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फिल्म- वेयर इज़ द फ्रेंड्स होम ( खानेह ये दस्त कोजस्त)
ईरान/१९८७/रंगीन/९० मिनट
निर्देशन और पटकथा- अब्बास कियारोस्तामी
कास्ट- बेबाक अहमदपुर, अहमद अहमादापुर
ब्रेदलेस पर कई (महज तीन) टिप्पणियां आई और दुरुस्त आईं। मिश्रा जी ने जिस फ्रेंच अभिनेता का नाम लिया उसकी फिल्म नहीं देख पाया हूं, और हां मैं बहुत खुशमिजाज़ क़िस्म का इंसान हूं, ऐसे मेरे नज़दीकी मित्र कहते हैं। गुस्ताख़ तो खैर हूं ही।
बहरहाल, अनुराग जी ने लिखा है कि ईरानी फिल्में देखी हैं या नहीं... तो एफटीआईआई की दया से मैंने बहुत सारी ईरानी जो बेहतरीन भी लगीं फिल्में देखी हैं। पसंदीदा फिल्मों की अपनी सीरीज़ में एक-एक कर उनपर लिखूंगा, जो मेरे दिल के बहुत करीब हैं।
इस बार ईरानी फिल्म वेयर इज़ माई फ्रेंड्स होम के बारे में जानकारी दे रहा हूं। यह मैंने एनएफऐआई के बेहतरीन ऑडिटोरियम में देखी थीँ।
एक छोटा लड़का एक दिन स्कूल से लौटकर जब अपनी होमवर्क करने बैठता है। तो देखता है कि उसने गलती से अपने दोस्त की कॉपी भी अपने बस्ते में डाल ली है। चूंकि, उसका क्लास टीचर चाहता है कि सारे होमवर्क एक ही कॉपी में किए जाएं, ऐसे में वह लड़का माता-पिता के मना करने पर भी पड़ोस के गांव में रहने वाले छात्र के यहां जाकर कॉपी वापस करना चाहता है। लेकिन वह अपने दोस्त के पिता का नाम या पता नहीं जानता।
ऐसे में वह उसे खोजने में नाकाम रहता है।
आखिरकार, कई लोगों की मदद और ग़लत घरों में घुसने के बाद लड़का अपने गांव वापस लौटकर उस लड़के का भी होमवर्क पूरा करने का फ़ैसला करता है।
पूरी पटकथा निर्दोष है। किस्सागोई का एक अलग अंदाज़..जिसमें ईरान में आई इस्लामी क्रांति का असर देखा जा सकता है।
क्रांति के पहले का ईरान कुछ और था। सभ्यता के कुछ और मायने थे। रूमी की कविताओं की शानदार पंरपरा थी। लेकिन इस्लामी क्रांति ने पहरे बिठा दिए। लेकिन इन परंपराओं का असर फिल्म पर पूरी तरह देखा जा सकता है।
कड़ी बंदिश के बाद फिल्मकारो ने इतिहास और परिस्थियों को मेटाफर के तौर पर दिखाना शुरु कर दिया। आम तौर पर किरियोस्तामी जैसे निर्देशकों ने बच्चों को लेकर फिलमें बनाई और बच्चों को ईरान के नागरिक का प्रतीक और मेटाफर ( ध्यातव्यः प्रतीक और मैटाफर में बुनियादी अंतर होता है) के तौर पर इस्तेमाल करना शुरु कर दिया।
फिल्मों में लोग पूरे ईरान में घूमते हैं। और इस तरह फिल्मकारों ने समस्याओ को सामने रखने का अपना काम जारी रखा।इस फिल्म की बात करें तो इसमें बच्चे की अनेक अनिश्चितताओं के मेटाफर बनाकर पेश किया गया है।
दोस्त मिलेगा या नहीं, लड़का घर कैसे ढूंढेगा और घर नहीं मिला तो लड़का क्या करेगा। ये सवालात सहज ही दिमाग में उठते हैं।
औरतों की समस्या भी खासतौर पर रेखांकित की जा सकती है। गो कि बच्चे को सहज ही हर घर के भीतर प्रवेश मिलता है। और बच्चे का अपनी मां और अपने पिता के साथ रिशते भी खास तौर पर ध्यान दिए जाने लायक दृश्य है।
बच्चे को जब उलझन रहती है कि रात घिर आने के बाद वह घर नहीं खोज पाया है और कॉपी भी उसे देनी ही है। वह एक खिड़की के सामने खड़ा होता.. और उसे तत्काल हल मिल जाता है। यह सीन कुछ इस तरीके से शूट किया गया है और परदे पर कुछ इस तरह दिखता है ..जैसे इस्लामी संस्कृति में ईश्वरीय शक्ति को उकेरा जाता है। जाली दार खिड़की और उससे छनकर आती बेहिसाब रौशनी..फिल्म में बच्चा बड़ों के लिए ताकत का प्रतीक बन कर उभरता है।
वैसे बड़ों के , जो शासन और सत्ता से खतरे और धमकियों का सामना कर रहे थे।
पाठकों को सलाह ये है कि ईरान की इस फिल्म को ज़रूर देखे।