Sunday, November 29, 2015

जलवायु परिवर्तन पर भारत का सहिष्णु कदम

आमिर खान ने पत्नी के मन की बात क्या कही, भूचाल आ गया। आना ही था। आमिर ख़ान ने कह दिया कि भारत में बढ़ती असहिष्णुता की वजह से उनकी पत्नी भारत में रहने की इच्छुक नहीं थी। इतना कहना था कि सोशल मीडिया पर आमिर को लेकर नफरत भरी टिप्पणियों का सैलाब आ गया।

मैं भी आमिर की इस टिप्पणी से इत्तफाक नहीं रखता। मैं यह भी नहीं कहता कि देश में मौजूदा प्रशासन आजतक का आदर्श प्रशासन है। लेकिन आमिर को (या उनकी पत्नी को) अपनी बात तर्कों के ज़रिए साबित करनी चाहिए थी।

आखिर असहिष्णुता या सहिष्णुता एक अमूर्त्त चीज है। महसूस करने की। आमिर या उनके जैसे कलाकारों ने आखिर कैसे महसूस कर लिया कि देश में असहिष्णु वातावरण बन गया है। और यह वातावरण आखिर बेहतर कब था।

आप चाहें तो मेरे सवाल के लिए मुझ पर लानतें भेज सकते हैं क्योंकि आमिर खान ने सरफरोश जैसी फिल्म में बेहद देशभक्त पुलिस अफसर का किरदार अदा किया है, साथ ही आमिर खान भारत सरकार के विज्ञापनों में देश को इंक्रेडिबल इंडिया यानी अतुल्य भारत कहते हैं।

अब या तो वह विज्ञापन में असत्य उचार रहे हैं या उस दिन पुरस्कार समारोह में। जो भी हो, साहित्यकारों और कलाकारों की इस बेचैनी के कारण को समझकर उसका निदान जरूरी है।

वैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की सहिष्णुता की एक मिसाल मैं देना जरूर चाहूंगा।

भारत ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती की एक बड़ी पहल की है। भारत ने अगले कुछ दिनो में पेरिस में होने वाले शिखर सम्मेलन से पहले जलवायु परिवर्तन पर अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33 से 35 फीसदी कटौती करेगी। यह कमी साल 2005 को आधार मान कर की जाएगी। इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है, जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है।

सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बनरहित ईंधन से होगा। यानी, भारत साफ-सुथरी ऊर्जा के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक वह 1 लाख 75 हजार मेगावॉट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे।

भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) लिटिगेशन प्लान के लिए बाध्य नहीं है। इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पैरिस में हो रहा है। अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है।

पिछले दिनों अपनी अमेरिका की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई। प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार है। विश्लेषकों का कहना है इस साल के आख़िर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। और अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती है।

न्यू यॉर्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग में आनेवाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी।

Saturday, November 21, 2015

गरीबी के आंकड़ो की कलाबाज़ी

सन् 1990 में विश्व बैंक ने एक पहल की थी, दुनिया से गरीबी, घोर गरीबी के उन्मूलन की। और इसके लिए लक्ष्य वर्ष रखा गया था साल 2030 का। और इस लक्ष्य वर्ष से ठीक पंद्रह साल पहले पिछले महीने यानी अक्तूबर में विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की और इस बात पर संतुष्टि जताई कि दुनिया में अत्यधिक गरीबों की संख्या अब घट कर दहाई के आंकड़े नीचे यानी 9.6 पर आ गई है। जाहिर है, यह खबर दुनिया के हर आदमी के लिए सुकूनबख्श है। लेकिन इसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा कि विश्व बैंक दिखाना चाहता है।

वैसे, भारत में गरीबी कितनी कम हुई है इस संबंध में फिलहाल विश्व बैंक ने आंकड़े तो नहीं घोषित किए हैं। लेकिन उसकी टिप्पणी हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।

विश्व बैंक का आरोप है कि भारत अपने गरीबों की संख्या का आकलन बढ़ा-चढ़ा कर करता रहा है। साल 2011-12 में सुरेश तेंदुलकर कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या 21.9 फीसद थी, जबकि उसी दौरान रंगराजन कमिटी ने देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या 29.5 फीसद बताई थी।

वहीं, इसी बारे में विश्व बैंक का आकलन है कि वर्ष उसी दौर में यानी 2011-12 में भारत की कुल आबादी का महज 12.4 फीसद हिस्सा ही घोर गरीबी, या जिसे हम आप गरीबी रेखा से नीचे कहते हैं, में जी रही थी।

अब सवाल उठता है कि आखिर कौन सा पैमाना है जिसके आधार पर घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की पहचान हुई, और जिसके आंकड़ो में इतना भारी अंतर आ गया।

भारत में गरीबी का पता लगाने के लिए आंकड़े जुटाने के दो तरीके हैं, पहला है यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) और दूसरा है, मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी)। साल 1993-94 तक यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) के तहत डाटा संग्रह किये जाते थे और उसके बाद मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी) के तहत, आंकड़े इकट्ठे किए जाने लगे।

