Friday, September 28, 2007

तरनेतर ...

दोस्तों को शिकायत रही कि बहुत दिनों से दिखाई नहीं दे रह... क्या करूं.. पेट की खातिर दर-दर भटकना हमारी नियति है। है कि नहीं.. वैसे नियति से कोई शिकायत भी नही। हमारी मजबूरी का हम बहुत संजीदगी से लुत्फ़ ले रहे हैं।

एक कवरेज के सिलसिले में गुजरात जाना पड़ गया। तरनेतर। ये अहमदाबाद से तरकीबन ,सवा दो सौ किलोमीटर दूर है। राजकोट की तरफ। जाने की बात हवा में उछली तो एक साथ ही खुशी भी हुई और बेचैनी भी। कहां जा रहा हूं मैं... गांधी के गुजरात या मोदी के ? बहरहाल, अहमादाबाद में हमारे दूरदर्शन के ड्राइवर ने मेऱा बहुत स्वागत किया। अच्छा लगा कि यहां मेज़बानी की शानदार परंपरा है। अहमदाबाद स्टेशन से दफ़्तर की ओर जाते वक्त शैलेश ने वे दुकानें दिखाईं, जिन्हें मोदीत्व के रखवालों ने मटियामेट कर दिया था। उसकी आवाज़ में पता नहीं क्यों.. एक अजीब-सी हैरान करने वाली खनक थी। मोदी का गुजरात गांधी के गुजरात पर हावी था।

उसी दिन यानी तेरह सितंबर को हम .. यानी कैमरा टीम तरनेतर के लिए निकल पड़े। रास्ता शानदार था। शानदार इसलिए क्योंकि सड़क समतल थी। गड्ढे नहीं थे। हमें हमेशा लगता है कि भारत के देहातों में सड़कें बेहद खराब हैं। लगना बेहद स्वाभाविक है। दरभंगा से उधर जयनगर की तरफ जाने वाले मेरे बिहारी मित्र मुझसे इत्तफाक रखेंगे कि कैसे ५५ किलोमीटर की दूरी को छह सात घंटे में पूरा किया जाता है।

अस्तु, गणेश चतुर्थी के दिन से तरनेतर का यह मेला शुरु होता है। गुजरात के हर रंग को यहां देख सकते हैं आप। टीम के साथ यहां आने वाला हमारा ड्राइवर बदल गया था। मेरे गले का ताबीज उसे पेरशान करता रहा। मेरे लाख समझाने पर भी कि यह ताबीज मेरी मां का पहनाया है इसका इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं , उसे कत्तई यकीन नहीं हुआ? .....
जारी...

सिनेमा पागल हाथी हो गया है..

सिनेमा भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। रोटी जैसा जरूरी।

छुट्टी का वक़्त हो, या परिवार में उत्सव का, फ़िल्में वहां मौजूद रहती हैं। टेलिविज़न की पहुंच बेडरुम तक है। लेकिन वह सोने वालों की नींद पर डाका डाल सके, इसके लिए उसके पास सिनेमा ही हथियार है।

टीवी पर आज सिनेमा पर आधारित कार्यक्रम सबसे ज़्यादा होते हैं। यह हिस्सा बढ़ेगा, अगर न्यूज़ चैनलों पर मीकाओं-राखी सावंतों, शाहिद-करीनाओं, और शिल्पा-गेरों के प्रसंगों को भी शामिल कर लें। अभिषेक और ऐश्वर्य के विवाह जैसे ब्रेकिंग न्यूज़ तो ख़ैर हैं ही।

अख़बारों में भी सिनेमाई ख़बरों के लिए अलग से सप्लीमेंट होता है, जो चाय की प्याली के साथ गरमा-गरम गॅसिप परोसता है। (तस्वीरों पर कोई टिप्पणी नहीं- सखेद)। लब्बोलुआब यह कि यह कि हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा।

आपने कभी सोचा है कि क्या आपकी कोई मौलिक कल्पना शेष बची भी है? क्या सपने आपके अपने हैं?

