Thursday, December 27, 2007

जीत गए मोदी

मोदी जीत गए. मेरी प्रतिक्रया थोड़े देर से सही आनी चाहिए थी.. आ रही है।

लोग हल्ला कर रहे हैं सांप्रदायिकता की जीत हो गई... भी लोगों ने चुना है। आप कौन होते हैं बीच में टांग अडाने वाले? ढेर सारे विरोध के बीच मोदी ने मोदीत्व को परवान चढ़ा दिया। अब जीत गए हैं..तो कल तक उनका विरोध करने वाले भाई-बंदे भी उनके ही गीत गाएंगे।

उनका विरोध.. माफ कीजिएगा उनके विरोध में ताताथैया करके ज़मीन-असमान एक कर देने वाले चैनल भी हार मान गए हं। उन्हें पहले ङी खयाल नही ंरहा था.. कि ये चुनाव गुजरात दंगों के बाद नहीं हो रहे।

गुजरात दंगो के बाद का चुनाव पांच बरस पहले खत्म हो चुका है। ये चुनाव तो विकास के मुद्दे पर लड़े गए थे। उधर लालू भन्ना रहे हैं। सोनिया जी ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक कर ली। किसके सर पर तलवार की धार होगी.. ये भी दिख जाएगा..लेकिन जिन मोदी के खिलाफ विरोधी और उनके दल के भीतर के विरोधी सर उठाए थे।

अब नाटक उनके सर को कुचलने को लेकर होगा। खुद को सेकुलर कहने वाले लोग वास्तव में सेकुलर हैं क्या? दरअसल सेक्युलरिज़्म की परिभाषा ही इन्हें याद नहीं।

वोट की खातिर अल्पसंख्यकों (पढ़े- मुसलमानों के लिए) अलग से बजट की व्यवस्था करने वालो के लिए धर्मनिरपेक्षता की बात करनी बेमानी है। मोदी को लोगों ने वोट देकर जिताया है, इस तथ्य को खेल भावना के साथ स्वीकार करें तो बेहतर होगा।

जिस पार्टी में परिवार पार्टी से भी ऊपर है, (और मैं यह कोयी नई बात नही ंकह रहा, सर्वविदित है) उसके लिए व्यक्तिवाद का मुकाबला हास्यास्पद ही है। युवराज की जय और जय माता दी कहने वाले नौटंकीबाजों के लिए गुजरात भले ही आम चुनाव के लिए कैलेंडर का काम करें, लेकिन गुजरात के लोगों ने यह साबित कर दिया कि जीत उसकी होगी, जो आम आदमी के लिए काम करेगा।

जो न खाएगा और न खाने देगा।

और हां, युवराज एक बार फिर चुनावी दौड़ में फिसड्डी साबित हुए। यूपी में उनके सघन अभियान ने कांग्रेस की तीन सीटें कम कर दीं, गुजरात में कुछ बढ़त के बावजूद माता-पुत्र टांय-टांय फिस्स ही रहे। हां, जल्दी चुनाव को लेकर घबराने वाले सांसद अब राहत की सांस ले रहे होंगे। क्योंकि लोक सभा चुनाव तो तयशुदा वक्त पर ही होंगे।

Sunday, December 23, 2007

जोरा-जोरी चने के खेत में


हमने बहुत से गाने सुने हैं, जिनमें चने के खेत में नायक-नायिका के बीच जोरा-जोरी होने की विशद चर्चा होती है। हिंदी फिल्मों में खेतों में फिल्माए गए गानों में यह ट्रेंड बहुत पॉपुलर रहा था। अभी भी है, लेकिन अब खेतों में प्यार मुहब्बत की पींगे बढ़ाने का काम भोजपुरी फिल्मों में ज्यादा ज़ोर-शोर से हो रहा है। उसी तर्ज पर जैसे की एक क़ॉन्डोम कंपनी कहीं भी, कभी भी की तर्ज पर प्रेम की पावनता को प्रचारित भी करती है। या तो घर में जगह की खासी कमी होती है, या फिर खेतों में प्यार करने में ज्यादा एक्साइटमेंट महसूस होता हो, लेकिन फिल्मों में खेतो का इस्तेमाल प्यार के इजहार और उसके बाद की अंतरंग क्रिया को दिखाने या सुनाने के लिए धडल्ले से इस्तेमाल में लाया जा रहा है।

एक बार फिर वापस लौटते हैं, जोरा-जोरी चने के खेत में पर। प्रेम जताने के डायरेक्ट एक्शन तरीकों पर बनी इस महान पारिवारिक चित्र में धकधकाधक गर्ल माधुरी कूल्हे मटकाती हुई सईयां के साथ चने के खेत में हुई जोरा-जोरी को महिमामंडित और वर्णित करती हैं। सखियां पूछती हैं फिर क्या हुआ.. फिर निर्देशक दर्शकों को बताता है कि जोरा-जोरी के बाद की हड़बड़ी में नायिका उल्टा लहंगा पहन कर घर वापस आती है।

अब जहां तक गांव से मेरा रिश्ता रहा है, मैं बिला शक मान सकता हूं कि गीतकार ने कभी गांव का भूले से भी दौरा नहीं किया और गीत लिखने में अपनी कल्पनाशीलता का जरूरत से ज़्यादा इस्तेमाल कर लिया है। ठीक वैसे ही जैसे ग्रामीण विकास कवर करने वाली एक टीवी पत्रकार ने मुझे बताया कि धान पेड़ों पर लता है। धान के पेड़ कम से कम आम के पेड़ की तरह लंबे और मज़बूत होते हैं। मेरा जी चाहा कि या तो अपना सर पीट लूं, या कॉन्वेंट में पढ़ी उस अंग्रेजीदां बाला के नॉलेज पर तरस खाऊं, या जिसने भी रूरल डिवेलपमेंट की बीट उसे दी है, उसे पीट दूं। इनमें सबसे ज़्यादा आसान विकल्प अपना सिर पीट लेने वाला रहा और वो हम आज तक पीट रहे हैं।

बहरहाल, धान के पेड़ नहीं होते ये बात तो तय है। लेकिन चने के पौधे भी इतने लंबे नहीं होते कि उनके बीच घुस कर नायक-नायिका जोरा-जोरी कर सकें। हमें गीतकारों को बताना चाहिए कि ऐसे पवित्र कामों के लिए अरहर, गन्ने या फिर मक्के के खेत इस्तेमाल में लाए जाते या जा सकते हैं। लेकिन गन्ने के खेत फिल्मों में मर्डर सीन के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। उनमें हीरो के दोस्त की हत्या होती है। या फिर नायक की बहन बलात्कार की शिकार होती है। उसी खेत में हीरो-हीरोइन प्यार कैसे कर सकते हैं? उसके लिए तो नर्म-नाजुक चने का खेत ही मुफीद है।

हां, एक और बात फिल्मों में सरसों के खेतों का रोमांस के लिए शानदार इस्तेमाल हुआ है। लेकिन कई बार यश चोपड़ाई फिल्मों में ट्यूलिप के फूलों के खेत भी दिखते हैं। लेकिन आम आदमी ट्यूलिप नाम के फूल से अनजान है। उसे यह सपनीला परियों के देश जैसा लगता है। अमिताभ जब रेखा के संग गलबहियां करते ट्यूलिप के खेत में कहते हैं कि ऐसे कैसे सिलसिले चले.. तो गाना हिट हो जाता है। अमिताभ का स्वेटर और रेखा का सलवार-सूट लोकप्रिय हो जाता है। ट्यूलिप के खेत लोगों के सपने में आने लगते हैं, लेकिन यह किसी हालैंड या स्विट्जरलैंड में हो सकता है। इंडिया में नहीं, भारत में तो कत्तई नहीं।

फिर कैमरे में शानदार कलर कॉम्बिनेशन के लिए सरसों के खेत आजमाए जाने लगे। लेकिन यह जभी अच्छा लगता है, जब पंजाब की कहानी है। क्योंकि सरसों के साग और मक्के दी रोटी पे तो पंजावियों का क़ॉपीराईट है। फिर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के बाद सरसों के खेत का इस्तेमाल करना भी खतरे से खाली नही रहा। सीधे लगता है कि सीन डीडीएलजे से उठा या चुरा लिया गया है।

बहरहाल, मेरी अद्यतन जानकारी के मुताबिक, चने के पौधों की अधिकतम लंबाई डेढ फुट हो सकती है, उसमें ६ फुटा गबरू जवान या पांच फुटी नायिका लेटे तो भी दुनिया की कातिल निगाहों से छुपी नहीं रह सकती। इससे तो अच्छा हो कि लोगबाग सड़क के किनारे ही प्रेमालाप संपन्न कर लें। यह भी हो सकता है कि हमारे यशस्वी गीतकार गन्ने या मक्के के खेत की तुकबंदी न जोड़ पा रहे हों।

हमारी सलाह है राष्ट्रकवि समीर को कि हे राजन्, गन्ने और बन्ने का, मक्के और धक्के का तुक मिलाएं। अरहर की झाड़ी में उलझा दें नायिका की साड़ी फिर देखें गानों की लोकप्रियता। एक दो मिसाल दे दिया है.. क्या कहते हैं मुखड़ा भी दे दूं..

चलिए महाशय सुन ही लीजिए- गांव में खेत, खेत में गन्ना, गोरी की कलाई मरोड़े अकेले में बन्ना,
या फिर, कच्चे खेत की आड़, बगल में नदी की धार, धार ने उगाए खेत में मक्का, साजन पहुंच गए गोरी से मिलने अकेले में देऽख के मार दिया धक्का..

एक और बानगी है- हरे हरे खेत मे अरहर की झाडी़, बालम से मिलने गई गोरी पर अटक गई साड़ी

अब ब़ॉलिवुड के बेहतरीन नाक में चिमटा लगा कर गाने वाले संगीतकारों-गायकों से यह गाना गवा लें। रेटिंग में चोटी पर शुमार होगा। बस ये आवेदन है कि हे गीतकारों, सुनने वालों को चने की झाड़ पर मत चढ़ाओ... गोरियों से नायक की जोरा जोरी कम से कम चने के खेत में मत करवाओ हमें बहुत शर्म आती है।

Saturday, December 22, 2007

तारे ज़मीन पर, आमिर आसमान में


बॉलिवुड में अपनी अलग तरह की फिल्मों और अभिनय के लिए मशहूर आमिर खान अपनी नई पेशकश तारे जमीन पर के साथ एक बार फिर मैदान में हैं। विशेष बच्चों को लेकर बुनी गई इस फिल्म का अलग ट्रीटमेंट इसे खास साबित कर रहा है।


पिछले कुछ साल से आमिर खान नाम के इस सितारे की किस्मत के तारे बेहद बुलंद रहे हैं। रंगीला से जारी उनका सफर कामयाबी के साथ आज भी जारी है। लगान, दिल चाहता है, फ़ना रंग दे बसंती जेसी कामयाब फिल्मों के ढेर के साथ आमिर आज की तारीख में बॉलिवुड में मैथड एक्टिंग का दूसरा नाम बन चुके हैं। इसके अलावा आमिर हमेशा अलग क़िस्म की फिल्मों के चयन के लिए जाने जाते हैं। इस बार भी तारे ज़मीन पर के ज़रिए उन्होंने एक अलहदा किस्म की पटकथा पर काम किया है। फिल्म की कहानी विशेष बच्चों की समस्याओं को लेकर बुनी गई है। एक ऐसा विषय जिसे फिल्म की पटकथा के रूप में उठाना खतरे से खाली नहीं माना जाता।


आमिर ने बदलते वक्त के साथ अपनी शख्सियत और नज़रिए को बदला है। वे जोखिम उठाने और ज़रूरत पड़ने पर अपने खुद के साथ प्रयोग करने के लिए भी तैयार हो गए। उनकी पिछली फिल्में इस बात की ताकीद करती हैं।


तारे जमीन पर’ फिल्‍म की कहानी ने मुझे पहले दिन से ही सम्‍मोहित कर रखा था। आमिर मेरे सबसे पसंदीदा अदाकारों में से एक हैं। और उन्होंने इस फिल्म की कहानी भी इतने संवेदनशील और परफैक्‍ट तरीके से बुनी है कि आप भी वाह कर उठें। पूरी फिल्‍म केंद्रित है, ईशान अवस्‍थी नाम के आठ साल के बच्‍चे के ईर्द गिर्द। बच्‍चा डिसलेक्सिया नाम की एक बीमारी से पीडित है।


