्र मनोरंजन के लिए जानबूझकर बनाए गए होते हैं)

बेशक, घोड़ों और गधों को उकसाया जाए तो वह आपस में मिलन करेंगे पर उनसे उत्पन्न संतान खच्चर कहाएगी और वह आगे वीर्यवान नहीं होगी.

इसके उलट, कुत्ते, देशी हो या विदेशी, डॉबरमैन हो या जर्मन शेफर्ड आपस में मिलन कर सकते हैं और प्रजनन सक्षम पिल्ले पैदा कर सकते हैं. मैंने दोनों की कुत्तों की नस्लें विदेशी बताईं हैं क्योंकि ‘इंडिया दैट इज भारत’ में विदेशी कुत्तों की काफी प्रतिष्ठा है. न सिर्फ चमड़ी के रंग और भौंकने की विशिष्ट शैली की वजह से, बल्कि उनके विचार भी कई लोगों को भारतीय विचारों से श्रेष्ठ मालूम होते हैं. इसके विपरीत, भारतीय कुत्तों की विदेशों में क्या प्रतिष्ठा है इस पर अलग से शोध की जरूरत नहीं है. सबको मालूम है.


खैर, जीव विज्ञान का मेरा नॉलेज यही कहता है कि हमलोग जीवों और पादपों को दो नामों से जानते हैं. जैसे कि पहला नाम उसका जीनस होगा (यानी साझा पूर्वज का नाम) और दूसरा नाम उसकी नस्ल या स्पीशीज का होगा.

इस लिहाज से मैंगीफेरी इंडिका की मिसाल लें. यह आम का वानस्पतिक नाम है. आम मैंगो पीपल के राष्ट्र (मुझे नहीं पता कि जब आम का विकास हुआ था तब आम आदमी पार्टी का विचार तय हुआ था या नहीं या फिर इंडिया दैट इज भारत, एक राष्ट्र के तौर पर किस हालत में था) में इंडिका इसलिए क्योंकि आम भारत का है. वरना बौद्धिकों की राय में हर अच्छी चीज योरप से हिंदुस्तान को आई है. इनक्लूडिंग खैनी. (ये बात तो सच है वैसे)

तो साहब इसी तरह अपन भी विकसित हुए, होमो सेपियंस. होमो मने मनुष्य और सेपियंस मने बुद्धिमान.

इसका मतलब यह हुआ कि हमारे अलावा भी कई तरह के मनुष्य धरती पर थे. लेकिन, जैसे मिथिला में यह मान्यता है कि खरोड़े-भौर मूल के श्रोत्रिय ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं (क्योंकि मिथिला का राजकुल इसी मूल का था.

उसी तरह, वैज्ञानिकों ने खुद ही यह तय कर लिया है होमो सेपियंस ही सबसे बुद्धिमान थे. अब जो प्रजाति नष्ट हो गई, उससे अपन ये तो पूछ नहीं सकते हैं कि अंकिल, मैं बऊआ बोल रहा हूं, आपका आइक्यू टेस्ट करना है.

इधर, अपना इंडिया दैट इज भारत, जो कि तब यूरोपीय परिभाषाओं के मुताबिक कत्तई राष्ट्र नहीं था, यूरेशिया से जाकर मिल गया तो इसका बाकी की दुनिया के पारितंत्र के साथ सम्मिलन हुआ. कई लोग यह मानते हैं कि आज के भारतीय और अफ्रीकी स्तनधारियों (मसलन, हाथी, शेर, गैंडा) में समानता इसलिए है क्योंकि अपना इंडिया कभी अफ्रीका से जुड़ा था. मेरा एक उदारवादी दोस्त कहता है यूरोप से राष्ट्र की परिभाषा भी तभी आई थी. (ओह नहीं, शायद उस वक्त नहीं)

लेकिन, इसमें शक है. क्योंकि भारत तो डायनासोरों (असली वाले, सियासी नहीं) के युग में ही अफ्रीका महादेश से अलग हो गया था. इसलिए भारत में स्तनधारियों का प्रवेश यूरेशिया से जुड़ने के कारण ही हुआ था इसमें शक नहीं.

मिसाल के लिए, साइबेरिया में एक मैमथ (बड़ा वाला हाथी) का जीवाश्म मिला है. उसकी सूंढ़ में घास के तिनके भी हैं. इसका मतलब हुआ कि साइबेरिया में हरियाली थी कभी. और साइबेरिया में कोयले के निक्षेप भी बहुत हैं. इसका अर्थ हुआ कि वहां घने और ऊंचे पेड़ों वाले जंगल भी थे. वैसे कोयले के निक्षेप तो करगिल में भी हैं. अरे अपने कश्मीर में.

खैर, वैज्ञानिक मानते हैं कि इंडिया वाले हाथी (बसपा वाला नहीं) अफ्रीकी हाथी के मुकाबले इस साइबेरियाई हाथी से ज्यादा निकट है. (मेरा एक दोस्त कल रात को प्रेस क्लब में सैटरडे नाइट मना रहा था और उसने कहा कि भारत ने इसी वजह से यूक्रेन संकट के दौरान रूस से निकटता दिखाई है. खून का रिश्ता यू नो)

जैक्लीन फर्नांडीज (इस फोटो का इस लेख से कोई लेना-देना नहीं है, यह मात्र विजुअल रिलीफ है)


आनुवंशिकी के विद्वानों ने लिखा है कि साठ लाख साल पहले अफ्रीकी हाथियों के साथ हमारे हाथियों में बोलचाल बंद हो गई, परिवार दूर हो गया तो जीनेटिक सीक्वेंस टूट गया था.

इसलिए अपने वाले हाथी को देखकर अफ्रीकी हाथी गुनगुना रहा थाः

अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे तो क़ाबू पा लो
प्यार के बोल तो होंठों से निकल जाते हैं
अपने तेवर तो सम्भालो के कोई ये न कहे
दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैं

लेकिन, ग्रू. इंडिया आने वाले ज्यादातर ‘जानवर’ पच्छिम से नहीं ढुके इधर. बहुत सारे तो पूरब से भी आए. एक मिसाल तो अपना बाघ ही है. और बघवा तो बहुत हाल में 12000 साल पहले इंडिया आया. हम बंगाल वाले बाघ की बात कर रहे हैं. पता नहीं छिपकर पीठ पीछे शिकार करने वाले बंगाली बाघ को ‘रॉयल’ काहे कहते हैं.

उधर, पूर्वी अफ्रीका से निकलकर चीन और जावा में होमो इरेक्टस लोग सीधे खड़े होकर चलने की प्रैक्टिस कर रहे थे, वहीं पश्चिम एशिया और यूरोप में निएंडरथल मौजूद थे. यूरोप की जलवायु तब भी ठंडी थी और निएंडरथल लोग उसके अनुकूल थे.

इधर, और बहुत सारी प्रजातियों के इंसान विकसित हो रहे थे. जिनके नाम गिना कर ज्ञान बघारने की मेरी मंशा नहीं है. इस बारे में, ज्यादा चर्चा करना चाहें और मैं व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध हूं. (पर आपका खर्चा हो जाएगा)

स्कूली बच्चों को बताया जाता था इस प्रजाति से उस प्रजाति में विकास हुआ. जैसे दसवीं कक्षा में हमने एक भाषण प्रतियोगिता की तैयारी करते हुए कहीं पढ़ा था कि होमो एर्गास्टर विकसित होकर होमो इरेक्टस बने थे. लेकिन यह बात गलत है. यह कोई कार का मॉडल नहीं था कि इंजन की कैपेसिटी में बदलाव लाकर नया मॉडल लॉन्च होता गया. सचाई यही है कि आज से कोई चौदह-पंद्रह हजार साल पहले तक बहुत सारी इंसानी प्रजातियों का अस्तित्व था. अब नहीं है. अब सिर्फ हमलोग हैं, होमो सेपियन्स, हमीं में से कुछ लोग काले, भूरे, पीले, उजले आदि हैं.

इसलिए अगर कोई यूरोपीय नस्लीय श्रेष्ठता का दावा करे या कोई भारतीय सिर्फ गोरा होने के कारण इतराए तो आप बगैर पूछे कान की जड़ गर्म करें. (अन्य योग्ताओं वाले लोगों के साथ इतराने वालों के साथ हिंसक होना ठीक नहीं)

वैसे, इंसानों का विकास पूर्वी अफ्रीका में हुआ था. और इस बात के साक्ष्य हैं कि उन लोगों ने हरमुमकिन कोशिश की थी कि जाकर स्वीडन या स्विट्जरलैंड जाएं और पाउट लेते हुए सेल्फी पोस्ट करें. इज्राएल के स्खूल और क्वॉफ्जेह गुफाओं में पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद हैं कि आधुनिक इंसान लेवांत (आज के इज्राएल, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया और अगल बगल के इलाके को लेवांत कहा जाता है) तक आज से 1,20,000 साल पहले ही पहुंच गए थे.

ध्यान रखिएगा, उस वक्त अपनी धरती आज की तरह इंसानी भकचोन्हरी का शिकार नहीं हुई थी और पर्याप्त नम और इतनी गर्म थी कि वह उत्तर की तरफ निकल सकें. इदर गरम शब्द से भरमाने का नय. हिमयुग के बाद के दौर को अगर गरम लिखा जाएगा तो कुछ वैसा ही फील कीजिए, जैसा दिल्ली में फरवरी के पहले हफ्ते में खिल कर धूप निकलने पर महसूस करते हैं.

लेकिन, यह जलवायविक सुखद मौसम उसी तरह अल्पकालिक साबित हुआ जैसे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों या उप-चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस के उत्साह का होता है. तो नया हिमयुग शुरू हो गया. इसलिए सवा लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका से आए आगंतुक उसी तरह टिक नहीं पाए जैसे किसी कैडर आधारित पार्टी में कोई अनुशासनहीन निर्दलीय विधायक नहीं टिक पाता.

तो अगले 50 हजार साल तक अपने पुरखे अफ्रीका में ही रहे. और फिर आज से कोई 75000 साल पहले पूर्वी अफ्रीका से एक बहुत छोटा समूह फिर हहास बांधकर निकला.

फिर क्या हुआ? सब बतवा एक्के दिन जान लीजिएगा क्या?

Wednesday, September 7, 2022

क्या टेथिस सागर ही क्षीर सागर था!

भले ही तब भारत 'राष्ट्र' न था, लेकिन उस वक्त भी मुंबई के पास पश्चिमी घाट से ज्वालामुखीय तरल लावा बेरोकटोक, बगैर महाराष्ट्र पुलिस, मध्य प्रदेश पुलिस, राजस्थान पुलिस और बाकी के राज्यों की पुलिस और अफसरों की चिंता किए पूरे मध्य और दक्षिण भारत में फैल गया. इधर, भारत गुटनिरपेक्ष की नीति को कांख में दबाकर नेहरूवियन मॉडल को फॉलो करते हुए उत्तर की तरफ रूस से सटता गया.

आज से कोई 9 करोड़ साल पहले से भारत की प्लेट यूरेशिया के प्लेट से टक्कर खा रही थी. 5.5 करोड़ साल पहले यह टक्कर तेज हो गई. अपन तो इंडियन हैं तो अपन ने ऐसा धक्का दिया यूरेशियन प्लेट को, कि वह उछल गई. हिमालय और तिब्बत का पठार बन गया इस धक्के से. फटाकदेनी से नहीं बना, एकदम स्लो-स्लो बना. एकदम सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता की तर्ज पर.

एक गांठ-सी बन गई यूरेशिया के निचले हिस्से में, पामीर गांठ बोलते हैं इसको. अंग्रेजी वाले व्याकुल न हो, पामीर नॉट पढ़ें आप. वहां से बहुत सारी पर्वत श्रेणियां निकलीं. हिंदूकुश, सुलेमान, काराकोरम, हिमालय और अकारान योमा.

भारतीय प्लेट और यूरेशियाई प्लेट के बीच में समंदर था एक. नाम था टेथिस सागर. अब उसकी तली ऊपर आ गई. जो कभी नीचे होता है उसका ऊपर आना तय है. आखिर, 1985 में 2 सीट पर सिमटी भाजपा 2014 में 273 और 2019 में 303 लोकसभा सीट जीती या नहीं! बस इसलिए लिए निरंतरता चाहिए होती है.

तो टेथिस सागर का एक हिस्सा ऊपर उठता गया. आप भरोसा करिए कि हिमालय की एकदम आसमान को चुम्मा लेती चोटियों पर मछली के जीवाश्म मिले हैं. अब मछली चोटी पर कैसे चढ़ी होगी, इसको ईश्वर का चमत्कार न मानकर सीधे-सीधे यह मानिए कि यह प्लेट विवर्तनिकी (प्लेट टेक्टोनिक्स) का कमाल है. इसकी दूसरी मिसाल, हिमालयी इलाकों में चूना-पत्थर चट्टानों की खदानों का होना है. तीसरी मिसाल, हिंदुकुश रेंज में नमक का निक्षेप है. आप जो व्रत में शुद्ध सेंधा नमक खाते हैं असल में वह खदानों से निकाला जाने वाला रासायनिक रूप से अशुद्ध नमक है. खैर, अब चूना पत्थर कैसे बनता है और नमक का निक्षेप कैसे होता है इसके बारे में विस्तार से बताने के लिए हम निःशुल्क उपलब्ध ‘नहीं’ हैं.

बहरहाल, उत्तर की तरफ बढ़ने का क्रम अभी भी रुका नहीं है. अपन अभी भी यूरेशियन प्लेट को उधर धकेल रहे हैं. जिद्दी हैं हमलोग.

वैसे, मोटे तौर पर भूगोल पढ़े लोगों को मेरी अभी तक की बात में ज्यादा विवाद नजर नहीं आएगा क्योंकि दुनिया भर के भूगोलज्ञ यही सिद्धांत मानते हैं. लेकिन, कुछ लोग वैज्ञानिकों की बात भी नहीं मानते, जब तक उसको बोल्ड और इटेलिक्स में व्हॉट्सऐप पर उनके गांव के चाचा न फॉरवर्ड न करे कि पिछले 70 साल में हमने कुछ नहीं किया और अब देखो, भारतीय प्लेट यूक्रेन को रूस की तरफ धकेल रही हैं. ऐसा मेसेज आएगा, लोग तभी मानेंगे. जा रे जमाना.

लेकिन, मजाक परे. इस सिद्धांत में कुछ अपवाद भी हैं. हमारे गुरुजी पटना वाले आरबी सिंह ने अपनी चवन्नी मुस्कान के साथ कहा थाः “अगर यह सिद्धांत एकदम खरंटन (सौ टका टंच) है तो गुजरात के कॉम्बे शेल में सूरत से 30 किमी उत्तर वास्तान में बड़ी संख्या में कीटों के जीवाश्म कैसे मिले हैं.”

बात सच है, क्योंकि एकाध नहीं हैं ये. 55 कीट फैमिली के 700 स्पीशीज के कीट हैं. अब इन कीटों की समानता एकदम दूरदराज के इलाके स्पेन में पाए जाने वाले कीटों से है. अब अगर उत्तर की तरफ महाद्वीप के खिसकने के सिद्धांत को माने तो इसका एक मतलब यह हुआ कि अपना इंडिया, करोड़ों साल से इस प्लेट से अलग रहा होगा और मेडागास्कर से भी अलग होने के बाद तैरकर यूरेशिया से सटने में इसको काफी वक्त लगा होगा. और खासकर उस वक्त तो भारतीय भूखंड एकदम अलग-थलग रहा होगा जब कीटों की विकास हो रहा था.


लद्दाख में पेगॉन्ग झील पर फोटो खिंचवाने की आड़ी मुद्रा


छोड़िए, थोड़ी देर के लिए हम क्या यह मान सकते हैं कि भारत यूरेशिया से जिस समयावधि में टकराया, हम उसको कम आंक रहे हों. क्या पता!

