Wednesday, January 17, 2018

अब सबको चाहिए हिंदू वोट

नया साल सियासी दलों के लिए अपनी ताकत आजमाने का साल है. इस साल को सियासी दंगल का सेमीफाइनल भी कहा जा सकता है. गुजरात और हिमाचल के बाद राजनीतिक पार्टियां इस साल 8 राज्यों के चुनाव के लिए कमर कस रही हैं.

लेकिन, नया साल भूमिकाएं बदलने का साल भी है. गुजरात में कड़ी टक्कर दे चुकी कांग्रेस ही नहीं, बाकी की पार्टियां सॉफ्ट-हिंदुत्व का दामन थाम रही हैं. एक तरफ तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैय्या ही हैं, जिन्होंने जनसभा में कहा कि वे हिंदू हैं. उन्होंने अपने नाम में राम के जुड़े होने का हवाला दिया और कहा कि सिर्फ भाजपा के लोग ही हिंदू नहीं हैं. अब कर्नाटक में मार्च में ही विधानसभा के चुनाव होने हैं. सूबे में करीब 85 फीसदी हिंदू वोटर हैं. इनमें से 20 फीसदी लोग लिंगायत हैं, जो भगवान शिव के उपासक हैं.

दूसरी तरफ, गुजरात में राहुल गांधी के बाइस मंदिरों की पूजा-अर्चना खबरों में रही ही थी. इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस अपनी हिंदुत्व विरोधी छवि को तोड़ने की जुगत में लगी है.

याद करिए, जब गो-वध के खिलाफ देश भर में भाजपाईयो ने हवा बनाई तो केरल में युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने खुलेआम बछड़े का मांस बनाया और खाया था.

कांग्रेस के लिए यह नुकसानदेह था क्योंकि सेकुलर से सेकुलर हिंदू भी खुले तौर पर बीफ को लेकर कुछ ऐसा कहने से बचता है. यह बात और है कि भाजपा के अपने शासन वाले राज्यों में बीफ को लेकर अलग किस्म की रस्सा-कस्सी है.

असल में, अब सभी पार्टियों की नजर हिंदू वोटरों पर है. गुजरात में, भाजपा मोदी के करिश्मे के बूते सरकार और साख बचाने में कामयाब रही थी. लेकिन मानना होगा कि कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व अपनाकर कड़ी टक्कर दी. अब इस फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस गुजरात में148 राम मंदिरों में पूजा किट बांटने वाली है.

कोई भी दल, यहां तक कि खुद को काफी सेकुलर दिखाने और जताने वाली तृणमूल कांग्रेस भी इस आरोप से बाहर निकलना चाहती है.

पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ महीनों में हुए सांप्रदायिक विवादों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर मुसलमानों के पक्ष में खड़े होने के आरोप लग रहे हैं. दुर्गा पूजा और मुहर्रम के बीच विसर्जन को लेकर विवाद में आरोप लगा कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटी हैं. अब मुकुल रॉय पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं तो ममता को अपने वोट बैंक साधने की याद आई है.

ऐसे में उन्होंने पहले तो गाय पालने वालों को गाय देने की योजना शुरू की और अब उनके करीब माने जाने वाले अनुब्रत मंडल ने वीरभूम जिले में ब्राह्मण सम्मेलन में आठ हजार ब्राह्रमणों की गीता बांटी. साथ में अलग उपहार भी थे. ममता भी इससे पहले खुद को हिंदू बता ही चुकी हैं.

असल में, इस कवायद के पीछे की वजह जानना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. भाजपा ने मुकुल रॉय के पार्टी में आने के बाद से अभी से2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है.

कोलकाता में भाजपा ने एक अल्पसंख्यक सम्मेलन किया था. इस सम्मेलन में अच्छी खासी भीड़ जुटी थी. पिछले तीन महीने में यह भाजपा दूसरा अल्पसंख्यक सम्मेलन था.