दरअसल, यूआरपी के तहत 30 दिनों के समय में देश भर में एक सर्वे किया जाता था और इस सर्वे में लोगों से उनके उपभोग और खर्च के बारे में पूछकर जानकारी इकट्ठा की जाती थी। जबकि, एमआरपी के तहत देश भर में पूरे साल सर्वे होते थे। उसमें और कई आयाम जुड़े,इसके बाद एक महीने के समय में उसकी समीक्षा कर एक अंतिम आंकड़ा निकाला जाता था।

साल 1999-2000 से एमआरपी के तहत ही डाटा का संग्रह किया जा रहा है। वहीं विश्व बैंक ने आंकड़े जुटाने के लिए मोडिफाइड मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमएमआरपी) पद्धति का सहारा लिया। और वर्ष 2011-12 में उसने भारत में जो डाटा संग्रह किया उसके अनुसार देश में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या महज 12.4 प्रतिशत थी।

इस पद्धति में लोगों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़े, उपभोग की सामग्रियों पर उनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि की समीक्षा की गई। ऐसे में गरीबों की संख्या में बड़ा अंतर दिखा। दूसरी ओर अब अगर हम भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो थोड़ी हैरत जरूर होती है कि आखिर 2004 से लेकर 2012 तक ऐसी कौन सी योजना या प्रयास सरकार का था, जिससे कि गरीबी इतने आश्चर्यजनक ढंग से कम हो गई। अगर आंकड़े सच हो, और यकीन मानिए, मैं इसके लिए प्रार्थना कर रहा हूं, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। लेकिन आंकड़े में अंतर तथा उसकी प्रस्तुति में जल्दबाजी हैरान करने वाली बात है।

आईडीएफसी रुरल डेवलपमेंट नेटवर्क द्वारा तैयार भारतीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2013-14 का दूसरा संस्करण हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार देश में वर्ष 2013-14 में अत्यधिक गरीबों की संख्या घटकर 6.84 फीसद तक आ गई है जो कि वर्ष 2004-05 में 16.3 फीसद थी।

इन सबके अलावा एक बात बहुत जोर-शोर से वर्ष 2005 से ही कही जा रही है कि घोर गरीबी में जीने वाला व्यक्ति प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करता है, लेकिन वर्ष 2011 आते-आते इन गरीबों की खर्च करने की क्षमता बढ़ कर 1.90 डॉलर तक पहुंच गई। हालांकि इसी दौरान 2008 की आर्थिक मंदी ने पूरी दुनिया हिला दिया था। इन सबके बावजूद दक्षिण एशिया और अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में गरीबी कम होने के आंकड़े आए हैं।

अब आंकड़ो की बाज़ीगरी और सच्चाई में फर्क क्या है, क्यों है, कैसे है इस सवाल का जवाब या तो वक्त दे सकता है या सक्षम लेकिन विश्व बैंक के ईमानदारी अधिकारी। आंकड़ों में गरीबों की संख्या कम-ज्यादा बताना और इसमें मनमुताबिक हेर-फेर करना ही तो कला है, बाकी तो सब विज्ञान है।

Friday, November 20, 2015

लेह में आवारगी पार्ट 2

लेह के जिस सर्किट हाउस में हम ठहरे थे वह सरकारी था और जाहिर है उसमें टीवी था तो लेकिन उसके डीटीएच का पैसा नहीं दिया गया था। यानी टीवी देखना बेकार था।


फोटोः तेजिन्दर सिंह
एक पूरा दिन आराम व दूसरा पूरा दिन वहीं लेह में घूमना सबसे अच्छा तरीका है लेकिन हमारे पास वक्त बेहद कम था, और काम काफी ज्यादा। दूसरे दिन सुबह-सुबह मेरी नींद खुल गई। दिल्ली में जब तक दफ्तर न जाना हो मैं आदतन साढ़े 8 तक सोता रहता हूं और उगता हुआ सूरज कम ही देख पाता हूं। लेकिन यहां तो रात को खिड़की का पर्दा लगाना भूल गया था और 6 बजे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही आंखें चौंधिया गईं।

सूर्य की पहली किरण भूरे पहाड़ों के शिखर पर जमी बर्फ पर पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी सुनहरी काया पर मलमल का आंचल भर डाल दिया हो। 15 मिनट तक मैं बस सब कुछ भूल कर इस नजारे को देखता ही रह गया। साथ ही खिड़की से बाहर लॉन में आसमान जाने किस नस्ल की चिड़िया गा रही थी।

सुबह को, सर्किट हाउस के केयर टेकर ने हमारे लिए ऑमलेट और ब्रेड का नाश्ता तैयार कर दिया था। उस दिन शायद लेह में बाजार कुछ बंद थे।

