Tuesday, March 19, 2019

उम्मीदों पर खरे उतरने के लिए हम कितने अकेले हैं

आगे जाने का रास्ता बहुत थका देता है कभी-कभी. मन करता है सुस्ता लूं, किसी छांव के नीचे. मेरे शहर मधुपुर के पास एक पहाड़ी है. गौर किया था मैंने, पूरे पहाड़ की चोटी पर अकेला खड़ा पलाश का ऊंचा-सा पेड़ था.
पहाड़ पर झाड़ियां भी थीं, और भी मुख्तलिफ़ पेड़ थे. लेकिन चोटी पर अकेला था पलाश. गरमी में खिलता था, तो लगता था पहाड़ी की चोटी पर आग लगी हो. धधकती हुई चोटी लगती थी. पलाश को ऐसे भी जंगल की आग कहते ही हैं. आज भी याद है मुझे, पलाश के फूलों को देखकर कितना बढ़िया लगता था.

पहाड़ी पर एकदम से लाल-चटख पेड़.


आज ध्यान देता हूं तो एक बात और समझ में आती है. वह पेड़ अकेला था. अकेलापन दुखदायी होता है. मैं फेसबुक पर भी हूं, ट्विटर पर भी, इंस्टाग्राम में भी हूं, लिखता हूं भी हूं. लिखना पेशा भी है, शगल भी. संवाद के माध्यम है सारे. लेकिन फिर भी अकेलापन क्यों महसूस होता है. भीड़ है. दिल्ली में जहां घूमिए भीड़ ही भीड़ तो है. दिल्ली से बाहर जाएं तो कोई ऐसी जगह नहीं मिलेगी, जहां भीड़ नहीं. तो इतनी भीड़ में भी आदमी अकेला कैसे महसूस करता है?

किससे मन की बात बताएंगे? किसके पास इतना समय है, धैर्य है कि आपकी बात सुने. सबके पास अपनी शर्तें हैं. खुद की अपेक्षाएं हैं. उनके खुद की अनगिनत समस्याएं हैं. रोज़ ब रोज़ की न जाने कितनी सारी परीक्षाएं हैं. किसी में फेल हुए तो जीवन भर की कमाई लुट गई समझिए.

हर परीक्षा में उत्तीर्ण होना जरूरी है. कंपलसरी. किसी में चूके तो फेल. फेल मतलब सिरे से फेल. बाकी किसी अन्य विषय की कोई कॉपी जांची नहीं जाएगी. ऐसा नहीं कि इन परीक्षाओं से महज मुझे ही दो-चार होना पड़ रहा है. मेरे जैसा हर कोई होता होगा.

दौड़ में या तो आप आगे निकल जाते हैं, या कई दफा एकदम पीछे. दोनों ही स्थितियों में अकेला पड़ना तय है. रोटी से दाल और दाल के बाद मक्खन, कमरे से सिंगल बीएचके, सिंगल बीएचके से डबल या थ्री बीएचके...रुकना कहां होता है. आप रुक जाएंगे तो आपके साथ के सब लोगों के सपनों का रंग उखड़ना शुरू हो जाएगा. फिर, इन सबके साथ वक्त भी निकालना है. अपने लिए खाक...उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए.

लिखते समय आपको लगता है कि मन हल्का हो जाए. इतना तो समझ में आ ही गया है कि पैसे और शोहरत कमाने के चक्कर में दिन-रात की भागदौड़ में हमारे हाथ में हासिल बचने वाला अंडा ही है. लाजिम है कि पहाड़ी का वह पलाश याद आए, अभी मधुपुर में वह खिला होगा. पहाड़ी पर उस पलाश को किसी ने काट न फेंका हो, तो यही तो मौसम है टेसू के खिलने का.

ऐ मेरे जैसे पलाश...मैं तुम्हें बहुत याद करता हूं. मधुपुर तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है.

Wednesday, March 6, 2019

कश्मीर में भिखारी क्यों नहीं होते?

8 जुलाई, 2016 को जब कश्मीरी आतंकवादियों के पोस्टर बॉय बुरहान वानी को सुरक्षा बलों ने एक मुठभेड़ में मार गिराया था. उस वक्त मैं श्रीनगर में था और हफ्ते भर पहले अमरनाथ यात्रा शुरू हुई थी. मैंने अमरनाथ गुफा तक की यात्रा बालटाल और पहलगाम दोनों रास्तों से की थी और तब घाटी के विभिन्न इलाकों में रिपोर्टिंग के वास्ते घूमा भी था.