इसका मतलब है कि एक तरफ कथित सेकुलर पार्टियां हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए बेचैन हैं तो दूसरी तरफ भाजपा इन वोटरों को अपना मानकर चल रही है और वह 2019 में अपनी मजबूती राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश के अलावा पश्चिम बंगाल जैसे इलाके में भी दिखाना चाह रही है.

आखिर, पश्चिम बंगाल में आज तक भाजपा ने 2 से अधिक लोकसभा सीटें नहीं जीती हैं. बंगाल में वाम मोर्चा बेहद कमजोर स्थिति में है और अगर ममता बनर्जी की टीएमसी कमजोर पड़ती है उस सत्ता-विरोधी रूझान को झपटने के लिए भाजपा खुद को दूसरे विकल्प के तौर पर तैयार करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल भाजपा के दफ्तर में सोशल मीडिया के कमरे में पीछे फ्लैक्स बोर्ड पर लगा मिशन 148 हालांकि विधानसभा के लिए तय किया टारगेट है. जो अभी तो शायद दूर की कौड़ी लगे, लेकिन सियासत में कुछ भी अचंभा नहीं होता. आखिर, 2011 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा को महज 4.5 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन लोकसभा में दो सीटों के साथ यह वोट शेयर बढ़कर 16फीसदी हो गया था. 2016 के विधानसभा में, फिर पिछले विधानसभा की तुलना में वोट शेयर बढ़ा था, लेकिन लोकसभा से थोड़ा कम था. यह आंकड़ों में बढोत्तरी और वाम दलों की सुस्ती भाजपा को चुस्ती से घेरेबंदी करने के लिए उत्साहित कर रही है.

बंगाल में भाजपा के पास ले-देकर ढाई चेहरे थे. रूपा गांगुली, दिलीप घोष और राहुल सिन्हा. बाबुल सुप्रियो जरूर आसनसोल से चुनाव जीते हैं लेकिन उनका जनाधार अपने लोकसभा क्षेत्र में भी कुछ खास नहीं है. अब मुकुल रॉय जैसे पुराने नेता को पाले में लाकर भाजपा के लिए राह आसान हुई न हो, लेकिन लड़ने के लिए अब उसके पास एक चेहरा जरूर है.

अब, बंगाल ही क्यों, देश भर में तीन तलाक जैसे मुद्दों पर उदारवादी मुस्लिमों का समर्थन पाकर भाजपा उत्साहित है. लेकिन लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देश के पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी इलाकों में छवियां बदलने के खेल की शुरुआत हो चुकी है.

इसके साथ ही शुरुआत हो चुकी है ध्रुवीकरण की भी. इसको आप चाहें तो भूमिकाएं बदलना कह लें, लेकिन उससे अधिक यह बस दूसरे के सुविधा के क्षेत्र में सेंधमारी ही है.

यह समीकरण अगर दस फीसदी भी कारगर होते हैं तो 2019 से पहले, इसी साल के चार बड़े राज्यों और चार छोटे सूबों के चुनावी दंगल के दांव बड़े हो जाएंगे.

Sunday, January 14, 2018

ये जो देश है मेरा

मित्रों, मेरी किताब 'ये जो देश है मेरा' छपकर आ गई है. यह किताब  पांच लंबी रिपोर्ताज का संकलन है. मेरी यह किताब मेरी लंबी यात्राओं का परिणाम है.इनमें बुंदेलखंड, नियामगिरि, सतभाया, कूनो-पालपुर और जंगल महल जैसे हाशिए के इलाकों की कहानियां हैं.

बुंदेलों की धरती बुंदेलखंड को अपनी प्यास बुझाने लायक पानी हासिल हो पाएगा या दशकों लंबा सूखा हमेशा के लिए आत्महत्याओं और पलायन के अंतहीन सिलसिले में बदल जाएगा? 

मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर के जंगलों के सरहदी इलाके में बसा टिकटोली गांव डेढ़ दशक में दोबारा जमीन से उखड़ेगा या बच जाएगा? उड़ीसा का नियामगिरि पहाड़ अपनी उपासक जनजातियों के बीच ही रहेगा या अल्युमिनियम की चादरों में ढल कर मिसाइलों और बमबार जहाजों के रूप में देशों की जंग की भट्ठी में झोंक दिया जाएगा? 
उड़ीसा का ही सतभाया गांव अपनी जादुई कहानियों के साथ समुद्र की गोद में दफ्न हो जाएगा, या उससे पहले ही उसे बचा लिया जाएगा? मैंने इन्ही सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की है. कोशिश की है कि इसे दिलचस्प तरीके से लोककथाओं के सूत्र में पिरोकर आप तक पहुंचाया जाए.

आप इसे पढ़कर फीडबैक देंगे तो मेरा उत्साहवर्धन होगा.

दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला में किताब के साथ प्रवीण कुमार झा

Wednesday, January 10, 2018

जेल में भी चल रहा है लालू का 'हथुआ राज'

#ठर्राविदठाकुर
(मेरा यह लेख आइचौक.इन में प्रकाशित हो चुका है)

ठंड में सिकुड़ता हुआ मैं अंग्रेजी के आठ की तरह हुआ जा रहा था. फिजां में धूप थी लेकिन देश की व्यवस्था की तरह होते हुए भी नहीं थी. बिलकुल नाकाफी किस्म की धूप. देश की पुलिस की तरह बेअसर.

मैंने देखा, गुड्डू भैया झूमते हुए अपनी देह में सरसों का तेल मल रहे हैं. उनकी तेल पिलाई लाठी बगल में रखी है. मैं भौंचक्का रह गयाः "क्या भिया, इस ठंड में मारपीट की तैयारी?"

"करना नहीं है, सिर्फ दिखाना है. वह भी हम नहीं करेंगे हमारे दोनों नौकर लडेंगे. "

मेरे हैरत की सीमा न रही, "काहे भिया."

गुड्डू मुस्कुराएः "पत्रकार महोदय, फ्रेंडली फाइट का नाम सुना है? चुनाव में होता है. "

मैंने हामी भरी तो गुड्डू ने कहा, कि पड़ोसी के मटर के खेत में उनकी भैंस घुस गई थी. तो अब इसके एवज़ में उनके जेल जाना पड़ रहा है.

मैं समझ गया कि गुड्डू निरे काहिल हैं और उनके जेल प्रवास के दौरान सुविधाओं के लिए अपने सेवकों की जरूरत होगा.

मैंने बस इतना पूछाः "य़ह आइडिया कहां से आया भैय्या? "

गुड्डू लंगोट कसकर योगमुद्रा में विराजमान हो चुके थेः "देखो बे ठाकुर, इस देश में आइडियों की कमी नहीं है. चुराने से लेकर उस चोरी को लॉजिक देने तक. पहले अपराध करो, फिर पकड़े जाओ तो कहो कि मैं अमुक जाति से हूं इसलिए फंसाया जा रहा है. फिर भी सज़ा-वज़ा मिल जाए, तो सेवकों को ले जाओ. यह मैंने अपने नेताओं से सीखा है. एक तर्क यह भी है कि आप दोषी साबित होने पर और दूसरे के छूट जाने पर तर्क दे सकते हैं कि पंडिज्जी को बेल हमको जेल...जैसा लालूजी ने किया. "

"लेकिन वह तो कह रहे हैं कि उनको पिछड़ी जाति का होने की वजह से परेशान किया जा रहा है"...मैंने कहा.

"लेकिन, जब सूबे के मुख्यमंत्री बने तब तो यह तर्क न दिया, जब रेल मंत्री बने और काम की तारीफ बटोरी तब तो यह तर्क न दिया"...गुड्डू खिसियाए से लग रहे थे.