फोटोः सौरभ, मैं और तेजिन्दर, ऑमलेट के इंतजार में


इसी से गुज़ारा करना था। हमें लेह के आसपास के हिस्सों में कुछ शूटिंग पूरी करनी थी और इसके लिए हम शांति स्तूप से लेकर न जाने कितने गोम्फाओं के दर्शन कर लिए। सड़क के बाईं तरफ पहाड़, नीचे हरा-भरा लेह, और पूरा शहर...मानो घरौंदों की बस्ती हो।


शांति स्तूप फोटोः सौरभ
फिल्म 3 इडियट्स ने इस जगह को और भी चर्चा में ला दिया है। कैसे इसकी चर्चा तो आगे, लेकिन शहर से पूर्ब सात-आठ किलोमीटर बढ़ते ही एक स्कूल हैः रैंचो स्कूल। जी हैं, आमिर खान का नाम थ्री इडियट्स में रैंचो ही था और अब एक स्कूल है जिसको उनके ही नाम से जाना जाता है।

इस स्कूल तक जाने के लिए आप एक सड़क पकड़ते है, जो सीधे मनाली की तरफ जाती है। शहर से बाहर निकलते ही इस सड़क को कई बारे आड़ी काटती हुई एक पतली सी नहर है, जो शहर के लिए पानी की आपूर्ति का शायद एकमात्र साधन है।


फिर बाई तरफ आप देखते हैं, रेतों के ढूह...पथरीले पहाड़। न जाने कितने मोड़ हैं उसमें। ऐंठन से भरे चट्टान। लगता है किसी ने मचोड़कर-मरोड़कर रख दिया हो। जाहिर कुदरत ने मरोड़ा है। कुदरत से बड़ी ताकत है क्या कोई।

इंसान कितना भी ताकतवर हो ले, आखिरी बोली तो कुदरत की होती है। यह बात, चाहे आप दिल्ली-मुंबई-अहमदाबाद-बंगलुरू में शायद महसूस न कर पाएं लेकिन लेह-लद्दाख जाकर आप इस बात से इतफाक रखेंगे।

रैंचो स्कूल के बगल में ही स्तूप जैसी सफेद आकृतियां बनाई गई है। सैकड़ो की संख्या में। फिल्मों के शौक़ीन हैं तो बंटी और बबली फिल्म का गीत देख लीजिए, जिसमें अभिषेक और रानी इन्ही आकृतियों के बगल में प्रेम भरे गीत गा रहे हैं। फिल्म दिल से में, शाहरुख और मनीषा कोईराला के प्रेम का उद्गार भी इधर ही व्यक्त हुए हैं।

बहरहाल, सूरत तेजी़ से ढल रहा था और हम वहां से फोटो खिचवाकर, क्योंकि शूटिंग हमने निबटी ली थी, शांति स्तूप की तरफ चल पड़े। वह हमारे सर्किट हाउस से ढाई किलोमीटर उत्तर था।

शांति स्तूप तक पहुंचते-पहुंचते थकान हम पर तारी हो चुकी थी। ढलते हुए सूरज का सौन्दर्य..सफेद स्तूप पर। वाह क्या दृश्य था। और जब हम हांफते हुए ऊपर शांति स्तूप तक पहुंचे...दक्षिण में बादलों का साम्राज्य हिममंडित शिखरों को अपने आगोश में ले चुका था।

फिर भी हमने हिस्से के काम निबटाए। शूटिग का। लेकिन उसके साथ अपने फोटो शूट भी तो जरूरी काम हुआ करते हैं। वह भी किया गया।

शाम को 7 बजे तक हमें वापस सर्किट हाउस पहुंचना था, क्योंकि डॉक्टर साहब आकर हमारी जांच करने वाले थे कि क्या हमारा मैदानी इलाके की जलवायु का अभ्यस्त शरीर आगे ऊंचाई पर चढ़ाई के लायक है या नहीं।

मैं डरा हुआ था। काश कि मेडिकल रिपोर्ट मुझे लेह में रूकने को मजबूर न कर दे। जिस हिमालय के बारे में हमने किताबों में पढ़ा था उसको एकदम नजदीक से देखने का मौका मैं गंवाना नहीं चाहता था।

Thursday, November 19, 2015

महागठबंधन जीत के आगे की चुनौती

बिहार में जीत महागठबंधन की हुई और क्या जबरदस्त जीत हुई। लालू इस खेल में मैन ऑफ द मैच रहे। लालू के सियासी करिअर का मर्सिया पढ़ने वालों से मेरा कभी इत्तफाक नहीं रहा और मुझे हमेशा लगता था कि लालू की वापसी होगी। गोकि लालू का जनाधार भी जब्बर है और इसबार नीतीश के साथ हाथ मिलाकर, वो भी बिलाशर्त, लालू ने संजीदा राजनीतिज्ञ होने का परिचय ही दिया।

