यह देश अभिव्यक्ति की आजादी, माफ कीजिएगा 'स्वच्छंदता' वाला देश है जो ‘कुछ भी बक दो साणू की’ के सिद्धांत पर चलता है. पर क्यों न चले. देश में सबको छूट है. होनी भी चाहिए.
असल में किसी ने कहा है, “ए लॉट ऑफ पीपल बिकम अनएट्रैक्टिव वन्स यू फाइंड आउट व्हॉट दे थिंक.” सोच का पता चलते ही बहुत सारे लोग अनाकर्षक लगने लगते हैं. मेरी इस फेहरिस्त में बहुत सारे नेता-अभिनेता पहले से थे, अब हजारों यूट्यूबर और सोशल मीडिया सेलिब्रिटी हैं. मुझे सोशल मीडिया पर पोस्ट्स पढ़ने और अलग किस्म की शख्सियत बनाने के मारे बहुत सारे लोग अनाकर्षक और भद्दे लगने लगे हैं. जाहिर है, वह निजी रूप से टन टना टन होंगे पर सोशल मीडिया पर उनकी प्रोफाइल किसी न किसी पेशेवर दवाब में होगी. खैर. बात हगने आई मीन हग डे की हो रही थी.
यार इतनी अंट-शंट बातों में दिमाग फिर गया है कि गू (आई मीन पाखाना) की बात रह जा रही है. असल में सोशल मीडिया पर समय रैना और रणबीर इलाहाबादिया ने ऐसा ‘चिरक’ दिया है कि उसको समेटना मुश्किल हो रहा है. केस-पेस, संसदीय समिति आदि की बातें उठ रही है.
मैं इस बात से सहमत हूं कि सोशल मीडिया कंटेंट का नियमन करने की सख्त जरूरत है और बेशक इससे ‘कोलैटरल डैमेज’ होगा पर अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा वहीं तक है जहां तक किसी और की निजता की सरहद न हो.
इलाहाबादिया से याद आया कि इलाहाबाद आई मीन प्रयागराज में महाकुंभ पर लोग अपनी गोटी लाल करने में लगे हैं. कोई कह रहा है इससे गरीबी दूर नहीं होगी. ठीक है, दूर नहीं होगी. तो आप बताइए कि कैसे दूर होगी? और जब आपको तरीका पता था तो अब तक दूर क्यों नहीं की?
खैर, जब चंद्रयान-2 लॉन्च होने वाला था तो मेरे एक मित्र ने (नाम लेना समुचित नहीं) इसरो के चेयरमैन की तिरुपति मंदिर जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. साथ में उनकी टिप्पणी का मूल भाव था कि एक वैज्ञानिक मंदिर कैसे जा सकता है!
असल में, कथित उदारवादियों को किसी वैज्ञानिक के मंदिर (या मस्जिद, दरगाह आदि) जाने पर बहुत हैरत होती है. वहां उनके लिए 'चॉइस' का विकल्प सीमित हो जाता है. स्थिति यह है कि वाम विचारक इस बात पर हमेशा हैरत जताते हैं कि एक वैज्ञानिक या डॉक्टर या इंजीनियर, एक ही विषय के बारे में वैज्ञानिक नजरिए के साथ ‘धार्मिक’ भी कैसे हो सकता है!
असल में, हमें यह सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक होने का मतलब उद्देश्यपरक होना है. यह उद्देश्यपरकता लोगों को खालिस वस्तुनिष्ठ बनाती है यानी दुनिया को एक मानव के रूप में या मनुष्यता के तौर पर नहीं देखने का गुण विकसित करना ही नहीं, बल्कि खुद को एक अवैयक्तिक पर्यवेक्षक के रूप में तैयार करना भी.
वैसे, ज्यादातर मामलों में यह हैरत सिर्फ मंदिर जाने पर जताई जाती है. पर मुझे नहीं लगता कि विज्ञान के मामले में धर्म के अस्तित्व से डरना चाहिए. धर्म की अपनी स्थिति और अवस्थिति है, विज्ञान की अपनी. वैज्ञानिक सोच को अपनाना है तो आपको जीवन में उसे हर क्षेत्र में अपनाना होगा. विज्ञान इस मामले में निर्दयी होने की हद तक ईमानदार है.
पर, विज्ञान की आड़ में धर्म पर फर्जी एतराज जताने वाले लोग न तो वैज्ञानिक सोच वाले हैं और न ही, उनको विज्ञान में कोई आस्था है.
मुद्दे पर वापस आइए, एक बात पर आपने गौर किया है? हग डे के बाद किस डे आता है!
मेरे एक दोस्त हैं जो शराबनोशी से पहले फारिग होकर आते हैं. मतलब फ्रेश होने जाते हैं और वैज्ञानिक भाषा में कहें तो पाखाना करके पेट साफ करके आते हैं ताकि पीते समय शर-आब यानी पानी की चिनगारी के सिवा कोई और चिनगारी महसूस न हो.