"लेकिन सज़ा सुनाने वाले जज को क्या यह कहना चाहिए था कि ठंड लगती है तो तबला बजाइए! " मैंने पीछे हटना ठीक नहीं समझा.

"आपसी बातचीत को मीडिया में उछालना और उसको मुद्दा बनाना तुम मीडियावालों का काम है. किसने किसको कहां चुम्मा ले लिया, किस खिलाड़ी ने शादी में कितने खर्च किए, देश में ब्याह किया कि इटला जाकर इस पर विमर्श करो तुम लोग...बलिहारी है बे तुम पे. और अब जज साहब ने कह दिया कि लालूजी पशुपालन के एक्सपर्ट हैं तो उसको भी मुद्दा बना लो. अदालत जिसको सज़ा दे उसको शहीद बनाने के काम में लग गए हो. और तो और, जब जेल प्रशासन अभी तक सजायाफ्ता लालू के लिए काम तय नहीं कर पाया है. वहीं उनके जेल पहुंचने से दो घंटे पहले ही उनका रसोइया लक्ष्मण कुमार और सेवक मदन फर्जी केस के जरिए जेल पहुंच गए. अब इसका क्या अर्थ है? पता है, जेल जाने के लिए इन दोनों की ही चुना गया क्योंकि दोनों रांची के ही रहने वाले हैं और लालू के खास विश्वासपात्र हैं. मालिक से पहले सेवक के जेल जाने का यह मसला भी पहली बार नहीं हुआ. पहले भी होटवार जेल में बंद लालू के लिए मदन जेल पहुंच गया था. "

"इस बार तो क्या गजब का आइडिया चुना इन लोगों ने. दोनों ने मारपीट का एक फर्जी मामला गढ़ा. मदन ने पड़ोसी सुमित कुमार को इसके लिए तैयार किया. उसने लक्ष्मण पर मारपीट करके 10 हजार रु. लूटने का आरोप लगाते हुए डोरंडा थाने में शिकायत दर्ज कराई. फटाफट एफआइआर दर्ज हुआ, वकील ने दोनों का आत्मसमर्पण करवाया और जेल भी भेज दिए गए. भाई, जैसे जेल लालूजी गए वैसे सब जाएं. बुढ़ापे का तर्क देते हुए ओपन जेल में रहे, रसोइए से खाना बनवाएं, सारी सुविधाएं भोगे. ऐसा क्यों नही करते कि उनको जेल जाने से माफी ही दे दो. उनकी नेकचलनी के नाम पर! "

"गुड्डू भैया गुस्सा क्यों हो रहे हैं, आखिर वह जनता के सेवक हैं. "

"जनता का सेवक जब राजनीतिक बंदी होता है तब उसे ऐसा सुविधाएं दी जानी चाहिए, आपराधिक कृत्य के लिए नहीं. वित्तीय घोटाला कब से राजनीतिक मसला हो गया जी? "

"देखो बाबू, इस देश में किसी ने आम लोगों को कभी कैटल, कभी मैंगो पीपल कहा था, तब तो बहुत मिर्ची लगी थी तुम्हें. जरा बताओ कि जेल में ठंड क्या सिर्फ चारा घोटाले में सजायाफ्ता पूर्व-मुख्यमंत्री को ही लगती है या दूसरे कैदियों को भी ठंड लगती होगी? जब ठंड सबको लगती है तो सबको बजाने के लिए तबला क्यों नहीं मुहैया कराती सरकार? "