अख़बारों में विज्ञापन से शुरु हुई सुबह रात में किसी चैनल के मूवी मसाला या ख़बरें बालिवुड की पर ख़त्म होती हैं। वह भी तब जब आप बेहद शरीफ क़िस्म के इंसान हों, वरना इस समापन को बहुत दूर तलक ले जाने की ढेर सारी संभावनाएं मौजूद हैं।

फ़िल्मों को लेकर भारत में इतना दीवानापन है, फरि भी शबाना आज़मी को क्यों कहना पड़ता है कि भारत में सिनेमा देखने का संस्कार नहीं है? ज़ाहिर है, शबाना की इस शिकायत को प्रेमचंद के इस कथन से जोड़ा जा सकता है जहां उन्होंने कहा है कि इसे यानी सिनेमा को कोरा व्यवसाय बना कर हमने उसे कला के ऊंचे आसन से खींचकर ताड़ी या शराब की दुकान तक पहुंचा दिया है।

प्रेमचंद को १९३६ में लगा था कि अधनंगी तस्वीरों और नाचों से जनता को लूटना आसान नहीं है। लेकिन, २००७ आते-आते आम जनता की समझ की जड़ में इतना मट्ठा डाला गया कि प्रेमचंद की पीढ़ी का सपना पृष्ठभूमि में चला गया है। उसे वाद का जामा पहना कर दरकिनार कर दिया गया है।

अगर एनडीटीवी के प्रबुद्ध पत्रकार रवीश कुमार सरीखे लोग उस दर्शक की तलाश में हैं, जो विदर्भ के शापित किसानों की जगह की कमर देखना चाहता है, तो इसके पीछ कई वजहें हैं। अव्वल बात तो ये कि दर्शकों की पसंद वास्तव में बदल गई है।

वर्षों पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बुरे साहित्य की लोकप्रियता के संदर्भ में कहा था कि मक्खियां गुड़ पर नहीं बहते व्रण पर ज़्यादा बैठती हैं। यह कथन आज भी सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों के बारे में उतना ही सच है। वरना क्या वजह है कि शकीरा ख़बर हैं. आधे घंटे या ज़्यादा का मसाला है, जिसे तानने की जुगत में हमारे अगुआ चैनल भिड़ जाते हैं? वहीं विदर्भ और तेलंगाना की समस्याएँ एकाध ज़िम्मेदार चैनलों पर ही जगह पा सकती हैं।

दूसरी बात यह कि दर्शक अगर ब्लू फ़िल्म देखना चाहें तो क्या हम उसे भी परोस दें?सिनेमा पर लिखना कभी भी अच्छा और गंभीर काम नहीं माना गया। सिनेमा पर प्रेस या जनता का बौद्धिक अंकुश कभी नहीं रहा।

सिनेमा ख़ासकर हिन्दी सिनेमा पर जितनी लेखकीय और पत्रकारीय नज़र रहनी चाहिए थी, उसका एक फ़ीसद भी नहीं रहा। नतीजतन यह पागल हाथी हो गया। फिर उस पर अंकुश लगाने की ज़िम्मेदारी एक ऐसी एजेंसी के हाथों में है, जो सरकारी है, और सरकारी एजेंसियों की गंभीरता और नीतिगत तेज़ी का तो सबको पता है।

अख़बारों ने भी सिनेमा का इस्तेमाल किया। उसी तरह किया, जैसे आजकल के टीवी चैनल कर रहे हैं। वरना क्या वजह है कि सिनेमा के नाम पर आधे घंटे का विशेष चलाने वाले चैनल या चार पेज़ का सप्लीमेंट छापने वाले अख़ाबार सत्यजित या ऋत्विक घटक या श्यानम बेनेगल पर ९० सेकेंड की स्टोरी या दो कालम की खबर नहीं छाप सकते?

सिनेमा भारतीय सांस्कृतिक लोकाचारों को उसकी ही ज़मीन से बेदखल करता जा रहा है। यह हमारे लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने लगा है। पहनावे और बोलचाल की भाषा पर फिल्मों का असर तो सब महसूस कर रहे हैं। साथ ही, यह हमारी देहभाषा तय करने लगा है। वैले यह भी सच है कि समाज की सारी विकृतियों की जड़ सिनेमा ही नहीं है। पर अगर इस तर्क के समांतर सोचें कि समाज का ही अक्स सिनेमा में दिखता है, तो समाज पर पड़ने वाले सिनेमाई प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.।

सो, अगर फ़िल्म खलनायक के प्रतिनायक संजय दत्त और डर के शाहरुख़ ख़ान दर्शकों की सहानुभूति बटोरने कामयाब होते हैं, तो इसे सामाजिक चिंता का विषय माना जाना चाहिए। माचिस और फ़ना बेशक संवेदनशील फ़िल्में हैं। लेकिन आखिरकार ये देशविरोधी आतंकवादियों को ही महिमामंडित करती हैं।