उस साल ईद 6 या 7 तारीख की हुई थी और मैं कश्मीरी सिवइयों का स्वाद लेने डल झील के पास के बाजार में घूम रहा था और वहीं एक भिखारी कुछ मांगने आ गया. कश्मीरी पंडित मूल की एक साथी पत्रकार ने तब मुझे बताया था कि कश्मीरी लोग भीख नहीं मांगते और बाहरी (खासकर बिहारी लोग) आकर कश्मीर की समृद्ध फिजां में भीख मांगने की रवायत शुरू कर रहे हैं.

वैसे, मैंने कश्मीर घाटी में कहीं मकान झोंपड़ानुमा नहीं देखे. हर जगह मकान बढ़िया बने थे. जबकि इसकी तुलना में उत्तर भारतीय राज्यों का लैंडस्केप ज्यादा टेढ़ा-मेढ़ा है, गुरबत और धूल-धक्कड़ से भरा है.

तब से यह सवाल मेरे जेहन में लगातार घूम रहा था कि क्या वाकई कश्मीरी लोग भीख नहीं मांगते? और अगर उस पत्रकार की बात सच थी तो क्यों नहीं मांगते?

जबकि, सरकारी आंकड़े कश्मीर की आर्थिक स्थिति का कुछ और ही खुलासा दे रहे हैं. आंकड़े बता रहे हैं कि कश्मीर में 2014 के बाद से आतंकवाद में इजाफा हुआ है. सिर्फ 2018 की बात करें तो कश्मीर घाटी में 614 आतंकी घटनाएं हुईं हैं. जबकि 2014 में 222 हुई थीं. 2018 में 257 आतंकवादी मारे गए हैं और 2014 में 110 आतंकवादी ढेर किए गए थे.

इसीतरह पाकिस्तान ने भी घाटी में अपनी गतिविधियां तेज की हैं. 2016 से 2018 के बीच 398 आतंकियों ने कश्मीर में घुसपैठ की. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर के मुताबिक, 686 आतंकवादी मारे गए और 56 पकड़ लिए गए.

वैसे, कश्मीर में वहां बेरोजगारी की दर भी बाकी देश के औसत से कहीं अधिक है. पर्यटन के आंकड़े भी गोते लगा रहे हैं. कश्मीर में 18 से 29 साल के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर 24.6 फीसदी है. जबकि बेरोजगारी में यह राष्ट्रीय औसत कोई 13.2 फीसदी है. जुलाई 2016 से जून 2017 के बीच 130 कार्यदिवसों का नुक्सान घाटी में हड़ताल और कर्फ्यू से हुआ था. इसकी अनुमानित लागत करीब 13,261 करोड़ रु. आंकी गई है.


जहां तक आर्थिक वृद्धि की बात है कश्मीर में वित्त वर्ष 2017 में 8.2 फीसदी की विकास दर दर्ज की गई थी. जबकि इसी अवधि के लिए राष्ट्रीय औसत 10.8 फीसदी रहा. कश्मीर का 2019 में राज्य जीडीपी करीबन 25 अरब डॉलर का है और देश के तमाम राज्यों के लिहाज से विकास की सीढ़ी पर कश्मीर 21वें पायदान पर है.

घाटी में पर्यटन भी गोते लगा रहा है. साल 2018 में कश्मीर में 8.5 लाख देशी और विदेशी सैलानी आए थे. 2017 की तुलना में यह 23 फीसदी कम है.

दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर घाटी में आए बाढ़ के बाद राहत और ढांचागत विकास और स्वास्थ्य कल्याण और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 80,000 करोड़ रु. का पैकेज दिया था. फिर भी, इन आंकड़ो से एक बात साफ होती है कि कश्मीर की आर्थिक हालत खराब ही है.

सवाल है कि क्या बेहतर आर्थिक वृद्धि और विकास कश्मीर के नौजवानों में बढ़ते अलगाव को थामने में कामयाब होगा? संकेत हैं कि आर्थिक गतिविधियों के साथ ही खुले मन से बातचीत के रास्ते भी बढ़ाए जाने चाहिए. सवाल यह है कि केंद्र सरकार के पास बातचीत की कोई गुंजाइश बची है?

खराब आर्थिक हालत, बेरोजगारी और पर्यटन जैसे एकमात्र उद्योग के बिखरने के बावजूद कश्मीर में भिखारी क्यों नहीं हैं और बिहार-यूपी-झारखंड-बंगाल के लोग घाटी में जान जोखिम में डालकर भीख क्यों मांगते हैं, इसका उत्तर मिलना बाकी है.

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