गुड्डू अब रंग में आ चुके थे. मेरे पास खिसक आए और लबनी से ताड़ी का बड़ा घूंट लगाते हुए बोलेः "देखो ठाकुर, आम आदमी हो तो औकात में रहा करो. कभी पुलिस और अदालत में चक्कर में पड़ोगे तब समझ में आएगा. समझे! लालूजी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी अपनी मां को पद के बारे में समझाते हुए कह चुके हैं कि, माई हथुआ राज मिल गईल (मां, हथुआ राज मिल गया) तो समझो कि वह असल में राजा ही हैं. उनकी सुविधा का ख्याल रखना हम सबका परम-पावन और पुनीत कर्तव्य है. जब जेल में शशिकला, शहाबुद्दीन, कनिमोई, ए राजा सबको सुविधा मिल सकती है तो क्या सिर्फ लालू को न मिले क्योंकि वह पिछडी जाति से हैं! धिक्कार है बे तुम पे, धिक्कार है. "

गुड्डू भैया ने मुझ पर धिक्कारों की बौछार कर दी और सारे धिक्कार समेटता हुआ मैं चुपचाप अपनी राह चल दिया.

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Tuesday, January 9, 2018

पंचम दा की याद में

मुझे याद है कि मैं अक्षय कुमार की कोई मसाला फिल्म देख रहा था. शायद खिलाड़ी 786 थी. अक्षय अपनी कन्यामित्र असिन के साथ एक डिस्कोथे में जाते हैं और पंचम दा उर्फ राहुलदेव बर्मन की तस्वीर देखकर नाचने से पहले जूते उतार देते हैं.

पंचम दा को यह सम्मान वाकई पूरा फिल्मोद्योग देता है. वह उसके हकदार भी थे.

फिर याद आते हैं कुछ गाने, जो हममें से हरेक ने कभी न कभी, दोस्तों के कहने पर जबरिया या कभी अकेले में खुद ब खुद गुनगुनाए जरूर होंगे. चिनगारी कोई भड़के, तो सावन उसे बुझाए..यह गाना तो तकरीबन बेसुरे लोग भी गा ही लेते हैं. कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना..यह गाना भी बेहद लोकप्रिय है, और हर पाठक को याद होगा. इसी तरह, पिया अब तो आजा... की तड़कती-फड़कती धुन हर एफएम पर हफ्ते में चार बाज बज ही जाता है.

राहुल कोलकाता में जन्मे थे. इनके बारे में यही कहा जाता है बचपन में जब ये रोते थे तो इनकी रूलाई में संगीत का पांचवां सुर सुनाई देता था और शायद इसीलिए इनको पंचम कहा गया. इनको पंचम पुकारने वाले भी लीजेंड ही थे. अशोक कुमार.

पंचम दा की पीठ पर परंपरा का बक्सा लदा था. पिता सचिन देव बर्मन जैसे नामी-गिरामी संगीतकार थे, जिनकी धुनों में अमूमन त्रिपुरा और बंगाल के किसानों मछुआरों की करूण तान पहचानी जा सकती हैं. एसडी बर्मन की आवाज में भी वो दर्द था, कि जब वो ओ रे मांझी कहकर आलाप लेते, तो कलेजा बिंध जाता. उनमें लोकगीतों का सोंधापन था.

राहुलदेव को अपने पिता की साया से निकलना था. साथ ही, उस विरासत को साथ ले चलना था जो बालीगंज गवर्नमेंट हाई स्कूल कोलकाता से ली थी और बाद में उस्ताद अली अकबर खान से सरोद सिखते वक्त रखा था.

पंचम दा का संगीत देखिए तो उसमें जैज़, हिंदुस्तानी और सुगम का सुखद मिश्रण दिखेगा. आखिर हम में से कितने लोग हैं जिनके दिलों के तार जावेद अख्तर की लिखी और पंचम दा के सुरों में पिरोई, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा से झनझना न जाते हों.

पिता सचिन देव बर्मन ने बचपन से ही आरडी को संगीत के दांव-पेंच सिखाने शुरू कर दिए थे. वरना, नौ साल का बच्चा क्या संगीत सुरों के पेचो-खम को साधकर धुन तैयार कर सकता है!

पंचम ने किया था.