फिर ऐसी भी फ़िल्में हैं, जिनमें माफिया सरगनाओं के जीवनचरित को दिखाया गया है। और इसमें उन्हें लार्जर दैन लाइफ चित्रित किया गया है। यह सिलसिला गैंगस्टर तक आगे भी कायम है। जिसमें माफिया सरगना की प्रेमिका पुलिस इंस्पेक्टर नायक की हत्या कर देती है। दर्शक उसके इस सत्कर्म पर तालियां बजाता हुआ हाल छोड़ता है।

दर्शकों की मनोवृति में आया यह बदलाव संस्कृत नाटकों के साधारणीकरण की प्रक्रिया के रिवर्स गियर में जाने और निचले दर्जे की रसानुभूति का उदाहरण है। रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक, निचले दर्जे की रसानुभूति वह स्थिति है, जिसमें दर्शकों की सहानुभूति और तादात्म्य बुरे पात्रों के साथ हो जाती है।बहरहाल, सामाजिक मूल्यों मे और -बुरे को पारिभाषित करने के इस अराजक माहौल में ज़िम्मेदारी तय करना आसान नहीं है। लेकिन यह तर्क सिनेमा को नंगा नाच करने की छूट नहीं दे देता।

बाज़ार के चौराहे पर खड़ा सिनेमा पटरी वाले दुकान सरीखा है, जो जब तक मुनाफे में रहेगा तभी तक चल सकेगा। निर्देशक भी तभी तक सफल है, जब तक वह निर्माता को कमा कर दे सके।ऐसे में बहुत खुले दिल से सोचें तो भी सेरोगेट विज्ञापन से लेकर मसालेदार आइटम नंबर तक , स्तुत्य तो नहीं लेकिन क्षम्य ज़रूर हो सकते हैं। कोई बेनेगल, निहलाणी या घोष पागल हो रह इस हाथी पर अंकुश लगाने की कोशिश तो करता है, लेकिन मुख्यधारा में नहीं। मुख्यधारा के तो मणिरत्नम को भी जवाब है। और नैतिकता.... बालिवुड में यह अनचीन्हा शब्द है।

मंजीत ठाकुर

उम्मीद

एक बार फिर बातें करना,
ज़िंदगी की गर्माहट की,
ताकि कुछ तो जान सकें--
वह गर्म नहीं है।
पर वह गर्म हो सकती थी।
मेरी मौत के पहले
एक बार फिर बातें करना
प्यार की,
ताकि कुछ तो जान सकें,
वह था--
वह ज़रूर होगा।
फिर एक बार बातें करना,
खुशी की,
उम्मीद की,
ताकि कुछ लोग सवाल करें,
वह क्या थी, कब आएगी वह ?

मंजीत ठाकुर

हे दुष्टता, तुझे नमन

हे दुष्टता, तुझे नमन
कुछ न होने से शायद
बुरा होना अच्छा है,
भलाई-सच्चाई में लगे हैं,
कौन से ससुरे सुरखाब के पंख..
घिसती हैं ऐड़ियां,
सड़कों पर सौ भलाईयां,
निकले यदि उनमें एक बुराई,
तो समझो पांच बेटियों पर हुआ एक लाडला बेटा..
थोड़ी सी भलाई पर
छा जाती है बुराई
जैसे टनों दूध पर तैरती है
थोड़ी सी मलाई

मंजीत ठाकुर

सफर है तो धूप भी होगी

अगर आप दिल्ली या मुंबई जैसे शहर में रहते हैं और एक दिन अचानक जब सुबह आप सोकर उठें तो न दूधवाला आपके लिए दूध लेकर आए, न सड़क पर रिक्शेवाले से आपकी मुलाक़ात हो..तो कैसा रहेगा? कहने का गर्ज़ ये कि सेवा के इन क्षेत्रों में आमतौर पर हम बिहारियों की भरमार है और ये भी कि असम से लेकर मुंबई तक नामालूम वजहों से हमें खदेड़ने की कोशिश की जा रही है।

हमारे कहने का यह कतई मतलब नहीं है कि रिक्शा चलाना या मज़दूरी करके पेट पालना या फिर सब्जी बेचना हमारी की महानता है, सवाल ये है कि क्या हमें इस देश में रहने का बराबर हक़ है? क्या बंगलुरु सिर्फ कन्नड लोगों को वसीयत में मिला है, या फिर चंडीगढ़ पंजाबियों की निजी संपत्ति है?

