Monday, December 28, 2015

ग्लोबल वॉर्मिंग कहीं कारोबारी साजिश तो नहीं?

पैरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में लंबी बहस के बाद आख़िरकार सारे देश एक समझौते तक पहुंचे लेकिन इस समझौते से मैं बहुत मुतमईन नहीं हूं। कई सवाल अपनी जगह पर बने हुए हैं। जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के मामले में भाषा भी बहस और मतभेदों की वजह रही। पिछले हफ्ते मैंने इशारा भी किया था, कि ‘किया जाएगा’ और ‘किया जाना चाहिए’ जैसे लफ़्जों का इस्तेमाल समझौते की दिशा और दशा को बदल देगा। यह भी सच है कि समझौता करीब-करीब नाकामी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया गया था।

दोनों ही शब्द विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के नज़रिए के फर्क के मायनों की परिभाषा तय देने के लिए काफी हैं।

पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी समझौते का स्वागत किया। लेकिन अब सारी बहस समझौते के मायने और 'किया जाएगा' और 'किया जाना चाहिए' के विरोधाभास के ईर्द-गिर्द सिमटी गई है और उसी के आधार पर आगे के बरसों में होती रहेगी।

शुरू में समझौते की धारा 4 के तहत 'अमीर देश ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक लक्ष्य निर्धारित करेंगे', ऐसा लिखा गया था। लेकिन अमेरिकी दवाब के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया। यह बदलाव काफी अहम है क्योंकि 'किया जाएगा'के साथ क़ानूनी दायित्व जुड़े हैं लेकिन 'किया जाना चाहिए' के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।

उत्सर्जन में कटौती का मुद्दा अब अमीर देशों की प्रतिबध्ता की जगह अमीर देशों की इच्छा पर निर्भर करेगा। आप चाहे इस समझौते के लिए कितना भी जश्न मना लें और यह मान कर चलें कि विकासशील देशों को साफ-सुथरी ऊर्जा के माध्यम अपनाने के लिए अमीर देश तो बिलियनों डॉलर देंगे ही।

इसी तरह विकासशील और विकसित देशों के अलग-अलग जवाबदेही तय करने की भारत की मांग नहीं मानी गई। तो सीधा मान लेना चाहिए कि इससे भारत जैसे देश की महत्वकांक्षा को नुक़सान पहुंचेगा, जो कोयला आधारित ऊर्जा की बदौलत अपनी अर्थव्यवस्था का तापमान बढाए रखने और उसे रफ़तार देने की कोशिशों में लगे हैं। आखिरकार किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसकी ऊर्जा ज़रूरतों के ही मुताबिक तो घटती-बढ़ती है।

यह दुनिया के जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र तो ठीक है लेकिन भारत के विकास के नज़रिए के माकूल नहीं है। क्लाइमेट फंडिंग को लेकर परिभाषा साफ नहीं हो पाई है। विकसित देशों अब विकासशील देशों को पैसे तो देंगे, लेकिन विकसित देश पैसा देने के लिए बाध्य नहीं होंगे।

दूसरी तरफ, आप और पर्यावरण की चिंता में लगातार घुलते रहने वाले लोग मुझ पर लानते भेंजे लेकिन मेरा साफ मानना है कि विकसित देशों ने अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन तो कर लिया लेकिन अब विकासशील देशों की बारी में वे लोग भांजी मार रहे हैं।

अव्वल तो मुझे ग्लोबल वॉर्मिंग का कॉन्सेप्ट ही विरोधाभासी लगता है। प्रदूषण का मसला अपनी जगह है। यह सही है कि वातावरण में धुआं और ज़हरीली गैसे उत्सर्जित करके हम आबो-हवा को बिगाड़ रहे हैं, लेकिन कुछ वैज्ञानिक (?) और गैर-सरकारी संगठन दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि इससे पृथ्वी के घूर्णन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और दिन पहले के मुकाबले लंबे हो रहे हैं। मैंने जितना पढ़ा है उससे साफ कह सकता हूं कि यह धारणा भ्रामक है।

तीसरी बात यह कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर कोई पहली दफा नहीं हो रहा। धरती के तापमान में हमेशा घट-बढ़त होती रहती है। पृथ्वी के जलवायविक परिवर्तनों का इतिहास बताता है कि पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर अब तक चार बार हिमकाल आ चुके हैं, यानी सारी धरती बर्फ से ढंक गई थी, इनको गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म हिमकाल कहते हैं। इसी तरह अपनी विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में आप सबने पढ़ा होगा कि साइबेरिया में हाथी के पूर्वज मैमथ का जीवाश्म मिला है जिसकी सूंढ़ में घास भी मिला है। इसी तरह आपको कुछ और मिसालें दूं, जैसे कि साइबेरिया औ कश्मीर के करगिल में बिटुमिनस कोयले के भंडार होना। कोयला वहीं बनता है जहां कभी घने जंगल हों।

साइबेरिया और कारगिल में घने जंगल तो तभी रहे होंगे, जब उस इलाके में जलवायु गर्म और नम रही होगी। ऐसी जलवायु वहीं मिलती है जिसके आसपास से तापीय विषुवत रेखा गुजरती है। मेरे कहने का गर्ज है कि तापीय विषुवत रेखा अपनी जगह बदलती है। पृथ्वी में हिमयुग और गर्म युगों का आना-जाना लगा रहता है। तो धरती के तापमान में बदलने को सिर्फ प्रदूषण से मत जोड़िए। हो सकता है कि विकसित देशों की यह कारोबारी नीति हो कि वह अपनी कथित क्लीन टेक्नॉलजी को बेचने के लिए इतने वितंडे कर रहा हो। बस कह रहा हूं, बाकी जो है सो तो हइए है।

Tuesday, December 15, 2015

आओ फिर से पुकारो मुझको

आओ फिर से पुकारो मुझको
बंद किवाड़ों पर हल्के से दस्तक तो दो
किवाड़ें मन की कहां बंद होती हैं।
किवाड़ो पर लगे सांकल को खटखटाना इक बार
सांकल देह के होते, मन पे नहीं होते
या किसी अनजान राह पर जाकर इकबार
नाम लेकर फुसफुसाकर ही आवाज़ देना


आओ फिर से पुकारो मुझको

मार प्यार की थापें

बंद किवाड़
लगा है सांकल
मार प्यार की थापें

आसमान को बंद कहां
कर पाओगे तुम पट के भीतर
गगन मुक्त है
पवन मुक्त है
मुक्त हमेशा मोर व तीतर
आओ अंतरमन में झांके
मार प्यार की थापें

बरगद अब भी बुला रहा है
घाट प्रतीक्षा में है
गंगा जल को बांध बनाकर
बांध न पाया कोई
चाहे कितने बंद किवाड़
मन नारंगी की फांकें
मार प्यार की थापें




Monday, December 14, 2015

ग्लोबल वॉर्मिंग पर ठंडा रुख़

ग्लोबल वॉर्मिंग यानी वैश्विक तापवृद्धि की वजह से दुनिया भर के निचले इलाके डूब जाएंगे और सुन्दरबन से लेकर मालदीव जैसे इलाकों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा, यह बातें हम सबने पर्यावरणविदों की ज़बानी सुनी है। बांगलादेश के तटीय इलाके हों, या फिर साल 2005 में चक्रवातीय अपरदन और खारे जल की बढ़त से पापुआ न्यूगिनी के कार्टरेट द्वीप के एक हजार निवासियों को विस्थापित करके कहीं और बसाना, मिसालें कई हैं। साल 2006 में हुगली नदी डेल्टा का लोहाछारा टापू पूरी तरह डूब गया था और करीब 10 हज़ार लोगों को विस्थापित करना पड़ा था।

पैरिस में हो रहे कोप-21 में भी जलवायविक वजहों से जबरिया पलायन के इन पहलुओं और उसके समाधान की दिशा में चर्चाएं हुई हैं। उन चर्चाओं से क्या निकला है, क्या हासिल होने वाला है इस पर आखिरी समझौते के बाद ही कोई टिप्पणी होगी। लेकिन फिलहाल, इस स्तंभ के लिखे जाने तक, उम्मीद तो बनाए ही रखना चाहिए।

इस विस्थापन की वजह से सामाजिक समस्याओं का अलग आयाम भी है। अगर सीरिया की शरणार्थी समस्या की बात करें तो याद रखना चाहिए कि वहां तीन साल से अकाल की समस्या भी थी। दार्फुर हो या सूडान, इस सबके मूल में पर्यावरण प्रबंधन की कमी और जलवायु परिवर्तन की समस्या ही है। और इस बरबादी का सबसे बड़ा शिकार वह कतार का आखिरी आदमी है, जिसने जलवायु परिवर्तन की इस परिघटना में सबसे कम योगदान दिया है।

जलवायु शरणार्थी या जबरिया विस्थापितों को जाहिर है, कोई अधिकार नहीं मिलते और स्थानीय लोगों के शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना भी उन्हें ही करना होता है। पलायन की इस समस्या से निबटने के लिए दुनिया भर में बमुश्किल ही कोई प्रयास होता है। दहशत, नस्लवाद और नफरत ने ऐसे पलायनों को प्रभावितों के लिए और बदतर बना दिया है।

अब बड़ा सवाल है कि इन विस्थापितों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किस तरह की मदद की जाए और उन्हें किस तरह के अधिकार मिलने चाहिए।

सन् 1990 में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव इंसानी पलायन का होगा। तब से लेकर आजतक दुनिया के तमाम देश, जलवायु परिवर्तन से हुए पलायन, विस्थापन और उसके परिणामों पर ही सौदेबाज़ी में मशगूल रहे हैं। कानकुन में हुए कोप-16 में आकर ही एक ठोस सहमति बन पाई जब एक ऐसा अनुकूलन फ्रेमवर्क तैयार किया जा सका ताकि राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर किसी किस्म के पलायन, विस्थापन वगैरह समस्याओं के संदर्भ में समन्वय और सहयोग किया जा सके। लेकिन, जलवायविक विस्थापन से जुड़ी बातें समझौते के बाद कहीं खो गईं।

असल में, पलायन और विस्थापन तभी होता है जब समस्या की सरहद पर खड़े देशों में परिस्थितियों के मुताबिक अनुकूलन नहीं होता है। इसलिए परिस्थितियों के हिसाब से अनुकूलन न हो पाने को भी नुकसान का अंश माना जाना चाहिए। इस तर्क को ‘वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि’ में शामिल किया गया, ताकि देशों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान, जिसमें विस्थापन और पलायन की वजह से होने वाले नुकसान भी शामिल हैं, का आकलन किया जा सके।

अब, इस दफा, यानी कोप-21 में 4 दिसंबर को जारी किए गए पैरिस समझौते में, नुकसान या ध्वंस से जुड़े अनुच्छेद में वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि का विस्थापन के संदर्भ में जिक्र है और इसके मुताबिक, जलवायु परिवर्तन विस्थापन समन्वय सुविधा की स्थापना ‘वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि’ के तहत होनी चाहिए, ताकि जलवायु परिवर्तन से हुए विस्थापन, पलायन और योजनाबद्ध पुनर्वास की निगरानी की जा सके।

लेकिन, अगर आप इस पूरे अनुच्छेद का मूल रूप में यानी अंग्रेजी में पढ़ें तो पाएंगे कि यह पूरा अनुच्छेद कोष्ठकों में है, इसलिए नुकसान को लेकर किसी भी पार्टी का क्या रूख होगा यह उनके अपने नज़रिए पर निर्भर करेगा। और यह भी डर है कि कहीं यह अनुच्छेद मूल समझौते में शामिल ही न हो।

अगले हफ्ते तक, यह तय हो जाएगा कि पैरिस में इस शीर्ष बैठक से किस देश को क्या हासिल हुआ। यह भी तय हो जाएगा कि आखिर कतार के आखिरी आदमी को क्या मिलेगा, जिसे समुद्री जलस्तर या सूखे की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ता है। मैं आपको एक किस्सा उड़ीसा के सतभाया का भी सुनाऊंगा, जो संभवतया, भारत मे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हुए पहले अनाथ हैं।

Sunday, December 6, 2015

हम फिदा-ए लखनऊ

उन्नाव के बाद चलती हुई गोमती फिर कहीं किसी अंजान सी जगह पर रूकी थी। रुकना गोमती एक्सप्रेस के लिए, और उसके मुसाफिरों के लिए कोई खबर नहीं थी। वह रूकती आ रही थी और रूकती ही आ रही थी।

कानपुर में वृषाली के मम्मी-पापा खाना लेकर आए थे। और खाने को मैंने पूरी तवज्जो दी थी। मेरा सारा ध्यान उसी खाने पर था। मक्खन-मलाई, जिसका हल्का-धीमा मीठापन जिंदगी जैसा था। मृत्यु का स्वाद, तेज मीठा होता है, जीवन का हल्का मीठा।

मैं एक बार पहले ही उस मक्खन का एक कटोरा साफ कर गया था और मेरी बहन वृषाली के सामने दो चिंताएं थी। भाई पूरा खाए, भरपेट खाए। और मक्खन बचा न रह जाए।

तो जनाब, गाड़ी उन्नाव के आगे किसी अनजानी-अनचीन्ही सी जगह पर न जाने कब से खड़ी थी। और ऐसा लग रहा था अब हमेशा के लिए यहीं खड़ी रहेगी।

हर्ष जी की बड़ी बिटिया मिष्टी--वह अपने नाम की तरह ही काफी मीठा बोलती है--अपने रिपोर्टर अवतार में आ गई थी। नाक पर चढ़े चश्मे को बड़ी अदा से संभालते हुए और खाने में व्यस्त मुझतक आते हुए गोमती न्यूज (उसने तुरत-फुरत अपना न्यूज़ चैनल बना लिया) की उस छुटकी दस साल की रिपोर्टर मिष्टी का पहला सवाल यही थाः आपको याद है आप गोमती एक्सप्रेस में कब चढ़े थे?