उनका पहला कंपोजिशन महज नौ साल की उम्र में आया था. गीत था, ”ऐ मेरी टोपी पलट के”. इसे फिल्म “फ़ंटूश” में उनके पिता ने इस्तेमाल किया. छोटी सी ही उम्र में पंचम दा ने “सर जो तेरा चकराये …” की धुन तैयार कर लिया जिसे गुरुदत्त की फ़िल्म “प्यासा” में ले लिया गया.

लेकिन कहा न, जो चुनौती थी पिता के साए से निकलने की, उसे उन्होंने निभाया. उनका संगीत उनके पिता के संगीत से अलहदा था. दोनों की शैली अलग थी. आरडी हिन्दुस्तानी के साथ पाश्चात्य संगीत की मिलावट भी करते थे. तीसरी मंजिल के ओ हसीना जुल्फों वाली जाने जहां से शुरू करिए और शोले के महबूबा होते हुए 1942 अ लव स्टोरी तक आइए. आपको सब दिख जाएगा.

राहुलदेव ने क्या हिंदी क्या बंगला, न्होंने तो तमिल, तेलुगू, मराठी न जाने कितनी भाषाओं में गीतों को संगीतबद्ध किया. करियर की शुरूआत में वह अपने पिता के संगीत सहायक थे.

उनकी खुद की आवाज का जादू तो घलुए (फाव में) में है.

उन्होंने अपने पिता के साथ मिलकर कई सफल संगीत दिए, जिसे बकायदा फिल्मों में प्रयोग किया जाता था.

बतौर संगीतकार आर डी बर्मन की पहली फिल्म 'छोटे नवाब' (1961) थी जबकि पहली सफल फिल्म तीसरी मंजिल (1966) साबित हुई. जिसमें शम्मी कपूर के डांस स्टेप्स कहर बरपा कर रहे थे.

लेकिन असल में एक तिकड़ी थी. राजेश खन्ना, किशोर कुमार और आरडी बर्मन की. इस तिकड़ी ने 70 के दशक में पूरे भारत में धूम मचा दी थी.

इस दौरान सीता और गीता, मेरे जीवन साथी, बांबे टू गोवा, परिचय और जवानी दीवानी जैसी कई फ़िल्मों आईं और उनका संगीत फ़िल्मी दुनिया में छा गया.

सत्तर के दशक की शुरुआत तक आर डी बर्मन भारतीय सिनेमा जगत के एक लोकप्रिय संगीतकार बन गए थे. उन्होंने लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मोहम्मद रफी और किशोर कुमार जैसे बड़े कलाकारों से अपने फिल्मों में गाने गवाए. 1970 में उन्होंने छह फिल्मों में अपना संगीत दिया, जिसमें कटी पतंग काफी कामयाब रही.

बाद में, यादों की बारात, हीरा पन्ना, अनामिका जैसी बड़ी कामयाब फिल्में भी राहुल देव के संगीत से सजी.

लेकिन आरडी बर्मन ने संगीत प्रेमियों को जितना दिया, उससे कहीं ज़्यादा देने के काबिल थे. हमें उनसे जो मिला वो तो उनके ख़ज़ाने का छोटा सा हिस्सा था.

असल में, जीनिसय लोगों के साथ ऐसा होता ही है कि गुजरते वक्त के साथ उनकी महत्ता बढ़ती जाती है. इसलिए झनकार बीट से लेकर खिलाड़ी 786 तक अगर फिल्मी दुनिया उनकी श्रद्धा के फूल भेंट कर रही है, तो इसमें हैरत की बात कुछ भी नहीं.

चलते-चलते उनकी संगीतबद्ध फिल्म इजाज़त के गीत की कुछ पंक्तियां आपके लिए, जो शायद उनकी परंपरा में अलहदा किस्म का इजाफा करती हैं,

एक सौ सोलह चांद की रातें,

एक तुम्हारे कांधे का तिल,

गीली मेंहदी की खुशबू,

झूठ-मूठ के शिकवे कुछ.

वो भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो.