Tuesday, June 30, 2015

कमज़ोर मॉनसून से क्या हिम्मत हार दें?

मौसम विभाग ने लगातार दूसरे साल भी औसत से कम बारिश की भविष्यवाणी की है। ऐसा दो बार लगातार सिर्फ 28 साल पहले हुआ था। सोलह साल के बाद ऐसा होगा कि देश को सबसे अधिक खाद्यान्न पैदा करके देने वाले दो राज्य पंजाब और हरियाणा में सबसे कम बारिश होने वाली है। इन निराशाजनक आंकड़ों में फंसने की बजाय मैं कुछ उम्मीद से भरी बातें करना चाहता हूं।

प्रधानमंत्री मॉनसून में इस कमी को एक मौके के रूप में लेने की बात कह गए हैं और कहा है कि सूखाग्रस्त इलाकों में माइक्रोसिंचाई योजनाओं का विकास किया जाना चाहिए। दशकों से सिर्फ सरकारें बदलती रही हैं और अब तक हर सरकार गांवों में सिंचाई के लिए एक असरदार और विस्तृत तंत्र बना पाने में नाकाम रही हैं।

हमारे पास आज सिंचाई के नाम पर जो सुविधा है वह बस दशकों पुरानी सिंचाई व्यवस्था का हिस्सा भर है। मौजूदा नहरें कई दशक पुरानी हैं और इनमें गाद की समस्या के साथ-साथ पानी का काफी नुकसान भी होता है।

विख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने एक किताब लिखी है, आज भी खरे हैं तालाब। वह किताब पढ़ें तो आप आसानी से समझ जाएंगे कि तालाबों, पोखरों, कुओं जैसे पारंपरिक जलसंग्रह साधनों को जिन्दा करना ही सबसे मुफीद है।

चावल, गेहूं और मोटे अनाजों को एफसीआई के गोदामों से बाहर निकालने की जरूरत है। देश के वैज्ञानिक पहले ही सूखाप्रतिरोधी बीजों का विकास कर चुके हैं, अब इन्हें सस्ती दरों पर किसानों को दिए जाने की जरूरत है। फिलहाल, जन-धन योजना में जो पंद्रह करोड़ खाते खोलने का दावा सरकार कर रही है, अब उस खाते के सही इस्तेमाल का वक्त आ गया है। सरकार किसानों के लिए राहत सीधे इन्ही खातों में डाल दे, तो बात बन जाए।

कमज़ोर मॉनसून की भविष्यवाणी पर हालांकि लोग शक कर रहे है और मौसम की भविष्यवाणी करने वाली एक निजी वेबसाईट का जिक्र कर रहे हैं जो अल नीनो वर्ष होने के बावजूद दावा कर रही है कि इस साल 102 फीसद बरसात होगी। मेरा मन है कि ऐसा ही है। भारतीय मौसम विभाग 88 फीसद की बात कर रहा है।

लेकिन मॉनसून कमजोर हो तो भी मेरे खयाल में पांच ऐसी बातें हैं जो उम्मीदें बनाए रखने के लिए उजाले की आस सरीखी है। पहली तो यही कि मौसम की भविष्यवाणियां बाज़दफ़ा ग़लत भी साबित हो जाती हैं। ऐसा साल 2006, 2007, 2011 और 2013 में हो चुका है। दूसरी, उत्तर और पश्चिम के ऐसे इलाकों में ठीक-ठाक बरसात की भविष्यवाणी की गई है जहां अनाज की बढ़िया पैदावार होती है, और जहां पिछले साल बारिश खराब हुई थी। यानी, उत्तर-पश्चिम का इलाका जहां पिछली बार 79 फीसद बारिश हुई थी वहां इस बार 85 फीसद होने की उम्मीद है। मध्य भारत में 90 के मुकाबले 90 फीसद, पूर्वोत्तर में 88 फीसद के मुकाबले 90 फीसद, दक्षिण भारत में 93 फीसद के मुकाबले 92 फीसद बरसात की भविष्यवाणी है।

उम्मीद की तीसरी वजह है कि खाद्यान्न की पैदावार पर असर सिर्फ तभी पड़ता है जब बारिश बेहद कम हो। साल 2009 और 2014 ही ऐसा साल रहे हैं जब क्रमशः सामान्य से 21.8 फीसद और 12 फीसद कम बारिश की वजह से खाद्यान्न की पैदावार पर असर पड़ा था।

चौथी वजह यह है कि जाड़े में हुई ठीक-ठाक बारिश की वजह से देश के जलाशयों में 43.14 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी है। यह पिछले दस वर्षों के औसत का 136 फीसद है। तो पानी की कमी नहीं होगी यह भरोसा है।

पांचवी और आखिरी वजह यही कि मॉनसून में देरीकेरल तट पर यह देर से पहुंचा हैका मतलब यह नहीं कि सूखा पड़ेगा ही। साल 2005 में मॉनसून 7 जून को शुरू हुआ था, बारिश महज 1.3 फीसद कम हुई थी। साल 2009 में 25 मई को ही केरल तट से मॉनसून टकराया था, बारिश 21.8 फीसद कम हुई थी।