अंकगणित के आधार पर लोगों ने लालू-नीतीश के महागठबंधन को खारिज कर दिया था। नरेन्द्र मोदी की अपार लोकप्रियता और सर चढ़कर बोल रहा जादू भी ऐसा ही है। लेकिन बिहार में सियासत महज वोटों के अंकगणित के समीकरणों से नहीं होती। वहां वह ज्यामिति भी होती है और बीजगणित भी।

लेकिन, महागठबंधन के पक्ष में जो जिन्न इवीएम से बाहर निकला है वह इतनी जल्दी बोतल के भीतर नहीं जाएगा। लालू ने अभी तक मुंह नहीं खोला है। गठजोड़ करने से पहले तो बिलकुल भी नहीं खोला। लेकिन वह इतनी आसानी से मानेंगे भी नहीं। नीतीश के साथ गठजोड़ करने से पहले लालू बैकफुट पर थे। उनका सियासी करिअर डांवाडोल था। लेकिन अब लालू बम-बम हैं क्योंकि उनकी सीटें जेडी-यू से भी अधिक है। जेडी-यू पिछले विधानसभा चुनाव में हासिल सीटों से कम सीटें पा सकी है इसबार। तो ऐसे में उप-मुख्यमंत्री का पद अगर लालू अपने बेटों में से एक के लिए मांग बैठे तो इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए। गोकि लालू पहले भी बोल चुके हैं, कि उनका बेटा राजनीति नहीं करेगा तो क्या भैंस चराएगा और उनकी इसी बात पर उनके पुराने संगी पप्पू यादव किनारा करने पर मजबूर हो गए।

जाहिर है कि नीतीश ही मुख्यमंत्री होंगे। असली चुनौती उनके लिए एस जीत के बाद होगी। उनकी छवि भी सुशासन बाबू की रही है जिन्होंने लालू-राबड़ी के शासन के दौर में साधु-सुभाष की वजह से फैली अराजकता को एनडीए का मुख्यमंत्री बनकर खत्म किया था। नीतीश ने बेशक विकास के बुनियादी सिद्धांतो का पालन किया और बिहार में सड़कें वगैरह बनवाईं, लेकिन अब विकास के दूसरे स्तर पर उन्हें अपने प्रशासन को ले जाना होगा और लालू ने अगर इसमें जरा भी लापरवाही दिखाई तो पहला धक्का नीतीश की विकास-पुरुष वाली छवि को लगेगा। इसलिए राजनीतिक पंडितों की पैनी निगाह इस गठबंधन की कामयाबी पर है।

अगर इस गठबंधन को असल में कामयाब होना ही है तो इसको पड़ोसी सूबे उत्तर प्रदेश से एक सबक लेना ही चाहिए, जहां 1993 में ऐसा ही एक गठजोड़ बना तो था लेकिन धराशायी हो गया था। इस वक्त राम मंदिर का मुद्दा बहुत गरम था और 1992 में गठित समाजवादी पार्टी और 1984 में बनी बहुजन समाज पार्टी ने हाथ मिलाए थे। सरकार गठित हई थी और उसको बाहर से समर्थन दिया था कांग्रेस ने। तब तक अयोध्या में विवादास्पद ढांचे को कारसेवकों ने गिरा दिया था और मायावती ने बहुजन समाज के लोगों को एक समाजवादी मुलायम सिंह यादव का नेतृत्व मानने के लिए मना लिया था। लेकिन 1995 के मध्य तक, मुलायम और मायावती एक दूसरे के घोर दुश्मन में तब्दील हो गए। 18 महीने तक चली यह सरकार आखिरकार कड़वाहटों के बीच 1995 के जून में गिर गई थी।

इस गठबंधन के धराशायी होने के अमूमन तीन कारण गिनाए जाते हैं। अव्वल, अपनी-अपनी जातियों की रहनुमाई करने वाले नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाएं, दोयम, सत्ता के दो केन्द्र बन जाना, जो अपने जनाधार या सीधे शब्दों में कहे तो अपनी जातियों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे और तीसरा, सामाजिक और ज़मीनी स्तर पर यह राजनीतिक गठबंधन स्वीकार्य नहीं था।

नीतीश और लालू दोनों ही दो ताकतवर और आक्रामक जातियों के नेता हैं। चुनाव जीतने के बाद इन जातियों की उम्मीदें भी बढ़ गई होंगी। लेकिन इन दोनों ही नेताओं को अब इस राजनीतिक गठजोड़ को जमीनी स्तर पर ले जाना होगा। इसका सीधा मतलब है यादवों, दलितों और कुर्मी-कोइरी जैसी खेतिहर जातियों को एक साथ लाना। नीतीश और लालू अगर इस गठबंधन की उम्र लंबी रखना चाहते हैं तो उन्हें दलितो और यादवों के संघर्ष को कम करना होगा, और यादवों से साथ कुर्मियों के संघर्ष को भी।

जो लोग बिहार को जानते हैं उन्हें पता होगा, यह काम लिखने में आसान है लेकिन जमीनी रूप में यादवों-कुर्मियों-दलितों के जातीय संघर्ष को पिघलाना टेढ़ी खीर है।

