Friday, March 23, 2012

यह धूप बाप सरीखा क्यों है?

दिल्ली में मौसम मां-बाप की लड़ाई सरीखा हो गया है। दिल्ली की धूप हमारे जमाने के मास्टर की संटी सरीखा करंटी हुआ करता है। हमारे जमाने इसलिए कहा काहे कि आज के मास्टर बच्चों को कहां पीट पाते हैं।

तो जनाब, तीन दिन बीते, दिन की धूप में बाप-सा कड़ापन आना शुरु ही हुआ था..कि सरदी मां के लाड़-सी बीच में कूद पड़ी। यों कि अब बाबू जी के अनुशासन और मां के लाड़ के खींचतान में बच्चे की तो दुविधा द्विगुणित हो जाए।

सर्द हवा की झोंकों, रात के तापमान में बरफीले अहसास और दिन में बाबूजी सरीखे आंखे लाल किए सूरज की छड़ीनुमा धूप के बीच बच्चा सरीखा आदमी ज्वर में कांपे, खांके, छींके...। अब धूप का रंग  बाबूजी से मिला ही दिया है तो उसके भी कई तेवर हैं...सुबह की धूप, सुबह 11 बजे की धूप, दोपहर की सिर पर तैनात धूप...खेल के वक्त की कनपटी पर पड़ती धूप, ड्रिल मास्टर सरीखी...शाम की धूप विदा कहती प्रेमिका-सी, जाड़े की धूप, भादो के दोपहर की धूप...और न जाने कितने रंग हैं।


रघुवीर सहाय को ये रंग तो कई तरीके का नजर आया हैः
‘एक रंग होता है नीला,
 और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है,
 इसी तरह लाल भी लाल नहीं है,
 बल्कि एक शरीर के रंग पर एक रंग,
 दरअसल कोई रंग कोई रंग नहीं है,
 सिर्फ तेरे कंधों की रोशनी है,
 और कोई एक रंग जो तेरी बांह पर पड़ा हुआ है।’

धूप पिताजी के अवतार में है, पापा के भी. डैडी के भी...अलग अलग लोगों के लिए अलग-अलग संबोधन..अलग चरित्र। मोंटेक की धूप मनमोहन की धूप...मेरे आपके और एक मजदूर की धूप में अंतर तो होगा ना। धूप में पसीना बहाना...कुछ ऐसा मानो कह रहा हो, आदमी जब तक हारता रहता है जिंदा रहता है। जब जीतने लगता है आदमी नहीं रहता।

लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित ही है...धूप बाप सा तीखा क्यों हो गया। जवाब भी होगा, सरदी की हवाओं ने मां जैसी नरमाई छोड़ी नहीं है अब तक।

आखिर में, शाहरुख खान को याद कीजिए, हर घड़ी बदल रही है रुप जिंदगी, धूप है कभी कभी है छांव जिंदगी...जिंदगी में अभी धूप वाला दौर है।

Wednesday, March 14, 2012

दास्तान-ए-नसरुद्दीन

दास्तान-ए-नसरुद्दीन!

आप पूछ बैठेंगे, कौन नसरुद्दीन, मैं तो उसे जानता तक नहीं।

तो आइए, खोजा नसरुद्दीन से आपकी मुलाकात करवा दें।

खोजा नसरुरद्दीन


खोजा नसरुद्दीन (बुखारा से यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही शायद यह नाम ख्वाजा नसरुद्दीन से खोजा नसरुद्दीन हो गया हो) बुखारा शरीफ का बाशिंदा था। उसेक खयालात, जो दहकती आग की मानिंद पाक थे, न मालूम क्यों बुखारा के पुराने अमीर को खतरनाक लगते थे। वह उसे आवारा, बागी, फूट व फसाद फैलानेवाला. न जाने क्या-क्या समझते थे। उनके चंगुल से बचकर खोजा नसरुद्दीन बुखारा से भाग निकला। लेकिन अमीर ने उसे बाग-बागीचों को तहस-नहस करवा दिया और उसके रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया।

दस साल तक बगदाद, तेहरान, बख्शी सराय और दूसरे शहरों में भटकने के बाद यही खोजा नसरुद्दीन अपने पाक वतन बुखारा लौटता है। उसके साथ है तो सिर्फ उसका गधा-उसका सच्चा और वफादार साथी, जो अपने मालिक के मिजाज और तौर-तरीको से वाकिफ है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा चालाक और शरारती गधा है।