वैलेंटाइन पखवाड़े में किस क्लाइमेक्स वाले हिस्से से ऐन पहले की बात है. मतलब सिनेमा की भाषा में सत्रहवां रील. (अगर फिल्म अठारह रील की मान ली जाए). तो किस के नशे से पहले हग लेना (आलिंगन मरदे, आलिंगन.) बहुत आवश्यक कर्मकांड है.
किस, जिसे आप अपनी सौंदर्यदृष्टि के मुताबिक चुंबन, पुच्ची, चुम्मा आदि नामों से अभिहीत कर सकते हैं. इसमें जब तक सामने वाले को पायरिया न हो, बू नहीं आती. लेकिन पाखाने की बू आप क्या खाते हैं उस पर निर्भर करती है. वैसे यह निजी काम शुचिता से जुड़ा है पर इस विचार में कई पेच हैं. पर यह शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है. राजा हो या भिखारी, कपड़े खोलकर कोई इंसान जब मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएं फीकी पड़ जाती हैं.
कम से कम हिंदी में ‘मलत्याग’ के दैनिक कर्म के लिए सीधे शब्द नहीं है. ‘पाखाना’ फारसी से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘पैर का घर’. ‘टट्टी’ आमफहम हिंदी शब्द है जिसका मतलब है कोई ‘पर्दा या आड़’ जो फसल की ठूंठ आदि से बना हो. खुले में शौच जाने को ‘दिशा-मैदान’ जाना कहते हैं. कुछ लोग ‘फरागत’ भी कहते हैं जो ‘फारिग’ होने से बना है. ‘आब’ को ‘पेश’ करने से बना ‘पेशाब’ तो फिर भी सीधा है पर ‘लघु शंका’ और ‘दीर्घ शंका’ जैसे शब्द अर्थ कम बताते हैं, संदेह अधिक पैदा करते हैं.
मलत्याग के लिए ‘हगना’ और ‘चिरकना’ जैसे शब्द भी हैं, मूलतः ये क्रिया रूप हैं और इनका उपयोग पढ़े-लिखे समाज में करना बुरा माना जाता है. इस हगने के साथ मैंने हग डे पर वर्ड प्ले किया है मितरों. जाहिर है आप अब तक मुझे सौ गालियां दे चुके होंगे क्योंकि इन शब्दों के साथ घृणा जुड़ी हुई है.
बहरहाल, सोचिएगा इस बात पर कि जिन सरकारी अफसरों और संभ्रांत लोगों को गरीबों की दूसरी समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं होता वे उनके शौचालय बनाने की इतनी चिंता क्यों करते हैं. क्या खुले में शौच जाना रुक जाए तो समाज स्वच्छ हो जाएगा?
सोशल मीडिया पर कुछ ‘छंटे हुए बुद्धिजीवी’ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वाचिक पाखाने को छूट देना चाहते हैं. खुलेआम चुम्माचाटी को प्रेम का प्रतीक बताते हुए लोग कह रहे हैं कि 'किस' निजी चीज है. बिल्कुल. हम भी तो वही कह रहे हैं. किस निजी चीज है तो हगना भी निजी है. चुंबन के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों पर हगने की भी छूट क्रांतिकारियों को दी जाए. (अगेन हगना शब्द पढ़े-लिखों को बुरा लग सकता है आप उस हर जगह पर मलत्याग पढ़ें जहां मैंने हगना लिखा है)
वैसे, पाखाने से जुड़ी एक और बात. आपको याद होगा कि चांद पर अपोलो 11 को गए 50 साल हो गए हैं. नील आर्मस्ट्रांग के कदमों के निशान तो अब भी चांद पर हैं जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया होगा. काहे कि चांद पर न तो हवा है न अंधड़-बरसात.
लेकिन इस पदचिन्ह से भी बड़ी (और बदबूदार) निशानियां इंसान चांद पर छोड़ आया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इंसानों ने छह अपोलो मिशनों से पाखानों से भरे 96 बैग चांद की राह (ऑर्बिट) में फेंके हैं और इनमें से कुछ चांद पर भी पड़े हैं. तो अंतरिक्ष में, इंसान की गैरमौजूदगी में भी उसकी निशानियां (पता नहीं अब किस रंग की होंगी, और बदबू तो खैर हवा ने होने से फैलती भी नहीं होगी, पर गू तो गू है भई.) उसके आने की गवाही चीख-चीखकर दे रही हैं.
चांद पर इब्न-ए-सफ़ी का लिखा सुंदर-सा शेर याद आ रहा है
चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती
चाँद पर चाँदनी नहीं होती
इस शेर में आप चाहें तो ‘हुस्न’ लफ्ज को ‘पाखाने’ या ‘गू’ से बदलकर पढ़ सकते हैं और तब जाकर आपको मेरे लेख का ऊपर वाली बात शायराना अंदाज में समझ में आएगी.