मैंने बस इतना ही जवाब दिया थाः पिछले जन्म में।

नई दिल्ली से जब गोमती एक्सप्रेस चली थी, तो सही वक्त पर चली थी। अच्छा हुआ, मिष्टी ने मुझसे यह नहीं पूछा कि आप को क्या लगता है आप कब तक लखनऊ पहुंचेंगे।

मैं गीता (किताब) की कसम खाकर कहता हूं (खाने दीजिए ना, यह न कहिएगा, आप तो खुद को नास्तिक कहते फिर गीता की कसम क्यों खा रहे, मेरा तर्क यह है कि पारंपरिक रूप से यह मान्य है, फिर भी आप कह रहे हैं तो मैं सत्यनिष्ठा की शपथ लेता हूं) कि गोमती एक्सप्रेस में दोबारा चढ़ने की कोशिश कभी नहीं करूंगा। हो सके, तो मैं यात्रा रद्द ही कर देने की कोशिश करूंगा।

यात्राएं लंबी हो जाएं तो बुरा नहीं होता। कई बार लंबी यात्राएं मजे़दार भी होती हैं। लंबा इंतजार कई दफ़ा अच्छा भी लगता है। लेकिन अगर रेल यात्रा हो, रेल कहीं भी कभी भी रूक रही हो, पीने का पानी न हो, सीट फटी-पुरानी हो, टूटी हो, आप जिधर झुकें सीट भी झुक जाए...बाथरूम गंदे हों... अर्थात् आप कहें कि स्थिति नारकीय हो, तब लंबा सफर और इंतजार मजेदार नहीं रह जाता।

मेरे साथ 200 बार में 199 बार हुआ है कि मेरी बगल की सीट किसी झक्की बूढ़े की हो। रेलवे वालों की खास कारस्तानी है यह। इस दफा भी मेरी बगलवाली सीट एक ऐसे बुजुर्गवार की थी, जिनने अपने दो मोबाईलों का मुझेस तेरह बार सिम बदलवाया, और अपने खाने को थैला सत्ताईस बार चढ़वाया-उतरवाया। मेरे साथ लखनऊ जाने वालों में हर्ष जी, उनके दो बच्चे, बहन वृषाली, प्रदीपिका समेत महिलाओं की संख्या अधिक थी इसलिए मैं अपने सारे गुस्से को जब्त किए बैठा रहा, और बूढ़े चचा के लिए कभी मोबाईल रिपेयरिंग और कुलीगीरी करता रहा। साथ के लोग, खासकर बच्चे मुझ जैसे शांत-सुशील (?) शख्स को बदतमीज होते देखेंगे तो बुरा असर होगा उन पर।

चचा ने मुझसे पूछा, नाम क्या लिखते हो? उनके मुंह से थूक की पिचकारी निकली और मेरी कलाई पर आकर गिर गई। गुस्सा तो बहुत आय़ा, लेकिन तय किया मन में, कि अगर कभी बूढ़ा हुआ तो ऐसी ही थूक की पिचकारी किसी और नौजवान पर छोड़ूंगा। उस वक्त तो मैं चचा से यही कहकर बाहर निकला कि अभी हाथ धोकर आता हूं और फिर बताता हूं कि नाम क्या लिखता हूं। 

वापस आकर, मैंने चचा से यही कहा, हम जो हैं वही नाम लिखते भी हैं। बहरहाल, गाड़ी अपनी दुलकी चाल चलती रही। बाहर का मौसम बेहद सुहाना हो रहा था।

बिजली की घनी कड़क के साथ बौछारें गिर रही थीं। बच्चे भूख से बेहाल हो रहे थे। लेकिन चेअरकार में सोना बड़े सिद्धपुरूषों का काम है। मिष्टी की छोटी बहन पाखी सोने की बहुतेरी कोशिश कर रही थी।

और तब आया था कानपुर। जहां बारिश थी, जहां से लखनऊ बस थोड़ी ही दूर है--की सांत्वना थी, जहां खाना था।

जारी

Friday, December 4, 2015

जिसे ढूंढा ज़माने में मुझी में थाः तमाशा

इससे पहले कि आप किसी नामी-गिरामी फिल्म समीक्षकों की समीक्षा को आधार बनाते हुए मेरी पसंद पर लानतें भेंजे, मेरी पहली बात; पिछले पांच साल में बनी किसी भी फिल्म से बेहतर ओपनिंग क्रेडिट है फिल्म ‘तमाशा’ का। और हां, मैं ग्राफिक्स की बात नहीं कर रहा। मेरे कहने का मतलब ओपनिंग सीक्वेंस से भी है।
‘तमाशा’ उन लोगों के लिए बनी हुई फिल्म नहीं है, जिनको चार ट्रॉली और तीन क्रेन शॉट पर एक पूरा गाना फिल्मा लिए जाने में कोई बुराई नज़र नहीं आती लेकिन कायदे की बना हुई फिल्म की कहानी को वह बिखरी हुई कहानी कहने से पहले सांस तक नहीं लेते।

‘तमाशा’ सलीके से बुनी हुई और बनी हुई बेहतर फिल्म है जिसमें कम से कम तीन अदाकारों ने जान फूंक दी है। रनबीर, दीपिका और पीय़ूष मिश्रा।

‘तमाशा’ देखेंगे तो कई दफ़ा लगेगा आपको कि यह ‘रॉकस्टार’ और ‘जब वी मेट’ के बीच की फिल्म है। या कहीं न कहीं इसमें ‘लव आजकल’ की सोच भी है।

लेकिन इस फिल्म के संपादन और इसको रचने के क्राफ्ट से मेरे मुंह से कई बार वाह निकला। किसी को इनकार नहीं होगा कि ‘तमाशा’ जरा अलग तरह के प्यार का किस्सा है। उस तरह का प्यार, जिसमें प्रेमी एक-दूसरे को चाहते भी हैं और दुनिया को और खुद को ये जताना चाहते हैं कि प्यार नहीं भी है।

तमाम दुनियावी बातों के बीच यह फिल्म हमसे कहती है कि हमें वही काम करना चाहिए, जिसके लिए हम पैदा हुए हैं। यह बात भी सौ टका सच है कि हम सब किसी खास काम के लिए बने हैं। यह फिल्म मीडियोक्रिटी के खिलाफ फतवा है।

इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी जबरदस्त है और मैं इरशाद कामिल के गीतों को बोल शानदार है। इरशाद कामिल और नीलेश मिसरा इस दौर के सबसे बेहतरीन गीतकार हैं। इरशाद कामिल के गीत नई कविता सरीखे हैं तो नीलेश में ग़ज़लग़ो वाली नज़ाकत और नफ़ासत है।

‘तमाशा’ हमारे भीतर के वजूद को आवाज़ लगाने वाली फिल्म है। जो आपके भीतर होता है उसी को आप बाहर ढूंढ़ते हैं। यह फिल्म ‘हीर तो बड़ी सैड है’ कहते हुए भी एक बड़ी कंपनी में उसके विकास को दिखाती है, कि जिन पलों में हमारी हीर को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए, वह सैड है। काहे कि, वह अपना दिल तो कोर्सिका में ही भूल आई है।

‘तमाशा’ हमसे कहती है कि आप करिअर और समाज की बंदिशों की वजह से महज एक रोबोट या पालतू शख्स में तब्दील न हो जाएं। फिल्म की शुरूआत में ही रोबोट और उसकी छाती पर लाल रंग का बना हुआ दिल होता है। मैं इस फिल्म के शानदार संपादन के लिए निर्देशक और संपादक का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, क्योंकि हाल ही में एक फिल्म आई थी ‘कागज़ के फूल्स’ जिसके एक ही दृश्य में, एक ही किरदार ने दूसरे किरदार को दो बार दो अलग नामों से पुकारा था। भरोसा न हो, तो इसके उस सीन को देखिए जिसमें विनय पाठक प्रकाशक के यहां अपनी किताब पर प्रतिक्रिया लेने जाते हैं। पहले संवाद में जो शख्स बनर्जी होता है दूसरे संवाद में वह श्रीवास्तव हो जाता है।

बहरहाल, ‘तमाशा’ इन ज्यादातर सिनेमाई खामियों से दूर है।

‘तमाशा’ एक विचार के तौर पर दुनिया की हर कहानी को हर जगह पाई जाने वाली कहानी के तौर पर पेश करता है। आप अगर गौर से देखें तो पाएंगे कि वेद के किरदार के मनोविज्ञान को निर्देशक ने बहुत गहराई से पकड़ा है। अंदर का ज्वालामुखी, फटने को बेताब ज्वालामुखी। बहुत कुछ ‘रॉकस्टार’ के नायक-सा है वेद।

आखिरी दृश्यों में आप देखेंगे कि नायक अपने अवचेतन में बसे सभी बाधाओं को पार करता है, और हर दृश्य में उसके साथ एक जोकर होता है। जिन जिन जगहों की, गणित की, स्कूल की, इंजीनियरिंग के बोझिल कॉलेज की गांठ उसके मन में थी, वह खुल जाती है। वह जो होना चाहता है, हो जाता है।

नायिका के कहने पर, और याद दिलाने पर कि तुम्हारे अंदर की प्रतिभा दुनिया के मीडियोक्रिटी पर जोर देने की वजह से कुंद हो गई है, नायक खुद की तलाश में निकलता है। वह उसी क़िस्सागो के पास जाता है जो बचपन से उसे कहानियां सुनाता आया है। उसके कहानी कहने का तरीक़ा इम्तियाज़ी है। क़िस्सागो अलहदा क़िस्सों को दुनिया के हर हिस्से की कहानी के तौर पर पेश करता है जिसके लिए रोमियो-जूलियट और हीर-रांझा और सोहिनी-महिवाल में ज्यादा फर्क़ नहीं है। वेद यह पूछता है कि आखिर उसकी खुद की कहानी का अंत क्या है। किस्सागो उसके बाद जो कहता है, वह सूफी परंपरा का आधार है। वह कहता है अनलहक-अनलहक। गुस्से में किस्सागो वेद से कहता है तू अपनी कहानी का अंत मुझसे क्यों पूछता है, खुद क्यों नहीं तय करता?

सच ही तो है हम अपनी कहानियों का क्लाइमेक्स किसी और को तय करने क्यों देते हैं। हम सबकी अपनी जिंदगियों की कहानी में ट्विस्ट कोई और क्यों लाता है...हमारी जिंदगी के फ़ैसले कोई और क्यों लेता है।

तमाशा हमारे खुद के वजूद के तलाश को उकसाने वाली ऐसी कविता है जिसे इम्तियाज़ ने परदे पर रचा है।

मुझे इस बात की कत्तई परवाह नहीं है कि भारत के दर्शक इस फिल्म को कितनी कलेक्शन करवाते हैं, लेकिन जिनको सिनेमाई कला की समझ है, या जो इसके शिल्प को समझना चाहते हैं, उनके लिए यह जरूरी फिल्म है।

Sunday, November 29, 2015

जलवायु परिवर्तन पर भारत का सहिष्णु कदम

आमिर खान ने पत्नी के मन की बात क्या कही, भूचाल आ गया। आना ही था। आमिर ख़ान ने कह दिया कि भारत में बढ़ती असहिष्णुता की वजह से उनकी पत्नी भारत में रहने की इच्छुक नहीं थी। इतना कहना था कि सोशल मीडिया पर आमिर को लेकर नफरत भरी टिप्पणियों का सैलाब आ गया।

मैं भी आमिर की इस टिप्पणी से इत्तफाक नहीं रखता। मैं यह भी नहीं कहता कि देश में मौजूदा प्रशासन आजतक का आदर्श प्रशासन है। लेकिन आमिर को (या उनकी पत्नी को) अपनी बात तर्कों के ज़रिए साबित करनी चाहिए थी।

आखिर असहिष्णुता या सहिष्णुता एक अमूर्त्त चीज है। महसूस करने की। आमिर या उनके जैसे कलाकारों ने आखिर कैसे महसूस कर लिया कि देश में असहिष्णु वातावरण बन गया है। और यह वातावरण आखिर बेहतर कब था।

आप चाहें तो मेरे सवाल के लिए मुझ पर लानतें भेज सकते हैं क्योंकि आमिर खान ने सरफरोश जैसी फिल्म में बेहद देशभक्त पुलिस अफसर का किरदार अदा किया है, साथ ही आमिर खान भारत सरकार के विज्ञापनों में देश को इंक्रेडिबल इंडिया यानी अतुल्य भारत कहते हैं।

अब या तो वह विज्ञापन में असत्य उचार रहे हैं या उस दिन पुरस्कार समारोह में। जो भी हो, साहित्यकारों और कलाकारों की इस बेचैनी के कारण को समझकर उसका निदान जरूरी है।

वैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की सहिष्णुता की एक मिसाल मैं देना जरूर चाहूंगा।

भारत ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती की एक बड़ी पहल की है। भारत ने अगले कुछ दिनो में पेरिस में होने वाले शिखर सम्मेलन से पहले जलवायु परिवर्तन पर अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33 से 35 फीसदी कटौती करेगी। यह कमी साल 2005 को आधार मान कर की जाएगी। इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है, जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है।

सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बनरहित ईंधन से होगा। यानी, भारत साफ-सुथरी ऊर्जा के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक वह 1 लाख 75 हजार मेगावॉट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे।

भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) लिटिगेशन प्लान के लिए बाध्य नहीं है। इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पैरिस में हो रहा है। अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है।

पिछले दिनों अपनी अमेरिका की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई। प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार है। विश्लेषकों का कहना है इस साल के आख़िर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। और अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती है।

न्यू यॉर्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग में आनेवाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी।

Saturday, November 21, 2015

गरीबी के आंकड़ो की कलाबाज़ी

सन् 1990 में विश्व बैंक ने एक पहल की थी, दुनिया से गरीबी, घोर गरीबी के उन्मूलन की। और इसके लिए लक्ष्य वर्ष रखा गया था साल 2030 का। और इस लक्ष्य वर्ष से ठीक पंद्रह साल पहले पिछले महीने यानी अक्तूबर में विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की और इस बात पर संतुष्टि जताई कि दुनिया में अत्यधिक गरीबों की संख्या अब घट कर दहाई के आंकड़े नीचे यानी 9.6 पर आ गई है। जाहिर है, यह खबर दुनिया के हर आदमी के लिए सुकूनबख्श है। लेकिन इसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा कि विश्व बैंक दिखाना चाहता है।

वैसे, भारत में गरीबी कितनी कम हुई है इस संबंध में फिलहाल विश्व बैंक ने आंकड़े तो नहीं घोषित किए हैं। लेकिन उसकी टिप्पणी हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।

विश्व बैंक का आरोप है कि भारत अपने गरीबों की संख्या का आकलन बढ़ा-चढ़ा कर करता रहा है। साल 2011-12 में सुरेश तेंदुलकर कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या 21.9 फीसद थी, जबकि उसी दौरान रंगराजन कमिटी ने देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या 29.5 फीसद बताई थी।

वहीं, इसी बारे में विश्व बैंक का आकलन है कि वर्ष उसी दौर में यानी 2011-12 में भारत की कुल आबादी का महज 12.4 फीसद हिस्सा ही घोर गरीबी, या जिसे हम आप गरीबी रेखा से नीचे कहते हैं, में जी रही थी।

अब सवाल उठता है कि आखिर कौन सा पैमाना है जिसके आधार पर घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की पहचान हुई, और जिसके आंकड़ो में इतना भारी अंतर आ गया।

भारत में गरीबी का पता लगाने के लिए आंकड़े जुटाने के दो तरीके हैं, पहला है यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) और दूसरा है, मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी)। साल 1993-94 तक यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) के तहत डाटा संग्रह किये जाते थे और उसके बाद मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी) के तहत, आंकड़े इकट्ठे किए जाने लगे।

दरअसल, यूआरपी के तहत 30 दिनों के समय में देश भर में एक सर्वे किया जाता था और इस सर्वे में लोगों से उनके उपभोग और खर्च के बारे में पूछकर जानकारी इकट्ठा की जाती थी। जबकि, एमआरपी के तहत देश भर में पूरे साल सर्वे होते थे। उसमें और कई आयाम जुड़े,इसके बाद एक महीने के समय में उसकी समीक्षा कर एक अंतिम आंकड़ा निकाला जाता था।

साल 1999-2000 से एमआरपी के तहत ही डाटा का संग्रह किया जा रहा है। वहीं विश्व बैंक ने आंकड़े जुटाने के लिए मोडिफाइड मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमएमआरपी) पद्धति का सहारा लिया। और वर्ष 2011-12 में उसने भारत में जो डाटा संग्रह किया उसके अनुसार देश में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या महज 12.4 प्रतिशत थी।

इस पद्धति में लोगों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़े, उपभोग की सामग्रियों पर उनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि की समीक्षा की गई। ऐसे में गरीबों की संख्या में बड़ा अंतर दिखा। दूसरी ओर अब अगर हम भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो थोड़ी हैरत जरूर होती है कि आखिर 2004 से लेकर 2012 तक ऐसी कौन सी योजना या प्रयास सरकार का था, जिससे कि गरीबी इतने आश्चर्यजनक ढंग से कम हो गई। अगर आंकड़े सच हो, और यकीन मानिए, मैं इसके लिए प्रार्थना कर रहा हूं, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। लेकिन आंकड़े में अंतर तथा उसकी प्रस्तुति में जल्दबाजी हैरान करने वाली बात है।