खोजा नसरुद्दीन के बुखारा में कदम रखते ही अजोबोगरीब वाकयात शुरु हो जाते हैं।

अजीबोगरीब वाकयात की धुंध में से खोजा नसरुद्दीन की अजीम शख्सियत साफ उभरती है। नए अमीर ने जैसे ही बुखारा में आने की खबर सुनी वह चौंककर तख्त पर सीधे बैठ गए, मानो किसी ने उसके कांटा चुभा दिया हो।

बुखारा पहुंचते ही वह वहां के गरीब बाशिंदों-भिश्तियों, कुम्हारों, तांबागरो, लुहारों, वगैरा- का सच्चा दोस्त और मददगार बन जाता है। उसके नाम से बुखारा का वजीर बख्तियार खौफ खाता है क्यों कि खोजा नसरुद्दीन ने मजहब के नाम पर लूट बंद करा दी है। उसके नाम से सूदखोर जाफर को सांप सूंघ जाता है।

हां, इस सिलसिले में एक नाम आता है-गुलजान। यह हसीन दोशीजा खोजा नसरुद्दीन की होने वाली दुलहिन थी जिसे अमीर ने अपने हरम में कैद कर रखा है। बेशक, अमीर-उमरा, रईस, मुल्ला, सूदखोर-गरीबों को ठगनेवाले और लूटने वाले -सभी खोजा नसरुद्दीन से नफरत करते थे। इसकी वजह भी थी। खोजा नसरुद्दीन आदमी ही दूसरी किस्म का था।

आज के बाद किस्तों में मैं खोजा नसरुद्दीन की कहानी यानी दास्तान-ए-नसरुद्दीन पेश करुंगा। लेकिन इसके लिए आपको बार-बार गुस्ताख पर आना होगा।

दास्तान में उर्दू अल्फाज तो होंगे लेकिन उसके नीचे नुक्ते नहीं लगे रहेंगे।

एक शहर बुखारा का ज़िक्र बार-बार आएगा। पुराने जमाने का यह शानदार शहर आजकल उजबेकिस्तान नाम के देश में है।

दास्तान-ए-नसरुद्दीन मूल किताब लिखी है रुसी लेखक लियोनिद सोलोवयेव ने।

दास्तान ए नसरुद्दीनः "...यह कहानी हमने अबू-उमर-अहमद-इब्न-मुहम्मद से सुनी, जिन्होंने इसे मुहम्मद-इब्न-अली-इब्न-रिफा से सुना, जिन्होंने इसे अली-इब्न-अब्दुल-अजीज से सुना, जिन्होंने अबू-उबैद-अल-कासिम-इब्नसलाम का हवाला दिया, जिन्होंने इसे अपने बुजुर्ग उस्तादों के मुंह से सुना और आखिरी उस्ताद ने सुबूत में उमर-इब्न-अल-खत्ताब व उनके बेटे अब्दुल्ला--अल्लाह उन पर करम करे--का जिक्र किया..."

इब्नहज्म---"बत्तख का हार"

Tuesday, March 13, 2012

क्रिकेट-एक भलेमानस का सन्यास

आज नीलम शर्मा के साथ क्रिकेट पर एक बहुत संक्षिप्त बातचीत हुई। जब कल के सचिन के संभावित महाशतक की बात की, तो उन्होंने मुझसे कहा कितने धैर्यवान् हो कि अब भी सचिन के महाशतक बल्कि क्रिकेट की बातें कर लेते हो।

यह बात छेद गई। उन दिनों जब किशोरवय सचिन बूस्ट के विज्ञापन में कपिल के साथ आया करते थे और स्टारडम उन्हें छू भी न गया था। क्रिकेट सम्राट ने सोने की प्रॉमिनेंट जंजीर दिखाता उनका एक पोस्टर छापा था। तब से मेरे पढ़ने वाली मेज के सामने सचिन आ जमे थे। सचिन देखते-देखते क्रिकेट के भगवान हो गए। उन्हीं कुछ सालों बाद द्रविड़ और गांगुली टीम में आए थे। भारत की मजबूत दीवार बन गए द्रविड़ ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है।
विजयी दीवार
बच्चे थे तो द्रविड़ की धीमी बल्लेबाज़ी हमें बोर करती थी। दरअसल, सचिन की आक्रामकता ने बल्लेबाजी को नए आयाम दिए थे। लेकिन द्रविड़ की बल्लेबाजी ने क्रिकेटीय कौशल की गहराई और गहन धैर्य की मिसाल पेश की। क्रिकेट से मोहभंग के दौर में भी राहुल द्रविड़ एक विश्वास की डोर की तरह रहे, जिनकी नीयत पर किसी को संदेह न था। यहां तक कि भगवान तेंद्या पर भी लोगों ने अपने लिए खेलने के आरोप जड़े, लेकिन द्रविड़ पर धीमा खेलने के सिवा कोई छींटा तक नहीं।

