Thursday, November 4, 2010

विपरीत रति

जिस तरह सिख धर्म में 'पंच-ककार' प्रसिद्ध है, उसी तरह  वामाचार में 'पंच-मकार' का भी स्थान है। पंच मकारों में भी  साधकों का असली जोर रहा, 'मुद्रा' यानी 'स्त्री' और 'मैथुन' पर। यहां मेथुन का अर्थ महज संभोग है, गर्भाधान नहीं।

गर्भाधान-विहीन रति के बारे में तथ्य चाहे जो हों, लेकिन एक प्रक्षेपण यह है कि इसके समाज में उठने और अध्यात्म के स्तर तक पहुंचने के पीछे कोई जानदार कारण रहा होगा।

बौद्ध धर्म के उत्थान के साथ ही, जब भिक्षुणियों को भी भिक्षुओं के साथ विहारों में रहने की अनुमति मिल गई, तब उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण हुआ ही होगा। क्योंकि यौनाकर्षण प्रकृति-प्रेरित है, स्वाभाविक भी है। मुमकिन है, संघ  और मठों  का नाम विहार पड़ने के पीछे भी कुछ ऐसे ही प्रतीक हों।

विहारों में संतानोत्पत्ति पर रोक ने ऐसे उपाय खोजने की प्रेरणा दी होगी, जिसमें संभोग संभव लेकिन गर्भाधान असंभव हो। हठयोगी अभ्यासी से जिस दिन यह मुमकिन हुआ होगा, प्रकृति का पाश टूट गया होगा। पुरुष ने अपने को अच्युत पाया होगा। अच्युत- जो च्युत नही हुआ--गिरा नहीं--चुआ नहीं--स्खलित नहीं हुआ।  अच्युत केशवं--और यहीं से इस अनुभव को आध्यात्मिक उपलब्धि माना गया होगा।

इसी को विपरीत रति की संज्ञा दी गई होगी।

समरति में स्त्री वीर्य धारण कर गर्भवती होती है। विपरीत रति में पुरुष उर्ध्वरेता हो ब्रह्मपद प्राप्त करता है। आसन के अर्थ में विपरीत रति कामशास्त्रियों की सूझ होगी। उसके सौंदर्य पक्ष को स्वीकार करते हुए भी भक्त कवियों ने विपरीत रति के आध्यात्मिक संकेत ही दिए हैं। जयदेव लिखते हैं---

उरसि मुरारे उपहितहारे धन इव तरल बलाके
तडिदिवपीते रतिविपरीते राजसि सुकृत विपाके।।

यहां कृष्ण पुरुष-रुप और राधा प्रकृति-स्वरुपिणी है। पुरुष, कभी च्युचत होने वाला नहीं है। प्रकृति ही च्युत-चलित-स्खलित होती है।

यहां पुरुष हिरण्य धारण कर हिरण्यगर्भ बनता है--हिरण्य, सोना-रज---दोनों पीत--तडिदिवपीते। इसीलिए पुरुष प्रकृति का सहज संबंध, उनकी क्रीडा, उनकी लीला, विपरीत रति से ही व्यक्त की जा सकती है।

बुद्द ने अप्राकृतिक साधना को प्रतिष्ठित किया, भारतीय सनातनी मनीषा ने नर-नारी की प्राकृतिक मांग को फिर से समाज के बीच स्थापित किया। उसे अध्यात्म के स्तर तक उठाया, जिसमें वाम मार्ग का इतिहास छिपा है।

खासियत ये कि मार्ग में भ्रष्ट हुए तो सांसारिकता मिलेगी, और शुद्ध हुए तो आध्यात्मिकता।

(मूल पाठः नीड़ का निर्माण फिर, से)

3 comments:

nilesh mathur said...

अपनी तो समझ के परे है!
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामना!

डॉ .अनुराग said...

आज डिफरेंट मूड में हो ठाकुर !!!

अविनाश said...

गोवा का प्रभाव है। मालूम है गोवा में हो। इन छिपी हुई कलियों की भी तो सुनो
छिपकलियां छिनाल नहीं होतीं, छिपती नहीं हैं, छिड़ती नहीं हैं छिपकलियां