पश्चिम बंगाल में हूं,,चुनावी कवरेज में। पहले दौर में 54 सीटों पर मतदान होना है 18 को। कई चैनल ममता लहर की बात कर रहे हैं। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी दे रहे हैं। ममता लहर तो अपनी जगह लेकिन मैं इस लहर को उतना असरदार मानने से इनकार करना चाहता हूं। हालांकि हर आम इंसान की तरह मैं भी पश्चिम बंगाल में बदलाव की वकालत करता हूं..लेकिन बदलाव किस कीमत पर..।
मेरा खयाल है कि ममता का शासन सीपीएम से ज्यादा उद्विग्न..और बेचैन होगा। ठीक अपनी बेचैन नेत्री की तरह। शासन अगर होगा ये तब की बात होगी, जनाब पहले दौर में 54 में से फिलहाल 41 पर वाममोर्चा, कांग्रेस गठबंधन 12 ौर एक सीट तृणमूल के पास है। वोट शेयर के हिसाब से देखें तो 47 फीसद वाममोर्चे को..27 फीसद कांग्रेस को..19 फीसद तृणमूल की मिला था।
आप 27-27 सीटों पर लड़ रहे तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को ज्यादा तूल मत दीजिए..। दीपा दासमुंशी, मौसम नूर और अधीर चौधरी का असंतुष्ट खेमा इस गठबंधन की उम्मीदों की पलीता लगा सकता है। दूसरी तरफ, बीजेपी ने बंगाल में उपस्थिति दर्ज कराने की नीयत से अपने तमाम बड़े नेताओं का मैदान में उतारा है। उत्तरी बंगाल में बीजेपी की मौजूदगी इस बार वोट शेयर में अपना हिस्सा पिछली बार की तुलना में और लोकसभा चुनाव की तुलना में भी बढाएगी.यह मेरा दावा है।
कहानी का एक और एंगल है, दार्जिलिंग में गोरखाओं के रहनुमाओं का बहुकोणीय हो जाना। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, जीएनएलएफ और एवीएवीपी जैसे कई कोणों के उभरने से वोट बंटेंगे। ऐसी परिस्थिति में काडर आधारित पार्टी सीपीएम आपने सहयोगियों के साथ फायदा उठाने की पुरजोर कोशिश में है।न
दो दिन पहले दार्जिलिंग भी गया था।दार्जिलिंग जाने के लिए मशहूर सपनो की रानी वाली ट्रेन अब सिर्फ कार्सियांग से दार्जिलिंग के बीच चलती है। दूरी उससे थोडी़ ही ज्यादा जितनी आप किसी चिडियाघर में टॉय ट्रेन में चढटे है। सड़के इतनी खराब..कि बस रास्ते भर में तशरीफ का टोकरा टूट कर खंड खंड हो जाए। ममता इसी दार्जिलिंग को स्विट्ज़रलैंड बनाने का वादा कर रही हैं।
उधर, नक्सलबाडी़ में राहुल गांधी का भाषण निहायत ही बोदा था..इससे कांग्रेस कार्यकर्ता बेहद निराश भी थे। सीपीएम वाले इसे भी अपने चुनाव प्रचार में शामिल कर रहे हैं। पहाड़ में रस्साकशी को छोड़ दें तो भी सीपीएम को उत्तरी बंगाल में मात देना ममता के लिए टेडी़ खीर साबित होने वाला है। वजह ये भी कि 54 सीटों में से अपने एकमात्र विधायक अशोक मंडल को वह 5 दिन पहले ही पार्टी से निकाल बाहर कर चुकी है।
बाहरी उम्मीदवारों की वजह से तृणमूल के पुराने कार्यकर्ताओं में भी जरुरी जोश नहीं है। अकेली ममता क्या कर लेंगी..और कितने दिन टिकेंगी। उनके साथी वही हैं..सीपीएम, कांग्रेस वगैरह से निकाले गए लोग। वही लोग आज उनके साथी हैं जिनकी वजह से ममता ने कांग्रेस छोड़ी थी।