वैसे, प्लेटों के टकराव से इस इलाके में पहले से मौजूद नदियों के रास्ते बदले होंगे. मसलन, सिंधु नदी. सिंधु हिमालय से पहले की नदी है और इसलिए इसके रास्ते में क्या बदलाव आए होंगे इस पर हमको विचार करना चाहिए.

लेकिन इसी दौरान भारत की सबसे नई भूवैज्ञानिक संरचना का विकास हो रहा था. और यह था गंगा का मैदान. हिमालय और विध्यांचल के बीच का टेथिस सागर मलबा भरते-भरते दलदली जमीन जैसा रह गया था. क्या पता दिनानुदिन बढ़ रही लवणता से इस टेथिस सागर में झाग अधिक होता हो और संभवतया इसी को हिंदू परंपरा में (कृपया माइथोलजी का इस्तेमाल न करें) क्षीर सागर कहा गया होगा.

लेकिन, यह हिमालय के मलबे और गंगा के अपवाह तंत्र की विभिन्न नदियों ने मलबे से वैसे ही भर दिया जैसे वाम दलों के वोटबैंक को तृणमूल और भाजपा ने अपने वोटबैंक से भर दिया. धीरे-धीरे टेथिस सागर गायब हो गया और इसके निशान भी नहीं बचे.

(निशान नहीं बचे, ऐसा मैं वामदलों के संबंध में नहीं कह सकता. वह एक राज्य और कुछ छात्रसंघों में अभी भी अस्तित्व में है)

वैसे, गंगा एकमात्र जगह विंध्याचल से मिलती है. यानी विंध्याचल ही गंगा को दक्षिण की तरफ बढ़ने से रोकता है. और यह जगह है चुनार.

अरे वही चुनार, जिसका जिक्र चंद्रकांता संतति में है. और जिस सीरियल में क्रूर सिंह बने थे अपने अखिलेंद्र मिश्रा. यक्कू.

खैर, यह जानना दिलचस्प होगा कि भारतवर्ष, भले ही तब आधुनिक राष्ट्र न रहा हो, पर यहां इंसान आकर कैसे बसे? क्या हम मनु और शतरूपा, आदम और हव्वा, एडम और ईव... पिलचू हड़ाम और पिलचू बूढ़ी की सीधी संतानें हैं और यहीं पैदा हुए? या अपन कहीं और से आए? हम आए तो कैसे-कैसे आए? और आर्य कौन हैं और कब आए. लिखेंगे फिर कभी.


Monday, August 22, 2022

राष्ट्र की निरंतरता? चलिए, भूगोल के इतिहास की बात करते हैं

मंजीत ठाकुर

राष्ट्र की निरंतरता वाली पोस्ट ने और उस पर आ रही टिप्पणियों ने मुझे इस संदर्भ में और अधिक पढ़ने के लिए प्रेरित किया. तो मैंने सोचा क्यों न 'शुरू से शुरू किया जाए?'

तो जो मैं लिख रहा हूं, यह तकरीबन 'भूगोल का इतिहास' है. आप को इससे अधिक जानकारी है तो बेशक कमेंट में साझा करें. कमेंट बॉक्स में अतिरिक्त ज्ञान सिर्फ 'हिंदी' में स्वीकार किए जाएंगे.

बहरहाल, बात तब की है, जब धरती का सारा भूखंड (लैंड मास) एक साथ था. इस एकीकृत भूखंड का नाम रखा गया 'रोडिनिया'. महान भूगोलज्ञ अल्फ्रेड वैगनर के 'महाद्वीपीय विस्थापन के सिद्धांत' के मुताबिक—जो उन्होंने 1915 में प्रकाशित अपनी किताब द ओरिजिन ऑफ कॉन्टिनेंट्स ऐंड ओशन में दिया था—यह विचार दिया गया है कि यह रोडिनिया विषुवत रेखा के दक्षिण में था.

आज से कोई 75 करोड़ साल पहले यह महाद्वीपीय भूखंड टूट गया और उस समय इसका क्या आकार और आकृति रही थी इस बारे में भूगोलज्ञ एकमत नहीं हैं. इसलिए हम यह भी नहीं जानते कि अपना 'भारतवर्ष' इसमें कहां फिट बैठता था.

और उस वक्त धरती पर जीवन भी एककोशीय जीवों से अधिक का नहीं था. इसलिए ‘राष्ट्र’ की परिभाषा क्या होगी यह भी यूरोपीय विद्वानों ने तय नहीं किया था. मोटे तौर पर इस युग को आप 'प्री-कैम्ब्रियन' मान सकते हैं. बहरहाल, अपने 'इंडिया, दैट इज भारत' में आज भी उस युग की निशानी मौजूद है. अरे, वही अपनी अरावली श्रेणी. (हालांकि हाल में झारखंड में भी दुनिया की सबसे पुरानी चट्टान होने की खबर आई थी, पर जो भी हो.)

भूगोलज्ञ कहते हैं, यह अरावली अपने जमाने के कांग्रेस पार्टी जैसा मामला था. हिमालय से भी ऊंची थी यह श्रेणी. लगता था कि कभी घिसेगी ही नहीं. लेकिन वक्त की मार से अरावली घिस कर अपशिष्ट पर्वत बन गया है और कांग्रेस की ही तरह अपने महान अतीत की छाया मात्र रह गया है. इन दिनों कटवारिया सराय में गुटखा खाकर थूकते आइआइएमसी के बच्चे यह नहीं जानते कि वह दुनिया की सबसे पुरानी भूवैज्ञानिक संरचना पर थूक रहे हैं.

अस्तु.

जीवाश्मों से मिले संकेतों ने यह बताया है कि आज से कोई 53 करोड़ साल पहले दुनिया में जटिल जीवों का 'अचानक' (अचानक को लिटरल मीनिंग में मत समझिएगा. भूवैज्ञानिक घड़ी में अचानक कोई, ‘फटाकदेनी’ से होने वाली घटना नहीं होती) विकास होने लगा . यहां इस ‘अचानक’ का मतलब है कई करोड़ साल, जिसको हम 'कैंब्रियन विस्फोट' कहते हैं.

अगले 7-8 करोड़ साल में उस समय के विश्व में विभिन्न किस्म के जीवों का विकास हुआ.

लेकिन माराज, अजूबा जे भवा, कि सुपरकॉन्टिनेंट रोडिनिया (इसको टीवी न्यूज वाले पटकथा लेखक पत्रकार क्या लिखेंगे, महा-महाद्वीप!) के जो टुकड़े हुए थे सो महागठबंधन की छतरी तले आ गए. और आज से कोई 27 करोड़ साल उन छोटी क्षेत्रीय पार्टियों जैसे भूखंडों का विलय हो गया और एक बार फिर एकमात्र सुपर महाद्वीप तैयार हो गया. इसका नाम पड़ा, पेंजिया.

इसके चारों तरफ पानी ही पानी था. एकदम बड़का महासागर. अनंत. उसका नाम रखा गया है 'पेंथालसा'.

पेंजिया का जो नक्शा भूगोल विज्ञानियों ने तैयार किया है उसमें अपना इंडिया, जो कि तब ‘राष्ट्र’ नहीं था, वह अफ्रीका, मेडागास्कर, अंटार्कटिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच वैसे ही फंसा हुआ था, जैसे मुकेश सहनी बिहार की सियासत में फंस गए हैं.

तो इसी पेंजिया पर, आज से कोई 23 करोड़ साल पहले डायनोसोरस का अस्तित्व सामने आया था.

लेकिन धरती सियासत की तरह बेचैन बनी रही. प्लेटों में संयुक्त परिवार से छिटकते बच्चों की तरह गतिविधियां जारी रहीं. कोई 17.5 करोड़ साल पहले जुरासिक युग (इसको सतयुग, त्रेतायुग की तरह का युग समझ कर व्याकुल नहीं होना है, ‘एरा’ को मैंने ‘युग’ लिख दिया है) में धरती फिर सन सतहत्तर वाली जनता पार्टी की तरह बिखरने लगी.

पहले तो इंदिरा काल के कांग्रेस की तरह पेंजिया भी दो-फाड़ हो गया. उत्तर वाला हिस्सा 'लॉरेशिया' कहा गया. इसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया (अपना इंडिया उस वक्त एशिया में नहीं था) का हिस्सा शामिल था. दक्षिण वाले महाद्वीपीय टुकड़े को 'गोंडवानालैंड' कहा गया. इस हिस्से में थे अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया और हां, इसी में था इंडिया दैट इज भारत, जो तब वेस्टफेलिया की संधि से निकली परिभाषा के मुताबिक ‘राष्ट्र’ नहीं था.

लेकिन गोंडवाना से आपको कुछ याद नहीं आ रहा? यह शब्द मध्य भारत की एक जनजाति गोंड के नाम पर रखा गया है.

लेकिन तब इस दोनों बड़े दलों में भी जनता पार्टी सरीखा बिखराव चलता रहा. आज से कोई 15.8 करोड़ साल पहले भारत और मेडागास्कर अफ्रीका से वैसे ही अलग हो गए जैसे जनता नामधारी दल से समता पार्टी हुई थी. और फिर 13 करोड़ साल पहले ये दोनों अंटार्कटिका से अलग हो गए.

लेकिन भारत के मन में कुछ और था. वह उस वक्त भी भारत नेहरू के गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पालन कर रहा था और कोई 9 करोड़ साल पहले भारत ने मेडागास्कर से भी राह जुदा कर ली और धीरे-धीरे रूस की तरफ (मने उत्तर की तरफ) कदम बढ़ाने शुरू कर दिए. 9 करोड़ साल पहले भारत की विदेश नीति नेहरू की नीति का पालन कर रही थी. इसको कहते हैं महानता. बूझे?

वली मोहम्मद वली ने लिखा है न,

किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता

खैर, भारतीय भूखंड उत्तर की तरफ सरकता रहा. उत्तर से उसकी नजदीकी वैसे ही बनी रही जैसे यूक्रेन संकट के बावजूद भारत अप्रत्यक्ष रूप से रूस के साथ बना रहा. वैसे ही, जैसे अदीब सहारनपुरी ने लिखा है.

मंज़िलें न भूलेंगे राह-रौ भटकने से
शौक़ को तअल्लुक़ ही कब है पाँव थकने से

लेकिन जब मिलन होता है तो विस्फोट भी होता है (यार, मुझे यहां विस्फोट की जगह कुछ और लिखना था) तो 'री-यूनियन हॉटस्पॉट' पर जैसे ही अपना वाला टुकड़ा गुजरा, ज्वालामुखीय गतिविधियां शुरू हो गईं. इलाका वही मुंबई के आसपास का पश्चिमी घाट वाला है. आप कभी माथेरान जाएं तो पच्छिम की तरफ मुंह करके खड़े होंगे, तो आपको इस भूवैज्ञानिक घटना के सुबूतों के दीदार भी होंगे.

लेकिन यह ज्वालामुखीय क्रिया वैसी नहीं थी जैसी जूपिटर पर तब फूटती है जब धरती पर साबू को गुस्सा आता है. ज्वालामुखीय विस्फोट से अपन आम तौर पर यही मानते हैं कि टीप जैसा तिकोना पहाड़ होगा और उसकी चोटी से जोरदार बम जैसा धमाका होगा. आग की लपटें निकलेंगी और धुआं निकलेगा. पर यहां ज्वालामुखीय गतिविधियां वैसी नहीं थीं.

यहां की घटना तो वैसी थी कि जैसे बड़े फोड़े पर सुंदर नर्स ने हौले से चीरा लगा दिया हो, आप नर्स की लिपस्टिक का शेड समझने की कोशिश में मीठे दर्द को भूल जाएं और मबाद आराम से, रिस-रिसकर मुहब्बत की तरह फैल रहा हो, फैलता ही जा रहा हो और इतना फैला हो कि पूरा दक्कन ट्रैप बन जाए. मने मुंबई से लेकर मधुपुर तक और हरिलाटांड़ से लेकर हैदराबाद तक, पूरा लावा फैल गया. एक दम पतला लावा, जैसे पतला दही चूड़े पर फैल जाता है.

जारी

Thursday, August 18, 2022

भारत की राष्ट्रीयता 'धर्म' और 'भाषा' से कहीं अधिक व्यापक है

मंजीत ठाकुर

मेरे एक अनन्य मित्र हैं विश्वदीपक. वह प्रखर पत्रकार हैं और राष्ट्र की अवधारणा पर उनकी अलग राय है.

विश्वदीपक ने सोशल मीडिया पर मेरे एक आलेख के जवाब में लिखा लिखा, “राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20वीं शताब्दी की है. इस पर नहीं जाऊंगा कि गायत्री मंत्र किसने रचा पर वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेना ठीक नहीं. इसका कोई आधार भी नहीं.”

वह बेहद पढ़े-लिखे पत्रकार हैं और ट्रोल्स और घुड़कीबाजी के दौर में वह तर्कों के साथ प्रस्तुत होते हैं.

विश्वदीपक समेत और बुद्धिजीवी मित्र वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेने से नाराज हैं. फिर भी, हिंदूपन को लेकर विश्वदीपक की अलग राय हो सकती है, रंगनाथ सिंह की अलग, सुशांत झा की अलग और मंजीत ठाकुर की एकदम अलहदा. वैसे ही, जैसे हिंदू धर्म को लेकर संघ, कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल की अलग व्य़ाख्याएं रही हैं.

हिंदू धर्म की सबने अलग व्याख्याएं की हैं. मिथिला के हिंदू धर्म की परंपराएं, तमिलनाडु के हिंदू धर्म से और तमिल हिंदू परंपराएं राजस्थानी हिंदू परंपराओं से अलग हैं. इन समाजों की स्थापित मान्यताएं और परंपराएं अलग हैं, फिर भी उनमें के प्रवाहित धारा एक है. और इसी वजह से तमिल, कन्नड़, मलयाली समाजों को अलग राष्ट्र नहीं कहा जा सकता. यह सारे समाज एक साझा प्रवाह के अंग हैं. यही प्रवाह वैदिक काल से लेकर आज के हिंदू धर्म में हैं. (कृपया कुरीतियों को इसमें न समेटें, सभी धर्मों में अपने हिसाब के कुरीतियां हैं और पर्याप्त हैं, वह मानव स्वभाव है)

बहरहाल, हिंदू धर्म की खासियत ही यही है कि यह सुप्रीम कोर्ट की निगाह में 'जीवन शैली' है और इसकी व्याख्या में आप हर तरह की छूट ले सकते हैं. हिंदू होते हुए आप नास्तिक, आस्तिक, शैव, शाक्त, वैष्णव 'कुछ भी' या 'कुछ भी नहीं' हो सकते हैं. आप मांस खा सकते हैं, मछली खा सकते हैं, देवी के सामने बलि प्रदान कर सकते हैं और शाकाहारी भी हो सकते हैं. यहां तक कि एक ही परिवार में एक व्यक्ति शाकाहारी और दूसरा मांसाहारी हो सकता है. बच्चे के ननिहाल में देवी के सामने बलि प्रदान हो सकता है और अपने घर में कुलदेवी को बलि की मनाही हो सकती है.

आपको मिली यही छूट हिंदू धर्म को एक साथ बेहद मजबूत, सहिष्णु और साथ ही सबसे अधिक कमजोर (आप ‘वलनरेबल’ पढ़ें) भी बनाता है.

कम ज्ञानी लोग कहते हैं (और ऐसा सभी धर्मों के उग्र लोग कहते हैं) कि उनका धर्म खतरे में है. धर्म कभी खतरे में नहीं हो सकता क्योंकि धर्म तो शाश्वत है (अपनी-अपनी पवित्र किताबों में आप इसके संदर्भ को देख सकते हैं). आप को एक साथ गर्व है कि हिंदू धर्म तो भैय्या, बहुत सहिष्णु है, यह वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देता है. दूसरी तरफ, इसी धर्म के कुछ लोग उग्रता और कट्टरता के उन्माद में दूसरे धर्मों के लोगों को निशाना बनाते हैं. (कृपया यहां तुलना न लाएं, विवेचना सिर्फ हिंदू धर्म की कर रहा हूं. अन्य धर्मों की कट्टरता और उग्रता के स्वादानुसार इसी व्याख्या में चिपका लें.)