खास बात ये कि आमिर न सिर्फ इस फिल्म के निर्माता हैं, बल्कि इस बार उन्होने निर्देशन की कमान भी संभाली है। इसके साथ ही शंकर-एहसान-लाय का संगीत और प्रसून जोशी के गीत इस फिल्म के विषय के आयामों की तलाश करते हैं। फ़ना और रंग दे बसंती में अपने बिलकुल अलग रंग दिखाने के बाद अब आमिर तारे ज़मीन पर के गीतों की धुन पर खास बच्चों के साथ थिरक रहे हैं।


अमोल गुप्‍ते की इस कहानी में बच्‍चे को कुछ अक्षर पहचानने में परेशानी आती है और वे उसे उल्‍टे या फिर तैरते हुए नजर आते हैं। घर वाले उसे शैतान या पढाई से जी चुराने का बाहना मारकर बोर्डिंग स्‍कूल में डालने का प्‍लान बनाते हैं और बच्‍चे को मुंबई से पंचगनी की न्‍यू ईरा डे बोर्डिंग स्‍कूल में शिफ़ट कर दिया जाता है। घर से दूर जाने और उसकी चित्र बनाकर अपनी मां को डायरी बनाकर भेजने वाले सीन्‍स को आमिर ने पूरी संवेदनशीलता के साथ फिल्‍माया है।


फिल्म में आमिर एक ऐसे टीचर बने हैं, जो यह मानता है कि बच्चे की दुनिया बड़ो से अलग होती है। बच्चे के लिए बादल नीले, सूरज हरा और पानी लाल हो सकता है। मछली उड़ सकती है और हसीन औरते जलपरियों का रूप ले सकती हैं। लेकिन समझदार वयस्क इंसान बच्चों की इन बातों का बचकाना मान कर इग्नोर कर दे सकता है। लेकिन यहीं से तारे ज़मीन पर शुरु होती है।


यूं समझिए कि अगर आप इत्‍मी‍नान से फिल्‍म देख रहे हैं तो आपकी आंखें गीली होनी तय है। फिल्म देखने आए कई लोगों से हम प्रतिक्रियाएं ले रहे थे। दूसेर चैनल वाले भी थे, लोगों से मिले रिएक्शन वाकई उम्दा थे। अब आमिर जैसा बड़ा सितारा भी फिल्म में मध्यांतर से ठीक पहले एंट्री करता है। शाहरुख की तरह पहले ही फ्रेम से परदे पर दिखने की कोई ललक नहीं दिखी। ऐसा ही ामिर ने रंग दे बसंती में भी किया था, जब उन्होंने अपने साथी कलाकारों को भी बराबर मौका दिया था। अब मुझे लग रहा है कि साल की सबसे अच्छी फिल्म किसे मानूं, क्यों कि अब मुकाबला चक दे इंडिया और तारे ज़मीन पर के बीच सीधा हो गया है। फिल्‍म का संपादन दुरुस्‍त है, शंकर-एहसान-लाय के संगीत से किसी को किसी क़िस्म की शिकायत नहीं सकती। आमिर ने एक बार भी अपने सुर साधे हैं और उस पर खरे भी उतरे हैं।


आमिर खान ने किसी तरह के बॉलिवुडीय मसाले का इस्तेमाल किए बगैर शानदार फिल्म बनाई है। आमिर भारतीय फिल्मों के अलग किस्म के तारे हैं, एक ऐसा सितारा जिसके पटकथाओं की जड़ ज़मीन में हैं और जिनकी मंजिल आसमान में।

सफ़र है तो धूप भी होगी...


अगर आप दिल्ली या मुंबई जैसे शहर में रहते हैं और एक दिन अचानक जब सुबह आप सोकर उठें तो न दूधवाला आपके लिए दूध लेकर आए, न सड़क पर रिक्शेवाले से आपकी मुलाक़ात हो..तो कैसा रहेगा? कहने का गर्ज़ ये कि सेवा के इन क्षेत्रों में आमतौर पर बिहारियों की भरमार है और ये भी कि असम से लेकर मुंबई तक नामालूम वजहों से इन्हें खदेड़ने की कोशिश की जा रही है।


हमारे कहने का यह कतई मतलब नहीं है कि रिक्शा चलाना या मज़दूरी करके पेट पालना या फिर सब्जी बेचना बिहारियों की महानता है, सवाल ये है कि क्या इस समुदाय को इस देश में रहने का बराबर हक़ है? क्या बंगलुरु सिर्फ कन्नड लोगों को वसीयत में मिला है, या फिर चंडीगढ़ पंजाबियों की निजी संपत्ति है? कुछ महीनों पहले मुंबईकर नेता राज ठाकरे का बयान आया था कि किसी वजह से अगर मुंबई में रहने वाले बिहारी आगा-पीछा करते हैं तो उनके कान के नीचे खींचा जाएगा। मानो बिहार से विस्थापित बेरोज़गार लोग न हुए, अजदहे हो गए। और ये स्थिति सिर्फ मुंबई ही नहीं दिल्ली में भी है जहां बिहारी शब्द एक गाली के तरह इस्तेमाल किया जाता है। अगर राज ठाकरे को बिहारियों से इतना ही ऐतराज है तो वे पहले महाराष्ट्र को भारत से अलग करवाने की मुहिम छेड़ दें। क्यों कि भारतीय संविधान में तो देश के अंदर कहीं भी रहने और आने-जाने की छूट है।


पिछले साल की बात है जब मैं एक दोस्त की शादी में शामिल होने इटावा जा रहा था तो बिहार जाने वाली एक ट्रेन के साधारण डब्बे में अलीगढ़ उतरने वाले कुछ लोगों ने निचली सीट पर बैठे मजदूरनुमा लोगों को जबरिया ऊपर बैठने के लिए मजबूर किया। वजह- इन दैनिक यात्रियों को ताश खेलने में दिक्कत हो रही थी। दिल्ली, महाराष्ट्र या फिर असम कहीं भी बिहारी अनवेलकम्ड विजिटर की तरह देखा जाता है। इन सब परिस्थितियों में याद आता है गिरिराज किशोर का उपन्यास पहला गिरमिटिया। शायद बिहार के लोग भी उसी स्थिति में हैं जैसी स्थिति में उनके पूर्वज २०० बरस पहले दक्षिण अफ्रीका या सूरीनाम, मारिशस जैसे देशों में थे। अंतर बस इतना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से गए ये पुरखे विदेशी ज़मीन पर संघर्ष कर रहे थे और इन बिहारियों को देश में ही परदेशीपन झेलना पड़ रहा है। निदा फाजली का एक शेर है, सफ़र है तो धूप भी होगी, जो चल सको तो चलो, बहुत हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो।


