सिनेमा भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। रोटी जैसा जरूरी।
छुट्टी का वक़्त हो, या परिवार में उत्सव का, फ़िल्में वहां मौजूद रहती हैं। टेलिविज़न की पहुंच बेडरुम तक है। लेकिन वह सोने वालों की नींद पर डाका डाल सके, इसके लिए उसके पास सिनेमा ही हथियार है।
टीवी पर आज सिनेमा पर आधारित कार्यक्रम सबसे ज़्यादा होते हैं। यह हिस्सा बढ़ेगा, अगर न्यूज़ चैनलों पर मीकाओं-राखी सावंतों, शाहिद-करीनाओं, और शिल्पा-गेरों के प्रसंगों को भी शामिल कर लें। अभिषेक और ऐश्वर्य के विवाह जैसे ब्रेकिंग न्यूज़ तो ख़ैर हैं ही।
अख़बारों में भी सिनेमाई ख़बरों के लिए अलग से सप्लीमेंट होता है, जो चाय की प्याली के साथ गरमा-गरम गॅसिप परोसता है। (तस्वीरों पर कोई टिप्पणी नहीं- सखेद)। लब्बोलुआब यह कि यह कि हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा।
आपने कभी सोचा है कि क्या आपकी कोई मौलिक कल्पना शेष बची भी है? क्या सपने आपके अपने हैं?
अख़बारों में विज्ञापन से शुरु हुई सुबह रात में किसी चैनल के मूवी मसाला या ख़बरें बालिवुड की पर ख़त्म होती हैं। वह भी तब जब आप बेहद शरीफ क़िस्म के इंसान हों, वरना इस समापन को बहुत दूर तलक ले जाने की ढेर सारी संभावनाएं मौजूद हैं।
फ़िल्मों को लेकर भारत में इतना दीवानापन है, फरि भी शबाना आज़मी को क्यों कहना पड़ता है कि भारत में सिनेमा देखने का संस्कार नहीं है? ज़ाहिर है, शबाना की इस शिकायत को प्रेमचंद के इस कथन से जोड़ा जा सकता है जहां उन्होंने कहा है कि इसे यानी सिनेमा को कोरा व्यवसाय बना कर हमने उसे कला के ऊंचे आसन से खींचकर ताड़ी या शराब की दुकान तक पहुंचा दिया है।
प्रेमचंद को १९३६ में लगा था कि अधनंगी तस्वीरों और नाचों से जनता को लूटना आसान नहीं है। लेकिन, २००७ आते-आते आम जनता की समझ की जड़ में इतना मट्ठा डाला गया कि प्रेमचंद की पीढ़ी का सपना पृष्ठभूमि में चला गया है। उसे वाद का जामा पहना कर दरकिनार कर दिया गया है।
अगर एनडीटीवी के प्रबुद्ध पत्रकार रवीश कुमार सरीखे लोग उस दर्शक की तलाश में हैं, जो विदर्भ के शापित किसानों की जगह की कमर देखना चाहता है, तो इसके पीछ कई वजहें हैं। अव्वल बात तो ये कि दर्शकों की पसंद वास्तव में बदल गई है।
वर्षों पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बुरे साहित्य की लोकप्रियता के संदर्भ में कहा था कि मक्खियां गुड़ पर नहीं बहते व्रण पर ज़्यादा बैठती हैं। यह कथन आज भी सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों के बारे में उतना ही सच है। वरना क्या वजह है कि शकीरा ख़बर हैं. आधे घंटे या ज़्यादा का मसाला है, जिसे तानने की जुगत में हमारे अगुआ चैनल भिड़ जाते हैं? वहीं विदर्भ और तेलंगाना की समस्याएँ एकाध ज़िम्मेदार चैनलों पर ही जगह पा सकती हैं।
दूसरी बात यह कि दर्शक अगर ब्लू फ़िल्म देखना चाहें तो क्या हम उसे भी परोस दें?सिनेमा पर लिखना कभी भी अच्छा और गंभीर काम नहीं माना गया। सिनेमा पर प्रेस या जनता का बौद्धिक अंकुश कभी नहीं रहा।
सिनेमा ख़ासकर हिन्दी सिनेमा पर जितनी लेखकीय और पत्रकारीय नज़र रहनी चाहिए थी, उसका एक फ़ीसद भी नहीं रहा। नतीजतन यह पागल हाथी हो गया। फिर उस पर अंकुश लगाने की ज़िम्मेदारी एक ऐसी एजेंसी के हाथों में है, जो सरकारी है, और सरकारी एजेंसियों की गंभीरता और नीतिगत तेज़ी का तो सबको पता है।
अख़बारों ने भी सिनेमा का इस्तेमाल किया। उसी तरह किया, जैसे आजकल के टीवी चैनल कर रहे हैं। वरना क्या वजह है कि सिनेमा के नाम पर आधे घंटे का विशेष चलाने वाले चैनल या चार पेज़ का सप्लीमेंट छापने वाले अख़ाबार सत्यजित या ऋत्विक घटक या श्यानम बेनेगल पर ९० सेकेंड की स्टोरी या दो कालम की खबर नहीं छाप सकते?