पिछले दिनों मुंबईकर नेता राज ठाकरे का बयान आया था कि किसी वजह से अगर मुंबई में रहने वाले बिहारी आगा-पीछा करते हैं तो उनके कान के नीचे खींचा जाएगा। मानो बिहार से विस्थापित बेरोज़गार लोग न हुए, अजदहे हो गए। और ये स्थिति सिर्फ मुंबई ही नहीं दिल्ली में भी है जहां बिहारी एक गाली के तरह इस्तेमाल किया जाता है। अगर राज ठाकरे को बिहारियों से इतना ही ऐतराज है तो वे पहले महाराष्ट्र को भारत से अलग करवाने की मुहिम छेड़ दें। क्यों कि भारतीय संविधान में तो देश के अंदर कहीं भी रहने और आने-जाने की छूट है।

पिछले साल की बात है जब मैं एक दोस्त की शादी में शामिल होने इटावा जा रहा था तो बिहार जाने वाली एक ट्रेन के साधारण डब्बे में अलीगढ़ उतरने वाले कुछ लोगों ने निचली सीट पर बैठे मजदूरनुमा लोगों को जबरिया ऊपर बैठने के लिए मजबूर किया। वजह- इन दैनिक यात्रियों को ताश खेलने में दिक्कत हो रही थी। दिल्ली, महाराष्ट्र या फिर असम कहीं भी बिहारी अनवेलकम्ड विजिटर की तरह देखा जाता है। इन सब परिस्थितियों में याद आता है गिरिराज किशोर का उपन्यास पहला गिरमिटिया।

शायद बिहार के लोग भी उसी स्थिति में हैं जैसी स्थिति में उनके पूर्वज २०० बरस पहले दक्षिण अफ्रीका या सूरीनाम, मारिशस जैसे देशों में थे। अंतर बस इतना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से गए ये पुरखे विदेशी ज़मीन पर संघर्ष कर रहे थे और इन बिहारियों को देश में ही परदेशीपन झेलना पड़ रहा है।

निदा फाजली का एक शेर है, चल सको तो चलो बहुत हैं भीड़ में निकल सको तो चलो, सफर है तो धूप भी होगी। हर जगह मीडिया में भी हमारी भाषा, हमारे उच्चारण और रीति-रिवाजों पर ताने कसे जाते हैं। खान-पान और रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। अनुरोध है बंधुओं, कोई भी आदमी जानबूझकर गरीब नहीं होता। संतोष की बात ये है कि बिहार के लोग हर क्षेत्र में अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं। हां, थोड़ी मानसिकता सकारात्मक हो जाए तो शायद शिकायतें दूर हो जाएं।

सकारात्मकता से मतलब है कि दकियानूसी बातों से थोड़ा परे होकर अगर हम सोच सकें, थोड़ा अपने-आप को उन बातों से ऊपर उठाएं जो हमें नीचे की तरफ ले जा रही है। ऱवीश कुमार का एक लेख पढ़ा था, -जूते माऱुं या छोड़ दूं- इसमें एक गांव के शिकायती लोगों का क़िस्सा था। वे विकास नहीं होने की शिकायत तो कर रहे थे, लेकिन वोट अपनी जाति के नेता को ही देने वाले थे। यह कहानी उत्तर प्रदेश की थी। लेकिन बिहार जातिवाद के इस कोढ़ से अलग नहीं है। बल्कि हमारा मानना है कि जातिवाद बिहार में और ज़्यादा खतरनाक स्तर पर है। जाति के चक्कर से अलग रहकर ही विकास हो सकता है। दूसरी बात ये कि राजनीति बिहार के गांव और चौपाल का सबसे अहम शगल है। चौक पर बैठे नौजवान अंतरराष्ट्रीय से लेकर परिवार तक की सारी खबरों पर चर्चा कर लेते हैं। हम अपने विकास से ज़्यादा सरोकार दूसरों में रखने लग गए हैं। तीसरी बात जिसकी चर्चा ज़रूर करनी होगी, वो है अडंगेबाज़ी की। स्कूल से लेकर सचिवालय तक हर काम में अडंगा लगाना जिस दिन कम हो जाएगा, हम नई राह पर चल सकेंगे।