हर जगह मीडिया में भी बिहारियों की भाषा, इनके उच्चारण और रीति-रिवाजों पर ताने कसे जाते हैं। खान-पान और रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। अनुरोध है बंधुओं, कोई भी आदमी जानबूझकर गरीब नहीं होता। संतोष की बात ये है कि बिहार के लोग हर क्षेत्र में अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं। हां, थोड़ी मानसिकता सकारात्मक हो जाए तो शायद शिकायतें दूर हो जाएं। सकारात्मकता से मतलब है कि दकियानूसी बातों से थोड़ा परे होकर अगर हम सोच सकें, थोड़ा अपने-आप को उन बातों से ऊपर उठाएं जो हमें नीचे की तरफ ले जा रही है।


ऱवीश कुमार का एक लेख पढ़ा था, -जूते माऱुं या छोड़ दूं- इसमें एक गांव के शिकायती लोगों का क़िस्सा था। वे विकास नहीं होने की शिकायत तो कर रहे थे, लेकिन वोट अपनी जाति के नेता को ही देने वाले थे। यह कहानी उत्तर प्रदेश की थी। लेकिन बिहार जातिवाद के इस कोढ़ से अलग नहीं है। बल्कि हमारा मानना है कि जातिवाद बिहार में और ज़्यादा खतरनाक स्तर पर है। जाति के चक्कर से अलग रहकर ही विकास हो सकता है। दूसरी बात ये कि राजनीति बिहार के गांव और चौपाल का सबसे अहम शगल है। चौक पर बैठे नौजवान अंतरराष्ट्रीय से लेकर परिवार तक की सारी खबरों पर चर्चा कर लेते हैं। हम अपने विकास से ज़्यादा सरोकार दूसरों में रखने लग गए हैं।


तीसरी बात जिसकी चर्चा ज़रूर करनी होगी, वो है अडंगेबाज़ी की। स्कूल से लेकर सचिवालय तक हर काम में अडंगा लगाना जिस दिन कम हो जाएगा, हम नई राह पर चल सकेंगे।


ऐसा नहीं है कि बिहारी मूढ़मति हैं और बिल्कुल बदलना ही नहीं चाहते। इस समुदाय के लोग जहां भी गए, वहां की संस्कृति को अपनाने में कोई हिचक नहीं रही है इनमें। बल्कि कई बार तो मूल निवासियों से के साथ फर्क करने में भी दिक़्क़त पेश आती है। लेकिन यह समानता केवल ऊपरी तौर पर है। लोग उनकी बोली, चाल-ढाल और कपड़े तो अपना लेते हैं लेकिन नज़रिए को नहीं। जबकि ज़रूरत ठीक इसके उलट है।


बिहारी समुदाय को काम के प्रति उनका नज़रिया और अपनी संस्कृति बनाए रखनी होगी। क्योंकि दोष संस्कृति में नहीं, नज़रिए में है। आप ही देखिए .. बंगाली या कोई भी दूसरी भाषा को जानने वाले दो लोग मिलते हैं तो आपस में बातचीत अपनी भाषा में ही करते हैं। लेकिन बिहारियों में भाषा के प्रति ऐसा लगाव कम ही देखने को मिलता है।प्रिय बिहारियों... विकास की संभावनाओं को देखिए। विकास किसी एक इलाक़े या एक दिशा में सीमित रहने वाली चीज़ नहीं है। यह कहीं से शुरु होकर कहीं तक जा सकती है। अगर पंजाब के किसान सफलता की इबारत लिख सकते हैं तो हम क्यों नहीं। विकास की भागदौड़ में कोई काम छोटा या बड़ा नहीं। ज़रूरत है सिर्फ ईमानदार कोशिश की। बिहार का मज़दूर अगर फिजी का प्रधानमंत्री बन सकता है, सूरीनाम का उद्योगपति हो सकता है, तो भारत में, बल्कि बिहार में क्यों नहीं। सच पूछिए तो ज़रूरत सिर्फ इसी की है कि हम वापस लौटें और ज़ड़ से चीज़ों को ठीक करने की शुरुआत करें। यह मान कर कि सफ़र है तो धूप भी होगी। आमीन.......


(यहां बिहारी का मतलब बिहार की भौगोलिक सीमा के लोग ही नहीं है, बिहारी होना एक फिनोमिना है। मैं भी मूलतः बिहारी हूं और झारखंड, फश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों, मध्य प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को भी इसी समुदाय का मानता हूं। इस लेख में प्रयुक्त बिहारी शब्द उन सभी राज्यों के निवासियों के लिए माना जाना चाहिए।)- गुस्ताख़

Sunday, December 16, 2007

चौधरी की जात

ये किस्सा मुझसे जुड़ा भी है और नहीं भी। यह सच भी हो सकता है और नहीं भी। यानी यह फिक्शन और नॉन फिक्शन के बीच की चीज़ है। कहानी पढ़कर आपसे गुजारिश है कि आप प्रभावित हों और हमारे इस किस्से को किसी पुरस्कार के लिए भेजें। बात उन दिनों की है जब हम छात्र जीवन नामक कथित सुनहरा दौर जी रहे थे। कथित इसलिए कि हमने सिर्फ सुना ही है कि छात्र जीवन न तो सुनहरा हमें कभी लगा, न हम इसके सुनहरेपन को महसूस कर पाए। बहरहाल, उन दिनों में जब मैं पढाई करने की बाध्यता और न पढ़ने की इच्छा के बीच झूल रहा था..जैसा कि उन दिनों में आमतौर पर होता है..मेरी मुलाकात एक निहायत ही हसीन लड़की से हो गई।