लेकिन, राष्ट्र के संदर्भ में एक दफा फिर से हमें याद रखना चाहिए कि अगर विद्वान साथी यह कह रहे हैं कि ‘राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20 शताब्दी की है’ तो हमें राष्ट्र को संकीर्ण परिभाषाओं की बजाए, उसके सांस्कृतिक संदर्भों में समझना चाहिए.

यह राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के उस विचार जैसा नहीं है जो 1648 में जर्मनी के वेस्टफेलिया में 100 से अधिक यूरोपीय ताकतों के बीच हुए शांति समझौते से उपजा था. जिन दिनों हम गणितीय सूत्रों को सुलझाने में अनुपात के मुताबिक शहरों के नियोजन में व्यस्त थे यूरोपीय लोग तकरीबन बर्बर थे. मेरे एक मित्र सलीम सरमद ने उसका जवाब दिया कि ‘आप तुकाराम, कबीर को भूल गए.’

बेशक हिंदुस्तान के निर्माण में तुकाराम, कबीर, रसखान का योगदान अतुल्य है, पर वह तो बहुत बाद का मामला है. उस पर भी सही वक्त में आएंगे.

बहरहाल, यूरोप का इतिहास और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भारतीय पृष्ठभूमि से अलहदा है. व्यक्तिवाद पर यूरोप के विचार भारतीय विचारों से अलग हैं. गुलाम मानसिकता के औपनिवेशिक किस्म के लोग हर भारतीय विचार और सिद्धांत, खोज और आविष्कार, परंपरा और आस्था को अविश्वास से देखते हैं और एक हद तक मखौल उड़ाते हैं.

यूरोपीय राष्ट्र की परिभाषाओं की बैक स्टोरी अलग है, भारत की अलग. वहां के इतिहास में अलग-अलग समयावधि में जो कुछ घटा, उसी का नतीजा है कि उनके लिहाज का ‘राष्ट्र-राज्य’ (नेशन स्टेट) और लोकतंत्र का उनका अपना संस्करण निकला, जिस पर भारतीय बौद्धिक लहालोट होते हैं.

भारत के इतिहास में यह तरीका नहीं रहा. यहां समाज, व्यक्ति या राज्य से अधिक शक्तिशाली इकाई रहा है. भारतीय समाज में हमेशा धर्मदंड राजदंड से अधिक शक्तिशाली रहा है. वरना, क्या वजह थी कि एक ऋषि किसी राजा से उसके दो बेटे मांगने आ जाता है और राजा भयभीत होकर, अपने दोनों बेटे ऋषि के साथ यज्ञों की सुरक्षा के लिए भेज देता है.

फिलहाल, कई जगहों से पढ़ने और सुनने के बाद हमारे वाले ‘राष्ट्र’ को ‘नेशन’ का पर्यायवाची मानना उचित नहीं जान पड़ता. दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक ही मतलब में करना, दोनों के प्रति अन्याय होगा.

हमारा राष्ट्र ‘नेशन-स्टेट’ नहीं है बल्कि यह हमारी परंपराओं और विश्वासों की निरंतरता है. जो भी कुछ पढ़ा है उसमें मैं भी आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत को मानता रहा था, पर मोटे तौर पर मुझे इस पर शक होने लगा है. इस पर थोड़ा और गहरा अध्ययन करने के बाद ही मैं कुछ लिखूंगा. लेकिन मुझे लगता है कि हड़प्पा सभ्यता की जिस एक मिसाल से मैंने सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक निरंतरता की बात की थी, उसको विस्तार देने की जरूरत है.

विचारक किस्म के लोगों से मेरा अनुरोध यही है कि जब हमारी लोक विरासत ईसा से भी कई हजार साल (ईसा से कम से कम आठ हजार साल) पुरानी है तो हम अपनी विरासत को संकुचित करके क्यों देख रहे हैं? हमारी परिभाषाएं वेस्टफेलिया संधि से क्यों उधार लिए हुए हैं? हमारी अपनी समस्याओं के समाधान का तरीका भी हमारा अपना होना चाहिए.

बाकी, जहां तक वामपंथ के विचारकों की बात है गोविंदाचार्य ने एक बार इंडिया टुडे के साथ साक्षात्कार में कहा था कि "आजादी के समय कम्युनिस्ट पार्टी आजादी के समय भारत में 17 अलग-अलग राष्ट्रीयता के अस्तित्व की बात करती थी. क्या आपको वाकई लगता है कि ऐसा ही था? कुछ लोग सन सैंतालीस के बाद के भारत को ही भारत मानते हैं और इसे एक राष्ट्र की निरंतरता की बजाए नवगठित देश मानते हैं."

पर उनकी इस परिभाषाओं में बहुत झोल हैं. कि अगर भारत था ही नहीं, तो भारत को भारत नाम मिला कैसे? क्या भारत नाम आनंद भवन में गढ़ा गया था? इसलिए मुझे लगता है कि भारत राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों का एक मिश्रण है और ऐसा राष्ट्र कभी यूरोपीय लोगों ने देखा नहीं था इसलिए उनकी परिभाषा के विचार बिंदु में भी नहीं आया होगा. मिसाल के तौर पर मेरे मित्र विश्वदीपक ने कभी 'डोंका' का मांस नहीं खाया होगा. विश्वदीपक का पहला प्रश्न मुझसे मिलते ही यही होगा कि आखिर ‘डोंका’ होता क्या है. इसलिए जो डोंका को जानता ही नहीं हो, उसका जायका कैसे जानेगा?

आपकी सूचना के लिए बता दूं कि मिथिला इलाके में धान के खेतों में सुनहरे रंग का घोंघा पाया जाता है, जिसका मांस काफी जायकेदार होता है.

अधिकतर विचारक अनजाने में या जानबूझकर स्मृतिलोप का शिकार होते हैं. उनकी शह का परिणाम है कि बामियान में बुद्ध की मूर्ति का विध्वंस करने वाले ध्वंस के बाद भी इन्हीं कथित उदारवादियों की तरफ से मासूमों की तरह पेश किए जाते हैं हैं.

भारत की निरंतरता बतौर राष्ट्र इसी में है कि इसने अपने मूल गुणसूत्रों को कमोबेश बनाए रखा है.

Wednesday, August 17, 2022

भारत@75 - आओ कि कोई ख्वाब बुनें कल के वास्ते

आजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं और इस मौके पर कुछ लोग देशभक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं, और कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि देशभक्ति का भाव प्रदर्शित करने की चीज नहीं है. बेशक, ऐसे ही लोग होंगे जो आजादी की लड़ाई के वक्त भी सड़क पर उतरने की बजाए यह तर्क देते होंगे कि अंग्रेजों के खिलाफ मन ही मन लड़ रहे हैं. 

पर, अब 75 साल के बाद हमें क्या नया संकल्प नहीं लेना चाहिए? क्या जज्बाती, कम जज्बाती, गैर-जज्बाती लोग या सेलेक्टिवली जज्बाती लोग अब यहां से एक नई राह की तरफ नहीं बढ़ना चाहेंगे?

जब देश आजाद हुआ था तब साक्षरता करीबन 12 फीसद थी और लोगों की प्रजनन क्षमता असाधारण रूप से ऊंची थी. उस वक्त देश में प्रतिव्यक्ति आमदनी 150 डॉलर से भी कम थी और देश का नेतृत्व अमूमन राजनैतिक रूप से रूसी साम्यवाद से चमत्कृत था. लिहाजा, कृषि और औद्योगीकरण में तथा शासन पर राज्य के नियंत्रण के मामले में राज्य की व्यवस्था ने रूसी मॉडल का ही अनुकरण किया. बेशक, अतीत के उस हिस्से में हमारे सभी पुरखे कमोबेश एक साझा झुकाव के सहभागी थे.

यह झुकाव इतना अधिक था कि हमने अपने संविधान की प्रस्तावना तक में संशोधन कर दिया और उसमें 'समाजवादी' शब्द जोड़ दिया, साथ ही 'धर्मनिरपेक्ष' (या पंथनिरपेक्ष, जो भी आपको भाए) शब्द जोड़ा ताकि हम इन दो शब्दों की पश्चिमी परिभाषा के खांचे में फिट बैठ जाएं.

उस वक्त दुनियाभर में गरीबी के मामले में हम आठवें सबसे गरीब देश थे. हालांकि, 1950 में हम दुनिया के दूसरे सबसे अधिक गरीब देश थे. यानी तीस साल में हमने कुछ तो सुधार किया था. उन दिनों हमारी आर्थिक वृद्धि दर 3.5 फीसद सालाना थी और अर्थशास्त्री मजाकिया लहजे में इसको 'हिंदू वृद्धि दर' कहते थे.

अभी कुछ दिन पहले हमलोगों ने एक लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया था, जिसका विषय थाः हिंदुस्तान की वो खास बात, जिस पर है आपको नाज.

अधिकतर लोगों ने भारत की 'समेकित संस्कृति' के बारे में लेख लिखे.

पर भारत की समीक्षा लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के संदर्भों में करने पर यह सवाल बेहद अहम हो जाता है कि हमें कौन-सी चीज एकसाथ जोड़ती है? यह सवाल बहुत मुश्किल है. एक और प्रश्न है—हमने वृद्धि हासिल करने और गरीबी उन्मूलन के दोहरे लक्ष्य को हासिल करने में कितनी कामयाबी पाई है? और इससे जुड़ा अनिवार्य प्रश्न चीन की कामयाबी के मॉडल के साथ हमारी तुलना का है.

अधिकतर (भले ही सभी न हो) समाजों का लक्ष्य एक समतामूलक होने की राह में प्रावधान जुटाने का है. अधिकतर लोग सहमत होंगे कि समतामूलक समाज के लिए लोकतंत्र अपरिहार्य है.

पिछले साढ़े सात दशक मे भी भारत और भारतीयों के पास गर्व करने लायक बहुत कुछ है. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती एकता और विविधता दोनों को बनाए रखने की है.

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और अमेरिका सबसे पुराना. इससे पहले कि हम दोनों की तुलना करे, भारत के सामने एक सवाल है—भारत ने एक लोकतंत्र के तौर पर कैसा प्रदर्शन किया है. लेकिन सच कहा जाए तो भारतीय लोकतंत्र ज्यादा कामयाब इसलिए है क्योंकि यहां एक मजबूत मध्य वर्ग उपस्थित है. पर एक समीकरण और है.

बैरिंगटन मूर ने 'सोशल ऑरिजिंस ऑफ डेमोक्रेसी एंड डिक्टेटरशिप, 1964' में लिखा है कि यह जादुई समीकरण 'नो बुर्जुआ, नो डेमोक्रेसी' है. अर्थशास्त्री सुरजीत एस.भल्ला के मुताबिक, “1947 में अधिकतर परिभाषाओं के मुताबिक भी, कोई मध्य वर्ग मौजूद नहीं था. इसलिए 1947 में भारत द्वारा लोकतंत्र अपनाया जाना एक पहेली और अजूबा ही है.”

भारत द्वारा लोकतंत्र अपनाने को लेकर कई अलग तरह की व्याख्याएं हैं और यह भी यह लोकतांत्रिक क्यों और कैसे बना रहा? भारत ने एक लोकतंत्रात्मक शासन इसलिए अपनाया क्योंकि लोकतंत्र उसकी विरासत रही है. इस विरासत के दो पहलू हैः भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश तो था ही, यह नस्लीय और सांस्कृतिक रूप से वैविध्य भरा भी था. एक अन्य कारक विकल्पहीनता भी है.

लोकतंत्र शासन का एकमात्र तरीका है, जो विभिन्न नस्लीय और सांस्कृतिक समूहों की अहम भूमिका की गारंटी दे सकता है. यही वह विविधता है जो पारस्परिक हितों को जोड़कर रखती है. अपने पड़ोसियों, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका को देखिए. उनमें काफी समांगता (होमोजेनिसिटी) है, बहुत कम विविधता है लेकिन वहां लोकतंत्र पर लगातार खतरा बना रहता है.

स्वतंत्रता के समय दक्षिण एशिया में लोकतंत्र के प्रति प्रबल रुझान था. चार प्रमुख दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका, सभी ने अपने शासन के पहले रूप के रूप में लोकतंत्र को अपनाया. हालांकि, वे उस पर टिके नहीं रह सके, खासकर पाकिस्तान में. पाकिस्तान को तो फौजी शासन और उसके बूट कुछ ज्यादा ही भाते हैं.

ऐसे में, भारत में लोकतंत्र को बनाए रखने में अन्य कारक महत्वपूर्ण हो सकते हैं. ऐसा ही एक कारक भारतीय राजनीति में विविधता की चरम प्रकृति की मौजूदगी हो सकती है. शोध में आंकड़े एक बात की ओर इशारा करते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशों में एक महत्वपूर्ण रुझान लोकतांत्रिक शासन पद्धति को अपनाने की ओर रहा है.

संभवतया, यह कोई संयोग नहीं है कि दुनिया का सबसे समृद्ध लोकतंत्र और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, दोनों पर ही ब्रिटिश शासन रहा था. इसके उलट, बेहद कम फ्रांसीसी या जर्मन, या पुर्तगाली या स्पेनी उपनिवेशों ने लोकतंत्र के मोर्चे पर कोई अच्छा प्रदर्शन किया है. लेकिन, नस्लीय विविधता भी महत्वपूर्ण है, संभवतया यही वह गोंद है जो विभिन्न किस्म के लोगों को जोड़कर रखती है. नस्लीय विविधता जितनी अधिक होगी, लोकतंत्र को अपनाने की संभाव्यता भी उतनी अधिक होगी.

वास्तव में, भारत में लोकतंत्र इसलिए भी कामयाब रहा क्योंकि यह एकमात्र राजनैतिक व्यवस्था थी जो इसकी जातीय, नस्लीय, धार्मिक, भाषायी रूप से खिचड़ी आबादी के लिए माकूल थी. लोकतांत्रिक व्यवस्था, कम से कम सैद्धांतिक रूप से ही, हरेक समूह और हरेक व्यक्ति को एक मौका देती है कि वह निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा ले सके. बेशक इसे एक छोटा मौका कहा जा सकता है लेकिन अगर व्यवस्था अलोकतांत्रिक हो, चाहे राजतंत्र हो या कम्युनिस्ट तानाशाही, तो इस छोटे मौके की बात के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता.

ऐसे में, पचहत्तर के लोकतंत्र में हमें पीछे पलट कर देखने को मात्र संदर्भ बिंदु की तरह लेना चाहिए. 15 अगस्त 2022 को प्रस्थान बिंदु बनाकर हम एक नई शुरुआत करें तो बेहतर होगा. जिसमें मजहब को कम और ‘हम भारत के लोग’ की भावना को अधिक मजबूत बनाया जाए.

नई शुरुआत हमेशा ताजादम करने वाली होती है.

Thursday, August 11, 2022

भारत से अधिक निरंतरता किस राष्ट्र में है भला!

भारत के बारे में मेरे बहुत अधिक ‘उदार’ मित्र एक बात कहते रहे हैं कि भारत तो कभी एक ‘राष्ट्र’ था ही नहीं. और यह एक ‘राष्ट्र’ बना ही है 1947 के बाद. अभिनेता अतुल कुलकर्णी ने भी भारत को कई राष्ट्रों से बना एक देश कहकर ट्वीट भी किया था. रंगनाथ सिंह ने बाद में बताया कि उन्होंने यह ट्वीट 2018 में ही किया था.

