Thursday, June 25, 2020

पुस्तक समीक्षाः जन के खिलाफ लामबंद तंत्र का किस्सा है वैधानिक गल्प

यह वक्त, जिसे हम हड़बड़ियों में मुब्तिला लोगों का दौर कह सकते हैं, अधिकतर संजीदा लेखक या अप्रासंगिक होते जा रहे हैं या फिर समयबद्ध क्षरण का, विचारों को लंबे समय तक प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसका दस्तावेजीकरण जरूरी है. वैधानिक गल्प नामक उपन्यासिका इस कोशिश में खड़ी नजर आती है.


जमाना बदल गया है दुनिया के अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं और वहीं अपनी प्रतिबद्धताएं भी जाहिर कर रहे हैं. ऐसे वक्त में अधिकांश नवतुरिया लेखकों के सामने वह लड़ाई भी बची हुई है, जो जरूरी तो है पर सोशल मीडिया का क्षणभंगुर स्वरूप शायद उसको लंबे समय तो तक संजोकर नहीं रख पाए. ऐसे में जब दोनों पक्ष के लेखक अपनी विचारधाराओं की लड़ाई में ट्रोल्स की अवैधानिक भाषा का शिकार होते हैं, चंदन पांडेय वैधानिक गल्प के साथ पेश हैं.

यह वक्त, जिसे हम हड़बड़ियों में मुब्तिला लोगों का दौर कह सकते हैं, अधिकतर संजीदा लेखक या अप्रासंगिक होते जा रहे हैं या फिर समयबद्ध क्षरण का, विचारों को लंबे समय तक प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसका दस्तावेजीकरण जरूरी है. वैधानिक गल्प नामक उपन्यासिका इस कोशिश में खड़ी नजर आती है. 

वैधानिक गल्प का कवर

यह किताब, एक किस्से से शुरू होती है. यह कथा एक मशहूर लेखक के केंद्रीय पात्र उसकी पूर्व प्रेमिका और उसके आदर्शवादी पति की है. उपन्यास की कथाभूमि आज का दौर ही है, जब व्यवस्था का अर्थ पुलिसिया राज है, जब हमारे इर्द-गिर्द एक किस्म का जाल बुना गया है, जिसमें राजनेता हैं, जिसमें कानून है, जिसमें मीडिया भी है. और केंद्रीय पात्र लेखक है, जो खुद अपनी पत्नी के अधिकारी भाई के सामने हीनताबोध से ग्रस्त तो है ही, पर साथ में सुविधाजनक रूप से लिखाई भी कर रहा है. कंफर्ट जोन में रहकर लिखना उसकी नई सुविधा है.

उपन्यासिका के पहले बीसेक पन्नों में हमें लगता है कि चंदन पांडे शायद लव जिहाद की बात कर रहे हैं जिसमें उसकी प्रेमिका एक मुस्लिम शिक्षक से विवाह कर लेती है. फिर, धीरे-धीरे शिक्षा व्यवस्था में बैठे तदर्थवाद की झलक मिलती है, और फिर अगर आप रफीक में सफदर हाशमी की झलक देखते हैं तो क्या ही हैरत!

वैधानिक गल्प वैचारिक भावभूमि पर खड़े होकर किस्से को प्रतिबद्ध तरीके से कहन का तरीका है. वैसे, गुस्ताखी माफ, पर यह किताब आर्टिकल 15 की कतार में है, जिसमें चाहे-अनचाहे एक फिल्म की संभावना संभवतया लेखक ने देखी होगी. अगर इस विषय पर फिल्म बनती है तो यह फिल्म माध्यम के लिए बेहतर ही होगा, क्योंकि वैधानिक गल्प का विषय हमारे वक्त की एक जरूरी बात है. ये और बात है कि इस उपन्यास का अंत, फिल्मी नहीं है और बेहद यथार्थपरक होना किसी निर्देशक को भा जाए, निर्माता के लिए मुफीद नहीं होगा.

पर, पांडेय का शिल्प निश्चित रूप से उनको नवतुरिया और समतुरिया लेखकों की कतार में अलग खड़ा करता है. उनकी भाषा समृद्ध है और वे कहीं से भी अपनी बात थोपते नजर नहीं आते हैं. हां, रफीक की डायरी के गीले पृष्ठों का ब्योरा खटकता जरूर है और थोड़ा बोझिल है, पर वह बेचैन करने वाला हिस्सा है

वैधानिक गल्प मौजूदा वक्त में लिखे जा रहे राजनैतिक कथाओं में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती है. लेखक को राजनीति के तहों की जानकारी है और उन्होंने अपनी रचना में इसे बखूबी निभाया भी है.