सिनेमा भारतीय सांस्कृतिक लोकाचारों को उसकी ही ज़मीन से बेदखल करता जा रहा है। यह हमारे लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने लगा है। पहनावे और बोलचाल की भाषा पर फिल्मों का असर तो सब महसूस कर रहे हैं। साथ ही, यह हमारी देहभाषा तय करने लगा है। वैले यह भी सच है कि समाज की सारी विकृतियों की जड़ सिनेमा ही नहीं है। पर अगर इस तर्क के समांतर सोचें कि समाज का ही अक्स सिनेमा में दिखता है, तो समाज पर पड़ने वाले सिनेमाई प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.।
सो, अगर फ़िल्म खलनायक के प्रतिनायक संजय दत्त और डर के शाहरुख़ ख़ान दर्शकों की सहानुभूति बटोरने कामयाब होते हैं, तो इसे सामाजिक चिंता का विषय माना जाना चाहिए। माचिस और फ़ना बेशक संवेदनशील फ़िल्में हैं। लेकिन आखिरकार ये देशविरोधी आतंकवादियों को ही महिमामंडित करती हैं।
फिर ऐसी भी फ़िल्में हैं, जिनमें माफिया सरगनाओं के जीवनचरित को दिखाया गया है। और इसमें उन्हें लार्जर दैन लाइफ चित्रित किया गया है। यह सिलसिला गैंगस्टर तक आगे भी कायम है। जिसमें माफिया सरगना की प्रेमिका पुलिस इंस्पेक्टर नायक की हत्या कर देती है। दर्शक उसके इस सत्कर्म पर तालियां बजाता हुआ हाल छोड़ता है।
दर्शकों की मनोवृति में आया यह बदलाव संस्कृत नाटकों के साधारणीकरण की प्रक्रिया के रिवर्स गियर में जाने और निचले दर्जे की रसानुभूति का उदाहरण है। रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक, निचले दर्जे की रसानुभूति वह स्थिति है, जिसमें दर्शकों की सहानुभूति और तादात्म्य बुरे पात्रों के साथ हो जाती है।बहरहाल, सामाजिक मूल्यों मे और -बुरे को पारिभाषित करने के इस अराजक माहौल में ज़िम्मेदारी तय करना आसान नहीं है। लेकिन यह तर्क सिनेमा को नंगा नाच करने की छूट नहीं दे देता।
बाज़ार के चौराहे पर खड़ा सिनेमा पटरी वाले दुकान सरीखा है, जो जब तक मुनाफे में रहेगा तभी तक चल सकेगा। निर्देशक भी तभी तक सफल है, जब तक वह निर्माता को कमा कर दे सके।ऐसे में बहुत खुले दिल से सोचें तो भी सेरोगेट विज्ञापन से लेकर मसालेदार आइटम नंबर तक , स्तुत्य तो नहीं लेकिन क्षम्य ज़रूर हो सकते हैं। कोई बेनेगल, निहलाणी या घोष पागल हो रह इस हाथी पर अंकुश लगाने की कोशिश तो करता है, लेकिन मुख्यधारा में नहीं। मुख्यधारा के तो मणिरत्नम को भी जवाब है। और नैतिकता.... बालिवुड में यह अनचीन्हा शब्द है।
मंजीत ठाकुर
छुट्टी का वक़्त हो, या परिवार में उत्सव का, फ़िल्में वहां मौजूद रहती हैं। टेलिविज़न की पहुंच बेडरुम तक है। लेकिन वह सोने वालों की नींद पर डाका डाल सके, इसके लिए उसके पास सिनेमा ही हथियार है।
टीवी पर आज सिनेमा पर आधारित कार्यक्रम सबसे ज़्यादा होते हैं। यह हिस्सा बढ़ेगा, अगर न्यूज़ चैनलों पर मीकाओं-राखी सावंतों, शाहिद-करीनाओं, और शिल्पा-गेरों के प्रसंगों को भी शामिल कर लें। अभिषेक और ऐश्वर्य के विवाह जैसे ब्रेकिंग न्यूज़ तो ख़ैर हैं ही।