बहरहाल, ऐसे कई लोग जो राजनैतिक रूप से मध्यममार्गी (पढ़ें, कांग्रेस) हैं या वाम दलों के सदस्य हैं या सक्रिय या 'अक्रिय' रूप से इन पार्टियों से संबद्ध हैं. एक 'राष्ट्र' की 'परिभाषा' के रूप में इन बौद्धिकों को पश्चिम की अवधारणाएं ही समझ में आती हैं. पर, सहस्राब्दियों से देश के सभ्यतामूलक या संस्कृतिमूलक एकरूपता को यह लोग आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं. हड़प्पा शहरों की खुदाई में निकली बैलगाड़ी क्या अब भी हाल तक भारत के देहातों में प्रचलित नहीं थी? मैंने खुद लकड़ी के पहियों वाली इन बैलगाड़ियों में यात्राएं की हैं. हां, यह बात और है कि अब उनके कटही (काठ की) पहियों की जगह रबर के टायरों ने ले ली है और मेरे गांव में अब उस गाड़ी को बैलगाड़ी की जगह ‘टैरगाड़ी’ कहा जाता है.

'गायत्री मंत्र' और नहीं तो आज से कम से कम साढ़े चार हजार साल पहले रचा गया, लेकिन उत्तर हो या दक्कन करोड़ों सनातनी हिंदू घरों में इस पवित्र मंत्र का पाठ होता है.

भारतीयता को लेकर और भारतीय इतिहास को लेकर एक ‘मिसकॉन्सेप्शन’ इन बुद्धिजीवियों ने यह फैलाया, और जानबूझकर फैलाया कि भारत के लोग खुद के एक 'राष्ट्र' नहीं मानते और हम भारतीयों ने कभी अपने इतिहास की परवाह नहीं की.

इस विचार को पहले तो औपनिवेशिक काल के अधिकारियों ने फैलाया और उनके राजनैतिक हितों के बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. इस बात को आजादी के बाद जिन बुद्धिजीवियों ने बनाए रखा, उनके भी निजी और राजनैतिक हितों के बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

सर जॉन स्ट्रेची ने उन्नीसवीं सदी के अंत में लिखा था, ‘भारत के बारे में जानने लायक सबसे अहम बात यही है कि पहले कभी कोई भारत था ही नहीं.’ (याद करिए, पिछले एकाध बरस में ऐसा किस-किस व्यक्ति ने कहा था और उनके राजनैतिक रुझान क्या रहे हैं.)

खैर, स्ट्रेची के इस बात कहने के आधी सदी के बाद विन्स्टन चर्चिल ने लगभग यही बात कही थी कि “भारत एक भौगोलिक टर्म है. यह उतना ही एकीकृत राष्ट्र है, जितना कि बिषुवत रेखा.”

याद करिए कि आज के दौर के कौन से लोग हैं जो भारत के संदर्भ में 'चर्चिल' की तरह की बातें कर रहे हैं. मेरे एक और मित्र हैं और उनका वामपंथी रुझान (मैं रुझान शब्द का इस्तेमाल सोच-समझ कर कर रहा हूं) स्पष्ट है, उनने मुझसे कहा था कि 'आखिर भारत का योगदान क्या है दुनिया को!'

मैं चकित रह गया. वह प्रखर पत्रकार हैं. खैर.

भारत अपनी प्राचीन सभ्यता के उत्कर्ष की निरंतरता क्यों नहीं बनाए रख सका. इसके उत्तर को खोजना कोई कठिन काम नहीं है. कभी लंदन जाकर देखें, उनके आलीशान शहर की ईंट-ईंट की रकम हिंदुस्तान और हम जैसे अन्य उपनिवेशों के लूट-खसोट के माल पर टिकी है. जहां तक निरंतरता की बात है, आप एक अनुपात लें. 5:4. आठवीं में गणित की किताब में 'अनुपात' वाले अध्याय को कामचलाऊ ढंग से भी पढ़ा होगा तो आपको पता चल जाएगा कि इस अनुपात में लंबाई, चौड़ाई से 1.25 गुना अधिक है.

हिंदी की पट्टी में इतनी ही मात्रा को ‘सवा’ कहते हैं.

फिलहाल इतना जान लीजिए कि हड़प्पा के शहरों में शहर नियोजन में यह अनुपात काम में लाया गया था. और वह वक्त ईसा मसीह के जन्म से कोई तीन हजार साल पहले का था. तब, यूरोपीय देशों के लोग तकरीबन बर्बर थे और संभवतया शौच से निबटने के बाद हाथ भी नहीं धोते थे. बहरहाल, गुजरात के हड़प्पा शहर धौलावीरा का आकार 771 मीटर गुणा 617 मीटर का था. कैलकुलेटर तो होगा ही आपको मोबाइल में.

इसके कोई एक हजार साल के बाद, 'शतपथ ब्राह्मण' और 'शुल्व सूत्र' में भी यज्ञ वेदी बनाने और वैदिक कर्मकांडों के लिए इसी अनुपात का पालन किया गया.

इसके ठीक एक हजार साल बाद और, इसी अनुपात को 'वास्तु शास्त्र' से जुड़े पाठ्यों में बनाए रखा गया. चीनी फेंग शुई की तरह इस वास्तु शास्त्र का भी प्रयोग लोग अब करते हैं. छठी सदी में वराहमिहिर ने कहा कि राजमहलों का निर्माण इस तरह होना चाहिए कि महल की लंबाई, चौड़ाई से कोई एक चौथाई अधिक रहे. (सवा) कुतुब मीनार गए हों तो वहां के लौह स्तंभ के बारे में भी पढ़कर आइएगा. वहां भी यही सवा है. लंबाई 7.67 मीटर. चौड़ाई 6.12 मीटर. अनुपात 5:4.

हिंदुस्तान, आर्यावर्त, भारतवर्ष, जंबूद्वीप... कुछ भी कहें. पर आप आंख मूंद लीजिए कि भारत एक राष्ट्र नहीं था, पर जितनी निरंतरता भारत में है. दुनिया में कहीं नहीं.

Sunday, June 13, 2021

क्या आप डॉ बुशरा अतीक को जानते हैं?

डॉ. बुशरा अतीक कई मायनों में प्रेरणास्रोत हैं. पहली बात तो यही कि वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की छात्रा रही हैं और उन्हें पिछले साल 2020 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान पुरस्कार शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया गया है. उन्हें यह पुरस्कार मेडिकल साइंस के क्षेत्र में उनके अहम योगदान के लिए दिया गया है.

यह योगदान छोटा-मोटा नहीं है.

आइआइटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ बायोलजिकल साइंसेज ऐंड बायोइंजीनियरिंग में प्रोफेसर बुशरा अतीक की अगुआई में कई संस्थानों को मिलाकर बनी टीम ने एक अध्ययन किया और कैंसर के 15 फीसद मरीजों पर असर डालने वाले बेहद आक्रामक स्पिंक 1-पॉजिटिव (SPINK1-positive) प्रोस्टेट कैंसर के एक सब-टाइप की मॉलेक्यूलर मैकेनिज्म और उसकी पैथोबायोलजी का पता लगा लिया.

डॉ अतीक ने अपनी बीएससी, एमएससी और पीएचडी का पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ जूलॉजी से की. बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ मिशीगन के मिशीगन सेंटर फॉर ट्रांसलेशनल पैथोलजी में उन्होंने डॉ अरुल चिन्नैय्या के तहत पोस्टडॉक्टोरल फेलो के रूप में प्रशिक्षण हासिल किया.

डॉ अतीक के शोध में कैंसर बायोमार्कर्स, कैंसर जीनोमिक्स, नॉन-कोडिंग आरएनए, ड्रग टारगेट और प्रोस्टेट कैंसर जैसे विषय शामिल हैं.

उनका काम प्रोस्टेट, स्तन और बड़ी आंत के कैंसर पर केंद्रित है. उनका शोध कैंसर बायोमार्कर और मॉलेक्यूलर बदलावों पर आधारित है जिससे प्रोस्टेट और स्तन कैंसर में बढ़ोतरी होती है.

वेबसाइट फर्स्टपोस्ट को दिए अपने इंटरव्यू में वह कहती हैं, “हमारी प्रयोगशाला कैंसररोधी उपचार के टारगेट्स की खोज करना चाहती है.” वह साथ में कहती हं कि इन टारगेट्स की पहचान से कैंसर का जल्दी ही पता लगाया जा सकेगा, और यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि जल्दी से पता लगने से कामयाबी के साथ उपचार होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.

2019 में, डॉ. अतीक ने उस टीम की अगुआई कर रही थी जिसने जिसने स्पिंक1 पॉजिटिव प्रोस्टेट कैंसर सबटाइप के आणविक तंत्र और रोगविज्ञान को खोज निकाला. डॉ अतीक ने अंग्रेजी अखबार द हिंदू को बताया, "हमने पाया कि EZH2 प्रोटीन का बढ़ा हुआ स्तर SPINK1 पॉजिटिव कैंसर में इन दो माइक्रोआरएनए के संश्लेषण में कमी को ट्रिगर करता है. और दो माइक्रोआरएनए के निम्न स्तर बदले में SPINK1 के अधिक उत्पादन की ओर ले जाते हैं.,

उन्होंने सीएसआइआर-सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट, लखनऊ और कनाडा, अमेरिका और फिनलैंड के प्रोस्टेट कैंसर पर काम करने वाले अन्य समूहों के सहयोग से आइआइटी कानपुर के अन्य शोधकर्ताओं के साथ हाल के एक अध्ययन में इस बात का पता लगाया कि एंड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी, जिसका उपयोग प्रोस्टेट के उपचार के लिए किया जाता है, वह इसे ठीक करने के बजाय इसे बढ़ा देता है. प्रोफेसर अतीक ने रिसर्च मैटर्स को बताया, “फिलहाल, प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों के लिए एण्ड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी के व्यापक उपयोग को देखते हुए, हमारे निष्कर्ष खतरनाक हैं. प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों को एंटी-एंड्रोजन थेरेपी देने से पहले काफी सोच-विचार लेना चाहिए.”

अब बुशरा भारतीय आबादी के म्युटेशनल परिदृश्य को जीन सीक्वेंसिंग के जरिए खोजना चाहती हैं. इसके साथ ही वह ऐसी विधि भी खोज निकालना चाहती हैं जिसके तहत प्रोस्टेट कैंसर के खास बायोमार्कर्स विकसित किए जा सकें और जिसकी पहचान महज यूरिन टेस्ट के जरिए ही हो सके. अभी प्रोस्टेट ग्रंथि में 12 छेद मोटी सुइयों से करके बायोप्सी की जाती है और तब उस कैंसर का पता लगाया जाता है. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है, “बायोप्सी होते देखना ही काफी दर्दनाक है, और इस वजह से मुझे लगता है कि कोई खून के परीक्षण या यूरिन बेस्ड जांच का तरीका खोजा जाना चाहिए.” डॉ अतीक को लगता है कि प्रोस्टेट कैंसर की जांच के लिए यूरिन टेस्ट में बायोमार्कर्स खोजे जा सकते हैं.

भारत के सबसे बड़े विज्ञान पुरस्कार के बाद डॉ बुशरा अतीक के लिए उनका महिला होना मायने नहीं रखता. लेकिन करियर की शुरुआत में उनके एक सहपाठी ने उन्हें अंडर-ग्रेजुएट कॉलेज में टीचर बनने की सलाह दी थी. जाहिर है, डॉ. बुशरा ने उसकी बात को तवज्जो नहीं दी थी.

आज भी उनकी सलाह यही है, धीरज रखो और आलोचनाओं को आड़े न आने दो.

लगता तो यही है कि भारतीय विज्ञान का भविष्य डॉ बुशरा अतीक जैसे वैज्ञानिकों के हाथ मे सुरक्षित है.

Tuesday, June 23, 2020

हमलावरो की वजह से पिछले 500 साल में 32 बार नहीं हो पाई है पुरी की रथयात्रा

आखिरकार, कुछ शर्तों के साथ रथयात्रा हुई ही. नहीं होती, तो एक परंपरा टूटती, भक्तों और श्रद्धालुओं को निराशा होती. पर ऐसा नहीं है कि पहले कभी रथयात्रा बाधित न रही हो.

पुरी की रथयात्रा पर बनी पेटिंग सौजन्यः गूगल

श्रीजगन्नाथ मंदिर के इतिहास के अनुसार, पिछले 500 साल में अब तक 32 बार रथयात्रा स्थगित करनी पड़ी है. इसके अलावा, 5 मौके ऐसे भी रहे जब रथयात्रा को ओडिशा में ही पुरी के बाहर आयोजित करना पड़ा.

सेवकों ने चतुर्धा विग्रहों को (श्रीजगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र) चुपके से बाहर ले जाकर पुरी और खोरदा जिले के गांवों में रथयात्रा आयोजित की थी.

काला पहाड़ के आक्रमण के कारण 1568 से 1577 तक नौ साल तक लगातार रथयात्रा नहीं हुई थी. 1601 में मिर्जा खुर्रम आलम के कारण और 1607 में हाशिम खान के हमले के कारण रथयात्रा का आयोजन नहीं हो सका था. 1611 में मुग़ल सेनापति कल्याण मल के हमले के कारण भी रथयात्रा नहीं हो सकी थी. 

2019 में पुरी की रथयात्रा का विहंगम दृश्य (गूगल)

1622 में मुस्लिम हमलावर अहमद बेग के हमले के कारण भी रथयात्रा रोकनी पड़ी थी. 1692 से लेकर 1704 तक आक्रमणकारी इकराम खान के हमले के कारण 13 साल तक रथयात्रा नहीं हो सकी थी. 1735 में तकी खान के हमले के कारण तीन साल तक रथयात्रा स्थगित रही थी.

जय जगन्नाथ.

Friday, May 15, 2020

देवघरः बाबा बैद्यनाथ धाम का इतिहास और भूगोल भाग - 2

देवघरः बाबा बैद्यनाथ धाम का इतिहास और भूगोल भाग - 2

बाबा बैद्यनाथ धाम यानी देवघर के श्रद्धा केंद्र बनने की और मानव शास्त्रीय जो ब्योरे हैं उनके बारे में बात की जाए, तो देश के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक रावणेश्वर महादेव का यह मंदिर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दोनों महत्व का है. यहां से सुल्तानगंज करीबन 112 किलोमीटर है, जहां से गंगाजल लेकर कांवरिए सावन के महीने में शिवजी का जलाभिषेक करते हैं. दुनिया का यह सबसे लंबा मेला भी है. 

वैसे मिथिला के लोग सावन में जलाभिषेक करने नहीं आते, वे लोग भादों में आते हैं. ऐसा क्यों है इसकी चर्चा हम बाद में करेंगे.

प्रसिद्ध इतिहासकार राजेंद्र लाल मित्रा, जिनके नाम पर देवघर के जिला स्कूल का नामकरण भी आर.मित्रा हाइस्कूल किया गया है और बाबा बैद्यनाथ धाम मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर है, ने 1873 में अपनी रिपोर्ट में देवघर के भूगोल का वर्णन करते हुए लिखा हैः

“यह एक पथरीले मैदान पर अवस्थित है, इसके ठीक उत्तर में एक छोटा-सा जंगल है, इसके पश्चिमोत्तर में एक छोटी सी पहाड़ी है और इसका नाम नंदन पहाड़ है. एक बड़ी पहाड़ी इससे करीब 5 मील पूर्व में है जिसको त्रिकूट पर्वत कहते हैं और दक्षिण-पूर्व दिशा में जलमे और पथरू पहाड़ है, दक्षिण में फूलजोरी और दक्षिण-पश्चिम में दिघेरिया पहाड़ हैं. इन सबकी दूरी मंदिर से अलग-अलग है पर सब 12 मील की दूरी के भीतर हैं.”

हालांकि, आज के देवघर में बहुत कुछ बदल गया है और इस ब्योरे से मिलान करना चाहें तो आपको नंदन पहाड़ और त्रिकूट पर्वत के अलावा शायद ही कुछ मिलान हो सके, काहे कि सड़क और इमारतों ने भू संरचना को बदल कर रख दिया है.