Monday, November 16, 2015

मिथिला की औद्योगिक उपेक्षा

बिहार में चुनावी यज्ञ अब पूर्णाहुति की तरफ बढ़ रहा है। जम्हूरियत के इस जश्न के दौरान जब मैं यह स्तंभ लिख रहा हूं तो पांचवे चरण का मतदान चल रहा है, और आज के मतदान का प्रतिशत एनडीए और महागठबंधन की चुनावी जीत तय करेगा। ज्याद वोटिंग एनडीए के पक्ष में होगा, साठ फीसद से कम मतदान महागठबंधन के पक्ष में। हालांकि यह आंकड़ा हमेशा सच नहीं होता।

इस चुनाव को कवर करते हुए मैं बिहार के उत्तरी इलाकों में खूब घूमा। मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि आखिर बिहार के लोग बड़े पैमाने पर दूसरो राज्यों की ओर पलायन क्यों करते हैं, और नीतीश कुमारे के दस साल के सुशासन में आखिर उत्तर बिहार को क्या कुछ हासि हुआ। नीतीश जब लालू के जंगल राज के खिलाफ 2005 और 2010 में चुनाव लड़ रहे थे और एऩडीए का हिस्सा थे तब उन्होंने मिथिला के इलाकों में पड़े चीनी मिलों और पेपर मिलों के साथ चावल मिलों के नया जीवन देने का वायदा किया था। एक दशक बाद उत्तर बिहार का औद्योगिक सच जानने में मैं दरभंगा के पास अशोक पेपर मिल पहुंचा था।

असल में, अशोक पेपर मिल मिथिला इलाके के औद्योगीकरण के खत्म होते जाने और उसके साथ ही रोज़गार के साधनों के छीजते जाने की मिसाल है। यह मिल लूट और भ्रष्टाचार के वजह से एक फलते-फूलते उद्योग के मिट जाने की कहानी भी है। बार-बार दोबारा शुरू किए जाने के सियासी वादों और उन वादों के टूटते जाने की भी दास्तान है यह मिल। दरभंगा से करीब नौ किलोमीटर जाने पर एक ढांचा दिखाई देता है, हरे खेतों के बीच खड़ा बड़ा सा कारखाना। पहले जहां मजदूरों की चलह-पहल रहती थी वहां अब भैंसे चरती दिखाई देती हैँ।

इस मिल की स्थापना दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने 1958 में तब की थी जब जमींदारी के खात्मे का बड़ा शोर था और महाराज खुद को एक उद्योगपति-राजनेता में बदल लेने को तत्पर थे। किसानों से जब 400 एकड़ जमीन अधिगृहीत की गई तब रोज़गार और समृद्धि के सपने उन्हें दिखाए गए थे। उस वक्त यह उत्तरी बिहार का पहला और एकमात्र भारी उद्योग था। लेकिन 1963 में इसका लिक्विडेशन शुरू हो गया और सरकार ने 1970 में इसका अधिग्रहण कर लिया। तब असम और बिहार की राज्य सरकारों और केन्द्र ने मिलकर इसको संयुक्त उपक्रम में बदल दिया और वित्त प्रदाता आईडीबीआई ने पूंजी की व्यवस्था की।

अशोक पेपर मिल बेहद उम्दा कागज उत्पादित करता था। लेकिन नौकरशाहीनुमा लचर प्रबंधन और यूनियनबाज़ी की वजह से 1982 में यहां कागज का उत्पादन बंद करना पड़ा। इसके साथ ही 1200 कामगार बेकार हो गए। 1987 में अशोक पेपर मिल को शुरू करने की पहल की, लेकिन अनुदान मिला असम वाली यूनिट की। दरभंगा वाली इकाई यूं ही बंद पड़ी रही।

साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मिल का निजीकरण कर दिया गया। नोर्बू कैपिटल एंड फिनांस लिमिटेड नाम की कंपनी को बिहार और असम सरकार के हिस्से के 6 करोड़ रूपये 16 किस्तों में चुकाकर अशोक पेपर मिल स्वामित्व मिलना था, लेकिन अद्यतन जानकारी के मुताबिक कंपनी से सिर्फ दो किस्तें जमा कीं। अदालत के आदेश के बावजूद, कंपनी ने कामगारों का पिछला कोई बकाया भुगतान नहीं किया। जबकि अदालत की शर्त थी कि वह मौजूदा 471 कामगारों को काम पर रखते हुए 18 महीने के भीतर उत्पादन का पहला फेज शुरू कर दे। लेकिन पहला फेज कभी शुरू नहीं हुआ, न कामगार रखे गए बल्कि वर्किंग कैपिटल के नाम पर वित्तीय संस्थाओं से 30 करोड़ रूपये की उगाही कर ली गई। शर्त यह भी थी कि कंपनी मिल के परिसर से कोई परिसंपत्ति बाहर नहीं ले जा सकती।

