Friday, March 27, 2015

तीन आखर के नक़ल से...

देश में आजकल एक तस्वीर को लेकर बहुत हाहाकार मचा। तस्वीरें थीं बिहार के वैशाली में चारतल्ला इमारत तक चढ़ गए लोगों की, जो अपने नौनिहालों को दसवीं की परीक्षा पास कराने को लेकर उतारू थे।

इस तस्वीर ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत ख्याति बटोरी। असली मज़ा तो यह, कि दयालु पुलिसवाले उनके पीठ पीछे हो रही घटना को नज़रअंदाज कर रहे थे। बिहार की पुलिस चोरी-चकारी के मामलों में बहुत दयालु है।

टीवी और सोशल मीडिया पर जितनी मुमकिन हो सकती थी, उतनी चिंता जताई गई कि बिहार में शिक्षा का स्तर बिलकुल गिर गया है। बाद में, शायद डेढ़-दो हजार बच्चे और अभिभावक गिरफ्तार करके जेल भेजे गए। साबित हो गया अपराध तो दो हजार रूपये का जुर्माना या छह महीने की जेल या दोनों हो सकता है।

कुछ लोग बिहार को डिफेंड भी कर रहे हैं। यह कहते हुए कि यह बिहार के बच्चों की नहीं वहां की व्यवस्था की कमी है। नकलचियों में आम मान्यता है कि समाजवादी टाइप दलों के शासन में नक़ल को छूट मिलती है। राजनाथ सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे तो नक़लविरोधी कानून के वजह से उनको मशहूरियत मिली थी, बाद में मुलायम ने छात्रों में फैले असंतोष का फायदा उठाया था।

बिहार की इस तस्वीर के ऐन बाद एक तस्वीर झांसी से आई, जहां कुछ छात्र नेता एक प्रोफेसर को महज इसलिए थपड़ा रहे थे क्योंकि उस नाकाबिलेबर्दाश्त प्राध्यापक ने उनको नक़ल के मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया था।

एकतरफ नीतीश बिहार की मेधा को बतौर ब्रांड पेश करना चाहते हैं, दूसरी तरफ ऐसी तस्वीरेंहा दैव! सोशल मीडिया में वैशाली की इस वाइरल हुई तस्वीर ने तकरीबन यह स्थापित कर दिया कि समूचे बिहार के बच्चे नक़ल करके ही पास होते हैं। इसने उन तमाम लोगों को भी एहसासेकमतरी से भर दिया है जिन्होंने हाल-हाल से ही बिहार के नाम पर सीना चौड़ा करके दिल्ली-मुंबई में घूमना शुरू किया था।

याद कीजिए बिहार-यूपी के बच्चे जब रेलवे और बैंकिंग की प्रतियोगिता परीक्षाओं में तमाम जगहों पर जाते थे, तो मुंबई जैसी जगहों पर उनकी मुखालफत की जाती थी। तब ऐसा लगता था कि क्षेत्रीय क्षत्रपों को बिहारियों की मेधा से घबराहट होती है। लेकिन, गौरव के उन क्षणों का क्षरण हो गया। मात्र एक तस्वीर से।

बिहार में नक़ल की इस स्वर्णिम विरासत कैसे तैयार हुईशायद इसमें से एक वजह है, आम बिहारियों का अंग्रेजी में थोड़ा कमजोर होना। इसकी जड़े पुरानी हैं, लेकिन जब लालू अपने चरम पर थे, उनने दसवीं की परीक्षा में से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर अपने हिसाब से गरीब-गुरबों का दिल ही जीत लिया था। उसके बाद से तो आम बच्चों खासकर सरकारी स्कूल में पढ़ रहे बच्चों का अंग्रेजी पढना ही छूट गया।

इधर, तमाम विवादों के बाद लालू प्रसाद ने बयान दिया कि उनके जमाने में उन्होंने किताब खोलकर नक़ल करने की छूट दे दी थी। बकौल लालू, किताब खोलकर भी चोरी वही कर पाएगा जिसने किताबें पढ़ी होंगी। तर्क बहुत अच्छे हैं, लेकिन इससे बिहार की मेधा का जो कचरा भारत और विदेशो में हो गया है उसकी भरपाई कौन करेगा?

