Tuesday, October 29, 2019

चिरकुट दास चिन्गारीः नई हिंदी के अलहदा तेवर

वसीम अकरम का यह उपन्यास नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. इसमें देशज शब्दों का धुआंधार और सटीक इस्तेमाल है जो नई हिंदी की बाकी बिरादरी से इस किताब को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है.

हम सबमें, कम से कम हिंदी पट्टी वालों के भीतर एक गांव जिंदा है. शहरी जिंदगी के भागमभाग में अगर हम सबसे अधिक कुछ छूटता और फिसलता-सा महसूस करते हैं तो वह है हमारा गांव, जिसे हम आगे बढ़ने के लिए कहीं पीछे छोड़ आए थे. पर, हम अपने गांव को अब भी वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा हमने छोड़ा था. शहर में हम गांव को 'मिस' करते हैं और गांव जाकर जब उसको बदलता हुआ और शहरी ढब का होता हुआ देखते हैं तो फिर एक नई कसक लेकर लौटते हैं. वसीम अकरम के उपन्यास 'चिरकुट दास चिन्गारी' को पढ़ना इसी कसक को किताब की शक्ल में देखने सरीखा है. 
वसीम अकरम की किताब चिरकुट दास चिन्गारी. फोटोः मंजीत ठाकुर 
वसीम अकरम पेशे से पत्रकार हैं और मिजाज से लेखक, ऐसे में पत्रकारीय नजर और लेखकीय मुलायमियत के साथ उन्होंने जो उपन्यास लिखा है, वह आपको अंदर तक छूता है. मुझे यह कहने में गुरेज़ नहीं है कि 'चिरकुट दास चिन्गारी' पढ़ते समय मुझे यह कई दफा लगा कि उपन्यासकार डॉ. राही मासूम रजा के 'आधा गांव' के असर में है.

अकरम के उपन्यास में हर किरदार जिंदा नजर आता है. परिदृश्य सिरजने में, गांव की तस्वीर पन्नों पर उकेरने में अकरम सिनेमा देखने जैसा अनुभव देते हैं. इसमें कुछ गजब भी नहीं क्योंकि अकरम खुद फिल्मकार भी हैं. ऐसे में, आपको लगता है कि पन्नों पर लिखे अल्फाजों से माटी की खुशबू आ रही हो.

किरदार रचने में संवादों की गंवई शैली एकदम वैसी ही है, जैसे पात्र आपस में बोलते होंगे. असल में एक किरदार रचने के बाद हम उसे कॉलर पकड़कर नहीं चला सकते. किरदारों के नाम भी वैसे ही हैं, जैसे गांवों में होते हैं. मंगरुआ, अंड़वा, टंड़वा...आपको सब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों के लोगों के नामों जैसे लगेंगे. और उनके मुंह से गालियों की बौछार, उनके अपने देशी तकियाकलामों के साथ. थोड़ी देर तक यह उपन्यास आपको इमली को गुड़ की भेली के साथ खाने का मजा देगा.

अपने लेखकीय में अकरम पहले ही आगाह करते हैं कि उपन्यास में भाषा के भदेस होने के साथ कुछ गालियां हैं, निवेदन है कि गालियों को वहां से हटाकर न पढ़ें नहीं तो उपन्यास की ज़बान कड़वी हो जाएगी. और फिर आप मानसिक रूप से घटिया गालियों के लिए तैयार हो जाते हैं. पर पन्नों में गालियां कब आती हैं, और आप संवादों के साथ उसको हजम कर जाते हैं, आपको पता भी नहीं चलता. इतने स्वाभाविक ढंग से गालियों को निकाल ले जाना, यह अकरम की कला है.

उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ की भाषा बहुत ही सरल-सहज और गंवई शब्दावलियों से भरी हुई है. यही नहीं, वसीम अकरम ने कुछ ऐसे नए शब्द-शब्दावलियों के साथ कई मुहावरे भी रच डाले हैं. ‘सालियाना मुस्कान’, ‘यदि मान ल कि जदि’, ‘नवलंठ’, ‘पहेंटा-चहेटी’, ‘चिरिक दें कि पलपल दें’, ‘चुतरचहेंट’, ‘रामरस’, ‘परदाफ्फास’, ‘बलिस्टर’, ‘लतुम्मा एक्सप्रेस’, ‘फिगरायमान’, ‘इक्स’, ‘लौंडियास्टिक’, ‘गलती पर सिंघिया मांगुर हो जाना’, ‘कान्फीओवरडेंस’, ये सारे अल्फाज आपको गांवों की सैर पर लिए चलते हैं.

लेकिन, दिक्कत यह है कि उपन्यास में कोई एक केंद्रीय कथा नहीं है. एक गांव है जिसमें कई सारी जगहों पर कई कहानियां होती हैं, घटनाएं होती हैं. आप इससे थोड़ा विचलित हो सकते हैं. आखिर, कथा तत्व में खासकर उपन्यास में एक केंद्रीय पात्र और उसके आसपास सहायक पात्र होने चाहिए. कथा में केंद्रीय रूप से कॉन्फ्लिक्ट की कमी खलती है.

आंचलिकता भरी भाषा के लिए संवादों में आंचलिकता का प्रयोग दाल में हींग के छौंक की तरह होती है लेकिन अगर ज्यादा हींग में कम दाल डालें तो क्या उससे जायका आएगा? शुरु के पन्नों में अकरम अपने ही गढ़े कुछ शब्दों पर रीझे हुए लगते हैं और, मिसाल के तौर पर 'नवलंठ', उनका बारंबार इस्तेमाल करते हैं. इससे पाठक थोड़ा चिढ़ सकता है. दूसरी बात, कथाक्रम में संवादों के अलावा जब भी जरूरत से अधिक भदेस शब्दों का इस्तेमाल होता है वह भोजपुरी से अनजान या कम परिचित पाठकों के लिए बोझिल भी हो सकता है.

लेकिन, अकरम की यह किताब रोमन में अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल वाली आजकल की नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. नए तेवर इस अर्थ में कि इसमें देशज शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल है जो नई हिंदी के बाकी बिरादरी से इस उपन्यास को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है. अब इंतजार अकरम की अगली किताब का होगा कि आखिर वह अपनी इस भाषा की चमक अपने अगले उपन्यास में बरकरार रखते हैं या नहीं.

किताबः चिरकुट दास चिन्गारी (उपन्यास)
लेखकः वसीम अकरम
प्रकाशकः हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली
कीमतः 125 रुपये (पेपरबैक)

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Friday, October 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं पाताल से भी न सूख जाए सरस्वती

अभी हाल में केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज के पास गंगा और यमुना को जोड़ने वाली एक भूमिगत नदी की खोज की है. इससे पहले हरियाणा, राजस्थान में भी सरस्वती नदी के जल के भूमिगत जलस्रोत के रूप में जमा होने की खोज की गई थी. पर, जिस तरह से भूमिगत जल का अबाध दोहन हरियाणा में हो रहा है उससे डर है कहीं पाताल में बैठी सरस्वती भी न सूख जाए. 


हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे हैं और लग रहा है जैसे कि कांग्रेस के सूखते जनाधार में निर्मल जल का एक सोता फूटकर उसे फिर से जीवित कर गया हो. हरियाणा ही संभवतया सरस्वती की भूमि भी रही है. हरियाणा का नाम लेते ही कुरुक्षेत्र और सरस्वती नदी, ये दो नाम तो जेह्न में आते ही हैं. तो आज के नदीसूत्र में बात उसी सरस्वती नदी की, जिसके बारे में मान्यता है कि वह गुप्त रूप से प्रयागराज में संगम में शामिल होती है. वही नदी जो वैदिक काल में बेहद महत्वपूर्ण हुआ करती थी.

वैसे, खबर यह भी है कि केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज में एक ऐसी सूखी नदी का भी पता लगाया है जो गंगा और यमुना को जोड़ती है. राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के मुताबिक, इस खोज का मकसद था कि एक संभावित भूमिगत जल के रिचार्ज स्रोत का पता लगाया जाए.

इस प्राचीन नदी के बारे में मंत्रालय ने बताया कि यह 4 किमी चौड़ी और 45 किमी लंबी है और इसकी जमीन के अंदर 15 मोटी परत मौजूद है. पिछले साल दिसंबर में इस नदी की खोज में सीएसआइआर-एनजीआरआइ (नेशनल जियोफिजिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट) और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने एक जियोफिजिकल हवाई सर्वे के दौरान किया.

बहरहाल, अगर यह सरस्वती है तो वह कौन सी सरस्वती है जिसको हरियाणा और राजस्थान में खोजने की कोशिश की गई थी? क्या सरस्वती ने भारतीय उपमहाद्वीप के विवर्तनिक प्लेट की हलचलों की वजह से अपना रास्ता बदल लिया? वह नदी कहां लुप्त हो गई?

आज से करीब 120 साल पहले 1893 में यही सवाल एक अंग्रेज इंजीनियर सी.एफ. ओल्डहैम के जेहन में भी उभरा था, जब वे इस नदी की सूखी घाटी यानी घग्घर के इलाके से होकर गुजरे थे. तब ओल्डहैम ने पहली परिकल्पना दी कि हो न हो, यह प्राचीन विशाल नदी सरस्वती की घाटी है, जिसमें सतलुज नदी का पानी मिलता था. और जिसे ऋषि-मुनियों ने ऋग्वेद (ऋचा 2.41.16) में ''अम्बी तमे, नदी तमे, देवी तमे सरस्वती” अर्थात् सबसे बड़ी मां, सबसे बड़ी नदी, सबसे बड़ी देवी कहकर पुकारा है.

ऋग्वेद में इस भूभाग के वर्णन में पश्चिम में सिंधु और पूर्व में सरस्वती नदी के बीच पांच नदियों झेलम, चिनाब, सतलुज, रावी और व्यास की उपस्थिति का जिक्र है. ऋग्वेद (ऋचा 7.36.6) में सरस्वती को सिंधु और अन्य नदियों की मां बताया गया है. इस नदी के लुप्त होने को लेकर ओल्डहैम ने कहा था कि कुदरत ने करवट बदली और सतलुज के पानी ने सिंधु नदी का रुख कर लिया. हालांकि उसके बाद सरस्वती के स्वरूप को लेकर एक-दूसरे को काटती हुई कई परिकल्पनाएं सामने आईं.

1990 के दशक में मिले सैटेलाइट चित्रों से पहली बार उस नदी का मोटा खाका दुनिया के सामने आया. इन नक्शों में करीब 20 किमी चौड़ाई में हिमालय से अरब सागर तक जमीन के अंदर नदी घाटी जैसी आकृति दिखाई देती है.

अब सवाल है कि कोई नदी इतनी चौड़ाई में तो नहीं बह सकती, तो आखिर उस नदी का सटीक रास्ता और आकार क्या था? इन सवालों के जवाब ढूंढऩे के लिए 2011 के अंत में आइआइटी कानपुर के साथ बीएचयू और लंदन के इंपीरियल कॉलेज के विशेषज्ञों ने शोध शुरू किया.

इंडिया टुडे में ही छपी खबर के मुताबिक, 2012 के अंत में टीम का 'इंटरनेशनल यूनियन ऑफ क्वाटरनरी रिसर्च’ के जर्नल क्वाटरनरी जर्नल में एक शोधपत्र छपा. इसका शीर्षक था: जिओ इलेक्ट्रिक रेसिस्टिविटी एविडेंस फॉर सबसरफेस पेलिओचैनल सिस्टम्स एडजासेंट टु हड़प्पन साइट्स इन नॉर्थवेस्ट इंडिया. इसमें दावा किया गया: ''यह अध्ययन पहली बार घग्घर-हाकरा नदियों के भूमिगत जलतंत्र का भू-भौतिकीय (जिओफिजिकल) साक्ष्य प्रस्तुत करता है.” यह शोधपत्र योजना के पहले चरण के पूरा होने के बाद सामने आया और साक्ष्यों की तलाश में अभी यह लुप्त सरस्वती की घाटी में पश्चिम की ओर बढ़ता जाएगा.

पहले साक्ष्य ने तो उस परिकल्पना पर मुहर लगा दी कि सरस्वती नदी घग्घर की तरह हिमालय की तलहटी की जगह सिंधु और सतलुज जैसी नदियों के उद्गम स्थल यानी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. अध्ययन की शुरुआत घग्घर नदी की वर्तमान धारा से कहीं दूर सरहिंद गांव से हुई और पहले नतीजे ही चौंकाने वाले आए. सरहिंद में जमीन के काफी नीचे साफ पानी से भरी रेत की 40 से 50 मीटर मोटी परत सामने आई. यह घाटी जमीन के भीतर 20 किमी में फैली है.

इसके बीच में पानी की मात्रा किनारों की तुलना में कहीं अधिक है. खास बात यह है कि सरहिंद में सतह पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे अंदाजा लग सके कि जमीन के नीचे इतनी बड़ी नदी घाटी मौजूद है. बल्कि यहां तो जमीन के ठीक नीचे बहुत सख्त सतह है. पानी की इतनी बड़ी मात्रा सहायक नदी में नहीं बल्कि मुख्य नदी में हो सकती है. शोधकर्ताओं ने तब इंडिया टुडे का बताया कि यहां निकले कंकड़ों की फिंगर प्रिंटिंग से यह लगता है कि यह नदी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. कोई 1,000 किमी. की यात्रा कर अरब सागर में गिरती थी. इसके बहाव की तुलना वर्तमान में गंगा नदी से की जा सकती है.

सरहिंद के इस साक्ष्य ने सरस्वती की घग्घर से इतर स्वतंत्र मौजूदगी पर मुहर लगा दी. यानी सतलुज और सरस्वती के रिश्ते की जो बात ओल्डहैम ने 120 साल पहले सोची थी, भू-भौतिकीय साक्ष्य उस पर पहली बार मुहर लगा रहे थे.