इस उपन्यास में हिंदू पत्नी और मुस्लिम पति, यानी लव जिहाद का जो शक आपको होता है, उपन्यास के मध्य में जाकर स्थानीय पत्रकार उसे मुद्दा बनाता भी है. पूरी किताब में ऐसी कई सारी घटनाएं हैं जिनसे आपको वास्तविक जीवन में और सियासत में घट रही घटनाओं का आभास मिलेगा. चाहे किसी छात्र का गायब हो जाना हो, चाहे एडहॉक शिक्षकों का मसला हो, चाहे वीडियो को संपादित करके उससे नई साजिशें रचने और किस्से गढ़ने का मसला हो, सड़े-गले तंत्र के बारे में आपको आभास होगा कि वाकई यह सड़ा-गला नहीं है. जन के खिलाफ एक मजबूत तंत्र के लामबंद होने का किस्सा हैः वैधानिक गल्प.

वैधानिक गल्प हमारे समय के यथार्थ को उघाड़कर रख देता है. पर इसके साथ ही अगर वैचारिक भावभूमि की बात की जाए, तो आपको यकीन हो जाएगा कि पांडे की यह किताब खालिस किस्सागोई नहीं है आपको महसूस होगा कि लेखक एक विचारधारा से प्रभावित हैं और यह उपन्यास उसके इर्दे-गिर्द बुनी गई है.

पर उपन्यासकार के तौर पर चंदन पांडे ने कोई हड़बड़ी नहीं बरती है. भाषा और शिल्प के मसले पर बड़े जतन किए गए हैं और वह दिखता भी है. सतही और लोकप्रिय लेखन के दौर में पांडे उम्मीद जगाते हैं और आश्वस्ति प्रदान करते हैं.

वैधानिक गल्प उपन्यास ही नहीं एक दस्तावेज भी है.

किताबः वैधानिक गल्प (उपन्यास)

लेखकः चंदन पांडेय

कीमतः 160 रुपए

प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन

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Tuesday, June 23, 2020

हमलावरो की वजह से पिछले 500 साल में 32 बार नहीं हो पाई है पुरी की रथयात्रा

आखिरकार, कुछ शर्तों के साथ रथयात्रा हुई ही. नहीं होती, तो एक परंपरा टूटती, भक्तों और श्रद्धालुओं को निराशा होती. पर ऐसा नहीं है कि पहले कभी रथयात्रा बाधित न रही हो.

पुरी की रथयात्रा पर बनी पेटिंग सौजन्यः गूगल

श्रीजगन्नाथ मंदिर के इतिहास के अनुसार, पिछले 500 साल में अब तक 32 बार रथयात्रा स्थगित करनी पड़ी है. इसके अलावा, 5 मौके ऐसे भी रहे जब रथयात्रा को ओडिशा में ही पुरी के बाहर आयोजित करना पड़ा.

सेवकों ने चतुर्धा विग्रहों को (श्रीजगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र) चुपके से बाहर ले जाकर पुरी और खोरदा जिले के गांवों में रथयात्रा आयोजित की थी.

काला पहाड़ के आक्रमण के कारण 1568 से 1577 तक नौ साल तक लगातार रथयात्रा नहीं हुई थी. 1601 में मिर्जा खुर्रम आलम के कारण और 1607 में हाशिम खान के हमले के कारण रथयात्रा का आयोजन नहीं हो सका था. 1611 में मुग़ल सेनापति कल्याण मल के हमले के कारण भी रथयात्रा नहीं हो सकी थी. 

2019 में पुरी की रथयात्रा का विहंगम दृश्य (गूगल)

1622 में मुस्लिम हमलावर अहमद बेग के हमले के कारण भी रथयात्रा रोकनी पड़ी थी. 1692 से लेकर 1704 तक आक्रमणकारी इकराम खान के हमले के कारण 13 साल तक रथयात्रा नहीं हो सकी थी. 1735 में तकी खान के हमले के कारण तीन साल तक रथयात्रा स्थगित रही थी.

जय जगन्नाथ.

Sunday, June 14, 2020

सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी छोटे शहरों के सपनों के लिए झटका है

जानने वाले कहते हैं सुशांत सिंह राजपूत पूर्णिया के पास मलहारा नाम के किसी छोटी जगह के थे. मुंबई जैसी जगहों में, जहां मुंबई से बाहर की दुनिया बाहरगांव कही जाती है, मलहारा छोड़िए, पूर्णिया भी कम ही लोग जानते हैं. चमकदमक की उस दुनिया में सुशांत सिंह राजपूत पटनावाले कहलाते थे. सवाल यह नहीं है कि सुशांत पटना के थे या पूर्णिया के, महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि छोटे शहरों के प्रतिनिधि के रूप में, जो जाकर मुश्किल से मुश्किल चोटी पर परचम लहरा दे, एक चेहरा और कम हो गया है.