एक बात और, बिहार में प्राथमिक शिक्षकों से मुर्गी, सूअर, मवेशी के साथ जनगणना करवाई जाती है, उनसे मिड डे मील बनवाया जाता है, राज्य सरकार का कोई भी काम हो, उस काम में शिक्षक ही जोते जाते हैं। फिर उन शिक्षकों का अपना घरेलू जेनुइन काम भी है, मसलन धान की खेती, कटाई, दौनी, और लायक हुए तो प्राइवेट में ट्यूशन देना। नीतीश ने ऐरो-गैरों को शिक्षामित्र बनाकर शिक्षा का जो हाल किया है, उसके बाद परीक्षा में पास होने के लिए बच्चे चोरी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?

आधुनिक कबीर ने एक सूक्ति कही है,
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, साक्षर भया न कोय
तीन आखर के नकल से, हर कोई ग्रेजुएट होय।


Monday, March 23, 2015

दो टूकः धान पर ध्यान

चीन मे एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है।
शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रही है, वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं।

दुनिया भर में करीब तीन अरब लोग चावल खाते हैं लेकिन धान के इस इलाके की आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, दुनिया भर में 80 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और सालाना करीब 50 लाख लोगों की मौत की वजह कुपोषण है। दुनिया की आबादी में हर साल 8 करोड़ 60 लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस इलाके में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले 20 साल में चावल की उपज को 30 फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा।

उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए रकबा बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना। साठ के दशक के पहले, पहलेवाले विकल्प पर अमल किया गया और विश्वभर में बहुमूल्य जंगल कटकर खेत बन गए। साठ के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति को नजाकत समझी और पैदावार बढ़ाने के लिए बीजों की गुणवत्ता सुधार और तकनीकी साधनों के विकास की ओर ध्यान दिया। उसी कोशिश का नतीजा रहा हरित क्रांति।

जैसे ही पौधों की नई किस्मे पहले मेक्सिको और फिर पूरे विश्व में बोई जाने लगी पैदावार में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर 2 फीसदी सालाना के आसपास रही।

हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से खत्म हो जाती हैं।

कई वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचाने का उपाय जीएम फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामा करने में अधिक सक्षम हैं।

जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई।

यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियंत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानों में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।

अपने देश में दूसरे चरण की हरित क्रांति को कायदे से शुरू करने की जरूरत है। यद्यपि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है और खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। फिर भी, पंजाब और हरियाणा में चावल की बढ़ती खेती और उसके बुरे असर से लग रहा है कि हमें चावल उत्पादन की दूसरी विधियों की खोज करनी चाहिए।

अब चूंकि चावल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने कर ली है और इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है।

दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते हैं। ऐसे में, रोग, पे्स्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।


(यह लेख गांव कनेक्शन अखबार में मेरे स्तंभ दो-टूक में प्रकाशित हो चुका है)

Sunday, March 15, 2015

दो टूकः हा राष्ट्रहित! हाहा राष्ट्रहित!!

शीर्षक देखकर चौंकिए मत। मैं राष्ट्रहित की बात ही कर रहा हूं। राष्ट्रहित सबसे ऊपर होना चाहिए। पहले राष्ट्र, तब मैं की भावना का पाठ अति-आवश्यक है। बीते हफ्ते में तीन बातें हुईं, जिनसे मन-मयूर नाच उठा। तीनों बातें राष्ट्रहित में हुई। विश्व के अलग-अलग हिस्सों में हुईं। लगा, पूरी दुनिया राष्ट्रहित में सोचने लगी है।

पहली बात, बीबीसी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान ने भारत में महिलाओं की स्थिति के लिए केस स्टडी किया। निर्भया कांड के अभियुक्तों का साक्षात्कार लेकर वृत्त-चित्र बनाया और कहा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन चलाएंगे।