अख़बारों में भी सिनेमाई ख़बरों के लिए अलग से सप्लीमेंट होता है, जो चाय की प्याली के साथ गरमा-गरम गॅसिप परोसता है। (तस्वीरों पर कोई टिप्पणी नहीं- सखेद)। लब्बोलुआब यह कि यह कि हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा।
आपने कभी सोचा है कि क्या आपकी कोई मौलिक कल्पना शेष बची भी है? क्या सपने आपके अपने हैं?
अख़बारों में विज्ञापन से शुरु हुई सुबह रात में किसी चैनल के मूवी मसाला या ख़बरें बालिवुड की पर ख़त्म होती हैं। वह भी तब जब आप बेहद शरीफ क़िस्म के इंसान हों, वरना इस समापन को बहुत दूर तलक ले जाने की ढेर सारी संभावनाएं मौजूद हैं।
फ़िल्मों को लेकर भारत में इतना दीवानापन है, फरि भी शबाना आज़मी को क्यों कहना पड़ता है कि भारत में सिनेमा देखने का संस्कार नहीं है? ज़ाहिर है, शबाना की इस शिकायत को प्रेमचंद के इस कथन से जोड़ा जा सकता है जहां उन्होंने कहा है कि इसे यानी सिनेमा को कोरा व्यवसाय बना कर हमने उसे कला के ऊंचे आसन से खींचकर ताड़ी या शराब की दुकान तक पहुंचा दिया है।
प्रेमचंद को १९३६ में लगा था कि अधनंगी तस्वीरों और नाचों से जनता को लूटना आसान नहीं है। लेकिन, २००७ आते-आते आम जनता की समझ की जड़ में इतना मट्ठा डाला गया कि प्रेमचंद की पीढ़ी का सपना पृष्ठभूमि में चला गया है। उसे वाद का जामा पहना कर दरकिनार कर दिया गया है।
अगर एनडीटीवी के प्रबुद्ध पत्रकार रवीश कुमार सरीखे लोग उस दर्शक की तलाश में हैं, जो विदर्भ के शापित किसानों की जगह की कमर देखना चाहता है, तो इसके पीछ कई वजहें हैं। अव्वल बात तो ये कि दर्शकों की पसंद वास्तव में बदल गई है।
वर्षों पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बुरे साहित्य की लोकप्रियता के संदर्भ में कहा था कि मक्खियां गुड़ पर नहीं बहते व्रण पर ज़्यादा बैठती हैं। यह कथन आज भी सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों के बारे में उतना ही सच है। वरना क्या वजह है कि शकीरा ख़बर हैं. आधे घंटे या ज़्यादा का मसाला है, जिसे तानने की जुगत में हमारे अगुआ चैनल भिड़ जाते हैं? वहीं विदर्भ और तेलंगाना की समस्याएँ एकाध ज़िम्मेदार चैनलों पर ही जगह पा सकती हैं।
दूसरी बात यह कि दर्शक अगर ब्लू फ़िल्म देखना चाहें तो क्या हम उसे भी परोस दें?सिनेमा पर लिखना कभी भी अच्छा और गंभीर काम नहीं माना गया। सिनेमा पर प्रेस या जनता का बौद्धिक अंकुश कभी नहीं रहा।
सिनेमा ख़ासकर हिन्दी सिनेमा पर जितनी लेखकीय और पत्रकारीय नज़र रहनी चाहिए थी, उसका एक फ़ीसद भी नहीं रहा। नतीजतन यह पागल हाथी हो गया। फिर उस पर अंकुश लगाने की ज़िम्मेदारी एक ऐसी एजेंसी के हाथों में है, जो सरकारी है, और सरकारी एजेंसियों की गंभीरता और नीतिगत तेज़ी का तो सबको पता है।
अख़बारों ने भी सिनेमा का इस्तेमाल किया। उसी तरह किया, जैसे आजकल के टीवी चैनल कर रहे हैं। वरना क्या वजह है कि सिनेमा के नाम पर आधे घंटे का विशेष चलाने वाले चैनल या चार पेज़ का सप्लीमेंट छापने वाले अख़ाबार सत्यजित या ऋत्विक घटक या श्यानम बेनेगल पर ९० सेकेंड की स्टोरी या दो कालम की खबर नहीं छाप सकते?