अपने करिअर की शुरुआत में समझबूझ कर शॉट चयन की आदत से वह एकदिवसीय टीम से बाहर हो चुके थे और तब उनने हर गेंद पर शॉट लगानेवाला अपना बयान दिया था। टेस्ट में द्रविड़ भरोसे का प्रतीक बनते चले गए। लेकिन इस भरोसे के बावजूद किसी ने उनसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी। आखिर, वीवीएस वेरी वेरी स्पेशल बने जब ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उनने कोलकाता टेस्ट फॉलोऑन के मुंह से खींच लिया था, लेकिन किसी को याद भी है कि उसी पारी में वीवीएस को राहुल ने 180 रन का साथ दिया था। राहुल को कभी किसी ने लारा या सचिन जैसा महान नहीं माना। हमने भी नहीं। राहुल बल्ले का जादूगर नहीं, बल्ले का मजदूर था।

अगर वह फंसे हुए मैच में शतक लगा देता तो भी, या शतक पूरा करने के पांच रनों के लिए 20-25 गेंद खेलकर झिलाता तो भी। कभी 21 गेंदों में 50 रन ठोंक देता या ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ 233 रन बनाकर पासा पलट देता। भारत का पहला विकेट जल्दी गिर जाता- और विदेशों में प्रायः पहला विकेट जल्दी गिर ही जाता था-यही निकलता- अरे, द्रविड़ है ना! हमने उसे हमेशा फोर ग्रांटेट लिया। और खिलाड़ी जहां एक एक रन से हीरो हो गए, द्रविड़ शतक ठोंककर भी हमारे जश्‍न का कारण नहीं बन पाया।

सचिन व लारा महान होने के लिए ही पैदा हुए थे। द्रविड़ ने अपनी किस्मत खुद लिखी। द्रविड़ के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए मैं कोई आंकड़ा नहीं दूंगा, 2001 का कोलकाता,  2002 का जॉर्ज टाउन, 2002 में ही लीड्स, 2003 में एडीलेड और 2004 में रावलपिंडी के विकेटों पर उसके पसीने की बूंदों ने वहां की माटी में द्रविड़ की दास्तान बिखरी है।

द्रविड़,टेस्‍ट क्रिकेट का वह बेटा रहा जिसने कभी कोई मांग नहीं की। जो मिला उसी में खुश होता गया। वह हमारे दौर या पूरे इतिहास में टेस्‍ट क्रिकेट का सबसे होनहार, मेहनती व अनडिमांडिंग बेटा रहा है।

द्रविड़ के टेस्ट मैचों को अलविदा कहने के बाद हमारे पास कितने खांटी क्रिकेटर रह जाएंगे? विज्ञापनी बादशाह धोनी तो टेस्ट खेलना ही नहीं चाहतेबाकी बच्चे लोगों को न तो टेस्ट की समझ है और न ही उनका टेस्ट  वैसा है

अभी द्रविड़ का जाना शायद उतना न खले, क्योंकि अभी टेस्ट मैच हैं नहीं। लेकिन कुछ महीनों बाद जब टेस्ट मैच में सहवाग हमेशा की तरह अपना विकेट फेंक कर पवेलियन लौट जाएंगे, तब तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने वाले की रक्षा प्रणाली की व्याख्या करते समय हर कोई यही कहेगा, द्रविड़ होते तो इस गेंद को ऐसे खेलते, ऐसे डिग करते, या वैसे मारते।

भलेमानसों के खेल से एक और भलामानस कम हो गया है....।

Sunday, March 4, 2012

कविताः आदमी होना

ज़मीं भेज देती है,
कोमल पंखों वाली चिड़िया को,
आसमां के आंगन में,
उन्मुक्त उड़ने के लिए।