कुछ लोगों को खल गया। कहा, यह राष्ट्रहित में नहीं है। जब भी भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने झुकने से इनकार करता है, बाहरी ताकतें ऐसे-ऐसे डॉक्यूमेंट्री बनाकर प्रसारित करने लगती हैं।

फिर कुछ लोगों ने कहा कि आखिर जेल में बंद अभियुक्तों का वीडियो साक्षात्कार कैसे लिया जा सकता है और तुर्रा यह कि उन अभियुक्तों और वकीलों ने पीड़िता को लेकर अपमानजनक टिप्पणियां की हैं! इन टिप्पणियों से भारत की छवि खराब हो रही है। राष्ट्रहित में इस वृत्तचित्र पर रोक लगनी चाहिए। विपक्षी दलों के हाहाकार के बाद सरकार ने राष्ट्रहित में बीबीसी के इस वृत्त चित्र पर ही बंदिश लगा दी। बीबीसी ने महिला दिवस के पहले ही दिखा दिया। सरकार ने सोशल मीडिया पर इसके प्रसार को रोक दिया। राष्ट्रहित की रक्षा हुई।

अब मुमकिन है कि सरकार राष्ट्रहित में इस बात की जांच कराए कि आखिर अभियुक्तों के साक्षात्कार की अनुमति दी किसने।

राष्ट्रहित का दूसरा मामला आया जम्मू-कश्मीर में सरकार गठन को लेकर। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सत्ता संभाली और एक अलगाववादी नेता को सत्ता संभालते ही रिहा कर दिया। याद कीजिए, यही मुफ्ती मोहम्मद सईद गृह मंत्री थे, जब रूबिया सईद का अपहरण आतंकवादियों ने किया था, और बतौर फिरौती आतंकियों को रिहा कर रूबिया छुड़ाई गईं थी। यह बात और है कि तब रूबिया को भारत की बेटी मानकर राष्ट्रहित में यह कदम उठाया गया था। हालांकि, आतंकी बाद में भी छोड़े जाते रहे। अलबत्ता, रूबिया सईद अपहरण कांड के वक्त सरकार में बीजेपी वाली सरकार नहीं थी। प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे और भाजपा ने उस सरकार को समर्थन भर दिया था।

राष्ट्रहित का तीसरा मामला भारत से नहीं है। राष्ट्रहित का यह कांड बांगलादेश में हुआ है। वर्ल्ड कप में इंग्लैंड के खिलाफ शानदार जीत हासिल कर टीम को पहली बार क्वॉर्टर फाइनल में पहुंचाने वाले क्रिकेटर रूबेल हुसैन की दुनिया महीने भर के अंदर एक बार फिर उलट गई है। इसकी एकमात्र वजह हैः राष्ट्रहित

विश्वकप से ऐन पहले रूबेल हुसैन पर बांग्लादेशी अभिनेत्री नाज़नीन अख़्तर ने बलात्कार का आरोप लगाया और रूबेल को कुछ वक्त जेल में भी गुजारना पड़ा। लेकिन बलात्कार के आरोपी रूबेल हुसैन को विश्व कप में खेलने देने के लिए अदालत ने ज़मानत दे दी। वजहः राष्ट्रहित। बांग्लादेशी क्रिकेटर ने मैदान पर जौहर दिखाया, इंगलैंड को पटखनी दे दी, तो पीड़िता के वकील ने अपनी मुवक्किल का मुकद्दमा छोड़ दिया। वजहः राष्ट्रहित

क्रिकेट ने एक आपराधिक मुकद्दमे पर वरीयता हासिल कर ली। वजहः राष्ट्रहित। अंततः बलात्कार पीड़िता अभिनेत्री नाज़नीन अख्तर ने भी आपना आरोप वापस ले लिया। वजहः राष्ट्रहित। इधर सुना है आम आदमी पार्टी में भी कुछ स्यापा हो रहा है और डर्टी पॉलिटिक्स नाम की फिल्म भी हिट हो रही है। क्या पता उसकी वजह भी राष्ट्रहित ही हो?