ये दिन वैसे दिन होते हैं, जब लड़कियां हसीन दिखती हैं( आई मीन नज़र आती हैं) । लड़कियां भी संभवतया लड़कों को जहीन मान लेती हैं। उन सुनहरे दिनों के लड़के आम तौर पर या तो ज़हीन होते हैं, या उचक्के.. और उनका उचक्कापन उनके चेहरे से टपकता रहता है। उन उचक्के लड़कों से लड़कियों को हर क़िस्म का डर होता है। जहीन लड़कों से ऐसा डर नहीं होता। जहीन लड़के अगर ऐसी वैसी कोई हरकत करने - जिसे उचक्के अच्छी भाषा में प्यार जताना- कहते हैं तो प्रायः समझाकर और नहीं तो रिश्ता तोड़ लेने की धमकी देकर लड़कियां जहीनों को काबू में ऱखती हैं। वैसे, उचक्के भी पहले प्यार से ही लड़कियों को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन न मानने पर सीधी कार्रवाई का विकल्प भी होता है। प्रेम का डायरेक्ट ऐक्शन तरीका.... सारा प्यार एक ही बार में उड़ेल दो.. पर इस तरीके में लात इत्यादि का भय भी होता है। सो यह तरीका तो जहीनों के वश का ही नहीं।

अपने कॉलेज के दिनों में मैं भी ग़लती से जहीन मान लिया गया था। या फिर यूं कहें कि मुझपर यह उपाधि लाद दी गई थी। इस उपाधि के बोझ तले मैं दबा जा रहा था, और भ्रम बनाए रखने की खातिर मुझे पढ़ना वगैरह भी पड़ता था। इस खराबी के साथ-साथ मेरे साथ एक अच्छी बात ये हुई कि लड़कियों के बीच मैं लोकप्रिय हो गया। नहीं गलत न समझें... उस तरह से तेरे नाम मार्का दादा लोग ही लोकप्रिय होते हैं... हम तो नोट्स की खातिर पापुलर हुए। अस्तु...उनहीं में एक लड़की थी..नाम नहीं बताउंगा.. बड़े आत्मविश्वास से कह रहा हूं कि मैं उनका बसा-बसाया घर नहीम उजाड़ना चाहता। तो नाम तय रहा अनामिका। चलिए टायटल भी बताए देते हैं... चौधरी..।


प्रेम प्रकटन हो गया। हम खुश। लड़की राजी। प्यार चला। जहन होने का दम भरते हुए हम हमेशा इनसे दो कदम दूर से बाते करते रहे। नो चुंबन, नो लिपटा-लिपटी। नो स्पर्श। खालिस प्लूटोनिक लव। दाद मिली कॉलेज में। दोस्तों का साथ मिला। घर में बताया। बेरोज़गार लौंडे का प्रेम। घर में मानो डाका पड़ गया। भौजाई से लेकर मां तक का चेहरा लटक गया। चाचा ने बात करना बंद कर दिया। लेकिन मां शायद मां ही होती है, कहने लगी- लड़की की जात क्या है। हमने कहा चौधरी...। अम्मां बोलने लग गईं ये कौन सी जात होती है? जात क्या है जात? ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ, कोई तो जात होगी? हम लाजवाब।

टायटल का पंगा। न उसने बताया था, न हमने पूछा था.. चौधरी तो सभी जातों में होते हैं... ऊपर से लेकर नीचे तक हर जाति में चौधरी हैं। लड़की से पूछना मुनासिब न लगा। एक दिन डरते-डरे पूछ ही डाला। लड़की मुझसे ज़्यादा बौद्धिक थी.. उसके बाप ने भी कुछ ऐसा ही पूछा था... जाति नही मिली। मेरे टायटल के भी कई सारे अर्थ निकलते हैं। आज मां कीबात मान ली है। लड़की ने अपने बाप की बात। वह अपनी जाति सीने से लगाए कहीं ससुराल संवार रही है, मैं अपनी जाति की चिपकाकर घूम रहा हूं। मुझमें ट्रेजिडी किंग वाला दिलीपकुमारत्व आ गया है। मैंने सोचा है अपनी अगली पीढ़ी में प्यार करने वाले की जाति नहीं पूछने दूंगा।

हे दुष्टता, तुझे नमन,


हे दुष्टता, तुझे नमन,

कुछ न होने से-

शायद बुरा होना अच्छा है।


भलाई-सच्चाई में लगे हैं,

कौन से ससुरे सुरखाब के पंख


घिसती हैं ऐडियां,

सड़कों पर सौ भलाईयां,

निकले यदि उनमें एक बुराई,


तो समझो पांच बेटियों पर हुआ,

एक लाडला बेटा


ढेर सारी भलाई पर,

छा जाती है

थोड़ी सी बुराई,


जैसे टनों दूध पर तैरती है,

थोड़ी सी मलाई


मंजीत ठाकुर

Saturday, December 15, 2007

बाथरूम के शाश्वत साहित्यकार


आप सबने बाथरूम सिंगर शब्द ज़रूर सुना होगा। कई तो होंगे भी। बाथरूम में गाना अत्यंत सुरक्षित माना जाता है। न पड़ोसियों की शिकायत, न पत्नी की फटकार का डर..। लोगबाग भयमुक्त वातावरण में अपने गाने की रिहर्सल करते हैं। बाथरूम ऐसी जगह है, जहां आप और सिर्फ आप होते हैं। कई मामलों में आप अकेले नहीं भी होते हैं, लेकिन हम अभी अपवादों की बात नहीं कर रहे। बहरहाल, हम मानकर चल रहे हैं कि बाथरूम में आप अकेले होते हैं। ठीक? चलिए... ।


शौचालय वह जगह है, जहां आप सोच सकते हैं। वहां कोई व्यवधान नहीं है। नितांत अकेलापन। आप और आपकी तन्हाई। हम तो मानकर चल रहे हैं कि शौचालय का नाम बदलकर सोचालय रख दिया जाए। प्रैशर को हैंडल करने का तरीका। आ रहा है तो अति उत्तम... नहीं आ रहा तो सोचना शुरु कर दीजिए। नई कविता, नई कहानी, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद जैसे कई आंदोलनों ने शौच के दौरान कूखने की प्रक्रिया में ही जन्म लिया. ऐसा हमारा विश्वास है.। कई तरह की कविताएं.. जो एसटीडी बिलों पर लिखी जाती हैं, कहानी की नई विधाएं जो आम लोगों की समझ के बाहर हों, दूसरे प्रतिद्वंद्वी साहित्यकारों पर कीचड़ उछालने की नायाब तरकीबें... कल कौन सी लड़कियां छेड़ी जाएं, इसकी लिस्ट सब बाथरूम में ही तैयार की जाती हैं।