आईडीएफसी रुरल डेवलपमेंट नेटवर्क द्वारा तैयार भारतीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2013-14 का दूसरा संस्करण हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार देश में वर्ष 2013-14 में अत्यधिक गरीबों की संख्या घटकर 6.84 फीसद तक आ गई है जो कि वर्ष 2004-05 में 16.3 फीसद थी।

इन सबके अलावा एक बात बहुत जोर-शोर से वर्ष 2005 से ही कही जा रही है कि घोर गरीबी में जीने वाला व्यक्ति प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करता है, लेकिन वर्ष 2011 आते-आते इन गरीबों की खर्च करने की क्षमता बढ़ कर 1.90 डॉलर तक पहुंच गई। हालांकि इसी दौरान 2008 की आर्थिक मंदी ने पूरी दुनिया हिला दिया था। इन सबके बावजूद दक्षिण एशिया और अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में गरीबी कम होने के आंकड़े आए हैं।

अब आंकड़ो की बाज़ीगरी और सच्चाई में फर्क क्या है, क्यों है, कैसे है इस सवाल का जवाब या तो वक्त दे सकता है या सक्षम लेकिन विश्व बैंक के ईमानदारी अधिकारी। आंकड़ों में गरीबों की संख्या कम-ज्यादा बताना और इसमें मनमुताबिक हेर-फेर करना ही तो कला है, बाकी तो सब विज्ञान है।

Friday, November 20, 2015

लेह में आवारगी पार्ट 2

लेह के जिस सर्किट हाउस में हम ठहरे थे वह सरकारी था और जाहिर है उसमें टीवी था तो लेकिन उसके डीटीएच का पैसा नहीं दिया गया था। यानी टीवी देखना बेकार था।


फोटोः तेजिन्दर सिंह
एक पूरा दिन आराम व दूसरा पूरा दिन वहीं लेह में घूमना सबसे अच्छा तरीका है लेकिन हमारे पास वक्त बेहद कम था, और काम काफी ज्यादा। दूसरे दिन सुबह-सुबह मेरी नींद खुल गई। दिल्ली में जब तक दफ्तर न जाना हो मैं आदतन साढ़े 8 तक सोता रहता हूं और उगता हुआ सूरज कम ही देख पाता हूं। लेकिन यहां तो रात को खिड़की का पर्दा लगाना भूल गया था और 6 बजे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही आंखें चौंधिया गईं।

सूर्य की पहली किरण भूरे पहाड़ों के शिखर पर जमी बर्फ पर पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी सुनहरी काया पर मलमल का आंचल भर डाल दिया हो। 15 मिनट तक मैं बस सब कुछ भूल कर इस नजारे को देखता ही रह गया। साथ ही खिड़की से बाहर लॉन में आसमान जाने किस नस्ल की चिड़िया गा रही थी।

सुबह को, सर्किट हाउस के केयर टेकर ने हमारे लिए ऑमलेट और ब्रेड का नाश्ता तैयार कर दिया था। उस दिन शायद लेह में बाजार कुछ बंद थे।

फोटोः सौरभ, मैं और तेजिन्दर, ऑमलेट के इंतजार में


इसी से गुज़ारा करना था। हमें लेह के आसपास के हिस्सों में कुछ शूटिंग पूरी करनी थी और इसके लिए हम शांति स्तूप से लेकर न जाने कितने गोम्फाओं के दर्शन कर लिए। सड़क के बाईं तरफ पहाड़, नीचे हरा-भरा लेह, और पूरा शहर...मानो घरौंदों की बस्ती हो।


शांति स्तूप फोटोः सौरभ
फिल्म 3 इडियट्स ने इस जगह को और भी चर्चा में ला दिया है। कैसे इसकी चर्चा तो आगे, लेकिन शहर से पूर्ब सात-आठ किलोमीटर बढ़ते ही एक स्कूल हैः रैंचो स्कूल। जी हैं, आमिर खान का नाम थ्री इडियट्स में रैंचो ही था और अब एक स्कूल है जिसको उनके ही नाम से जाना जाता है।

इस स्कूल तक जाने के लिए आप एक सड़क पकड़ते है, जो सीधे मनाली की तरफ जाती है। शहर से बाहर निकलते ही इस सड़क को कई बारे आड़ी काटती हुई एक पतली सी नहर है, जो शहर के लिए पानी की आपूर्ति का शायद एकमात्र साधन है।


फिर बाई तरफ आप देखते हैं, रेतों के ढूह...पथरीले पहाड़। न जाने कितने मोड़ हैं उसमें। ऐंठन से भरे चट्टान। लगता है किसी ने मचोड़कर-मरोड़कर रख दिया हो। जाहिर कुदरत ने मरोड़ा है। कुदरत से बड़ी ताकत है क्या कोई।

इंसान कितना भी ताकतवर हो ले, आखिरी बोली तो कुदरत की होती है। यह बात, चाहे आप दिल्ली-मुंबई-अहमदाबाद-बंगलुरू में शायद महसूस न कर पाएं लेकिन लेह-लद्दाख जाकर आप इस बात से इतफाक रखेंगे।

रैंचो स्कूल के बगल में ही स्तूप जैसी सफेद आकृतियां बनाई गई है। सैकड़ो की संख्या में। फिल्मों के शौक़ीन हैं तो बंटी और बबली फिल्म का गीत देख लीजिए, जिसमें अभिषेक और रानी इन्ही आकृतियों के बगल में प्रेम भरे गीत गा रहे हैं। फिल्म दिल से में, शाहरुख और मनीषा कोईराला के प्रेम का उद्गार भी इधर ही व्यक्त हुए हैं।

बहरहाल, सूरत तेजी़ से ढल रहा था और हम वहां से फोटो खिचवाकर, क्योंकि शूटिंग हमने निबटी ली थी, शांति स्तूप की तरफ चल पड़े। वह हमारे सर्किट हाउस से ढाई किलोमीटर उत्तर था।

शांति स्तूप तक पहुंचते-पहुंचते थकान हम पर तारी हो चुकी थी। ढलते हुए सूरज का सौन्दर्य..सफेद स्तूप पर। वाह क्या दृश्य था। और जब हम हांफते हुए ऊपर शांति स्तूप तक पहुंचे...दक्षिण में बादलों का साम्राज्य हिममंडित शिखरों को अपने आगोश में ले चुका था।

फिर भी हमने हिस्से के काम निबटाए। शूटिग का। लेकिन उसके साथ अपने फोटो शूट भी तो जरूरी काम हुआ करते हैं। वह भी किया गया।

शाम को 7 बजे तक हमें वापस सर्किट हाउस पहुंचना था, क्योंकि डॉक्टर साहब आकर हमारी जांच करने वाले थे कि क्या हमारा मैदानी इलाके की जलवायु का अभ्यस्त शरीर आगे ऊंचाई पर चढ़ाई के लायक है या नहीं।

मैं डरा हुआ था। काश कि मेडिकल रिपोर्ट मुझे लेह में रूकने को मजबूर न कर दे। जिस हिमालय के बारे में हमने किताबों में पढ़ा था उसको एकदम नजदीक से देखने का मौका मैं गंवाना नहीं चाहता था।

Thursday, November 19, 2015

महागठबंधन जीत के आगे की चुनौती

बिहार में जीत महागठबंधन की हुई और क्या जबरदस्त जीत हुई। लालू इस खेल में मैन ऑफ द मैच रहे। लालू के सियासी करिअर का मर्सिया पढ़ने वालों से मेरा कभी इत्तफाक नहीं रहा और मुझे हमेशा लगता था कि लालू की वापसी होगी। गोकि लालू का जनाधार भी जब्बर है और इसबार नीतीश के साथ हाथ मिलाकर, वो भी बिलाशर्त, लालू ने संजीदा राजनीतिज्ञ होने का परिचय ही दिया।

अंकगणित के आधार पर लोगों ने लालू-नीतीश के महागठबंधन को खारिज कर दिया था। नरेन्द्र मोदी की अपार लोकप्रियता और सर चढ़कर बोल रहा जादू भी ऐसा ही है। लेकिन बिहार में सियासत महज वोटों के अंकगणित के समीकरणों से नहीं होती। वहां वह ज्यामिति भी होती है और बीजगणित भी।

लेकिन, महागठबंधन के पक्ष में जो जिन्न इवीएम से बाहर निकला है वह इतनी जल्दी बोतल के भीतर नहीं जाएगा। लालू ने अभी तक मुंह नहीं खोला है। गठजोड़ करने से पहले तो बिलकुल भी नहीं खोला। लेकिन वह इतनी आसानी से मानेंगे भी नहीं। नीतीश के साथ गठजोड़ करने से पहले लालू बैकफुट पर थे। उनका सियासी करिअर डांवाडोल था। लेकिन अब लालू बम-बम हैं क्योंकि उनकी सीटें जेडी-यू से भी अधिक है। जेडी-यू पिछले विधानसभा चुनाव में हासिल सीटों से कम सीटें पा सकी है इसबार। तो ऐसे में उप-मुख्यमंत्री का पद अगर लालू अपने बेटों में से एक के लिए मांग बैठे तो इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए। गोकि लालू पहले भी बोल चुके हैं, कि उनका बेटा राजनीति नहीं करेगा तो क्या भैंस चराएगा और उनकी इसी बात पर उनके पुराने संगी पप्पू यादव किनारा करने पर मजबूर हो गए।

जाहिर है कि नीतीश ही मुख्यमंत्री होंगे। असली चुनौती उनके लिए एस जीत के बाद होगी। उनकी छवि भी सुशासन बाबू की रही है जिन्होंने लालू-राबड़ी के शासन के दौर में साधु-सुभाष की वजह से फैली अराजकता को एनडीए का मुख्यमंत्री बनकर खत्म किया था। नीतीश ने बेशक विकास के बुनियादी सिद्धांतो का पालन किया और बिहार में सड़कें वगैरह बनवाईं, लेकिन अब विकास के दूसरे स्तर पर उन्हें अपने प्रशासन को ले जाना होगा और लालू ने अगर इसमें जरा भी लापरवाही दिखाई तो पहला धक्का नीतीश की विकास-पुरुष वाली छवि को लगेगा। इसलिए राजनीतिक पंडितों की पैनी निगाह इस गठबंधन की कामयाबी पर है।

अगर इस गठबंधन को असल में कामयाब होना ही है तो इसको पड़ोसी सूबे उत्तर प्रदेश से एक सबक लेना ही चाहिए, जहां 1993 में ऐसा ही एक गठजोड़ बना तो था लेकिन धराशायी हो गया था। इस वक्त राम मंदिर का मुद्दा बहुत गरम था और 1992 में गठित समाजवादी पार्टी और 1984 में बनी बहुजन समाज पार्टी ने हाथ मिलाए थे। सरकार गठित हई थी और उसको बाहर से समर्थन दिया था कांग्रेस ने। तब तक अयोध्या में विवादास्पद ढांचे को कारसेवकों ने गिरा दिया था और मायावती ने बहुजन समाज के लोगों को एक समाजवादी मुलायम सिंह यादव का नेतृत्व मानने के लिए मना लिया था। लेकिन 1995 के मध्य तक, मुलायम और मायावती एक दूसरे के घोर दुश्मन में तब्दील हो गए। 18 महीने तक चली यह सरकार आखिरकार कड़वाहटों के बीच 1995 के जून में गिर गई थी।

इस गठबंधन के धराशायी होने के अमूमन तीन कारण गिनाए जाते हैं। अव्वल, अपनी-अपनी जातियों की रहनुमाई करने वाले नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाएं, दोयम, सत्ता के दो केन्द्र बन जाना, जो अपने जनाधार या सीधे शब्दों में कहे तो अपनी जातियों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे और तीसरा, सामाजिक और ज़मीनी स्तर पर यह राजनीतिक गठबंधन स्वीकार्य नहीं था।

नीतीश और लालू दोनों ही दो ताकतवर और आक्रामक जातियों के नेता हैं। चुनाव जीतने के बाद इन जातियों की उम्मीदें भी बढ़ गई होंगी। लेकिन इन दोनों ही नेताओं को अब इस राजनीतिक गठजोड़ को जमीनी स्तर पर ले जाना होगा। इसका सीधा मतलब है यादवों, दलितों और कुर्मी-कोइरी जैसी खेतिहर जातियों को एक साथ लाना। नीतीश और लालू अगर इस गठबंधन की उम्र लंबी रखना चाहते हैं तो उन्हें दलितो और यादवों के संघर्ष को कम करना होगा, और यादवों से साथ कुर्मियों के संघर्ष को भी।

जो लोग बिहार को जानते हैं उन्हें पता होगा, यह काम लिखने में आसान है लेकिन जमीनी रूप में यादवों-कुर्मियों-दलितों के जातीय संघर्ष को पिघलाना टेढ़ी खीर है।

Monday, November 16, 2015

मिथिला की औद्योगिक उपेक्षा

बिहार में चुनावी यज्ञ अब पूर्णाहुति की तरफ बढ़ रहा है। जम्हूरियत के इस जश्न के दौरान जब मैं यह स्तंभ लिख रहा हूं तो पांचवे चरण का मतदान चल रहा है, और आज के मतदान का प्रतिशत एनडीए और महागठबंधन की चुनावी जीत तय करेगा। ज्याद वोटिंग एनडीए के पक्ष में होगा, साठ फीसद से कम मतदान महागठबंधन के पक्ष में। हालांकि यह आंकड़ा हमेशा सच नहीं होता।

इस चुनाव को कवर करते हुए मैं बिहार के उत्तरी इलाकों में खूब घूमा। मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि आखिर बिहार के लोग बड़े पैमाने पर दूसरो राज्यों की ओर पलायन क्यों करते हैं, और नीतीश कुमारे के दस साल के सुशासन में आखिर उत्तर बिहार को क्या कुछ हासि हुआ। नीतीश जब लालू के जंगल राज के खिलाफ 2005 और 2010 में चुनाव लड़ रहे थे और एऩडीए का हिस्सा थे तब उन्होंने मिथिला के इलाकों में पड़े चीनी मिलों और पेपर मिलों के साथ चावल मिलों के नया जीवन देने का वायदा किया था। एक दशक बाद उत्तर बिहार का औद्योगिक सच जानने में मैं दरभंगा के पास अशोक पेपर मिल पहुंचा था।

असल में, अशोक पेपर मिल मिथिला इलाके के औद्योगीकरण के खत्म होते जाने और उसके साथ ही रोज़गार के साधनों के छीजते जाने की मिसाल है। यह मिल लूट और भ्रष्टाचार के वजह से एक फलते-फूलते उद्योग के मिट जाने की कहानी भी है। बार-बार दोबारा शुरू किए जाने के सियासी वादों और उन वादों के टूटते जाने की भी दास्तान है यह मिल। दरभंगा से करीब नौ किलोमीटर जाने पर एक ढांचा दिखाई देता है, हरे खेतों के बीच खड़ा बड़ा सा कारखाना। पहले जहां मजदूरों की चलह-पहल रहती थी वहां अब भैंसे चरती दिखाई देती हैँ।

इस मिल की स्थापना दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने 1958 में तब की थी जब जमींदारी के खात्मे का बड़ा शोर था और महाराज खुद को एक उद्योगपति-राजनेता में बदल लेने को तत्पर थे। किसानों से जब 400 एकड़ जमीन अधिगृहीत की गई तब रोज़गार और समृद्धि के सपने उन्हें दिखाए गए थे। उस वक्त यह उत्तरी बिहार का पहला और एकमात्र भारी उद्योग था। लेकिन 1963 में इसका लिक्विडेशन शुरू हो गया और सरकार ने 1970 में इसका अधिग्रहण कर लिया। तब असम और बिहार की राज्य सरकारों और केन्द्र ने मिलकर इसको संयुक्त उपक्रम में बदल दिया और वित्त प्रदाता आईडीबीआई ने पूंजी की व्यवस्था की।