अब हम क्या कहें, कह तो अदम गोंडवी गए हैं—
जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिए
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिए



Wednesday, March 11, 2015

बजट और घीसू का पसीना

जट भाषण बहुत बोरिंग होते हैं। और हर वित्त मंत्री उसमें कुछ शेरो-शायरी करके रंग भरने की कोशिश करता है। मैं वित्त मंत्री के भाषण-कला या शेरो-शायरी पर कुछ कहना नहीं चाहता। मैं इस स्तंभ के ज़रिए आपको बजट की नीरस बातों पर बिन्दुवार कुछ कहने की कोशिश भी नहीं करूंगा।
कईयों ने इस बजट को बहुत बेकार कहा, कईयो ने दूरमागी प्रभाव वाला। विपक्ष वालों के मुताबिक खेती किसानी के लिहाज से यह बजट कुछ खास नहीं रहा।

वित्तीय मामलों जैसे नीरस विषय पर कोई जानकार ही कायदे से अपनी बात समझा पाए। लेकिन जिस देश में रूखी त्वचा, खेतों में पड़ी दरारों से अधिक महत्वपूर्ण हों, जहां सिर में डैंड्रफ सूखी फसलों से अधिक पब्लिक स्पेस घेरती हो, जहां किसान आत्महत्या से अधिक चर्चा वॉर्डरोब मालफंक्शन की हो, वहां थोड़ी सी जगह कुछ चिंताओं को दिया जाना मैं बाजिव ही मानता हूं। 
प्रधानमंत्री देहातों को डिजिटल बना देना चाहते हैं। शायद बजट में डिजिटल इंडिया कार्यक्रम पर खासा जोर भी इसी वजह से दिया गया। दोयम यह कि सरकार देश में टेलिकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर और तकनीक पर विदेशी निवेश लुभाने की कोशिशों में है।

शहरों और गांवों के बीच की डिजिटल खाई को पाटने के लिए अगले साल दिसंबर तक सरकार ने देश के ढाई लाख गांवों तक ब्राडबैंड कनेक्टिविटी पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है। अगर यह अपने तयशुदा वक्त पर, या छह महीने लेट भी, हो पाया तो भारतीय देहातों की सूरत बदल देगा। घरेलू बाज़ार के लिए तकनीक में 26 अरब डॉलर क सरकारी निवेश मौजूदा वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि का मूल रहेगा।

अपने बजट भाषण में जेटली ने कहा ही कि देश भर में नैशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क को साढे सात लाख किलोमीटर की लंबाई में बिछाया जाएगा और सरकार गांवो में 100 एमबीपीएस ब्राडबैंड कनेक्टिविटी देगी।

ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी ठीक है। अब हमारे देहात ग्लोबल हो जाएंगे। मुझे देहातों के ग्लोबल होने में कोई दिक्कत नहीं है।

लेकिन, हम भारतीयो की दिक्कत है कि हम बहुत बुनियादी मसलों में उलझ कर रह जाते हैं। मिसाल के तौर पर, मैं खुद, कई बार बुंदेलखंड के इलाकों के चक्कर काट चुका हूं। मुझे पानी की समस्या बहुत बुनियादी और असल समस्या लगती है।

बांदा के पास एक जगह है अतर्रा। यह तीन दशक पहले तक अतर्रा देश का सबसे बड़ा चावल उत्पादक केन्द्र था और यहां धान की सैंतीस मिलें थीं। इस इलाके में नहरों का जाल बिछा था। मतलब नहरों की अच्छी कनेक्टिविटी थी। यहां बांधो की सघनता एशिया में सर्वाधिक थी। अतर्रा का सेला चावल देश भर में मशहूर था और यहां की स्थानीय चावल की बहुतेरी किस्में उगाई जाती थीं।
वक्त बदला। बांधों और नहरों में पैंसठ फीसद तक गाद भर गया। बुंदेलखंड वैसे भी कम बारिश के लिए बदनाम है। सरकारों ने सुध ही नहीं ली।

आज हालात यह हैं कि अतर्रा का आखिरी चावल मिल भी अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। काश...सरकार इधर भी तवज्जो देती कुछ। चावल की स्थानीय नस्लें खो गईं, उसका मुद्दा तो बाद में उठेगा, अतर्रा के किसानों की कई नस्लें बरबाद हो गईं इसका जवाब कौन देगा।

ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी बहुत जरूरी है। लेकिन नहरों की कनेक्टिविटी उससे ज्यादा जरूरी है। अदम गोंडवी कहते तो हैं,

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।


Saturday, March 7, 2015

आई डोंट मिस एनिथिंग!