सिनेमा भारतीय सांस्कृतिक लोकाचारों को उसकी ही ज़मीन से बेदखल करता जा रहा है। यह हमारे लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने लगा है। पहनावे और बोलचाल की भाषा पर फिल्मों का असर तो सब महसूस कर रहे हैं। साथ ही, यह हमारी देहभाषा तय करने लगा है। वैले यह भी सच है कि समाज की सारी विकृतियों की जड़ सिनेमा ही नहीं है। पर अगर इस तर्क के समांतर सोचें कि समाज का ही अक्स सिनेमा में दिखता है, तो समाज पर पड़ने वाले सिनेमाई प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.।
सो, अगर फ़िल्म खलनायक के प्रतिनायक संजय दत्त और डर के शाहरुख़ ख़ान दर्शकों की सहानुभूति बटोरने कामयाब होते हैं, तो इसे सामाजिक चिंता का विषय माना जाना चाहिए। माचिस और फ़ना बेशक संवेदनशील फ़िल्में हैं। लेकिन आखिरकार ये देशविरोधी आतंकवादियों को ही महिमामंडित करती हैं।
फिर ऐसी भी फ़िल्में हैं, जिनमें माफिया सरगनाओं के जीवनचरित को दिखाया गया है। और इसमें उन्हें लार्जर दैन लाइफ चित्रित किया गया है। यह सिलसिला गैंगस्टर तक आगे भी कायम है। जिसमें माफिया सरगना की प्रेमिका पुलिस इंस्पेक्टर नायक की हत्या कर देती है। दर्शक उसके इस सत्कर्म पर तालियां बजाता हुआ हाल छोड़ता है।
दर्शकों की मनोवृति में आया यह बदलाव संस्कृत नाटकों के साधारणीकरण की प्रक्रिया के रिवर्स गियर में जाने और निचले दर्जे की रसानुभूति का उदाहरण है। रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक, निचले दर्जे की रसानुभूति वह स्थिति है, जिसमें दर्शकों की सहानुभूति और तादात्म्य बुरे पात्रों के साथ हो जाती है।बहरहाल, सामाजिक मूल्यों मे और -बुरे को पारिभाषित करने के इस अराजक माहौल में ज़िम्मेदारी तय करना आसान नहीं है। लेकिन यह तर्क सिनेमा को नंगा नाच करने की छूट नहीं दे देता।
बाज़ार के चौराहे पर खड़ा सिनेमा पटरी वाले दुकान सरीखा है, जो जब तक मुनाफे में रहेगा तभी तक चल सकेगा। निर्देशक भी तभी तक सफल है, जब तक वह निर्माता को कमा कर दे सके।ऐसे में बहुत खुले दिल से सोचें तो भी सेरोगेट विज्ञापन से लेकर मसालेदार आइटम नंबर तक , स्तुत्य तो नहीं लेकिन क्षम्य ज़रूर हो सकते हैं। कोई बेनेगल, निहलाणी या घोष पागल हो रह इस हाथी पर अंकुश लगाने की कोशिश तो करता है, लेकिन मुख्यधारा में नहीं। मुख्यधारा के तो मणिरत्नम को भी जवाब है। और नैतिकता.... बालिवुड में यह अनचीन्हा शब्द है।
मंजीत ठाकुर
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