अशोक पेपर मिल बेहद उम्दा कागज उत्पादित करता था। लेकिन नौकरशाहीनुमा लचर प्रबंधन और यूनियनबाज़ी की वजह से 1982 में यहां कागज का उत्पादन बंद करना पड़ा। इसके साथ ही 1200 कामगार बेकार हो गए। 1987 में अशोक पेपर मिल को शुरू करने की पहल की, लेकिन अनुदान मिला असम वाली यूनिट की। दरभंगा वाली इकाई यूं ही बंद पड़ी रही।

साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मिल का निजीकरण कर दिया गया। नोर्बू कैपिटल एंड फिनांस लिमिटेड नाम की कंपनी को बिहार और असम सरकार के हिस्से के 6 करोड़ रूपये 16 किस्तों में चुकाकर अशोक पेपर मिल स्वामित्व मिलना था, लेकिन अद्यतन जानकारी के मुताबिक कंपनी से सिर्फ दो किस्तें जमा कीं। अदालत के आदेश के बावजूद, कंपनी ने कामगारों का पिछला कोई बकाया भुगतान नहीं किया। जबकि अदालत की शर्त थी कि वह मौजूदा 471 कामगारों को काम पर रखते हुए 18 महीने के भीतर उत्पादन का पहला फेज शुरू कर दे। लेकिन पहला फेज कभी शुरू नहीं हुआ, न कामगार रखे गए बल्कि वर्किंग कैपिटल के नाम पर वित्तीय संस्थाओं से 30 करोड़ रूपये की उगाही कर ली गई। शर्त यह भी थी कि कंपनी मिल के परिसर से कोई परिसंपत्ति बाहर नहीं ले जा सकती।

1998 में ट्रायल रन किया गया। इंजीनियरों ने रिपोर्ट दी कि मिल की 95 फीसद मशीनरी दुरुस्त है। इस रिपोर्ट के आधार पर कंपनी ने एक दफा फिर यनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया से 8 करोड़ रूपये वर्किंग कैपिटल के तौर पर उधार ले लिए। तथापि, मरम्मत के बहाने मशीनरी बाहर ले जाकर बेच दी गई। स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि 6 करोड़ में हासिल किए गए मिल से कंपनी 28 करोड़ कमा चुकी है वह भी सिर्फ मशीनरी को बेचकर। लोग बताते है कि कंपनी ने परिसर के भीतर के ढाई हजार पेड़, डेढ़ किलोमीटर लंबी पानी की पाइप लाईन, रेलवे ट्रैक, और मोटर वगैरह बेच दिए हैं।

मुझे इधर-उधर ताकते हुए देखकर मिल में मौजूद सुरक्षा गार्ड आ जाते हैं। उनके मन में भी इस बात के प्रेस में जाने और फोटो छाप देने पर नौकरी जाने का डर है। मिल के सुरक्षाकर्मी को भी कई सालों से वेतन नहीं मिला है।

राज़ यही खुलता है कि आखिर क्यों मिथिला का नौजवान बिहार से बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपनी श्रम बेचने को मजबूर है। साथ ही, बाहरी होने का दंश तो है ही। अपनी ज़मीन जब सियासी और कॉरपोरेट साजिश का शिकार हो, तो झेलेगा तो इलाके का नौजवान ही।

Friday, November 13, 2015

जड़ो को बचाने की असली सांस्कृतिक चिंता

बिहार चुनाव को कवर करना बेहद अहम है। पिछले सप्ताह जब मैं इस स्तंभ में लिख रहा था तो मैंने कहा था कि बिहार के इस बार के चुनाव देश की राजनीति के समीकरण बदल देंगे। इस बार का चुनाव भी नए सियासी ककहरे गढ़ रहा है।

इन दिनों मैं उस इलाके में हूं, और खूब घूम रहा हूं जिसे सीमांचल और मिथिलांचल कहा जाता है। यानी दरभंगा-मधुबनी और कटिहार-किशनगंज-पूर्णिया वाला इलाका।

ऐसे ही दरभंगा में घूमते चाय की दुकान पर लोगों को टहोकते हुए एक शख्स टकरा गए। काफी गरम हो रहे थे। करते रहिए रिपोर्टिंग। लिखते रहिए। टीवी पर दिखाते रहिए, मिथिलांचल खत्म हो रहा है, विरासत मिट रही है। दही-चूड़ा-पान-मखाना-मछली की तहजीब गायब होती जा रही है और किसी को इस बात की चिंता भी नहीं। भोगेन्द्र झा चौक है दरभंगा में। गंदे नाले के किनारे चाय पर चुनावी चर्चा में वह शख्स कहे जा रहे थे कि चुनावी आपाधापी में लोगों को वोट की चिंता है, लेकिन संस्कृति की बात करना दक्षिणपंथी हो जाना हो गया है आजकल। संस्कृति के नाम पर असली काम कम, हो-हल्ला ज्यादा है।

असल में, दही-चूड़ा-पान-मखाना-मछली मिथिला की पहचान है। मिथिला में तालाबों-पोखरों की बहुतायत रही है। बढ़ते और अनियोजित शहरीकरण (घटिया शब्द है यह, असल में यह बस्तियों का कंक्रीटीकरण है) ने तालाबों को पाट दिया। बचे-खुचे तालाबों में जलकुंभी पनप आए है। पोखरों के गाद की उड़ाही की फुरसत न सरकार को है। और आम आदमी अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को निभाने से मुकरता रहा है। ऐसे में, जिस मधुबनी जिले में एक हजार से अधिक तालाब-पोखर थे, वहां अब मछलीपालन से उत्पादन और बाहर मछली भेजना तो दूर की बात, घरेलू जरूरत भी पूरी नहीं होती।

मधुबनी दरभंगा में डेढ़ दशक पहले तक मछलीपालन बड़ा व्यवसाय था और यहां से मछली कोलकाता तक भेजी जाती थी। लेकिन अब मत्स्यपालन बंद कर दिया गया है। कुछ तालाबों में खेत बन गए हैं कुछ बस्तियों में बदल गए हैं। इस वजह से हर रोज़ मधुबनी जिले में आठ से दस ट्रक मछली आंध्र से आया करती है। यही हाल दूध और दही का भी है। पहले हर घर में पशुपालन हुआ करता था अब सहकारी संघो में भी महज 11 हजार लीटर ही दूध इकट्ठा किया जाता है। मिथिला के गांवों में शादी-ब्याह मुंडन-जनेऊ में दूध दही की भारी मांग होती है और उसे पूरा किया जाता है पाउडर वाले दूध से।

मधुबनी में साल 2009 में 450 मिलीलीटक दूध की खपत प्रति व्यक्ति थी, जो साल 2013 में घटकर 120 मिलीलीटर रह गई है। मखाना, सिंघाड़ा और पान के उत्पादन को सरकार ने बढ़ावा देने की बातें कहीं थीं, लेकिन वह चुनावी वादा महज वादा ही रहा। जमीन पर कोई चीज़ नहीं उतरी।

गांवों में घूमने पर बुजुर्गवार भी नौजवानों से कुछ परेशान नजर आते हैं। हर नौजवान के पास स्मार्ट फोन है और इंटरनेट सहज उपलब्ध है तो पॉर्न साइटों तक इन नाबालिगों की भी पहुंच है। झंझारपुर के पास महनौर गांव के बुजुर्गों ने मुझसे कहा कि इस इंटरनेट ने बच्चों को साफ बिगाड़ दिया है।

हर नौजवान के मोबाइल के मेमरी कार्ड में भोजपुरी गीत भरे पड़े हैं। अश्लील गीत। इस पर न तो रोक है न रोक लगाई जा सकती है। लेकिन मिथिला की जिस शांत और साहित्यनिष्ठ संस्कृति को हाल तक बचाए रखा जा सका था वह छीज रही है। मुझे इंटरनेट के रास्ते पूरी दुनिया के एक विश्वग्राम में बदल जाने में कोई उज्र नहीं है लेकिन सवाल मथता है उन संस्कृतियों का, जिसे यह ग्लोबल विलेज लील रहा है।

मिथिला के गांव-गांव में विद्यापति के बदेल गुड्डू रंगीला का अश्लील शोर है। बालिगों की अभिव्यक्ति की आजादी पर मुझे कोई दुविधा नहीं, वह है और होनी चाहिए। लेकिन हम जिन सांस्कृतिक निधियों को दुनिया के सामने पेश करना चाहते हैं उसे बचाए रखना हमारा फर्ज है। मिथिला के गांवों में गूंजने वाले नचारी, सोहर, बारहमासा जैसे गीत, विदापत, लोरिक-लोरिकाइन, जट-जटिन जैसी सांस्कृतिक परंपराएं अस्तित्व खोती जा रही है। क्यों भला? क्या मिथिला में ऐसी कोई औद्योगिक क्रांति हो गई कि सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य बदलने जरूरी हो गए हैं? नहीं। कत्तई नहीं।

अगले स्तंभ में, मिथिला इलाके के कुछ औद्योगिक संस्थानों की हालत बताऊंगा तो शायद स्थिति अधिक साफ होगी। फिलहाल तो मैं गांवो से लेकर शहरों तक एकरसता-सा अनुभव कर रहा हूं। पूरे बिहार में, एक जैसे मकान, एक जैसी गंदगी, एक जैसे होते जा रहे पहनावे और एक जैसी सांस्कृतिक दुविधा। हर जगह एक जैसा शोर है। कहीं जींस ढीला करने का तो कहीं गमछा बिछाने का। मिथिला की गलियों में ऐसी अवांछित अश्लीलता कभी न थी।

Thursday, November 12, 2015

आत्मदाह की किसान की फरियाद

आजकल हम छींकते भी हैं तो उसमे बिहार के चुनाव का शोर-सा सुनाई देता है। कसम कलकत्ते की, नीतीश-लालू के महागठबंधन और बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने इस दफा घोषणापत्रों की बजाय विज़न डॉक्युमेंट्स जारी किए हैं। घोषणापत्र का फ़ैशन पुराना पड़ चुका है और मैनिफेस्टो कम्युनिस्टी लफ्ज़ मालूम पड़ता है। विज़न डाक्युमेंट सही है। नया है। चलेगा।

दोनों विज़न डॉक्युमेंट्स में किसानों के लिए कुछ कहा गया है। उस कुछ में से खास यह है कि कृषि के लिए अलग से बजट तैयार किया जाएगा। ठीक है। अलग से बजट तैयार करने वाले कर्नाटक में ही किसानों का क्या भला हो गया। बिहार में भी अलग से बजट पेश कीजिएगा। वैसे, सनद रहे कि बिहार के किसान आत्महत्या नहीं करते हैं। तमाम परिस्थितियां है आत्महत्या के मुफीद, लेकिन ढीठों की तरह जिए जाते हैं। ईंट ढोते हुए जिंदगी गुजार देते हैं, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाते।

आमतौर पर किसान आत्महत्याओं की खबरों में हम उम्मीद करते हैं कि यह खबर बुंदेलखंड या विदर्भ से होगी। या फिर आजकल आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और बंगाल से भी आत्महत्या की खबरें आऩे लगी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश आत्महत्या के मानक पर मुझे लगता था कि थोड़ा संपन्न है।

लेकिन, क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश, क्या मेवात, क्या बुंदेलखंड और क्या विदर्भ, देश भर में किसानों की हालत बदतर ही होती जा रही है। मुज़फ़्फ़रनगर से थोड़ी ही दूरी पर है शामली ज़िला। वहीं याहियापुर के दलित किसान हैं, चंदन सिंह।

चंदन सिंह ने भारत के राष्ट्रपति को अर्ज़ी भेजी कि उन्हें सपरिवार आत्मदाह की अनुमति दी जाए। बुंदेलखंड के उलट याहियापुर के इन किसान चंदन सिंह की आत्महत्या की कोशिश की एक वजह कुदरत नहीं है।

चंदन सिंह गरीबी और तंत्र से हलकान हैं।

हुआ यूं कि सन् 1985 में ट्यूब वैल लगाने के लिए चंदन सिंह मादी ने भारतीय स्टेट बैंक से 10,000 रूपये कर्ज़ लिए। वो कर्ज़ मर्ज़ बन गया। उस रकम में से चार किस्तों में चंदन सिंह ने 5,700 रुपये का कर्ज़ चुका भी दिया था।

लेकिन, इसी वक्त केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बन गई। यूपी में मुलायम मुख्यमंत्री बने। सरकार ने ऐलान किया कि दस हज़ार रूपये से कम के सार कृषि ऋणों की आम माफ़ी की जाएगी। चंदन सिंह का बुरा वक़्त वहीं से शुरू हुआ।

चंदन सिंह को लगा कि कर्ज माफी में उनका नाम भी आएगा। चंदन सिंह याद करते हुए बताने लगते हैं, कि किसतरह बैंक के लोगों ने उनसे दो हजा़र रूपये घूस के लिए मांगे थे। घूंघट की आड़ से उनकी पत्नी बताती हैं कि गांव का अमीन भी शामिल था। लेकिन, बहुत हाथ पैर मारने के बाद भी चंदन सिंह 700 रूपये ही जुगाड़ पाए।

जाहिर है, उनका नाम कर्ज माफी की लिस्ट में नहीं आ पाया।

चंदन सिंह इसके बाद किस्तें चुकाने में नाकाम रहे तो पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई। चौदह दिन तक जेल में भी बंद रहे। अनपढ़ चंदन सिंह को लगा कि जेल जाने से शायद कर्ज़ न चुकाना पड़े आगे।

लेकिन, अगले तीन साल तक कोई ख़बर नहीं आई।

सन् 1996 में, बैंक ने उनके 21 बीघे ज़मीन की नीलामी की सूचना उन्हें दी तो वो सन्न रह गए। फिर शुरू हुआ गरीबी का चक्र। कर्ज़ की रकम बढ़कर बीस हज़ारतक पहुच गई। 21 बीघे ज़मीन महज 90,000 रूपये में नीलाम कर दी गई।

भारतीय किसान यूनियन के स्थानीय नेता योगेन्द्र सिंह बताते है कि आत्महत्या के लिए गुहार का फ़ैसला बिलकुल सही है। अगर चंदन सिंह की जमीन उसे वापस ही नहीं मिली तो इसके 13 लोगों के परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा। ये क्या, इसके साथ तो हमें भी मरना होगा।'

चंदन सिंह की पत्नी भी कहती है, जमीन न रही तो बच्चे फकीरी करेंगे, फकीरी से तो अच्छा कि मर ही जाएं। गला रूंध आता है। आंखों के कोर भींग आते हैं। मैं कैमरा मैन से कहता हूं, क्लोज अप बनाओ।

चंदन सिंह का परिवार अब दाने दाने को मोहताज है। बड़े बेटे ने निराशा में आकर आत्महत्या कर ली, बहू ने भी। चौदह साल की बेटी दो सला पहले, कुपोषण का शिकार होकर चल बसी।

चंदन सिंह दलित किसान हैं। लेकिन दलितों की नेता मायावती के वक्त में भी उनकी नहीं सुनी गई। कलेक्ट्रेट में ही उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। पखवाड़े भर फिर जेल भी रह आए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।

बाद में कमिश्नर के दफ्तर से उन्हें सत्तर हज़ार रूपये (नीलामी के बाद उनके खाते में गई रकम) की वापसी पर ज़मीन कब्जे का आदेश मिला। उन्होंने वो रकम वापस भी कर दी। लेकिन सिवाय उसकी रसीद के कुछ हासिल नहीं हुआ। कमिश्नर का आदेश भी कागजो का पुलिंदा भर है।