मेरे घर के बच्चों ने होली की तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट की हैं। उससे पहले बड़े भैया ने चांद की तस्वीरें पोस्ट की थीं...कैप्शन देते हुए। होली पर मेरे भाई, भतीजे, भांजे...सब एक साथ थे। मैं नहीं था।

मेरा घर मधुपुर में था। मेरा घर मधुबनी में भी था। अब मैं वैशाली में रहता हूं। जो न दिल्ली है, न यूपी है। दोनों का अजीब-सा सम्मिश्रण है। यूपी वाली अराजकता है, दिल्ली जैसे लोग हैं। मेरी जड़ें मधुपुर में थीं। मेरी जड़ पर किसी ने टांगी मार दी। टांगी कुल्हाड़ी को कहते हैं।

पहले मैं अपने मधुपुर को बहुत मिस करता था। लगता था कहां आ गया। मधुपुर मेरे आत्मा में थी। मधुपुर का दशहरा, मधुपुर की दीवाली, मधुपुर का छठ...मधुपुर का भेड़वा मेला, मधुपुर का गोशाला मेला, मधुपुर की होली...मधपुर की पतरो नदी। मधुपुर का जंगल, मधुपुर की चिड़िया...मधुपुर की मिठाई, समोसे, आलूचाट, मेरा स्कूल, स्कूल वाले दोस्त..अमड़ा, इमली की चटनी, बेर, काला नमक। मधुपुर की हर चीज़। हर चीज़ में इमोशनल मूर्ख की तरह मिस करता था। 

अब मुझमें मधुपुर कहीं नहीं है। ना मैं मधुपुर में कहीं हूं। ये शहर भूला मुझे मैं भी इसे भूल गया।

किसी ने मधुपुर में मेरी जड़ काट दी है। पटना से दिल्ली प्रवास के लिए निकलने वाला था तो आदरणीय़ शिक्षक बलराम तिवारी ने कहा था, जड़ो को मत भूलना। जड़ से उखड़ा पेड़ कहीं का नहीं होता, न बढ़ता है। सूख जाता है।

तो क्या यह मान लूं कि मैंने सूखने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं?

होली के रंग में अब वो ताव न रहा। रिश्तों में वह गरमाहट न रही। एक बड़े भाई सरीखे शख्स हैं, वह आपस में मिलते थे, तो कहते आओ मंजीत, तुम आते हो तो अच्छा लगता है। बहुत सीधा सा वाक्य है। लेकिन, भरत मुनि का नाट्य शास्त्र भले ही ऐसे मेलोड्रामाई  रिश्तों पर चुप हो, मैं कहता हूं कि आपसी रिश्तों में बोले गए संवादों में मॉड्यूलेशन बहुत महत्वपूर्ण है। 

उन बड़े भाई सरीखी शख्सियत की बातचीत में इस अनुतान का, मॉड्यूलेशन की सख्त कमी थी। उनके यहां की चाय तब भी बेमज़ा लगती थी। 

आपसदारी के रिश्तों में यह औपचारिकता तब खलती थी मुझे। अब नहीं खलता कुछ भी। दुनिया को बहुत करीब से देख लिया है। अब तो अपने लोगों (अगर रिश्तेदार अपने होते हों तो) ने  औपचारिकता भी छोड़ दी। 

मुझे किसी से शिकायत नहीं। हो भी क्यों। मुझे लगता है मैं बदल गया हूं। पहले कुछ नरम-नरम सा आदमी था। अब कठोर हो गया हूं। अब जानता समझता हूं...सब कुछ। कौन कैसा पैंतरा लेगा, कब। यह भी। 

दुनियादारी की समझ आ गई। देर से सही। मुझे अब अपनी माटी की सोंधी गंध अपनी ओर नहीं खींचती। खुश हूं कि नहीं खींचती। खींचती रहती, तो जाने की अदम्य इच्छा, और न जा पाने की कठोर मजबूरी के बीच पिसकर रह जाता।

