Tuesday, December 15, 2020

पंचतत्वः गाफिल गोता खावैगा

बारिशें हमेशा चाय-पकौड़े, गीत-गजलें और शायराना अंदाज लेकर नहीं आतीं. कुछ बरसातों में दिल तोड़ने वाली बात भी हुआ करती हैं. नहीं, आप मुझे गलत न समझें. पंचतत्व में रोमांस की बातें मैं अमूमन नहीं करता.

दिल्ली में बैठे पत्रकारों को दिल्ली से परे कुछ नहीं दिखता. किसान आंदोलन से भी सुरसुराहट तभी हुई है जब किसान राजधानी में छाती पर चढ़कर जयकारा लगा रहे हैं. बहरहाल, दिल्ली में बादल छाए हैं और सर्दियों में बरसात हैरत की बात नहीं है. हर साल, पश्चिमी विक्षोभ से ऐसा होता रहता है. पर, खबर यह है कि मुंबई और इसके उपनगरों में पिछले 2 दिनों में हल्की बारिश हुई है और अगले 48 घंटों में और अधिक बारिश होने की उम्मीद है. बारिश को लेकर हम हमेशा उम्मीद लिखते हैं, जबकि हमें यहां सटीक शब्द आशंका या अंदेशा लिखना चाहिए.

बहरहाल, मौसम का मिजाज भांपने वाली निजी एजेंसी स्काइमेट कह रहा है कि लगातार 2 दिनों तक हवा गर्म रहने से मुंबई गर्म हो गया है और दिन का तापमान 36 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया, जो सामान्य से लगभग 4 डिग्री सेल्सियस अधिक था. न्यूनतम तापमान भी औसत से 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक चल रहा है.

मुंबई अमूमन दिसंबर से अप्रैल तक सूखा रहता है. दिसंबर, 2017 को छोड़ दीजिए जिसमें सामान्य औसत 1.6 मिमी की सामान्य के मुकाबले 76 मिमी वर्षा हुई थी. वजह था चक्रवात ओखी.

मुंबई की बारिश से मैं आपका ध्यान उन असाधारण मौसमी परिस्थितियों की ओर दिलाना चाहता हूं, जो मॉनसून सिस्टम में बारीकी से आ रहे बदलाव का संकेत है. पिछले साल, यानी 2019 में देशभर में 19 असाधारण मौसमी परिस्थितियां (एक्स्ट्रीम वेदर कंडीशंस) की घटनाएं हुईं, जिनमें डेढ़ हजार से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी. इनमें से साठ फीसद से अधिक जानें मूसलाधार बारिश और बाढ़ की वजह से गईं.

बिहार की मिसाल लें, जहां की जनता ने साबित किया उनको ऐसी मौतों से फर्क नहीं पड़ता, सूबे में 2019 में 11 जुलाई से 2 अक्तूबर के बीच भारी बारिश और बाढ़ से 306 लोग मारे गए. आकाशीय बिजली गिरने से 71 और लू लगने से 292 लोग मारे गए. अब आप पर निर्भर है कि आप उस राज्य के सुशासन पर हंसे या रोएं जहां लू लगने से लगभर तीन सौ लोग मर जाते हों.

पड़ोसी राज्य झारखंड में स्थिति अलग नहीं है. वहां बाढ़ से मरने वालों की गिनती नहीं है क्योंकि राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसी नहीं है कि बाढ़ आए. बहरहाल, आकाशीय बिजली गिरने से 2019 में वहां 125 लोग मारे गए और लू लगने से 13 लोग मारे गए.

महाराष्ट्र का रिकॉर्ड भी इस मामले में बेदाग नहीं है. वहां बाढ़ से 136, बिजली गिरने से 51 और अप्रैल-जून 2019 में लू लगने से 44 लोग जान गंवा बैठे.

भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन महकमे के आंकड़े बताते हैं कि 2013 से 2019 के बीच लू चलने वाले दिनों की संख्या में करीबन 70 फीसद की बढ़ोतरी हुई है. आपने किसी टीवी चैनल पर इसकी चर्चा सुनी है? खैर, वहां तो आप मसीहाओं को देखते-सुनते हैं.

वैसे गौर करने लायक बात यह है कि रेगिस्तानी (क्लीशे) राज्य राजस्थान में बाढ़ और भारी वर्षा में मरने वालों की संख्या 2019 में 80 रही. आकाशीय बिजली गिरने से मरने वालों की संख्या भी 14 रही.