सीपीएम ने बंगाल में गद्दी बचाने के लिए वही रणनीति अपनाई है जो नीतिश ने बिहार के इस बार के चुनाव में अपनाई थी। यानी काम कम और और उसका प्रचार ज्यादा। सीपीएम के रणनीतिकार मानते हैं कि अगर लालू जैसे प्रतिद्वंद्वी को नीतिश ने जनता में सिर्फ उम्मीद जगाकर दोबारा सत्ता से बाहर कर दिया तो हम ममता को क्यों नही एक बार और सत्ता से दूर रख सकते। बंगाल के मुख्यमंत्री ने अपने नेताओं को जनता से अपनी भूलों के लिए माफी मांगने के भी निर्देश दिए है..ताकि एक चांस और मिल जाए।
हालांकि रैली में हुई भी़ड़ अमूमन वोटो में तब्दील नही होती। (अगर होती तो लोकसभा में कांग्रेस के 7 नहीं ज्यादा सांसद होते) ऐसे में तृणमूल और कांग्रेस की रैलियों में जुटी भीड़ पर मुझे जरा भी भरोसा नहीं। लोग हेलिकॉप्टर देखने जुट जाते हैं। उधर सीपीएम और गठबंधन ने ्पने कैडर को 2009 की तुलना में ज्यादा सक्रिय किया है । जाहिर है सीपीएम को वोट पूर्व सर्वे में हराने वाले लोगों ने इस जमीनी हकीकत को शामिल नही किया होगा।
मेरे हिसाब से सीपीएम को उत्तरी बंगाल की इन 54 में से कम से कम 38 सीटें हासिल होंगी। बीजेपी 3 सीटों पर उम्मीद लगाए बैठी है लेकिन शायद ही उसका खाता खुल पाए। तृणमूल को 5 से कम सीटें मिलेंगी। गोरखा नामधारी पार्टियों खासकर विमल गुरंग की जीजेएम अपनी पारी की शुरुआत करेगी। उसे शायद तीन सीटें हासिल हो जाएं। कांग्रेस 6 के आसपास रहेगी। उसे भीतरघात का सामना करना होगा।
बाकी तो जनता जनार्दन का हाथ है...जिसे चाहे सिंहासन पर बिठा दे।
ममता बनर्जी ने तय किए बड़े फासले, लेकिन दूसरी पांत में कोई नेता नहीं |
मेरा खयाल है कि ममता का शासन सीपीएम से ज्यादा उद्विग्न..और बेचैन होगा। ठीक अपनी बेचैन नेत्री की तरह। शासन अगर होगा ये तब की बात होगी, जनाब पहले दौर में 54 में से फिलहाल 41 पर वाममोर्चा, कांग्रेस गठबंधन 12 ौर एक सीट तृणमूल के पास है। वोट शेयर के हिसाब से देखें तो 47 फीसद वाममोर्चे को..27 फीसद कांग्रेस को..19 फीसद तृणमूल की मिला था।
आप 27-27 सीटों पर लड़ रहे तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को ज्यादा तूल मत दीजिए..। दीपा दासमुंशी, मौसम नूर और अधीर चौधरी का असंतुष्ट खेमा इस गठबंधन की उम्मीदों की पलीता लगा सकता है। दूसरी तरफ, बीजेपी ने बंगाल में उपस्थिति दर्ज कराने की नीयत से अपने तमाम बड़े नेताओं का मैदान में उतारा है। उत्तरी बंगाल में बीजेपी की मौजूदगी इस बार वोट शेयर में अपना हिस्सा पिछली बार की तुलना में और लोकसभा चुनाव की तुलना में भी बढाएगी.यह मेरा दावा है।
कहानी का एक और एंगल है, दार्जिलिंग में गोरखाओं के रहनुमाओं का बहुकोणीय हो जाना। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, जीएनएलएफ और एवीएवीपी जैसे कई कोणों के उभरने से वोट बंटेंगे। ऐसी परिस्थिति में काडर आधारित पार्टी सीपीएम आपने सहयोगियों के साथ फायदा उठाने की पुरजोर कोशिश में है।न