1998 में ट्रायल रन किया गया। इंजीनियरों ने रिपोर्ट दी कि मिल की 95 फीसद मशीनरी दुरुस्त है। इस रिपोर्ट के आधार पर कंपनी ने एक दफा फिर यनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया से 8 करोड़ रूपये वर्किंग कैपिटल के तौर पर उधार ले लिए। तथापि, मरम्मत के बहाने मशीनरी बाहर ले जाकर बेच दी गई। स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि 6 करोड़ में हासिल किए गए मिल से कंपनी 28 करोड़ कमा चुकी है वह भी सिर्फ मशीनरी को बेचकर। लोग बताते है कि कंपनी ने परिसर के भीतर के ढाई हजार पेड़, डेढ़ किलोमीटर लंबी पानी की पाइप लाईन, रेलवे ट्रैक, और मोटर वगैरह बेच दिए हैं।

मुझे इधर-उधर ताकते हुए देखकर मिल में मौजूद सुरक्षा गार्ड आ जाते हैं। उनके मन में भी इस बात के प्रेस में जाने और फोटो छाप देने पर नौकरी जाने का डर है। मिल के सुरक्षाकर्मी को भी कई सालों से वेतन नहीं मिला है।

राज़ यही खुलता है कि आखिर क्यों मिथिला का नौजवान बिहार से बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपनी श्रम बेचने को मजबूर है। साथ ही, बाहरी होने का दंश तो है ही। अपनी ज़मीन जब सियासी और कॉरपोरेट साजिश का शिकार हो, तो झेलेगा तो इलाके का नौजवान ही।

Friday, November 13, 2015

जड़ो को बचाने की असली सांस्कृतिक चिंता

बिहार चुनाव को कवर करना बेहद अहम है। पिछले सप्ताह जब मैं इस स्तंभ में लिख रहा था तो मैंने कहा था कि बिहार के इस बार के चुनाव देश की राजनीति के समीकरण बदल देंगे। इस बार का चुनाव भी नए सियासी ककहरे गढ़ रहा है।

इन दिनों मैं उस इलाके में हूं, और खूब घूम रहा हूं जिसे सीमांचल और मिथिलांचल कहा जाता है। यानी दरभंगा-मधुबनी और कटिहार-किशनगंज-पूर्णिया वाला इलाका।

ऐसे ही दरभंगा में घूमते चाय की दुकान पर लोगों को टहोकते हुए एक शख्स टकरा गए। काफी गरम हो रहे थे। करते रहिए रिपोर्टिंग। लिखते रहिए। टीवी पर दिखाते रहिए, मिथिलांचल खत्म हो रहा है, विरासत मिट रही है। दही-चूड़ा-पान-मखाना-मछली की तहजीब गायब होती जा रही है और किसी को इस बात की चिंता भी नहीं। भोगेन्द्र झा चौक है दरभंगा में। गंदे नाले के किनारे चाय पर चुनावी चर्चा में वह शख्स कहे जा रहे थे कि चुनावी आपाधापी में लोगों को वोट की चिंता है, लेकिन संस्कृति की बात करना दक्षिणपंथी हो जाना हो गया है आजकल। संस्कृति के नाम पर असली काम कम, हो-हल्ला ज्यादा है।

असल में, दही-चूड़ा-पान-मखाना-मछली मिथिला की पहचान है। मिथिला में तालाबों-पोखरों की बहुतायत रही है। बढ़ते और अनियोजित शहरीकरण (घटिया शब्द है यह, असल में यह बस्तियों का कंक्रीटीकरण है) ने तालाबों को पाट दिया। बचे-खुचे तालाबों में जलकुंभी पनप आए है। पोखरों के गाद की उड़ाही की फुरसत न सरकार को है। और आम आदमी अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को निभाने से मुकरता रहा है। ऐसे में, जिस मधुबनी जिले में एक हजार से अधिक तालाब-पोखर थे, वहां अब मछलीपालन से उत्पादन और बाहर मछली भेजना तो दूर की बात, घरेलू जरूरत भी पूरी नहीं होती।

मधुबनी दरभंगा में डेढ़ दशक पहले तक मछलीपालन बड़ा व्यवसाय था और यहां से मछली कोलकाता तक भेजी जाती थी। लेकिन अब मत्स्यपालन बंद कर दिया गया है। कुछ तालाबों में खेत बन गए हैं कुछ बस्तियों में बदल गए हैं। इस वजह से हर रोज़ मधुबनी जिले में आठ से दस ट्रक मछली आंध्र से आया करती है। यही हाल दूध और दही का भी है। पहले हर घर में पशुपालन हुआ करता था अब सहकारी संघो में भी महज 11 हजार लीटर ही दूध इकट्ठा किया जाता है। मिथिला के गांवों में शादी-ब्याह मुंडन-जनेऊ में दूध दही की भारी मांग होती है और उसे पूरा किया जाता है पाउडर वाले दूध से।