हालांकि, जानकार लोगों ने बताया है कि मित्रा के ब्योरे मे थोड़ी तथ्यात्मक भूले भी हैं. मित्रा लिखते हैं कि देवघर के आसपास के सभी पहाड़ी इसके 12 मील की त्रिज्या के भीतर हैं, जबकि तथ्य यह है कि पथरड्डा और फुलजोरी पहाड़ियां शहर से 25 और 35 मील दूर हैं.

हां, मंदिर को लेकर मित्रा का विवरण सटीक है. मिसाल के तौर पर मित्रा का यह लिखना आज भी सही है कि
"बैद्यनाथ मंदिर शहर के ठीक बीचों-बीच है और यह एक अनियमित किस्म के चौकोर अहाते के भीतर है. इस परिसर के पूर्व दिशा में एक सड़क है, जो उत्तर से दक्षिण को जाती है और जो 226 फीट चौड़ी है, इसके दक्षिणी सिरे पर एक बड़े मेहराब के पास, ठीक उत्तर की तरफ हटकर एक दोमंजिला इमारत है जो संगीतकारों को रहने के लिए दिया जाता है. यह दरवाजा भी कुछ अधिक इस्तेमाल का नहीं है, क्योंकि इसका एक हिस्सा एकमंजिला इमारत की वजह से ब्लॉक हो गया है. दक्षिणी हिस्से में, जहां कई दुकानें हैं अहाते की लंबाई 224 फीट है. पश्चिम में लंबाई 215 फीट है और इसके बीच में एक छोटा दरवाजा है जो एक गली में खुलता है. पश्चिमोत्तर का बड़ा हिस्सा सरदार पंडा का आवास है, लेकिन पूर्वोत्तर की तरह एक बड़ा सा दरवाजा है, जिसके स्तंभ बहुत विशाल हैं. यही मंदिर का मुख्य दरवाजा है. सभी श्रद्धालुओं को इसी दरवाजे से अंदर जाने के लिए कहा जाता है. इस साइड की लंबाई 220 फीट है.’

बैद्यनाथ मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के अलावा 21 और भी मंदिर हैं जिनमें अलग-अलग देवी और देवताओं के विग्रह हैं. बैद्यनाथ मंदिर इस परिसर के केंद्र में है जिसका मुख पूर्व की तरफ है. अमूमन पुराने हिंदू मंदिरों के दरवाजे पूर्व की तरफ ही खुलते रहे हैं.

मुख्य मंदिर परिसर. फोटोः जोसेफ डेविड बेगलर, 1972-73 साभारः एएसआइ


मंदिर पत्थरों का बना है और इसकी ऊंचाई 72 फीट की है. इसकी सतह को चेक पैटर्न में उर्ध्वाधर और क्षैतिज रूप से काटा गया है. मंदिर का मुख्य गर्भगृह 15 फुट 2 इंच लंबा और 15 फुट चौड़ा है जिसका दरवाजा पूर्व की तरफ है.

इसके बाद एक द्वारमंडप है जिसकी छत नीची है और यब 35 फुट लंबा और 12 फुट चौड़ा है और यह दो हिस्सों में बंटा है. इसमें 4 स्तंभों की कतार है. कहा जाता है कि यह बाद में जोड़ा गया हिस्सा है. दूसरा द्वारमंडप या बारामदा थोड़ा छोटा है और इसे और भी बाद में बनाया गया.



बैद्यनाथ धाम परिसर का एक दूसरा मंदिर. फोटोः जोसेफ डेविड बेगलर. 1872-73 फोटो साभारः एएसआइ

गर्भगृह के अन्य तीन साइड खंभों वाले बारामदों से घिरे हैं. जिसमें ऐसे श्रद्धालु आकर टिकते हैं जो धरना देने आते हैं.

मंदिर में अपनी मन्नत मांगने के लिए लोग कई दिनों तक धरना देते हैं और यह बाबा बैद्यनाथ मंदिर की खास परंपरा है. गर्भगृह में काफी अंधेरा होता है और गर्भगृह के सामने का द्वारमंडप भी गर्भगृह जैसा ही है. जिसकी फर्श बैसाल्ट चट्टानों की बनी है.

गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बाईं तरफ एक छोटा सी अनुकृति उकेरी हुई है. आप खोजेंगे तो पूरे मंदिर परिसर में आपको 12 ऐसी अनुकृतियां दिख जाएंगी. यही अनुकृतियां खासतौर पर बैद्यनाथ मंदिर के बारे में ऐतिहासिक जानकारी के स्रोत हैं और इन्हीं के आधार पर पूरे संताल परगना के इतिहास की भी झलक मिलती है.

जारी...


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Joseph David Beglar c.1872-73 and forms part of the Archaeological Survey of India Collections.

Friday, October 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं पाताल से भी न सूख जाए सरस्वती

अभी हाल में केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज के पास गंगा और यमुना को जोड़ने वाली एक भूमिगत नदी की खोज की है. इससे पहले हरियाणा, राजस्थान में भी सरस्वती नदी के जल के भूमिगत जलस्रोत के रूप में जमा होने की खोज की गई थी. पर, जिस तरह से भूमिगत जल का अबाध दोहन हरियाणा में हो रहा है उससे डर है कहीं पाताल में बैठी सरस्वती भी न सूख जाए. 


हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे हैं और लग रहा है जैसे कि कांग्रेस के सूखते जनाधार में निर्मल जल का एक सोता फूटकर उसे फिर से जीवित कर गया हो. हरियाणा ही संभवतया सरस्वती की भूमि भी रही है. हरियाणा का नाम लेते ही कुरुक्षेत्र और सरस्वती नदी, ये दो नाम तो जेह्न में आते ही हैं. तो आज के नदीसूत्र में बात उसी सरस्वती नदी की, जिसके बारे में मान्यता है कि वह गुप्त रूप से प्रयागराज में संगम में शामिल होती है. वही नदी जो वैदिक काल में बेहद महत्वपूर्ण हुआ करती थी.

वैसे, खबर यह भी है कि केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज में एक ऐसी सूखी नदी का भी पता लगाया है जो गंगा और यमुना को जोड़ती है. राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के मुताबिक, इस खोज का मकसद था कि एक संभावित भूमिगत जल के रिचार्ज स्रोत का पता लगाया जाए.

इस प्राचीन नदी के बारे में मंत्रालय ने बताया कि यह 4 किमी चौड़ी और 45 किमी लंबी है और इसकी जमीन के अंदर 15 मोटी परत मौजूद है. पिछले साल दिसंबर में इस नदी की खोज में सीएसआइआर-एनजीआरआइ (नेशनल जियोफिजिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट) और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने एक जियोफिजिकल हवाई सर्वे के दौरान किया.

बहरहाल, अगर यह सरस्वती है तो वह कौन सी सरस्वती है जिसको हरियाणा और राजस्थान में खोजने की कोशिश की गई थी? क्या सरस्वती ने भारतीय उपमहाद्वीप के विवर्तनिक प्लेट की हलचलों की वजह से अपना रास्ता बदल लिया? वह नदी कहां लुप्त हो गई?

आज से करीब 120 साल पहले 1893 में यही सवाल एक अंग्रेज इंजीनियर सी.एफ. ओल्डहैम के जेहन में भी उभरा था, जब वे इस नदी की सूखी घाटी यानी घग्घर के इलाके से होकर गुजरे थे. तब ओल्डहैम ने पहली परिकल्पना दी कि हो न हो, यह प्राचीन विशाल नदी सरस्वती की घाटी है, जिसमें सतलुज नदी का पानी मिलता था. और जिसे ऋषि-मुनियों ने ऋग्वेद (ऋचा 2.41.16) में ''अम्बी तमे, नदी तमे, देवी तमे सरस्वती” अर्थात् सबसे बड़ी मां, सबसे बड़ी नदी, सबसे बड़ी देवी कहकर पुकारा है.

ऋग्वेद में इस भूभाग के वर्णन में पश्चिम में सिंधु और पूर्व में सरस्वती नदी के बीच पांच नदियों झेलम, चिनाब, सतलुज, रावी और व्यास की उपस्थिति का जिक्र है. ऋग्वेद (ऋचा 7.36.6) में सरस्वती को सिंधु और अन्य नदियों की मां बताया गया है. इस नदी के लुप्त होने को लेकर ओल्डहैम ने कहा था कि कुदरत ने करवट बदली और सतलुज के पानी ने सिंधु नदी का रुख कर लिया. हालांकि उसके बाद सरस्वती के स्वरूप को लेकर एक-दूसरे को काटती हुई कई परिकल्पनाएं सामने आईं.

1990 के दशक में मिले सैटेलाइट चित्रों से पहली बार उस नदी का मोटा खाका दुनिया के सामने आया. इन नक्शों में करीब 20 किमी चौड़ाई में हिमालय से अरब सागर तक जमीन के अंदर नदी घाटी जैसी आकृति दिखाई देती है.

अब सवाल है कि कोई नदी इतनी चौड़ाई में तो नहीं बह सकती, तो आखिर उस नदी का सटीक रास्ता और आकार क्या था? इन सवालों के जवाब ढूंढऩे के लिए 2011 के अंत में आइआइटी कानपुर के साथ बीएचयू और लंदन के इंपीरियल कॉलेज के विशेषज्ञों ने शोध शुरू किया.

इंडिया टुडे में ही छपी खबर के मुताबिक, 2012 के अंत में टीम का 'इंटरनेशनल यूनियन ऑफ क्वाटरनरी रिसर्च’ के जर्नल क्वाटरनरी जर्नल में एक शोधपत्र छपा. इसका शीर्षक था: जिओ इलेक्ट्रिक रेसिस्टिविटी एविडेंस फॉर सबसरफेस पेलिओचैनल सिस्टम्स एडजासेंट टु हड़प्पन साइट्स इन नॉर्थवेस्ट इंडिया. इसमें दावा किया गया: ''यह अध्ययन पहली बार घग्घर-हाकरा नदियों के भूमिगत जलतंत्र का भू-भौतिकीय (जिओफिजिकल) साक्ष्य प्रस्तुत करता है.” यह शोधपत्र योजना के पहले चरण के पूरा होने के बाद सामने आया और साक्ष्यों की तलाश में अभी यह लुप्त सरस्वती की घाटी में पश्चिम की ओर बढ़ता जाएगा.

पहले साक्ष्य ने तो उस परिकल्पना पर मुहर लगा दी कि सरस्वती नदी घग्घर की तरह हिमालय की तलहटी की जगह सिंधु और सतलुज जैसी नदियों के उद्गम स्थल यानी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. अध्ययन की शुरुआत घग्घर नदी की वर्तमान धारा से कहीं दूर सरहिंद गांव से हुई और पहले नतीजे ही चौंकाने वाले आए. सरहिंद में जमीन के काफी नीचे साफ पानी से भरी रेत की 40 से 50 मीटर मोटी परत सामने आई. यह घाटी जमीन के भीतर 20 किमी में फैली है.

इसके बीच में पानी की मात्रा किनारों की तुलना में कहीं अधिक है. खास बात यह है कि सरहिंद में सतह पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे अंदाजा लग सके कि जमीन के नीचे इतनी बड़ी नदी घाटी मौजूद है. बल्कि यहां तो जमीन के ठीक नीचे बहुत सख्त सतह है. पानी की इतनी बड़ी मात्रा सहायक नदी में नहीं बल्कि मुख्य नदी में हो सकती है. शोधकर्ताओं ने तब इंडिया टुडे का बताया कि यहां निकले कंकड़ों की फिंगर प्रिंटिंग से यह लगता है कि यह नदी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. कोई 1,000 किमी. की यात्रा कर अरब सागर में गिरती थी. इसके बहाव की तुलना वर्तमान में गंगा नदी से की जा सकती है.

सरहिंद के इस साक्ष्य ने सरस्वती की घग्घर से इतर स्वतंत्र मौजूदगी पर मुहर लगा दी. यानी सतलुज और सरस्वती के रिश्ते की जो बात ओल्डहैम ने 120 साल पहले सोची थी, भू-भौतिकीय साक्ष्य उस पर पहली बार मुहर लगा रहे थे.

तो फिर ये नदियां अलग कैसे हो गईं? समय के साथ सरस्वती नदी को पानी देने वाले ग्लेशियर सूख गए. इन हालात में या तो नदी का बहाव खत्म हो गया या फिर सिंधु, सतलुज और यमुना जैसी बाद की नदियों ने इस नदी के बहाव क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सरस्वती नदी का पानी पूर्व दिशा की ओर और सतलुज नदी का पानी पश्चिम दिशा की ओर खिसकता चला गया. बाद की सभ्यताएं गंगा और उसकी सहायक नदी यमुना (पूर्ववर्ती चंबल) के तटों पर विकसित हुईं. पहले यमुना नदी नहीं थी और चंबल नदी ही बहा करती थी. लेकिन उठापटक के दौर में हिमाचल प्रदेश में पोंटा साहिब के पास नई नदी यमुना ने सरस्वती के जल स्रोत पर कब्जा कर लिया और आगे जाकर इसमें चंबल भी मिल गई.

यानी सरस्वती की सहायक नदी सतलुज उसका साथ छोड़कर पश्चिम में खिसककर सिंधु में मिल गर्ई और पूर्व में सरस्वती और चंबल की घाटी में यमुना का उदय हो गया. ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि भले ही प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम का कोई भूभौतिकीय साक्ष्य न मिलता हो लेकिन यमुना के सरस्वती के जलमार्ग पर कब्जे का प्रमाण इन नदियों के अलग तरह के रिश्ते की ओर इशारा करता है. उधर, जिन मूल रास्तों से होकर सरस्वती बहा करती थी, उसके बीच में थार का मरुस्थल आ गया. लेकिन इस नदी के पुराने रूप का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के श्लोक (7.36.6) में कहा गया है, ''हे सातवीं नदी सरस्वती, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता है और भूमि को उपजाऊ बनाती है, हमें एक साथ प्रचुर अन्न दो और अपने पानी से सिंचित करो.”

आइआइटी कानपुर के साउंड रेसिस्टिविटी पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि कालीबंगा और मुनक गांव के पास जमीन के नीचे साफ पानी से भरी नदी घाटी की जटिल संरचना मौजूद है. इन दोनों जगहों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि जमीन के भीतर 12 किमी से अधिक चौड़ी और 30 मीटर मोटी मीठे पानी से भरी रेत की तह है. जबकि मौजूदा घग्घर नदी की चौड़ाई महज 500 मीटर और गहराई पांच मीटर ही है. जमीन के भीतर मौजूद मीठे पानी से भरी रेत एक जटिल संरचना दिखाती है, जिसमें बहुत-सी अलग-अलग धाराएं एक बड़ी नदी में मिलती दिखती हैं.

यह जटिल संरचना ऐसी नदी को दिखाती है जो आज से कहीं अधिक बारिश और पानी की मौजूदगी वाले कालखंड में अस्तित्व में थी या फिर नदियों के पानी का विभाजन होने के कारण अब कहीं और बहती है. अध्ययन आगे बताता है कि इस मीठे पानी से भरी रेत से ऊपर कीचड़ से भरी रेत की परत है. इस परत की मोटाई करीब 10 मीटर है. गाद से भरी यह परत उस दौर की ओर इशारा करती है, जब नदी का पानी सूख गया और उसके ऊपर कीचड़ की परत जमती चली गई. ये दो परतें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन नदी बड़े आकार में बहती थी और बाद में सूख गई. और इन दोनों घटनाओं के कहीं बहुत बाद घग्घर जैसी बरसाती नदी वजूद में आई.