अब चंदन सिंह अपने हाथों में मौत की फरियाद वाले हलफ़नामे लेकर खड़े हैं। सूरज तिरछा होकर पश्चिम में गोता का रहा है। सामने खेत में गेहूं की फसल एकदम हरी है। लेकिन चंदन सिंह का मादी की निगाहें खेत को हसरत भरी निगाहों से देख रही है।

सूरज की धूप...पीली है, बीमार-सी।

क्या चंदन सिंह की कहीं सुनी जाएगी? यह मेरा सवाल भी है और फरियाद भी।

Friday, October 16, 2015

फिर पत्तों की पाजेब बजी

महाराष्ट्र की पार्टी शिवसेना ने एक बार फिर से अपना फतवा जारी किया है। पहले वह फतवों का विरोध किया करती थी, अब वह फतवा जारी करती है। पहले वह क्रिकेट मैच के पहले पिच पर मोबिल डाल देती थी, विकेट को खराब कर देती थी। अब इस पार्टी को गानों पर फतवा जारी करना पड़ा। इस पार्टी ने मांसाहार पर बैन का विरोध किया था। अब यह पार्टी मुंबई में ग़ुलाम अली के गाने को बैन करना चाहती है।

बैन करना शिवसेना का शगल है। बहुत पहले इसने एक पत्रिका को, एक चित्रकार को, और कई फिल्मों को बैन किया है। बैन करने वाली इस पार्टी का एक सांस्कृतिक प्रकोष्ठ भी है और एक फिल्म प्रभाग भी। इनको गाना तो पसंद है लेकिन पाकिस्तानी गायकों का गाना बिलकुल पसंद नहीं है।

इस पार्टी के सुप्रीमो पुराने और दिवगंत सुप्रीमो के पुत्र हैं। लेकिन यह पार्टी परिवारवाद का विरोध करती है। नए वाले सुप्रीमो के बेटे का भी राजतिलक होगा, ऐसा लोगों को अभी से लगता है। लेकिन पार्टी अभी भी परिवारवाद के खिलाफ है।

शिव सेना के नए वाले सुप्रीमो कमजोर हैं, ऐसा लोग मानते हैं। लेकिन जानकार उनके चचेरे भाई के मनसे को शिवसेना का वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी मानते हैं। दोनों पार्टियों में बैन लगाने और हल्ला मचाने की भारी स्पर्धा है। लेकिन पार्टी के कमजोर कहे जाने वाले सुप्रीमो के पास एक फौज है, जिसको लोग शिवसेना कहते हैं। लोग उसे शिव की फौज नहीं कहते।

शिवसेना ऐसे लोगों को पसंद नहीं करती जो उसकी बात नहीं मानती। दो सौ सालों की गुलामी के बाद भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, ऐसा इतिहास की किताबें कहती हैं। लेकिन बाहर के लोगों को मुंबई नहीं आना चाहिए, ऐसा शिवसेना कहती है। महाराष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है और दुनिया के सभी बड़ी कंपनियों के दफ्तर हैं—ऐसा सरकारी वेबसाइट कहती है।

माइकल जैक्सन नामक एक महान गायक और नर्तक था। वह मराठी मानुष नहीं था। गैर-मराठी भी सम्मान के योग्य होते होते हैं,ऐसा भारत का संविधान कहता है। माइकल को महाराष्ट्र के मुंबई में बुलाया गया था। उसे शिव उद्योग सेना ने बुलाया था। शिव सेना को अमेरिकी गायकों से कोई उज्र नहीं है। पाकिस्तानियों से है।

तब के सुप्रीमो बाल ठाकरे को माइकल जैक्सन की नृत्यकला पसंद थी। विदेशों से लोग रोजाना मुंबई आते हैं ऐसा पर्यटन विभाग के आंकड़े कहते हैं। माइकल पहला ऐसा गैर-मराठी था जिसे बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र आने का न्योता दिया, ऐसा सभी कहते हैं। माइकल जैक्सन का नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज है। माइकल को मराठी गीत नहीं याद थे। माइकल सुरक्षित अपने देश पहुंच गया था। ऐसा अखबारों की रिपोर्ट कहती है।

शिवसेना बंबई का नाम बदलकर मुंबई कराया। नामों का गलत उच्चारण शिवसेना को पसंद नहीं। शास्त्रों में भूल के लिए क्षमा करने को कहा गया है। शास्त्रों का मराठी अनुवाद अभी पूरा नहीं हुआ है। महाराष्ट्र के बाहर के लोग सुंदर नहीं होते, ऐसा शिव सेना कहती है। सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत के लोगों ने बहुत कम बार खिताब जीता है, ऐसा गूगल कहता है। गैर-मराठियों को महाराष्ट्र से चले जाना चाहिए ऐसा शिव सेना कहती है।

कुछ लोग शिवसेना की बात आसानी से समझ लेते हैं। कुछ नहीं समझते। भारत में बात मनवाने के लिए समझाने के अलावा एक और तरीका भी इस्तेमाल किया जाता है। महात्मा गांधी इसे हिंसा कहते थे। तमिल लोग लुंगी पहनते हैं। शिव सेना को लुंगी पहनना पसंद नहीं। तमिलनाडु भारत गणराज्य का एक प्रदेश है। तमिलनाडु के लिए मुंबई से कई सीधी ट्रेने हैं।

भारत में पहली रेल महाराष्ट्र में चलाई गई थी। भारतीय रेल का नेटवर्क दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। बिहार और यूपी महाराष्ट्र से रेलमार्ग से जुड़ा है। शिवसेना वालों का सामान्य ज्ञान औसत से बेहतर है। उत्तर भारतीय गंदगी फैलाते हैं ऐसा शिवसेना कहती है। मुंबई के विकास में उनका भी योगदान है—ऐसा उत्तर भारतीय कहते हैं। मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है, ऐसा विश्व बैंक कहता है। मुंबा देवी के मंदिर के आसपास बसी एक बस्ती की किस्मत बनाने में उत्तर भारतीयों ने अपना खून-पसीना लगाया है, ऐसा गूगल में पड़े रिपोर्ट कहते हैं। यह रिपोर्ट अंग्रेजी में है।

बाल ठाकरे के पूर्वज बिहार से थे, ऐसा दिग्विजय सिंह ने कहा। दिग्विजय सिंह पढ़े-लिखे हैं ऐसा संसद की वेबसाइट पर छपी उनकी प्रोफाइल कहती है। दिग्विजय सिंह एक किताब रखते हैं। किताब बाल ठाकरे के पिताजी ने संपादित की थी। ठाकरे परिवार बिहार से मध्य प्रदेश होता महाराष्ट्र आया, ऐसा किताब कहती है। यह दुष्प्रचार है ऐसा शिवसेना कहती है। महाराष्ट्र के बाहर से हजारों लोग रोजाना रेलगाड़ी से मुंबई आते हैं। शिवसेना इस पर क्रोध करती है।

शिवसेना के एक भी सराहनीय कार्य की चर्चा गूगल पर नहीं है। गूगल का मालिक मराठी मानुष नहीं है।

Wednesday, October 7, 2015

और अब जीएम सरसों

जीएम मतलब जेनेटिकली मॉडिफाइड। इस शब्द के ज़रिए हम उस टर्म से बावस्ता होते हैं जिनके जीन में कुछ बदलाव लाकर उन्हें कीट प्रतिरोधी, सूखा प्रतिरोधी, लवणता प्रतिरोधी या अधिक उत्पादक बनाया जाता है। पिछले कई हफ़्तों से हमलोग लगातार बिहार में गठबंधनों की बातें करते आ रहे हैं। बिहार के यह चुनावी गठजोड़ भी आनुवंशिक अभियांत्रिकी से बनाए गए हैं। आप सीधी ज़बान में, जोड़-तोड़ मान लें। बिहार चुनाव पर एकरस बातें हो रही हैं। मन उकता गया है। वोटिंग होने से पहले ही चुनाव से जी उकता जाना लोकतंत्र के लिए अच्छे आसार नहीं हैं।

बहरहाल, मैं इस बार जीएम सरसों की बात करना चाह रहा हूं क्यों पर्यावरण और वन मंत्रालय जीएम सरसों की एक किस्म डीएमएच-11 के व्यावसायिक उत्पादन को अनुमति देने जा रही है। साल 2010 में मंत्रालय ने बीटी बैंगन के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया था, नहीं तो बैंगन आनुवंशिक रूप से परिवर्तित पहली फसल होती।

जीएम सरसों के पक्ष में तर्क यही है कि देश को हर साल 60 हज़ार करोड़ रूपये का खाद्य तेल आयात करना पड़ता है। अगर सरसों का देशज उत्पादन बढ़ जाएगा तो आयात का भार कम होगा। लेकिन इस तर्क में एक झोल है। असल में, इतनी भारी मात्रा में आय़ात की एक बड़ी वजह आयात शुल्क का 300 फीसद से घटकर शून्य तक आना है।

तथ्य यह भी है कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान देश में तिलहन टेक्नॉलजी मिशन की शुरूआत हुई थी। उस वक्त हमारे कुल जरूरतों का तकरीबन 50 फीसद खाद्य तेल आयातित हुआ करता था। लेकिन इस मिशन की वजह से नब्बे के दशक के मध्य तक भारत तिलहन उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया था। तो अब आयात का बिल इतना बड़ा कैसे हो गया?

डब्ल्यूटीओ के मानको के हिसाब से हम 300 फीसद तक आयात शुल्क लगा सकते हैं लेकिन शून्य क्यों है यह समझ के परे है। वैसे, बताते चलें कि साल 2010-11 में देश में तिलहन का 81.8 लाख टन रेकॉर्ड उत्पादन हुआ था। यह भी मौजूदा खेतिहर परिस्थितियों में। अगर सरकार खेती में लागत की कमी को थोड़ा प्रोत्साहन दे तो परिस्थितियां और बेहतर हो सकती हैं। उत्पादन के बाद तिलहन खरीद की स्थिति कितनी बदतर है राजस्थान इसकी मिसाल है। जहां जरूरत से अधिक उत्पादन और गिरती कीमत की वजह से नाफेड स्थिति संभालने के लिए आगे आती है।

अब जीएम सरसों के पक्ष में दावा यह किया गया है कि सरसों की यह नई किस्म पारंपरिक नस्लों के बनिस्बत 20-25 फीसद अधिक पैदावार देती है और इससे निकले तेल की क्वॉलिटी भी बेहतर होगी। मैं निजी तौर पर अधिक उत्पादन वाली नस्लों के पक्ष में हूं। आखिर हमें अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों का पेट भरना है। तथ्य यह है कि जब बीटी बैंगन के पक्ष में हवा बनाई जा रही थी तब यह तर्क दिया जा रहा था कि बैंगन की फसल को एक खास किस्म का कीट नुकसान पहुंचाता है। इससे किसानों को बड़ा नुकसान झेलना पड़ता है।

लेकिन बीटी बैंगन ऐसे किसी भी नुकसानों के मद्देनज़र किसानों का तारणहार साबित होने वाला था। बीटी बैंगन नहीं आया, और पिछले पांच साल से हमने भी बैंगन उत्पादक किसानों के किसी संकट के बारे में भी नहीं सुना।

तो नया उत्पाद लाने के मामले में बीटी बैंगन जैसे दावे भी सात हफ्तों में गोरा बनाने वाली क्रीम जैसा ही फर्जी लग रहा है। वैसे भी तेल की गुणवत्ता मे सुधार उसके पौधे मे सुधार लाने से अधिक उत्पादन की मशीनरी और प्रक्रिया से जुड़ा मसला है। इस तरफ खाद्य प्रसंस्करण महकमे को ध्यान देना चाहिए।

सरसों का तेल शब्द से हम जैसे मिथिलावासी उसमें तले जाते रोहू माछ का ध्यान ही करते हैं। लेकिन इसे आप बिसराए जा चुके ड्रॉप्सी से भी जोड़ सकते हैं।

बहरहाल, जीएम कपास और बैंगन के बाद सरसों की बारी है। अधिक उत्पादन का लालच हमें अपनी खींच जरूर रहा है लेकिन आनुवांशिक अभियांत्रिकी से बने सरसो, मक्के और चावल का मानव शरीर पर क्या असर होगा इसका अध्ययन होना बाकी है। या अगर अध्ययन हुआ होगा भी, तो वह कितना संपूर्ण होगा यह पता नहीं।

मैं तो बड़ी दिलचस्पी से बिहार के चुनावी गठबंधनों और जीएम फसलों के परिणाम की ओर ध्यान लगाए बैठा हूं। आखिर, दोनों के जीन में कुछ बदलाव तो लाया ही गया है। क्य पता बड़े शानदार परिणाम हों? या शायद टांय-टांय फिस्स? देखते हैं।

Tuesday, September 29, 2015

परिवार, जाति, और बिपाशा और टीवी पर दिखती टल्ली लड़की

मैं अब अमूमन टीवी पर खबरें देखने की जहमत नहीं उठाता। खासकर निजी चैनलों पर। खबरों का मुहावरा सिर्फ डीडी के पास रह गया है। लेकिन आदत है जो जल्दी जाती नहीं। आदतन टीवी खोला, इस उम्मीद में कि टीवी पर कुछ खबरें देख लूं।

मुझे हैरत नहीं, गुस्सा आया कि अमूमन हर चैनल पर एक ही पट्टी चल रही थी, अगले आधे घंटे बाद नशे में टल्ली लड़की का थाने में हंगामा। विजुअल इम्पैक्ट रहा होगा कुछ उस खबर में। मुंबई देहरादून हर जगह लड़की का नशे में होना खबर बन गया।

टीवी पत्रकारिता में खबर का बिकाऊ होना एक बड़ी शर्त हो गई है। वैसे हैरत होनी नहीं चाहिए। जिस देश में, पैर की बिवाईयां सूखे खेतों में पड़ी दरारों से अधिक महत्वपूर्ण हो, जिस देश में सिर में डैंड्रफ की समस्या किसानों की आत्महत्या से अधिक अहम हो, जहां गोरेपन की क्रीम को महिला के आत्मविश्वास के लिए जरूरी माना जाता हो और जहां एक लड़के-लड़की के रिश्ते की नींव डियोडरेंट की खुशबू हो, वहां नशे में टल्ली लड़की का हेडलाइन होना बनता ही है।

अब इस विषय पर ज्यादा टिप्पणी की जाए तो भी टीवी पर खबरों का कुछ होने वाला नहीं है। बुधवार को नीतीश कुमार भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखे। अठारह-उन्नीस साल बाद नीतीश को पता चला कि बीजेपी आरएसएस के कहने पर चलती है। नीतीश की दिक्कत है कि विकास पुरूष वाला उनका तमगा उनसे छिन गया है और वह हवा-हवाई मुद्दे उछालने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बीच, खबरों के नाम पर बिहार में महागठबंधन, एनडीए और कथित तीसरे मोर्चे ने अपने प्रायः सारे उम्मीदवारों के नामों की सूची जारी की। टिकट पाने वालों की बल्ले-बल्ले हुई है, बेटिकट कभी प्रेस वार्ता में ही रोए-चीखे-चिल्लाए। बिहार की जनता दम साधे हुई है।

जनता दम साधे देख रही है कि बिहार में एक बार फिर परिवार का दबदबा है। लालू के दोनों बेटे, तेजस्वी और तेजप्रताप टिकट पा गए हैं। यह बात भी कोई हैरत वाली नहीं है। पप्पू यादव इसी वजह से लालू से नाराज़ हुए थे। लालू ने दो टूक कह ही दिया था, उनके बेटे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो क्या भैंस चराएंगे।

लेकिन सिर्फ आरजेडी ही नहीं, वंशवाद की बेल एनडीए के घटक दलों लोजपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा में भी काफी हरी है। और उतनी ही ताकतवर यह जेडीयू और कांग्रेस तक है।