सुशांत सिंह राजपूत उन चेहरों का स्पष्ट प्रतीक थे, जो कुंअर बेचैन की इन पंक्तियों को परदे पर अपने गालों पर पड़ने वाले खूबसूरत गड्ढों और कातिलाना मुस्कान से सजीव करते थे.

दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,

जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,

तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,

जिन्हें तुमने जीता है.

सुशांत सिंह राजपूत ने आज खुदकुशी कर ली. फोटोः ट्विटर

पर सुशांत सिंह राजपूत हैं से थे हो गए. फेसबुक पर उनके बारे में जब लिखा तो कई पाठकों ने टिप्पणी की कि काश, कोई 2020 के साल को इस डिलीट कर सकता!

राजपूत ने खुदकुशी की और अमूमन लोग खुदकुशी को कायरों का काम कह रहे हैं.

कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजयी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर फिल्म बनी थी तो इन्हीं सुशांत सिंह राजपूत को रूपहले परदे पर धोनी का चेहरा बनाया गया था. चेहरा फिट बैठा था और फिल्म हिट हुई थी. इतिहास में अब जब तक महेंद्र सिंह धोनी का नाम रहेगा, परदे पर सुशांत सिंह राजपूत भी उनके चेहरे के प्रतिनिधि के रूप में जीवित रहेंगे.

सुशांत सिंह राजपूत के साथ दो विडंबनाएं हुईं. पहली, छोटे शहरों से आकर धाक जमाने वाले और दुनिया जीत लेने वाले जज्बे से भरे लोगों के एक प्रतीक पुरुष अगर खुद महेंद्र सिंह धोनी हैं, तो दूसरे प्रतीक खुद सुशांत सिंह राजपूत भी हैं. इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की एक और फिल्म छिछोरे भी आई थी.

फिल्म छिछोरे में वह अपने ऑनस्क्रीन बेटे के लिए प्रेरणा की तरह सामने आते हैं जो अवसाद में है. अपने उस बेटे को अवसाद से निकालने के लिए वह अपने सहपाठियों को खोज निकालते हैं. पर अपने जीवन के अवसाद, क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुशांत सिंह राजपूत अवसाद में थे, को कम करने के लिए वह कुछ नहीं कर पाए.

क्या सुशांत सिंह राजपूत जैसे फिल्मी नायकों के इस कदर आत्महत्या करने का असर पड़ेगा? हिंदुस्तान जैसी जगह में जहां आगे बढ़ने की राह में तमाम किस्म की दुश्वारियां दरपेश होती हैं, जहां अपनी दसवीं का नतीजा जानने से लेकर ग्रेजुएशन में परीक्षा के लिए फॉर्म भरने तक किसी किरानी की जेब गर्म करनी होती है, जहां चौथी श्रेणी के छोटी-छोटी नौकरियों के लिए पीएचडी जैसी उपाधियां हासिल करने वाले हजारों लोग आवेदन कर देते हैं, जहां नौकरी के लिए हुई परीक्षा में घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले नित दिन उजागर होते रहते हैं, वहां हमारे बच्चों को, खासकर छोटे शहरों और गांवो के लोगों को प्रेरणा कहां से मिलेगी?

यह प्रेरणा इन्हीं विजेताओं से आती है, जो कभी धोनी के रूप में, कभी जहीर खान के रूप में, कभी सुशांत सिंह राजपूत के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. टीवी से शुरुआत करके सीढी-दर-सीढ़ी सिनेमा की संकरी दुनिया में अपनी जगह बनाना और उस में पैर जमाकर अपने लिए अच्छी भूमिकाएं हासिल करना खासी मशक्कत का काम है.

सुशांत सिंह राजपूत ने यह सब किया था. पर, आज उनकी आत्महत्या की घटना से उनको अपना आदर्श मानने वाला एक बड़ा तबका यह जरूर सोचेगा कि क्या इस भीड़ में जगह बनाकर आगे खड़े होने की जद्दोजहद इतनी जानलेवा है?

हो सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के पीछे कोई और वजह हो. अवसाद न हो, निजी रिश्ते हों या शायद कोई ऐसा दवाब, जो जाहिर न किए जा सकते हो. पर, नायक होते ही से क्या जिम्मेदारी नहीं बढ़ जाती? भीड़ आपकी भूमिका पर सिर्फ तालियां बजाने नहीं आती, वह आपके किरदार का चोला ओढ़कर फिर अपने गांवो-कस्बों में उसे दूसरों तक ले जाती है.

संभवतया सुशांत सिंह राजपूत ने कुंअर बेचैन की कविता का बाकी आधा हिस्सा नहीं पढ़ा था, पढ़ा होता तो शायद हमारा मुस्कुराता हुआ बांका नायक हमारे बीच होता.

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे,

और कांपोगे नहीं...

जब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं

सब कुछ जीत लेने में..

और अंत तक हिम्मत न हारने में.

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