Tuesday, January 27, 2009

तू देख कि क्या रंग है, मेरा तेरे आगे'

'थिएटर के समारोह में जिस ज़ोर-शोर से इसे मज़बूत करने, बचाने की बातें होती हैं, उनकी हवा फ़ेस्टिवल के ख़त्म होते ही निकलने लगती है. लोग नाटक लेकर आते हैं. कुछ देखने आते हैं और फिर अगले समारोह तक सब शांत हो जाता है...'

भारत रंग महोत्सव के दौरान ये उद्गार रंगकर्म प्रेमियों के थे। ऐसा बीबीसी में पाणिनी आनंद ने लिखा है। मेरा निजी ख्याल ये है कि किसी रंगकर्म को बचाने की चेष्टा भला की क्यों जाए। क्या संसक्ृति सचमुच एक जंगली गदे की तरह से विलुप्तप्राय चीज़ है? आखिर फिल्में विलुप्त क्यों नहीं हो रहीं। मेरा मानना है कि जिस भी विधा ने लोक या जनमानस को बिसराने का दुस्साहस किया है उसे विलुप्त होना ही पडा़ है, होना ही चाहिए।

रगकर्म है किसके लिए? क्या यह कुछ बौद्धिक कहे जाने वाले तबके की दिमाग़ी अय्याशी होकर नहीं रह गई है या फिर क्या संस्कृति सरकारी राशन के दुकान मे मिलने वाला सड़ा हुआ गेहूं नही बन गया है? आम आदमी थियेटर क्यो देखे? जब उसके काम की चीज़ उसमें है ही नहीं? अतिअत्तम तकनीक, प्रकाश व्यवस्था और ध्वनि संयोजन के बावजूद रंगकर्म खासकर नाटको मे आम आदमी का कितना किस्सा है? ये रंगकर्मी गांव में क्यो नहीं जाते? अगर उन्हें रंगकर्म के सचमुच लोकप्रिय बनाने की खुजली है? अभिव्यक्ति के जटिल उलझाऊ व्यंजनाओं के साथ अगर वे आम आदमी को जोड़ना चाहते हैं तो यह उनकी भूल ही है।

वेटिंग ऑफ गोडो जैसे विदेशी नाटकों शुक्राणु उधार लेकर बनाए-रचे गए के हिंदी के एबसर्ड नाटक रचनात्मक रुप से समीक्षकों की वाह-वाही बटोर भले लें लेकिन टिकट लेकर थियेटर गया हुआ आम आदमी उस रचनाशीलता को चूतियापे से ज्यादा कुछ नहीं कहेगा।

जिन चीजों को आप सस्ता मान कर खुद उच्च कोटि के रचनाशील मानने का विभ्रम पैदा करते रहें हैं करें, लेकिन वह कथित सस्ती चीजें दरअसल जनता की पसंद है और जनता की पसंद का फैसला करने वाले आप कौन है जनाब? एफटीआईआई में मेरी पसंद की पांच फिल्में पूछी गईं थीं। मैंने पांच मं से एक शोले भी कहा था। वहां के विद्वान् लोग बिदक गए। शोले पर नाक-भौं सिकुड़ गईं। लेकिन भाईलोगों, धन्नो का नाम तो आपको याद ही होगा, घोड़ी थी वसंती की। इमामसाबह से लेकर मौसी तक और कालिया-सांभा से लेकर आइटम सॉन्ग में आने वाले जलाल आगा तक सब चरित्र आपको याद हैं..मास अपील वाली इससे बड़ी दूसरी कोई भारतीय फिल्म बता दीजिए।

अपनी रचनाशीलता का ढिंढोरा पीटना है तो पीटिए, लेकिन आम आदमी को उसमें मत सानिए। उसे अपनी जात्रा, बिहू, आल्हा में ज्यादा मज़ा आता है। आपकी दुकान पर वह क्यों आए? आप अनुदान लेकर विदेश यात्रा की जुगत में रहे। रंगमंच की लोकप्रियता का वितंडा खड़ा न करें।

3 comments:

रंजना said...

अपनी रचनाशीलता का ढिंढोरा पीटना है तो पीटिए, लेकिन आम आदमी को उसमें मत सानिए। उसे अपनी जात्रा, बिहू, आल्हा में ज्यादा मज़ा आता है। आपकी दुकान पर वह क्यों आए? आप अनुदान लेकर विदेश यात्रा की जुगत में रहे। रंगमंच की लोकप्रियता का वितंडा खड़ा न करें।

Bilkul sahi kaha aapne....

Udan Tashtari said...

सही बात कही..सहमत हूँ आपसे.

राज भाटिय़ा said...

bahut sahi kahaa aap ne
dhanyavaad