अस्तु, हम तो मानते हैं कि इस शब्द बाथरूम और शौचालय में थोड़ा अंतर है। ट्रेनों में बाथरूम नहीं होता। लेकिन वहां भी साहित्य रचना करने वाले धुरंधरों को भी हम बाथरूम साहित्यकारों के नाम से ही अभिहीत करते हैं। हिंदी में शब्दों का थोड़ा टोटा है। जगह की भी कमी है। दिल्ली जैसे शहर में बाथरूम और टायलेट में अंतर नहीं होता। दोनों का अपवित्र गठबंधन धड़ाके से चल रहा है। इसे कंबाइंड कहते हैं। एलीट लोग कुछ और भी कहते हों, हम किराएदार तो यही कहते हैं। दिल्ली में तो क्या है, मकानमालिक यहां उत्तम पुरुष है... किराएदार अन्यपुरुष। बहरहाल, टायलेट और बाथरूम की इस संगति की वजह से नामकरण में मैने यह छूट ली है। बाद के साहित्यकार अपने हिसाब से वर्गीकरण कर लें।



तो बाथरूम साहित्यकारों का जो यह वर्ग है, जम्मू से कन्याकुमारी तक फैला है। मैं सिर्फ पतिनुमा बेचारे लेखकों की बात नहीं कर रहा। लेकिन भोपाल हो या गोहाटी अपना देश अपनी माटी की तर्ज़ पर टायलेट साहित्यकार पूरे देश में फैले हैं। मैं अब उनकी बात नहीं कर रहा हूं...जो लेखन को हल्के तौर पर लेते हैं और जहां-तहां अखबारों इत्यादि में लिखकर, ब्लॉग छापकर अपनी बात कहते हैं। मैं उन लेखकों की बात कर रहा हूं, जो नींव की ईट की तरह कहीं छपते तो नहीं लेकिन ईश्वर की तरह हर जगह विद्यमान रहते हैं। सुलभ इंटरनैशनल से लेकर सड़क किनारे के पेशाबखाने तक, पैसेंजर गाडि़यों से लेकर राजधानी तक तमाम जगह इनके काम (पढ़े कारनामे) अपनी कामयाबी की कहानी चीख-चीख कर कह रहे हैं।



ज्योंहि आप टायलेट में घुसते हैं, बदबू का तेज़ भभका आपके नाक को निस्तेज और संवेदनहीन कर देता है। फिर आप जब निबटने की प्रक्रिया में थोड़े रिलैक्स फील करते हैं, त्योहि आप की नज़र अगल-बगल की गंदी या साफ-सुथरी दीवारों पर पड़ती है। यूं तो पूरी उम्मीद होती है कि नमी और काई की वजह से आप को कुदरती चित्रकारी ही दिखेगी, अगर गलती से दीवार कुछ दीखने लायक हो.. तो आप को वहां गुमनाम शायरों की रचनाएं नमूदार होती हैं, कई चित्रकारों की भी शाश्वत पेंटिंग्स दिख सकती हैं। सकती क्या दिखेंगी ही। कितना वक्त होता है, बिल्कुल डेडिकेटेड लोग.। कलम लेकर ही टायलेट तक जाने वाले लोग। जी करता है उनके डेडिकेशन पे सौ-सौ जान निसार जाऊं। इतना ही नहीं, आजकल मोबाईल फोन का ज़माना है, लोग अपना नंबर देकर खुलेआम महिलाओं को आमंत्रण भी देते हैं। इतना खुलापन तो खजुराहो के देश में ही मुमकिन है। इन लोगों के बायोलजी का नॉलेज भी शानदार होता है.. तभी ये लोग दीवारों पर नर और मादा जननांगों की खूबसूरत तस्वीरें बनाते हैं। पहले माना जाता था कि ऐसा सस्ता और सुलभ साहित्य गरीब तबके के सस्ते लोगों का ही शगल है। इसे पटरी साहित्य का नाम भी दिया गया था। लेकिन बड़ी खुशी से कह रहा हूं आज कि इनका किसी खास आर्थिक वर्ग से कोई लेना देना नहीं है। राजधानी एक्सप्रेस में यात्रा करने वाले ठेलेवाले या रिक्शेवाले तो नहीं ही होते हैं, वैसे में इन ट्रेनों के टायलेट में रचना करने वाले सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों की संख्या के लिहाज से मैं कह सकता हूं कि साहित्य के लिए कोई सरहद नहीं है। कोई वर्गसीमा नहीं है। अपना सौंदर्यशास्त्र बखान करने की खुजली को जितना छोटे और निचले तबके के सिर मढ़ा जाता है, उतनी ही खाज कथित एलीट क्लास को भी है।




इन तस्वीरों के साथ चस्पां शेरों को उद्धृत करने की ताकत मुझमें नहीं है। मेरी गुस्ताखी की सीमा से भी परे ऐसे महान, सार्वकालिक, चिरंतर गुमनाम लेकिन देश के हर हिस्से में पाए जाने वाले साहित्यकारों को मैं शत-शत नमन करता हूं।




मंजीत ठाकुर

Tuesday, December 11, 2007

सूत न कपास,...


सूत न कपास, कोरियों में लठ्ठमलट्ठा.. ये कहावत तो आपने सुनी ही होगी। अब सुन लीजिए.. आडवाणी होंगे अगले पीएम पद के प्रत्याशी। क्या ही अनुप्रास अलंकार है। दैनिक जागरण की हैड लाईन है ये.. संसदीय बोर्ड ने वाजपेयी की सहमति के बाद ये फैसला किया है।

सरकारी स्कूलों में छठी कक्षा में अंडे वाली एक कहानी पढाई जाती थी। अंडे बेचने निकली लड़की अपने सारे सपनों को टोरकी सिर पर रखे ही खुली आंखों देख डालती थी। नतीजतन, अंडों के साथ सपने भी टूट जाते थे। बीजेपी वालों को सोचना चाहिए कि वो कौन से सपने हैं, जिन्हें जनता, (वोटरों) की आंखों में जबरिया डालकर वह उन्हें जीत की रहा पर डाल सकेगी। बीजेपी की जीत का आधार क्या होगा? मोदी? आडवाणी? बुढा गए वाजपेयी? ना मुन्ना ना...