वैसे, आपदा प्रबंधन विभाग ने लू की तरह ही शीत लहर में मरने वालों की संख्या भी बताई है और जिक्र किया है कि 2017 से 2018 के बीच शीत लहर के दिनों की संख्या में भी 69 फीसद की बढ़ोतरी हुई है.

स्थिति असल में चिंताजनक इसलिए है क्योंकि 2014-15 से हर साल असाधारण मौसमी परिस्थितियों की वजह से जान गंवाने वालों की संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है. 2014-15 में मरने वालों की संख्या करीब 1664 थी जो 2018-19 में बढ़कर 2044 हो गई. इन मौसमी परिस्थितियों में सवा लाख मवेशी मारे गए, 15.5 लाख घरों को मुक्सान पहुंचा और 17.09 लाख हेक्टेयर खेती के रकबे में फसलें चौपट हो गईं.

पर, मैं ये आंकड़े किसलिए गिना रहा हूं!

मैं ये आंकड़े इसलिए गिना रहा हूं क्योंकि सरकार को इन कुदरती आपदाओं की परवाह थोड़ी कम है. इस बात की तस्दीक भी मैं कर देता हूं.

भारत सरकार ने 2015-16 में करीब 3,273 करोड़ रुपए असाधारण मौसमी परिस्थितियों से लड़ने के लिए खर्च किया था. 2016-17 में करीब 2,800 करोड़ रुपए हो गया और 2017-18 में और घटकर 15,985.8 करोड़ रुपए रह गया.

2018-19 में संशोधित बजटीय अनुमान बताता है कि ये 37,212 करोड़ रुपए हो गया जो 2019-20 में करीब 29 हजार करोड़ के आसपास रहा.

2018 से 2019 के बीच तूफानों और सूखे को ध्यान में रखें तो बढ़ी हुई रकम का मामला समझ में आ जाएगा. लेकिन हमें समझ लेना चाहिए (2015 से 2017 तक) कि कुदरत के कहर से निबटने के लिए सरकार किस तरह कमर कसकर तैयार है.

तो अगर आपके इलाके में बेमौसम बरसात हो, बिजली कड़के तो पकौड़े तलते हुए पिया मिलन के गीत गाने के उछाह में मत भर जाइए, सोचिए कि पश्चिमी राजस्थान में बारिश क्यों हो रही है, सोचिए कि वहां ठनका क्यों गिर रहा है. कुदरत चेतावनी दे रही है, हम और आप हैं कि समझने को तैयार नहीं हैं.


 


Monday, December 7, 2020

पंचतत्वः मिट्टी की यह देह मिट्टी में मिलेगी या जहर में!

 हम बहुत छोटे थे तब हमने कवि शिवमंगल सिंह सुमन की एक कविता पढ़ी थी

आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए

सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,

यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या

आँधी आये तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए! 

निर्मम कुम्हार की थापी से

कितने रूपों में कुटी-पिटी,

हर बार बिखेरी गई, किंतु

मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी! 


यह आखिरी पंक्ति ऐसी है जो असलियत नहीं है, बस हमारा विश्वास भर है. हमें हमेशा लगता है कि माटी से बनी हमारी देह माटी में मिल जाएगी. माटी अजर है, अमर है. पर ऐसा है नहीं. 

आज यानी 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस है. सोचा, आपको याद दिला दूं, काहे कि इसी की वजह से हम हैं. हमारी सारी फूटानी मिट्टी की वजह से है. 

वरना, हमलोग इतने आधुनिक तो हो ही गए हैं कि मिट्टी शरीर से लग जाए तो शरीर गंदा लगने लगता है, कभी हम इसको धूल कहकर दुत्कारते हैं, कभी इसको कूड़ा कहते हैं, कभी बुहारकर फेंकते हैं कभी चुटकियों से झाड़ते हैं.  हमें एक बार उस चीज को लेकर कुदरत का धन्यवाद देना चाहिए कि तमाम तकनीकी ज्ञान के बावजूद हमलोग प्रयोगशाला में मिट्टी नहीं बना सकते.

जैसा मैंने कहा, मिट्टी शाश्वत नहीं है. इसका क्षरण हो रहा है.

