जिन्हें यह पता होगा कि गोवा बेहद खूबसूरत है और बेहद शांत भी, वह अपनी जगह ठीक है। गोवा की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना शायद ही मुमकिन हो(कम से कम मेरेलिए)। वैसे भई गोवा कहते ही लोगों के मन में एक तस्वीर सी उभरती है- समंदर के किनारे अधनंगी लेटी लड़कियों- शराब के दौर पर दौर, सेक्स की तस्वीर। लेकिन पिछले तीन साल में पचास दिन यहां गुजार चुकने के बाद यह कह सकता हूं कि यहां भी भारत वैसा ही है जैसे दूसरे हिस्सों में। यानी पारंपरिक। कोकणी और मराठी तबजीब।
जनांकिकीय दृष्टि से गोवा में तकरीबन ६५ फीसद लोग हिंदू है, इसके बाद करीब ३० फईसद इसाईयों की आबादी है। ये एक पुराना ढर्रा है और इसमें कोई नई बात नहीं। लेकिन पिछले पांच सालों में यहां की आबादी में एक खास बदलाव देखा जा रहा है, जिसकी वजह से स्थानीय आम लोग अंदर से उबल रहे हैं।
कामत की सरकार ने मनोहर पार्रीकर को मात देने के लिए मुसलमानों का मत बटोरा है। और इसके लिए कर्नाटक के मुसलमानों को यहां जगह दी है। पिछले ५ साल में कन्नड़ मुसलमानों की तादाद बढ़कर कुल आबादी का ५ फीसद हो गई है। जनांकीकिय आंकड़ों में यह बदलाव निश्चित रुप से यहां के लोगों को आक्रामक बना रहा है। मेरी बात यहां के लोगों और कुछ पत्रकारों से भी हुई और यह समस्या एक बड़ी समस्या बनने वाली है ऐसा मुझे लग रहा है।
खासकर हिंदू अतिवादी संगठन इसे और बड़ा स्वरुप दे रहे हैं। गोवा जैसे सूबे में मराठी-गैर मराठी जैसा मुद्दा भले न हो लेकिन राज ठाकरेत्व का कुछ असर ज़रुर है और सांप्रदायिकता का नया मसला गोवा की शांति को भंग कर सकता है और इसकी तहजीब को भी।
3 comments:
bahut khoob. aaj pahali baar aapka blog padha, maza aaya. aapki zindagi ke anubhav kafi mazedar hai, likhate rahiye. shubhakamnaye.
बहुत सुंदर लगा आप का लेख.
धन्यवाद
मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना
कोई भी मजहब आतंक की तालीम नही देता । कोई भी धमॆ रक्त बहाने को बढ़ावा देने की वकालत नही करता । खासकर आतंकी घटनाएं तो किसी को तवक्को नही है । चाहे हिन्दु हो या मुसलमान,सिख या ईसाइयत...या फिर बोद्ध ...कुरानशरीफ तक ने सभी मानवों को साथ रहने और जीने की तालीम देता है उसी राह पर सभी धमॆ आपसी भाईचारे और नेकनीयती की सीख देता है । इसलिए बार-बार यह सवाल कुरेदता रहता है कि आतंकवादियो का कोई मजहब नही होता । उनका मजहब केवल इंसा का खून बहाना होता है..मनुष्य को कष्ट पहुंचाना होता है उसी में उसे आनंद आता है ।
लेकिन इसके विपरित एक सवाल बार-बार जेहन में आता है कि आतंक का कोई मजहब नही होता है फिर आतंकी किसी मजहब का नाम अपने साथ क्यो जोड़ते है । अपने खुदा या अल्लाहताला का नाम क्यो लेते है खुदा ने उसे दहशत फैलाने और जेहाद के लिए धरती पर भेजा है या उसकी तरफ से पैगाम मिला है।
इसके बाबजूद कोई भी धमॆ आतंक और हिंसा से अधूरा नही है ...यहां तक कि बौदध धमॆ भी नही जिसकी बुनियाद अहिंसा पर हुई है । इस्लाम का इतिहास ही अहिंसा पर टिका है । शाहजहां से लेकर औरंगजेब तक शासन के लिये अपने पिता को बंधक बनाना और जेल में कैद रखना ...सारा का सारा इतिहास पटा हुआ है । तैमूर से लेकर गजनबी तक का इतिहास अहिसा की बुनियाद पर लिखी गई है फिर आतंक का किसी मजहब के साथ नही होने से कैसे इन्कार किया जा सकता है ।
हिन्दुओ का इतिहास भी इससे अधूरा नही है । बिम्बिसार से लेकर अशोक तक का इतिहास खून से लिखा गया है । अशोक ने बोद्दद धमॆ अपनाने से पहले लाखो लोगो की हत्या करवा चुका था और अपने ९९ भाइयो को कत्ल कर शासक बना् था । बहुत सारे उदाहरण इतिहास के पन्नोँ में लिखित है ।
अहिंसा की बुनियाद पर टिका बोद्ध धमॆ भी द्वितीय विश्वयुध्द में किसी से पीछे नही रहा । सारे धमॆ के लोग किसी न किसी तरह हिंसा-प्रतिहिंसा से जुड़े दिखते है फिर कैसे इन्कार किया जा सकता कि कोई मजहब आतंक की तालीम नही देता ।
यूं कहे कि धमॆ की बुनियाद ही हिंसा पर टिकी है या तैयार हुई है । सभी धमॆ के लोगो ने इंसान का खून बहाया है और इसी के बलबूते अपने को स्थापित किया है ।
लेकिन मजहब ऐसा नही कहता । बेसहारा जनता ऐसा नही सोचती । मुम्बई ,दिल्ली और जयपुर के लोग ऐसा नही सोचते । फिर यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि आखिर जेहाद क्या है । इंसान इंसान का खून क्यो गिराता है । जब कि कोई मजहब या पैगम्बर ऐसा नही कहता । फिर मुम्बई में ताज होटल में लोगो का खून क्यो बहा । आखिर जेहाद की कुछ तो परिभाषा होनी ही चाहिए ।
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