आसमां भेज देता है,
जमीं के पास,
रुई के फाहों से बादलों को
इधर-उधर भटकने के लिए।

उपवन भेज देता है,
कलियों को.
रंगों भरे फूलों के चमन में,
तितलियों संग से चटखने के लिए,

हम न जाने क्यों
रोकते हैं,
अपने फूल से बच्चों को
पड़ोस के आंगन में खेलने के लिए।

Saturday, March 3, 2012

पढ़ाई-लिखाई, हाय रब्बा- 2

तिलक कला मध्य विद्यालय सरकारी स्कूल था। उस वक्त, जब हमने स्कूल की चौथी कक्षा में एडमिशन लिया था, सन् 87 का साल था। देश भर में कूखा पड़ा था। सर लोग अखबार बांचकर बताते थे कि कोई अल-नीनो का प्रभाव है। हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। लेकिन उस अकाल के मद्देनजर सरकार ने यूनिसेफ की तरफ से दी जाने वाली दोपहर का भोजन किस्म की योजना चलाई थी।

हर दोपहर हमारे क्लास टीचर अशोक पत्रलेख पूरी कक्षा में हर बच्चे को कतार में खड़ा कर भिंगोया हुआ चना देते थे। हालांकि, ज्यादातर चना उनके घर में घुघनी ( बंगाली में छोले को घुघनी कहते हैं) बनाने के काम आता था।

स्कूल का अहाता बड़ा सा था जिसमें हम कब़ड्डी या रबर की गेंद से एक दूसरे को पीटने वाले क्रूर खेल बम-पार्टी खेला करते थे। हमारी पीठ पर गेंदो की दाग़ के निशान उभर आते। लेकिन वो दाग़ अच्छे थे। स्कूल के आहाते में यूकेलिप्टस के कई ऊंचे-मोटे पेड़ थे। जिनकी जड़ों के पास दो खोमचे वाले अपना खोमचा लगाते।

ये खोमचे वाले भुने चने को कई तरह से स्वादिष्ट बनाकर बेचते। उनके पास मटर के छोले होते, खसिया (आधा उबले चने को नमक मिर्च के साथ धूप में सुखाने के बाद बनाया गया खाद्य) फुचका, जिसे गुपचुप कहा जाता या बाद में जाना कि असली नाम गोलगप्पे हैं।

अमड़े का फूल


काले नमक के साथ खाया जाने वाला बेहद खट्टा नींबू होता। यह मुझे कत्तई  पसंद न था। खट्टा खाना मुझे आज भी नापसंद है।

अहाते में कई पेड़ अमड़े के भी थे। अमड़ा जिसे अंग्रेजी में वाइल्ड मैंगो या हॉग प्लम भी कहते हैं। हिंदी में इसको अम्बाडा कहते हैं।

मधुपुर में बांगला  भाषा के बहुत असर था, इसलिए हम इसे अमड़ा ही कहते। इसके फूल वसंत के शुरुआत में आते थे...इनके फूल भी हम कचर जाते। हल्का खट्टापन , हल्का मीठा पन...सोंधेपन के साथ।

अमडा जब फल जाता तो उसकी खट्टी और मीठी चटनी बनाई जाती। यह हमारे स्कूल के आसपास का खाद्य संग्रह था...डार्विन ने अगर शुरुआती मानवों को खाद्यसंग्राहक माना था तो हम उसे पूरी तरह सच साबित कर रहे थे।
फला हुआ अमड़ा


लेकिन, इन खाद्यसंग्रहों के बीच पढाई अपने तरीके से चल रही थी...पढाई का तरीका कुछ वैसा ही था जैसा 19वीं सदी की शुरुआत में हुआ करता होगा।

आज की पोस्ट महज खाने पर। हम लोग हाथों में मध्यावकाश तक पढाई जाने वाली चार किताबें और कॉपियां लेकर स्कूल जाते। बस्ते का तो सवाल ही नहीं था। भोजनावकाश में दौड़कर घर जाते, खाना खाकर, वापस स्कूल लौटने की जल्दी होती।

हम जितनी जल्दी लौटते उतना ही वक्त हमें खेलने के लिए मिलता। लड़कियां इस खाली वक्त में पंचगोट्टा खेलतीं थी। पांच पत्थर के टुकड़े, हथेलियों में उंगलियों के बीच से बाहर निकालने का खास खेल, हम बम पार्टी या कबड्डी खेलते...क्रिकेट के लिए शाम का वक्त सुरक्षित रखा जाता।


--जारी