सैटेलाइट इमेज दिखाती है कि सरस्वती की घाटी हरियाणा में कुरुक्षेत्र, कैथल, फतेहाबाद, सिरसा, अनूपगढ़, राजस्थान में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, थार का मरुस्थल और फिर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक जाती थी. राजस्थान के जैसलमेर जिले में बहुत से ऐसे बोरवेल हैं, जिनसे कई साल से अपने आप पानी निकल रहा है. ये बोरवेल 1998 में मिशन सरस्वती योजना के तहत भूमिगत नदी का पता लगाने के लिए खोदे गए थे. इस दौरान केंद्रीय भूजल बोर्ड ने किशनगढ़ से लेकर घोटारू तक 80 किमी के क्षेत्र में 9 नलकूप और राजस्थान भूजल विभाग ने 8 नलकूप खुदवाए. रेगिस्तान में निकलता पानी लोगों के लिए आश्चर्य से कम नहीं है. नलकूपों से निकले पानी को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने 3,000 से 4,000 साल पुराना माना था. यानी आने वाले दिनों में कुछ और रोमांचक जानकारियां मिल सकती हैं.

वैज्ञानिक साक्ष्य और उनके इर्द-गिर्द घूमते ऐतिहासिक, पुरातात्विक और भौगोलिक तथ्य पाताल में लुप्त सरस्वती की गवाही दे रहे हैं. हालांकि विज्ञान आस्था से एक बात में सहमत नहीं है और इस असहमति के बहुत गंभीर मायने भी हैं. मान्यता है कि सरस्वती लुप्त होकर जमीन के अंदर बह रही है, जबकि आइआइटी का शोध कहता है कि नदी बह नहीं रही है, बल्कि उसकी भूमिगत घाटी में जल का बड़ा भंडार है.

अगर लुप्त नदी घाटी से लगातार बड़े पैमाने पर बोरवेल के जरिए पानी निकाला जाता रहा तो पाताल में पैठी नदी हमेशा के लिए सूख जाएगी, क्योंकि उसमें नए पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है. वैज्ञानिक तो यही चाहते हैं कि पाताल में जमी नदी के पानी का बेहिसाब इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि अगर ऐसा किया जाता रहा तो जो सरस्वती कोई 4,000 साल पहले सतह से गायब हुई थी, वह अब पाताल से भी गायब हो जाएगी.

(इस ब्लॉग को लिखने में इंडिया टुडे में पीयूष बबेले और अनुभूति बिश्नोई की रपटों को आधार बनाया गया है)

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Saturday, September 28, 2019

महालया से जुड़ी हैं देवी पूजा की कुछ खास मान्यताएं

रूपं देहि, जयं देहि
यशो देहि, द्विषो जहि.

महालया एक संस्कृत शब्द है, जिसमें 'महा' का अर्थ होता है, महान और 'आलया' का अर्थ है निवास. अर्थात् पृथ्वी पर अपार शक्ति की देवी का राक्षसी शक्तियों के उन्मूलन और भक्तों को आशीर्वाद और कृपा प्रदान करने के लिये महा निवास. महालया अमावस्या दुर्गा पूजा या नवरात्र की शुरुआत को दर्शाता है. महालया से ही नवरात्रों की शुरुआत हो जाती है.

महालया अमावस्या की काली रात को मां दुर्गा की पूजा की जाती है और उनसे प्रार्थना की जाती और 'जागो तुमि जागो ' के मंत्रों के उच्चारण के साथ उन्हें धरती पर आने का आह्वान किया जाता है ताकि अपने भक्तों को आशीर्वाद दें.

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन मां दुर्गा धरती पर आकर असुर शक्तियों से अपने बच्चों की रक्षा करती हैं. यह देवी पक्ष की शुरुआत के साथ पितृपक्ष का अंत भी माना जाता है. महालया के दिन पितर अपने पुत्रादि से पिंडदान और तिलांजलि प्राप्त कर अपने पुत्र और परिवार को सुख-शांति और समृद्धि का आशीर्वाद प्रदान अपने घर चले जाते हैं. 

महालया से देवता फिर अपने स्थान पर वास करने लगते हैं. पितृपक्ष में 15 दिन देवताओं की नहीं, पितरों की पूजा-अर्चना होती है. महालया से देवी-देवताओं की पूजा शुरू हो जाती है. इसलिए इसे देवी पक्ष भी कहा जाता है. 

महालया त्योहार ज्यादातर बंगाली बंधुओं द्वारा मनाया जाता है. महालया नवरात्र या दुर्गा पूजा की शुरुआत मानी जाती है. 

महालया त्योहार का इतिहास तब से जुड़ा है जब श्रीराम ने लंका युद्ध के लिए जाने से पहले देवी मां दुर्गा की पूजा की थी. उन्होंने देवी से आशीर्वाद लिए ताकि वे सीता को रावण के चंगुल से सफलतापूर्वक छुड़ा कर ला सकें.  माना जाता है जब श्रीराम माता दुर्गा की पूजा कर रहे थे तो सभी देवताओं ने भी उनके साथ मिलकर दुर्गा मां की पूजा की थी, इसी दिन देवी दुर्गा ने स्वर्ग से पृथ्वी का सफ़र शुरू किया था.

एक और कहानी जो महालया से जुडी है वो है ,कर्ण की कहानी. कर्ण को दानवीर कहा जाता है, क्योंकि वह भोजन को छोड़कर सब कुछ दान देते थे. उनकी मृत्यु के बाद भी उन्हें पृथ्वी पर 14 दिन का समय दिया ताकि वे जितना ज्यादा हो सके दान कर सकें.

एक अन्य हिंदू मान्यता के अनुसार, मां दुर्गा का भगवान शिव से विवाह होने के बाद जब वह अपने मायके लौटी थीं और उस आगमन के लिए खास तैयारी की गई. इस आगमन को महालया के रूप में मनाया जाता है.  जबकि बांग्ला मान्यता के अनुसार, महालया के दिन मां की मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार, मां दुर्गा की आंखों को बनाते हैं जिसे चक्षुदान भी कहते हैं, जिसका मतलब है आंखें प्रदान करना. 

सौर आश्विन के कृष्णपक्ष का नाम महालया है. इस पक्ष के अमावस्या तिथि को ही महालया कहा जाता है. माता दुर्गा के आगमन के इस दिन को महालया के रूप में भी मनाया जाता है, महालया के अगले दिन से मां दुर्गा के नौ दिनों की पूजा के लिए कलश स्थापना की जाती है , इसके साथ ही देवी के नौ रूपों की पूजा के साथ नवरात्रि की पूजा शुरू हो जाती है. फिर क्रमशः माता शैलपुत्री से लेकर माता सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना की जाएगी.


(यह लेख पंकज पीयूष की अनुमति से उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)

Monday, July 23, 2018

मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं, आजाद और भगत सिंह को याद करते बटुकेश्वर दत्त का संस्मरण

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर इन चीफ चन्द्रशेखर आज़ाद का आज जन्मदिवस है. पंडित जी के सपनों का समाजवादी भारत था, जिसमें सभी को रोटी, कपड़ा, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार का प्रबंध होना था. आज़ाद को याद करते हुए उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के संस्मरणों का एक आलेख पढ़ें




मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं...

बटुकेश्वर दत्त

सरदार की गुनगुनाहट आज भी मेरे कानों से टकरा रही है- मैं तो एक मुश्ते-गुबार हूं... धोकर निचोड़े गए कपड़ों को झटके दे-देकर जैसे वह धूप में फैला रहा हो और पूरी तन्मयता के साथ गुनगुना रहा हो. कानपुर स्थित सुरेश दादा के मेस की दूसरी मंजिल की छत पर किशोर सरदार के कपड़े धोने का दृश्य अब भी उसी तरह अम्लान है-कंधे सहित सिर पर लिपटा केश-गुच्छ, कमर में एक कच्छा छोड़कर पूरा नंगा बदन, जल की धार पर वह लगातार कपड़े पटक रहा है. साबुन के शुभ्र फेन उड़-उड़कर इधर-उधर फैल रहे हैं. मैं बगल में बैठा अन्य कपड़ों पर साबुन घिस रहा हूं और सरदार बार-बार वही एक पंक्ति दुहराये जा रहा है- मैं तो...

सन् उन्नीस सौ चौबीस के शुरू का कोई महीना. मैं उन दिनों कानपुर के बंगाली मिडिल स्कूल का विद्यार्थी और पारिवारिक अनुशासन की आंखें बचाकर क्रांतिकारी दल की शाखा का एक सक्रिय कार्यकर्त्ता. श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र 'प्रताप' से सम्बध्द, दल के प्रमुख नेता श्री सुरेशचंद्र के निर्देशानुसार एक शाम उनसे मिलने कम्पनी बाग गया. क्यों और किसलिए बुलाया गया था, यह पूछना दलीय अनुशासन के विरुध्द था और आदेश पर आंख मूंदकर चलना ही हमारे विप्लवी जीवन का प्रथम पाठ. इसलिए हर तरह की परिस्थिति के प्रति अपने को तैयार कर समय से वहां पहुंचा. सुरेश दादा नहीं थे. बाग के एक छोर से दूसरे तक मेरी चंचल निगाहें ढूंढ़ गयीं, पर कहीं पर भी वह नजर नहीं आया. मुझे आश्चर्य हुआ क्रांतिकारियों के कार्यक्रम में इस तरह की भूल पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. घनघोर अंधेरी रात में भी मूसलाधार वर्षा सिर पर झेलते हुए, सीआईडी की निगाहें बचाता निर्दिष्ट कार्य के लिए ठीक जगह निर्धारित समय पर हाजिरी बजाने में इसके पहले मुझसे कभी भूल नहीं हुई थी. फिर आज प्रमुख क्रांतिकारी नेता के निर्देश और कार्य में यह अंतर क्यों?

इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि मेरी आंखें एक घनी, कांटेदार झाड़ी से जाकर उलझ गयीं. क्या ही अजीब, रोंगटे खड़े कर देने के साथ-साथ हंसाने वाला दृश्य! झाड़ी केऊपर एक सफेद पगड़ी का सिरा लगातार दायें से बायें और बायें से दायें मोर की पखी की तरह डोल रहा था. मैं नजर गड़ाये उसे देखता रहा. बीच-बीच में वह स्थिर हो जाता और फिर घड़ी के पेंडुलम की तरह अपनी चाल पकड़ लेता. बाग के निस्तब्ध वातावरण में, जबकि संध्या का रक्तिम प्रकाश रात के अंधेरे में अपना मुंह छिपाने की तैयारी कर रहा हो, कांटेदार झाड़ी के ऊपर से सफेद पगड़ी का वह हिलता सिरा इशारे से जैसे मुझे अपने पास बुला रहा था. मैं आगे बढ़ा. झाड़ी के समीप पहुंचते ही उस सफेद पगड़ी का अधिकारी साढ़े पांच फुट से भी लंबा एक सिख युवक मेरी आहट पर उछलकर खड़ा हो गया. उसकी काली चमकती आंखों में शंका की भावना और लम्बी लटकती दोनों भुजाओं पर कमीज के चढ़े आस्तीन, दृढ़ मुट्ठियों में बंद लंबी उंगलियां, दोनों गालों पर दाढ़ी की हल्की रेखा, सिर पर पगड़ी में कैद केश-गुच्छ, जिसकी कुछ लटें बाहर झूल रहीं थीं. 

मेरे सामने वह सिख युवक चैलेंज का भाव चेहरे पर लिए खड़ा था और मैं उसकी तात्कालिक मुद्रा के प्रति उदासीन, कि तभी बगल में निश्चल गिरिराज की भांति बैठे विप्लवी सुरेश दादा पर ध्यान गया. मुझे देखकर उनके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कराहट खेल गयी और सरदार शांत पड़ा. उसकी दृढ़ मुट्ठियों की उंगलियां सहज और शिथिल हुई. मुझ नवागंतुक को देखते ही जो चमक और खून उसकी आंखों में उतर आया था, सुरेश दादा की मुस्कराहट से जैसे पूरे चेहरे पर लालिमा बन फैल गया और मुझे लगा अपनी अनावश्यक दृढ़ता के लिए वह कुछ झेप-सा रहा है. सुरेश दादा ने हंसते हुए हम दोनों को आमने-सामने बैठाया और उस तरुण सरदार से मेरा परिचय कराया नाम- बलवंत सिंह पंजाब के नेशलनल कालेज में बीए के छात्र हैं. 

प्रमुख क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस निकटतम सहयोगी शचींद्रनाथ सान्याल 'बंदी जीवन' के लेखक एवं बाद में काकौरी षड़यंत्रा के प्रमुख अभियुक्त उस समय उत्तरी भारत में क्रांतिकारी दल के प्रमुख संगठनकर्त्ता थे. पंजाब नेशनल कालेज के अध्यापक श्री जयचंद्र विद्यालंकार की मार्फत शचींद्र दादा से उस सिख नवयुवक का परिचय हुआ और वह क्रमश:विप्लवी संगठन में खिंच आया. उसकी क्रांतिकारी विचारधारा देखते हुए परिवार के लोग छात्रावस्था में ही उसका विवाह कर देने का निर्णय कर चुके थे, लेकिन क्रांतिपथ के पथिक उस तरुण को अपने विवाह का प्रस्ताव मंजूर नहीं था और उसी से मुक्ति पाने के लिए तमाम पारिवारिक आत्मीयता एवं परिवार के लोगों से संबंध-विच्छेद कर वह लाहौर से सुरेश दादा के आश्रय में कानपुर भाग आया था. 

रूसी विप्लवियों का प्रभाव उसकी स्मृतियों में था और उन्हीं की तरह उसने भी शपथ ले रखी थी कि जीवन में न किसी से प्रेम करेगा, न किसी का प्रेम-पात्र बनेगा, न विवाह करेगा, न किसी का विवाह रचायेगा. उससे संबंधित ये तमाम बातें मुझे धीरे-धीरे बाद में मालूम हुईं जब अपने पहले परिचय के बाद प्रत्येक दिन, प्रत्येक घड़ी हम एक-दूसरे के करीब आते गए. और उसी वर्ष यानी 1924 में ही! जीवनदायनी गंगा का प्रलयंकारी प्लावन! दोनों तटों पर बसे कानपुर शहर के साथ-साथ अनगिनत गांव उस प्लावन के शिकार हुए थे. प्लावन के शिकार ग्रामवासियों ने वृक्ष की ऊंची डाल पर आश्रय लिया. बहते हुए लोगों को सहारा देने के लिए गंगा पुल पर मोटी-मोटी रस्सियां बांधकर लटकायी गयीं थीं, ताकि धारा के साथ बहते हुए लोग उन रस्सियों को पकड़कर अपने प्राण बचा सकें. 

शहर में बाढ़ पीड़ितों की सेवा के लिए कैम्प डाले गएं. 'तरुण संघ' नाम की एक संस्था काम कर रही थी और हमें भी सेवा दल में काम करने की पुकार मिली. बाढ़ से क्षतिग्रस्त लोगों की सेवा में मैं जुट गया. बलवंत सिंह साथ था. घर के अनुशासन की उपेक्षा कर किसी सार्वजनिक सेवा कार्य के लिए घर छोड़ दिन-रात काम करने का मेरा वह पहला मौका था. बलवंत का नाता घर से पहले ही टूट चुका था, इसलिए उसे किसी तरह के पारिवारिक अनुशासन की चिंता थी नहीं. सेवा कार्य में जुट जाना उसके लिए अनायास था जबकि उसी काम के लिए मेरे किशोर मन ने घर के विरुध्द पहली दफा विद्रोह का रास्ता अपनाया. 

हम दोनों की डयूटी प्राय: एक साथ ही पड़ती. रात में हम दोनों गंगा के अंधेरे तट पर खड़े होकर हाथों में जलती लालटेन लिए शून्य में अविराम हिलाया करते ताकि प्लावन की तीक्ष्ण धारा में बहते हुए मनुष्य-मवेशी अंधेरी रात में किनारे का संकेत पा सकें और जब कभी मवेशियों का कोई झुंड उस रोशनी के सहारे हमारे पैरों के पास पहुंच जाता, हम उसे बाहर निकालते, फिर उसे रखने की व्यवस्था की जाती थी. दिन के समय हम दोनों मल्लाहों के साथ निकलते और बाढ़ग्रस्त निराश्रित परिवारों को उनकी बची हुई सामग्री के साथ नाव पर लादकर गंगा तट के कैम्पों में पहुंचाते किशोर सरदार का हृदय यह सब देख-देखकर पसीजता रहता और उसकी आंखों में उस वक्त एक अव्यक्त-सी करुणा समायी होती थी. शहर के पास ही कल्याणपुर के बाढ़ पीड़ित कैम्प का वह दृश्य आज भी मेरी आंखो में सुरक्षित है. 

