Thursday, July 22, 2010

समाज का अक्स है ,सिनेमा

भाग-1
(मेरा यह आलेख धारावाहिक रुप में दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हुआ है, यह लेख आप 7 जुलाई के अंक में भी पढ़ सकते है- गुस्ताख)

सिनेमा, जिसके भविष्य के बारे में इसके आविष्कारक लुमियर बंधु भी बहुत आश्वस्त नहीं थे, आज भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। 7 जुलाई 1896, जब भारत में पहली बार किसी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था, तबसे आज तक सिनेमा की गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हम अपने निजी औरसामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा।
सिनेमा ने समाज के सच को एक दस्तावेज़ की तरह संजो रखा है। चाहे वह 1930 में आर एस डी चौधरी की बनाई व्रत हो, जिसमें मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन भी कर दिया था, चाहे 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने। बेमेल विवाह पर बनी इस फिल्म को सामाजिक समस्या पर बनी कालजयी फिल्मों में शुमार किया जा सकता है।
जिस दौर में पाकिस्तान अलग करने की मांग और सांप्रदायिक वैमनस्य जड़े जमा चुका था, 1941 में फिल्म बनी पड़ोसी, जो सांप्रदायिके सौहार्द्र पर आधारित थी। फिल्म शकुंतला के भरत को नए भारत के मेटाफर के रुप में इस्तेमाल किया गया था। जाति हालांकि आज भी लगान और राजनीति तक में दिखी है,लेकिन इससे बहुत पहले 1936 में ही देविका रानी और अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज़ की अछूत कन्या में जाति प्रथा का मुद्दा उठा चुके थे। दलित मुद्दे पर फिल्मों में बाद में बनी फिल्म सुजाता को कोई कैसे बिसरा सकता है।
देश आजाद हुआ तो एक नए किस्म का आदर्शवाद छाया था। फिल्में भी इस लहर से अछूती नहीं थीं। देश के नवनिर्माण में उसने कदमताल करते हुए युवा वर्ग को नई दिशा, नया सोच और नए सपने बुनने के अवसर प्रदान किए।
50 का दशक संयुक्त परिवार और सामाजिक समरता की फ़िल्मोंका दशक था। संसार’, ‘घूँघट’,घराना’, औरगृहस्थीजैसी फ़िल्मों ने समाज की पारिवारिक इकाई में भरोसे को रुपहले परदे पर आवाज़ दी।
इन्हीं मूल्यों और सुखांत कहानियों के बीच कुछ ऐसी फिल्में भी इस दौर में आईं, जिनने समाज में वैचारिक स्तर पर आ रहे बदलाव को रेखांकित भी किया।
एक ओर तो राज कपूर-दिलीप कुमार-देव आनंद की तिकड़ी अपने रोमांस के सुनहरे रोमांस से दुनिया जीत रहे थे। लेकिन राज कपूर की फिल्मों एक वैचारिक रुझान साफ दिख रहा था, और वह असर था मार्क्सवादका। गौरी से करिअर शुरु करने वाले राज कपूर अभिनेता के तौर पर चार्ली चैप्लिन का भारतीय संस्करण पेश करने की कोशिश में थे। हालांकि श्री 420 में वह नायिका के साथ एक ही छतरी के नीचे बारिश में भींगकर गाते भी हैं, और इस तरह राज कपूर ने दब-छिप कर रहने वाले भारतीय रोमांस को एक नया अहसास दिया।
हालांकि, भारतीय सिनेमा के संदर्भ में किसी विचारधारा की बात थोड़ी विसंगत लग सकती है। लेकिन पचास के दशक के शुरुआती दौर में विचारधारा का असर फिल्मों पर दिखा। बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन भारत में नव-यथार्थवाद का मील का पत्थर है।
लेकिन ज्यादातर भारतीय फिल्मों में वामपंथी विचारधारा के दर्शन होते हैं वह कोई क्रांतिकारी विचारधारा न होकर सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाली है। इसमें समाज सुधार, भूमि सुधार,गाँधीवादी दर्शन और सामाजिक न्याय सभी कुछ शामिल है। लेकिन हर आदर्शवाद की तरह फिल्मों का यह गांधी प्रेरित आदर्शवाद ज्यादा दिन टिका नहीं। ऐसे में आराधना से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ। खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था।
इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं। सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी। दर्शक बेचैन था। मंहगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ कीज़रुरत थी। ऐसे में एक लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लगी गई। इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके, और ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता।
कुछ लोग तो इतना तक कहते है कि अमिताभ के इसी गुस्सेवर नौजवान ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी। बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया। जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में, या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया।
तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मत्युदाता, और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया अमिताभ लोगों को नहीं भाया। वजह- उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था। अब लोगो के पास खर्च करने के लिए पैसा था, तो वह रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करे।
ऐसे में एक और नए लड़के ने दस्तक दी। यह लड़का कूल है, इतना कि अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के गांव तक चला आए। परदेसी भारतीयों की कहानियों पर और परदेसी भारतीयों के लिए बनाई गई फिल्मों में शाहरुख खान का किरदार राज मल्होत्रा एक सिंबल के तौर पर उभरा।
हालांकि, परदेसी भारतीयों के लिए बनाए जा रहे सिनेमा में तड़क-भड़क ज्यादा हो गया और भारत के आम आदमी का सिनेमा के कथानक से रिश्ता कमजोर हो गया। ऐसे में मिड्ल सिनेमा ताजा हवा का झोंका बनकर आया है। व्यावसायिक रुप से सफल इन फिल्मों का क्राफ्ट और कंटेंट दोनों मुख्यधारा की फिल्मों से बेहतर है। आमिर खान की लगान, तारे ज़मीन पर जैसी कई फिल्मों, शाहरुख की स्वदेश और चक दे इंडिया,और श्याम बेनेगल की वेवकम टू सज्जनपुर और बेलडन अब्बा ने सामयिक विषयों को फिल्मो में जगह दी है। और तब अलग से यह कहने की ज़रुरत रह नही जाती कि सिनेमा समाज का अक्स है।

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

हाँ पर ये अक्स कुछ ही लोग दिखा पाते है

Anonymous said...

लेख पढ़ने में मज़ा आया, जानकारी भी मिली
हमेशा की तरह ही दमदार

आज कल जो महसूस कर रहा हूँ वो यह है

आईने हम तोड़ने को यार तत्पर हो गए
पत्थरों के शहर में हम आके पत्थर हो गए
ज़िन्दगी के हर कदम पर चोट खायी इस तरह
चोट भी कहने लगी है यार तुम तो पत्थर हो गए


सर, क्या आप भी कभी ऐसा ही महसूस करते थे

आपका चेला बनने को ,
शांति दीप