दो दिन पहले दार्जिलिंग भी गया था।दार्जिलिंग जाने के लिए मशहूर सपनो की रानी वाली ट्रेन अब सिर्फ कार्सियांग से दार्जिलिंग के बीच चलती है। दूरी उससे थोडी़ ही ज्यादा जितनी आप किसी चिडियाघर में टॉय ट्रेन में चढटे है। सड़के इतनी खराब..कि बस रास्ते भर में तशरीफ का टोकरा टूट कर खंड खंड हो जाए। ममता इसी दार्जिलिंग को स्विट्ज़रलैंड बनाने का वादा कर रही हैं।
उधर, नक्सलबाडी़ में राहुल गांधी का भाषण निहायत ही बोदा था..इससे कांग्रेस कार्यकर्ता बेहद निराश भी थे। सीपीएम वाले इसे भी अपने चुनाव प्रचार में शामिल कर रहे हैं। पहाड़ में रस्साकशी को छोड़ दें तो भी सीपीएम को उत्तरी बंगाल में मात देना ममता के लिए टेडी़ खीर साबित होने वाला है। वजह ये भी कि 54 सीटों में से अपने एकमात्र विधायक अशोक मंडल को वह 5 दिन पहले ही पार्टी से निकाल बाहर कर चुकी है।
बाहरी उम्मीदवारों की वजह से तृणमूल के पुराने कार्यकर्ताओं में भी जरुरी जोश नहीं है। अकेली ममता क्या कर लेंगी..और कितने दिन टिकेंगी। उनके साथी वही हैं..सीपीएम, कांग्रेस वगैरह से निकाले गए लोग। वही लोग आज उनके साथी हैं जिनकी वजह से ममता ने कांग्रेस छोड़ी थी।
सीपीएम ने बंगाल में गद्दी बचाने के लिए वही रणनीति अपनाई है जो नीतिश ने बिहार के इस बार के चुनाव में अपनाई थी। यानी काम कम और और उसका प्रचार ज्यादा। सीपीएम के रणनीतिकार मानते हैं कि अगर लालू जैसे प्रतिद्वंद्वी को नीतिश ने जनता में सिर्फ उम्मीद जगाकर दोबारा सत्ता से बाहर कर दिया तो हम ममता को क्यों नही एक बार और सत्ता से दूर रख सकते। बंगाल के मुख्यमंत्री ने अपने नेताओं को जनता से अपनी भूलों के लिए माफी मांगने के भी निर्देश दिए है..ताकि एक चांस और मिल जाए।
वाममोर्चे को व्यक्तिगत करिश्मे पर नहीं, कैडर पर भरोसा |
हालांकि रैली में हुई भी़ड़ अमूमन वोटो में तब्दील नही होती। (अगर होती तो लोकसभा में कांग्रेस के 7 नहीं ज्यादा सांसद होते) ऐसे में तृणमूल और कांग्रेस की रैलियों में जुटी भीड़ पर मुझे जरा भी भरोसा नहीं। लोग हेलिकॉप्टर देखने जुट जाते हैं। उधर सीपीएम और गठबंधन ने ्पने कैडर को 2009 की तुलना में ज्यादा सक्रिय किया है । जाहिर है सीपीएम को वोट पूर्व सर्वे में हराने वाले लोगों ने इस जमीनी हकीकत को शामिल नही किया होगा।
मेरे हिसाब से सीपीएम को उत्तरी बंगाल की इन 54 में से कम से कम 38 सीटें हासिल होंगी। बीजेपी 3 सीटों पर उम्मीद लगाए बैठी है लेकिन शायद ही उसका खाता खुल पाए। तृणमूल को 5 से कम सीटें मिलेंगी। गोरखा नामधारी पार्टियों खासकर विमल गुरंग की जीजेएम अपनी पारी की शुरुआत करेगी। उसे शायद तीन सीटें हासिल हो जाएं। कांग्रेस 6 के आसपास रहेगी। उसे भीतरघात का सामना करना होगा।
बाकी तो जनता जनार्दन का हाथ है...जिसे चाहे सिंहासन पर बिठा दे।
2 comments:
अच्छी रिपोटिंग की है यार , गुस्ताख ...
मैं कोई चुनावी समाचार नहीं पढ रहा हूँ। किन्तु आपकी रिपोर्टिंग मुझे कोई पन्द्रह-बीस बरस पहले की पत्रकारिता की सुखद यादों को लौटा रही है।
आप ऐसे ही बने रहिएगा। इस पत्रकारिता के दिन तेजी से लौट रहे हैं।
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