बाढ़ की प्रलंयकारी लीला में सबकुछ गंवा कर हताश, भूखे-असहाय लोगों का वह हुजूम! उनकी हृदय वेधी चीख पुकार से पूरा इलाका गूंज रहा था. भोजन की प्रतीक्षा करते स्त्री-पुरुष अलग-अलग कतारों में पत्तल के सामने बैठे थे कि तभी गर्म पूड़ियों की टोकरी दोनों हाथों से ऊपर उठाये तरुण सरदार दिखाई पड़ा. सिर पर सफेद रेशमी पगड़ी, बदन में साधारण कपड़े की कमीज जिसकी दोनों आस्तीनें ऊपर चढ़ी थीं. मुझसे आंखें मिलते ही उसके होठों पर स्वत: स्फूर्त मुस्कान एवं आंखों में चमक कौंध उठी, लेकिन बातचीत का समय कहां.वह उत्साह एवं उमंग के साथ भूख से बेचैन लोगों की कतार की तरफ बढ़ गया. 

बाढ़ पीड़ितों की सहायता-सेवा के उस दौर ने हम दोनों को एक-दूसरे के करीब लाने में काफी मदद की. उस दिन क्षुधित, सर्वहारा जनों के बीच पूड़ियां बांटने का सरदार का अंदाज, काम के प्रति उसकी लगन एवं निष्ठा आज भी मैं नहीं भूल पा रहा हूं. पूड़ियां परोसने वाले उसके हाथों ने बाद के क्रांतिकारी जीवन में उसी निष्ठा के साथ पिस्तौल या बम भी चलाये. उस रोज किसे मालुम था कि परवर्ती क्रांतिकारी जीवन में हमें अति साधारण भोजन भी नियमित रूप से नसीब न होगा या यह कि पूड़ियां परोसने वाले उन हाथों पर सूखी रोटी और नमक ही शेष जीवन के आधार होगें. 

उन दिनों हम दोनों के किशोर जीवन में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण भाव के साथ-साथ जो सबसे बड़ा आकर्षण था, वह शहर (कानपुर) के पास कनालफाल के समीप गंगा के तट पर बैठ उसकी सुषमा को अनवरत निरखते रहना और बीच-बीच में किसी विषय, किसी बात या योजना पर परस्पर विचार-विमर्श करना. इसी सिलसिले में अकसर हम क्रांतिकारी जीवन के आने वाले दिनों की कल्पना में तल्लीन हो जाया करते. प्रसिध्द क्रांतिकारी जीवनियों या क्रांति से संबंधित साहित्य का पाठ हम यहीं बैठकर किया करते. 

एक ओर गंगा की अश्वेत जलधारा गरज के साथ लगातार आगे की ओर बढ़ती और दूसरी ओर क्रांतिकारी साहित्य का प्रभाव हमारी किशोर रंगों में खून की रफ्तार बढ़ा जाता. पानी का प्रचंड वेग एवं उसकी अथक गतिशीलता की छाप हमारे ऊपर सर्वाधिक पड़ी और शायद इसीलिए गंगा के तट का आकर्षण हम दोनों के मन में सदैव बना रहा. 

एक शाम हम गंगा के तट पर बैठे अपनी क्रांति संबंधी कल्पनाओं को अमली जामा पहनाने के तरीकों पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि अचानक ही आकाश काले बादलों से पटने लगा. गंगा पार की बस्तियां धुधली पड़ने लगीं, हवा का वेग बढ़ गया और थोड़ी ही देर में बादलों की भीषण गड़गड़ाहट से लगा आसमान फट जायेगा. क्षण भर में ही प्रकृति ने भयंकर रूप धारण कर लिया था. इससे पहले कि हम उठकर वहां से शहर की ओर चल देते, बूंदाबांदी शुरू हो गयी थी और शहर के फूलबाग स्थिति 'एडवर्ड मेमोरियल हॉल' पहुंचते-पहुंचते जमकर वर्षा होने लगी थी. यहां आकर हमें मालूम हुआ कि साथ की बहुमूल्य पुस्तक 'हीरो एंड हीरोइन ऑफ रशिया' तो हम जल्दबाजी में गंगा किनारे ही छोड़ आए हैं. 

रूस पर जारतन्त्र के विरुध्द रूसी युवक-युवतियों के सशस्त्र संग्राम की वह इतिहास-पुस्तक दुर्लभ होने के कारण हमारे लिए बहुत ज्यादा मूल्यवान थी, लेकिन उस घने अंधकार में वर्षा के साथ प्रचंड वायु का वेग सम्भालता हुआ दो मील का रास्ता तय करके उसे लाये कौन. मेरे जाने की बात सरदार को नागवार सी लगी. शरीर में वह मुझसे निश्चित रूप से तगड़ा था और अपने उसी तगड़ेपन की दलील देकर उस वक्त उसने मुझे जाने से रोक दिया और खुद लम्बी डग भरता हुआ अंधेरे में गुम हो गया.उसे जाते हुए कुछ ही क्षण गुजरे होंगे कि मेरी भावुकता ने मुझे झिंझोड़ा और मैं भी उस बीहड़ अंधकार में सरदार के पीछे हो गया. 

घने अंधकार में बेतहाशा भागते मेरे पैरों को अपने भागने का अहसास तब हुआ जब वे बीच सड़क पर बैठे सरदार से टकराये. सिर की रेशमी पगड़ी आधी खुलकर कीचड़ में सनी थी, एक हाथ से पुस्तक एवं दूसरे से अपने पैर का अंगूठा थामे वह लथपथ पड़ा था. पैर के अंगूठे का नाखून उखड़ गया था. पगड़ी चीरकर मैंने पट्टी बांधी और उसे सहारा देकर सुरेश दा के मेस भीगते हुए वापस आया. उससे अलग अपने घर लौटकर मेरा मन सरदार के दुख से बेचैन था. मैं वहां से रूई-पट्टी, जैम्बक की डिबिया लेकर उसी मूसलाधार वर्षा में सरदार के पास पहुंचा, उसके अंगूठे का खून साफ कर उस पर मरहम पट्टी की और रात भर उसके पास बैठा रहा. सुबह होते ही घर के अनुशासन की सुधि आयी. 

उस दिन परिवार से मिलने वाली तमाम यंत्राणाएं मैं धैर्यपूर्वक सह गया सिर्फ इस तसल्ली पर कि अपने प्रिय मित्र के प्रति अपना छोटा-सा कर्त्तव्य निभाया. और सरदार का वह स्नेहयुक्त आवेश- 'पीओ, देर न करो. तुम्हें पीना ही पडेग़ा. दूध वाले की दुकान के सामने गर्म दूध से भरा गिलास लिए वह मुझे आदेश दे रहा है. दूध से उन दिनों अरुचि नहीं थी लेकिन भरपेट भोजन के बाद पक्का आधा सेर दूध चढ़ा जाना मेरे पेट के लिए मुश्किल था. आज भी दिल्ली और आगरा स्थित दूध की दुकानों के दृश्य मेरी आंखों के सामने आ जाते हैं. उन्हीं दुकानों के मालिक बाद में हमारी उपस्थिति दिल्ली और आगरा में सिध्द करने के लिए हमारे मुकदमों में आए थे. दरअसल, भोजन के बाद गर्मागर्म दूध का गिलास चढ़ा जाने का पाठ मुझे सरदार ने ही दिया. जब कभी पैसा पास होता वह दूध पीने के विलास से नहीं चूकता था. 

जहां रोटी का लुकमा भी निश्चित न हो वहां दुग्धपान विलास की ही श्रेणी में आएगा न? और उसे सिर्फ तीन पाव गर्मागर्म दूध से ही संतोष नहीं था बल्कि गिलास के दूध पर कम-से-कम डेढ़ छटांक मोटी मलाई का टुकड़ा भी अलग से पड़ना चाहिए. मलाई न रहने पर घी का तडका (छोंक) वह गर्म दूध में दे लेता था. शरीर में खून बढ़ाने का उसका यही उपयुक्त नुस्खा था. 

दूध के प्रति एक असीम आसक्ति उसके मन में थी. स्वास्थ्य के प्रति वह कभी उदासीन न रहा, हालांकि बाद के पार्टी जीवन में नियमित रूप से हमें भोजन भी नसीब नहीं हुआ. विप्लवी जीवन की अनिश्चित परिस्थिति एवं जीवन-धारण के लिए सीमित साधन और व्यवस्था के अभाव में भी वह शरीर और स्वास्थ्य के प्रति हमेशा सचेत रहा. यद्यपि जीवन के प्रति उसके मन में जबरदस्त आसक्ति थी, तथापि उसका कहना था कि जीवन जब अधिक सुंदर और प्रिय मालूम पड़ने लगे, तभी अपने आदर्श के लिए उसे बलिदान करना चाहिए. 

संस्मरण की इस कड़ी के रूप में एक और दृश्य मेरी आंखों के सामने अब भी कौंध जाता है... कानपुर स्टेशन का जन-प्लावित प्लेटफार्म, 'जो बोले सो निहाल.... सत्श्री ..अ...का....ल...' के गगनभेदी नारे से दिग-दिगंत गूंज उठा है. गुरु के बाग के सत्याग्रही सिख मोर्चा डालने के लिए पंजाब जा रहे हैं. उन दिनों हर स्टेशन पर, जहां ट्रेन रुकती थी, अधीर जनता सत्याग्रहियों के दर्शनार्थ टूट पड़ती थी. प्रत्येक स्टेशन पर वीर सत्याग्रहियों को भोजन कराने के लिए लंगर खोले गए थे. कानपुर स्टेशन पर भी ऐसी ही व्यवस्था थी और सत्याग्रहियों की एक झलक लेने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी. फूलों और फूल-मालाओं की वर्षा! मैं भी स्टेशन गया था. अपार जनसमूह के बेग को ठेलकर सत्याग्रहियों के डिब्बों तक न पहुंच पाने की मजबूरी में ओवर-ब्रिज पर जाकर खड़ा हो गया और असंख्य सिरों से पटे प्लेटफार्म का दृश्य वहीं से देखने में तल्लीन था कि भीड़ को चीरती मेरी दृष्टि अपने सरदार मित्र पर पड़ी वही रेशमी पगड़ी और सफेद कमीज दोनों आस्तीनें बांह पर चढ़ी हुईं . एक हाथ में शरबत की बाल्टी और दूसरे में लंबा-सा गिलास. अपने कंधों से भीड़ को ठेलता हुआ वह सत्याग्रहियों के हाथों में शरबत के गिलास पकड़ा रहा था. भीड़ की खींचातानी में पगड़ी सिर से खिसककर कंधें पर लटक आई है जिसकी चिंता उसे नहीं थी. कम-से-कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा सत्याग्रहियों की प्यास बुझा पाने की व्यग्रता उसके चेहरे, आंख और चाल में स्पष्ट देखी जा सकती थी. 

ट्रेन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसकी विश्रामहीन भाग-दौड़! मेरे प्रिय साथी सरदार का यह एक और रूप था. थोड़ी देर ठहरने के बाद ट्रेन चल पड़ी. फिर एक बार सत्श्री अकाल के नारे से आकाश गूंजा और कोलाहल मुखरित स्टेशन का प्लेटफार्म खाली होना शुरू हो गया. भीड़ पिघलने लगी. जो सत्याग्रहियों को देखने, उनसे मिलने-मिलाने आए थे, बाहर कीओर खिसकने लगे और बच गया हाथों में गिलास-बाल्टी लिए मेरा वह सरदार मित्र! मैं ओवर-ब्रिज से उतर उसकी बगल में खड़ा हुआ पर उसे जैसे किसी बात की सुध नहीं थी. ट्रेन जाने की दिशा में मंत्रमुग्ध आंखों में उदासी लिए अब भी वह खाली पटरी देखे जा रहा था. अपने कंधे पर मेरे हाथ का दबाव महसूस कर मुड़ा और मुस्कराकर एक हाथ से मेरे पंजे को दबाया बोटू .... उसकी आंखों में कोई अदृश्य निर्णय कौंध उठा था उस घड़ी. उस दिन लगभग गुमसुम और उदास वह जनशून्य स्टेशन से मेरे साथ बाहर हुआ था और फिर वह दिन भी आया जब दल के आदेशों पर उसे कानपुर, 'प्रताप', सुरेश दादा और मुझे छोड़कर एक छोटे स्कूल का हेडमास्टर बनकर अन्यत्र जाना पड़ा. विप्लव दल के नियमानुसार कुतूहलवश जरूरत से ज्यादा किसी का परिचय प्राप्त करना हमारे लिए मना था और सरदार शायद सब दिन ऐसा अनुभव करता रहा था कि कोई रहस्य वह अपने एकमात्र एवं अनन्य साथी मुझसे छिपाता रहा है, वरना कानपुर से विदाई लेने के दिन ही क्या खुलता. 

शिक्षक का पद ग्रहण करने जाते वक्त मुझसे मिलने आया था और हमारी आत्मीय घनिष्टता के बावजूद दल की मर्यादा रखने के लिए अब वह जिस रहस्य को छिपाये हुए था, विदाई के क्षण उसे व्यक्त किये बगैर न रह सका. 

जिस तरुण बलवंत सिंह के स्नेहपाश में मैं अब तक बंधा था, वही सरदार भगत सिंह के रूप में मुझसे विदा ले गया. यही उसका असली परिचय था लोगों ने उसे बाद में विप्लवी सरदार भगत सिंह के रूप में जाना, लेकिन मेरे लिए तो वह सब दिन मानवीय गुण-सम्पन्न, भाव में गम्भीर भावुकता से ओतप्रोत बलवंत सिंह बना रहा. बाद की हमारी मैत्री परवर्ती क्रांतिकाल में एक-दूसरे के साथ सहयोगी की भूमिका, उसकी फांसी से लेकर मेरे जलावतन तक का प्रसंग इस कड़ी की अगली कहानी है. 

सन् उन्नीस सौ सत्ताईस-अट्ठाईस का समय हमारे राष्ट्रीय जीवन में क्रांति के साथ-साथ संकट का काल भी कहा जा सकता है क्योंकि उन्हीं दिनों हमारी आजादी की लड़ाई का स्रोत एक नये रास्ते की ओर प्रवाहित हुआ. उस वक्त तक देशवासी क्रांतिकारी आंदोलन और उसकी विचारधाराओं से ज्यादा परिचित नहीं थे और अंग्रेज सरकार क्रांतिकारियों को साधारण खूनियों तथा डकैतों की श्रेणी में डालकर देश की जनता को सब दिन गुमराह करने का प्रयत्न करती रही थी. 

ब्रिटिश सरकार का यह कहना था कि विप्लवी देश में संत्रास एवं अराजकता फैलाना चाहते हैं जबकि विप्लवी देश में परिवर्तन के प्रति आग्रही थे. जनसाधारण को विप्लवी के प्रति जागरुक बनाकरआर्थिक परिवर्तनों द्वारा शोषणविहीन समाज की स्थापना ही उनका लक्ष्य था. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह जरूरी था कि क्रांतिकारियों की ओर से देशवासियों के सम्मुख एक निश्चित कार्यक्रम पेश किया जाए और देश के नेताओं को असेंबली भवन के भीतर वैधानिक कार्यक्रमों के दांव-पेच से मुक्त कर जनांदोलन के प्रति उत्साहित किया जाए, दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में अंग्रेज सरकार की ओर से भारत के लिए स्वायत्ता शासन की मांग बार-बार ठुकरा दी गयी थी. जन नेताओं के लाख विरोध के बावजूद यहां की जनता के मानवीय अधिकारों को विलुप्त करने के लिए केंद्रीय धारा सभा से टे्रड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत करा लिया गया था. कानून स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप देश के करोड़ों भूखे-मेहनतकश लोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रारंभिक स्वत्व एवं एकमात्र उपाय हड़ताल से वंचित कर दिए गए थे.