मधुपुर में तब, जब हम छोटे थे, मुहल्ले के लड़के होलिका दहन के लिए घर-घर गोयठा (उपले) मांगा करते। दस-पंच गोइठा, मांगी ला, मांगी ला हो मांगी ला। हम भीड़ में साथ हो लेते। गोइठा देने में कभी किसी ने मना नहीं किया। होलिका जलती थी...बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देते हुए मुहल्ले की सारी झाड़ियां काटकर जला दी जातीं।

होली में सारे लोग इकट्ठा होते। हर कोई रंग लगाता, शाम को गुलाल खेलते। जो भी यह लेख पढ़ रहे होंगे, ऐसा हर किसी के यहां होता होगा। हर प्रवासी के दिल में अपना-अपना मधुपुर है।

लेकिन मधुपुर में वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। दिल बदलते हैं, और उसके साथ चेहरे भी। होली के रासायनिक रंगों का चटख मिजाज़ बरक़रार रहता है, चेहरे की मुस्कान की रंगत गायब हो जाती है। पलाश से बनने वाले रंग गायब हो जाते हैं, और  चेहरे को कांच के पाउडर सरीखा छील देने वाले नक़ली रंगो का मार्केट ज़ोर पकड़ता है। कॉरपोरेट कहता देगा, पलाश का रंग खतरनाक हो सकता है, कंपनी में बना केमिकल रंग सेफ है। य़ह मानने वालों पर है, कभी क्रॉस चेक किया है आपने?

मधुपुर में पलाश मां जैसी है। मां ही है। पलाश के रंग को कॉरपोरेट डायन कह सकता है। ...भला पलाश का रंग भी कभी खतरनाक हो सकता है? 

दुख है कि मधुपुर जैसे सैकड़ों शहरों में सब बदल गया है। सिदो-कान्हू, चांद भैरव, जबरा पहाड़िया, नीलाम्बर-पीताम्बर...भाईयों का प्यार रहा नहीं। इसके लिए चंदा से गुहार लगानी पड़ती है, चंदा रे मेरे भाईयों से कहना...।

जड़ों से काटकर मुझे ठोस पत्थर बनाने की जिम्मेवारी किसकी है?
तुम लोगों की इस दुनिया में, हर क़दम पर इंसां ग़लत। मैं सही समझकर जो भी करूं...तुम कहते हो ग़लत। मैं ग़लत हूं...तो फिर कौन सहीं। मर्जी से जीने की भी,,,क्या तुम सबको अर्जी दूं। मतलब की तुमसबका...मुझपे मुझसे भी ज़्यादा हक़ है। लिखा इरशाद कामिल ने है। पर कह मैं रहा हूं। 

मधुपुर के पलाश, मधुपुर की लाल माटी, मधुपुर की होली...बस मैं अब कुछ भी मिस नहीं करता। सॉरी, मधुपुर मैं तुम्हें मिस नहीं करता। 


Sunday, March 1, 2015

दो टूकः माटी की सेहत


सौजन्यः गांव कनेक्शन
पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजस्थान के सूरतगढ़ में थे। विभिन्न राज्यों और देशभर के किसानों को प्रधानमंत्री ने अधिक अन्न उपजाने के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार दिए। मुझे अच्छी तरह से याद है, पहले यह पुरस्कार कहीं और नहीं, बेहद उबाऊ सरकारी आयोजन की तरह दिल्ली के विज्ञान भवन में दिए जाते थे। अच्छा हुआ, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर पदयात्रा की खबरों के बीच सरकार किसानों के बीच पहुंची।

सूरतगढ़ में एक और गौरतलब शुरूआत हुई। यह शुरूआत थी किसानों को उनके खेतों की मिट्टी की सेहत से वाकिफ कराने के लिए सेंट्रल सॉइल हेल्थ कार्ड स्कीम की। इसके ज़रिए किसानों को उनकी खेतों की मिट्टी के बारे में लैब में जांच करके बताया जाएगा। केंद्र सरकार ने इस योजना के लिए फिलहाल तरीब 600 करोड़ रुपये का इंतजाम किया है।