आडवाणी की पीएम के पूर में ताजपोशी.. हो पाएगी? क्या लगता है? ेक कहानी सुनाता हूं... तीन ज़ार में मेंढक रखे थे। दो के डक्कन बंद एक का डक्कन खुला था। लोग हैरत में। दो के बंद एक का खुला क्यों? भाई लोगों ने बताया। दो में विदेशी मेंढक हैं। इटली वाला मेेढक एक में... दुसरे में रूस-चीन का मिला-जुला। दोनों के ढक्कन बंद। डक्कन खुला रखें, तो एक एक कर सारे फरार हो जाएंगे। तीसरे में भारतीय मेंढक थे। ढक्कन खुला.. फिर भी कोई निकल नहीं पाएगा.. जो निकलना चाहेगा.. बाकी उसकी टांग खींचकर अंदर कर देंगे।

ये गुजरात में हो सकता है। झारखंड में भी... यूपी में हो चुका है। खुद को पीएम बनाने का दावा पेश कर दें, लेकिन दिल्ली जाने वाली बारात के दूल्हे का क्या होगा? जनादेश हासिल करने वाले नेता तो हाशिए पर हैं, या फिर अपने खिलाफ हो रहे भीतरघात से परेशान । राम मंदिर वाला मुद्दा भी चलेगा नहीं, काफी पुराना औप घिसा-पिटा है। लोग अब भ्रमित नहीं होंगे। भारत उदय भी फुस्स ही रहा। सेंसेक्स भी आपके ६ हज़ार के मुकाबले २० हज़ार के आस-पास कबड्डी कर रहा है। मुद्दा क्या है आपके पास...? लौह पुरुष की ापकी छवि जिन्ना प्रकरण ने तार-तार कर ही दी है। तो आडवाणी जी किस किंगडम का किंग बनना पसंद करेंगें? सवाल ढेरों हैं, जवाब तो आडवाणी को देना

Saturday, December 8, 2007

खाई की तस्वीरें

खाई की तस्वीरें



कुछ चीज़े आपको हमेशा परेशान करती रहतीं हैं, हम सबको हमारे बच्चों को परेशान करती रहती हैं। मेरे एक मित्र ने कुछ तस्वीरे भेजी हैं, उन्हें आभार देते हुए तस्वीरें छाप रहा हूं, विचार कीजिएगा-


Thursday, December 6, 2007

आधुनिक कबीर की सूक्तियां

काल खाए सो आज खा, आज खाए सो अब,
गेहूं मंहगे हो रहे हैंस फेर खाएगा कब?

कबीरा कड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ,
जिसको ट्यूशन पढ़ना हो, चले हमारे साथ।


पोथी पढि-पढि जग मुआ, साक्षर भया न कोय,
तीन आखर के नकल से हर कोय ग्रेजुएट होय।

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
आपन को शीतल करे दूजो को दुख होय।

प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय
छोटी-छोटी बात पर, हर साल दंगा हो जाय।।

Monday, December 3, 2007

वॉट एन आइडिया सर जी..

पीली पगड़ी पहने दाढीमय अभिषेक के पीछे निहोरे करते, टीवी स्क्रीन पर खींसे निपोरते.. एक चमचानुमा इंसान तो आपने देखा ही होगा। अमिताभनंदन के आइडिए पर वह कहते हैं- वॉट एन आईडिया सर जी..। यह चरित्र हमारे समाज का आईना है। चमचा। मक्खनबाज़। .... चलिए मुखिया जी के नायाब आइडिया पर बात करते हैँ। सचमुच शानदार आइडिया है। कोई आगे से बुरमी ( बिहार, यूपी के लोग पढ़े- कुरमी, ) और बूमिहार (पढ़ें भूमिहार..) नहीं होगा। लोग अब से अपने नंबरों से पहचाने जाने जाएंगे.. । स्वागत है। ऐसा एड दिमाग़ में लाने वालों स्वागत है।

लेकिन कुछ प्रश्न सचमुच दिमाग़ को मथते हैं। मसलन, लोगों के नाम नंबर होंगे, उनकी जाति भी नहीं होगी। लेकिन उनका संप्रदाय तो फिर भी बना रहेगा। आइडिया, एयरटेल, टाटा इंडिकॉम, वोडाफोन जैसे संप्रदाय उभर आएंगे। जिसका नेटवर्क जितना मज़बूत, उसका उतना ज़्यादा ज़ोर . उसकी सत्ता में उतनी भागीदारी।

फिर झगड़े होंगे... नंबर (नाम) परिवर्तन के। टेलाकॉलर्स दिन-रात , सुबह-शाम आपको फोन किया करेंगे.. सर मैं अमुक संप्रदाय की ओर से बोल रही हूं क्या आपको हमारा संप्रदाय जॉइन करना है? आपको १०० दिनों का टॉक टाइम मुफ्त दिया जाएगा. सलोगद धडल्ले से अपना धर्म बदलने लगेंगे। फिर आइडिया से लेकर वोडाफोन और एयरटेल तक में कोई शाही इमाम और कोई तोगड़िया पैदा होगा. मोदी भी हो सकते हैं।

किसी खास नंबरों को लेकर नंदीग्राम जैसा संग्राम भी हो सकता है। खास नंबर सिर्फ सत्तापुत्रों और नजदीकी दल्लों को मिलेंगे। दलितों, कमज़ोरों और निचले तबके के लोगों को ऐसे नंबर ही मिला करेंगे जो आसानी से याद ही न हों. इसके अलावा कई सामाजिक समस्याएं भी पैदा होंगी। मसलन, नंबर से कोई भेदभाव न भी हो, तो आप किस ब्रांड का, किस मॉडल का मोबाईल इस्तेमाल करते हैं, वह आपकी आर्थिक कलई खोल देगा। यह देखा जाएगा कि आपका मोबाईल कैमरे वाला है या नहीं, उसके क्या-क्या फीचर्स हैं। ४-५ हज़ार से कम कीमत वाला सेट इस्तेमाल करने वाला हंसी का पात्र माना जाएगा और फिर समरसता का एक और सिद्धांत हमेशा की तरह ध्वस्त हो जाएगा।