मधुबनी में साल 2009 में 450 मिलीलीटक दूध की खपत प्रति व्यक्ति थी, जो साल 2013 में घटकर 120 मिलीलीटर रह गई है। मखाना, सिंघाड़ा और पान के उत्पादन को सरकार ने बढ़ावा देने की बातें कहीं थीं, लेकिन वह चुनावी वादा महज वादा ही रहा। जमीन पर कोई चीज़ नहीं उतरी।

गांवों में घूमने पर बुजुर्गवार भी नौजवानों से कुछ परेशान नजर आते हैं। हर नौजवान के पास स्मार्ट फोन है और इंटरनेट सहज उपलब्ध है तो पॉर्न साइटों तक इन नाबालिगों की भी पहुंच है। झंझारपुर के पास महनौर गांव के बुजुर्गों ने मुझसे कहा कि इस इंटरनेट ने बच्चों को साफ बिगाड़ दिया है।

हर नौजवान के मोबाइल के मेमरी कार्ड में भोजपुरी गीत भरे पड़े हैं। अश्लील गीत। इस पर न तो रोक है न रोक लगाई जा सकती है। लेकिन मिथिला की जिस शांत और साहित्यनिष्ठ संस्कृति को हाल तक बचाए रखा जा सका था वह छीज रही है। मुझे इंटरनेट के रास्ते पूरी दुनिया के एक विश्वग्राम में बदल जाने में कोई उज्र नहीं है लेकिन सवाल मथता है उन संस्कृतियों का, जिसे यह ग्लोबल विलेज लील रहा है।

मिथिला के गांव-गांव में विद्यापति के बदेल गुड्डू रंगीला का अश्लील शोर है। बालिगों की अभिव्यक्ति की आजादी पर मुझे कोई दुविधा नहीं, वह है और होनी चाहिए। लेकिन हम जिन सांस्कृतिक निधियों को दुनिया के सामने पेश करना चाहते हैं उसे बचाए रखना हमारा फर्ज है। मिथिला के गांवों में गूंजने वाले नचारी, सोहर, बारहमासा जैसे गीत, विदापत, लोरिक-लोरिकाइन, जट-जटिन जैसी सांस्कृतिक परंपराएं अस्तित्व खोती जा रही है। क्यों भला? क्या मिथिला में ऐसी कोई औद्योगिक क्रांति हो गई कि सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य बदलने जरूरी हो गए हैं? नहीं। कत्तई नहीं।

अगले स्तंभ में, मिथिला इलाके के कुछ औद्योगिक संस्थानों की हालत बताऊंगा तो शायद स्थिति अधिक साफ होगी। फिलहाल तो मैं गांवो से लेकर शहरों तक एकरसता-सा अनुभव कर रहा हूं। पूरे बिहार में, एक जैसे मकान, एक जैसी गंदगी, एक जैसे होते जा रहे पहनावे और एक जैसी सांस्कृतिक दुविधा। हर जगह एक जैसा शोर है। कहीं जींस ढीला करने का तो कहीं गमछा बिछाने का। मिथिला की गलियों में ऐसी अवांछित अश्लीलता कभी न थी।

Thursday, November 12, 2015

आत्मदाह की किसान की फरियाद

आजकल हम छींकते भी हैं तो उसमे बिहार के चुनाव का शोर-सा सुनाई देता है। कसम कलकत्ते की, नीतीश-लालू के महागठबंधन और बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने इस दफा घोषणापत्रों की बजाय विज़न डॉक्युमेंट्स जारी किए हैं। घोषणापत्र का फ़ैशन पुराना पड़ चुका है और मैनिफेस्टो कम्युनिस्टी लफ्ज़ मालूम पड़ता है। विज़न डाक्युमेंट सही है। नया है। चलेगा।

दोनों विज़न डॉक्युमेंट्स में किसानों के लिए कुछ कहा गया है। उस कुछ में से खास यह है कि कृषि के लिए अलग से बजट तैयार किया जाएगा। ठीक है। अलग से बजट तैयार करने वाले कर्नाटक में ही किसानों का क्या भला हो गया। बिहार में भी अलग से बजट पेश कीजिएगा। वैसे, सनद रहे कि बिहार के किसान आत्महत्या नहीं करते हैं। तमाम परिस्थितियां है आत्महत्या के मुफीद, लेकिन ढीठों की तरह जिए जाते हैं। ईंट ढोते हुए जिंदगी गुजार देते हैं, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाते।

आमतौर पर किसान आत्महत्याओं की खबरों में हम उम्मीद करते हैं कि यह खबर बुंदेलखंड या विदर्भ से होगी। या फिर आजकल आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और बंगाल से भी आत्महत्या की खबरें आऩे लगी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश आत्महत्या के मानक पर मुझे लगता था कि थोड़ा संपन्न है।

