Tuesday, January 17, 2012

मेरी पहली कहानीः बोंसाई

वह बेहद खिसियाआ हुआ सा बैठा था। जिंदगी ने उसे कुछ नहीं दिया था। स्साली ये भी कोई जिंदगी है। आज बॉस ने हड़का दिया था उसे...। कुछ इस तरह कि भरी मीटिंग में बेहद अपमान-सा महसूस हुआ। 


यो उसे कभी अपमान महसूस होता नहीं, किसी भी तरह से ...कभी भी। स्कूल में भी कभी मास्साब ने कान उमेठा ( जो कि प्रायः उमेठा जाता था) तो भी उसे ऐसा महसूस नहीं हुआ था। 


वह चाहता है कि दुनिया में से कुछ चीजें हमेशा के लिए डिलीट हो जाएं। कुछ चीजों का अनडू भी करना चाहता है, लेकिन जनाब यह कोई कंप्यूटर का सॉफ्टवेयर तो है नहीं...जिंदगी है जिंदगी। 


जिंदगी भी स्साली अजीब शै है।


जियो तो गलीज, मरने की सोचो तो और भी गलीज। गोली से मरो तो तस्वीरों में पैंट उतरी हुई दिखती है, रेल से कट मरो तो ...ओह..उसे कुछ बेहद दर्दनाक सी तस्वीरों की याद हो आई। 


वह इतना भी बहादुर या कायर नहीं कि मर सके। घरवालों ने भी कभी उसे लायक नहीं समझा। जिंदगी को जीना या झेलना जो भी मुनासिब शब्द हो...आज ही कहीं पढा़ उसने, जिंदगी अजीब शै है। सच लिखा है।


अगर जिंदगी से कुछ डिलीट करना मुमकिन हो, तो वह पहले अपना नाम ही डिलीट करेगा। यह भी कोई नाम है..भला..? बनवारी लाल...मां-बाप
ने जरा भी नहीं सोचा कि तमाम आधुनिक नामों के बीच ये बनवारी लाल कैसे जिएगा...हुंह। नाम बदलने की कोशिशें..लेकिन नाकाम। 


तो सबसे पहले अपना नाम बदलूंगा। दफ्तर के सामने पार्क की बेंच पर बैठे हुए उसने सोचा। ...और इस कद का क्या करुं...5 फुट 2 इंच। दसवीं के बाद उसके दोस्त तकरीबन 6 फुटे हो गए...एक दो जो कम थे वो भी भारतीय मानकों पर खरे उतरे..और वो, जिसने हमेशा अमिताभ जितना लंबा होने की हसरत पाली थी. वह पांच फुट दो इंट पर अटक कर रह गया।


पार्क की करीने से कुतरी गई घास को अंगूठे से उखाड़ते हुए बनवारी लाल ने सोचा, इस बॉस को तो मैं गोली मार दूंगा। बिलकुल करीब से। मन में समस्या थी कि इसे पकडूं कहां। दफ्तर के सामने नीली वर्दी में 4 स्टार वाले गार्ड होते हैं। पकड़ा गया तो वहीं कूटकर कीमा कर देंगे। ...और समस्या तो रिवॉल्वर पाने की भी है।...वो कहां से मिलेंगे।

मारने से याद आया, बॉडीगार्ड में किस तरह सलमान खान आदित्य पंचोली को उछाल-उछाल कर मारता है, ठीक वैसे ही टांग दूंगा खूंटी पर बॉस को। बनवारी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। लेकिन जैसे ही उसे अपना शरीर याद आया, मुस्कुराहट काफूर हो गई। 


पसलियां तक दिखती हैं उसकी। नितम्बों पर मांस नहीं, इसलिए जींस नहीं पहनता। पुराने कपड़े। जिनकी रंगत तक उतर गई है। कूरिअर पहुंचाते-पहुंचाते चप्पलें घिस गईं है। दिल्ली जैसे शहर में क्या करना 8 हजार का। संगम विहार में रहता हूं, किसी तरह खा-पका कर बाकी के पैसे घर भेजने पड़ते हैं। 


बनवारी ने अपना चेहरा याद किया, उसे अपने बाप का चेहरा भी दिखा उसमें। आईने के सामने खड़ा हो तो खुद को गुस्सा आता है। आईना देखो तो हमेशा फिजिक्स के मास्टर साहब पुनू पंडित की याद आती है। अमरीश पुरी जैसी भारी आवाज वाले पुनू पंडित गणित भी पढ़ाते थे।


अंकगणित तो बनवारी ठीक-ठाक कर लेता था, लेकिन पिछली बेंट पर बैठने वाले के लिए बीजगणित और ज्यामिति दोनों ही दुश्मन सरीखे थे। संस्कृत में शब्दरुप धातु रुप उसे कष्ट देते और इतिहास में राजाओं के खानदानों के नाम याद रखना भारी था। पुनू पंडित ने भरी क्लास में कह दिया था, अगर बनवारी मैट्रिक में सैकिंड डिवीजन भी पास कर गया तो वह टीचरी छोड़ देगे।


...जारी

1 comment:

अजय कुमार झा said...

ई ज़ारी .........जुल्मी है जी।बनवारी लाल से मिलने फ़िर आएंगे , अरे संगम विहार नहीं यहीं पर अगली पोस्ट में