(यह एक शंकालु के सवाल हैं, दिल पर मत लें).. गुस्ताख़

Sunday, December 2, 2007

फिल्म- मोर दैन एनिथिंग इन द वर्ल्ड

अपने-अपने संसारों का दर्द

मोर दैन एनिथिंग इन द वर्ल्ड-( Más que a nada en el mundo )

इस स्पेनिश फिल्म को देखें और ईरान की द पोएट चाइल्ड कहीं न कहीं दोनों फिल्मों की अंतर्गाथा एक ही है। दोनों ही फिल्म सिनेमाई पटल पर कहानी बच्चे की नज़र से विस्तार देती है. आंद्रे लियॉन बेकर और ज़ेवियर सोलर के निर्देशन में बनी मैक्सिको की इस फिल्म में एक साथ दो कहानियां असंबद्द तरीके से शुरु होती है, लेकिन ताज्जुब की बात ये कि दोनों कहानियां कहीं भी आपस में मेल नहीं खातीं, सिवाय उस जगह के जब बच्ची आखिरी दृश्य में वैंपायर के नाम से जाने जाने वाले बूढ़े के फ्लैट में दाखिल होती है।

फिल्म में मां और बेटी के आपसी संबंधों की कहानी है। मां की अपनी दुनिया है। वह अपने पति का घर छोड़ आई है, और उम्र के उस दौर में है, जब शरीर की ज़रूरतें भी होती हैं। मर्द का सहारा भी चाहिए होता है। उस महिला के कई मित्र आते हैं रात को ठहरते हैं। बच्ची घर में सहमी-सहमी रहती है। उसे डर है कि उसके पड़ोस के फ्लैट में एक रक्तपिपासु वैंपायर रहता है।सहमी हुई लड़की मां का साथ चाहती है, लेकिन महिला अपने पुरुष मित्रों के साथ वक्त गुजारना चाहती है।

वयस्क स्त्री की दुनिया में ऐसी डेर सारी चीज़े हैं, जो बच्ची के संसार से विलग है, लेकिन साथ ही बच्ची की दुनिया में ऐसी बातें हैं जिसमें किसी बड़े का साथ चाहिए होता है। बच्ची समझती है कि रात को मां पर वैंपायर का साया पड़ जाता है। उसके डर को एक नया आयाम मिलता है।महिला के मित्र धीरे-धीरे साथ छो़ड़ते जाते हैं। औरत फिर अकेली है, लेकिन उन मुश्किल हालात में बच्ची को मां का सहारा बनना पड़ता है। दोनों एक दूसरे के लिए जीते हैं।

उधर पड़ोस वाले बूढे की मौत हो जाती है, बच्ची उसे वैंपायर समझ कर उसकेसीने पर क्रास लगाने जाती है। तभी वह पाती है कि बूढा़ अब नहीं रहा। फिल्म एक साथ ही मां-बेटी के रिश्तों के साथ छीजते संबंधों और उसके बुरे (?) प्रभावों की पड़ताल करता चलता है। एक अकेली औरत के लिए समाज में हर मर्द एक खून चूसने वाले वैंपायर की तरह ही होता है। सात ही जिन लोगों को खल माना जाता है, वाकई वे वैसे होते नहीं हैं। निर्देशक की यह स्थापना सिद्ध तो हो जाती है, लेकिन फिल्म में उस तत्व की बारी कमी है, जो बच्चो से जुड़े मसलों को डील करते वक्त ईरानी फिल्मों मे देखने को मिलता है.

वैसे इस फिल्म को मिस कर देंगे तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होने जा रहा आपका...।

Saturday, December 1, 2007

धान पर ध्यान

चीन मे एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है। शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रहा है, वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं। नेचर पत्रिका में तो कुछ महीने पहले धान के जीनोमिक सीक्वेंस को छापा भी गया है।

एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में ८० करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब ५० लोख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ों को और भी भयावह बनाता है यह तथ्य कि दुनिया की आबादी में हर साल ८ रोड़ ६० लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले दो दशकों में चावल की उपज को ३० फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा।

लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा? आमतौर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना। साठ के दशक के पहले, पहले वाले विकल्प को ज्यादा आसान मानकर उसी पर अमल किया गया। परिणाम सबके सामने है। हमने विश्वभर में बहुमूल्य जंगलों की कटाई कर उनमें खाद्यान्न बो दिए और प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन को न्यौता दिया। लेकिन साठ के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति की नजाकत को समझकर दूसरे विकल्प यानी पैदावार बढ़ाने के लिए बीजों की गुणवत्ता में सुधार और तकनीकी साधनों की ओर ध्यान दिया। उस प्रयास का परिणाम निकला हरित क्रांति के रूप में। जैसे ही पौधों की नई किस्मे पहले मैक्सिको और फिर पूरे विश्व में बोई जाने लगी फसल उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर २ फीसदी सालाना के आसपास रही।

हरित क्रांति के सफर में कुछ पड़ाव भी आए। पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से खत्म हो जाती है।

कई वैज्ञानिक मानते हैं किदुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचाना का उपाय जीन इंजिनिरिंग से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट-प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई।

यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानोें में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।

लेकिन हरित क्रांति की राह में पड़ाव भी आए। वैसे तो, १९८३ से ही चावल के बी संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन १९८७ में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। इस द्वितीय चरण में १४ राज्यों के १६९ ज़िलों का चुनाव किया गया। संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए १६९ में से १०८ ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के ७ और पंजाब के ३ ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। अन्य प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश(छत्तीसगढ़ सहित) के ३० उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के ३८, बिहार के १८, राजस्थान के १४ और महाराष्ट्र के १२ ज़िले।

दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) को खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा देश है।

चवाल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।दुनिया में करीब १२० करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते है। ऐसे में , रोग, पेस्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।

मंजीत ठाकुर