लेकिन, क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश, क्या मेवात, क्या बुंदेलखंड और क्या विदर्भ, देश भर में किसानों की हालत बदतर ही होती जा रही है। मुज़फ़्फ़रनगर से थोड़ी ही दूरी पर है शामली ज़िला। वहीं याहियापुर के दलित किसान हैं, चंदन सिंह।

चंदन सिंह ने भारत के राष्ट्रपति को अर्ज़ी भेजी कि उन्हें सपरिवार आत्मदाह की अनुमति दी जाए। बुंदेलखंड के उलट याहियापुर के इन किसान चंदन सिंह की आत्महत्या की कोशिश की एक वजह कुदरत नहीं है।

चंदन सिंह गरीबी और तंत्र से हलकान हैं।

हुआ यूं कि सन् 1985 में ट्यूब वैल लगाने के लिए चंदन सिंह मादी ने भारतीय स्टेट बैंक से 10,000 रूपये कर्ज़ लिए। वो कर्ज़ मर्ज़ बन गया। उस रकम में से चार किस्तों में चंदन सिंह ने 5,700 रुपये का कर्ज़ चुका भी दिया था।

लेकिन, इसी वक्त केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बन गई। यूपी में मुलायम मुख्यमंत्री बने। सरकार ने ऐलान किया कि दस हज़ार रूपये से कम के सार कृषि ऋणों की आम माफ़ी की जाएगी। चंदन सिंह का बुरा वक़्त वहीं से शुरू हुआ।

चंदन सिंह को लगा कि कर्ज माफी में उनका नाम भी आएगा। चंदन सिंह याद करते हुए बताने लगते हैं, कि किसतरह बैंक के लोगों ने उनसे दो हजा़र रूपये घूस के लिए मांगे थे। घूंघट की आड़ से उनकी पत्नी बताती हैं कि गांव का अमीन भी शामिल था। लेकिन, बहुत हाथ पैर मारने के बाद भी चंदन सिंह 700 रूपये ही जुगाड़ पाए।

जाहिर है, उनका नाम कर्ज माफी की लिस्ट में नहीं आ पाया।

चंदन सिंह इसके बाद किस्तें चुकाने में नाकाम रहे तो पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई। चौदह दिन तक जेल में भी बंद रहे। अनपढ़ चंदन सिंह को लगा कि जेल जाने से शायद कर्ज़ न चुकाना पड़े आगे।

लेकिन, अगले तीन साल तक कोई ख़बर नहीं आई।

सन् 1996 में, बैंक ने उनके 21 बीघे ज़मीन की नीलामी की सूचना उन्हें दी तो वो सन्न रह गए। फिर शुरू हुआ गरीबी का चक्र। कर्ज़ की रकम बढ़कर बीस हज़ारतक पहुच गई। 21 बीघे ज़मीन महज 90,000 रूपये में नीलाम कर दी गई।

भारतीय किसान यूनियन के स्थानीय नेता योगेन्द्र सिंह बताते है कि आत्महत्या के लिए गुहार का फ़ैसला बिलकुल सही है। अगर चंदन सिंह की जमीन उसे वापस ही नहीं मिली तो इसके 13 लोगों के परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा। ये क्या, इसके साथ तो हमें भी मरना होगा।'

चंदन सिंह की पत्नी भी कहती है, जमीन न रही तो बच्चे फकीरी करेंगे, फकीरी से तो अच्छा कि मर ही जाएं। गला रूंध आता है। आंखों के कोर भींग आते हैं। मैं कैमरा मैन से कहता हूं, क्लोज अप बनाओ।

चंदन सिंह का परिवार अब दाने दाने को मोहताज है। बड़े बेटे ने निराशा में आकर आत्महत्या कर ली, बहू ने भी। चौदह साल की बेटी दो सला पहले, कुपोषण का शिकार होकर चल बसी।

चंदन सिंह दलित किसान हैं। लेकिन दलितों की नेता मायावती के वक्त में भी उनकी नहीं सुनी गई। कलेक्ट्रेट में ही उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। पखवाड़े भर फिर जेल भी रह आए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।

बाद में कमिश्नर के दफ्तर से उन्हें सत्तर हज़ार रूपये (नीलामी के बाद उनके खाते में गई रकम) की वापसी पर ज़मीन कब्जे का आदेश मिला। उन्होंने वो रकम वापस भी कर दी। लेकिन सिवाय उसकी रसीद के कुछ हासिल नहीं हुआ। कमिश्नर का आदेश भी कागजो का पुलिंदा भर है।

अब चंदन सिंह अपने हाथों में मौत की फरियाद वाले हलफ़नामे लेकर खड़े हैं। सूरज तिरछा होकर पश्चिम में गोता का रहा है। सामने खेत में गेहूं की फसल एकदम हरी है। लेकिन चंदन सिंह का मादी की निगाहें खेत को हसरत भरी निगाहों से देख रही है।

सूरज की धूप...पीली है, बीमार-सी।

क्या चंदन सिंह की कहीं सुनी जाएगी? यह मेरा सवाल भी है और फरियाद भी।