तो फिर ये नदियां अलग कैसे हो गईं? समय के साथ सरस्वती नदी को पानी देने वाले ग्लेशियर सूख गए. इन हालात में या तो नदी का बहाव खत्म हो गया या फिर सिंधु, सतलुज और यमुना जैसी बाद की नदियों ने इस नदी के बहाव क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सरस्वती नदी का पानी पूर्व दिशा की ओर और सतलुज नदी का पानी पश्चिम दिशा की ओर खिसकता चला गया. बाद की सभ्यताएं गंगा और उसकी सहायक नदी यमुना (पूर्ववर्ती चंबल) के तटों पर विकसित हुईं. पहले यमुना नदी नहीं थी और चंबल नदी ही बहा करती थी. लेकिन उठापटक के दौर में हिमाचल प्रदेश में पोंटा साहिब के पास नई नदी यमुना ने सरस्वती के जल स्रोत पर कब्जा कर लिया और आगे जाकर इसमें चंबल भी मिल गई.

यानी सरस्वती की सहायक नदी सतलुज उसका साथ छोड़कर पश्चिम में खिसककर सिंधु में मिल गर्ई और पूर्व में सरस्वती और चंबल की घाटी में यमुना का उदय हो गया. ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि भले ही प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम का कोई भूभौतिकीय साक्ष्य न मिलता हो लेकिन यमुना के सरस्वती के जलमार्ग पर कब्जे का प्रमाण इन नदियों के अलग तरह के रिश्ते की ओर इशारा करता है. उधर, जिन मूल रास्तों से होकर सरस्वती बहा करती थी, उसके बीच में थार का मरुस्थल आ गया. लेकिन इस नदी के पुराने रूप का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के श्लोक (7.36.6) में कहा गया है, ''हे सातवीं नदी सरस्वती, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता है और भूमि को उपजाऊ बनाती है, हमें एक साथ प्रचुर अन्न दो और अपने पानी से सिंचित करो.”

आइआइटी कानपुर के साउंड रेसिस्टिविटी पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि कालीबंगा और मुनक गांव के पास जमीन के नीचे साफ पानी से भरी नदी घाटी की जटिल संरचना मौजूद है. इन दोनों जगहों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि जमीन के भीतर 12 किमी से अधिक चौड़ी और 30 मीटर मोटी मीठे पानी से भरी रेत की तह है. जबकि मौजूदा घग्घर नदी की चौड़ाई महज 500 मीटर और गहराई पांच मीटर ही है. जमीन के भीतर मौजूद मीठे पानी से भरी रेत एक जटिल संरचना दिखाती है, जिसमें बहुत-सी अलग-अलग धाराएं एक बड़ी नदी में मिलती दिखती हैं.

यह जटिल संरचना ऐसी नदी को दिखाती है जो आज से कहीं अधिक बारिश और पानी की मौजूदगी वाले कालखंड में अस्तित्व में थी या फिर नदियों के पानी का विभाजन होने के कारण अब कहीं और बहती है. अध्ययन आगे बताता है कि इस मीठे पानी से भरी रेत से ऊपर कीचड़ से भरी रेत की परत है. इस परत की मोटाई करीब 10 मीटर है. गाद से भरी यह परत उस दौर की ओर इशारा करती है, जब नदी का पानी सूख गया और उसके ऊपर कीचड़ की परत जमती चली गई. ये दो परतें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन नदी बड़े आकार में बहती थी और बाद में सूख गई. और इन दोनों घटनाओं के कहीं बहुत बाद घग्घर जैसी बरसाती नदी वजूद में आई.

सैटेलाइट इमेज दिखाती है कि सरस्वती की घाटी हरियाणा में कुरुक्षेत्र, कैथल, फतेहाबाद, सिरसा, अनूपगढ़, राजस्थान में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, थार का मरुस्थल और फिर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक जाती थी. राजस्थान के जैसलमेर जिले में बहुत से ऐसे बोरवेल हैं, जिनसे कई साल से अपने आप पानी निकल रहा है. ये बोरवेल 1998 में मिशन सरस्वती योजना के तहत भूमिगत नदी का पता लगाने के लिए खोदे गए थे. इस दौरान केंद्रीय भूजल बोर्ड ने किशनगढ़ से लेकर घोटारू तक 80 किमी के क्षेत्र में 9 नलकूप और राजस्थान भूजल विभाग ने 8 नलकूप खुदवाए. रेगिस्तान में निकलता पानी लोगों के लिए आश्चर्य से कम नहीं है. नलकूपों से निकले पानी को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने 3,000 से 4,000 साल पुराना माना था. यानी आने वाले दिनों में कुछ और रोमांचक जानकारियां मिल सकती हैं.

वैज्ञानिक साक्ष्य और उनके इर्द-गिर्द घूमते ऐतिहासिक, पुरातात्विक और भौगोलिक तथ्य पाताल में लुप्त सरस्वती की गवाही दे रहे हैं. हालांकि विज्ञान आस्था से एक बात में सहमत नहीं है और इस असहमति के बहुत गंभीर मायने भी हैं. मान्यता है कि सरस्वती लुप्त होकर जमीन के अंदर बह रही है, जबकि आइआइटी का शोध कहता है कि नदी बह नहीं रही है, बल्कि उसकी भूमिगत घाटी में जल का बड़ा भंडार है.

अगर लुप्त नदी घाटी से लगातार बड़े पैमाने पर बोरवेल के जरिए पानी निकाला जाता रहा तो पाताल में पैठी नदी हमेशा के लिए सूख जाएगी, क्योंकि उसमें नए पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है. वैज्ञानिक तो यही चाहते हैं कि पाताल में जमी नदी के पानी का बेहिसाब इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि अगर ऐसा किया जाता रहा तो जो सरस्वती कोई 4,000 साल पहले सतह से गायब हुई थी, वह अब पाताल से भी गायब हो जाएगी.

(इस ब्लॉग को लिखने में इंडिया टुडे में पीयूष बबेले और अनुभूति बिश्नोई की रपटों को आधार बनाया गया है)

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Friday, October 18, 2019

मीडिया के नए चलन पर बारीक निगाह का दस्तावेज है साकेत सहाय की किताब

आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा. 

यह मानी हुई बात है कि संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया में भाषा की जितनी भूमिका रही है उतनी ही संचार माध्यमों की भी. बल्कि संचार माध्यम ही अब यह तय करने लगे हैं कि किसी भाषा का कलेवर क्या होगा? संस्कृति को लेकर तमाम बहसों और विमर्शों के बाद भी इस शब्द पर बायां या दाहिना हिस्सा अपने तरह की जिद करता है. पर यह सच है कि किसी जगह की तहजीब समाज में गुंथी होती है.

आज के दौर में जब पत्रकारिता समाज के प्रति मनुष्य की बड़ी जिम्मेवारी का एक स्तंभ तो मानी जाती है पर उसके विवेक पर कई दफा सवाल भी खड़े किए जाने लगे हैं, तब इस भाषा, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच के नाजुक रिश्ते पर नजर डालना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है. कहीं संस्कृति के लिए पत्रकारिता तो कहीं पत्रकारिता के लिए संस्कृति कार्य करती है. इन दोनों के स्वरूप निर्धारण में भाषा अपनी तरह से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. भारत के संदर्भ में इसे बखूबी समझा जा सकता है. आज यदि गिरमिटिया मजदूरों ने अपनी सशक्त पहचान अपने गंतव्य देशों में स्थापित की है तो इसमें उनकी सांस्कृतिक और भाषायी अभिरक्षा की निहित शक्ति ही काम करती दिखती है.