अब इस स्कीम के लॉन्च के बरअक्स मैं दूसरी खबर के बारे में बताना ठीक समझता हूं। ख़बर उत्तर प्रदेश के दनकौर की है। दनकौर और जेवर ब्लॉक के करीब 8 हजार खेतों से लिए गए मिट्टी के नमूनों की जांच ने सबको चौंका दिया है।

रासायनिक उर्वरक और नमक यहां की जमीन को बंजर कर रहा है। बिलासपुर की लैब में लिए गए मिट्टी के नमूनों के आधार पर कृषि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि खेतों में अच्छी पैदावार लेने के लिए केमिकल फर्टिलाइजर, नमक और कीटनाशक दवाइयों के ज्यादा इस्तेमाल से जमीन बंजर बनती जा रही है। इलाके की मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा बेहद ही कम पाई गई है। इसके अलावा जीवांश की मात्रा न्यूनतम, फास्फोरस अति न्यूनतम और पोटाश की मात्रा भी न्यूनतम ही पाई गई है। इन सभी की मात्रा 80 से लेकर 100 पर्सेंट तक होनी जरूरी है। कृषि एक्सपर्ट की मानें तो अच्छी पैदावार लेने के लिए मिट्टी में 16 पोषक तत्व होने अति आवश्यक हैं। यहां किसानों को सिर्फ जिंक व सल्फर डाइआक्साइड जैसे ही पोषक तत्व मिल रहे हैं। आने वाले दिनों में यह भी कम होते चले जाएंगे। इसकी वजह है खेतों में केमिकल फर्टिलाइजर, नमक और कीटनाशक दवाओं का भारी प्रयोग।

प्रधानमंत्री से जुड़ी एक और योजना का जिक्र यहां मैं करना चाहता हूं, वह है गंगा की सफाई का। गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए सरकार अपने तरह से कोशिशें शुरू कर चुकी है और इसके तीन मुख्य मानक होते हैं पानी में जैव-रासायनिक ऑक्सीजन की मांग, घुलनशील ऑक्सीजन और कॉलिफॉर्म बैक्टिरिया की प्रति सौ मिलीलीटर संख्या।

एक मिसाल लेते हैं। अगर गंगा के तट से पचास-साठ किलोमीटर के दायरे में कोई किसान अपनी खेतों में जरूरत से अधिक उर्वरक का इस्तेमाल करता है। तो यह उर्वरक खेतों में पड़ा रह जाता है। बरसात में खेतों के पानी में घुलकर यह उर्वरक बरास्ते सहायक नदियों के, गंगा में आ मिलता है।

इस उर्वरक की वजह से गंगा में शैवालों की बढ़ोत्तरी सामान्य से ज्यादा तेजी से होती है। मूल रूप से ये शैवाल पानी के बहाव को बाधित करते हैं और प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए ऑक्सीजन पानी में छोड़ते भी हैं। इससे पानी मेम घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाएगी, लेकिन साथ ही पानी में जलीय जीवों का खात्मा हो जाएगा।

इस परिस्थिति को आप पारिस्थितिकीय जटिलता की श्रेणी में रख सकते हैं। इससे गंगा को साफ करने के सामान्य तरीके बेअसर साबित होते जाएंगे और फिर जटिल वैज्ञानिक तरीकों का विकल्प ही बच रहेगा।

यानी, मिट्टी की सेहत बचानी हो और लंबे वक्त तक पैदावार लेना हो, तो पानी, उर्वरक और रसायनों का बहुत सोचसमझ कर इस्तेमाल करना होगा। दनकौर हो या पानी से जूझता राजस्थान का कोई जिला, इन संसाधनों का किफायती इस्तेमाल खेती की लागत को कम ही करेगा। टिकाऊ विकास की रणनीति भी यही कहती है।

मंजीत ठाकुर


(यह लेख गांव कनेक्शन में मेरे स्थायी स्तंभ, दो-टूक में प्रकाशित हो चुका है)