केंद्रीय विधानसभा में हमारे जन-प्रतिनिधियों के उस अपमान और उस अमानुषिक बर्बरतापूर्ण कानून द्वारा देश की करोडों ज़नता पर जो हमला हुआ था उसी के विरोध में भारतीय क्रांतिकारी संस्था 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' द्वारा केंद्रीय असेंबली के सभाकक्ष में बम डालकर गोरी हुकूमत को एक चेतावनी देने के सुझाव पर आगरा हेड क्वार्टर में आलोचना गोष्ठी की बैठक चल रही थी. 

असेंबली में बम डालकर आत्मसमर्पण करना एवं बाद में मुकदमे के दौरान अभियुक्त के कटघरे में खड़े होकर भारतीय क्रांतिकारी दल की ओर से विप्लवियों के विचारों, आदर्शों एवं उद्देश्यों का दिग्गर्शन कराने के लिए एक विशद राजनीतिक वक्तव्य देने की सूझ सरदार भगत सिंह के मस्तिष्क की ही उपज थी. लेकिन इसे निभाये कौन? यानी केंद्रीय असेंबली में बमफेंकने जैसा जोखिम भरा कार्य कौन करे? इसे पूरा करने का सीधा एवं साफ अर्थ था मृत्यु! 

लाख सावधानी के बावजूद असेंबली भवन के फर्श पर बम फटने के साथ किसी की मृत्यु की सम्भावना स्पष्ट थी और उसके बाद वहां नियुक्त सुरक्षा पुलिस या सार्जेंट द्वारा बम फेंकने वाले को तुरंत मौत के घाट उतार देना भी लगभग निश्चित ही था. बावजूद इसके कि हम सभी क्रांतिकारी देश को स्वतंत्र कराने की बलिदानी भावना से प्रेरित हो, प्रियजनों से नाता तोड़, किसी भी क्षण मृत्यु का आलिंगन करने का संकल्प ले, सिर पर कफन बांध, गृह-त्यागी बनकर निकल पड़े थे, फिर भी विचार गोष्ठी में बैठकर अपनी-अपनी सुरक्षा पर नजर गड़ाये दूसरे साथी को निश्चित मौत का फरमान सुनाना किसी के लिए भी संभव न था. ऐसा कोई व्यवहार किसी के भी मन को संदिग्ध बना सकता था. 

सरदार ने सहर्ष आगे बढ़कर निश्चित मौत से खेलने का बीड़ा उठाया, साथ-साथ मैंने भी. वर्षों पहले कानपुर में गंगा के किनारे बैठे-बैठे जिन अनागत दिनों की कल्पनाएं हम बार-बार किया करते थे, कि एक साथ ही दोनों देश की स्वतंत्राता के लिए आत्माहुति देंगे, उसे साकार करने का समय आ गया था... हम दोनों- सरदार और मैं- बम के साथ आगरे से दिल्ली पहुंचे. लगभग महीने भर तक दिल्ली में ही टिके रहे. मैं हाफ पैंट, कमीज और जूता पहनता था और सरदार फ्लैट हैट लगाने लगे थे. प्रत्येक संध्या बम को अखबार में ढंककर कोट की नीचे वाली जेब में रखे हम साथ-साथ असेंबली भवन जाते, वहां का वातावरण परखते, पहरे पर संतरियों की गतिविधि देखते और अनुमान लगाते-कैसे अपने उद्देश्यों में सफल हो सकेंगें. 

इसी बीच एक दिन सरदार ने साथ-साथ फोटो खिंचवाने की बात रखी. कुछ देर तो मैं टालता रहा, लेकिन सरदार जब जिद पर उतर आए तब मुझे भी झुकना पड़ा, और वही एकमात्रा तस्वीर हम दोनों की आखिरी यादगार बनकर रह गयी. फिर आया वह दिन जिसके लिए हम आगरे से चलकर दिल्ली आए थे और लगातार महीने भर तक बिना नागा असेंबली भवन के अगल-बगल चक्कर लगाते रहे थे. यानी 8 अप्रैल, 1928. दिन के ग्यारह बजे स्थान केंद्रीय असेंबली हॉल जिसे अब संसद कहा जाता है. ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल पर जनमत जानने के लिए प्रस्ताव स्वीकृत हो गया था. अध्यक्ष की कुर्सी पर सरदार बल्लभ भाई पटेल विराजमान थे. ट्रेजरी बेंचों पर सर जेम्स क्रेरर एवं सर जार्ज शुस्टर. विशिष्ट व्यक्ति के रूप में वायसराय की सीट पर, दर्शक दीर्घा में, सर जान साइमन.

सरकारी बैंचों के सामने विरोधी सीट पर पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित मदनमोहन मालवीय एवं डा. मुंजे आदि. बम हम दोनों ही की जेब में थे. ऊपर से पीछे की खाली बैंचों को लक्ष्य करके हमने बम फेंके. जोरों का धमाका हुआ, लेकिन चूंकि किसी को मारने का इरादा तो था नहीं, इसीलिए कमजोर बम बनाये गए थे ताकि धमाके पैदा करने के अलावा और किसी तरह का भयंकर, घातक या मारक प्रभाव उससे पैदा न हो सके. 'इंकलाब जिंदाबाद' एवं 'साम्राज्यवादी शासकों के बहरें (राष्ट्रीय मांगों के प्रति) कानों को खोलने के लिए जोरदार आवाज की जरूरत है' के नारों एवं फटे बम के धुएं से हॉल भर गया और भगदड़ मच गयी. डर के मारे सर जेम्स क्रेरर बैंचों के नीचे जा छिपे.

बम के साथ फेंके गए लाल रंग के छपे पर्चें धुएं की सतह पर हॉल में इधर-उधर तैर रहे थे. उस पर्चें में गोरी हुकूमत की आंखें खोलने के लिए भारतीय क्रांतिकारी दल के उद्देश्यों का स्पष्ट हवाला दिया गया था-'दो नगण्य इकाइयां (सरदार भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त) को कुचलने से राष्ट्र नहीं दबेगा... सरकार इस बात को समझे कि पब्लिक सेफ्टी तथा ट्रेड डिस्प्यूट बिल एवं लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या के विरुध्द जनमानस का विरोध प्रदर्शित करने के अतिरिक्त हम इतिहास को भी यह साक्ष्य देना चाहते हैं कि व्यक्तियों का दमन करना आसान है, लेकिन विचारधाराओं का दमन नहीं किया जा सकता. विशाल साम्राज्य नष्ट हो जाते हैं लेकिन विचारधारा नष्ट नहीं होतीं. बोरबोन और जार का पतन हो गया, किंतु क्रांतिकारी आगे बढ़ते गए, हमें, जिनको मनुष्य जीवन से प्रेम है और जो एक बड़े ही गौरवमय भविष्य की कल्पना करते हैं, व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्राता के लिए बाध्य होकर मानव-रक्त बहाना पड़ रहा है यह आवश्यक है क्योंकि जो मनुष्यता के लिए शहीद होते हैं, उनके त्याग से क्रांति की वह वेदी बनती है जहां से मानव द्वारा मानव के शोषण का अंत हो सकेगा-इंकलाब जिंदाबाद'. 

अपनी पूर्व योजनाओं के अनुसार एवं मार्शल लॉ जारी न हो या बम फेंकने के अपराध में निर्दोष व्यक्ति न पकड़ लिए जायें, हम दोनों ही ने आत्मसमर्पण कर दिया. तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने उस घटना का तात्पर्य अच्छी तरह समझा और बम विस्फोट के बाद ही व्यवस्थापिका सभाओं के संयुक्त अधिवेशन में भाषण के समय चर्चा करते हुए बताया कि बमों का यह प्रकार किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि एक संस्था (अंग्रेजी शासन) पर किया गया है. हम दोनों को दिल्ली के दो अलग-अलग थाना में रखा गया.

मुकदमे शुरू हुए फिर हमारा स्थानान्तरण दिल्ली जेल में हुआ जहां एक साथ सटी दो अलग-अलग कोठरियों में हमें रखा गया. बीच में खड़ी अभेद्य दीवार. नियाज अली हमारा जेल वार्डन था जिसे एक अरसे तक हम हाड़-मांस का न होकर पत्थर का बना समझते रहे. 

नियाज अली ने कभी मुझे और सरदार को एक साथ न होने दिया. स्पर्शानुभूति की बात तो दूर रही, उसने कभी हम दोनों को एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखने दिया, उन दो-चार दिनों को छोड़कर जबकि इकट्ठे हमें अदालत ले जाया जाता था. दिल्ली की उस विशेष अदालत में न्यायाधीश के सामने प्रविष्ट होते समय अपने-अपने हाथ-पांवों में पड़ी बेड़ियां की झंकार के साथ हम 'क्रांति चिरंजीवी हो' का नारा लगाते. पूरा न्यायालय गूंज उठता था, और तभी से यह नारा राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त हो गया. बम विस्फोट के साथ पहले-पहल सरदार के मुंह से निकली 'इंकलाब जिंदाबाद' की घोषणा जैसे पूरे राष्ट्रीय जनजीवन में व्याप्त हो गयी.
मुकदमे के दौरान न्यायाधीश महोदय ने सरदार से 'क्रांति' शब्द की व्याख्या करने को कहा तो सरदार ने बताया- 'क्रांति या विप्लव खून-खच्चर ही का रास्ता नहीं, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिशोध का कोई स्थान है. बम और पिस्तौल ही क्रांति का धर्म हो, ऐसा भी नहीं है. क्रांति से हमारा मतलब है कि वर्तमान समाज और शासन व्यवस्था जो स्पष्टत: अन्याय एवं अत्याचारों पर आधारित है, परिवर्तित हो. आप पूर्ण परिवर्तन के द्वारा ऐसी व्यवस्था की स्थापना करें जिसमें सर्वसाधारण की सत्ता कायम हो सके.' 

आसिफ अली साहब ने हमारी ओर से वकालत की थी और हमारे गवाह बने थे डॉ. मुंजे एवं पंडित मदनमोहन मालवीय. न्यायालय ने हम दोनों को आजीवन काले पानी की सजा दी. 1930 में 'लाहौर षडयंत्र केस' के अंत में जब मैं सदा के लिए सरदार से बिछुड़कर मुलतान जेल भेज दिया गया, तब सरदार ने मेरी बहन को एक पत्र लिखा था जो आज भी मेरे जीवन की अमूल्य निधि है. 

17 जुलाई, 1930 को लाहौर सेंट्रल जेल से लिखा गया वह पत्र सरदार के व्यथातुर हृदय की अभिव्यक्ति हैं-'बटुक की जुदाई आज मेरे लिए असह्य हो रही है. इस बिछोह से मैं एकदम स्तब्ध सा हो गया हूं... एक-एक पल मेरे लिए असह्य भार बन गया है. सचमुच, अपने भाई एवं परिजनों से भी ज्यादा प्रिय उस मित्र से अलग हो जाना आज मेरे लिए अत्यन्त ही कठिन गुजर रहा है...हमें सबकुछ धैर्यपूर्वक सहन करना है और आपसे भी हिम्मत के साथ परिस्थिति का सामना करने का अनुरोध करूंगा .'

'लाहौर षडयंत्र केस' में जब सरदार को फांसी की सजा का फैसला सुनाया गया तब अपने एक पत्र में उसने मुझे लिखा:

'प्रिय बटुक,

दीर्घकाल तक हम लोगों का विचार-प्रहसन चलने के बाद अब उस पर यवनिका पात हुआ. न्यायाधीशों ने सजाएं घोषित कर दी हैं और उन सजाओं की इत्तला हमें भेज दी गयी है. मुझे फांसी की सजा मिली है. तुम्हें मालूम है कि मैं लाहौर जेल की उन्हीं फांसी की कोठरियों में हूं, जहां चंद रोज पहले तुम मेरे साथ थे. इन फांसी की कोठरियों में कुल पैंतालीस मृत्यु-दंड प्राप्त बंदी हैं जो प्रतिक्षण अपनी अंतिम घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं. वे अभागे बन्दी फांसी के फंदे से छूट पाने के लिए दिन-रात भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं. उनमें से अधिकांश अपने कृत्यकर्म के लिए अत्यंत ही अनुलप्त हैं और इन अभागे बन्दियों के बीच मैं ही एक ऐसा व्यक्ति हूं, भगवान के बदले अपने आदर्शों में ही जिसकी अविचल आस्था है, एवं जिस आस्था के लिए मैं मृत्यु का आलिंगन करने जा रहा हूं, इसके लिए संतुष्ट हूं. तुमसे मेरा बिछोह अत्यंत ही पीड़ादायक है, लेकिन इससे कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति होगी. मैं फांसी के तख्ते पर अपना प्राण विसर्जित कर दुनिया को दिखाऊंगा कि क्रांतिकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए खुशी-खुशी आत्म-बलिदान कर सकता है. मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन तुम आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए जीवित रहोगे और मेरा दृढ़विश्वास है कि तुम यह सिध्द कर सकोगे कि विप्लवी अपने उद्देश्यों के लिए आजीवन तिल-तिल कर यंत्राणाएं सहन कर सकता है. मृत्यु दंड पाने से तुम बचे हो और मिलने वाली यंत्राणाओं को सहन करते हुए दिखा सकोगे कि फांसी का फंदा, जिसके आलिंगन के लिए मैं तैयार बैठा हूं, यंत्रणाओं से बच निकलने का एक उपाय नहीं है. जीवित रहकर विप्लवी जीवन भर मुसीबतें झेलने की दृढ़ता रखते हैं.

तुम्हारा-भगत सिंह'


सरदार अपने विचारों या व्यवहारों में कट्टरपंथी कभी नहीं रहे मस्तक पर सिख धर्म के द्योतक लंबे बाल, कंघा, कच्छा और कड़ा लेकर वह कानपुर आए थे, लेकिन बाद के दिनों में परिस्थिति के अनुसार उन्होंने खुद को दूसरे रूप में ढाल दिया. लंबे-लंबे बाल कटवाकर नीचे से ऊपर तक सूट एवं हैट से लैस उन्होंने अंग्रेज साहबों का रूप धारण किया. हिंसा एवं अहिंसा की उधेड़बुन में उनके विचार उलझे हुए नहीं थे, न ही उनके मन में कभी किसी के प्रति हिंसा या द्वेष पनपा. राजनीतिक बंदियों को युध्दबंदी (प्रिजनर ऑफ बार) की स्वीकृति दिलाने एवं तदनुसार उनके सम्मानपूर्वक व्यवहार की मांग पर बंदियों द्वारा सामूहिक अनशन का संग्राम आरम्भ करना तथा उसी संग्राम के द्वारा देश की मुरझाई हुई चेतना में फिर से स्पंदन जगाने की कल्पना सरदार ने ही की थी और उसी संग्राम के फलस्वरूप पूरे देश में एक अभूतपूर्व परिस्थिति उत्पन्न हुई एवं बाद में 1930 का जनांदोलन जिससे प्रेरित हुआ. खुद सरदार ने जेल के भीतर 14 जून, 1929 से प्रारंभ करके लगातार 127 दिनों तक भूख की अनन्त ज्वाला में घुलते हुए मौत की प्रतीक्षा की थी...

गंभीर मननशीलता, राजनीतिक दूरदर्शिता एवं आत्मबल पर अटूट विश्वास सरदार के अन्य गुण थे. दूसरे देश के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ पराधीन भारतवर्ष की राजनीतिक परिस्थिति का तुलनात्मक विचार सरदार के चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष था.

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