लगभग सारी पार्टियों में कार्यकर्ताओं की हैसियत तो कौड़ी के तीन की ही है। इन कार्यकर्ताओ ने पहले बाप के लिए बैनर पोस्टर लगाए अब बेटे और बेटियों के लिए लगाएंगे।

एलजेपी में 3 प्रत्याशी तो पासवान परिवार के ही हैं। रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस, अलौली से और सांसद रामचंद्र पासवान के बेटे प्रिंस की कल्याणपुर सुरक्षित सीट से चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। सहरसा जिले की सोनबरसा सुरक्षित सीट से सरिता पासवान को टिकट मिला है वो रामविलास की रिश्ते में बहू लगती हैं। इस सूची में इस लेख के छपने तक संभवतया कुछ दामाद भी जुड़ जाएं। लोजपा के पूर्व सांसद सूरजभाऩ के साले रमेश सिंह को विभूतिपुर से टिकट मिला है। खगड़िया से लोजपा सांसद महबूब अली कैसर ने अपनी पुश्तैनी सिमरी बख्तियारपुर की सीट पर बेटे यूसुफ को उतारा है।

हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम के प्रमुख जीतन राम मांझी के बेटे संतोष और पिता पुत्र शकुनी चौधरी और उनके बेटे राजेश उर्फ रोहित भी उम्मीदवार हैं। चकाई और जमुई सीट पर पेंच हैं। दोनों सीटों पर नरेंद्र सिंह के दो बेटे बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। मांझी ने अपनी ओर से पांच उम्मीदवारों की लिस्ट बीजेपी को भेजी है उसमें इन दोनों के नाम हैं।

बीजेपी में ब्रह्मपुर सीट से सीपी ठाकुर हों या नंदकिशोर यादव, चंद्रमोहन राय हों या हुकुमदेव नारायण यादव या फिर जनार्दन सिंह सिग्रीवाल सब अपने बेटों के लिए जीतोड़ कोशिशों में लगे हैं।

महागठबंधन में लालू परिवार के अलावा आरजेडी सांसद जयप्रकाश नारायण यादव के भाई विजय प्रकाश को जमुई से आरजेड़ी का टिकट मिला है। बरबीघा सीट से पूर्व सांसद राजो सिंह के पोते सुदर्शन को टिकट दिया गया है।

वंशवाद तो खैर अब बिहार की राजनीति में आम बात है लेकिन चिंता की बात यही है कि चुनाव अभी भी जाति के आधार पर ही लड़ा जा रहा है। कोई मुद्दा उछालने की बात करे, तो बिजली-पानी-सड़क यानी बिपाशा ही चुनावी मुद्दा है। जनता बुनियादी मसलों के लिए वोट देने का मन बना भी रही हो, लेकिन नेताओं के लिए परिवार ज्यादा अहम है। शायद उनके मन में यही बात रही हो कि परिवार ठीक करो, तो दुनिया ठीक हो जाएगी। उधर, इंतजार इस बात का भी है टीवी वाले नशे में धुत्त किसी और लड़की का वीडियो खोज निकालें, चुनाव के बीच जनता का रसरंजन भी तो होते रहना चाहिए। इंशाअल्लाह।

Monday, September 21, 2015

मांझी का दंगल

हाल ही में एक फिल्म आई थी, दशरथ मांझी पर। उसमें एक संवाद था, जब तक तोड़ेगा नहीं, तब तक छोड़ेगा नहीं। बिहार चुनाव में जीतनराम मांझी भी नीतीश को तोड़ने के संकल्प के साथ हैं।

काफी माथापच्ची के बाद बिहार में एनडीए के बीच सीटों का बंटवारा हो गया। लेकिन इस सीट बंटवारे से भी विवाद कम नहीं हुए हैं। लोजपा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। क्योंकि वह सीट बंटवारे में अपनी तुलना उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के साथ दलित नेता के रूप में उभर चुके मांझी से भी कर रहे हैं। उधर, मांझी की पार्टी के नेता देवेन्द्र यादव ने इस्तीफा दे दिया, उनका तर्क है कि उन्हें कम से कम 50 सीटें तो मिलनी ही चाहिए थीं।

लेकिन सीटों के बंटवारे पर मांझी के पास नाराज़ होने के ज्यादा विकल्प थे नहीं। उनकी पार्टी नवजात है और उनकी पार्टी के सारे के सारे विधायक जेडी-यू के बाग़ी हैं। मांझी की पार्टी नेता अपने इलाकों के ही क्षत्रप हैं और उनका बाकी के इलाकों में कोई नामलेवा नहीं है। मुख्यमंत्री बनने से पहले जीतनराम मांझी को भी बहुत अधिक लोग जानते नहीं थे और उनकी सियासी दुनिया गया-जहानाबाद के इलाकों में थी। शकुनी चौधरी हों, या नरेन्द्र सिंह, नीतीश मिश्रा हों या वृषण पटेल, इनकी पूरे सूबे में कोई पुख्ता पहचान या जनाधार नहीं है और इनका जनाधार एक या दो विधानसभा सीटों तक महदूद है।

इसलिए मांझी के सामने खतरा यह था कि अगर उनकी बीजेपी के साथ सीटों पर समझौते की कोशिश नाकाम रहती या वह नाराज़ होकर एनडीए से बाहर निकल लेते, तो जीत के लिए बेचैन उनके ज्यादातर उम्मीदवारों में फूट पड़ती और पार्टी दोफाड़ हो जाती।

लेकिन, मांझी जिस महादलित वोटों के लिए खड़े हैं, तो राज्य में करीब 18.5 फीसद वोटर इस समुदाय से हैं। इसमें रविदास, मुसहर और पासवान शामिल है। बिहार की कुल अनुसूचित जातियों में से 70 फीसद यही तीन जातियां है। इनमें भी मुसहर की आबादी सबसे ज्यादा करीब साढे पांच फीसदी होती है। जबकि पासवान की आबादी साढ़े चार फीसदी के आसपास है। पासवान वोटों पर पूरी पकड़ रामविलास पासवान की है।

असल में रामविलास पासवान दलितों के बड़े नेता हुआ करते थे, और साल 2005 में उन्होंने 30 सीटें हासिल भी की थीं। बाद में नीतीश एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने महादलित वर्ग तैयार करके दलितों को दोफाड़ कर दिया था। नीतीश ने दलितों की कुल 22 उपजातियों में से 21 को महादलित बना दिया और उसमें सिर्फ पासवानों को शामिल नहीं किया।

पासवान का जनाधार इससे कमजोर पड़ गया था।

लेकिन लोकसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश ने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर अपने हिसाब से जो मास्टरस्ट्रोक खेला था, वही उनके लिए अभिशाप बनता नजर आ रहा है क्योंकि मांझी ने मौके को भुनाने में ज़रा भी ढील नहीं दी।

अब सबकी नजर बिहार की उन सुरक्षित 38 सीटों पर हैं और इस बात पर भी कि आखिर महादलितों का सर्वमान्य नेता बनता कौन है। नीतीश कुमार के साथ ही इस पदवी के लिए पासवान, रमई राम, श्याम रजक, उदय नारायण चौधरी और अशोक चौधरी जैसे नेता कतार में खड़े हैं।

वैसे, नीतीश कुमार ने एक निजी चैनल पर एक कार्यक्रम में कहा भी कि अगर बिहार की जनता उन्हें वोट नहीं करेगी तो वह यानी जनता लूज़र होगी, खुद नीतीश लूज़र नहीं होंगे। लूज़र कौन होगा यह नवंबर में नतीजों के दिन पता चलेगा लेकिन मांझी के उभार और एनडीए के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के बरअक्स नीतीश का ऐसा बयान उनके डिगते आत्मविश्वास को ही बताता है।


Saturday, September 19, 2015

लेह-लद्दाख में आवारगी

हमारी फ्लाइट लेह उतरने के लिए बादलों से नीेचे उतरी तो दोनों खिड़कियों से झांकने वाली मुंडियां बाहर झांकने लगी थीं। महान हिमालय की बर्फ़ से ढंकी चोटियां दोनों तरफ नज़र आ रही थीं। 

विमान के बाईं तरफ वाली खिड़की से थोड़ा कम, दाहिनी तरफ थोड़ा ज्यादा। विमान को आड़े-तिरछे चक्कर काटकर रनवे पर उतरना पड़ा। मुझे भूटान के पारों अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की याद हो आई थी। वहां भी एयरपोर्ट ऐसा ही है। 

एक घाटी में बहती एक नदी। नदी के किनारे सड़क। सड़क के बाद एयरपोर्ट का अहाता। पारो में भी ऐसा है, लेह में भी। लेकिन लेह पारो जितना हरा-भरा नहीं है। लेह की घाटी भी पारो से अधिक चौड़ी है। 

बहरहाल, हम दिल्ली वाले (पता नहीं, लेकिन आप मैदानी इलाके के उत्तर भारतीय तो कह ही सकते हैं) जब लेह में उतरे, तो हमारे साथ हिदायतों की एक पोटली थी। लेह उतरते ही, तेज़ मत चलना। सांस फूल सकती है। नो स्मोकिंग एंड नो ड्रिंकिंग एट ऑल।
लेह का हवाई अड्डा फोटोः मंजीत ठाकुर

लेह में हवा हल्की है। एयरपोर्ट पर हमें गैलसन महोदय मिले। गैलसन अगले हफ्ते भर तक हमारे साथ रहने वाले थे। एयरपोर्ट पर बार-बार यह उद्घोषणा हो रही थी कि अलां होने पर मेडिकल मदद लें, फलां होने पर मेडिकल मदद लें, और ढिमकाना होने पर भी मेडिकल मदद ही लें। हमारा आत्मविश्वास पहले से डगमग था, यह सब सुनकर और छीज गया। 

हमें लगा कि पता नहीं अगले किस कदम पर हमारी सांस फूलने लग जाए।लेकिन सांस नहीं फूली हां, आशंका में सांस अटकी रही कि सांस अब फूली कि तब फूली। 

लेह को आंख फाड़कर घूर-घूरकर देखते और जितना हो सकता था उतना अपनी आंखों में बसाते हुए हम सुबह के नौ बजे ही सर्किट हाउस में पहुंच गए। 

हमें कहा गया था कोई काम नहीं। बस हाथ मुंह धोकर चाय-नाश्ता। सुबह के 9 भी नहीं बजे थे। 
लेह  में सर्किट हाउस के सामने, आईस हॉकी की जगह फोटोः मंजीत ठाकुर


सारा दिन बस आराम ही करना था। मैं बिस्तर पर लेटकर कुछ पढ़ने लग गया था। आखिर मैं रात में सोया नहीं था। हमारी फ्लाइट सुबह सवा 6 बजे की थी और इसके लिए रात को नींद पूरी नहीं हो पाई थी।


आंखों में नींद भरी थी। 

ठीक इसी वक्त तो नहीं लेकिन थोड़ी देर बाद सिरे भारी होने जैसे लक्षण उभरने लगे थे। लेकिन शारीरिक कमजोरियों के मुकाबले मन के भीतर डर हावी था। लेकिन बेडरेस्ट की हिदायत के बावजूद हमने पहले ही दिन से काम शुरू कर दिया था। 

पढ़ना और पढ़ना। दिल्ली की ऊमस भरी गरमी से निकलकर लेह की ठंडी हवा में, अचानक अजीब सा फील होने लगा था। 


सिर के पिछले हिस्से में तेज़ दर्द। बहुत मन था कि हम बाज़ार घूमें। लेकिन सिरदर्द बढ़ता ही गया। आखिरकार, हमारे डॉक्टर ने मुझे दवा दी। सिरदर्द की। फिर मैंने कड़क चाय बनवाई...और शाम को हम लेह के बाजार में निकले। 

लेह की हर शै में धुआं मौजूद है। बाजार में, दुकान में, घर में, गली में, चौबारे में, खूबानी में, मेन मार्केट से लेकर किसी माने तक...हर जगह एक गंध

आपको मिलेगी वह है अधजले डीज़ल की।
लेह का मोती बाज़ार, फोटोः मंजीत ठाकुर


मुझे पहले लगा था कि लेह बहुत साफ-सुथरा होगा। एक शहर के तौर पर लेह ठोस कचरे से साफ भी है। लेकिन, हवा गंदी लगी मुझे। 

जो भी सैलानी वहां जाता है, वह मोटर साइकिल की राइड ज़रूर करता है और उस छोटे से शहर में गाड़ियों की रेलमपेल भी बहुत है। तो मुझे हर हमेशा डीज़ल की गंध आती रही। 

शाम ढली तो हम सर्किट हाउस के आसपास ही घूम रहे थे। तीखी लगने वाली धूप ढल चुकी थी और इसकी जगह ले ली थी, चांद ने। 

लेह में चांद बेहद चमकीला नजर आ रहा था। लग रहा था कोई हैलोजन लाइट आसमान में टंगी हो। मैं जादू के नगरी में आए बच्चे की तरह ठगा सर्किट हाउस के लॉन से कभी चांद तो कभी चांदनी में चमचमा रहे बर्फीले पहाड़ो को देख रहा था। 

सर्किट हाउस के ठीक सामने एक तालाब-सा बना हुआ है, जिसमें जाने कैसे जंगली खर-पतवार उग आए थे। हमने बहुत अंदाज़ा लगाया कि आखिर यह होगा क्या...तब गैलसन ने बताया, इस जगह पर जाड़े में आउस हॉकी होती है। 

मैं बस अंदाजा ही लगाता रह गया कि यह तालाब जैसी जगह जाड़ो में जमकर सफेद होकर कैसी हो जाती होगी। 

बस, लेह में आठ बडे मार्केट बंद होने शुरू हो जाते हैं। हमलोगों को जाड़ा कुछ अधिक ही लग रहा था, ऐसे में जल्दी से जाकर खाना खा लेना मुफीद था और हमने वही किया। 

जारी




Sunday, September 13, 2015

बिहार में तेलंगाना-सा है मिथिला

बिहार के चुनाव की तारीखों की ऐलान हो गया। बिगुल बज गया। जो लोग बहुत दिनों से तारीखों के इंतजार में मुंह बाए बैठे थे, और उनको उनके इंतजार का फल मिल गया।

चुनाव पांच चरणों में होंगे। चार चरणों की पाद-वंदना बाद में, लेकिन अभी मैं जिक्र करना चाह रहा हूं, पांचवे चरण की तरफ। पांचवे दौर में सबसे अधिक 57 सीटों पर वोटिंग होगी और यह इलाका है मिथिला का। लोकसभा के सीटों के मुताबिक कहें तो झंझारपुर, मधुबनी, दरभंगा...और इसके पूरब कटिहार, पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा जैसे इलाके। यही इलाका है, जहां यादव-मुस्लिम वोट बाहुल्य में है। हैं तो महादलित और ओबीसी भी, लेकिन समीकरण का सिक्का माई का ही चला।

2014 के लोकसभा चुनाव में झंझारपुर, मधुबनी, दरभंगा पर बीजेपी ने कब्जा किया। यह इलाका ठेठ मिथिला है। उसके पूरब के इलाकों के ज़रिए ही आरजेडी, जेडी-यू, कांग्रेस और एनसीपी ने अपनी इज्जत बचाई थी। इस बार इसी इलाके में असदुद्दीन ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारेंगे।

लेकिन मसला सिर्फ जाति आधारित चुनावी चकल्लस ही नहीं है। मुद्दा विकास का भी है। मिथिला के लोगों का रूझान अगर बीजेपी की तरफ हुआ था, तो इसकी वाजिब वजहें भीं हैं। असल में नीतीश कुमार के दस साल ( से कुछ कम) के मुख्यमंत्रित्व काल में मिथिला की ओर उपेक्षा का भाव प्रबल रहा था। बाज़दफ़ा तो मिथिला के लोग नीतीश को नालंदा का मुख्यमंत्री भी कह डालते थे।