वैसे आज के दौर में पत्रकारिता का विलक्षण इलेक्ट्रॉनिक रूप कई दफा संस्कृति, भाषा और पत्रकारिता के इस घनिष्ठ संबंध को तोड़ते नजर आते है. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की व्यापक प्रगति और हर घर में उनकी पैठ का नतीजा यह हुआ है कि यह समाज के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने की स्थिति में है. टीवी के मनोरंजन और खबरों के आगे, साइबर या डिजिटल दुनिया में खबर, विज्ञापन, बहस-मुबाहिसे हर चीज हिंदुस्तानी सामाजिक परिवेश, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, भाषा और यहां तक कि लोकतंत्र पर भी अपना असर डाल रहे हैं.

अपनी किताब ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’ में डॉ. साकेत सहाय इन्हीं कुछ यक्ष प्रश्नों से जूझते नजर आते हैं. उनकी इस किताब को कोलकाता के मानव प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा.

साकेत सहाय खुद प्रयोजनमूलक हिंदी के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं और वित्तीय, समकालिक और भाषायी विषयों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं.

अपनी किताब की भूमिका में सहाय लिखते हैं, "मीडिया के नए चलन से एक नई संस्कृति का विकास हो रहा है. बाजार के दबाव में यह माध्यम जिस प्रकार से भाषा, साहित्य और संस्कृति की त्रिवेणी को मैला कर रहा है, वह हमारे लोकतंत्र व समाज के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा."

सहाय की यह किताब भाषा, कला, बाजार, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य, सोशल मीडिया और समाज से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाभिनाल संबंध को गौर से देखती है और इस तथ्य को बखूबी रेखांकित करने का प्रयास करती है. इस किताब में सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दशा-दिशा, भाषा, संस्कार की वजह से विकसित हो रही एक नई संस्कृति का सूक्ष्म और बारीक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.

किताबः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’
लेखकः डॉ. साकेत सहाय
प्रकाशकः मानव प्रकाशन, कोलकाता

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Tuesday, October 15, 2019

बारह किस्म की कहानियां

बारह चर्चित कहानियां बारह महिला रचनाकारों की कहानियां का संग्रह है. महिला विमर्श के साथ ही समाज की कहानियों को नए शिल्प और नए रूप में पेश करता यह संग्रह पठनीय है.

कोई कहानी संग्रह हो और उसमें बारह अगर-अलग शैली के रचनाकार हों तो मन अपने-आप खिंच जाता है कि बारह स्वरों को एक साथ पढ़ना अलग किस्म का अनुभव देगा. सुधा ओम ढींगरा और पंकज सुबीर के संपादन में बारह चर्चित कहानियां शायद पाठकों को ऐसे ही जायके देगा.

ये बारह कहानियां विभोम-स्वर के बारह अंकों में प्रकाशित हो चुकी कहानियां है और संयोग यह भी है कि इसमें सभी रचनाकार लेखिकाएं हैं. ऐसे में यह विचार भी आता है कि क्या यह सभी कहानियां एक स्वर या एक व्याकरण के आसपास ही लिखी गई होंगी? लेकिन इस जवाब ना में है.

बारह चर्चित कहानियां संग्रह. फोटोः मंजीत ठाकुर
इस कथा संग्रह की बारहों कहानियों के कथ्य और शिल्प में वैविध्य है. खासकर तौर पर, इनमें से कई रचनाकार प्रवासी भारतीय भी हैं तो भाषा और शिल्प के स्तर पर अलग रंग निखरता दिखता है. वैसे आप चाहें तो इस कथा संग्रह को बारह चर्चित कथाओं के स्थान पर बारह महिला कथाकारों की चर्चित कहानियां या फिर चर्चित लेखिकाओं की बारह चर्चित कहानियां भी मान सकते हैं.

इस संग्रह में आकांक्षा पारे, सुदर्शन प्रियदर्शिनी. पुष्पा सक्सेना, अचला नागर, डॉ. विभा खरे, पारुल सिंह. उर्मिला शिरीष, डॉ. हंसा दीप, अनिल प्रभा कुमार, हर्ष बाला शर्मा, अरुणा सब्बरवाल और नीरा त्यागी की रचनाएं हैं.

पहली ही कहानी आकांक्षा पारे की है. पेशे से पत्रकार पारे की कहानी में नए जमाने की किस्सागोई है. प्रेम को व्यक्त करना और अव्यक्त प्रेम, अपूरित आकांक्षाओं के साथ और फिर एक टीस का बना रह जाना. अगर आपने पलटते हुए भी पारे की कहानी का कुछ अंश पढ़ लिया तो बिना पूरा पढ़े नहीं छोड़ पाएंगे.

खाली हथेली में सुदर्शन प्रियदर्शनी नारियों के शोषण और दमन की बात को नए आयामों में स्वर देती हैं, तो नीरा त्यागी तलाक के तुरंत बाद समाज की प्रतिक्रिया और नायिका के नए बने संबंध में प्रेमी के मां के साथ उसके गरमाहट भरे रिश्तों की कई परते हैं. लेकिन कथ्य और शिल्प के मामले में अच्छा अनुभव महसूस होता है पारूल सिंह की कहानी ऑरेंज कलर का भूत पढ़ते हुए. नायिका का बीमार बच्चा और उसी बहाने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज के नजरिए पर तल्ख टिप्पणी के साथ ही पारूल कहानियों को कहने का नया संसार खोलती हैं.

इसी तरह तवे पर रखी रोटी डॉ. विभा खरे की कहानी है, जिसके केंद्र में एक प्रश्न हैः वह मुझे इंसान समझता या सिर्फ बीवी? इस संग्रह की तमाम कहानियों में हर कहानी की नायिका इतना इशारा तो करती है ही कि समाज हो या घर, अस्पताल हो या कार्यस्थल तवे पर रखी रोटी हर जगह जल रही है. इन बारह कहानियों में हरेक में स्त्री किरदार अपने तरीके से सवाल पूछ रही हैं. चाहे ये प्रश्न प्रेम से जुड़े हों या रिश्तों के.

बधाई सुधा ओम ढींगरा और बधाई पंकज सुबीर को, कि उन्होंने कथा चयन में सावधानी बरती है. हां, ये बात और है कि किताब का कवर कहानियों के कथ्य के लिहाज से मेल नहीं खाता. इसे और बेहतर बनाया जा सकता था. यह जमाने की मांग है.

किताबः बारह चर्चित कहानियां
विभोम-स्वर के बारह अंकों से
संपादकः सुधा ओम ढींगरा और पंकज सुबीर
शिवना प्रकाशन
कीमतः 200 रुपए

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Monday, October 14, 2019

नदीसूत्रः हर नदी का नाम हमारे विस्मृत इतिहास का स्मृति चिन्ह है

नदियों के नाम के साथ जुड़े किस्से बहुत दिलचस्प हैं. हर नाम के पीछे एक कहानी है और एक ही नाम की नदियां देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद हैं.