मुख़्तसर यह कि बारिश का कम होना, या मॉनसून का केरल तट पर कम आना, यह चिंता का विषय तो है लेकिन इस चुनौती को हम मौके में बदल पाए, तो देश की माली हालत के साथ-साथ किसानों के लिए भी राहत की बात होगी।


Tuesday, June 9, 2015

भूख का भूगोल

चलिए, एक चीज में हमने चीन को भी पीछे छोड़ दिया। जनसंख्या की बात नहीं कर रहा, क्योंकि मौजूदा दर से बढ़ते रहे तो भी हम 2030 में ही चीन को पीछे छोड़ पाएंगे। विकास दर की बात भी नहीं कर रहा क्योंकि इसके आधार वर्ष में मामूली फेरबदल से आंकड़े उलट जाते हैं।

मैं भूख की बात कर रहा हूं। हमारे महान भारतवर्ष में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। यह आंकड़े संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन ने अपनी रिपोर्ट द स्टेट ऑफ फूड इनसिक्युरिटी इन द वर्ल्ड 2015 में जारी किए हैं। इस रिपोर्ट में विश्व भुखमरी सूचकांक भी जारी किया गया है, जिसमें 79 देशों के आंकड़े लिए गए हैं। निराशा इस बात की है कि भारत को इसमें 65वां स्थान दिया गया है। हमसे कहीं कम विकसित देश पाकिस्तान 57वें और श्रीलंका 37वें पायदान पर हैं। यानी इस मामले में पाकिस्तान और श्रीलंका हमसे बेहतर हैं।

संयुक्त राष्ट्र की भूख संबंधी सालाना रपट के अनुसार दुनिया में सबसे अधिक 19.4 करोड़ लोग भारत में भुखमरी के शिकार हैं। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में भुखमरी के शिकार लोगों की गिनती कम हुई है। नब्बे के दशक में, 1990 से 1992 के बीच दुनिया भर में यह संख्या एक अरब थी और 2015 में यह संख्या घटकर 79.5 करोड़ रह गई है।

हालांकि, भारत में भी तब से अबतक भूखे पेट सोने वालों की संख्या में गिरावट आई है। 1990-92 में भारत में यह संख्या 21.01 करोड़ थी, जो 2014-15 में घटकर 19.46 करोड़ रह गई। लेकिन विकास की रफ्चार के मद्देनज़र और समावेशी विकास के ढोल-तमाशे के बीच भुखमरी के शिकार इतनी बड़ी आबादी का होना ही नीतियों को पुनर्भाषित करने की जरूरत की तरफ इशारा करता है।

हालांकि भारत ने अपनी आबादी में खाने से महरूम लोगों की संख्या घटाने में महत्वपूर्ण कोशिशें की हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक अब भी और कोशिशों की जरूरत है। रिपोर्ट में उम्मीद जताई गई है कि भारत के अनेक सामाजिक कार्यक्रम भूख और गरीबी के खिलाफ जिहाद छेड़े रहेंगे।

लेकिन गौर करने बात है कि इन पचीस सालों में चीन ने अपनी आबादी में से भुखमरी के शिकार लोगों की गिनती में उल्लेखनीय कमी की है। 1990-92 में चीन में यह संख्या 28.9 करोड़ थी जो अब घटकर 13.38 करोड़ रह गई है। एफएओ की निगरानी दायरे में आने वाले 129 देशों में से 72 देशों ने गरीबी उन्मूलन के बारे में सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल कर लिया है।

विश्व भुखमरी सूचकांक में अफ्रीकी देशों में सुधार आया है और भूख पर काबू पाने में अफ्रीकी देशों ने एशियाई देशों की तुलना में कहीं अधिक कामयाबी हासिल की है। लेकिन इरीट्रिया और बुरूंडी जैसे देशों में स्थिति अभी भी चिंताजनक है और वहां खाने की किल्लत और कुपोषण जैसी स्थितियां बनी हुई हैं।

एक तरफ तो हम भारत की मजबूत आर्थिक स्थिति के बारे में विश्व भर में कशीदे काढ़ रहे हैं लेकिन सच यह भी है कि हम विश्व भुखमरी सूचकांक में पिछड़कर फिसलते जा रहे हैं। 1996 से 2001 के बीच स्थितियों में कुछ सुधार देखने को मिला था लेकिन अब स्थिति वापस वहीं पहुंच गई जहां 1996 में थी।

इस मसले पर मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है, मैं बस दो घटनाओं को याद कर रहा हूं। पंजाब विधानसभा चुनाव कवर करने के दौरान मैंने देखा था जालंधर में आलू उत्पादक किसानों ने अपनी फसल सड़को पर फेंक दी थी। दूसरे, मुझे यूपी के ललितपुर जिले के पवा गांव की बदोलन बाई याद आ रही है, जिसका पति 2011 में भुखमरी का शिकार होकर चल बसा था, और अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर उसने कहा थाः सब राजकाज होत दुनिया मा, बस हमरे सुध ना लैहे कोय।

राजकाज चलता ही रहता है, लेकिन जनता-जनार्दन की ऐसी हाय बहुत भारी पड़ती है। मायावती गवाह हैं।


Saturday, June 6, 2015

दो टूकः सबसे कठिन किसानी रामा...