ऐसा नहीं है कि हम मूढ़मति हैं और बिल्कुल बदलना ही नहीं चाहते। हम लोग जहां भी गए, वहां की संस्कृति को अपनाने में कोई हिचक नहीं रही है हममें। बल्कि कई बार तो मूल निवासियों से हममें फर्क करने में भी दिक़्क़त पेश आती है। लेकिन यह समानता केवल ऊपरी तौर पर है। हम उनकी बोली, चाल-ढाल और कपड़े तो अपना लेते हैं लेकिन नज़रिए को नहीं। जबकि ज़रूरत ठीक इसके उलट है। हमें काम के प्रति उनका नज़रिया और अपनी संस्कृति बनाए रखनी होगी। क्योंकि दोष हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नज़रिए में है। आप ही देखिए .. बंगाली या कोई भी दूसरी भाषा को जानने वाले दो लोग मिलते हैं तो आपस में बातचीत अपनी भाषा में ही करते हैं। लेकिन हम बिहारियों में भाषा के प्रति ऐसा लगाव कम ही देखने को मिलता है।

प्रिय बिहारियों... विकास की संभावनाओं को देखिए। विकास किसी एक इलाक़े या एक दिशा में सीमित रहने वाली चीज़ नहीं है। यह कहीं से शुरु होकर कहीं तक जा सकती है। अगर पंजाब के किसान सफलता की इबारत लिख सकते हैं तो हम क्यों नहीं। विकास की भागदौड़ में कोई काम छोटा या बड़ा नहीं। ज़रूरत है सिर्फ ईमानदार कोशिश की। बिहार का मज़दूर अगर फिजी का प्रधानमंत्री बन सकता है, सूरीनाम का उद्योगपति हो सकता है, तो भारत में, बल्कि बिहार में क्यों नहीं। सच पूछिए तो ज़रूरत सिर्फ इसी की है कि हम वापस लौटें और ज़ड़ से चीज़ों को ठीक करने की शुरुआत करें। यह मान कर कि सफ़र है तो धूप भी होगी। आमीन.......

धान पर ध्यान

चीन में एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। 

यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है। 
शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रहा है। वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं। नेचर पत्रिका में तो कुछ महीने पहले धान के जीनोमिक सीक्वेंस को छापा भी गया है।एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। 

लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में 80 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब 50 लाख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ों को और भी भयावह बनाता है यह तथ्य, कि दुनिया की आबादी में हर साल 8 करोड़ 60 लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले 20 साल में चावल की उपज को 30 फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा। 

लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा?आमतौर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना। 

साठ के दशक के पहले, पहले वाले विकल्प को ज्यादा आसान मानकर उसी पर अमल किया गया। परिणाम सबके सामने है। 

हमने विश्वभर में बहुमूल्य जंगलों की कटाई कर उनमें खाद्यान्न बो दिए और प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन को न्यौता दिया। लेकिन साठ के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति को नजाकत को समझकर दूसरे विकल्प यानी पैदावार बढ़ाने के लिए बीजों की गुणवत्ता सुधार और तकनीकी साधनों की ओर ध्यान दिया। उस प्रयास का परिणाम निकला हरित क्रांति के रूप में। 

जैसे ही पौधों की नई किस्मे पहले मेक्सिको और फिर पूरे विश्व में बोई जाने लगी फसल उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर 2 फीसदी सालाना के आसपास रही। 

हरित क्रांति के सफर में कुछ पड़ाव भी आए। पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से खत्म हो जाती हैं।

कई वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचान का उपाय जीन अभियांत्रिकी से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामा करने में अधिक सक्षम हैं। 

जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई। 

यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानोें में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है। 

वैसे तो, 1983 से ही चावल के संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन 1987 में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। इस द्वितीय चरण में 14  राज्यों के 169 ज़िलों का चुनाव किया गया। 

संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए 169 में से 108 ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के 7 और पंजाब के 3 ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। 

अन्य प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश(छत्तीसगढ़ सहित) के 30, उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के 38, बिहार के 18, राजस्थान के 14 और महाराष्ट्र के 12 ज़िले शामिल हैं। 

दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। 

चावल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।

दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते हैं। ऐसे में , रोग, पे्स्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।