Saturday, July 31, 2010

सिनेमा में महिलाएं- बंदिनी और रुदाली



( यह आलेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 10 जुलाई को प्रकाशित हो चुका है)
मंजीत ठाकुर

"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्मों की नायिका दशकों से मज़लूमहोने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है।


हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाया करते थे और  सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखे तों आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहं के साथ ही गढ़ा गया है। 

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएँ देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम  की दुनिया ना मानेमें बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है।

लेकिन 'दुनिया न मानें' की शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर तदबीरकी नरगिस या तानसेनकी खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है।

महबूब ख़ान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई।  केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस द्वारा अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रुप में एक और शेड मिलता है।  बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है।




आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की सीमाऔर बिमल रॉय की बंदिनीमें महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता हरिजन लड़की के सपने और डर को तो ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुपमा' और 'अनुराधा' भी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है। 

लेकिन फ़िल्म जंगलीके साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने अंकुरऔरनिशांतमें महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की, और ये भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है। लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा।

नरगिस, कामिनी कौशल, मधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थीं, फिर भी 'अंदाज़' दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसात' राजकपूर की और 'महल' अशोक कुमार की।
हालांकि राज कपूर की सत्यम् शिवम् सुंदरम्में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में प्रेम रोग विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएँ किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं।  वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं।

अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। अभिमानया 'मिली'  जैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुईं, पर इसी बीच परवीन बॉबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा।

सत्तर के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयी, स्नेही, और नायक की राह में आँचल बिछाए बैठी एक आदर्श नारी बनी रही। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है।




अस्सी का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथा' और चश्मेबद्दूर  या 'गोलमाल' जैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैं, पर ये परंपरा कायम नहीं रह पाती।

महेश भट्ट की अर्थ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी मिली। भट्ट की इस फ़िल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज़्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को  दिखाया।

सुबह और भूमिकाभी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने जख्मी औरत रुदाली और लेकिनसे महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए।

सावन भादोसे एक अनगढ़ लड़की के रुप में आई रेखा ने उमराव जान और खूबसूरत जैसी फिल्मों से  अपना अलग मुकाम बनाया लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग से ही आया।
काजोल दुश्मनऔर बाज़ीगरमें कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के 'ब्लैक' में कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झाँकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की सत्ताया गुलजार की 'हू तू तू' बेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं।




बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं।

हाल की इश्क़िया में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखे, बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएँगे..."











2 comments:

vandana gupta said...

वाह्………………बेहद उम्दा प्रस्तुति………………महिला किरदारों के हर रंग को बखुबी पिरोया है।
कल (2/8/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

Anonymous said...

climax interesting hai sir.



shanti deep