किसानों के लिए दूरदर्शन ने अपना एक खास चैनल शुरू कर दिया है। डीडी किसान। यह काम सिर्फ दूरदर्शन ही कर सकता है। किसान खुद बाज़ार नहीं है। भोंडे से भोंडे गीत-संगीत, कार्टून, फिल्म सबके लिए बाजार है, किसान के लिए नहीं है। किसानों के उत्पादों के लिए भी नहीं।

प्रसार भारती पर बाज़ार का ऐसा कोई दबाव नहीं है। लिहाजा किसानों के लिए चौबीस घंटे का चैनल खुल गया। उम्मीद है कि किसानों के लिए बना यह चैनल कृषि दर्शन के दर्शन को नई ऊंचाई तक ले जाएगा, और नई तकनीक के साथ उनके मनबहलाव का साधन भी मुहैया कराएगा।

देश की जीडीपी में किसान का हिस्सा घट रहा है। गांव की गोरी और किसान फिल्मों में हमेशा रूमानी तरीके से पेश किए जाते रहे हैं। असल स्थिति इसके उलट है।

बेमौसम बारिश के बाद छह सप्ताहों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के 150 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हद तो यह है कि राज्य सरकारें अब भी सच्चाई से मुंह मोड़ने की कोशिश कर रही हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इन घटनाओं का कारण कृषि क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही समस्याएं हैं। आपको याद होगा, इसी स्तंभ में मैंने बंगाल में किसान आत्महत्याओं पर ममता की बयानबाज़ी का मसला उठाया था। ममता ने मरने वाले किसानों को धनपति बताया था।

किसानों की आत्महत्या कोई ताजा मामला नहीं है। पिछले 20 वर्षों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हर साल औसतन 14 से 15 हजार किसान अपनी जान ले रहे हैं, जबकि देश में हर घंटे में दो किसानों की मौत हो रही है। आत्महत्या करने वाले ये किसान राजनीतिक तंत्र तक अपनी आवाज पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे,लेकिन उनकी मौतें भी संवेदनहीन हो चुकी व्यवस्था को तंद्रा से जगा नहीं सकी हैं।

मेरे खयाल से खेती से लगातार कम होती आमदनी आत्महत्याओ की बड़ी वजह है। साल 2014 की एनएसएसओ रिपोर्ट के अनुसार खेती के कामों से एक किसान परिवार को हर महीने केवल 3,078 रुपए की आमदनी होती है। मनरेगा जैसे गैर-कृषि कार्यों में लगने के बाद भी उनकी औसत मासिक आमदनी 6 हजार रुपए प्रतिमाह होती है। हैरत नहीं कि देश के 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर हैं तो 76 फीसदी रोजगार का विकल्प मिलने पर खेती छोड़ने को तैयार हैं।

साल 1970 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपए प्रति क्विंटल था। आज यह 1450 रुपए प्रति क्विंटल है यानी बीते 45 वर्षों में इसमें करीब 19 गुना वृद्धि हुई है। इससे किसानों की बढ़ी आमदनी की तुलना दूसरे तबकों के वेतन में हुए इजाफे से करें। इन वर्षों में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की तनख्वाह 110 से 120 गुना, स्कूल शिक्षकों की 280 से 320 गुना और कॉलेज शिक्षकों की 150 से 170 गुना बढ़ी है। इस दौरान स्कूल फीस और इलाज के खर्चों में 200 से 300 गुना और शहरों में मकान का किराया 350 गुना तक बढ़ गया है।

इस साल भी गेहूं का समर्थन मूल्य 50 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है, जिससे खाद्यान्न की कीमतें नियंत्रित रहें। धान के मूल्य में भी इतना ही इजाफा किया गया है, जो पिछले साल के मुकाबले 3.2 फीसदी ज्यादा है। इसी बीच केंद्रीय कर्मचारियों को महंगाई भत्ते की दूसरी किस्त भी मिल गई, जो पहले से 6 फीसदी ज्यादा है। उन्हें जल्दी ही सातवें वेतन आयोग के अनुरूप वेतन और भत्ते भी मिलने लगेंगे। इसमें सबसे निचले स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी का वेतन भी 26 हजार रुपए महीने करने की मांग हो रही है।

फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाने से खाद्यान्न की कीमतें बढ़ सकती हैं, लेकिन इसके लिए ज्यादा चिंतित होने की भी जरूरत नहीं है। खेती से होने वाली आमदनी में इजाफा नहीं हुआ तो किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं हो सकती। उत्पादकता बढ़ाने या सिंचाई के साधनों का बेहतर इस्तेमाल करने की सलाह देने से खास फायदा नहीं, क्योंकि ये सब तो नई तकनीकों को बेचने के तरीके भी हो सकते हैं।

आसान और कम ब्याज पर ऋण की सुविधाएं बढ़ाने से भी किसान कर्ज के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सकते। किसान को कर्ज नहीं, आमदनी चाहिए।