पिछले कई नदीसूत्र नदियों की जिंदगी पर उठते सवालों पर आधारित थे. आदिगंगा, रामगंगा, खुद गंगा, गोमती... इन सभी नदियों में प्रदूषण और नदियों से सारा पानी खींच लेने की हमारी प्रवृत्ति ने देश भऱ की नदियों के अस्तित्व पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं. फिर एक सवाल कौन बनेगा करोड़पति में दिखा कि दक्षिण की गंगा किस नदी को कहते हैं? जाहिर है इसका उत्तर हममें से कई लोगों को मालूम होगा. पर इस सवाल के बरअक्स कई और सवाल खड़े होते हैं कि अगर गोदावरी दक्षिण की गंगा है तो पूर्व या पश्चिम की गंगाएं भी होनी चाहिए? या फिर कितनी नदियां हैं जिनके नाम गंगा से मिलते जुलते हैं?

मैंने इस बारे में कुछ प्रामाणिक लेखन करने वाले विशषज्ञों और जानकारों का लिखा पढ़ा. तब मुझे लगा कि नदीसूत्र में हम प्रदूषण की बात तो करेंगे ही, पर कुछ ऐसी दिलचस्प बातें भी आपको बताना चाहिए कि नदियों की संस्कृति, उसके किनारे पली-बढ़ी सभ्यता और हमारी विरासत और इतिहास की हल्की-सी झलक आपको मिल सके.

जम्मू-कश्मीर में बहने वाली नदी झेलम. फोटोः इंडिया टुडे

अब इन्हीं सामग्रियों से मुझे पता चला कि देश की कई नदियां ऐसी हैं, या कम से कम उनके नाम ऐसे हैं कि एकाधिक सूबे में उनकी मौजूदगी है. मसलन, परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि हम सभी धौलीगंगा नाम की एक ही नदी का अस्तित्व जानते हैं. पर सचाई यह है कि उत्तराखंड में ही दो धौलीगंगाएं हैं. पहली, जो महाकाली बेसिन में बहती है और दूसरी जो ऊपरी गंगा बेसिन में. दांडेकर लिखती हैं कि धौलीगंगा ही क्यों, काली, कोसी और रामगंगा की भी डुप्लिकेट नदियों के अस्तित्व हैं.

अगर हम नदियों के नामकरण के इतिहास में जाएं तो आपको लुप्त और विस्मृत सभ्यताओं, इस इलाके के इतिहास और भूगोल के बारे में भी नई और अलहदा जानकारियां मिलेंगी. पर इन नदियों के बारे में खोजबीन करना उतना आसान भी नहीं है. इस पोस्ट में शायद मैं एकाध नदियों के नामों के बारे में कुछ जानकारियां साझा कर पाऊं.

छठी कक्षा के इतिहास की किताब में ही हमें यह पढ़ा दिया जाता है कि दुनिया की महान सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित हुई हैं. अपने हिंदुस्तान, या भारत या इंडिया का नामकरण भी तो नदी के नाम पर ही हुआ है. इंडस को ही लें, यह पुराने ईरानी शब्द हिंदू से निकला है. क्योंकि आर्य लोग वहां बहने वाली नदी को सिंधु (यानी सागर) कहते थे. यह शब्द संस्कृत का है और स का उच्चारण न कर पाने वाले शकद्वीप (ईरान) के लोगों ने इस नदी के परली तरफ रहने वालों को हिंदू कहना शुरू कर दिया.

ऋग्वेद के नदीस्तुति सूक्त में सिंधु नदी का लिंग निर्धारण तो नहीं है, लेकिन बाकी की नदियां स्त्रीलिंग ही हैं. दांडेकर लिखती हैं, पश्तो भाषा में सिंधु, अबासिन या पितृ नदी है जिसे लद्दाखी भाषा में सेंगे छू या शेर नदी भी कहते हैं. गजब यह कि तिब्बत में भी इस नदी को सेंगे जांग्बो ही कहते हैं इसका मतलब भी शेर नदी ही होता है और दोनों ही शब्द पुलिंग हैं.

नदियों का लिंग निर्धारण का भी अजीब चमत्कार है. भारत की अधिकांश नदियां (आदिवासी नामों वाली नदियां भी) अधिकतर स्त्रीलिंग ही हैं. साथ ही, भारतीय संस्कृति में कुछ नदियों को पुलिंग भी माना गया है. इसकी बड़ी मिसाल तो ब्रह्मपुत्र ही है. दांडेकर, धीमान दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं कि ब्रह्मपुत्र की मूल धारा यारलांग जांग्बो भी पुलिंग है. इसी तरह इसकी प्रमुख सहायक नदी लोहित भी है. पश्चिम बंगाल में बहने वाली अधिकतर नदियां, मयूराक्षी को छोड़ दें तो, पुरुष नाम वाली ही हैं. मसलन, दामोदर, रूपनारायण, बराकर, बराकेश्वर, अजय, पगला, जयपांडा, गदाधारी, भैरव और नवपात्र.

सवाल है कि इन नदियों के नाम अधिकतर पुरुषों के नाम पर ही क्यों रखे गए?

दांडेकर, दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं, कि इन नदियों का स्वरूप अमूमन विध्वंसात्मक ही रहा है. इसलिए उनको पुलिंग नाम दिए गए होंगे.

चलिए थोड़ा उत्तर की तरफ, सतलज की मिसाल लेते हैं. इसका वैदिक नाम शतद्रु है. शत मतलब सौ, द्रु मतलब रास्ते. यानी सैकड़ों रास्तों से बहने वाली नदी. एक सेमिनार में कभी साहित्यकार काका साहेब कालेलकर इन इन नदियों को मुक्त वेणी या युक्त वेणी (बालों की चोटी से संदर्भ) कहा. बालों की चर्चा चली है तो महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में बहने वाली नदी हिरण्यकेशी का नाम याद आता है. हिरण्य मतलब सोना होता है. समझिए कि सूरज की किरणों में इस नदी का पानी कैसी सुनहरी आभा से दमकता होगा.

आदिवासी परंपराओं में भी अमूमन नदियों के नाम पुलिंग ही मिलते हैं. सिक्किम में शादियों में रंगीत (पुरुष) नदी और रागेन्यू (स्त्री, प्रचलित नाम तीस्ता) नदियों के प्रेम के गीत गाए जाते हैं. कहानी है कि ये दो प्रेमी नदियां माउंट खानचेंगद्जोंगा का आशीर्वाद लेने पहाड़ों से नीचे उतरी थीं. रंगीत को रास्ता दिखाने के लिए एक चिड़िया आगे-आगे उड़ रही थी और जबकि रांगन्यू को रास्ता दिखा रहा था एक सांप. रांगन्यू ने सांप का आड़ा-तिरछा सर्पीला रास्ता पकड़ा और मैदानों में पहले पहुंचकर रंगीत (तीस्ता) की राह देखने लगी.