हालांकि, मिथिला इलाके की शुरूआत बंगाल की ओर से कटिहार घुसने के साथ ही हो जाती है, जहां आबादी में मुसलमान ज्यादा हैं। कुछ लोगों को ‘मिथिला’शब्द से चिढ़ है, सिर्फ इसलिए क्योंकि इससे उन्हें पौराणिक ब्राह्मणवाद की गंध मिलती हैं। लेकिन सच तो यह है कि मिथिला के प्रतीक मान लिए गए मैथिल ब्राह्मणों से परे इलाके में तकरीबन 24 फीसदी यादव और 15 फीसदी मुसलमानों की आबादी है। अनुसूचित जातियों की तादाद भी काफी है।

पूरा मिथिला क्षेत्रीय विकास के तराजू पर असमानता का शिकार है। मिथिला के किसी भी कोने मे चले जाए, नीतीश कुमार के 11 फीसदी विकास के दावों की पोल खुल जाएगी। गंगा के उत्तर और दक्षिण विकास की सच्चाईयों में जमीन आसमान का फर्क है।

बाढ़ (मोकामा के पास) में एनटीपीसी की योजना से लेकर, नालंदा विश्वविद्यालय तक और आयुध कारखाने से लेकर जलजमाव से मुक्ति की योजनाओं तक में कहीं भी मिथिला के किसी शहर का नाम नहीं है। इन योजनाओं के तहत आने वाले इलाके नीतीश के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाके रहे हैं। नीतीश ने अपनी सारी ताकत मगध और भोजपुर में खर्च करने में केन्द्रित कर रखी थी।

इन विकास योजनाओं से किसी किस्म की दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब इसी के बरअक्स समस्तीपुर के बंद पड़े अशोक पेपर मिल की याद आती है,जिसे फिर से शुरू करने की योजनाओं को पलीता लगा दिया गया या फिर सड़कों के विकास की ही बात कीजिए तो मिथिला का इलाका उपेक्षित नजर आता है।

इस इलाके के पास एक मात्र योजना है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखा की। मिथिला में न तो किसी उद्योग की आधारशिला रखी गई है न शैक्षणिक संस्थानों की। सारा कुछ पटना और इसके इर्द-गिर्द समेटा गया है, एम्स, आईआईटी, चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान और चाणक्य लॉ स्कूल। हाल में धान के भूसे से बिजला का प्रस्ताव गया की ओर मुड़ गया और कोयला आधारित प्रोजेक्ट औरंगाबाद के लिए। ऐसे में मिथिला की हताशा बढ़ती ही गई।

मिथिला के इलाके के पास खूब उपजाऊ जमीन है, संसाधन भी हैं। मानव संसाधन हैं, जो बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपना श्रम बेचते हैं। कभी जयनगर या दरभंगा जाने वाली ट्रेनों को देखिए, हमेशा भारी भीड़ यही साबित करती है कि उस इलाके से कितना पलायन दिल्ली और एनसीआर में हुआ है।

सिर्फ विकास ही एक मुद्दा नहीं है। मिथिला की अपनी एक अलग संस्कृति है, भाषा खानपान और रहन-सहन है। मिथिला की जीवनशैली में एक खतरनाक बदलाव आ रहा है। भाषा का बांकपन छीजता जा रहा है। और जिस तेजी से यह बांकपन छीजा है उसी तेजी से वह गढ़ भी टूटा, जो कभी भोगेन्द्र झा जैसे कम्युनिस्ट नेताओं की मजबूत ज़मीन हुआ करती थी। कम्युनिस्टों के बाद सामाजिक न्याय का डंका बजाने वाले और सामाजिक इंजीनियरिंग की बातों के किले बनाने वाले भी आए, लेकिन धैर्यवान और शांत मिथिला ने उन्हें खारिज़ कर दिया।

बात विकास की हो और युवा वर्ग अपने चारों तरफ तेजी से तरक्की हो रहा हो, तो अधीरता बढ़ती ही है। सबसे पहले यह अधीरता चुनावी नतीजों में दिखती है।

Saturday, September 12, 2015

बिहार का विकास एक साजिश है

देखिए, सीधी बात नो बकवास। बिहार को विकास का लालच दिया जा रहा है। लालच बुरी बलाय। पहले तो एक मुख्यमंत्री भये, जिनने सुशासन बाबू का तमगा हासिल किया। उनने जंगल राज के खिलाफ जंग लड़ी। जीते। दस साल मुख्यमंत्री हुए। बिहार का विकास करने की बात कही। अब कह रहे हमको एक टर्म और दीजिए, तब विकास करेंगे।

विकास न भया, डायनासोर का अंडा हो गया।

एक हैं लालू प्रसाद। खुद्दे सीएम रहे, बीवी को भी बनाया। अब बेटी या बेटा में से किसी को बनाना चाह रहे हैं। बेटा को ही बनाना चाह रहे होंगे। उन्ही के राज में पटना हाई कोर्ट ने बिहार के शासन को जंगल राज कहा था।

उनके दौर की बहुत कहानियां हैं जनता के मन में। भूले नै होंगे लोग। नीतीश के दौर की बहुत कहानियां है। उधर प्रधानमंत्री आए तो उनने भी विकास की बात कहकर पता नहीं कितने लाख रूपये बिहार को देने की बात कह डाली। हम अभी तक सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाएं है कि कितने जीरो होते हैं सवा लाख करोड़ रूपये में।

बात सौ टके की एक कि आखिर विकास इतना जरूरी ही क्यों है। क्या देश के विकसित राज्यों में लोग ज्यादा सुखी हैं?

मानिए हमारी बात, बिहार को विकसित होने देने या विकास के रस्ते पर जबरिया ठेलने की कोय जरूरत नहीं है। चल रहा है अपना टकदुम-टकदुम। चलता ही रहेगा। दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जिस जगह पहले पहुंचेगा, पटना-मुजफ्फरपुर-भागलपुर बाद में पहुंच लेगा।

हम तो सबके भले की सोचते हैं। आखिर लोग गरीबी कहां देखने जाएंगे अगर बिहार से भी गरीबी खत्म हो जाएगी? टूटी हुई सडकें कहां मिलेंगी अगर पटना से लेकर गया तक सारी सडकें चकाचक-चमाचम बन जाएंगी।

बाढ़ में हलकान लोग देखने के लिए असम मत भेजिए। बिहार में बाढ़ पर्यटन उर्फ फ्लड टूरिज़म की अपार संभावनाएं हैं। सड़क-घर-गली-मुहल्ल-रेल लाईन पर पानी। बढ़ता पानी-चढ़ता पानी। मचान पर लटककर बैठे लोग। रेल लाईन से उकडूं बैठकर हगते हुए कतारबद्ध लोग। आप क्या यह नहीं चाहते कि देश में टूरिज़म का विकास हो? पॉवर्टी टूरिज़म?

तो सुनिए, बिहार भी विकसित हो जाएगा तो कुपोषण और गाल धंसे लोगों की तस्वीर उतारने कहां जाएंगे लोग? सोमालिया? घोर अन्याय है यह तो। देश में बिहार हो, तो सोमालिया क्यों जाएंगे आप? बेवजह पासपोर्ट वगैरह का झंझट। बस आपको इतना करना है कि किसी भी बिहार जाने वाली ट्रेन में लटक सकने की कूव्वत हो, तो लटक लीजिए वरना फ्लाइट से पटना उतरिए और शहर से दूर किसी गांव में पहुंचिए।

कुपोषण के शिकार लोगों की एक नहीं सौ तस्वीरें मिलेंगी आपको। गृहयुद्ध कवर करना है? हुतू-तुत्सी जनजातियों के लिए इथयोपिया क्यों....गया की तरफ निकलिए। चाहे तो भोजपुर की तरफ निकल लें।

बिहार के लोग कच्ची सड़क, अंधेरे, गंदगी को एन्जॉय करते हैं और यह बात सत्ताधारी जानते हैं। आज से नहीं दशकों से जानते हैं। लेकिन इस बात का आतमगेयान सबसे पहले जगन्नाथ मिश्र को हुआ था, लालू ने इस बात की नब्ज पकड़ ली और यह भी तथ्य स्थापित किया कि तरक्की वगैरह से बिहारियों का दम घटने लगता है। और सड़क पुल वगैरह बनाना भी बेफजूल की बातें हैं। लालू काल में ही यह बात सत्तावर्ग ने स्थापित कर दी, जिनको विकास, शिक्षा वगैरह की बहुत चुल्ल मची हो, वह दिल्ली पुणे, मुंबई की तरफ निकलें। वहीं पढ़ें लिखे, नौकरी करें। बिहार आकर क्या अल्हुआ उखाड़ेंगे या कोदो बोएंगे?

नीतीश ने भी शुरू-शुरू में रोड-वोड बनाकर बिहार का सत्यानाश करना चाहा। तब जाकर उनको इल्म हुआ कि चुनाव-फुनाव विकास वगैरह के घटिया कामों से नहीं जाति के शाश्वत तरीके से जीते जाते हैं। और नतीजा सबके सामने है।

असल में, यह नया नेता वर्ग बिहार का विकास करके सबको बरगलाना चाहता है। यह चाहता है कि बिहार के बच्चे लालटेन की रोशनी की बजाय बिजली में पढ़ा करें। ताकि उस टाइम टीवी भी चले और वह पढ़ नहीं पाएं। यह बिहारी प्रतिभा को कुंद करने का एक तरीका है। सोचिए, बिजली नहीं होगी तो टीवी चलेगी? टीवी जैसे भ्रमित करने वाले माध्यम नहीं होगे तो बच्चे मन लगाकर पढ़ेंगे भी।

बताइए तो सही, हर साल बाढ़ न आए, हर साल मिथिला इलाके में, झोंपड़ों की शक्ल में बने घर बह न जाएं, तो बिहार की छवि का क्या होगा? दांत चियारे हुए दयनीय दशा में लोग...हाथ फैलाए हुए लोग। कभी राज ठाकरे तो कभी उल्फा के हाथों लतियाए जाते लोग...कभी दिल्ली में बिहारी की गाली सुनने वाले और उस पर मुस्कुराकर अपमान पी जाने वाले लोग...विकास हो जाएगा तो इनका क्या होगा?

अपनी भाषा, संस्कृति और स्मिता पर गर्व करना एक साजिश का हिस्सा है। और विकास उस साजिश का केन्द्र बिन्दु है। प्लीज बिहार का विकास मत करिए। वह अपने कद्दू-करेला में खुश है।



Thursday, September 10, 2015

वोटबैंक की बाज़ी और ओवैसी का इक्का

पिछले कुछ दिनों में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनका सीधे तौर पर आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन बिहार में चुनावी बिगुल का सुर ज्यों-ज्यों शोर में बदलता जाएगा, इन दो घटनाओं का आपसी रिश्ता भी शीशे की तरह साफ होता जाएगा।

पहली घटना है, रजिस्ट्रार जनरल एंड सेन्सस कमिश्नर के धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जारी किया जाना और दूसरी है बिहार के किशनगंज में ओवैसी की रैली।

आबादी वाली बात पहले। जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक दशक में (2001-11) हिन्दुओं की आबादी 0.7 फीसद कम हुई है और मुसलमानों की 0.8 फीसद कम हुई है। इसतरह भारत की कुल आबादी के 78.8 फीसद हिन्दू और 14.2 फीसद मुसलमान हैं। आबादी की दशकीय वृद्धि दर हिन्दुओं में 16.8 फीसद और मुसलमानों में 24.6 फीसद है।

दूसरी तरफ, बिहार की चुनावी फिज़ां में अब डीएनए, पैकेज, जंगलराज की वापसी जैसे जुमले उछल रहे हैं। इस सबके बीच एमआईएम नेता ओवैसी भी डार्क हॉर्स बनने की तैयारी कर रहे हैं। सीधे तौर पर इसका नुकसान नीतीश-लालू गठबंधन को उठाना पड़ेगा। लालू का वोट बैंक माई यानी मुसलमान और यादव का रहा है। साल 2004 तक उनका यह समीकरण कारगर रहा था। लेकिन इस दफा कनफुसकियां हैं कि बीजेपी 60 से अधिक यादवों को टिकट देने वाली है, और ऐसा अगर सच साबित हो तो हैरत की बात नहीं होगी।

प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी रैलियां उस इलाके में कर रहे हैं जहां बीजेपी की स्थिति कमज़ोर रही थी। पटना की 14 में से 6 और सहरसा की 18 में से केवल एक सीट बीजेपी के पास है। मगध में 26 में 8, भोजपुर में 22 में 10 और दरभंगा में तो 37 में से सिर्फ 10 सीट ही बीजेपी के पास है। मोदी की अगली रैली भागलपुर में है और यह क्षेत्र बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रमुख मुस्लिम चेहरा मोहम्मद शाहनवाज हुसैन का है जहां बारह विधानसभा सीटों में से बीजेपी के पास केवल 4 हैं।

लालू के साथ हाथ मिलाने से पहले नीतीश ने यही उम्मीद की होगी कि आरजेडी-जेडीयू गठजोड़ से यादव और मुस्लिम वोटबैंक को एकजुट किया जा सकेगा। लेकिन एक तरफ बीजेपी, यादव उम्मीदवारों के जरिए यादव वोटबैंक में फूट डालने की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ ओवैसी ने बिहार चुनाव के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री की खबर देकर इनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी यह अभी तय नहीं हो पाया है, लेकिन पार्टी मुस्लिमबहुल क्षेत्र में 20 से 25 उम्मीदवारों को उतार सकती है।

पूरे बिहार में 16 फीसद से अधिक मुसलमान वोटर हैं जबकि सीमांचल के किशनगंज में 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में 20 फीसद वोटर मुस्लिम हैं। इनकी यह संख्या यहां के चुनावी गणित में उलटफेर करती आई है। लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी बुरी तरह हारी थी। ऐसे में यहां अगर ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो फिर लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगना तय है।

पहले तो नीतीश कुमार ने ही उनके माई में से एम यानी मुस्लिम और वाई यानी यादव को दोफाड़ कर दिया था। 2009 और 2010 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों ने जेडी-यू का दामन थाम लिया था।

इसके साथ ही अगर लोकसभा के चुनाव में एनडीए का रिपोर्ट कार्ड देखें, तो 19 फीसद यादवों ने एनडीए को वोट दिया था। और अब अगर लालू से छिटका हुआ मुस्लिम मतदाता ओवैसी में अपना रहनुमा देखता है तो यह न सिर्फ बीजेपी की ताकत को अजेय करेगा, बल्कि आरजेडी-जेडीयू के मजबूत दिखते किले को ताश का महल बना देगा।

ओवैसी सिर्फ वोट ही नहीं काटेंगे। ओवैसी की छवि हिन्दुओं के पूज्य राम और सीता को लेकर उलजलूल बकने वाले की भी रहेगी। अब, जब जनगणना के आंकड़ों में यह बात आ गई है कि मुस्लिमों की आबादी हिन्दुओं के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है तो इस बात को बीजेपी चुनाव में शर्तिया मुद्दा बनाएगी। और हां, यूट्यूब पर ओवैसी का वह ज़हरीला भाषण अभी भी पड़ा हुआ है, तकनीकी प्रचार में महारत हासिल की हुई बीजेपी उसको भी दिखाएगी। यानी, बिहार की राजनीति में ध्रुवीकरण का खेल अभी बाकी है।

Tuesday, August 25, 2015

जबरजस्त, जिन्दाबाद...नवाज़!!

मुझे यह कहने में क़त्तई गुरेज़ नहीं कि मांझी पूरी तरह नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की फ़िल्म है। केतन मेहता निर्देशक हैं जरूर, लेकिन यह फिल्म पूरी तरह नवाज़ की है।

इस फिल्म के ही बहाने दशरथ मांझी अचानक चर्चा में आ गए हैं। गहलौर चर्चा में आ गया है। नवाज़ तो खैर फिल्म कहानी के बाद से अपनी हर फिल्म की वजह से चर्चा में रहते ही हैं, चाहे किक हो, लंचबॉक्स हो या फिर बजरंगी भाईजान...लेकिन अब तो लोग उनकी पुरानी फिल्में देखकर उनकी भी चर्चा करने लगे हैं। मिसाल के तौर पर, सरफरोश में वह 45 सेकेन्ड की भूमिका में थे, पीपली लाइव में थे...शॉर्ट फिल्म बाईपास में थे।

नवाज़ अपनी हर अगली फिल्म के साथ निखरते जाते हैं, और इस बिनाह पर कहें तो हैरत की बात नहीं कि मांझी उनकी अब तक की सबसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म है।

फिल्म शुरू होते ही आप ख़ून से लथपथ नवाज़ को देखते हैं जो सीधे पहाड़ को ललकारता है। फिर आप पत्थरों पर हथौड़े पड़ते देखते हैं। फिर ज़मींदार के उत्पीड़न, पत्रकारिता को देखते हैं। कहानी के साथ आप बहते जाते हैं। मेहता को यह सब करना ही था, क्योंकि 22 साल के दौर में बिहार में जो कुछ हुआ, उसे दर्ज किए बगैर यह फिल्म पूरी ही नहीं हो सकती थी। इस लिहाज़ से यह बहुत जरूरी फिल्म है।

एक बार फिर मैं यह कह रहा हूं कि बेहद शानदार यह फिल्म, सिर्फ नवाज़ की है। थोड़ी बहुत राधिका आप्टे की है। तिग्मांशु धूलिया और पंकज त्रिपाठी में गैंग्स ऑफ वासेपुर की छाप है और दोनों ही अभी तक उसके हैंगओवर से बाहर नहीं निकल पाए हैं।

जाति प्रथा पर चोट करती हुई यह फिल्म मारक लगती है। लेकिन मुसहरों का कोई बड़ा रेफरेंस नहीं देती है। अब बिहार-पूर्वी यूपी के अलावा बाकी देश और विदेश के लोगों को मुसहरों का व्यापक संदर्भ नहीं मिल पाता। सिर्फ इतना रजिस्टर हो पाता है कि मुसहर एक अछूत जाति है।
तो यह फिल्म इसके कलाकारों और दशरथ मांझी की है। लेकिन यह फिल्म केतन मेहता की नहीं है। फिल्म शुरू होते वक्त अधूरा लगता है और बिना किसी संदर्भ के शुरू हो जाता है। (यह निजी अहसास है) कैमरा पहाड़ को उसकी विशालता में क़ैद तो करता है लेकिन निर्देशक बारीकी में पिछड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, सन् 1975 में भारतीय रेल का कोई डब्बा नीला नहीं था। पूरे देश में रेल के डब्बे सिर्फ लाल रंग के होते थे।

तब, यानी 1975 में जब मांझी इंदिरा गांधी से मिलने दिल्ली जा रहे होते हैं, तो रेल के भीतर तीसरे (या दूसरे?) दर्जे की साफ-सफाई भी अचंभित करती है। वह जाहिर है, वज़ीरगंज में चढ़ रहे थे लेकिन...चलिए इतनी साफ-सुथरी रेल से बिहारवासियों को ईर्ष्या हो सकती है।

जमीन्दार वाले कुछ दृश्य ढीले हैं और उसमें और कसावट लाई जा सकती थी।

लेकिन, केतन मेहता की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने नवाज़ुद्दीन के मोहब्बत के अंदाज़ को एकदम अलहदा अंदाज़ में पेश किया है। राधिका आप्टे और नवाज़ का प्रेम परदे पर अल्हड़ भी है, मज़ेदार भी और कई दफ़ा उन्मुक्त भी। लेकिन अब तक रूखड़े किरदार निभा रहे नवाज़ ने साबित कर दिया कि उनका रोमांस—मैं दशरथ मांझी वाले किरदार की नहीं, नवाज़ के इस किरदार को निभाने की बात कर रहा—शाहरूख वाले रोमांस से बेहतर है।

वैसे, मेरे छिद्रान्वेषण और गुस्ताख़ी को छोड़ दें तो केतन तो केतन ही हैं। ज्यादातर दर्शक और संभवतया समीक्षक भी नवाज़ में चिपककर गए होंगे। लेकिन गरीबी हटाओ का नारा दे रही इंदिरा गांधी के टूटते मंच को जिसतरह मांझी जैसे चार लोगों ने कंधे का सहारा दिया है, यह मेटाफर ही उस वक्त के सियासी कहानी के कहने के लिए काफी है। केतन मेहता की इसके लिए मैं जी खोल कर तारीफ करना चाहता हूं।

संवाद तो शानदार हैं ही। जब तक तोड़ेगा नहीं...या फिर क्या पता भगवान आपके भरोसे बैठा हो..पहले ही हिट हैं। और दिलकश भी।

दशरथ मांझी की कहानी पहले ही बहुत प्रेरणादायी है, नवाज़ की अदाकारी और केतन मेहता के कमोबेश आला दर्जे के निर्देशन ने इसे नए आयाम दिए हैं।

Monday, August 24, 2015

बिहार की लॉटरी

लोकसभा चुनाव देश में एक लहर का चुनाव था। उस चुनाव की गर्द साफ होने से पहले कुछ राज्यों में भी चुनाव हुए और कमोबेश बीजेपी ने ही जीत दर्ज की। लेकिन बिहार का मामला झारखंड या हरियाणा या महाराष्ट्र से अलहदा है।

अलहदा इसलिए है क्योंकि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र सियासी प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं। नीतीश कुमार ने हालांकि अपनी सेकुलर छवि के लिए जमी-जमाई विकास पुरुष की छवि का त्याग कर दिया। अब यह इमेज प्रधानमंत्री के साथ जाकर जुड़ गई है।

मीडिया इस चुनाव को युद्ध से कम कवरेज नहीं दे रहा और असल में नीतीश के लिए यह सियासी जीवन-मरण का प्रश्न है। लालू इस लड़ाई में तीसरा कोण बन गए हैं।

बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा है। बिहार में चार रैलियों में मोदी ने विकास का ही नारा दिया है। उन्होंने बिहार के लिए आर्थिक पैकेज के लिए एक सस्पेंस बनाकर रखा था और मुजफ्फरपुर या गया की रैलियों की बजाय पारे को चढ़ने देने का इंतजार किया।

लेकिन लंबे इंतजार के बाद बिहार को आखिरकार विशेष आर्थिक पैकेज मिल ही गया। कुप्रबंध, कुप्रशासन और नजरअंदाजी की वजह से बिहार में सड़को, पुलों और बाकी बुनियादी ढांचे पर नीतीश काल से पहले शायद ही कोई काम हुआ था। बिहार में एनडीए वाली नीतीश की सरकार बनी तबतक केन्द्र में कांग्रेस सरकार आ चुकी थी और बिहार को वह समर्थन नहीं मिला था, जिसकी उसे जरूरत थी।

अब प्रधानमंत्री ने आरा की रैली में 1.25 लाख करोड़ के बिहार पैकेज का ऐलान किया है। साथ ही यह भी साफ किया कि इस पैकेज में 40 हज़ार करोड़ के बिजली संयत्र के मिले पैकेज शामिल नहीं है।

वैसे बिहार को जो मिला है उनमें से कुछ की घोषणा बजट में पहले ही की जा चुकी है और कुछ ऐसी हैं जो सौ टका नई हैं। इस सवा लाख करोड़ में से 54,713 करोड़ रूपये राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने में खर्च होंगे। ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा है प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और उसके लिए 13,820 करोड़ रूपये हैं। यानी पूरे पैकेज का तकरीबन आधा हिस्सा सड़क संपर्क बहाल करने पर है।

वैसे इस पैकेज की खास बात है कि इसमें रूपये की कानी कौड़ी भी राज्य सरकार अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। आमतौर पर राज्यों को सीधे पैसा दिया जाए तो वहां की सरकार उसे लोकलुभावन कार्यों पर खर्च करना पसंद करती हैं, न कि दीर्घकालिक ढांचे खड़े करने में। कुछ ऐसा ही मसला ऐन चुनाव के वक्त तेलंगाना राज्य के गठन का फैसला भी था।

अब सवाल है कि प्रधानमंत्री ने अगर बिहार के लिए पैकेज दिया है तो क्या सियासी रूप से सटीक यह कदम नैतिक रूप से सही नहीं है? जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है। तो कांग्रेसनीत पहले यूपीए की सरकार ने किसानों के लिए चुनावों से ऐन पहले करीब 70 हजार करोड़ रूपये की किसान ऋण माफी योजना चलाई थी। असली किसानों को कितना फायदा मिला था यह तो किसान ही जानें, लेकिन यूपीए ने सत्ता में वापसी की थी।

वैसे नीतीश कुमार के लिए बुरी खबर है कि असद्दुदीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर अपने उमीदवार खड़े कर सकती है। बस अब औपचारिक घोषणा करना बाक़ी है। 16 अगस्त को किशनगंज में ओवैसी का भाषण इस तरफ एक ठोस क़दम था।

अभी तो स्थिति यह है कि बिहार में हर बड़े शहर में सभी मुख्य चौर चौराहों की होर्डिंगों पर नीतीश कुमार टंगे हुए हैं। बीजेपी स्टेशनों पर अपने होर्डिंग लगाकर काम चला रही है।

सवाल यह है कि क्या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ का प्रशांत किशोर का गढ़ा हुआ नारा चल पाएगा या लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का सक्रिय साझीदार बना बिहार इस दफा फिर से उसे दोहराएगा।

फिलहाल बिहार की जनता सवा लाख करोड़ में लगने वाले शून्य गिन रही है।

Sunday, August 23, 2015

बिहारी अस्मिता का डीएनए

बिहार के चुनाव में इस बार किसिम-किसिम की बातें सुनी जा रही हैं। वैसे हमेशा से सुनी जाती हैं। लेकिन जिस राज्य में राजनीति लोगों को घलुए में मिलती है, उसमें मुद्दों को ज़मीन से हवा की तरफ कैसे मोड़ दिया जाता है, इस बार का चुनाव उसकी मिसाल है। बरसो पहले बीजेपी-जदयू गठजोड़ ने लालू के जंगल राज के खिलाफ नीतीश के विकास पुरुष की छवि गढ़ी थी। तब बिहार के लोग लालू-राबड़ी राज से दिक हो चुके थे और नीतीश कुमार में उनको अपना तारणहार नज़र आया था।

इस बार युद्ध में आमना-सामना मोदी और नीतीश का है। लालू सपोर्टिंग रोल में हैं। इस बार लालू को सपोर्टिंग रोल में कुछ अच्छा रिजल्ट नहीं मिला तो उनके लिए अगले कुछ साल के लिए परिदृश्य से गायब हो जाने का ख़तरा है।

तो विकास पुरुष नीतीश कुमार की मजबूती विकास का नारा था और उनके लिए यह जाति से ऊपर जगह रखता था। लेकिन, कुरमी-कोइरी उनका भी वोटबैंक था, और फिर उनका महादलित प्रयोग भी था, जिसमें बीजेपी सेंध लगाने की जुगत में है और सामाजिक अभियांत्रिकी का बारीक समीकरण भी नीतीश ने ही भिड़ाया था।

वही नीतीश इस दफा, सब कुछ छोड़छाड़ कर डीएनए सैंपल एकत्र कर रहे हैं। वह केन्द्र को 50 लाख डीएनए सैम्पल की बजाय नाखून और बाल लिफाफे में भिजवा रहे हैं।

नीतीश कुमार ने इस बार की लड़ाई में समझिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा है, और वह है बिहारी अस्मिता का। डीएनए सैंपल भिजवाना उसी लड़ाई की घेराबंदी है। लेकिन इस अस्मिता अभियान की कई समस्याएं है। पहली तो यही कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे सूबे खुद को हिन्दुस्तान मानते हैं और ऐसे सूबों में अस्मिता का सवाल गौण हो जाता है।

दिल्ली में बिहार के लोगों को बिहारी कहा जाता है और तकरीबन गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन वहां अस्मिता का सवाल ही खड़ा नहीं होता। बिहार में सांस्कृतिक और भाषायी अस्मिता पर कभी बात नहीं होती। ऐसा मान लेना मुश्किल है कि बिहार में मिथिला के अलग राज्य (भाषायी आधार पर) के लिए कोई जबरदस्त आंदोलन कभी जड़ें जमा सकेगा।

आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु या कर्नाटक में भाषायी अस्मिता की तगड़ी पहचान है। लेकिन वहां अब चुनाव भाषा या अस्मिता के सवाल पर नहीं लड़े जाते। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है, जो शिव सेना की कार्बन कॉपी बनने के जुगाड़ में थी। अस्मिता के प्रश्न पर तेलुगुदेशम, या असम गण परिषद् सत्ता में आई थी। लेकिन शिवसेना के शक्ति अर्जन या बाकी के सत्ता में आने के दशक से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह गया है तो एक सीधा सवाल बनता है कि अस्मिता का प्रश्न अब इन राज्यों से बिहार की तरफ कैसे आ गया।

नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में एक तो सत्ता-विरोधी लहर है ही और हर सत्तारूढ़ पार्टी को इसे झेलना ही होता है। लेकिन वोटों के बिखराव को रोकने के लिए जिसतरह उन्होंने अपने ही धुर विरोधी के साथ कदमताल किया है। गठजोड़ बनाना सामान्य बात है लेकिन फिर ट्विटर पर उनका बयान कि उन्होंने ज़हर पिया है, शायद उनके पक्ष में नहीं रहा। नीतीश के उस बयान को नरेन्द्र मोदी ले उड़े, और गया की रैली में तो उन्होंने मज़ाकिया लहजे में पूछा भी कि आखिर इनमें भुजंग प्रसाद कौन है और चंदन कुमार कौन?

जाहिर है, मोदी विकास के अपने उन सपने के वायदों पर कायम हैं जो उन्होंने बिहार की जनता को लोकसभा चुनाव के दौरान दिए थे। वह कहते भी है कि चुनाव की वजह से हम घोषणा नहीं कर सकते। यानी उनके पत्ते अभी खुले नहीं हैं। लेकिन आंकड़ों में सटीक रहने वाले मोदी बीमारू राज्यों में बिहार की गिनती करते हुए यह भूल गए कि पिछले कुछ साल में बिहार की वृद्धि दर बेहद शानदार रही थी। राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर। लेकिन भावनात्मक मुद्दे उछालने का जो आरोप कभी बीजेपी पर लगता था, वह इस बार जेडी-यू पर लग रहा है।

मोदी ने कहा था लोकतंत्र नीतीश के डीएनए में नहीं है। नीतीश ने उसमें से सिर्फ डीएनए को उठाया। अब वह इस मसले को दलितो-महादलितों को कैसे समझाएंगे? शायद इस तरह कि, केन्द्र से आकर एक प्रधानमंत्री ने बिहारियों को गाली दी है।

लेकिन, नीतीश को पता होगा ही कि बिहारियों को गाली सुनने की आदत है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में मजूरी कर रहे बिहारियों का अपमान होता रहा है, और 2005 से जब से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने बिहार की अस्मिता का सवाल कभी नहीं उठाया था। शक तो जाहिर है होगा ही।