Saturday, July 11, 2009

कबीर के गांव में

कानपुर से निकले तो दिन के दो बज रहे थे। गरमी इतनी थी कि पूछो मत..। मिजाज़ गरम हो गया..। आँखे लहरने (जलने) लगीं । बहरहाल, बनारस पहुंचते-पहुंचते रात के ग्यारह बज गए थे। असीघाट के पास स्वाति की बड़ी बहन रहती थीं, स्वाति को वहां छोड़कर हम होटल तक पहुंचे। होटल की छत से गंगा के घाट दिखते थे।

अनिंद्यो (हमारे बॉस) ने मेसेज किया, मधुर जलपान में मीठा खाना, और रामनगर तक मुंह अँधेर नाव की सवारी का मजा़ लिजिए। कैमरामैन ने मना कर दिया। मैं अकेला था जिसे रुचि थी। सवेरे उठना मेरे लिए थोड़ा, थोड़ा क्या पूरा नामुमकिन है। लेकिन पता नहीं किस शक्ति ने मुझे जगा दिया। सबों को छोड़कर मैं चल दिया। ड्राइवर मेरे साथ था। लखनऊ वाले थे, उनने एक मुहावरा कहा- जिसका अर्थ है, कि इंसानों के पूर्वज अदरक का स्वाद नहीं जानते। इसके तहकीकात में न जाते हुए मैं रामनगर तक नाव की सवारी करता गया। और उस पल का मजा... मेरे पास शब्द नहीं है।

पूरब से उगता हुआ लाल गोला.. मान्यताओं पर भरोसा करें तो ऐसे ही किसी पल में पवनपुत्र हनुमान ने उसे निगल लेने की हिमाकत की होगी। गंगा का पानी पहले तो ललछौंह हुआ फिर सुनहरे में तब्दील हो गया। पिघले हुए सोने के माफिक..। लगा लावा उमड़ रहा हो..। आसपास तैरती कश्तियां..उस पर नाव की सवारी का मजा़ लेते देशी-विदेशी सैलानी।

बहरहाल, सुबह सवेरे मिष्टान्न का अल्पाहार..(वह मेरे लिए अल्पाहार था, आपके लिए थोड़ा ज्यादा हो जाएगा) संपन्न होने के बाद जब मैं होटल पहुंचा तो टीम के मेंबरान घोड़े बेचे हुए थे।

उनके नाश्ता वगैरह से फारिग होते साढे नौ बज गए। स्वाति भी पहुंच गई, दीदी ने पूरियां भेजी थीँ। उसे उदरस्थ कर हम काम पर चले। लहरतारा..। कबीर वहीं जन्मे थे। हम बचपन से पढ़ते आ रहे थे.. पटना में बलराम तिवारी कबीर के बारे में बताते हुए भावुक हो जाते थे।


''जों हम मरिहें तो राम भी मरिहें...
जों राम न मरिहें तो हम काहे को मरिहें... ''

या फिर,
''मैं तो कूतरा राम का मोतिया मेरा नाम....''

मेरे बचपन में पिताजी एक कबीर का एक पद गाया करते थे,

''झीनी-झीनी बीनी चदरिया बीनी रे ''बीनी,...... कानों में गूंज रहा था।

एक राहगीर से हमने पूछा, लहरतारा किधर है? उसने सादर कहा, साहबजी के गांव? और रास्ता बता दिया.. नौ किलोमीटर पूरब..। एक बेहद आध्यात्मिक-सा अनुभव अंदर ही अंदर महसूस हो रहा था। लगा कि लहरतारा डा रहा हूं, मगहर भी ज़रुर जाऊंगा।

जारी...

भाई सुशांत ने इलाहाबाद पर लिखने को कहा है, अब मैं क्या लिखूं? सारा कुछ तो आपने बयां कर दिया है, अपने पोस्ट में। बेहद शानदार.. मेरे अनुभव भी आपकी ही तरह हैं, सच मानिए.. मेरे दिल की बात उनके पोस्ट में हैं। चलो अपने ब्लॉग पर मैं इलाहाबाद के बारे में कुछ नहीं लिखता.. आगे बनारस के बारे में ही लिख रहा हूं।

5 comments:

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

आपका यात्रा वृतांत अच्छा लगा . मेरे ब्लॉग पर कबीरा खडा बाज़ार में पोस्ट भी जरुर पढिये

Anonymous said...

ab abhi aur kab tak sarkari kharche par mauj marenge sir wapas aa ke hamara bhi sangharsh mein margdarshan karein.
shanti deep verma

kumar Dheeraj said...

पहले से ही पता है कि खाने की चचाॆ गरम होगी । वैसे आपने यात्रा वृतांत का अच्छा वणॆन किया है । गंगा के तट पर नांव से सफर करने का एक अलग ही आनंद है । बहुत बढ़िया लगा

Sundip Kumar Singh said...

बनारस बदल रहा है लेकिन आज भी बनारस की मिटटी में वही देसी ठाट नज़र आता है...बल्कि यूँ कहें तो जिसे एक बार बनारस की हवा लग गई उसके लिए वहां के अलमस्त अंदाज से खुद को अलग कर पाना आसान नहीं होता...चाहे वो दुनिया के किसी भी जगह पर पहुँच जाये...उसकी जिंदगी में दो बाते आम हो जाती हैं..."(१) अमा यार परेशान काहे होते हो" और "(२) आ दो-दो हाथ कर लें"

Rahul Singh said...

मुझे लगता है कि बनारस के साथ बहुत सारी चीजें शाश्‍वत हैं, उनमें से एक पीपा पुल से रामनगर पहुंच कर नुक्‍कड़ वाली लस्‍सी तो होगी ही.