भूतिया चिड़िया ने रंगीत को रास्ता भटका दिया जो ऊपर-नीचे रास्ते में भटक गया. उसे आऩे में देर हो गई. सिक्किमी लोककथा के मुताबिक, पुरुष होने के नाते रंगीत ने रांगन्यू को पहले पहुंचकर इंतजार करते देखा तो उसे बहुत बुरा लगा. इसके बाद, रांगन्यू ने रंगीत को बहुत मनाया-दुलराया कि देर से आऩा उसकी गलती नहीं थी. तब जाकर रंगीत माना.

ऐसी ही एक कहानी चंद्र और भागा की भी है, जो मिलकर चंद्रभागा नदी बनाते हैं. यही चंद्रभागा एक तरफ चिनाब भी कही जाती है. पर यह कहानी हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पिति घाटी की है. लोककथा के मुताबिक, चांद की बेटी चंद्रा, जिसका उद्गम चंद्रा ताल से है, भागा नामक नद से प्रेम करती थी. भागा भगवान सूर्य का बेटा था. वह सूरज ताल से निकलता है. इन दोनों ने फैसला किया कि वे बारालाछाला दर्रे तक जाएंगे और विपरीत दिशाओं से होकर वापस आएंगे फिर टंडी में मिलकर विवाह कर लेंगे. चंद्रा बल खाती हुई टंडी तक पहुंच गई जब भागा का रास्ता उतना आसान नहीं था. भागा को नहीं पाकर चंद्रा चिंतित हो गई और वह उसे खोजने के लिए वापस फिर केलांग तक चली गई. चंद्रा ने देखा, भागा एक गहरी खाई के बीच से अपनी राह बनाने की कोशिशों में जुटा था. आखिरकार वे टंडी में मिले और उससे आगे नदी का नाम चंद्रभागा पड़ गया.

दिलचस्प यह है कि पश्चिम बंगाल में भी वीरभूम जिले में एक चंद्रभागा बहती है. दांडेकर लिखती हैं कि एक अन्य चंद्रभागा गुजरात में अहमदाबाद के पास है. पुरी के पास कोणार्क मंदिर के पास से बहने वाली नदी का नाम भी चंद्रभागा है. विट्ठल मंदिर के पास पंढरपुर में बहने वाली नदी तो चंद्रभागा है ही. वैसे एक चंद्रभागा बिहार में भी है, जिसे चानन नदी कहा जाता है.

नदियों के नाम के किस्से बहुत दिलचस्प हैं और कोशिश रहेगी कि अगली दफा नदीसूत्र में कुछ और दिलचस्प किस्से सुना पाऊं.

Monday, October 7, 2019

नदीसूत्रः साबरमती नदी के पानी में पल रहा है सुपरबग

नदियों में प्रदूषण के खतरों के कई आयाम बन रहे हैं. एक अध्ययन बता रहा है कि प्रदूषण की वजह से गुजरात की साबरमती नदी में ई कोली बैक्टिरिया में एंटी-बायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. यह एक संभावित जैविक बम साबित हो सकता है


भारतीय मनीषा में एक पौराणिक कथा है कि एक बार भगवान शिव देवी गंगा को लेकर गुजरात लेकर आए थे, और इससे ही साबरमती नदी का जन्म हुआ. कुछ सदी पहले इसका नाम भोगवा था. भोगवा का नाम बदला तो इसके साथ नए नाम भी जुड़े.


गुजरात की वाणिज्यिक और राजनीतिक राजधानियां; अहमदाबाद और गांधीनगर साबरमती नदी के तट पर ही बसाए गए थे. एक कथा यह भी है कि गुजरात सल्तनत के सुल्तान अहमद शाह ने एक बार साबरमती के तट पर आराम फरमाते वक्त एक खरगोश को एक कुत्ते का पीछा करते हुए देखा. उस खरगोश के साहस से प्रेरित होकर ही 1411 में शाह ने अहमदाबाद की स्थापना की थी. बाद में, पिछली सदी में साबरमती नदी गांधीवादियों और देशवासियों का पवित्र तीर्थ बना क्योंकि महात्मा गांधी ने इसी नदी के तट पर साबरमती आश्रम की स्थापना की थी.

लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिदृश्य भी बदल गया है.

साबरमती नदी का अपशिष्ट साफ करने के लिए बना एसटीपी. फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया




साबरमती अब दूसरे वजहों से खबरों में आती है. पहली खबर तो यही कि साबरमती का पेटा सूख गया है और अब इस नदी में इसका नहीं, नर्मदा का पानी बहता है. दूसरी खबर, गुजरात सरकार ने इसके किनारे रिवरफ्रंट बनाया है. और अब इस नदी के किनारे अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव से लेकर न जाने कितने आयोजन होते हैं. शी जिनपिंग को भी प्रधानमंत्री ने यहीं झूला झुलाया था. 2017 में विधानसभा चुनाव के वक्त यहीं रिवरफ्रंट पर मोदी जी सी-प्लेन से उतरे थे.

बहरहाल, अगर आप कभी अहमदाबाद गए हों तो खूबसूरत दिखने वाले रिवरफ्रंट पर गए जरूर होंगे. क्या पता आपने नदी के पानी पर गौर किया या नहीं. विशेषज्ञ कहते हैं कि साबरमती में बहने वाला पानी अत्यधिक प्रदूषित है. इस बारे में एनजीओ पर्यावरण सुरक्षा समिति और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) ने एक संयुक्त अध्ययन किया है अपने अध्ययन में साबरमती में गिरने वाले उद्योगों से गिरने वाले अपशिष्ट और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से गिरने वाले पानी से जुड़े तथ्य खंगाले. 

इस साल की शुरुआत में आई डिजास्ट्रस कंडीशन ऑफ साबरमती रिवर नाम की इस रिपोर्ट में कई खतरनाक संदेश छिपे हैं. रिपोर्ट कहती है कि अहमदाबाद के वासणा बैराज के आगे बने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांथट जिसकी क्षमता 160 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) उसमें से गिरने वाले पानी में बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 139 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सी जन डिमांड (सीओडी) 337 मिग्रा प्रति लीटर है और टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 732 मिग्रा प्रति लीटर है. 

वैसे राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का मानक पानी बीओडी की मात्रा अधिकतम 10 मिग्रा प्रति लीटर तक की है. वैसे नदी के पानी में सल्फेीट की मात्रा 108 मिग्रा प्रति लीटर और क्लोरराइड की मात्रा 186 मिग्रा प्रति लीटर बताई गई है. 

इसी तरह वासणा बैराज के आगे नदी में इंडस्ट्री के गिरने वाले पानी की जांच गई तो सामने आया कि इसमें बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 536 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सीकजन डिमांड (सीओडी) की मात्रा 1301 मिग्रा प्रति लीटर, टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 3135 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है. सल्फेतट की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है, वहीं क्लोसराइड की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है.

खास बात है कि इंडस्ट्रीफ का केमिकल युक्तम कितना पानी रोजाना साबरमती में गिर रहा है इसका कोई लेखा जोखा नहीं है.

हालांकि, साबरमती में अपशिष्ट जल के ट्रीटमेंट के लिए एसटीपी बनाए गए हैं पर इससे एक अलग ही समस्या खड़ी हो रही है. एक अध्ययन यह भी बता रहा है कि इन एसटीपी में ट्रीटमेंट के दौरान बीमारी पैदा करने वाले सूक्ष्मजीव एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं. जाहिर है, इससे एक बड़ी समस्या खड़ी होने वाली है. 