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की 2016 की एक रिपोर्ट कहती है कि देश का 36.7 फीसद या करीबन 12.07 करोड़ हेक्टेयर कृषियोग्य और गैर-कृषि योग्य भूमि विभिन्न किस्म के क्षरण का शिकार है जिसमें से सबसे अधिक नुक्सान जल अपरदन से होता है. जल अपरदन की वजह से मृदा का नुक्सान सबसे अधिक करीब 68 फीसद होता है.

पानी से किए गए क्षरण की वजह से मिट्टी में से जैविक कार्बन, पोषक तत्वों का असंतुलन, इसकी जैव विविधता में कमी और इसका भारी धातुओं और कीटनाशकों के जमा होने से इसमें जहरीले यौगिकों की मात्रा बढ़ जाती है. 

दिल्ली के नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (एनएएएस) का आंकड़ा कहता है कि देश में हर साल करीबन 15.4 टन मिट्टी बर्बाद हो जाती है. इसका सीधा  असर फसलों की पैदावार पर पड़ता है यह कोई कहने की बात नहीं है. 

सवाल ये है कि नाश हुई यह मिट्टी कहां जाती है. कहीं नहीं जाती, नदियों की तली में या बांध-पोखरों-तालाबों की तली मैं बैठ रहती है और इससे हर साल सिंचित इलाके में 1 से 2 फीसद की कमी आती जाती है. बरसात के टाइम में यही बाढ़ का इलाका बढ़ा देती है. एनएएएस का अनुमान है कि जल अपरदन की वजह से 1.34 करोड़ टन के पैदावार की कमी आती है. रुपये-पैसे में कूता जाए तो ये करीबन 206 अरब रुपए के आसपास बैठता है. 

इस शहरीकरण ने मिट्टी में जहर घोलना भी शुरू कर दिया है. जितना अधिक म्युनिसिपल कचरा इधर-उधर असावधानी से फेंका जाता है, उतना ही अधिक जहरीलापन मिट्टी में समाती जाती है. मिसाल के तौर पर, कानपुर के जाजमऊ के एसटीपी की बात लीजिए.

जाजमऊ में चमड़ा शोधन के बहुत सारे संयंत्र लगे हैं. हालांकि, सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों में कई सौ का फर्क है फिर भी आप दोनों के बीच का एक आंकड़ा 800 स्थिर कर लें. 

तो इन चमड़े के शोधन में क्रोमियम का इस्तेमाल होता है. क्रोमियम भारी धातु है और चमड़े वाले महीन बालों के साथ ये एसटीपी में साफ होने जाता है (अभी कितना जाता है और कितना साफ होता है, इस प्रश्न को एसटीपी में न डालें. उस पर चर्चा बाद में) 

तो साहब, एसटीपी के पॉन्ड में चमड़े की सफाई के बाद वाले बाल कीचड़ की तरह जमा हो जाते हैं और उनकी सफाई करके उनको खुले में सूखने छोड़ दिया जाता है. एसटीपी वालों के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है. 

गरमियों में वो बाल हवा के साथ उड़कर हर तरफ पहुंचते हैं. बरसात के पानी के साथ क्रोमियम रिसकर भूमिगत जल और मिट्टी में जाता है और फिर बंटाधार हो जाता है. 

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सॉइल साइंस, भोपाल का 2015 का एक अध्ययन बताता है कि देश के कई शहरों में कंपोस्ट में भी भारी धातु की मौजूदगी है. एनपीके उर्वरकों का बेहिसाब इस्तेमाल तो अलग से लेख का विषय है ही. अपने देश की मिट्टी में नाइट्रोजन कम है. एनपीके का अनुपात वैसे 4:2:1 होना चाहिए लेकिन एक अध्ययन के मुताबिक, 1960 में 6.2:4:1 से 2016 में 6.7:2.7:1 हो गया है. खासतौर पर पंजाब और हरियाणा में यह स्थिति और भयावह हो गई है. जहां ये क्रमशः 31.4:8.0:1 और 27.7:6.1:1 है. 

आज के पंचतत्व में आंकड़ों की भरमार है.

पर यकीन मानिए, हर बार किस्सा सुनाना भी मुमकिन नहीं होता. खासकर तब, जब बात माटी की हो. मरने के बाद तो सुपुर्दे-खाक होते समय आदमी चैन से सोना चाहता होगा, अगर वहां भी प्रदूषित और कलुषित माटी से साबका हो, तो रेस्ट इन पीस कहना भी बकैती ही होगी.