आज मुझे बचपन के दिन याद आ रहे हैं। क्या पता बहुत दिनों के बाद खाली हूं शायद इसीलिए...। मधुपुर में हमारा घर खपरैल था, उसके आंगन में बहुत पेड़ थे। सामने दक्षिण में एक तालाब था। तालाब के किनारे इमली का विशाल पेड़, हमको लगता था कि इस इमली के पेड़ पर भूत रहता होगा।
भूत तो कभी मिला नहीं, लेकिन इमली बहुत बेहतरीन थी पेड़ की। गरमी की छुट्टियों में हम दिन भर इमली के पेड़ के नीचे रहते, इमली गिरी नहीं हवा के झोंके से कि बस... उसके बीज निकाल कर उसमें गुड़ भर देते। अभी लिख रहा हूं तो मुंह में पानी आ रहा है।
आंगने के बीचोंबीच एक नीम का पेड़ था। मां चैत के महीने में नीम की पत्तियां खिलाती थीं, कहती कि इससे गरमी में फोड़े-फुंसियां नहीं होंगी। वैसे हम थोड़ा विधर्मी टाइप हैं, लेकिन घर में सारे लोग शाकाहारी थे तो हमें नीम खाना पड़ता था और तालाब के मीन नहीं.।
घर के पूरब की तरफ, एक खाली ज़मीन का टुकड़ा था। जिसपर एक गुहा साहब थे जो भुट्टे बो देते। मुहल्ले को लड़कों के लिए, जब इच्छा हो, भुट्टे की बाली तोड़ लो , घर में कोयले के चूल्हे जलते, उस पर पका लो। एक अजीब किस्म की सहिष्णुता का वातावरण था। गुहा जी निःसंतान थे, सो अब उनका बच्चा प्रेम समझ में आता है। उनके आंगन के अमरुद भी हमीं चरते।
भुट्टे के उन्हीं खेतों के पीछे, बेर के पेड़ थे, मिठुआ.। पैर में कांटा चुभे तो चुभे.. बेर नहीं छूटने चाहिए यह मंशा रहती थी हमारी।
शहर में हर आदमी एक दूसरे को जानता। पिताजी को बागवानी का बड़ा शौक़ था, आंगन में पत्ताबहार (क्रोटन) के बहुत से पौधे उनने लगाए थे। पौधों से मेरी दोस्ती शायद वहीं से शुरु हुई।
सामने रोड की दूसरी तरफ यूकेलिप्टस का बड़ा पेड़ था। उसमें मुझे कई तरह की आकृतियां दिखती थीं। कभी अनिल कपूर जैसी मुच्छड़, तो कभी हनुमान जैसी। आज वह पेड़ होता तो इंडिया टीवी को कई कहानियां मिल जाती उससे। बहरहाल, पेड़ अब नहीं रहा। हाल में घर गया था तो पेड़ का अंतिम संस्कार हो चुका था। मुहल्ले में मेरा आखिरी बचा दोस्त भी किसी इमारत का हिस्सा हो गया।
लगा मधुपुर से आखिरी नाता भी टूटता -सा लगा। लगा पिताजी के दौर की आखिरी निशानी भी छीन ली गई है।
भूत तो कभी मिला नहीं, लेकिन इमली बहुत बेहतरीन थी पेड़ की। गरमी की छुट्टियों में हम दिन भर इमली के पेड़ के नीचे रहते, इमली गिरी नहीं हवा के झोंके से कि बस... उसके बीज निकाल कर उसमें गुड़ भर देते। अभी लिख रहा हूं तो मुंह में पानी आ रहा है।
आंगने के बीचोंबीच एक नीम का पेड़ था। मां चैत के महीने में नीम की पत्तियां खिलाती थीं, कहती कि इससे गरमी में फोड़े-फुंसियां नहीं होंगी। वैसे हम थोड़ा विधर्मी टाइप हैं, लेकिन घर में सारे लोग शाकाहारी थे तो हमें नीम खाना पड़ता था और तालाब के मीन नहीं.।
घर के पूरब की तरफ, एक खाली ज़मीन का टुकड़ा था। जिसपर एक गुहा साहब थे जो भुट्टे बो देते। मुहल्ले को लड़कों के लिए, जब इच्छा हो, भुट्टे की बाली तोड़ लो , घर में कोयले के चूल्हे जलते, उस पर पका लो। एक अजीब किस्म की सहिष्णुता का वातावरण था। गुहा जी निःसंतान थे, सो अब उनका बच्चा प्रेम समझ में आता है। उनके आंगन के अमरुद भी हमीं चरते।
भुट्टे के उन्हीं खेतों के पीछे, बेर के पेड़ थे, मिठुआ.। पैर में कांटा चुभे तो चुभे.. बेर नहीं छूटने चाहिए यह मंशा रहती थी हमारी।
शहर में हर आदमी एक दूसरे को जानता। पिताजी को बागवानी का बड़ा शौक़ था, आंगन में पत्ताबहार (क्रोटन) के बहुत से पौधे उनने लगाए थे। पौधों से मेरी दोस्ती शायद वहीं से शुरु हुई।
सामने रोड की दूसरी तरफ यूकेलिप्टस का बड़ा पेड़ था। उसमें मुझे कई तरह की आकृतियां दिखती थीं। कभी अनिल कपूर जैसी मुच्छड़, तो कभी हनुमान जैसी। आज वह पेड़ होता तो इंडिया टीवी को कई कहानियां मिल जाती उससे। बहरहाल, पेड़ अब नहीं रहा। हाल में घर गया था तो पेड़ का अंतिम संस्कार हो चुका था। मुहल्ले में मेरा आखिरी बचा दोस्त भी किसी इमारत का हिस्सा हो गया।
लगा मधुपुर से आखिरी नाता भी टूटता -सा लगा। लगा पिताजी के दौर की आखिरी निशानी भी छीन ली गई है।
3 comments:
मुहल्ले में मेरा आखिरी बचा दोस्त भी किसी इमारत का हिस्सा हो गया।
-हर मुहल्लों की यही हालत है. बढ़िया संस्मरण!
sansmaran se peeche chuti bahut si yadein tazat ho aayee,har kisi ka koee na koee madhupur hota hai naam alag se hote hai bas.
I like this story. I also remember my childhood. Everybody like their chilhood days.That was the days that we can do everything with our parents. according to me that day call as 'golden days'.Thank you.
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