पर्यावरण पर लिखने वाली वेबसाइट डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में आइआइटी गांधीनगर में अर्थ साइंसेज के प्रोफेसर मनीष कुमार कहते हैं कि हमने पाया है कि प्रदूषण की वजह से सीवेज और जलाशयों में ई कोली बैक्टिरिया में मल्टी-ड्रग एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस यानी प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. ई कोली के सुपरबग में बदलने का क्या असर होगा? हालांकि ई कोली की अधिकतर नस्लें बीमारियों के लिए उत्तरदायी नहीं है लेकिन उनमें से कई डायरिया, न्यूमोनिया, मूत्राशय में संक्रमण, कोलेसाइटिस और नवजातों में मनिनजाइटिस पैदा कर सकते हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह काम सीवेज ट्रीटमेंट में क्लोरीनेशन और अल्ट्रा-वायलेट रेडिएशन के दौरान बैक्टिरिया के जीन में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से हुआ होगा. 

समस्या यह है कि अगर बैक्टिरिया से यह जीन ट्रांसफर किसी अलहदा और एकदम नई प्रजाति को जन्म न दे दे. यह खतरनाक होगा. 

बहरहाल, साबरमती नदी की कोख में पल रहे इन संबावित जैविक बमों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है. भगवान शिव और गंगा की देन यह नदी अब नर्मदा से पानी उधार लेकर बह रही है. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि साबरमती में पानी नहर के जरिए भरा जा रहा है. रिवरफ्रंट जहां खत्म होता है वहां वासणा बैराज है, जिसके सभी फाटक बंद करके पानी को रोका गया है. ऐसे में रिवरफ्रंट के आगे नदी में पानी नहीं है और न उसके बाद नदी में पानी है. वासणा बैराज के बाद नदी में जो भी बह रहा है वो इंडस्ट्री और नाले का कचरा है. नदी में गिर रहा कचरा बेहद खतरनाक है और इस पानी का उपयोग करने वाले लोगों के लिए यह नुकसान ही करेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अहमदाबाद के बाद अगले 120 किमी तक नदी में सिर्फ औद्योगिक अपशिष्ट सड़े हुए पानी की शक्ल में बहता है और यही जाकर अरब सागर में प्रवाहित होता है. 

पर नर्मदा के खाते में भी कितना पानी बचा है जो वह इस तदर्थवाद के जरिए साबरमती को जिंदा रख पाएगी, यह भी देखने वाली बात होगी.

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Wednesday, October 2, 2019

झारखंड सरकार पर आरोप, मधुपुर में राज्य सरकार ने हड़प ली स्कूल की जमीन

झारखंड में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू है और ऐसे में ताबड़तोड़ घोषणाओं और शिलान्यासों का दौर चल रहा है. इसी क्रम में मधुपुर शहर में झारखंड सरकार ने कथित तौर पर एक स्कूल का अहाता ही हड़प लिया है. 


झारखंड में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू है और ऐसे में ताबड़तोड़ घोषणाओं और शिलान्यासों का दौर चल रहा है. मधुपुर विधानसभा क्षेत्र में अपनी कमजोर स्थिति से पार पाने के लिए स्थानीय विधायक झारखंड के श्रम मंत्री राज पलिवार भी शिलान्यास पर शिलान्यास किए जा रहे हैं.

पर इस क्रम में झारखंड सरकार ने कथित तौर पर एक स्कूल का अहाता ही हड़प लिया है. 22 सितंबर को झारखंड सरकार के पर्यटन, कला संस्कृति और युवा कार्य विभाग की ओर से मधुपुर विधानसभा क्षेत्र में मधुपुर शहर के मशहूर एमएलजी उच्च विद्यालय के अहाते पर मनमाने ढंग से इंडोर स्टेडियम बनाने के लिए शिलान्यास की खबर आई है. असल में, सरकार स्कूल के अहाते में एक इंडोर स्टेडियम का निर्माण कर रही है. जबकि, जमीन स्कूल की है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि स्कूल की जमीन पर इंडोर स्टेडियम बनाने का कोई औचित्य नहीं है और सरकार इसके लिए सरकारी जमीन का इस्तेमाल कर सकती थी. पर शिलान्यास की हड़बड़ी और वाहवाही लूटने के चक्कर में यह काम किया गया है.

पिछले रविवार को एमएलजी स्कूल के अहाते में 1.73 करोड़ की लागत से बनने वाले इंडोर स्टेडियम का शिलान्यास सूबे के श्रम मंत्री राज पलिवार ने कर दिया. इस दौरान उन्होंने कहा कि किसी भी सरकार ने मधुपुर में इंडोर स्टेडियम बनाने का काम नहीं किया. लेकिन भाजपा की रघुबर सरकार ने शहर के खिलाड़ियों की प्रतिभा को देखते हुए मधुपुर में इंडोर स्टेडियम निर्माण की स्वीकृति प्रदान की है. पलिवार ने स्थानीय मीडिया से बातचीत में सरकार की पीठ थपथपाते हुए कहा कि मधुपुर में वर्षों से खिलाड़ी इंडोर स्टेडियम की मांग की जाती रही है जिसे उन्होंने पूरा करने का काम किया है.

उन्होंने कहा कि 12 से 15 माह के अंदर स्टेडियम बनकर तैयार हो जाएगा. यह स्टेडियम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होगा. इंडोर स्टेडियम मधुपुर क्षेत्र के खिलाड़ियों की प्रतिभा को विकसित करने में मील का पत्थर साबित होगा. इसमें हर प्रकार की सुविधा मिलेगी.

लेकिन चुनावी समय होने से यह मामला सियासी होने लगा है.

कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष और जामताड़ा विधायक डॉ. इरफान अंसारी ने कहा है, "स्कूल की जमीन पर सरकारी कब्जा अवैध है और वे स्कूल की जमीन हथियाने नहीं देंगे." गौरतलब है कि खुद अंसारी मधुपुर के रहने वाले हैं. अंसारी कहते हैं, "स्टेडियम का शिलान्यास किया गया है, वह राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश मात्र है. वह इलाका शहर का एजुकेशन हब है, वहां आप स्टेडियम बना रहे हैं? सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए कि वह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करे. कांग्रेस पार्टी वहां ऐसा नहीं होने देगी."

अंसारी का कहना है कि मधुपुर में सरकारी मिल्कियत वाली जमीन की कोई कमी नहीं है और इंडोर स्टेडियम कहीं और भी बनाया जा सकता था. स्थानीय लोगों का कहना है कि स्कूल के अहाते में आसपास के स्कूलों समेत मुहल्ले के बच्चे खेलने आते हैं और स्टेडियम बन जाने से उनका यह मैदान छिन जाएगा.

पर इससे बड़ा मसला यह है कि एमएलजी उच्च विद्यालय को सन 1980 में राज्य सरकार (तब बिहार) ने अधिगृहीत किया था. उससे पहले यह स्कूल विद्यालय प्रबंध समिति के जरिए संचालित किया जाता था.

स्थापना की मंजूरी मिलने के बाद तब के विद्यालय प्रबंध समिति के सचिव राधाकृष्ण चौधरी के जरिए कुल 2.71 एकड़ जमीन विद्यालय के दखल में 1961 से ही है. साथ ही स्थानीय जमींदार से मिले हुकुमनामे के तहत इस स्कूल के पास कोई 6 बीघा 6 कट्ठे से अधिक जमीन स्कूल के पास है.

अधिग्रहण के बाद से यह स्कूल बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के तहत चला गया. स्कूल ही नगरपालिका को मालगुजारी और बाकी के टैक्स भरता रहा है. स्कूल प्रशासन भूमि पर अचानक हुए शिलान्यास को अवैध कब्जा बता रहा है. इस संदर्भ में स्कूल प्रशासन ने जिलाधिकारी को ज्ञापन दिया है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या स्कूल की जमीन पर अचानक ऐसे किसी स्टेडियम का निर्माण कानूनन सही है या फिर इसे सरकार का जबरिया कब्जा माना जाए.

Tuesday, October 1, 2019

जीवन के अद्भुत रहस्य खोलती है गौर गोपाल दास की किताब

आध्यात्मिक गुरु गौर गोपाल दास की किताब, जीवन के अद्भुत रहस्य जीवन जीने के तौर-तरीकों को सुधारने की बात करती है.


इस गेरुआ वस्त्र पहने आध्यात्मिक गुरु की भाव-भंगिमा ऊर्जा से भरी है. देहभाषा सकारात्मक है और वे मौजूदा जिंदगी से जुड़ी मिसालें देकर बात करते हैं. मसलन, खान-पान में सहजता के लिए गुरु गौर गोपाल दास गोलगप्पे का मिसाल देते हैं और बताते हैं कि उसे चम्मच से खाना असहज है. और फिर अपनी मिसाल देकर खिलखिलाकर हंसते हैं, तो साथ में सारे श्रोता भी हंसते है. बोलते समय उनके हाथ भी उनकी बात प्रेषित करने में मदद करते हैं और आवाज़ में नाटकीय उतार-चढ़ाव श्रोता को अपने साथ बहा ले जाती है.

खुद को लाइफ इंजीनियर बताने वाले इस्कॉन से जुड़े गौर गोपाल दास आज की तारीख में काफी ख्यात हो चुके हैं. पिछले दिनों वह अपनी किताब ‘जीवन के अद्भुत रहस्य’ के विमोचन के मौके पर दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में थे. और उनसे बातचीत करने के लिए मंच पर मशहूर अभिनेत्री दिव्या दत्ता थीं. 



आध्यात्मिक गुरु गौर गोपाल दास की किताब का कवर फोटो सौजन्यः पेंग्विन इंडिया

कभी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रहे दास ने लाइफ कोच बनने का फैसला क्यों किया? हंसते हुए गौर गोपाल दास कहते हैं, “जिस तरह जीवन में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की जरूरत होती है उसी तरह ह्यूमन इंजीनियर की भी जरूरत होती है. उसे हम कमतर नहीं मान सकते. इसलिए मैंने सोचा कि इंसानों में जो गड़बड़ियां हैं, उसे ठीक करने की कोशिश की जाए.”

गौर गोपाल दास ने कहा कि अक्सर कोई काम करने से पहले हम सोचते हैं कि दूसरा आदमी क्या सोचेगा, जबकि 90 फीसदी मामलों में ये गलत होता है. उन्होंने कहा कि हमने खुद को देखना बंद कर दिया है. हम अक्सर दूसरों के नजरिये से खुद को देखते हैं. यह बड़ी समस्या है. हम सोशल मीडिया पर 5000 दोस्तों के संग तो हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में हमारा एक दोस्त नहीं होता. यह अकेलापन का सबसे बड़ा कारण है. लोग अकेले रहने से घबराते हैं क्योंकि वो एक ऐसा आईऩा है जिसमें खुद का अक्स दिखता है. उन्होंने कहा कि नौजवानों का अकेलापन कृत्रिम है, बुजुर्गों का अकेलापन वास्तविक.

गौर गोपाल दास अपनी बातचीत में श्रोताओं से सीधा संपर्क साधते हैं. वह अपने अनुभवों के साथ अध्यात्म को जोड़ते हैं. मसलन, अपने हालिया अमेरिका प्रवास के कुछ किस्सों को जीवन अनुभवों से जोड़ते हैं. गौर गोपाल दास के बारे में मशहूर अभिनेत्री दिव्या दत्ता कहती हैं, “मेरे लिए प्रभुजी एक ऐसे व्यक्तित्व की तरह रहे हैं जिनकी प्रेरक बातें हमेशा हमारे चेहरों पर खूबसूरत मुस्कान लाती है और जब आप उनको सुनते हैं तो जिंदगी और खूबसूरत हो जाती है.”

जाहिर है चाहे आप संबंधों में मजबूती तलाश रहे हों या अपनी वास्तविक क्षमता को जानने की कोशिश कर रहे हों या फिर इस पर विचार कर रहे हों कि दुनिया को क्या कुछ लौटाया जा सकता है, गौर गोपाल दास की ये किताब उसे समझाने की कोशिश करती है.

गौर गोपाल दास की किताब जीवन के अद्भुत रहस्य के बारे में पेंगुइन की लैंग्वेज पब्लिशिंग एडिटर वैशाली माथुर कहती हैं, ‘यह किताब जिस दिन से लॉन्च हुई है उसी दिन से बेस्टसेलर रही है. जल्दी ही यह किताब छह दूसरी भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध होगी."

गौर गोपाल दास की लिखी यह पहली किताब है, जिसमें उनके अपने जीवन अनुभवों का सार है. किताब की भाषा सरल है लेकिन कथ्य विचारोत्तेजक हैं. मोटे तौर पर यह किताब जीवन जीने के तौर-तरीकों की बात करती है.

गौर गोपाल दास ने पुणे के कॉलेज ऑफ इंजिनीयरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजिनीयरिंग की पढ़ाई की और कुछ समय तक ह्यूलेट पैकर्ड में नौकरी की. उसके बाद उन्होंने मुम्बई के एक आश्रम में रहते हुए सन्यासी का जीवन जीना प्रारंभ किया जहां वह बाइस साल तक रहे और प्राचीन दर्शन और समकालीन मनोविज्ञान की आधुनिकता को समझने का प्रयास करते रहे. उसके बाद वह हजारों-लाखों लोगों के लिए लाइफ कोच बन गए. गौर गोपाल दास सन् 2005 से दुनिया भर की यात्राएं कर रहे हैं और कॉरपोरेट हस्तियों, विश्वविद्यालयों और धर्मादा संस्थानों के साथ अपने विचार साझा कर रहे हैं. सन् 2016 में जब वे इंटरनेट पर आए तो उनकी लोकप्रियता का मानो विस्फोट सा हो गया और सोशल मीडिया पर उनके वीडियो को करोड़ो लोगों ने देखा. गौर गोपाल दास को एमआइटी, पुणे की इंडियन स्टूडेंट पार्लियामेंट ने ‘आइडियल यंग स्प्रिचुअल गुरु’ की उपाधि दी है.

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